नागरिकों का सैन्यकरण या सेना का नागरिकीकरण?

तीन साल पहले (2019) लगभग इन्हीं दिनों, मीडिया के कुछ क्षेत्रों में सावधानीपूर्वक तैयार की गई एक महत्वपूर्ण खबर जारी हुई थी जिसके तथ्यों के बारे में बाद में ज़्यादा पता नहीं चला. खबर यह थी कि आरएसएस (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) द्वारा अगले साल (2020) से एक आर्मी स्कूल प्रारम्भ किया जा रहा है जिसमें बच्चों को सशस्त्र सेनाओं में भर्ती के लिए प्रशिक्षित किया जाएगा. खबर में यह भी बताया गया था कि संघ की शिक्षण शाखा ‘विद्या भारती’ द्वारा संचालित यह ‘रज्जू भैया सैनिक विद्या मंदिर’ उत्तर प्रदेश में बुलन्दशहर ज़िले के शिकारपुर में स्थापित होगा जहां पूर्व सरसंघचालक राजेंद्र सिंह (रज्जू भैया) का जन्म हुआ था.

जानकारी दी गई थी कि शिकारपुर के इस प्रथम प्रयोग के बाद उसे देश के अन्य स्थानों पर दोहराया जाएगा. ’विद्या भारती’ द्वारा संचालित स्कूलों की संख्या तब बीस हज़ार बताई गई थी. देश में कई स्थानों पर सरकारी सैनिक स्कूलों के होते हुए अलग से आर्मी स्कूल प्रारम्भ करने के पीछे संघ का मंतव्य क्या हो सकता था स्पष्ट नहीं हो पाया. चूँकि मामला उत्तर प्रदेश से जुड़ा था, समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने आरोप लगाया था कि आर्मी स्कूल खोलने के पीछे संघ की राजनीतिक आकांक्षाएँ हो सकतीं हैं. अखिलेश ने इस विषय पर तब और भी काफ़ी कुछ कहा था.

पिछले तीन सालों के दौरान देश में घटनाक्रम इतनी तेज़ी से बदला है कि न तो मीडिया ने संघ के शिकारपुर आर्मी स्कूल की कोई सुध ली और न ही अखिलेश ने ही बाद में कुछ भी कहना उचित समझा. अब ‘अग्निपथ’ के अंतर्गत साढ़े सत्रह से इक्कीस (बढ़ाकर तेईस) साल के बीच की उम्र के बेरोज़गार युवाओं को ‘अग्निवीरों’ के रूप में सशस्त्र सेनाओं के द्वारा प्रशिक्षित करने की योजना ने संघ के आर्मी स्कूल प्रारम्भ किए जाने के विचार को बहस के लिए पुनर्जीवित कर दिया है.

आम नागरिक कारण जानना चाहता है कि एक तरफ़ तो सरकार अरबों-खरबों के अत्याधुनिक लड़ाकू विमान और अस्त्र-शस्त्र आयात कर सशस्त्र सेनाओं को सीमा पर उत्पन्न चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार करना चाहती है और दूसरी ओर आने वाले सालों में सेना की आधी संख्या अल्प-प्रशिक्षित ‘अग्निवीरों’ से भरना चाहती है. इसके पीछे उसका इरादा क्या केवल सेना में बढ़ते हुए पेंशन के आर्थिक बोझ को कम करने का है या कोई और वजह है? धर्म के आधार पर समाज को विभाजित करने के दुर्भाग्यपूर्ण दौर में योजना का उद्देश्य क्या नागरिक समाज का सैन्यकरण (या सेना का नागरिकीकरण) भी हो सकता है?

नागरिक समाज के सैन्यकरण का संदेह मूल योजना के इस प्रावधान से उपजता है कि साल-दर-साल भर्ती किए जाने वाले लगभग पचास हज़ार से एक लाख अग्निवीरों में से पचहत्तर प्रतिशत की चार साल की सैन्य-सेवा के बाद अन्य क्षेत्रों में नौकरी तलाश करने के लिए छुट्टी कर दी जाएगी. पच्चीस प्रतिशत अति योग्य ‘अग्निवीरों’ को ही सेना की सेवा में आगे जारी रखा जाएगा. चार साल सेना में बिताने वाले इन ‘अग्निवीरों’ को ही अगर बाद में निजी क्षेत्र और राज्य के पुलिस बलों में प्राथमिकता मिलने वाली है तो उन लाखों बेरोज़गार युवकों का क्या होगा जो वर्षों से सामान्य तरीक़ों से नौकरियां खुलने की प्रतीक्षा कर रहे हैं? सवाल यह भी है कि वे पचहत्तर प्रतिशत जो हर पाँचवे साल सेना की सेवा से मुक्त होते रहेंगे वे अपनी उपस्थिति से देश के नागरिक और राजनीतिक वातावरण को किस तरह प्रभावित करने वाले हैं? यह चिंता अपनी जगह क़ायम है कि सालों की तैयारी और कड़ी स्पर्धाओं के ज़रिए सामान्य तरीक़ों से लम्बी अवधि के लिए सेना में प्रवेश करने वाले सैनिक इन ‘अग्निवीरों’ की उपस्थिति को अपने बीच किस रूप में स्वीकार करेंगे!

भाजपा के वरिष्ठ सांसद और (योजना के विरोध में झुलस रहे) बिहार के पूर्व उप-मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने गर्व के साथ ट्वीट किया है ’नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने अपने पहले सात साल में 6.98 लाख लोगों को सरकारी सेवा में बहाल किया है और अगले 18 माह में दस लाख को नियुक्त किया जाएगा.’  जिस देश में बेरोज़गारी पैंतालीस वर्षों के चरम पर हो वहाँ यह दावा किया जा रहा है कि हर साल एक लाख को नौकरी दी गई ! मोदी सरकार ने वादा तो यह किया था कि हर साल दो करोड़ लोगों को रोज़गार दिया जाएगा. देश में बेरोज़गारों की संख्या अगर दस करोड़ भी मान ली जाए तो आने वाले अठारह महीनों में प्रत्येक सौ में सिर्फ़ एक व्यक्ति को नौकरी प्राप्त होगी. इस बीच नए बेरोज़गारों की तादाद कितनी हो जाएगी कहा नहीं जा सकता.

‘अग्निपथ’ योजना राष्ट्र को समर्पित करते हुए रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने दावा किया था कि प्रत्येक बच्चा अपने जीवन काल में कम से कम एक बार तो सेना की वर्दी अवश्य धारण करने की आकांक्षा रखता है. बच्चा जबसे होश सम्भालता है उसके मन में यही भावना रहती है कि वह देश के काम आए. योजना को लेकर राजनाथ सिंह का दावा अगर सही है तो उन तमाम राज्यों में जहां भाजपा की ही सरकारें हैं वहीं इस महत्वाकांक्षी योजना का इतना हिंसक विरोध क्यों हो रहा है? दुनिया के तीस देशों में अगर इस तरह की योजना से युवाओं को रोज़गार मिल रहा है तो यह काम सरकार को 2014 में ही प्रारम्भ कर देना था. डेढ़ साल बाद होने वाले लोकसभा चुनावों के पहले बेरोज़गारी पर इस तरह से चिंता क्यों ज़ाहिर की जा रही है?

समझना मुश्किल है कि एक ऐसे समय जब सरकार हज़ारों समस्याओं से घिरी हुई है, राष्ट्रपति पद के चुनाव सिर पर हैं, नूपुर शर्मा द्वारा की गई विवादास्पद टिप्पणी के बाद से अल्पसंख्यक समुदाय में नाराज़गी और भय का माहौल है, सरकारी दावों के विपरीत देश की आर्थिक स्थिति ख़राब हालत में है, नोटबंदी और कृषि क़ानूनों जैसा ही एक और विवादास्पद निर्णय लेने की उसे ज़रूरत क्यों पड़ गई होगी! क्या कोई ऐसे कारण भी हो सकते हैं जिनका राष्ट्रीय हितों के मद्देनज़र खुलासा नहीं किया जा सकता? योजना के पक्ष में जिन मुल्कों के उदाहरण दिए जा रहे हैं वहाँ न तो हमारे यहाँ जैसी राजनीति और धार्मिक विभाजन है और न ही इतनी बेरोज़गारी और नागरिक असंतोष.

देश में जब धार्मिक हिंसा का माहौल निर्मित हो रहा हो, धर्माध्यक्षों द्वारा एक समुदाय विशेष के ख़िलाफ़ शस्त्र धारण करने के आह्वान किए जा रहे हों, ऐसा वक्त बेरोज़गार युवाओं को सैन्य प्रशिक्षण प्रदान करने का क़तई नहीं हो सकता. नोटबंदी तो वापस नहीं ली जा सकती थी, विवादास्पद कृषि क़ानून ज़रूर सरकार को वापस लेने पड़े थे पर उसके लिए देश को लम्बे समय तक बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ी थी. सरकार को चाहिए कि बजाय योजना में लगातार संशोधनों की घोषणा करने के, बिना प्रतिष्ठा का मुद्दा बनाए तत्काल प्रभाव से उसे वापस ले लें हालाँकि उन्होंने ऐसा करने से साफ़ इनकार कर दिया है. योजना के पीछे मंशा अगर दूसरे मुल्कों की तरह प्रत्येक युवा नागरिक के लिए सैन्य प्रशिक्षण अनिवार्य करने की है तो फिर देश को स्पष्ट बता दिया जाना चाहिए.

टैब के बहाने सरकारी स्कूलों के हालात छुपाने की कोशिश

5 मई को हरियाणा के सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे विद्यार्थियों को टैब बांटे गए. यह शुरुआत खुद मुख्यमंत्री मनोहर लाल ने रोहतक से की. 5 लाख टैब बांटने का लक्ष्य हरियाणा सरकार ने रखा है. ऐसे में हमने हरियाणा के सरकारी स्कूलों की हालत जान ने की कोशिश की तो आंकड़े हैरान करने वाले हैं.

हरियाणा के सरकारी स्कूलों में लगभग 50 हजार शिक्षण और गैर शिक्षण पद खाली पड़े हैं, जिनमें से लगभग 40 हजार शैक्षिक पद हैं.

लगभग 60 स्कूल ऐसे हैं जो बिना किसी अध्यापक के चल रहे हैं. ऐसे स्कूल ज्यादातर प्राथमिक स्कूल हैं. इनमें से 30 स्कूल तो अकेले शिक्षा मंत्री के विधानसभा क्षेत्र जगाधरी से हैं.

सैंकड़ों स्कूल एक ही अध्यापक के भरोसे चल रहे हैं. अब एक अध्यापक बच्चों को पढ़ाएंगे या फिर सरकार के कागजी काम पूरा करेंगे? इस सवाल का जवाब या तो ऐसे स्कूलों में पढ़ रहे बच्चे दे सकते हैं या फिर वहाँ तैनात वो अकेले अध्यापक.

हरियाणा विद्यालय अध्यापक संघ के पूर्व महासचिव जगरोशन ने गाँव सवेरा को बताया, “398 स्कूल ऐसे हैं जिनमें प्रिंसिपल नहीं हैं, दसवीं तक के 112 स्कूल ऐसे हैं जिनमें हैड नहीं हैं. पहली से आठवीं तक के छात्र छात्राओं को किताबें शिक्षा विभाग की तरफ से दी जाती थी जो पिछले दो साल से नहीं दी जा रही हैं. सरकार ने किताब छापना ही बंद कर रखा है. गरीब बच्चों को किताबों, ड्रेस, स्टेशनरी आदि के लिए साल में एक बार 1300 से 1600 रुपए का इन्सेंटिव मिलता था जो पिछले दो साल से नही दिया जा रहा है.”

जगरोशन का कहना है कि वह तकनीक और ऑनलाइन पढ़ाई के खिलाफ नहीं हैं बल्कि सरकार तकनीक की आड़ में शैक्षिक पद कम करना चाह रही है. बुनियादी जरूरतों को सरकार पूरा नहीं कर रही है. बिना किताबों और बिना स्टाफ के कैसे पढ़ाई हो सकती है?

हरियाणा विद्यालय अध्यापक संघ ने 5 मई को कैथल में प्रैस वार्ता में बताया, “पहली से आठवीं के 15 लाख विद्यार्थियों को दो साल से किताब नहीं दी गई हैं. शिक्षा मंत्री से बार बार मिलने के बाद उन्होंने आश्वासन दिया था कि 1 अप्रैल को किताब विद्यार्थियों के हाथ में होंगी लेकिन एक महीने से ऊपर हो गया अभी तक किताब नहीं मिली हैं. पिछले 4 महीने से विद्यार्थियों को मिड डे मील नहीं दिया जा रहा, मिड डे मील बनाने के लिए स्कूलों में राशन ही नहीं है. प्रदेश में अनेकों स्कूल ऐसे है जहां बिजली के बिल न भरने की वजह से बिजली विभाग ने मीटर हटा लिए हैं, ऐसी भयंकर गर्मी में कैसे बिना बिजली के काम चलेगा? कुछ अध्यापकों ने अपनी जेब से बिजली बिल भरे हैं.”

अध्यापक संघ ने आरोप लगाया कि टैब को अध्यापक का विकल्प बनाया जा रहा है. यह सब शिक्षा को ऑनलाइन करने के लिए किया जा रहा है. राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में ऑनलाइन यूनिवर्सिटी की बात कही गई है. इसी मकसद को पूरा करने के लिए सरकार यह सब कर रही है और इसीलिए सरकार ने 12 शिक्षा चैनल को बढ़ाकर 200 कर दिया. अध्यापक संघ का आरोप है कि सरकार शिक्षा को बड़ी आबादी की पहूंच से बाहर कर रही है.

जगरोशन ने बताया कि सरकार आंगनवाड़ी केन्द्रों को प्ले वे स्कूल में बदलने की योजना बना रही है. पहली और दूसरी क्लास के विद्यार्थियों को सरकार इन प्ले वे स्कूलों के माध्यम से शिक्षा देगी. इन केन्द्रों में न तो कोई स्थायी स्टाफ है और जो स्टाफ है उसका पढ़ाने का न तो कोई अनुभव है, न कोई डिग्री और न ही ट्रेनिंग. आंगनवाड़ी केन्द्रों, में काम करने वाली कर्मचारी खुद लंबे समय से खुद को कर्मचारी का दर्जा दिलवाने के लिए कर संघर्ष कर रही हैं. ऐसे में यह कैसे कारगर होगा यह तो समय ही बताएगा.

हरियाणा के सरकारी स्कूलों में रिक्त पदों के बारे में क्या कहना है हरियाणा के शिक्षा मंत्री का ?

4 मार्च 2022 को महम से निर्दलीय विधायक बलराज कुंडू ने हरियाणा विधानसभा में प्रदेश के सरकारी स्कूलों में कार्यरत शिक्षकों, स्वीकृत पदों, खाली पदों पर भर्ती प्रक्रिया को लेकर शिक्षा मंत्री से सवाल पूछे थे. जिनका जवाब देते हुए शिक्षा मंत्री कंवर पाल गुर्जर ने बताया,“हरियाणा के सरकारी स्कूलों में 38476 शिक्षकों की जरूरत है. प्रदेश में पीजीटी के 15265, टीजीटी के 18236, मुख्याध्यापक के 1046 और जेबीटी-पीआरटी के 3929 पद खाली हैं, प्रदेश में 14491 सरकारी स्कूल हैं. इनमें शिक्षकों के 120966 पद मंजूर हैं. जबकि वर्तमान में जरूरत 122798 शिक्षकों की है. स्कूलों में नियमित शिक्षक 72188 ही हैं, जबकि 12134 अतिथि शिक्षक कार्यरत हैं. स्कूलों में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों के भी 1980 पद खाली चल रहे हैं. इनमें चौकीदार के 663, माली के 579, सफाई कर्मचारियों के 738 पद खाली चल रहे हैं.”

दैनिक जागरण की एक रिपोर्ट

शिक्षा मंत्री ने बताया था कि स्कूल शिक्षा विभाग 7631 पद भरने की तैयारी में है. पीजीटी के 3646 पद भरे जाएंगे. इनमें से 3331 शेष हरियाणा व 315 मेवात कैडर के होंगे.

टीजीटी के 3033 पदों की भर्ती होगी. इसमें से 1935 शेष हरियाणा व 1098 मेवात के होंगे. पीआरटी के 952 पदों को मेवात संवर्ग में भरा जाएगा. इनकी मांग विभाग ने हरियाणा कर्मचारी चयन आयोग को भेजी हुई है. अभ्यर्थी इस भर्ती के इंतजार में हैं.

इसके अलावा सरकार आउटसोर्सिंग पर भी नियुक्ति करेगी. हरियाणा कौशल रोजगार निगम के जरिये ये भर्तियां होंगी. सेवानिवृत्त शिक्षकों को भी पुनर्नियुक्ति दी जाएगी.

प्रदेश के सरकारी स्कूलों में खाली करीब 40 हजार पद को भरने के लिए इस सत्र से अनुबंध के तहत शिक्षकों को नियुक्त करने की तैयारी सरकार कर रही है. स्कूलों में इन अध्यापकों की नियुक्ति कौशल रोजगार निगम के माध्यम से की जाएगी.

पिछला सत्र में सेवानिवृत अध्यापकों के सहारे काम चलाया गया था लेकिन अब उन्हें भी हटा दिया गया है.

स्वामी अग्निवेश: भगवा और मानवता में लिपटा अनूठा संन्यासी

“अगर सबसे ज्यादा बार किसी का सामान सड़क पर फेंके जाने का विश्व रिकॉर्ड होगा तो वो मेरा ही होगा।” एक दिन यूं ही स्वामी अग्निवेश जी ने मजाकिया मूड में बोला था। कभी हरियाणा सरकार ने अपने पूर्व मंत्री और विधायक को गेस्ट हाउस से सड़क पर फेंका तो कभी केंद्र सरकार ने तो कभी जनता पार्टी के लोगों पार्टी दफ्तर से उनका सामान फेंका। जिस जगह उनका सामान फेंका गया था, बाद में वह जगह देश के मजबूर, दलित, आदिवासी, जातिगत, धार्मिक या लैंगिक भेदभाव के पीड़ितों का आश्रय स्थल बन गई। पिछले चार दशक से 7, जंतर-मंतर का एक छोटा-सा कमरा सिर्फ स्वामी अग्निवेश का दफ्तर या आशियाना ही नहीं है बल्कि देश के सभी छोटे-बड़े तमाम आन्दोलनों का केंद्र भी रहा है। कोई भी साधनहीन कार्यकर्ता आकर स्वामी जी के दफ्तर का बेहिचक इस्तेमाल कर सकता है। 

आंध्र प्रदेश के एक प्रतिष्ठित हिन्दू  ब्राह्मण परिवार में जन्म हुआ। घर में किसी प्रकार की कोई कमी नहीं थी। न आर्थिक और न सामाजिक। लेकिन मात्र चार वर्ष की उम्र में ही वेप्या श्याम राव के सिर से पिता का साया उठ गया। तत्पश्चात आगे के लालन-पालन के लिए उन्हें उनके नाना जी के पास भेज दिया। उनके नाना उस समय के राज्य ‘शक्ति’ जो कि अब छत्तीसगढ़ बन गया है, के दीवान थे। स्कूली शिक्षा खत्म करने के पश्चात वे अपनी बहन के पास कलकत्ता चले गए।  उनकी बहन का ससुराल भी एक प्रतिष्ठित और धनी परिवार था। 

स्वामी जी को पैसे या पद का मोह कभी नहीं हुआ और वो कलकत्ता में ही आर्य समाज के साथ जुड़ने लगे। अनेक सामाजिक गतिविधियों में हिस्सा लेते हुए उन्होंने कॉमर्स और विधि की शिक्षा पूरी की। पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी हालांकि उनसे उम्र में बड़े थे लेकिन कॉलेज में जूनियर थे। जब इन दोनों का बड़े सालों बाद आमना-सामना हुआ तो एक मजेदार बात निकलकर आई कि स्वामी जी ने ही सबसे पहले प्रणव मुखर्जी को कॉलेज में लाइब्रेरी सेक्रेटरी का चुनाव लड़ने के लिए प्रेरित किया था। स्वर्गीय प्रणव मुखर्जी को उनका बचपन का नाम अभी तक याद था। इस वार्तालाप का मैं खुद साक्षी हूं।

तो फिर आप हरियाणा कैसे आ गए? दक्षिण भारत का एक हिन्दू ब्राह्मण, सेंट जेवियर कलकत्ता के मैनेजमेंट विषय का प्राध्यापक हरियाणा की खड़ी बोली वाले क्षेत्र में कैसे चला गया?

इसका भी एक मजेदार किस्सा है। स्वामी जी (वेप्या श्याम राव) अपनी पढ़ाई के दौरान कलकत्ता के एक प्रतिष्ठित व्यापारी परिवार के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाते थे और उसी परिवार के साथ कश्मीर घूमने गए थे। कश्मीर में उस परिवार की किसी महिला को चोट लग गयी तो वो परिवार वापस कलकत्ता चला गया और स्वामी जी पुरानी दिल्ली के आर्य समाज के हाल में रहने लगे। यहीं पर उनकी मुलाकात आर्य समाज के एक स्वामी जी से हुई। उनकी प्रेरणा से वे हरियाणा के गांवों में घूमने के साथ-साथ झज्जर में एक युवा समाज सेवक से मिलने गए। दोनों की मुलाकात का ही परिणाम था कि इन दोनों युवाओं ने तय किया कि भगवा वस्त्र धारण किये जायें, ताकि समाज में सुधारों की गति को बढ़ाया जा सके। 

पर भगवा ही क्यों? आप स्वेत वस्त्रों या सामान्य वस्त्रों में भी समाज सेवा कर सकते थे। 

भगवा रंग त्याग का रंग है। भगवा रंग तपस्या का रंग है। भगवा रंग मान-सम्मान, मेरा-तेरा, लोभ लालच से दूर है।  भगवा पहनने से पहले अपना खुद का पिंडदान करना होता है। भगवा पहनने के बाद इस संसार में आपका कुछ नहीं है, लेकिन आप पूरे संसार के हो। बस इसी लिए भगवा पहना। 

स्वामी अग्निवेश और उनके गुरु भाई स्वामी इंद्रवेश ने हरियाणा में आर्य सभा नाम से राजनीतिक दल बनाया।  जयप्रकाश (जेपी) आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया, हरियाणा विधान सभा का चुनाव लड़ा, जीते और शिक्षा मंत्री बन गए।

कहते हैं कि ‘जोगी और जल’ जिस दिन रुक जायेगा वो गन्दा हो जाएगा, वो बदबू मारेगा और बीमारी पैदा करेगा। स्वामी अग्निवेश तो फिर अग्निवेश ही थे, उन्हें कौन-सी सीमा रोक सकती थी।

सरकार बदली, प्रधानमंत्री बदले, और उम्मीद थी कि देश की व्यवस्था भी बदलेगी। लेकिन देश की व्यवस्था तो जस की तस थी। स्वामी अग्निवेश जी हरियाणा सरकार के कैबिनेट मंत्री बने पर मात्र चार महीने में ही उकता गए।

इसी बीच फरीदाबाद में मजदूरों की एक रैली पर पुलिस ने गोली चलाई, जिसमें 10 मजदूरों की मृत्यु हो गई। स्वामी अग्निवेश ने पहले ये मुद्दा कैबिनेट के सामने उठाया और इस दुर्घटना की मजिस्ट्रेट से जांच की मांग की। (क्या आज संभव है कि कोई कैबिनेट मंत्री तो छोड़िये, एक विधायक-सांसद भी ऐसी मांग कर सकता हो) जब मुख्यमंत्री भजन लाल ने उनकी बात नहीं मांगी तो वो इस्तीफा देकर फरीदाबाद चले गए। भजन लाल सरकार ने ही सबसे पहली बार स्वामी अग्निवेश का सामान सरकारी गेस्ट हाउस से सड़क पर फेंक दिया था।

उसके बाद फरीदाबाद से ही स्वामी अग्निवेश ने पत्थर खदानों में व्याप्त बंधुआ मजदूरी प्रथा के खिलाफ आंदोलन किया, बंधुआ मुक्ति मोर्चा का गठन किया और इस मुद्दे पर पहली बार जनहित याचिका डाली। बंधुआ मुक्ति मोर्चा बनाम यूनियन ऑफ इंडिया नाम की इस जनहित याचिका ने देश में जनहित याचिकाओं के लिए दरवाजे खोल दिए।

विदित हो कि वर्ष 1976 में श्रीमती इंदिरा गांधी की सरकार बंधुआ श्रमिक प्रथा को खत्म करने के लिए कानून लाई थी और कुछ समय बाद ही सरकार ने घोषणा कर दी कि देश में अब कोई बंधुआ श्रमिक नहीं है।

कलकत्ता में अधिवक्ता सब्यसाची मुखर्जी जो कि बाद में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायधीश भी बने, उनके शागिर्द की हैसियत से सीखे कानूनी दावपेंच ही काम आये और  सुप्रीम कोर्ट ने बंधुआ मुक्ति मोर्चा के पक्ष में ऐतिहासिक निर्णय दिया। बंधुआ श्रमिकों को नए सिरे से परिभाषित किया गया। हालांकि बाद की सरकारों ने इस नई परिभाषा को मानने से लगभग इंकार कर दिया। वरना आज की परिस्थिति में देश का 75 प्रतिशत श्रमिक, कॉल सेंटर में काम करने वाले एक्सिक्यूटिव, सॉफ्टवेयर कंपनी के इंजीनियरों के साथ-साथ भारत सरकार और राज्य सरकारों में ठेका पद्धति से काम  पर लगे सभी लोग बंधुआ श्रमिक की श्रेणी में आते।

लेकिन पिछले 30 साल में तो देश में जो माहौल बना है वहां पर तो किसी को अपने खुद के मानवाधिकारों की चिंता नहीं है। सबको चिंता है तो धर्म की, जाति की, पाकिस्तान की, अम्बानी और अडानी की। वरना क्या कारण था कि झारखंड के एक छोटे से कस्बे के कुछ भटके नौजवान विश्व प्रसिद्ध मानवाधिकार कार्यकर्ता, भगवाधारी बुजुर्ग सन्यासी पर हमला करते। और कौन थे वो भटके हुए लड़के, निम्न मध्यम वर्ग परिवारों के, उनमे से अधिकांश दलित, आदिवासी थे। हमले की असली वजह आर्थिक थी।

आप किसी का विरोध भी करते हो और फिर उस व्यक्ति के पास चले भी जाते हो। ऐसा कैसे कर लेते हो? जो व्यक्ति आपको गाली देता है आप उससे भी हंसकर मिल लेते हो, ऐसा क्यों और कैसे कर लेते हो? ये प्रश्न मैंने उनसे एक बार पूछा था। तो उन्होंने कहा कि

“सन्यासी हूं, न किसी से राग न द्वेष। 

न किसी की बात का बुरा मानता हूं,

और न किसी को इस डर से कुछ बोलने से पीछे रहता हूं कि उसको बुरा लगेगा।”

आर्य समाज के सन्यासी थे, लेकिन आर्य समाज में आ रही बुराईयों के अलावा लगभग सभी धर्मों की खुलकर आलोचना भी करते थे। धार्मिक पाखंड, अन्धविश्वास, और अंधभक्ति के खिलाफ वे ताउम्र मुखर रहे। लेकिन जब बात आई कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ सभी धर्म गुरुओं को इकठ्ठा करने की, तो सबकी चौखट पर गए। जिसका विरोध करते थे उससे भी मिले और उसे भी समझाया कि कन्या रहेगी तो धर्म भी रहेंगे। परिणामस्वरुप वर्ष 2005 में दिवाली के दिन अर्थात लक्ष्मी पूजा के दिन टंकारा गुजरात से सर्वधर्म यात्रा शुरू हुई जो 22 दिन बाद अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में समाप्त हुई। मुझे गर्व है कि इस यात्रा के संचालन में मेरी भी अहम भूमिका थी।

स्वामी जी से जुड़ी ऐसी और भी बहुत-सी बातें हैं जिनके कई लोग साक्षी रहे होंगे। कैसे जनता पार्टी में चंद्रशेखर के खिलाफ पार्टी अध्यक्ष का चुनाव लड़ा, चुनाव हारे, अटल बिहारी बाजपेयी जी के खिलाफ कई बार लड़े और हारे, आर्य समाज ने अनेकों बार उन्हें आर्य समाज से ही निकाल दिया लेकिन उस निडर-कर्मयोगी ने कभी हार नहीं मानी।  वर्ष 2004 में दुनिया का सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार “दी राइट लाइवलीहुड अवार्ड’ – जिसे कि अल्टरनेटिव नोबल पुरस्कार भी कहा जाता है, सहित अनेक पुरस्कार मिले। लेकिन कोई पुरस्कार, कोई मान-अपमान स्वामी अग्निवेश को उनके पथ से डिगा नहीं पाया।

देश में सांप्रदायिक दंगा हो, जातिगत हिंसा, कश्मीरी अलगावादियों का आंदोलन या नक्सली आंदोलन, जब-जब सरकार या समाज को स्वामी जी की जरूरत पड़ी, उन्होंने देश हित में तत्काल जिम्मेदारी निभाई। अक्सर वार्ता करने या दो पक्षों के बीच जमीं बर्फ को तोड़ने का काम स्वामी अग्निवेश ने ही किया। आज भले ही अनेक प्रकार के धर्मगुरु खुद को मध्यस्थ की भूमिका में प्रतिस्थापित करने के लिए इच्छुक रहते हों, लेकिन देश-दुनिया में एक निष्पक्ष व्यक्ति के तौर पर जो सम्मान स्वामी अग्निवेश को प्राप्त था वो शायद ही किसी और को हासिल हो। मेरी नजर में अनेक मामलों में उनका सम्मान महात्मा गांधी के आसपास ही है। 

तो फिर बंधुआ श्रमिकों के आंदोलन का क्या हुआ?  और क्यों आप अपने संगठन को एक राष्ट्रीय या अंतराष्ट्रीय संगठन नहीं बना पाए जबकि आपके साथ काम कर चुके अनेक लोग विशेषकर कैलाश सत्यार्थी जी का संगठन तो आज अंतराष्ट्रीय बन चुका है, जबकि आपके पास तो अपने कार्यकर्ताओं को तनख्वाह देने के भी पैसे नहीं है। 

इस सवाल पर स्वामी जी अक्सर बैचेन हो जाते थे। मैंने संन्यास कोई  संगठन खड़ा करने या पुरस्कार पाने के लिए नहीं लिया था। मैं ईमानदारी से बंधुआ श्रमिकों की मुक्ति चाहता हूं। इस लड़ाई में लोग जुड़ेंगे, कुछ दिन साथ रहेंगे, फिर अपनी-अपनी परिस्थिति और स्वार्थानुसार निकल जायेंगे। मैं देश के बंधुआ श्रमिकों की मुक्ति चाहता हूं लेकिन इसके लिए विदेशी मदद नहीं लूंगा और न ही विदेशियों के सामने रोऊंगा। देश के लाखों मजदूरों के आर्थिक हितों को नुक्सान पहुंचाने के लिए मैं दुनिया भर में ये भी प्रचारित नहीं कर सकता कि भारत के कालीन (कार्पेट) में बच्चों का खून लगा हुआ है। जैसा कि अनेक लोग करते हैं और पुरस्कार और पैसा ले आते हैं। आर्थिक संसाधनों की कमी और अनेक बार शारीरिक हमले झेलने के बावजूद भी लगभग 2 लाख श्रमिकों को बंधुआ प्रथा से मुक्त करवाने का श्रेय तो स्वामी जी को जाता ही है। पत्थर खदानों से लेकर, कालीन और जरी उद्योग, ईंट-भट्टों से लेकर चूड़ी उद्योग में काम करने वाले बाल श्रमिक या बंधुआ मजदूरों को मुक्त करवाया। उनको उनके अधिकार दिलवाने के लिए संघर्ष किया।   

स्वामी अग्निवेश जीवन के अंत तक अपने सिद्धान्तों पर अडिग रहे। इस दौरान अनेक साथियों ने उन्हें छोड़ दिया।  मुझसे भी स्वामी जी को बहुत उम्मीद थी, लेकिन मैंने भी कुछ साल में ही उनको छोड़ दिया। हालांकि मेरा उनसे मिलना जुलना लगातर बना रहता था। अभी इसी वर्ष मार्च महीने में ही उनसे लंबी बातचीत हुई, अगले कई वर्षों के कार्यक्रम बनाये गए। मई में जयपुर में बंधुआ मुक्ति मोर्चा की राष्ट्रीय चौपाल आयोजित करने का कार्यक्रम था। स्वामी जी चाहते थे कि मैं सब कुछ छोड़कर बंधुआ मुक्ति मोर्चा का काम संभाल लूं। पर क्या ये मेरे जैसे साधारण पृष्ठभूमि के आम मनुष्य के लिए संभव है? घर परिवार की जिम्मेदारियां हो या सांसारिक सुखों का त्याग करना, इसके लिए बहुत बड़ा दिल चाहिए होता है, बहुत बड़ा काम है ये।   

बहुत कुछ है लिखने को, शब्द भी कम पड़ रहे हैं और भावनाएं भी कलम पर हावी हो रही हैं। सती प्रथा के खिलाफ स्वामी जी का आंदोलन, हिंदी भाषा के पक्ष में आप मुखर रहे, पशु क्रूरता के खिलाफ, दहेज प्रथा, धार्मिक-जातिगत और लैंगिग हिंसा के खिलाफ आपसे संघर्ष अतुलनीय हैं।

इसलिए उस कर्मयोगी महामानव को श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए सिर्फ इतना लिखूंगा कि स्वामी अग्निवेश जी मैं प्रयास करूंगा कि आपके बताये रास्ते पर चल सकूं। पूरी तरह अगर संभव नहीं भी हुआ तो भी जितना संभव होगा आपकी उम्मीदों पर खरा उतरने का प्रयास करूंगा। 

अलविदा स्वामी अग्निवेश, जिस दुनिया में ही रहोगे अपना आशीर्वाद बनाये रखना।

आपका

(प्रेम बहुखंडी) 

11 – 12 सितम्बर, 2020 

किसान को नकद मदद चाहिए, ‘डिरेगुलेशन’ का झुनझुना नहीं

हमारे किसानों को स्वतंत्र करें। वो कोविड-19 के प्रभाव को कम करने में मददगार साबित हो सकते हैं। यहां पर स्वतंत्र करने का मतलब है कि उनकी सप्लाई चेन की रुकावटों को दूर किया जाए। जी हां, वही ‘सप्लाई चेन’ जिसका उल्लेख प्रधानमंत्री जी ने 12 मई को दिए अपने भाषण में 9 बार किया था। इसके बाद, वित्त मंत्री ने ‘फार्म-गेट इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए 1 लाख करोड़ रु. के एग्री इन्फ्रास्ट्रक्चर फंड’ तथा आवश्यक वस्तु अधिनियम एवं एपीएमसी एक्ट में संशोधन के लिए एक ‘लीगल फ्रेमवर्क’ के निर्माण की घोषणा की। कागजों पर देखें, तो ये सही दिशा में उठाए गए साहसी कदम मालूम पड़ते हैं, लेकिन आज फैली महामारी के संदर्भ में इनसे किसानों को कोई राहत नहीं मिलेगी।

कृषि सेक्टर में जान फूंकने का मौजूदा सरकार का पिछला रिकॉर्ड काफी निराशाजनक रहा है। साल 2004-05 से 2013-14 के बीच भारत की औसत कृषि जीडीपी वृद्धि 4 प्रतिशत थी, जो 2014-15 से 2018-19 के बीच गिरकर 2.9 प्रतिशत रह गई।

कृषि देश का सबसे बड़ा निजी क्षेत्र है, लेकिन केंद्र सरकार ने अनेक पाबंदियां लगाकर कृषि क्षेत्र को पूरी क्षमता का इस्तेमाल करने से रोक रखा है। कृषि को नियंत्रित करने की मानसिकता दो ऐतिहासिक कारणों से है। पहला, जब तक हरित क्रांति ने हमें आत्मनिर्भर नहीं बनाया, तब तक भारत खाद्यान्न के लिए विकसित देशों पर निर्भर था। हमारे किसान सूखा, बारिश जैसी हर चुनौती का सामना करते हैं फिर भी हर साल खाद्यान्न उत्पादन में रिकॉर्ड वृद्धि हुई है। अनाज के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) सरकार का दायित्व है, ताकि किसानों को ‘कृषि उत्पादन व उत्पादकता में वृद्धि’ होने पर भी स्थिर व उचित दाम मिल सके।

दूसरा, भारत की राजनैतिक अर्थव्यवस्था में किसानों को उचित दाम 1960 के बाद एक महत्वपूर्ण मुद्दा बन गया क्योंकि बड़े किसान राजनैतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हो चुके थे। किसानों ने अपनी नवअर्जित राजनैतिक शक्ति का उपयोग सरकारी हस्तक्षेप से ऊंचे व ज्यादा स्थिर दाम पाने के लिए किया, जिससे भारत दुनिया में खाद्यान्न का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक बन गया। इस प्रकार सालों से खाद्यान्न आयात करने की भारत की समस्या का अंत हुआ। हमारे लिए रिकॉर्ड स्तर पर खाद्यान्न का उत्पादन गर्व की बात है क्योंकि इसके साथ इतिहास जुड़ा हुआ है। किसी भी कृषि रिपोर्ट में सरकार सबसे पहले इसी का उल्लेख करती है।

खेत से लेकर खाने की मेज तक कृषि सेक्टर पर वास्तविक नियंत्रण सरकार के हाथ में है। प्रतिबंधात्मक स्वामित्व, लीज़ एवं टीनेंसी कानून के रूप में सरकार का पूरा ‘कैपिटल कंट्रोल’ है। अपनी जमीन निजी लोगों को बेचने या किराये पर देने में किसान के सामने कई बाधाएं हैं। खाद-बीज के दाम और पानी-बिजली पर सब्सिडी पर सरकारी नियंत्रण के रूप में सरकार का ‘इनपुट कंट्रोल’ रहता है। कृषि उपकरणों एवं कलपुर्जों पर जीएसटी भी एक तरह का नियंत्रण ही है।

आवश्यक वस्तु अधिनियम कृषि उत्पाद का मूल्य और मात्रा को नियंत्रित करता है। एपीएमसी एक्ट कृषि उपजों की खरीद-फरोख्त की ऐसी व्यवस्था है, जिसमें एकाधिकार, बिचौलिये और कमीशनबाजी हावी है। दुनिया के साथ भारत के किसानों के स्वतंत्र व्यापार को बाधित करने के लिए अनेक व्यापारिक प्रतिबंध हैं।

किसानों के कल्याण के लिए काम करने वाले अनेक विशेषज्ञ एवं नीति-निर्माताओं का मानना है कि भारतीय कृषि को धीरे-धीरे खोला जाना चाहिए। देश की आधी आबादी की आर्थिक स्थिति और पूरे देश की खाद्य सुरक्षा कृषि पर निर्भर है। इसलिए इस सेक्टर के लिए एक स्थिर व संतुलित दृष्टिकोण की आवश्यकता है, न कि डिरेगुलेशन के झुनझुने की। वित्त मंत्री की हाल की घोषणाओं में न तो किसानों को स्वतंत्र करने के लिए कोई ठोस प्रगतिशील नीतिगत उपाय दिए गए और न ही किसी सुधार का रोड मैप है। इन घोषणाओं में सुर्खियां बटोरने के लिए केवल ‘पैकेज’ दिए जाने की औपचारिकता पूरी कर दी।

इसके अनेक कारण हैं। कृषि राज्य का विषय है। केंद्र सरकार ज्यादा से ज्यादा एक ‘मॉडल कानून’ बना सकती है, जिसे सभी राज्य अपनाएं। लेकिन इन्हें अपनाना है या नहीं, यह राज्यों के ऊपर है। केंद्र सरकार ने ‘लिबरलाईज़िंग लैंड लीज़ मार्केट्स एंड इंप्लीमेंटेशन ऑफ मॉडल एग्रीकल्चरल लैंड लीज़ एक्ट, 2016’ पारित करके ऐसा किया भी था। लेकिन यह कानून सत्ताधारी दल के नेतृत्व वाले राज्यों सहित बहुत कम राज्यों ने अपनाया। इसलिए ‘कैपिटल कंट्रोल’ हटाए जाने का उपाय सफल नहीं हो सका।

कृषि वस्तुओं की मार्केटिंग भी राज्य का विषय है। ‘केंद्र सरकार द्वारा किसान को अपना उत्पाद आकर्षक मूल्य में बेच पाने के पर्याप्त विकल्प प्रदान करने के लिए एक कानून बनाए जाने’ तथा ‘स्वतंत्र अंतर्राज्यीय व्यापार की बाधाओं’ को दूर किए जाने की घोषणा करते हुए, वित्तमंत्री जी यह बताना भूल गईं कि यह केवल एक मॉडल कानून होगा, जिसे अपनाना या न अपनाना राज्य के ऊपर निर्भर करेगा, जैसा कि लैंड लीज़ एक्ट में हुआ था।

केंद्र सरकार के लिए दूसरा विकल्प ‘समवर्ती सूची’ की वस्तुओं में आश्रय लिया जाना है, जिसमें ‘खाद्य सामग्री’, ‘रॉ कॉटन’, ‘रॉ जूट’ एवं ‘पशु आहार’ सूचीबद्ध हैं। उसके लिए भी संविधान के अनुच्छेद 301 के तहत एक और कानून को पारित करना होगा।

वित्तमंत्री ने घोषणा की है कि किसानों को प्रोसेसर्स, एग्रीगेटर्स, बड़े रिटेलर्स, एक्सपोर्टर्स आदि से जुड़ने के लिए एक सुविधाजनक कानूनी ढांचा बनाया जाएगा। यह कागज पर बहुत अच्छा लगता है। लेकिन यह एक विस्तृत नीतिगत घोषणा है, जिसका कोई विवरण, रोडमैप या संस्थागत फ्रेमवर्क नहीं दिया गया है।

देश में फैली इस महामारी के दौरान, संसद या इसकी स्टैंडिंग कमेटी वीडियो कॉन्फ्रेंस के माध्यम से भी काम नहीं कर रही हैं। कोई संवैधानिक निगरानी नहीं है। कोई भी विधेयक जन परामर्श के लिए नहीं रखा गया। इसलिए अध्यादेश लाने से कोई भी उद्देश्य पूरा नहीं होगा। सरकार को संसद के मानसून सत्र में संपूर्ण कानूनी प्रारूप प्रस्तुत करना होगा। यह राज्यों से परामर्श लिए नहीं हो सकेगा। बिना संस्थागत प्रारूप के आनन-फानन में नीति थोपने का परिणाम वही होगा, जो बिना योजना के त्रुटिपूर्ण जीएसटी लागू करने का हुआ है।

‘प्राईस एवं ट्रेड कंट्रोल’ को आंशिक रूप से हटाया जाना भी आधा अधूरा उपाय है। कृषि को नियंत्रण मुक्त करने के लिए संपूर्ण ढांचा बदलना होगा। साथ ही लागत और पूंजी संबंधी नियंत्रणों को समाप्त करना होगा। इसके लिए काफी व्यापक योजना और संस्थागत ढांचे की जरूरत होगी। केंद्र सरकार द्वारा प्रारंभ की गई ई-नाम मंडियां बुनियादी ढांचे की योजना के अभाव में विफल साबित हुई हैं।

कोविड-19 के संकट में जब अर्थव्यवस्था संकट में है और किसानों को लागत के लिए पैसे की जरूरत है, ऐसे में उन्हें पुख्ता मदद दिए बिना अधूरी स्वतंत्रता देना उनका उपहास उड़ाने के बराबर है। अच्छा तो यह होता कि पहले उन्हें आर्थिक सहयोग दिया जाए और उसके बाद संस्थागत सुधारों की शुरुआत की जाए।

(लेखक तक्षशिला इंस्टीट्यूट, बैंगलोर में पब्लिक पॉलिसी का अध्ययन कर रहे हैं। लेख में अभिव्यक्त किए गए विचार उनके अपने हैं। लेख का इंग्लिश रूपांतरण सीएनएन न्यूज़18 में प्रकाशित हुआ था।)

 

न्यू इंडिया में दो आत्महत्याएं और एक सबक

23 मई को जब 17वीं लोकसभा के नतीजे देश को चौका रहे थे, तभी मुंबई से एक युवा डॉक्टर की खुदकुशी की खबर भी आई। एक तरह जहां नरेंद्र मोदी और भाजपा की भारी जीत को जातियों की पकड़ कमजोर पड़ने का सबूत बताया जा रहा था, वहीं एक और युवा प्रतिभा जातिगत उत्पीड़न का शिकार हो गई। यह घटना हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी के छात्र रोहित वेमुला की याद दिलाती है। ऐसी घटनाएं बताती हैं कि देश के उम्दा संस्थानों में काम करने वाले लोग भी निजी जिंदगी में कितने रूढ़िवादी और जातिवादी हैं। कमजोर सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि से आने वाले छात्रों को टॉप संस्थानों में प्रवेश पाने के बावजूद संदेह की नजर से देखा जाता है। उनकी मैरिट पर सवालिया निशान लगाया जाता है।

मुंबई के एक सरकारी मेडिकल कॉलेज में पोस्ट ग्रेजुएट की छात्रा और रेजीडेंट डॉक्टर पायल तडवी की आत्महत्या के मामले में तीन सीनियर रेजिडेंट डॉक्टरों भक्ति मेहर, हेमा आहुजा और अंकिता खंडेलवाल को गिरफ्तार किया गया है। ये तीनों पायल की सीनियर हैं और उसके साथ हॉस्टल में रहती थी। जातिगत आधार पर किसी महिला के उत्पीड़न में महिलाओं का शामिल होना और भी ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण है। जबकि सभी समुदायों की स्त्रियां समान रूप से पितृसत्ता की सताई हुई हैं, फिर भी दलित-पिछड़ी महिलाओं के उत्पीड़न में सवर्ण महिलाएं बढ़-चढ़कर शामिल रहती हैं। इसे परवरिश या माहौल का असर मान सकते हैं लेकिन समूचे नारी विमर्श के लिए जटिल प्रश्न है।

पायल की मां आबेदा तडवी ने आरोप लगाया है कि तीनों सीनियर रेजीडेंट डॉक्टर उनकी बेटी को जातिगत आधार पर प्रताड़ित किया। वे उसके खिलाफ जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल करती थी। इस उत्पीड़न से तंग आकर पायल ने फांसी लगाकर जान दे दी। मुंबई पुलिस ने इस केस में अत्याचार-विरोधी, रैगिंग-विरोध और आईटी ऐक्ट के तहत मामला दर्ज किया है। फिलहाल, पूरा मामला जांच के दायरे में है। यह हत्या है या आत्म हत्या, इसे लेकर भी संदेह है।

सांस्थानिक नाकामी

इस घटना ने उच्च शिक्षण संस्थानों में व्याप्त जातिगत भेदभाव को एक बार फिर उजागर किया है। इस तरह का यह पहला मामला नहीं है। शिक्षा, रोजगार और बाजार से पैदा अवसरों के चलते दलित-पिछड़ों और आदिवासियों को जैसे-जैसे आगे बढ़ने के अवसर मिल रहे हैं, पुरानी पूर्वाग्रह और टकराव नए-नए रूपों में सामने आ रहे हैं। इन टकरावों की ताजा मिसाल है डॉ. पायल की आत्महत्या! हैरानी की बात है कि संवैधानिक प्रावधानों और कानूनी उपायों के बावजूद देश के टॉप संस्थान जातिगत भेदभाव रोकने में नाकाम हो रहे हैं।

डॉ. पायल पोस्ट ग्रेजुएट मेडिकल की छात्रा थी और हॉस्टल में उसके साथ होने वाले उत्पीड़न के काफी भयावह ब्यौरे सामने आ रहे हैं। कैसे उस पर जातिगत छींटाकशी की जाती थी, वाट्स एप ग्रुप में मजाक बनाया जाता था और रैगिंग होती थी, ये बातें मीडिया के बड़े हिस्से ने रिपोर्ट की हैं। पता चला है कि कॉलेज प्रशासन को लिखित शिकायत के बावजूद डॉ. पायल को लगातार परेशान किया जाता रहा। पायल की मां आबेदा तडवी का कहना है कि पायल के साथ होने वाले बुरे बर्ताव को उन्होंने अस्पताल में अपने इलाज के दौरान खुद भी महसूस किया था।

देश के उम्दा शिक्षण संस्थानों में जगह बनाने के बावजूद दलित, आदिवासी और पिछड़ी पृष्ठभूमि से आने वाले छात्रों को किस प्रकार के मानसिक उत्पीड़न और भेदभाव का सामना करना पड़ता है, यह किसी से छिपा नहीं है। जबकि आम धारणा है कि शिक्षित होने के साथ लोग जातिगत भेदभाव और छुआछूत जैसी बुराईयों से लोग ऊपर उठ जाएंगे। लेकिन उच्च शिक्षण संस्थान इस मामले में समाज के बाकी हिस्सों से अलग या बेहतर साबित नहीं हो रहे हैं।

आरक्षित सीटों पर प्रवेश पाने वाले उम्मीदवारों को जातिवादी टिप्पणियों का सामना करना पड़ता है। उन्हें बात-बात में नीचा दिखाने की कोशिश की जाती है। उनकी प्रतिभा पर सवाल खड़ा किया जाता है। इस तरह अकादमिक जगत के सर्वोच्च शिखरों पर भी जातिगत पूर्वाग्रहों की जकड़ कमजोर नहीं पड़ती। जिस आरक्षण को बरसों के भेदभाव को मिटाने का माध्यम माना गया था, वो एक नए भेदभाव का कारण बना दिया गया है। रोहित वेमुला और पायल तडवी इन दोनों ही मामलों में एक चीज समान है। दोनों के संस्थान उनका बचाव करने, उनकी उम्मीदों पर खरा उतरने में नाकाम रहे। जिन संस्थानों पर मानवीय मूल्यों को बचाने का जिम्मा था, वे अपने छात्रों को जातिगत भेदभाव से भी नहीं बचा पाए।

नए संपर्क, नए टकराव

गौर करने वाले बात यह भी है कि बरसों से एक-दूसरे से दूर रहे समुदायों के लोग शिक्षा, रोजगार या आर्थिक गतिविधियों के कारण और लोकतंत्र व बाजार के दबाव में जैसे-जैसे नजदीक आ रहे हैं, उनके बीच बरसों से दबा द्वेष और टकराव भी उभर रहा है। इस तरह जातियों की पकड़ कुछ ढीली पड़ने और जातीय टकराव बढ़ने का सिलसिला साथ-साथ जारी है। इन टकरावों से बचने-बचाने के पुख्ता उपाय न तो शिक्षण संस्थानों के पास हैं और न ही कार्यस्थलों  पर दिखाई पड़ते हैं।

जातिगत उत्पीड़न के अलावा भारत में छात्रों की खुदकुशी अपने आप में एक बड़ी समस्या है। डॉ. पायल के मामले में ये दोनों समस्याएं सम्मलित रूप से सामने आती हैं। एनसीआरबी के साल 2015 के आंकड़ों के मुताबिक, भारत में हर घंटे कोई न कोई छात्र खुदकुशी कर लेता है। लैंसेट की 2012 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत 15 से 29 साल के नौजवानों की सर्वाधिक आत्महत्या दर वाले देशों में शुमार है।

उच्च संस्थान में जातिगत भेदभाव

आश्चर्य की बात है कि तमाम कानूनी और संवैधानिक उपायों और समाज के कथित तौर पर आधुनिक होने के बावजूद जाति के आधार पर दलित, आदिवासी और पिछड़ों के उत्पीड़न की घटनाएं थमने का नाम नहीं ले रही हैं। जबकि दूसरी तरफ जातियों के बंधन टूटने के दावे किये जा रहे हैं। आरक्षण के खिलाफ भी जातिगत भेदभाव खत्म होने का तर्क अक्सर दिया जाता है। जबकि सच्चाई यह है कि देश में हर 16 मिनट में दलितोंं के खिलाफ कोई न कोई अपराध घटित होता है। दलितों की पिटाई के वीडियो अब आम हो चुके हैं। इसके पीछे कानून का खौफ न होना और समूचे समुदाय को डराने की मंशा नहीं तो और क्या है?

यूपीए सरकार के दौरान सुखदेव थोराट कमेटी ने एम्स में जातिगत भेदभाव और उत्पीड़न कलई खोल दी थी। थोराट समिति को एम्स के 72 फीसदी दलित और आदिवासी छात्रों ने बताया कि वे जातिगत भेदभाव का शिकार हैं। 76 फीसदी छात्रों ने बताया कि परीक्षा में छात्रों का मूल्यांकन भी उनकी जाति से प्रभावित होता है। प्रोफेसर उनके प्रति उदासीन रहते हैं और जाति की वजह से उनकी अनदेखी करते थे। दलित और आदिवासी शिक्षकों का सही प्रतिनिधित्व न होना भी इसकी बड़ी वजह है।

जाति के अलावा कमजोर अंग्रेजी और कम्युनिकेशन स्किल की वजह से भी कैंपसों में कमजोर पृष्ठभूमि वाले छात्रों को मानसिक उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है। क्लासरूम से लेकर हॉस्टल और आपसी मेलजोल में जातिगत भेदभाव कई रूपों में सामने आता है। कुछ साल पहले यूजीसी ने विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में समान अवसर सेल स्थापित करने की गाइडलाइन जारी की थी लेकिन ज्यादातर मेडिकल कॉलेज यूजीसी के दिशानिर्देशों को लेकर बेपरवाह बने रहे।

दलित-पिछड़ों पर बढ़ते हमले 

डॉ. पायल की खुदकुशी को देश में नफरत के माहौल और दलित उत्पीड़न की बढ़ती घटनाओं से जोड़कर देखा जा सकता है। उत्तराखंड में एक विवाह समारोह के दौरान कुर्सी पर बैठने को लेकर दलित युवक पर जानलेवा हमला हुआ तो गुजरात में दलित युवक को घोड़ी पर चढ़ने से रोकने के थरसक प्रयास किए गए। अलवर में दलित युवती के साथ गैंगरेप और जातिसूचक टिप्पणियों वाला वीडियो वायरल होना किसी भी सभ्य समाज के लिए शर्मिंदगी का सबब होना चाहिए। लेकिन हो रहा है इसका उलटा। जातिगत भेदभाव, छुआछूत और उत्पीड़न को नकारने के बजाय दलित-आदिवासियों के सुरक्षा कवच संविधान और एससी-एसटी (अत्याचार निवारण) कानून को ही कमजोर करने के प्रयास किए जा रहे हैं।

ये सब घटनाएं उस दौर में हो रही हैं जब गोडसे को देशभक्त बताने वाले संसद में हैं और ईश्वर चंद्र विद्यासागर की मूर्ति तोड़ी जा रही है। जबकि इस दौर में देश की कथित ऊंची जातियों को आत्म-मूल्यांकन करने और जाति, धर्म, रंग, क्षेत्र के आधार पर भेदभाव से ऊपर उठने की जरूरत है। अगर ऐसा नहीं हुआ तो राजनीति में भले ही जातियों के समीकरण ध्वस्त हो जाएं, समाज में डॉ. पायल और रोहित वेमुला जैसी प्रतिभाएं अपना गला घोंटने को मजबूर होती रहेंगी।

(डॉ. के. वेेलेंटीना समाज विज्ञानी और दिल्ली की अम्बेडकर यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।)

मजाक और मजबूरियों के बीच गायब मुद्दे

एक पुरानी लोक कथा है जिसमें एक तपस्वी की कड़ी तपस्या के बाद भगवान उसकी प्रार्थना से खुश होकर उसके समक्ष प्रकट हुए। भगवान ने वरदान देने से पहले एक शर्त रखी। शर्त यह थी कि भगवान तपस्वी को जो भी देंगे, उसके घनिष्ट दोस्त को उसका दुगना मिलेगा। तपस्वी ने कुछ देर सोचने के बाद भगवान से अपनी एक आंख को निकाल लेने को कहा। उसका दोस्त पूरी तरह से अंधा हो गया।

आज के भारत में यह कोई लोक कथा नहीं रही। यह वर्तमान शासन प्रणाली का एक तरीका बन चुका है जहां किसी ‘अन्य’ के दुःख और असहायता से हम अपने सुख और सम्पन्नता को तोलने लगे हैं। जहां दूसरों की विफलता, हमारी सफलता का पैमाना हो गई है। उदाहरण के तौर पर, कुछ लोग गौरक्षा के नाम पर मुस्लिमों पर हमले करने, उनकी हत्या तक कर देने को भी जायज ठहराने लगते हैं। यह विकृत सोच हिंदुस्तान के संविधान और सभ्यता के विपरीत है। एक तरफ लीक हुए सरकारी आंकड़ों से संकेत मिलता है कि बेरोजगारी पिछले 45 साल में सबसे ऊंचाई पर है, वहां दूसरी तरफ प्रज्ञा ठाकुर जैसे आतंक के आरोपियों को लोकसभा का टिकट दिया जाता है। मकसद साफ है, हिंदुत्व के परदे से जनता के असल मुद्दों को ढक दो। देखते ही देखते ‘सबका साथ’ काल्पनिक बन गया और ‘सबका विकास’ केवल नारा और मजाक बनकर रह गया।

इस दौर का सबसे घिनौना मजाक नोटबंदी था। सूचना के अधिकार कानून द्वारा पता चला है कि आरबीआई ने नोटबंदी करने से मना किया था। लेकिन आरबीआई की इस सलाह को नकारते हुए नोटबंदी का ऐलान किया गया। नोटबंदी का 99% से ज्यादा पैसा आरबीआई को वापस मिल गया। अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय की स्टेट ऑफ वर्किंग इन इंडिया रिपोर्ट 2019 (एसडब्ल्यूआई) एक गंभीर स्थिति को दर्शाती है – (1) नोटबंदी के बाद कम से कम 55 लाख पुरुषों का रोजगार छिन गया (2) 20-24 वर्ष की आयु के लगभग हर 5 में से 3 पुरुष बेरोजगार हैं। केंद्र सरकार की प्रतिक्रिया आकड़ों को दबाने या फिर ईपीएफओ और मुद्रा जैसे अधूरे डेटा को दिखाकर लोगों को बहकाने की रही।

नोटबंदी के बाद गरीबों को यह भरोसा दिलाया गया कि इससे जो काला धन मिलेगा, उससे उनके जनधन खातों में 15 लाख रुपये जमा होंगे। लेकिन ना काला धन मिला और न ही किसी के जनधन खाते में कोई पैसा आया। जो सरकार काला धन लाने की बात करती थी उसकी निगाहों के सामने 36 बड़े व्यापारी हाल के दिनों में बैंकों का पैसा लेकर देश छोड़कर भाग गए हैं।

अब मजाक का कारवां निकल चुका था। कहा गया कि आधार कार्ड का मकसद उन्हें पहचान देना है जिनके पास और कोई पहचान पत्र नहीं है। परंतु जितने लोगों ने आधार बनवाया उनमें से 99.97% ने कोई मौजूदा पहचान पत्र जैसे – राशन कार्ड या वोटर कार्ड का उपयोग किया। यानी उनके पास कोई न कोई पहचान पत्र पहले से था। तो फिर उन्हें आधार की क्या जरूरत थी? फिर कहा गया कि आधार का उपयोग सही लाभार्थी तक सरकारी योजनाओं के लाभ पहुंचाने के लिए किया जा रहा है। परंतु सच तो यह है कि आधार गलत तरीके से जुड़ने के कारण कई लोगों को छात्रवृत्ति, गैस सब्सिडी, आवास योजना का पैसा इत्यादि पाने में अत्यंत परेशानी हुई है। बायोमेट्रिक पहचान की प्रक्रिया में विफलताओं के कारण राशन और पेंशन से वंचित कम से कम 75 लोगों की भूख से मौत हो चुकी है। हैदराबाद के इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस ने झारखंड के पिछले 4 सालों के एक करोड़ मनरेगा मजदूरी भुगतानों का अध्ययन किया तो पता चला कि जो मजदूरी भुगतान आधार से जुड़े थे, उनमें से 38% किसी अन्य मजदूर के खाते में जमा हुए।

मनरेगा के तहत हर साल करीब 7.5 करोड़ लोगों को रोजगार मिलता है। पिछले पांच साल में हर साल वित्त मंत्री ऐलान करते आये हैं कि इस साल मनरेगा का आवंटन सर्वाधिक है। मगर महंगाई को समायोजित करते हुए देखा जाए तो पिछले पांच साल में हर साल का आवंटन 2010-11 के आवंटन से भी कम था। जबकि हर साल करीब 20 फीसदी आवंटन पिछले सालों का लंबित भुगतान है। केंद्र सरकार का दावा है कि 90 फीसदी भुगतान 15 दिन में हुए हैं लेकिन वास्तव में केवल 21 फीसदी भुगतान 15 दिनों में हुए हैं। यह लंबित भुगतान सुप्रीम कोर्ट के आदेश का उल्लंघन है। बेरोजगारी की समस्या को हल करने में मनरेगा के शक्तिकरण के साथ शहरी रोजगार कानून की जरूरत है। एसडब्ल्यूआई की रिपोर्ट में भी इसकी सिफारिश की गई है।

मोदी सरकार के पांच साल के कामकाज और दावों में अंतर की लंबी फेहरिस्त है। मिसाल के तौर पर, वर्ष 2019-20 में आयुष्मान भारत के तहत 10 करोड़ परिवारों के लिए 6 हजार करोड़ रुपये के आवंटन का दावा किया गया। परंतु हिसाब लगाईये तो पता चलेगा कि इस पैसे में देश के सिर्फ 1.20 लाख परिवार ही 5 लाख की बीमा का फायदा उठा पाएंगे। यह मजाक नही तो क्या है?

खुले में शौच से मुक्ति पर भी इस सरकार का खूब जोर रहा है। इसी के चलते कई जिलों को खुले में शौच मुक्त घोषित कर दिया गया। लेकिन अमेरिका के एक विश्वविद्यालय में शोध कर रहे आशीष गुप्ता की टीम के अध्ययन से पता चला कि गांवों को खुले में शौच से मुक्त (ODF) होने के दावे पूरी तरह झूठे हैं। जबकि खुले में शौच रोकने के लिए सरकार जोर-जबरदस्ती की रणनीति अपना रही है। इसके लिए ‘निगरानी समितियां’ बनाई गई हैं जो शौच करते लोगों से लोटा छीनकर, उनकी तस्वीरें लेकर सार्वजनिक रूप से पोस्टर बनवाकर गांव में चिपकाती हैं। कहीं शौचालय बनने तक राशन रोक दिया गया तो कहीं ड्रोन का इस्तेमाल कर खुले में शौच करने वालों के वीडियो बनाए गए। क्या यह एक सभ्य समाज की निशानी है?

बीते पांच साल गोरक्षा के नाम पर गुंडागर्दी और मॉब लिचिंग की वजह से भी भुलाए नहीं जा सकेंगे। झारखंड के गुमला जिले में 11 अप्रैल, 2019 को कुछ लोगों ने आदिवासी समुदाय के चार व्यक्तियों को गोहत्या के शक में बेरहमी से मारा-पीटा था जिनमें से एक प्रकाश लकड़ा की मौत हो गई। हैरानी की बात है कि जिन गरीब आदिवासियों की पिटाई हुई उन्हीं के ऊपर झारखण्ड गोवंशीय पशु हत्या प्रतिषेध अधिनियम, 2005 के तहत मुकदमा दर्ज करा दिया गया, जबकि अपराधी फरार हैं। इसी तरह राजस्थान में अलवर के रहने वाले उमर खान भी 2017 में मॉब लिंचिंग के शिकार हुए थे। यहां भी पीड़ित परिवार को न्याय दिलाने के बजाय उमर के बेटे मकसूद को गोतस्करी के आरोप में जेल में डाल दिया गया।

कश्मीर के बडगाम जिले में मेजर नितिन गोगोई द्वारा सेना की जीप के बोनट से बंधे फारुख अहमद दार की छवि हमारी मानवता के पतन का स्थायी गवाह बनी रहेगी। दार तब से अत्यधिक न्यूनता और अनिद्रा से पीड़ित हैं। समाज को नफरत, विकृति, और हिंसा की आग में धकेला जा रहा है। सरकार कहती है सेना को खुली छूट दी है, परन्तु सच यह है कि देश में दहशत फैलाने वालों को खुली छूट मिल रही है। जबकि भारत को एक शांतिप्रिय, समावेशी, न्यायसंगत, पारदर्शी और जवाबदेह सरकार की जरुरत है।

राजेंद्रन (@rajendran_naray) अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी, बेंगलुरु और शयानदेब (@sayandeb) अम्बेडकर यूनिवर्सिटी, दिल्ली में पढ़ाते हैं।)

झारखंड के अनूठे वाद्य यंत्र और सांस्कृतिक उपेक्षा की टीस

झारखंड के बारे में एक कहावत प्रचलित है कि यहां चलना नृत्य है और बोलना ही गीत है। यहां हजारों सालों से अखड़ा की एक समृद्ध परंपरा रही है। अखड़ा गांव में वह स्थान होता है जहां रात्रि पहर में उम्र की सीमाओं के बंधन को छोड़कर निश्चछल, सरल, अबोध ग्रामीण मांदर की थाप और लोकगीतों की तान पर समूह में नृत्य करते हैं। इसकी अपनी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि रही है जो आदिवासी समुदाय को अपनी परंपरा एवं संस्कृति के और करीब लाती है। लेकिन इस संगीतमय प्रदेश की अपनी त्रासदी भी  है जो सत्ता के दावों से इतर कला-संस्कृति के प्रति सही दृष्टिकोण की कमी या आदिवासी संस्कृति के प्रति समझ का अभाव अथवा उसकी उपेक्षा से उपजी है।

आलम यह है कि आदिवासियों को मुख्यधारा में लाने के नाम पर उनकी परंपरा, संस्कृति और प्रकृति से दूर किया जाने का प्रयास होता रहा है। यह किसी एक राज्य की समस्या अथवा उनके लिए चुनौती नहीं है। कमोवेश यह जनजातीय बहुल सूबों की त्रासदगाथा का अंतहीन सिलसिल बन चुका है। इस विडंबनाबोध से मुक्ति की राह आसान नहीं है।

बहरहाल, झारखंड के लोक गीत-संगीत की बात परंपरागत वाद्ययंत्रों के बिना अधूरी है। इन वाद्य यंत्रों को निम्न श्रेणी में विभाजित किया जा सकता है।

तत्वाद्य 2- सुषिर वाद्य 3- अवनद्ध 4- घनवाद्य

तत्वाद्य इस श्रेणी के तहत केंदरी, एकतारा, सारंगी, टूईला, भुआंग और आनन्द लहरी आदि वाद्य यंत्र आते हैं। इनमें एकतारा, टुईला, केंदरी और तरंगी स्वर वाद्य हैं, जो कंठ संगीत के साथ बजाये जाते हैं। कभी-कभी इनका प्रयोग बिना कंठ संगीत के सिर्फ धुनों के तौर पर भी की जाता है। एकतारा का प्रयोग ताल और स्वर आधार दोनों के लिए किया जाता है। भुआंग और आनंद लहरी ताल के लिए प्रयोग किये जाते हैं।

केंदरी वाद्ययंत्र की शैली वायलिन वादन से मिलती जुलती है। इसे वायलिन का झारखंडी स्वरुप भी माना जाता है। संथाल जनजाति में केंदरी का प्रयोग आमतौर पर किया जाता है। इसका तुंबा कछुआ के मजबूत खोल या नारियल के खोल से बनाया जाता है जिसमें गोही का चमड़ा मढ़ा जाता है। तुंबा से बांस या लकड़ी का दंड जुड़ा रहता है और उसके ऊपर तीन तार बंधे रहते हैं और इसके गज में घोड़े की पूंछ के बाल लगाये जाते हैं।

एकतारा बहुधा फकीर, भिक्षुक, योगी या साधुओं के द्वारा प्रयोग में लाया जाता है। जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है इसमें एक ही तार का प्रयोग होता है। एकतारा को गुपिजंतर भी कहा जाता है। इसके नीचे का हिस्सा लौकी या ककड़ी लकड़ी से बना होता है, जो खोखला होता है और इसके मुंह पर चमड़ा मढ़ा होता है। दोनों तरफ से तीन फुट लंबे बांस की खमचिया जुड़ी रहती हैं। एक लकड़ी की खूंटी बांस के ऊपरी हिस्से में होती है और नीचे से ऊपर की ओर खूंटी तक एक तार बंधा होता है। इसे बजाने के लिए दाहिनी तर्जनी में तांबा या पीतल से टोपीनुमा त्रिकोण पहना जाता है। इसी त्रिकोण से तार को बजाया जाता है।

टूईला का प्रयोग झूमर, टूसु, करम, बान्धना आदि गीतों के लिए किया जाता है। यह एक स्वर प्रधान और कठिन शैली का वाद्य यंत्र है। टूईला में स्वर स्थानों को नाखूनों के सहारे से निकालना पड़ता है जो मुश्किल काम होता है लेकिन इसमें पारंगत कलाकार इसे बखूबी बजाते है।

भूआंग तत्वाद्य श्रेणी का यह वाद्ययंत्र सामान्यतया दशहरा के समय दासाई नृत्य में प्रयोग में लाया जाता है। तार वाद्य होते हुए भी वादन प्रक्रिया के कारण इसमें एक से अधिक स्वर निकालने की गुंजाइश नहीं रहती है। इसमें दो भाग होते है धनुष और तुंबा। धनुष की लकड़ी वाले हिस्से के ठीक बीच में कद्दू से बना लगभग 2 फीट लंबा तुंबा नीचे की ओर लटका रहता है। नीचे की तरफ तुंबा का मुंह खुला रहता है जो रस्सी के सहारे कंधे से लटका लिया जाता है। यह संथालियों का प्रिय वाद्य यंत्र है।

सुषिर वाद्य शहनाई, बांसुरी, मदनभेरी, शंख और सिंगा, सुषिर वाद्य की श्रेणी में आते हैं। इनका प्राण फूंक है। सानाई और बांसुरी मुख्यत: स्वर वाद्य हैं। खास अवसरों इनकी धुनें काफी लोकप्रिय हैं।

सानाई का आकार बांसुरी की भांति होता है। सामान्य बोल-चाल की भाषा में इस वाद्ययंत्र को शहनाई भी कहा जाता है। पर्व -त्यौहार, पूजा-पाठ और विवाह जैसे शुभ अवसर पर सानाई की मंगलध्वनि पूरे वातावरण को मंत्रमुग्ध कर देती है। मंगल वाद्य सानाई, नटुआ, छऊ, पाईका, नचनी आदि नृत्य के साथ बजाई जाती है। इसकी लम्बाई लगभग 10 इंच की होती है। इसके तीन हिस्से क्रमश: माउथपीस, लकड़ी की नली और कांसा धातु से बना गोलाकार मुंह होता है। माउथपीस में ताड़ के पत्ते की पेपती रहती है। लकड़ी की नली में छ: छेद होते हैं। पेंपती और माउथपीस में फूंक भरी जाती है और छिद्रों पर अंगुली का संचालन करके स्वर को निकाला जाता है। कांसा धातु से बने मुंह के कारण इसकी आवाज काफी तेज होती है।

मदन भेरी शहनाई, बांसुरी और ढोल आदि के साथ इसे एक सहायक वाद्य के रूप में बजाया जाता है। शिकार के समय और पशुओं को खदेड़ने के लिए भी मदन भेरी का प्रयोग किया जाता है। नृत्य के साथ विवाह के समय भी इस यंत्र का को बजाया जाता है। मदन भेरी 4 फुट लंबा और सीधा वाद्य यंत्र है।

शंख एक शुभ वाद्य यंत्र है। विवाह पूजा आदि मंगल अवसरों के समय शंख का प्रयोग किया जाता है। पहले किसी संकेत का ऐलान करने या संदेश भेजने के लिए शंख की ध्वनि की जाती थी। यह सामुद्रिक जीव का सफेद खोल होता है जिसे फूंक मारकर बजाया जाता है।

सिंगा भैंस के सींग से बने होने के कारण इसका नाम सिंगा पड़ा। इसके नुकीले छोर की तरफ से फूंक मारा जाता है। चौड़ा वाला हिस्सा आगे की तरफ मुड़ा होता है। देर तक स्वर को टिकाए रखने के लिए इसमें दमदार फूक भरी जाती है। कभी रुक-रुक कर भी स्वर आता है। पर्व त्यौहार और शिकार के समय तथा पशुओं को खदेड़ने के लिए इसका प्रयोग किया जाता है।

वाद्य यंत्रों के हिसाब से मुंडा और उरांव समाज में नगाड़ा बहुत लोकप्रिय है तो संथालों में तमक को बजाता हुआ देखा जा सकता है। वहीं मांदर को लगभग हर पारंपरिक उत्सव और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में शामिल किया जाता है। बांसुरी का भी इन वाद्य यंत्रों में एक महत्वपुर्ण स्थान है। अर्से से बांसुरी को ज्यादातर बैकग्राउंड म्यूजिक के रूप में लोकगीतों में प्रयोग किया जाता रहा है।

जब मिटता भाषाई सरहदों का भेद 

पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित लोक गायक मुकुंद नायक बताते हैं कि दिनभर गांव के खेत-खलिहान में काम करने के बाद लोग शाम को अखरा में बैठते थे और अपना सुख-दुख बतियाते थे। भावी योजनाओं की रूपरेखा भी बनाते थे। यह सब मौखिक परंपरा के जरिये होता आया है। अखड़ा में ज्ञान का संचार कहानियों और गीतों के माध्यम से होता था। लोक गायकों की स्वर साधना तथा गायन पद्धति हुआ करती थी। वह चाहे कुड़ूख हो, मुण्डारी, खोरठा या पंच परगनिया कोई भी भाषा क्यों न रही हो। अखड़ा में गायकों का साथ ढोल, नगाड़ा व अन्य वाद्ययंत्रों के माध्यम से वाद्यय कलाकार देते थे। वे बताते हैं कि नागपुरी भाषा यहां के नागवंशी राजाओं के काल में एक हजार नौ सौ पचास साल तक राजभाषा रही है। अखड़ा की एक खूबसूरती यह भी थी कि अलग-अलग भाषाओं में गायन तथा कथा कहने वालों का यहां सामूहिक जुटान होता था। इसमें भाषाई सरहदों का कोई सवाल नहीं होता था न ही किसी किस्म का अन्य विभेद देखने को मिलता है।

सांस्कृतिक चेतना का क्षरण

प्रसिद्ध गायक-गीतकार मधु मंसूरी के गीत झारखंड आंदोलन में जान फूंकते थे। आज वो सरकारी तंत्र में सांस्कृतिक चेतना के अभाव को लेकर चिंतित हैं। फोटो साभार: यूट्यूब

 

लोक गायक मधु मंसूरी बताते हैं कि मुुरली, टोहिला, ठेचका, केंद्रा, सारंगी, झाल-मंजीरा, शहनाई (शास्त्रीय वाद्यय नहीं) लुप्तप्राय वाद्ययंत्रों की श्रेणी में शुमार किये जाने वाले वाद्यय यंत्र हैं। यहां के नेताओं के अंदर राम दयाल मुंडा और विश्वेश्वर प्रसाद केसरी की तरह वैसी सांस्कृतिक चेतना नहीं है और न ही उनमें परंपरा को लेकर गंभीरता का भाव है।दिवंगत मुण्डा और स्व. केसरी राजनीतिक आंदोलनकारी होने के साथ साथ सांस्कृतिक चेतना संपन्न शख्सियत के मालिक थे।

लोक प्रस्तुति में वैभव के प्रवेश पर मधु मंसूरी कहते हैं कि 1960 ई. से पूर्व तक नचनी का अखड़ा था, लेकिन आज के जैसा शिष्ट मंच नहीं था। अतीत को याद करते हुए वे कहते हैं, “1960 में अपने खर्च से मैंने मुड़मा जतरा और जगरन्नाथपुर रथयात्रा में शिष्ट सांस्कृतिक मंच को स्थापित किया। अन्य प्रांतों में संस्कृतिकर्मियों को जैसी तरजीह दी जाती है उसका यहां अभाव है।” वे सवालिया लहजे में बताते हैं, “संपूर्ण भारत में संस्कृतिकर्मियों को  राजनीतिक दल टिकट देते हैं, लेकिन यहां कोई राजनीतिक दल नहीं देते? अपरवाद स्वरूप अब तक सत्तर साल के इतिहास में सिर्फ दो व्यक्तियों को प्रमुख राजनीतिक दलों से टिकट मिला। एकीकृत बिहार में शिक्षामंत्री रहे करमचंद भगत और दूसरे राम दयाल मुण्डा को।”

सरकारी रवैया निराशाजनक 

दरअसल कला-संस्कृति की बदहाली के पीछे गैर-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के अधिकारियों की संस्कृति विभाग में मौजूदगी का होना भी है। पिछले दौर को याद करते हुए मधु मंसूरी याद दिलाते हैं कि कैसे झारखंड के कला-संस्कृति विभाग में एक ऐसे महानुभाव को सांस्कृतिक संयोजक नियुक्त कर दिया गया था जिन्हें झारखंड की एक भी स्थानीय भाषा मसलन मुण्डारी, खड़िया, हो, पंचपरगनिया व अन्य बोलियों का कोई ज्ञान नहीं था। वे न गाते है, न बजाते हैं और न ही नाचते हैं।

मधु मंसूरी आगे कहते हैं कि साल 1962 से लेकर 1980 तक के करीब दो दशक के लंबे कालखंड में जब रामदयाल मुण्डा अमेरिका प्रवास पर थे तब इस इलाके में सांस्कृतिक कर्म की जमीन को पुख्ता करने में उनके जैसे नौजवानों की भूमिका थी। बहरहाल, कुछ पुरस्कार प्राप्त लोक कालाकारों को अखड़ा की चिंता पुरस्कार मिलने के बाद आयी! उसके पहले अखड़ा का उनके सांस्कृतिक जीवन में कोई मोल नहीं था! यह कला के विद्रूप होते जाने की स्थितियों से हमें रूबरू कराता है।

 

गायब मुद्दे: अपने एजेंडे पर भी वोट नहीं मांग पाया विपक्ष

चुनाव का  पांचवा चरण खत्म हो गया, विद्वान मित्र चिंतित हैं कि देश की अगले 5 वर्ष में क्या दिशा-दशा होगी? चुनाव लड़ रही पार्टियां (किसी एक गठबंधन को तो आना ही है), अगर सत्ता में आई तो उनका किसानों के लिए क्या एजेंडा होगा? वो शिक्षा के क्षेत्र में क्या पहल करेंगी? स्वास्थ्य, रोजगार, पर्यावरण, पेयजल, शहरी नीति, ग्रामीण नीति, विदेश नीति और आर्थिक नीति  क्या होगी? आखिर राजनीतिक दल क्या कहकर वोट मांग रहे हैं? अगर एक सामान्य नागरिक अपने सूझबूझ से मतदान करना चाहे तो किसे वोट दे?

ये प्रश्न पूरे चुनावी संवाद में अनुत्तरित रहे हैं, और विद्वान मित्र परेशान।

हालांकि, विद्वानों के परेशान होने का कोई खास कारण नहीं है, क्योंकि लोकतंत्र और भीड़तंत्र में कोई विशेष फर्क नहीं होता। भले ही आप अंतर्राष्ट्रीय स्तर के अर्थशास्त्री हों, वैज्ञानिक हों, प्रोफेसर हों या दिन भर शराब के नशे में धुत्त अनपढ़ और कामचोर हो, वोट की कीमत तो सबकी बराबर ही है।

आप आम काटकर खाते हैं या चूसकर, जब यह प्रधानमंत्री जी से पूछा जाने वाला महत्वपूर्ण सवाल बन गया हो तो फिर देश की प्रसिद्ध महिला कार्यकर्ताओं द्वारा पूछे गए 56 सवालों (रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, महिला नीति, महिला आरक्षण, किसान आत्महत्या, कृषि नीति) को कौन पूछेगा?  अगर सिर्फ दिल्ली की सात सीटों के बारे में ही बात करें तो एक तरफ आम आदमी पार्टी ने राघव चड्ढा,  आतिशी जैसे विद्वान नौजवानों को टिकट दिया है तो वहीँ एक ऐसा व्यक्ति भी चुनावी मैदान में है 1971 की भारत-पाकिस्तान युद्ध और बांग्लादेश बनने का पता ही नहीं है। क्योंकि तब वह बहुत छोटा था। ठीक से कुछ याद नहीं है!

शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, विदेश नीति और अर्थव्यवस्था को लेकर प्रधानमंत्री की सोच और नजरिये से ज्यादा खुद उनकी शैक्षिक योग्यता चर्चा का विषय बनी हुई है। इस तरह पूर्व केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री हर चुनाव में शैक्षिक योग्यता के क्षेत्र में एक कदम पीछे हट जाती हैं। एक अन्य फिल्म स्टार और चुनावी उम्मीदवार की 2014 से 2019 के पांच वर्षो में उम्र तो 7 साल बढ़ गई लेकिन शैक्षिक योग्यता बीए से घटकर इंटर पास हो गई है। ऐसे माहौल में मुद्दों पर क्या खाक चर्चा होगी! मजेदार बात यह है कि ये सभी लोग प्रमुख राजनैतिक दल के लोग हैं और शायद चुनाव जीत भी जाएं क्योंकि इनमें से कोई गाता अच्छा है तो कोई एक्टिंग अच्छी करता है और कोई बड़ा खिलाड़ी है।

शायद जनता भी यही चाहती है इसलिए तो डॉक्टर मनमोहन सिंह जैसे अंतरराष्ट्रीय छवि के अर्थशास्त्री दक्षिणी दिल्ली जैसी पढ़े-लिखे लोगों वाली लोकसभा सीट से चुनाव हार जाते हैं। स्वर्गीय नरसिम्हा राव, जिन्होंने देश को एक नई दिशा दी और मुल्क को आर्थिक संकट से उबारा  वे आर्थिक उदारीकरण के फायदे गिनाते हुए चुनावी राजनीति में कूदे और इतिहास हो गए। अटल बिहारी वाजपेयी जो अपनी वाकपटुता, ईमानदारी और स्वच्छ छवि के लिए जाने जाते थे, इंडिया शाइनिंग के बावजूद फीके पड़ गए। तब सोशल मीडिया भी नहीं था, लेकिन देश तो यही था।

ध्यान से देखा जाय तो 21वीं के पहले 19 वर्षों में देश में  कोई बड़ा राजनैतिक आंदोलन नहीं हुआ है। चुनावी रैलियों के अलावा किसी बड़े मुद्दे पर राजनैतिक दल देश को एकजुट करने या दिशा देने में नाकाम रहे हैं। अभी कुछ दिन पहले पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान नेताओं के नेतृत्व में विरोध-प्रदर्शन के लिए दिल्ली जा रहे किसानों को राजधानी में घुसने से रोका गया और लाठीचार्ज कर तितर-बितर कर दिया गया। तमिलनाडु के किसान अपने मुद्दे उठाने के लिए क्या कुछ नहीं किया। शिक्षामित्रों और बेरोजगारों के पुलिस से पिटने पर अब किसी को फर्क नहीं पड़ता। आशा और आंगनबाड़ी कार्यकर्ता भी साल भर संघर्षरत रहती हैं। सरकारी कर्मचारी और पूर्व सैनिक भी अपनी मांगों को लेकर हर वक्त सरकार से सींग लड़ाये रहते हैं। ताज्जुब की बात है कि चुनाव के वक्त से सारे मुद्दे सिरे से गायब हैं। या कहना चाहिए गायब कर दिए गए हैं।

मुद्दों की इन गुमशुदगी का एक बड़ा कारण है सत्ताधारी भाजपा की तनखैया और अवैतनिक ट्रोल आर्मी जो व्हाट्सअप विश्वविद्यालय से ज्ञान पाते ही किसी का भी मुंह काला कर सकती है। किसी पर जूता फेंक सकती है। इनके डर से ज्यादातर विद्वान और समझदार लोगों ने अपने मुंह पर ताला लगा लिया है।  यह ट्रोल आर्मी एक फौजी को चुनाव लड़ने से रोकने के लिए तीन दिन के अंदर उसे देशद्रोही, विदेशी जासूस, अय्याश और  आतंकवाद की  आरोपी को राष्ट्रभक्त घोषित कर सकती है। शहीद पुलिस अफसर स्वर्गीय हेमंत करकरे की शहादत को बदनाम करना इनके लिए चुटकी बजाने जितना आसान काम है।

यह सब एक सोची-समझी चुनावी रणनीति के तहत किया गया है। धर्म, जाति और क्षेत्रीय संकीर्णताओं में बंटे भारतीय समाज के मनोविज्ञान का भरपूर इस्तेमाल किया गया। प्रधानमंत्री के भाषणों में तमाम गैर-जरूरी और हल्की बातों (राजीव गांधी भ्रष्टाचारी नंबर वन बनकर मरा, कांग्रेस मुझे मरवाना चाहती है, मैं भिक्षा मांगता था, मेरी मां दूसरे के घर वर्तन धोती थी, चेतक घोड़े की मां गुजराती थी) को शुमार किया। शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार जैसे मुद्दों को दूर से ही नमस्ते कर दी।

पिछले पांच वर्ष में तमाम योजनाओं, परियोजनाओं को गेम चेंजर कहा जा रहा था। जीएसटी, नोटबंदी, तीन तलाक, विदेश नीति, एफडीआई और इंफ्रास्ट्रक्चर जैसे गेम चेंजर मुद्दे भी इस चुनाव में गुम हैं।

ऐसा भी नहीं है कि आम जनता के जीवन से जुड़े मुद्दों को दफन करने का काम सिर्फ भाजपा ने किया है। कांग्रेस सहित लगभग सभी क्षेत्रीय दल सपा, बसपा, तृणमूल कांग्रेस, अकाली दल मुद्दाविहीन चुनाव ही लड़ रहे हैं।  चौधरी अजीत सिंह की राष्ट्रीय लोकदल जैसी पार्टियां जो किसानों की लड़ाई लड़ने का दावा करती हैं, वे भी किसानों के मुद्दे पर बड़ा आंदोलन छेड़ने में नाकाम रही हैं। कैराना उपचुनाव में जयंत चौधरी ने जरूर जिन्ना नहीं गन्ना का नारा दिया था जो कारगर भी रहा लेकिन लोकसभा चुनाव में गन्ना किसानों के भुगतान का मुद्दा ज्यादा नहीं उठ पाया। मुद्दों के इस नैरेटिव को बनाने, मिटाने में मुख्यधारा के मीडिया की बड़ी भूमिका है। भाजपा के पक्ष में मीडिया के बड़े हिस्से ने अपनी इस भूमिका को पूरी तरह सरेंडर कर दिया।

आज कृषि और किसान एक बड़े संकट से गुजर रहे हैं। लागत बढ़ रही है, आमदनी घट रही है, नई पीढ़ी खेती किसानी से दूर भाग रही है, ग्लोबल वार्मिंग और क्लाइमेट चेंज की मार अलग है। लेकिन देश की तकरीबन आधी आबादी की रोजी-रोटी का सहारा खेती और किसान चुनावी चर्चा से गायब हैं। कांग्रेस ने अपने घोषणा-पत्र में कई अहम मुद्दों को जगह दी और कहा है कि कृषि पर अलग से बजट लाएंगे, लेकिन घोषणा-पत्र की ऐसी ज्यादातर बातों पर कांग्रेस वोट मांगने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही है। घोषणा पत्र में लिखे अपने वायदों पर भी कांग्रेस वोट मांगने से कतरा रही है।

राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय स्तर की अनेक रिपोर्ट बता रही है कि भारत के शहरों की गिनती दुनिया के सबसे अधिक प्रदूषित शहरों में होती है। शुद्ध पेयजल तो अब धीरे-धीरे लग्जरी बनता जा रहा है। यमुना, गंगा  और हिंडन  सहित अनेक छोटी बड़ी नदियां नाले में परिवर्तित हो चुकी  हैं लेकिन इस पर भी चुनाव में कोई चर्चा नहीं है, उल्टे मथुरा की वर्तमान सांसद शुद्ध पेयजल और शुद्ध हवा की मशीनों के प्रचार में लीन हैं। नदियों को मां का दर्जा देने वाले समाज की संवेदनाएं इन्हें गंदा नाला बनते देख कतई आहत नहीं होती हैं।

(लेखक समाजशास्त्री हैं और कांग्रेस का घोषणा-पत्र बनाने वाली टीम में शामिल रहे हैं) 

 

खेती-किसानी पर चर्चा के बिना गुजरता चुनाव

राजनैतिक दल चुनाव जीतने के लिए समाज के विभिन्न वर्गों की समस्याएं उठाने के साथ-साथ सरकार बनने के बाद उन समस्याओं को दूर करने का वायदा भी करते हैं। देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में हिस्सेदारी कम होने के बावजूद खेती-किसानी आज भी भारत की आबादी को प्रत्यक्ष रोजगार देती है और अप्रत्यक्ष रूप से औद्योगिक तथा सर्विस सेक्टर को कच्चा माल व बाजार उपलब्ध कराती है। रोजगार और बाजार को सर्वाधिक प्रभावित करने वाली आर्थिक गतिविधि खेती-किसानी की समस्याएं और उनके समाधान के उपाय इस बार चुनावी चर्चा से यदि गायब नही हैं तो प्रमुखता में भी नही हैं।

अगर वर्ष 2014 से तुलना करें तो तब कृषि एवं किसानों के लिए भाजपा की चिन्ता व प्रतिबद्धता आज के मुकाबले अधिक दिखाई देती थी। सार्वजनिक सभाओं में नरेंद्र मोदी यूपीए सरकार पर तंज करते हुए दोहराते थे कि कांग्रेस की नीति ‘मर जवान, मर किसान’ की हैं और यदि उनकी सरकार बनती है तो वे किसानो की बहुप्रतिक्षित मांग ‘स्वामीनाथन आयोग’ की संस्तुतियों को लागू कर किसानों को उनकी लागत पर 50% लाभ देंगे, कृषि बाजार में आमूल-चूल परिवर्तन कर बिचौलियों को कृषि बाजार से बाहर करेंगे, कृषि में सार्वजनिक निवेश बढ़ाएंगे, मध्यम एवं दीर्घकालिक सिंचाई योजनाओं को समयबद्ध तरीके से पूरा कर ‘पर ड्राप-मोर क्राप’ की व्यवस्था करेंगे।

2014 के चुनावों में किसानों ने भाजपा के वायदों पर भरोसा वोट दिए और केंद्र में भाजपा की सरकार बनी। लेकिन खेती और किसान सरकार की प्राथमिकता में नहीं आ पाए। मोदी सरकार ने मध्यप्रदेश सरकार को गेहूं पर दिए जा रहे बोनस को समाप्त करने के लिए लिखा तथा सुप्रीम कोर्ट में सरकार की ओर से बताया गया कि किसानों को लागत पर 50% लाभ देने वाली स्वामीनाथन कमेंटी की रिपोर्ट लागू करना संभव नहीं है।

सरकार के पहले दो वर्षों 2014-15 और 2015-16 में किसानों को सूखे का भी सामना करना पड़ा जिससे उसकी आमदनी प्रभावित हुई। लेकिन बाद के तीन वर्षों में रिकार्ड उत्पादन तथा सरकार की महंगाई नियन्त्रण की नीतियों के कारण किसानों की आमदनी में कमी आई। चुनाव से ठीक पहले मोदी सरकार ने स्वामीनाथन की रिपोर्ट के अनुसार न्यूनतम समर्थन मूल्य देने का दावा तो किया लेकिन उससे कोई बहुत फर्क नहीं पड़ा क्योंकि उसकी गणना में भूमि का किराया सम्मिलित नही किया गया था।

मोदी सरकार की बड़ी-बड़ी घोषणाओं जैसे प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना, प्रधानमंत्री किसान सिंचाई योजना, मृदा स्वास्थ्य योजना, गन्ने का 14 दिनों में भुगतान आदि जमीन पर असफल होने के बाद भाजपा को उत्तर प्रदेश एवं अन्य राज्यों में चुनाव जीतने के लिए कृषि ऋण माफी  का वायदा करना पड़ा। विभिन्न राज्यों में आधे-अधूरे तरीके से कृषि ऋण माफी योजना लागू भी की गई।

आखिरकार तमाम संरचनात्मक सुधारों को भूलकर भाजपा ने तेलंगाना और उड़ीसा सरकार के 2 हेक्टेयर तक जोत वाले किसानों के लिए 6000 रुपये/वार्षिक की प्रधानमंत्री किसान सम्मान योजना लागू कर चुनाव से पहले किसानों के खाते में 2000 रुपये हस्तांतरित करने का दांव चला। जो खेती-किसानी के मोर्चे पर सरकार की नाकामी को साबित करता है।

विपक्षी दल कांग्रेस के अलावा सपा-बसपा-रालोद गठबंधन ने भी किसानों से कर्ज माफी का वायदा तो किया है लेकिन यह चुनाव भी खेती-किसानी पर बिना किसी गंभीर विमर्श और कार्य योजना के बिना गुजर रहा है।

(लेखक उत्तर प्रदेश योजना के पूर्व सदस्य और कृषि से जुड़े मामलों के जानकार हैं)

 

हमें जीएम सरसों की जरूरत ही क्‍या है?

जेनेटिक तौर पर संवर्धित (जीएम) सरसों को व्‍यवसायिक मंजूरी देने का मामला टालेे जाने के 13 साल बाद यह जिन्‍न एक बार फिर बोतल से बाहर आ गया है। इस बार जीएम सरसों सरकारी भेष में व्‍यवसायिक खेती की मंंजूरी के लिए आई है। इस पर टैक्‍सपेयर का 70 करोड़ रुपया खर्च हुआ है, जिस पैसे से बहुत से स्‍कूल खुल सकते थे।

इस बार भी वही दावे हैं, वही भाषा है और हमारी आशंकाएं भी वही हैं। 13 साल पहले एग्रो-कैमिकल क्षेत्र की दिग्गज बहुराष्‍ट्रीय कंपनी बायर की सहायक प्रो-एग्रो सीड्स इंडिया लिमिटेड ने दावा किया था कि उसकी जीएम सरसों वैरायटी में चार विदेशी जीन हैं जो सरसों की उत्‍पादकता 20-25 फीसदी तक बढ़ा सकतेे हैंं और तेल की गुणवत्‍ता भी सुधरेगी। नई जीएम सरसों को दिल्‍ली यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर जेनेटिक मैनिपुलेशन ऑफ क्रॉप प्‍लांट्स ने विकसित किया है जिसमें तीन विदेशी जीन – बार, बारनेस और बारस्‍टार हैं। इस बार भी जीएम सरसों को लेकर वैसेे ही दावे किए जा रहे हैं जैसेे प्रो-एग्रो सीड्स ने किये थे। जीएम सरसों के ये दोनों पैरोकार, पहले प्रो-एग्रो सीड्स इंडिया प्राइवेट लिमिटेड और अब दिल्ली विश्वविद्यालय, हर्बिसाइड रिज़िस्टेेन्स यानी खरपतवार प्रतिरोध होने से इंकार करतेे हैं जबकि दोनों ने इसके लिए ज्ञात जीन का इस्‍तेमाल किया है।

जीएम समर्थन और तथ्‍यों से खिलवाड़

भारत हर साल करीब 60 हजार करोड़ रुपये के खाद्य तेलों का आयात करता है इसलिए तत्‍काल सरसों का उत्‍पादन बढ़ाना जरूरी है। खाद्य तेेलों का उत्‍पादन बढ़ेने से विदेशी मुद्रा की बचत होगी। इस विषय पर कई परिचर्चाओं और सर्वजनिक बहसों में मैंने दिल्‍ली यूनिवर्सिटी के पूर्व कुलपति और नई जीएम सरसों विकसित करने वालों में अग्रणी डॉ. दीपक पेंटल को बार-बार जोर देते हुए सुना कि खाद्य तेलों के आयात पर खर्च हो रही विदेशी मुद्रा में कटौती की आवश्‍यकता हैै और भारत जैसे विकासशील देश के लिए यह कितनी बड़ी बचत होगी! यह बिल्‍कुल वही दावा है जो 13 साल पहले प्रो-एग्रो की जीएम सरसों के पैरोकार किया करते थे। उस समय खाद्य तेलों का आयात घरेलू खपत का करीब 50 फीसदी था, जिस पर 12 हजार करोड़ रुपयेे खर्च होते थे।

कोई भी पढ़ा-लिखा व्‍यक्ति इस बात से सहमत होगा कि खाद्य तेलों के आयात पर होने वाले भारी खर्च में कमी आनी चाहिए। लेकिन जीएम लॉबी ने बड़ी चतुराई से इस तर्क का इस्‍तेमाल यह आभास दिलाने में किया है जैसे सरसों के उत्‍पादन में कमी की वजह से ही खाद्य तेलों का इतना अधिक आयात करना पड़ता है। जबकि असलियत में ऐसा नहीं है। खाद्य तेल के इतनी अधिक मात्रा में आयात के पीछे कई और भी कारण हैं। मिसाल के तौर पर, पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी देश के बढ़ते आयात को लेकर चिंतित रहते थे। वह चालू खाते के घाटे को कम करने को बेताब थे। उस समय ईंधन, उर्वरक और खाद्य तेल का सबसे ज्‍यादा आयात होता था। खाद्य तेलों का सालाना आयात 1500 से 3000 हजार करोड़ रुपए के आसपास रहता था। यह बात समझते हुए कि भारत में घरेलू तिलहन उत्‍पादन बढ़ाने की क्षमता है और खाद्य तेलों का आयात कम किया जा सकता है उन्‍होंने 1985 में तिलहन में एक प्रौद्योगिकी मिशन आरंभ किया।

दस साल से भी कम समय यानी 1986 से 1993 के बीच देश में तिलहन उत्पादन दोगुना हो गया जो उल्लेखनीय वृद्धि है। खाद्य तेल आयात करने वाला भारत इस मामले लगभग आत्मनिर्भर हो गया। खाद्य तेल में देश की 97 प्रतिशत आत्मनिर्भरता थी और मात्र 3 फीसदी तेल आयात करने की जरूरत रह गई थी। लेकिन कुछ साल बाद भारत ने जानबूझकर आयात शुल्क घटाना शुरू किया और सस्ते व सब्सिडी वाले खाद्य तेल के बाजार में आने का रास्‍ता खोल दिया। जैसे-जैसे खाद्य तेल का आयात बढ़ा घरेलू ऑयल प्रोसेसिंग उद्योग बंद होते गए।

दरअसल खाद्य तेलों के आयात पर खर्च बढ़ने का कारण तिलहन के उत्पादन में गिरावट नहीं है। बल्कि यह सब आयात नीति की खामियों का नतीजा है। विदेशी खाद्य तेलों पर आयात शुल्क को लगभग शून्य़ कर दिया गया जबकि यह 70 फीसदी या इससे भी ज्‍यादा होना चाहिए था। (डब्ल्यूटीओ भारत को खाद्य तेलों पर आयात शुल्क अधिकतम 300 प्रतिशत करने की अनुमति देता है)। तिलहन का सही दाम और बाजार मुहैया कराया जाता तो हमारे किसान तेल की सारी कमी दूर कर देते।

दावा किया जा रहा है कि जीएम सरसों से उत्पादन में 20 से 25 फीसदी तक बढ़ोतरी होगी। यह एकदम बेतुुकी बात है। कहना पड़ेगा कि इस दावे के पीछे स्‍वार्थ निहित हैं। पहली बात तो यह है कि ऐसा कोई ज्ञात जीन (या जीन समूह) नहीं है जो उत्पादकता बढ़ा सकता है। दूसरी बात, कोई भी जीएम वैरायटी उतनी ही अच्छी होती है जितनी संकर किस्म जिसमें विदेशी जीन डाला जाता है। यदि कोई जीन संकरण की प्रक्रिया को सरल करता है तो इसका यह अर्थ नहीं कि वह उत्पादकता बढ़ा देगा।

पिछले 13 वर्षों में मैंने उपलब्ध सरसों के तेल की गुणवत्ता से कोई शिकायत नहीं सुनी है। हमारे देश में पारंपरिक रूप से सरसों का इस्तेमाल भोजन के लिए किया जाता है। इसकी पत्तियों को सरसों का साग के रूप में पकाया जाता है। इसलिए सरसों को केवल खाद्य तेल के रूप में ही नहीं देखा जाना चाहिए। मैं कभी-कभी सरसों तेल का उपयोग कान और नाक के रोगों के उपचार और शरीर की मालिश के लिए भी करता हूं। इसके अलावा सरसों के तेल का उपयोग पारंपरिक चिकित्सा में भी किया जाता है। इसलिए बीटी बैंगन पर रोक लगाते हुए 2010 में पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा व्‍यक्‍त की गई चिंताओं और जीएम फसलों पर संसद की स्थायी समिति की रिपोर्ट व सुप्रीम कोर्ट की तकनीकी समिति की सिफारिशों का पूरी तरह पालन करना आवश्यरक है।

मुझे समझ नहीं आ रहा है कि जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रेजल कमेटी (जीईएसी) पूर्व पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश द्वारा जीएम फसलों पर रोक के समय पेश की गई 19 पेजों की रिपोर्ट को नतीजों को दरकिनार क्यों कर रही है? क्या जीएम इंडस्‍ट्री इतनी ताकतवर है कि जीईएसी एक पूर्व मंत्री के नेतृत्व में आरंभ हुई एक वैज्ञानिक बहस को नजरअंदाज कर देना चाहती है? जीएम सरसों का कोई प्रत्‍यक्ष लाभ न होने के बावजूद स्‍वास्‍थ्‍य और पर्यावरण से जुड़ी चिंताओं की ऐसी अनदेखी?

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(देविंदर शर्मा कृषि और खाद्य नीति से जुड़े मामलों के जाने-माने विशेषज्ञ हैं।)

यहां प्रस्‍तुत लेख मूलत: biospectrum पत्रिका में प्रकाशित हुआ था जो यहां पढ़ा जा सकता है http://www.biospectrumindia.com/biospecindia/views/223161/why-india-gm-mustard