न्यू इंडिया में दो आत्महत्याएं और एक सबक

 

23 मई को जब 17वीं लोकसभा के नतीजे देश को चौका रहे थे, तभी मुंबई से एक युवा डॉक्टर की खुदकुशी की खबर भी आई। एक तरह जहां नरेंद्र मोदी और भाजपा की भारी जीत को जातियों की पकड़ कमजोर पड़ने का सबूत बताया जा रहा था, वहीं एक और युवा प्रतिभा जातिगत उत्पीड़न का शिकार हो गई। यह घटना हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी के छात्र रोहित वेमुला की याद दिलाती है। ऐसी घटनाएं बताती हैं कि देश के उम्दा संस्थानों में काम करने वाले लोग भी निजी जिंदगी में कितने रूढ़िवादी और जातिवादी हैं। कमजोर सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि से आने वाले छात्रों को टॉप संस्थानों में प्रवेश पाने के बावजूद संदेह की नजर से देखा जाता है। उनकी मैरिट पर सवालिया निशान लगाया जाता है।

मुंबई के एक सरकारी मेडिकल कॉलेज में पोस्ट ग्रेजुएट की छात्रा और रेजीडेंट डॉक्टर पायल तडवी की आत्महत्या के मामले में तीन सीनियर रेजिडेंट डॉक्टरों भक्ति मेहर, हेमा आहुजा और अंकिता खंडेलवाल को गिरफ्तार किया गया है। ये तीनों पायल की सीनियर हैं और उसके साथ हॉस्टल में रहती थी। जातिगत आधार पर किसी महिला के उत्पीड़न में महिलाओं का शामिल होना और भी ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण है। जबकि सभी समुदायों की स्त्रियां समान रूप से पितृसत्ता की सताई हुई हैं, फिर भी दलित-पिछड़ी महिलाओं के उत्पीड़न में सवर्ण महिलाएं बढ़-चढ़कर शामिल रहती हैं। इसे परवरिश या माहौल का असर मान सकते हैं लेकिन समूचे नारी विमर्श के लिए जटिल प्रश्न है।

पायल की मां आबेदा तडवी ने आरोप लगाया है कि तीनों सीनियर रेजीडेंट डॉक्टर उनकी बेटी को जातिगत आधार पर प्रताड़ित किया। वे उसके खिलाफ जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल करती थी। इस उत्पीड़न से तंग आकर पायल ने फांसी लगाकर जान दे दी। मुंबई पुलिस ने इस केस में अत्याचार-विरोधी, रैगिंग-विरोध और आईटी ऐक्ट के तहत मामला दर्ज किया है। फिलहाल, पूरा मामला जांच के दायरे में है। यह हत्या है या आत्म हत्या, इसे लेकर भी संदेह है।

सांस्थानिक नाकामी

इस घटना ने उच्च शिक्षण संस्थानों में व्याप्त जातिगत भेदभाव को एक बार फिर उजागर किया है। इस तरह का यह पहला मामला नहीं है। शिक्षा, रोजगार और बाजार से पैदा अवसरों के चलते दलित-पिछड़ों और आदिवासियों को जैसे-जैसे आगे बढ़ने के अवसर मिल रहे हैं, पुरानी पूर्वाग्रह और टकराव नए-नए रूपों में सामने आ रहे हैं। इन टकरावों की ताजा मिसाल है डॉ. पायल की आत्महत्या! हैरानी की बात है कि संवैधानिक प्रावधानों और कानूनी उपायों के बावजूद देश के टॉप संस्थान जातिगत भेदभाव रोकने में नाकाम हो रहे हैं।

डॉ. पायल पोस्ट ग्रेजुएट मेडिकल की छात्रा थी और हॉस्टल में उसके साथ होने वाले उत्पीड़न के काफी भयावह ब्यौरे सामने आ रहे हैं। कैसे उस पर जातिगत छींटाकशी की जाती थी, वाट्स एप ग्रुप में मजाक बनाया जाता था और रैगिंग होती थी, ये बातें मीडिया के बड़े हिस्से ने रिपोर्ट की हैं। पता चला है कि कॉलेज प्रशासन को लिखित शिकायत के बावजूद डॉ. पायल को लगातार परेशान किया जाता रहा। पायल की मां आबेदा तडवी का कहना है कि पायल के साथ होने वाले बुरे बर्ताव को उन्होंने अस्पताल में अपने इलाज के दौरान खुद भी महसूस किया था।

देश के उम्दा शिक्षण संस्थानों में जगह बनाने के बावजूद दलित, आदिवासी और पिछड़ी पृष्ठभूमि से आने वाले छात्रों को किस प्रकार के मानसिक उत्पीड़न और भेदभाव का सामना करना पड़ता है, यह किसी से छिपा नहीं है। जबकि आम धारणा है कि शिक्षित होने के साथ लोग जातिगत भेदभाव और छुआछूत जैसी बुराईयों से लोग ऊपर उठ जाएंगे। लेकिन उच्च शिक्षण संस्थान इस मामले में समाज के बाकी हिस्सों से अलग या बेहतर साबित नहीं हो रहे हैं।

आरक्षित सीटों पर प्रवेश पाने वाले उम्मीदवारों को जातिवादी टिप्पणियों का सामना करना पड़ता है। उन्हें बात-बात में नीचा दिखाने की कोशिश की जाती है। उनकी प्रतिभा पर सवाल खड़ा किया जाता है। इस तरह अकादमिक जगत के सर्वोच्च शिखरों पर भी जातिगत पूर्वाग्रहों की जकड़ कमजोर नहीं पड़ती। जिस आरक्षण को बरसों के भेदभाव को मिटाने का माध्यम माना गया था, वो एक नए भेदभाव का कारण बना दिया गया है। रोहित वेमुला और पायल तडवी इन दोनों ही मामलों में एक चीज समान है। दोनों के संस्थान उनका बचाव करने, उनकी उम्मीदों पर खरा उतरने में नाकाम रहे। जिन संस्थानों पर मानवीय मूल्यों को बचाने का जिम्मा था, वे अपने छात्रों को जातिगत भेदभाव से भी नहीं बचा पाए।

नए संपर्क, नए टकराव

गौर करने वाले बात यह भी है कि बरसों से एक-दूसरे से दूर रहे समुदायों के लोग शिक्षा, रोजगार या आर्थिक गतिविधियों के कारण और लोकतंत्र व बाजार के दबाव में जैसे-जैसे नजदीक आ रहे हैं, उनके बीच बरसों से दबा द्वेष और टकराव भी उभर रहा है। इस तरह जातियों की पकड़ कुछ ढीली पड़ने और जातीय टकराव बढ़ने का सिलसिला साथ-साथ जारी है। इन टकरावों से बचने-बचाने के पुख्ता उपाय न तो शिक्षण संस्थानों के पास हैं और न ही कार्यस्थलों  पर दिखाई पड़ते हैं।

जातिगत उत्पीड़न के अलावा भारत में छात्रों की खुदकुशी अपने आप में एक बड़ी समस्या है। डॉ. पायल के मामले में ये दोनों समस्याएं सम्मलित रूप से सामने आती हैं। एनसीआरबी के साल 2015 के आंकड़ों के मुताबिक, भारत में हर घंटे कोई न कोई छात्र खुदकुशी कर लेता है। लैंसेट की 2012 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत 15 से 29 साल के नौजवानों की सर्वाधिक आत्महत्या दर वाले देशों में शुमार है।

उच्च संस्थान में जातिगत भेदभाव

आश्चर्य की बात है कि तमाम कानूनी और संवैधानिक उपायों और समाज के कथित तौर पर आधुनिक होने के बावजूद जाति के आधार पर दलित, आदिवासी और पिछड़ों के उत्पीड़न की घटनाएं थमने का नाम नहीं ले रही हैं। जबकि दूसरी तरफ जातियों के बंधन टूटने के दावे किये जा रहे हैं। आरक्षण के खिलाफ भी जातिगत भेदभाव खत्म होने का तर्क अक्सर दिया जाता है। जबकि सच्चाई यह है कि देश में हर 16 मिनट में दलितोंं के खिलाफ कोई न कोई अपराध घटित होता है। दलितों की पिटाई के वीडियो अब आम हो चुके हैं। इसके पीछे कानून का खौफ न होना और समूचे समुदाय को डराने की मंशा नहीं तो और क्या है?

यूपीए सरकार के दौरान सुखदेव थोराट कमेटी ने एम्स में जातिगत भेदभाव और उत्पीड़न कलई खोल दी थी। थोराट समिति को एम्स के 72 फीसदी दलित और आदिवासी छात्रों ने बताया कि वे जातिगत भेदभाव का शिकार हैं। 76 फीसदी छात्रों ने बताया कि परीक्षा में छात्रों का मूल्यांकन भी उनकी जाति से प्रभावित होता है। प्रोफेसर उनके प्रति उदासीन रहते हैं और जाति की वजह से उनकी अनदेखी करते थे। दलित और आदिवासी शिक्षकों का सही प्रतिनिधित्व न होना भी इसकी बड़ी वजह है।

जाति के अलावा कमजोर अंग्रेजी और कम्युनिकेशन स्किल की वजह से भी कैंपसों में कमजोर पृष्ठभूमि वाले छात्रों को मानसिक उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है। क्लासरूम से लेकर हॉस्टल और आपसी मेलजोल में जातिगत भेदभाव कई रूपों में सामने आता है। कुछ साल पहले यूजीसी ने विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में समान अवसर सेल स्थापित करने की गाइडलाइन जारी की थी लेकिन ज्यादातर मेडिकल कॉलेज यूजीसी के दिशानिर्देशों को लेकर बेपरवाह बने रहे।

दलित-पिछड़ों पर बढ़ते हमले 

डॉ. पायल की खुदकुशी को देश में नफरत के माहौल और दलित उत्पीड़न की बढ़ती घटनाओं से जोड़कर देखा जा सकता है। उत्तराखंड में एक विवाह समारोह के दौरान कुर्सी पर बैठने को लेकर दलित युवक पर जानलेवा हमला हुआ तो गुजरात में दलित युवक को घोड़ी पर चढ़ने से रोकने के थरसक प्रयास किए गए। अलवर में दलित युवती के साथ गैंगरेप और जातिसूचक टिप्पणियों वाला वीडियो वायरल होना किसी भी सभ्य समाज के लिए शर्मिंदगी का सबब होना चाहिए। लेकिन हो रहा है इसका उलटा। जातिगत भेदभाव, छुआछूत और उत्पीड़न को नकारने के बजाय दलित-आदिवासियों के सुरक्षा कवच संविधान और एससी-एसटी (अत्याचार निवारण) कानून को ही कमजोर करने के प्रयास किए जा रहे हैं।

ये सब घटनाएं उस दौर में हो रही हैं जब गोडसे को देशभक्त बताने वाले संसद में हैं और ईश्वर चंद्र विद्यासागर की मूर्ति तोड़ी जा रही है। जबकि इस दौर में देश की कथित ऊंची जातियों को आत्म-मूल्यांकन करने और जाति, धर्म, रंग, क्षेत्र के आधार पर भेदभाव से ऊपर उठने की जरूरत है। अगर ऐसा नहीं हुआ तो राजनीति में भले ही जातियों के समीकरण ध्वस्त हो जाएं, समाज में डॉ. पायल और रोहित वेमुला जैसी प्रतिभाएं अपना गला घोंटने को मजबूर होती रहेंगी।

(डॉ. के. वेेलेंटीना समाज विज्ञानी और दिल्ली की अम्बेडकर यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।)