विमुक्त घुमंतू जनजातियों का ‘विमुक्ति दिवस’ और मीडिया की जीरो कवरेज!

31 अगस्त को विमुक्त घुमंतू एवं अर्ध घुमंतू जनजातियों (डिनोटिफाइड, नोमेडिक एंड सेमिनोमेडिक ट्राइब्स) ने अपना 72वां आजादी दिवस मनाया. हर साल की तरह इस साल भी इस अवसर पर हिंदी और अंग्रेजी के सभी राष्ट्रीय और स्थानीय अखबारों से डीएनटी समुदाय के विमुक्ति दिवस समारोह की कवरेज गायब रही. अंग्रेजी के किसी भी राष्ट्रीय अखबार ने देश की 20 करोड़ से ज्यादा की आबादी वाले समुदाय से जुड़े विमुक्ति दिवस को कवर करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. वहीं अंग्रेजी के साथ साथ हिंदी के लगभग सभी अखबारों का भी यही हाल रहा. गांव-सवेरा की ओर से विमुक्त घुमंतू समुदाय की कवरेज को लेकर की गई पिछले साल की रिपोर्ट में भी यही स्थिति सामने आई थी.

बता दें कि 31 अगस्त 1952 को इन समुदायों को क्रिमिनल ट्राइब एक्ट से आजादी मिली तो यह दिन विमुक्ति दिवस के रुप में मनाया जाने लगा. इस अवसर पर देश के अलग अलग हिस्सों में अनेक कार्यक्रम किए गए, जिनमें नेताओं से लेकर सामाजिक कार्यकर्ताओं ने हिस्सा लिया. पर 1 सितंबर के राष्ट्रीय अखबारों को टटोलने पर विमुक्त घुमंतू समुदाय के विमुक्ति दिवस समारोह से संबंधित कोई खबर नहीं दिखाई दी.

प्रगतिशील माने जाने वाले अंग्रेजी के एक भी अखबार में न तो 31 अगस्त को कोई लेख पढ़ने को मिला और न ही 1 सितंबर को विमुक्ती दिवस की कवरेज की गई. किसी भी राष्ट्रीय अखबार में विमुक्त घुमंतू जनजातियों के आजादी दिवस समारोह को लेकर एक कॉलम तक की खबर नहीं है. अंग्रेजी के जिन अखबारों को हमने टटोला उनमें द हिंदू, द इंडियन एक्सप्रेस, द टाइम्स ऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स अखबार शामिल रहें.

वहीं हिंदी के राष्ट्रीय अखबार जैसे जनसत्ता, दैनिक जागरण, अमर उजाला, हरि भूमि जैसे राष्ट्रीय दैनिक का भी यही हाल रहा. दैनिक भास्कर के लॉकल एडिशन को छोड़ दें तो इसमें भी राष्ट्रीय स्तर पर विमुक्ति दिवस समारोह की कोई कवरेज नहीं की गई. 2011 की जनगणना के अनुसार देश में इन जनजातियों की कुल आबादी 15 करोड़ थी यानी आज के हिसाब से करीबन 20 करोड़ की जनसंख्या के लिए भारतीय अखबारों में कोई जगह नहीं है.

वहीं सामाजिक न्याय की बात करने वाले वैकल्पिक मीडिया के नाम पर खड़े किए गए न्यू मीडिया के संस्थानों ने भी विमुक्ति दिवस पर कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. यू-ट्यूब से लेकर सोशल मीडिया के प्रगतिशील कहे जाने वाले संस्थान भी 20 करोड़ की आबादी पर एक शब्द नहीं बोल पाए.

डिनोटिफाइड ट्राइब्स के बीच काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता बालक राम ने पिछले साल मीडिया की कवरेज को लेकर भी यही बात कही थी और आज फिर उन्होंने अपनी बात को दोहराते हुए कहा, “मीडिया ने हमेशा से विमुक्त घुमंतू और अर्ध घुमंतू जनजातियों की अनदेखी की है. मीडिया से हमारे 20 करोड़ के समाज को कोई उम्मीद नहीं है. मीडिया को केवल टीआरपी और चटकारे वाली खबरों से मतलब है और हम मीडिया के लिए चटकारे देने वाले लोग नहीं हैं. भारत के मीडिया को पीड़ित और हाशिए के समाज से कोई मतलब नहीं है इसके उलट मीडिया हमारी जनजातियों को निशाना बनाने की खबरें छापता है. यह बहुत दुख की बात है कि करीबन 20 करोड़ की आबादी की बात आती है तो इस देश के अखबारों की स्याही सूख जाती है.”

31 अगस्त को 72वां विमुक्ति दिवस मनाएंगी 193 विमुक्त जनजातियां!

आजादी के बाद से लेकर अब तक पिछड़ेपन का दंश झेल रही विमुक्त घुमंतू जनजातियां हर साल की तरह इस बार भी 31 अगस्त को विमुक्ति दिवस मनाने जा रही हैं. करनाल के मंगलसेन सभागार में अखिल भारतीय विमुक्त घुमंतू जनजाति वैलफेयर संघ, हरियाणा की ओर से प्रेस कांफ्रेंस आयोजित करके यह जानकारी दी गई.प्रेस कांफ्रेंस में DNT संघ की ओर से 31 अगस्त को विमुक्ति दिवस मनाये जाने सम्बंधी जानकारी दी गई. संघ के अध्यक्ष मास्टर जिले सिंह ने बताया कि यह कार्यक्रम हमारे लिए एक त्योहार की तरह है इस बार समस्त विमुक्त घुमंतू समाज 72वां विमुक्ति दिवस 31 अगस्त को करनाल के मंगलसेन सभागार में धूमधाम से मानने जा रहा है.

वहीं अखिल भारतीय विमुक्त घुमंतू जनजाति वैलफेयर संघ के राष्ट्रीय महासचिव बालक राम ने विमुक्त घुमंतू जनजातियों का इतिहास बताते हुए कहा, “गोरिल्ला युद्ध में निपुणता के चलते अंग्रेजों के खिलाफ अभियान छेड़ने वाली इन जनजातियों पर दबिश डालने के लिए 1871 में अंग्रेजी हुकूमत ने जैराइम पेशा काला कानून (क्रीमिनल ट्राइब एक्ट) लगा दिया. इन जनजातियों पर काला कानून लगाकर, समाज में इनके प्रति नफरत फैलाने के मकसद से अंग्रेजों ने इनकों जन्मजात अपराधी घोषित कर दिया. कानून के तहत इन लोगों को गाँव व शहर से बाहर जाने के लिए स्थानीय मजिस्ट्रेट के यहां अपना नाम दर्ज करवाना अनिवार्य कर दिया गया था ताकि पता रहे कि ये लोग कहां, क्यों और कितने दिनों के लिए जा रहे हैं. सबसे पहले इस कानून को उत्तर भारत में लागू किया गया.”

बता दें कि 1876 में क्रीमिनल ट्राइब एक्ट को बंगाल प्रांत पर भी लागू किया गया और 1924 तक आते-आते इस कानून को पूरे भारत में रहने वाली सभी करीबन 193 जनजातियों पर थोप दिया गया. 15 अगस्त 1947 को देश तो आजाद हो गया लेकिन ये लोग आजादी के पांच साल बाद तक भी गुलामी का दंश झेलते रहे और गांव के नंबरदार और पुलिस थाने में हाजिरी लगाने के लिए मजबूर रहे. आखिरकार 1948 में बैठाई गई क्रीमिनल ट्राइब एक्ट इन्क्वारी कमेटी ने 1949-50 में सरकार को रिपोर्ट सौंपी जिसमें देश की ऐसी 193 जातियों को है 31 अगस्त सन 1952 को संसद में बिल पास होने के बाद इस दंश से मुक्त किया गया. उस दिन से इन जनजातियों को विमुक्त जाति अर्थात डिनोटिफाइड ट्राइब्स के नाम से जाना जाता है. 1871 में क्रिमिनल ट्राइब एक्ट लगने से लेकर 31 अगस्त 1952 तक यानी करीबन 82 साल तक आजाद भारत में भी ये लोग गुलामी का दंश झेलते रहे. पूरे देश में विमुक्त घुमंतू जनजाति की आबादी करीबन 20 से 25 करोड़ है इनमें से अधिकतर लोग आज भी खुले आसमान, पुलों के नीचे, सीवरेज के पाइपों, तिरपालों में अपना जीवन व्यतीत करने को मजबूर हैं.

वहीं विमुक्त एवं घुमंतू कर्मचारी वैलफेयर एसोसिएशन के अध्यक्ष रोशन लाल माहला ने बताया कि 31 अगस्त को विमुक्ति दिवस के मौके पर मुख्य अथिति के तौर पर हरियाणा बीजेपी प्रदेश प्रभारी बिप्लब देव वहीं विशिष्ट अथिति के तौर पर केंद्रीय स्वास्थ्य राज्य मंत्री एस पी बघेल, राज्यसभा सांसद रामचंद्र जांगड़ा, करनाल से लोकसभा सांसद भाटिया और राज्यसभा सांसद कृष्ण लाल पंवार शामिल रहेंगे. इसके अलावा शाहबाद से विधायक रामकरण, घरौंडा से विधायक हरविंद्र सिंह कल्याण, रतिया से विधायक लक्षमण नापा, इंद्री से विधायक रामकुमार कश्यप, नीलोखेड़ी से विधायक धर्मपाल गोंदर, करनाल से मेयर रेणु बाला गुप्ता और डीएनटी बॉर्ड के चैयरमेन डॉ बलवान सिंह भी कार्यक्रम में शामिल होंगे.

घुमंतू परिवारों पर बारिश का कहर, भूखे रहने को मजबूर!

देशभर में जारी भारी बारिश के कारण उत्तरी भारत में लोगों का जीवन अस्त-वयस्त हो गया है. इस बीच चंडीगढ़ से सटे पंजाब के मुल्लापुर गांव में विमुक्त घुमंतू परिवारों पर भी यह बारिश आफत बनकर टूटी है. गुज्जर बकरवाल समुदाय से जुड़े परिवार अपने पालतू पशुओं के साथ बरसाती नदी की तलहटी में जीवन बिता रहे हैं इस बीच एक हफ्ते से जारी भारी बारिश के कारण घुमंतू समुदाय के लोगों के पशु पानी के बहाव में फंस गए.

विमुक्त घुमंतू समुदाय से आने वाले करीबन 65 वर्षीय बुजुर्ग ने बताया, “हम लंबे समय से बरसाती नदी की तलहटी में अपने पशुओं के साथ रह रहे हैं. इस बीच बारिश के कारण नदी में पानी का तेज बहाव आया और हमारे पशु पानी के बहाव में फंस गये. पिछले दो तीन दिन से कुछ नहीं खा पाये हैं हम केवल गाय के दूध की चाय बनाकर गुजारा करने को मजबूर हैं. सरकार की ओर से हमारी मदद के लिए यहां तक कोई नहीं आया है”

इस तरह के मौसम में बेघर घुमंतू परिवारों को बड़ी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. देश में विमुक्त घुमंतू और अर्ध घुमंतू समुदाय की जनसंख्या 20 करोड़ के आस पास है. 2008 में आई रैनके कमीशन की रिपोर्ट के अनुसार देश में विमुक्त घुमंतू समुदाय के 50 फीसदी लोगों के पास अपने दस्तावेज और मकान नहीं है यहां तक की मकान बनाने के लिए जमीन भी नहीं है.

विमुक्त घुमंतू समुदाय की आबादी का एक बड़ा हिस्सा आज भी घुमंतू जीवन यापन करने को मजबूर हैं. देश के मौजूदा प्रधानमंत्री ने सत्ता में आने से पहले चुनाव में वादा किया था कि सत्ता में आने के बाद सरकार 2022 तक बेघर परिवारों को पक्के मकान देने का काम करेगी लेकिन पक्का मकान देना तो दूर विमुक्त घुमंतू समुदाय के लोगों को जमीन तक नहीं मिल पाई है.

केंद्र सरकार की SEED योजना विफल, विमुक्त, घुमंतू और अर्ध-घुमंतू समुदायों तक नहीं पहुंचा कोई लाभ!

सामाजिक न्याय और अधिकारिता पर बने संसदीय पैनल ने 260 से अधिक विमुक्त, घुमंतू और अर्ध-घुमंतू जनजातियों को अनुसूचित जाति,अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग की सूची में वर्गीकृत करने की “बहुत धीमी” प्रक्रिया पर केंद्र सरकार पर निशाना साधा है. इस साल फरवरी में शुरू की गई SEED (स्कीम फॉर इकोनॉमिक एम्पावरमेंट ऑफ डीएनटी) योजना के तहत सरकार इस समुदाय के लोगों तक लाभ पहुंचाने में विफल रही है.

SEED (स्कीम फॉर इकोनॉमिक एम्पावरमेंट ऑफ डीएनटी) योजना केंद्रीय सामाजिक न्याय मंत्री वीरेंद्र कुमार द्वारा विमुक्त घुमंतू समुदाय से जुड़े छात्रों के लिए प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए मुफ्त कोचिंग, स्वास्थ्य बीमा, आवास सहायता और आजीविका पहल प्रदान करने के उद्देश्य से शुरू की गई थी. इस योजना के लिए 200 करोड़ की राशि आवंटित की गई है जो वित्त वर्ष 2021-22 से वित्त वर्ष 2025-26 तक पाँच वर्षों में खर्च की जानी है.

अंग्रेजी अखबार ‘द हिंदू’ में छपी रिपोर्ट के अनुसार 26 दिसंबर तक, SEED योजना के तहत कुल 5,400 से अधिक आवेदन प्राप्त हुए हैं, जिनमें से एक भी आवेदन को मंजूरी नहीं दी गई और न ही कोई राशि स्वीकृत की गई है. इस शीतकालीन सत्र में संसद में पेश की गई एक रिपोर्ट में सामाजिक न्याय और अधिकारिता पर बने संसदीय पैनल ने कहा कि इसने पहले भी इन समुदायों के जल्द से जल्द और सटीक वर्गीकरण पर आवश्यक कार्रवाई करने बाबत विभाग की विफलता पर ध्यान दिलाया गया था.

वहीं सरकार के यह कहने के बाद कि काम चल रहा है और 2022 तक पूरा हो जाएगा, पैनल ने कहा कि प्रक्रिया अभी भी बहुत धीमी है. पैनल ने कहा कि,” घुमंतू जनजातियों के वर्गीकरण में देरी से उनकी परेशानियां और बढ़ेगी और वे उनके कल्याण के लिए चलाई गई योजनाओं का लाभ नहीं उठा पाएंगे.” पैनल ने आगे कहा कि उसे उम्मीद है कि सरकार इस कवायद में तेजी लाएगी और इसे समयबद्ध तरीके से पूरा करेगी और इसके लिए विस्तृत समयसीमा मांगी है.

वहीं संसदीय पैनल की टिप्पणी पर सामाजिक न्याय और अधिकारिता विभाग ने कहा, “भारतीय मानव विज्ञान सर्वेक्षण ने अब तक 48 डीएनटी समुदायों के वर्गीकरण पर रिपोर्ट प्रस्तुत की है. इसके अलावा, 267 समुदायों को अब तक वर्गीकृत नहीं किया गया है, एएनएसआई ने 24 समुदायों पर अध्ययन पूरा कर लिया है, जिनमें जनजातीय अनुसंधान संस्थान 12 समुदायों का अध्ययन कर रहे हैं. इसके अलावा, एएनएसआई 161 समुदायों पर अध्ययन को अंतिम रूप दे रहा है और 2022 के अंत तक शेष समुदायों (लगभग 70) का अध्ययन पूरा करने की उम्मीद है.”

देश में विमुक्त, घुमंतू और अर्ध-घुमंतू समुदाय से जुड़ी 1,400 से अधिक जनजातियों वाले 10 करोड़ से अधिक जनसंख्या वाले इस समूह से इदते आयोग ने 1,262 समुदायों को अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति/अन्य पिछड़ा वर्ग की सूची में वर्गीकृत किया था और 267 समुदायों को अवर्गीकृत छोड़ दिया गया था.

विमुक्त, घुमंतू और अर्ध-घुमंतू समुदायों के विकास और कल्याण बोर्ड (DWBDNC) के अधिकारियों ने इस बात पर प्रकाश डाला है कि वे SEED योजना के लिए आवेदनों की प्रक्रिया तब तक शुरू नहीं कर सकते जब तक कि राज्य और जिला स्तर की समीक्षा पूरी नहीं हो जाती.

यह योजना ऑनलाइन आवेदन और लाइव स्थिति-ट्रैकिंग के लिए एक प्रणाली के साथ शुरू की गई थी. हालांकि विमुक्त, घुमंतू और अर्ध घुमंतू समुदाय से जुड़े अधिकतर लोग ऑनलाइन सिस्टम को नेविगेट करने में असमर्थ हैं. अधिकारियों ने कहा, मंत्रालय और डीडब्ल्यूबीडीएनसी के अधिकारी आवेदकों को वेब पोर्टल पर साइन अप करने में मदद करने के लिए समुदाय के नेताओं के साथ देश भर में शिविर आयोजित कर रहे हैं. लेकिन जब तक उनके सटीक वर्गीकरण की कवायद पूरी नहीं हो जाती, तब तक आवेदन पर कार्रवाई नहीं की जाएगी.

विमुक्त घुमंतू जनजातियों का ‘विमुक्ति दिवस’ और अखबारों की जीरो कवरेज!

31 अगस्त को विमुक्त घुमंतू एवं अर्ध घुमंतू जनजातियों (डिनोटिफाइड एंड नोमेडिक ट्राइब्स) ने अपना 71वां आजादी दिवस मनाया. इस अवसर पर आज के हिंदी और अंग्रेजी के सभी राष्ट्रीय और स्थानीय अखबारों से डीएनटी समुदाय के आजादी दिवस समारोह की कवरेज गायब रही. अंग्रेजी के किसी भी राष्ट्रीय अखबार ने 20 करोड़ की आबादी से जुड़े विमुक्ति दिवस को कवर करने में दिलचस्पी नहीं दिखाई. इसके साथ ही हिंदी के लगभग सभी अखबारों का भी यही हाल रहा. गांव-सवेरा की ओर से विमुक्त घुमंतू समुदाय की कवरेज को लेकर की गई पिछले साल की रिपोर्ट में भी यही स्थिति सामने आई थी.

31 अगस्त 1952 को इन समुदायों को क्रिमिनल ट्राईब एक्ट से आजादी मिली तो यह दिन विमुक्ति दिवस के रुप में मनाया जाने लगा. इस अवसर पर देश के विभिन्न स्थानों पर कार्यक्रम भी किए गए, जिनमें नेताओं से लेकर सामाजिक कार्यकर्ताओं ने हिस्सा लिया. पर 1 सितंबर के अखबारों को टटोलने पर डीएनटी समुदाय के विमुक्ति समारोह से संबंधित कोई खबर नहीं दिखाई दी.

प्रगतिशील माने जान वाले अंग्रेजी के एक भी अखबार में न तो 31 अगस्त को कोई फीचर या आर्टीकल पढ़ने को नहीं मिला और न ही 1 सितंबर को विमुक्ती दिवस की कवरेज की गई. किसी भी अखबार में विमुक्त घुमंतू जनजातियों के आजादी दिवस समारोह को लेकर एक कॉलम तक की खबर नहीं है. अंग्रेजी के जिन अखबारों को हमने टटोला उनमें द हिंदू, द इंडियन एक्सप्रेस, द टाइम्स ऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स अखबार शामिल रहें.

वहीं हिंदी के अखबारों का भी यही हाल रहा. जनसत्ता, दैनिक जागरण, अमर उजाला, हरि भूमि जैसे राष्ट्रीय दैनिक अखबारों का भी यही हाल रहा. दैनिक भास्कर के लॉकल एडिशन को छोड़ दें तो इसमें भी राष्ट्रीय स्तर पर विमुक्ति दिवस समारोह की कोई कवरेज नहीं की गई. 2011 की जनगणना के अनुसार देश में इन जनजातियों की कुल जनसख्यां 15 करोड़ रही यानी आज के हिसाब से करीबन 20 करोड़ की जनसंख्या के लिए भारतीय अखबारों में कोई जगह नहीं है.

प्रेस विज्ञप्ति के आधार पर करनाल भास्कर की कवरेज.

वहीं सामाजिक न्याय की बात करने वाले वैकल्पिक मीडिया के नाम पर खड़े हुए न्यू मीडिया के संस्थानों ने भी विमुक्ति दिवस पर कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. यू-ट्यूब से लेकर सोशल मीडिया के प्रगतिशील कहे जाने वाले संस्थान भी 20 करोड़ की आबादी पर एक शब्द नहीं बोल और लिख पाए.

डिनोटिफाइड ट्राइब्स के बीच काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता बालक राम ने पिछले साल मीडिया की कवरेज को लेकर भी यही बात कही थी और आज फिर उन्होंने अपनी बात को दोहराते हुए कहा, “मीडिया ने हमेशा से विमुक्त घुमंतू और अर्ध घुमंतू जनजातियों की अनदेखी की है. मीडिया से हमारे 20 करोड़ के समाज  को कोई उम्मीद नहीं है. मीडिया को केवल चटकारे वाली खबरों से मतलब है और हम चटकारे देने वाले मेटिरियल नहीं हैं. भारत के मीडिया को पीड़ित और हाशिए के समाज से कोई मतलब नहीं है इसके उलट मीडिया हमारी जनजातियों को निशाना बनाने की खबरें छापता है. यह बहुत दुख की बात है कि करीबन 20 करोड़ की आबादी की बात आती है तो इस देश के अखबारों की स्याही सूख जाती है.”

करनाल में 31 अगस्त को मनाया जाएगा विमुक्ति दिवस!

करनाल के मंगल सेन सभागार में अखिल भारतीय विमुक्त घुमंतू जनजाति वैलफेयर संघ, हरियाणा द्वारा एक प्रेसवार्ता आयोजित की गई. प्रेसवार्ता में संघ की ओर से 31 अगस्त को विमुक्ति दिवस मनाये जाने सम्बंधी जानकारी दी गई. संघ के अध्यक्ष मास्टर जिले सिंह ने बताया कि यह कार्यक्रम हमारे लिए एक त्योहार की तरह है और इस बार समस्त विमुक्त घुमंतू समाज की ओर से 71वां विमुक्ति दिवस 31 अगस्त को करनाल के मंगल सेन सभागार में धूमधाम से मनाया जाएगा.

अध्यक्ष ने बताया 31 अगस्त को विमुक्ति दिवस के मौके पर मुख्य अथिति के तौर पर करनाल से सांसद संजय भाटिया और अति वशिष्ट अतिथि के तौर पर कुरुक्षेत्र से सांसद नायब सैनी और राज्यसभा सांसद कृष्ण पंवार शिरकत करेंगे. वहीं साथ ही शाहबाद से विधायक रामकरण, घरौंडा से विधायक हरविंद्र सिंह कल्याण, विधायक लक्षमण नापा, रतिया, इंद्री से विधायक रामकुमार कश्यप, नीलोखेड़ी से विधायक धर्मपाल गोंदर, करनाल से मेयर रेणु बाला गुप्ता और डीएनटी बॉर्ड के चैयरमेन डॉ बलवान सिंह वशिष्ट अतिथि के तौर पर कार्यक्रम में शामिल होंगे.

वहीं अखिल भारतीय विमुक्त घुमंतू जनजाति वैलफेयर संघ के राष्ट्रीय महासचिव बालक राम ने इन विमुक्त घुमंतू जनजातियों का इतिहास बताते हुए कहा, गोरिल्ला युद्ध में निपुणता के चलते अंग्रेजों के खिलाफ अभियान छेड़ने वाली इन जनजातियों पर दबिश डालने के लिए 1871 में अंग्रेजी हुकूमत ने जैराइम पेशा काला कानून (क्रीमिनल ट्राइब एक्ट) लगा दिया. इन जनजातियों पर काला कानून लगाकर, समाज में इनके प्रति नफरत फैलाने के मकसद से अंग्रेजों ने इनकों जन्मजात अपराधी घोषित कर दिया. कानून के तहत इन लोगों को गाँव व शहर से बाहर जाने के लिए स्थानीय मजिस्ट्रेट के यहां अपना नाम दर्ज करवाना अनिवार्य कर दिया गया था ताकि पता रहे कि ये लोग कहां, क्यों और कितने दिनों के लिए जा रहे हैं. सबसे पहले इस कानून को उत्तर भारत में लागू किया गया.

उसके बाद 1876 में क्रीमिनल ट्राइब एक्ट को बंगाल प्रांत पर भी लागू किया गया और 1924 तक आते-आते इस कानून को पूरे भारत में रहने वाली सभी करीबन 193 जनजातियों पर थोप दिया गया. 15 अगस्त 1947 को देश तो आजाद हो गया लेकिन ये लोग आजादी के पांच साल बाद तक भी गुलामी का दंश झेलते रहे और गांव के नंबरदार और पुलिस थाने में हाजिरी लगाने के लिए मजबूर रहे. आखिरकार 1948 में बैठाई गई क्रीमिनल ट्राइब एक्ट इन्क्वारी कमेटी ने 1949-50 में सरकार को रिपोर्ट सौंपी जिसमें देश की ऐसी 193 जातियों को है 31 अगस्त सन 1952 को संसद में बिल पास होने के बाद इस दंश से मुक्त किया गया. उस दिन से इन जनजातियों को विमुक्त जाति अर्थात डिनोटिफाइड ट्राइब्स के नाम से जाना जाता है. 1871 में क्रिमिनल ट्राइब एक्ट लगने से लेकर 31 अगस्त 1952 तक यानी करीबन 82 साल तक आजाद भारत में भी ये लोग गुलामी का दंश झेलते रहे. पूरे देश में विमुक्त घुमंतू जनजाति की आबादी करीबन 20 से 25 करोड़ है इनमें से अधिकतर लोग आज भी खुले आसमान, पुलों के नीचे, सीवरेज के पाइपों, तिरपालों में अपना जीवन व्यतीत करने को मजबूर हैं.

विमुक्त एवं घूमन्तु कर्मचारी वैलफेयर एसोसिएशन के प्रदेश अध्यक्ष रोशन लाल माहला ने विमुक्त घुमंतू जनजाति के लोगों से विनम्र अपील की है कि अपने बच्चों के उज्जवल भविष्य के लिए 31 अगस्त को अधिक से अधिक संख्यां में मुक्ति दिवस के महोत्सव में शामिल होकर अपने अधिकारों की लड़ाई में हिस्सा लें.

आजादी के 75 साल पूरे होने पर कहां खड़ा है विमुक्त घुमंतू समुदाय?

देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है. सरकार ने करोड़ों रूपये खर्च करके पूरे जोरो शोरों से ‘हर घर तिरंगा’ अभियान चलाया. लेकिन सरकार ने यह अभियान चलाकर देश के उन लोगों की दुखती रग पर हाथ रखने का काम किया है जिनके पास अपने मकान नहीं है. देश में विमुक्त घुमंतू और अर्ध घुमंतू समुदाय की जनसंख्या 20 करोड़ के आस पास है. 2008 में आई रैनके कमीशन की रिपोर्ट के अनुसार देश में विमुक्त घुमंतू समुदाय के 50 फीसदी लोग के पास अपने दस्तावेज अपने मकान नहीं है, मकान बनाने के लिए जमीन तक नहीं है.  

विमुक्त घुमंतू समुदाय की आबादी का एक बड़ा हिस्सा आज भी घुंमतू जीवन यापन करने को मजबूर है. देश के मौजूदा प्रधानमंत्री ने सत्ता में आने से पहले चुनाव में वादा किया था कि सत्ता में आने के बाद सरकार 2022 तक बेघर परिवारों को पक्का मकान देने का काम करेगी लेकिन पक्का मकान देना तो दूर विमुक्त घुमंतू समुदाय के लोगों को जमीन तक नहीं मिल पाई है. 

राजस्थान में विमुक्त घुमंतू समुदाय से आने वाली स्पेरा, कालबेलिया और हरियाणा की जंगम जाति के लोगों को कईं गांवों में अंतिम संस्कार के लिए जगह तक नहीं दी गई है. हालंहि में हरियाणा के पानीपत जिले के अदियाना गांव में समाधि स्थल तक जाने के लिये रास्ता नहीं दिया गया था. जंगम समाज के लोग पिछले दो दशक से समाधि स्थल का रास्ता मांग रहे हैं लेकिन आज तक इन लोगों की कोई सुनवाई नहीं हुई.

डीएनटी समूह के उत्थान के लिए आजादी से लेकर अब तक कईं आयोग और कमेटियां बनाई गईं. सबसे पहले 1949 में अय्यंगर कमेटी बनी. केंद्र सरकार ने अय्यंगर कमेटी के कुछ सुझावों को मानते हुए कईं सफारिशें लागू की. अय्यंगर कमेटी की रिपोर्ट के बाद 31 अगस्त 1952 को इन जनजातियों को डिनोटिफाई किया गया तभी से इन जनजातियों को डीएनटी (डिनोटिफाइड नोमेडिक ट्राइब्स) के नाम से जाना जाता है. इन जनजातियों को डिनोटिफाई तो किया गया लेकिन साथ ही इनपर हेब्चुएल ऑफेंडर एक्ट यानी आदतन अपराधी एक्ट थोप दिया गया.

इसके बाद 1953 में काकासाहब कालेलकर की अध्यक्षता में बने पहले पिछड़े आयोग ने भी विमुक्त घुमंतू जनजातियों को लेकर अपनी रिपोर्ट में कुछ सिफारिशें की थी. कालेलकर आयोग ने इन जनजातियों पर लगे आपराधिकरण के ठप्पे को हटाने की बात पर जोर देते हुए रिपोर्ट में कहा, ‘इन जनजातियों के साथ क्रिमिनल ट्राइब और एक्स-क्रिमिनल जैसे शब्द नहीं जोड़े जाने चाहिए. साथ ही इन जनजातियों को शहरों और गांवों में बसाने पर जोर देना चाहिए ताकि ये लोग भी अन्य लोगों के साथ घुल-मिल सकें.’

इसके बाद 1967 में बीएन लोकूर की अध्यक्षता में लोकूर कमेटी का गठन किया गया. लोकूर कमेटी की रिपोर्ट में यह बात सामने आई कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए बनाई गई योजनाओं का लाभ विमुक्त घुमंतू जनजातियों तक नहीं पहुंच रहा है. विमुक्त घुमंतू जनजातियों को योजनाओं का लाभ न मिलने की मुख्य वजह थी इनकी कम आबादी और इनका एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमना. अंत में लोकूर कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा, ‘इन जनजातियों को SC और ST से अलग करके एक विशेष समूह का दर्जा दिया जाना चाहिए और इन जनजातियों के उत्थान के लिए विशेष योजनाएं चलाई जानी चाहिए.’

2002 में जस्टिस वेंकेटेसलाह कमीशन ने रिपोर्ट में कहा, ‘इन जनजातियों पर अपराधी होने का ठप्पा लगाया गया है, वह गलत है. जस्टिस वेंकेटेसलाह कमीशन ने विमुक्त घुमंतू जनजातियों के लिए स्पेशल कमीशन बनाए जाने की सिफारिश की. 2002 की जस्टिस वेंकेटेसलाह कमीशन की सलाह पर 2015-16 में स्पेशल कमीशन का गठन किया गया. डीएनटी कमीशन के गठन के बाद कमीशन में नियुक्तियों को लेकर भी देरी की गई. वहीं कमीशन के गठन के 6 साल तक डीएनटी कमीशन और  डीएनटी जनजातियों की विकास येजनाओं के लिए केवल 45 करोड़ का बजट  दिया गया. इस बजट में से भी एक पैसा खर्च नहीं किया गया.

इसके बाद यूपीए सरकार में 2005 में रैनके कमीशन का गठन किया गया. बालकृष्णन रैनके को इस आयोग का अध्यक्ष बनाया गया. बालकृष्णन रैनके स्वयं विमुक्त घुमंतू जनजाति से आते हैं. रैनके कमीशन ने 2008 में अपनी रिपोर्ट केंद्र सरकार को सौंपी. रैनके आयोग की टीम ने तीन साल तक पूरे देश में घूम घूमकर इन जनजातियों से जुड़े आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक पहेलुओं पर सर्वे किए. विमुक्त घुमंतू जनजातियों से जुड़े अब तक के आयोग और कमेटियों में से रैनके आयोग ने बड़े स्तर पर सर्वे किए हैं. इन जनजातियों की राज्यवार संख्या बताने से लेकर अलग-अलग घुमंतू जनजातियों का रहन-सहन, जीविका के साधन, कला और संस्कृति पर भी काम किया है. रैनके कमीशन ने तीन साल में देश के अलग-अलग हिस्सों में जाकर वहां के इन जनजातियों के स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ताओं से मिलकर रिपोर्ट तैयार की. 

रैनके कमीशन ने घुमंतू जनजातियों को अलग से 10 फीसदी आरक्षण देने की सिफारिश की है. साथ ही शैक्षणिक उत्थान के लिए घुमंतू जनजातियों के बच्चों के लिए बॉर्डिंग स्कूल खोलने, विमुक्त घुमंतू परिवारों को जमीन देकर घर बनवाने और दस्तावेज बनाने की सिफारिश की है.

रैनके कमीशन ने अपने सर्वे में पाया कि विमुक्त घुमंतू जनजाति से जुड़े 90 फीसदी लोगों के पास अपने दस्तावेज और 58 फीसदी लोगों के पास रहने के लिए मकान तक नहीं हैं.  

सभी विमुक्त घुमंतू जनजातियों को अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग में सूचिबद्ध किया गया है जिसके चलते इन जनजातियों से जुड़े लोगों तक सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं पहुंच रहा है. जिसके चलते रैनके कमीशन ने इन जनजातियों के लिए अलग से 10 फीसदी आरक्षण की सिफारिश की थी.             

इसके बाद 2015 में एनडीए सरकार में इदाते कमीशन का गठन किया गया. भीखूराम इदाते को कमीशन का अध्यक्ष बनाया गया. भीखूराम इदाते आरएसएस के नेता हैं जो आरएसएस के जरिए महाराष्ट्र में विमुक्त घुमंतू जनजातियों के बीच काम करने का दावा करते हैं. इदाते कमीशन ने 2018 में केंद्र सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी. इदाते कमीशन की रिपोर्ट में भी विमुक्त घुमंतू जनजातियों के विकास के लिए सिफारिशें की गईं लेकिन इसी बीच इदाते कमीशन के काम करने के तरीके पर भी सवाल खड़े हुए. कईं मीडिया रिपोर्ट्स में इदाते कमीशन पर आरोप लगे की कमीशन ने जनजातियों के बीच जाकर कम और अन्य रिपोर्ट्स के आधार पर रिपोर्ट तैयार की है.

इस बीच सबसे दिलचस्प बात ये है कि रैनके कमीशन द्वारा डीएनटी को अलग से दस फीसदी आरक्षण देने की सिफारिश को इदाते कमीशन ने मानने से इनकार कर दिया और इदाते कमीशन की रिपोर्ट में इन जनजातियों के लिए दस फीसदी आरक्षण की मांग को आगे नहीं बढ़ाया गया है. एनडीए सरकार में गठिन इदाते आयोग की रिपोर्ट आए हुए चार साल से ज्यादा बीत चुका है लेकिन अब तक इस रिपोर्ट को चर्चा के लिए सदन में पेश नहीं किया गया है.

तमाम आयोग और कमेटियों के गठन और इनकी सिफारिशों के बाद भी विमुक्त घुमंतू जनजातियों के उत्थान के लिए कुछ काम नहीं हुआ.

खट्टर सरकार ने छीनी विमुक्त घुमंतू समुदाय के 40 लोगों की सरकारी नौकरी!

हरियाणा सरकार ने डिनोटिफाइड ट्राइब्स यानी विमुक्त घुमंतू जनजाति के अभ्यर्थियों को सरकारी नौकरियों में मिलने वाले पांच अतिरिक्त अंकों का लाभ पहले ही बंद कर दिया है अब इससे आगे बढ़ते हुए सरकार ने विमुक्त घुमंतू समुदाय के अभ्यर्थियों को एक ओर झटका दिया है. सरकार ने 2020 से पहले विमुक्त घुमंतू समुदाय के जिन अभर्थियों को सरकारी नौकरियों में अतिरिक्त पांच अंकों का लाभ दिया था उसको वापस लेते हुए विमुक्त घुमंतू समुदाय के बच्चों को सरकारी नौकरी से हटाकर घर बैठा दिया है. 

मामला 2019 की विज्ञापन संख्या 05/2019 से जुड़ी क्लर्क भर्ती का है. क्लर्क भर्ती में चयनित हुए उम्मीदवारों को सितंबर 2020 में जोइनिंग करवाई गई थी. इस भर्ती में पांच अंकों का अतिरिक्त लाभ लेकर भर्ती हुए विमुक्त घुमंतू समुदाय के भी कुछ उम्मीदवार थे. ये लोग पिछले करीबन दो साल से राज्य के अलग-अलग सरकारी विभागों में अपनी सेवाएं दे रहे थे लेकिन सरकार ने भर्ती को रिवाइज करने के नाम पर डीएनटी समुदाय से आने वाले अभ्यर्थियों को दिए गए पांच अंक वापस लेकर चयनित उम्मीदवारों को नौकरी से हटा दिया है.

दरअसल इस भर्ती के अंतिम परिणाम को रिवाइज करने का सिलसिला परीक्षापत्र की आंसर-की पर उठे सवाल से शुरू हुआ था. हरियाणा स्टाफ स्लेक्शन कमीशन की ओर से क्लर्क भर्ती की परीक्षापत्र की आंसर-की में तीन सवालों के जवाब गलत दिए गए थे जिसको लेकर कुछ अभ्यर्थी कोर्ट चले गए और कोर्ट ने भर्ती के परिणाम को दोबारा रिवाइज करने का आदेश दिया था.

कोर्ट ने अपने आदेश में विमुक्त घुमंतू समूह के अभ्यर्थियों को दिए गए पांच अतिरिक्त अंकों के लाभ पर कोई टिप्पणी नहीं की है लेकिन इसके बावजूद हरियाणा सरकार ने डीएनटी समूह के अभ्यर्थियों को दिए गए पांच नंबर वापस लेकर करीबन 40 अभ्यर्थियों को नौकरी से हटा दिया है. 

नौकरी से भारमुक्त किये जाने का नोटिस

इसको लेकर नौकरी से हटाए गये सभी क्लर्क मानसिक तनाव में हैं. नाम न बताने की शर्त पर एक कर्मी ने बताया, “कईं ऐसे भी कर्मचारी हैं जिन्होंने अन्य नौकरी छोड़कर क्लर्क की नौकरी ज्वाइन की थी. साथ ही कुछ ऐसे भी साथी हैं जिनके पूरे परिवार की जीविका का साधन केवल यह नौकरी ही थी और कुछ ऐसे भी साथी हैं जिनके पूरे परिवार में पहली सरकारी नौकरी लगी थी.”

वहीं क्लर्क की नौकरी से हटाए गए एक और अभ्यर्थी ने बताया, “समाज के सबसे नीचने पायदान पर खड़े विमुक्त घुमंतू समाज के बच्चों को सरकारी नौकरियों में लाने की सरकार की एक अच्छी पहल थी लेकिन यह हमारे साथ धोखा हुआ है. एक तो सरकार ने विमुक्त घुमंतू समाज के बच्चों को आने वाली भर्तियों में मिलने वाले पांच अतिरिक्त अंक बंद कर दिये हैं ऊपर से हमारी लगी लगाई पक्की नौकरी छीन ली. सरकार ने हमारे डीएनटी समाज के साथ धोखा किया है.”

डीएनटी समूह के अभर्थियों को दिये गए 5 नंबर

हरियाणा में करीबन 20 लाख की आबादी वाले डीएनटी समूह को लेकर सरकार ने इससे पहले भी अनेक वादे किये हैं लेकिन आज तक एक भी वाद पूरा नहीं किया गया है. वहीं पिछले विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने विमुक्त घुमंतू जातियों के बीच सरकारी नौकरियों में अतिरिक्त पांच अंकों का लाभ देने के वादे के साथ प्रचार-प्रसार किया था लेकिन चुनाव के बाद स्थिति यह है कि इसी समुदाय के करीबन 40 बच्चों को नौकरी से हटाकर घर बैठा दिया है.

वहीं इस मामले को लीड कर रहे और नौकरी से हटाए गए कर्मी ने बताया, “कोर्ट की ओर से क्लर्क भर्ती की रि-इवेल्युएशन के आदेश थे न कि भर्ती की एक्सरसाइज के लेकिन सरकार की ओर से इस पूरी भर्ती प्रक्रिया की रि-इवेल्युएशन करने की बजाए री-एक्सरसाइज कर दी गई है.” 

हरियाणा सरकार द्वारा डीएनटी बोर्ड बनाया गया है. डीएनटी बोर्ड के अध्यक्ष डॉ बलवान सिंह ने इस मामले पर कहा, “यह मामला हमारे संज्ञान में है और हम इस मसले पर मुख्यमंत्री मनोहर लाल से मुलाकात करके अपनी बात रखेंगे.”

सरकारी योजनाओं के लाभ से कोसों दूर हरियाणा का ‘कपडिया’ समुदाय

विमुक्त घुमंतु जनजातियों को विकास की मुख्यधारा से जोड़ने की सरकार की अनेक योजनाओं का हरियाणा के करनाल में रहने वाले कपडिया समुदाय तक कोई लाभ नहीं पहुंच रहा है. कपडिया समुदाय दशकों से सरकारी योजनाओं से वंचित है. हरियाणा में इस जनजाति की आबादी करीबन एक लाख है. लेकिन अब तक जाति के आधार पर इस समुदाय का वर्गीकरण नहीं किया गया है.

करनाल की शिव कॉलोनी में अपनी छोटी-सी परचून की दुकान चलाने वाले करीबन 65 साल के बुजुर्ग ने बताया, ‘हम तकरीबन 45 साल से यहां रह रहे हैं. सारी जिन्दगी करनाल शहर में गुजार दी लेकिन किसी भी सरकार ने हमें यहां का निवासी नहीं माना. आज तक हमारा जाति प्रमाण पत्र नहीं बना है’

वहीं करीबन 35 साल के सामाजिक कार्यकर्ता दयाराम ने बताया, ‘जाति प्रमाण पत्र नहीं बनने की वजह से हमारे बच्चे सरकारी योजनाओं के लाभ से वंचित हैं. हमारे समुदाय के बच्चों को सरकारी स्कूल से मिलने वाली कोई भी सुविधा नहीं मिल रही है. हमारे पास आधार कार्ड है, वोटर कार्ड भी है लेकिन जाति प्रमाण पत्र नहीं बनाए गए हैं.’

देश के दूसरे राज्यों में रहने वाले कपडिया जनजाति के लोग अनुसूचित जनजाति में आते हैं. दयाराम ने बताया, ‘उत्तरप्रदेश में कपडिया अनुसूचित जनजाति में दर्ज है. उत्तरप्रदेश में जाति प्रमाण पत्र होने के कारण कपडिया समुदाय के लोग सरकारी सुविधाओं का लाभ ले रहे हैं लेकिन हमारे जाति प्रमाण पत्र नहीं बनने के कारण हमें सरकारी सुविधाएं नहीं मिल रही हैं.  हमारे लोग डिपो के राशन में मिलने वाली छूट से भी वंचित हैं. राशन डिपो से हमें वो सुविधाएं नहीं मिल रही हैं जो दूसरे लोगों को मिलती हैं.’

दयाराम ने बताया हम जब अपना जाति प्रमाण पत्र बनवाने के लिये जाते हैं तो सरकारी लिस्ट में हमारी जाति का नाम नहीं होने की बात कह कर जाति प्रमाण पत्र बनाने से मना कर दिया जाता है. आगे उन्होने बताया, ‘बच्चों को सरकारी स्कूल में दाखिला देने में भी आनाकानी करते हैं. हमने कपडिया समाज के नाम से एक ट्रस्ट बनाई है जिसके लेटर पेड पर लिखकर देने के बाद बच्चों को सरकारी स्कूल में दाखिला दिया गया है.’

इस जनजाति की अपनी भाषा है जिसको कपडिया भाषा कहा जाता है. ये लोग आपसी बातचीत कपडिया भाषा में ही करते हैं. दायाराम ने बताया, ‘हमारे बच्चे बचपन से ही कपडिया भाषा बोलना सीख जाते हैं हमें अपनी भाषा पर गर्व है.’ कपडिया भाषा, भांतू भाषा से मिलती जुलती है भांतू विमुक्त जनजाति में आने वाली अन्य जनजातियों में बोली जाने वाली भाषा है. 

वहीं एक बुजुर्ग ने बताया, ‘हमारे पूर्वज उत्तर प्रदेश के कानपुर से चले थे और पशुओं का व्यापार करते थे. एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते थे और पशुओं को भी अपने साथ रखते थे. एक तरह से घुमंतू थे जो चलते-चलते यहां तक पहुंच गए और यहीं के हो गए.

वहीं करनाल लघु सचिवालय में संबंधित विभाग के अधिकारी ने हरियाणा में अऩुसूचित जाति में दर्ज जातियों की सूची दिखाते हुए कहा कि जब कपड़िया जाति इस सूची में दर्ज ही नहीं है तो ऐेसे में हम लोग जाति प्रमाण पत्र कैसे बना सकते हैं.’

करनाल में रह रहे कपडिया समाज के करीबन 70 परिवार अपनी पहचान के लिए वर्षों से इंतजार कर रहे हैं. करनाल के अलावा कुरुक्षेत्र अम्बाला, फरीदाबाद में भी कपडिया समुदाय के परिवार रहते हैं. कपडिया समुदाय के अधिकतर लोग अब कपड़े का काम करते हैं. ये लोग गांव-गांव जाकर कपड़ों के बदले प्लास्टिक से बना सामान बेचकर अपना गुजारा कर रहे हैं.

उजड़ने के डर में जीने को मजबूर गाजियाबाद के घुमंतू परिवार, धूमिल पड़ती स्थायी आवास की आस

सड़क के किनारे अपनी बांस और तिरपाल से बनी झोपड़ी के सामने बैठे 28 साल के सन्नी कोयले की गर्म भट्टी पर काम कर रहे हैं. लोहा पीटते-पीटते सन्नी ने कहा, “हमें किसी की जरूरत थी जो हमारी परेशानियों के बारे में लिख सके और हमारी समस्या सरकार तक पहुंचा सके.”

ऊपर निर्माणाधीन मेट्रो पुल, दोनों ओर सड़क से गुजरते ट्रैफिक के शोर-गुल के बीच मुश्किल से 15 फुट चौड़े, आधा किलोमीटर लंबे कच्चे रास्ते पर 50 घुमंतू परिवार पिछले कई दशकों से अपनी झोपड़ियों में रह रहे हैं. उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद शहर के गुलडेर गेट की गली नंबर पांच के पास रहने वाले इन घुंमतू परिवारों तक पहुंचते-पहुंचते सरकार की सारी योजनाएं दम तोड़ देती हैं.

लोहा पिटते हुए सवाल पूछने के लहजे में सन्नी कहते हैं, “हम लोग पिछले कई बरसों से यहां सड़क किनारे रहते हैं. हमारा भी कोई पक्का ठिकाना होना चाहिए. हम लोग क्या ऐसे ही भटकते रहेंगे. पांच साल हो गए कहते-कहते किसी ने कुछ नहीं किया. सरकार ने कहा था कि सबको पक्के मकान मिलेंगे. पक्के मकान तो दूर हमें तो एक गज जगह भी नहीं मिली.”

कोयले की भट्टी पर काम करते हुए सन्नी लोहार

इस बस्ती में रहने वाले अधिकतर लोगों के पास आधार कार्ड और राशन कार्ड जैसे आधारभूत दस्तावेज भी नहीं हैं. करीबन 65 साल की बुजुर्ग अंगूरी ने बताया, “मेरे पास आधार कार्ड है फिर भी पेंशन नहीं चालू करते. बोलते हैं कि पता स्थायी नहीं है. अब हमारे पास न जमीन है, न घर, तो स्थायी पता कहां से लाये.” सड़क किनारे रहने वाले इन 50 परिवारों में से केवल एक बुजुर्ग महिला की पेंशन आती है वो भी दिल्ली के पते पर. वो हर बार पेंशन लेने दिल्ली जाती हैं.

सड़क किनारे खुले में रहते हुए सबसे ज्यादा परेशानियों का सामना महिलाओं को करना पड़ रहा है. लगभग 55 वर्षीय महिला शर्पी ने बताया, “नगर निगम वाले हर महीने यहां से हटने के लिए कहकर जाते हैं. यहां से हटकर हम कहां जाएंगे. सरकार को हमारा भी कोई पक्का ठोर-ठिकाना बनाना चाहिए. सरकार की ओर से हमें कोई भी सुविधा नहीं मिली है. पीने का पानी एक किलोमीटर दूर से भरकर लाते हैं. यहां औरतों के लिए शौचालय नहीं है. शौच के लिए हमें बाहर जाना पड़ता है.”    

सड़क किनारे खेलने को मजबूर मासूम बच्चे

अपने कामधंधे के बारे में सन्नी बताते हैं, “अब हमारा काम भी खत्म हो चुका है. बाजार में नये-नये डिजाइन के बर्तन आ गए हैं, लोग उनको खरीदना पसंद करते हैं. हमारे बनाए हुए लोहे के बर्तन नहीं खरीदते. हमारे कुछ परिवार लोहे का काम छोड़कर दूसरे काम में भी लग गए हैं.”

85 साल की एक बुजुर्ग महिला ने बताया, “सब आते हैं बहका-बहका कर चले जाते हैं. फोटो खींचकर, कागज बनाकर ले जाते हैं लेकिन आज तक हुआ कुछ नहीं. हम वहीं के वहीं सड़क पर पड़े हैं. हमारे साथ परिवार में लड़कियां हैं. यहां से रात-बिरात को गलत आदमी आते-जाते हैं तो डर लगता है.” एक छोटे बच्चे को गोद में लिए खड़ी महिला ने कहा,“बारिश के मौसम में सड़क का सारा पानी हमारी झोपड़ियों में भर जाता है. पानी भरने की वजह से चूल्हा तक नहीं जलता. कई बार बच्चे भूखे-प्यासे रह जाते हैं.”

वहीं इस मामले पर जब गाजियाबाद विकास प्राधिकरण के अधिकारी से फोन पर बात की तो अधिकारी ने इन परिवारों को हटाने की जानकारी नहीं होने की बात कही.

ये लोग डीएनटी (डिनोटिफाइड नोमेडिक ट्राइब्स) से आते हैं. इस समुदाय को लेकर सरकर कितनी गंभीर है इसको सरकारी बजट से समझा जा सकता है. देशभर में करीबन 15 से 20 करोड़ की डीएनटी आबादी के लिए पिछले छह साल में महज 45 करोड़ का बजट दिया गया है यानी प्रधानमंत्री की एक विदेश यात्रा के खर्च से भी कम बजट. एक ओर प्रधानमंत्री के लिए दिल्ली में करोड़ों रुपये की लागत से नया पीएम आवास बन रहा है लेकिन पीएम द्वारा खुद शुरू की गई ‘प्रधानमंत्री आवास योजना’ बेघर लोगों तक नहीं पहुंच रही है.