मजाक और मजबूरियों के बीच गायब मुद्दे

 

एक पुरानी लोक कथा है जिसमें एक तपस्वी की कड़ी तपस्या के बाद भगवान उसकी प्रार्थना से खुश होकर उसके समक्ष प्रकट हुए। भगवान ने वरदान देने से पहले एक शर्त रखी। शर्त यह थी कि भगवान तपस्वी को जो भी देंगे, उसके घनिष्ट दोस्त को उसका दुगना मिलेगा। तपस्वी ने कुछ देर सोचने के बाद भगवान से अपनी एक आंख को निकाल लेने को कहा। उसका दोस्त पूरी तरह से अंधा हो गया।

आज के भारत में यह कोई लोक कथा नहीं रही। यह वर्तमान शासन प्रणाली का एक तरीका बन चुका है जहां किसी ‘अन्य’ के दुःख और असहायता से हम अपने सुख और सम्पन्नता को तोलने लगे हैं। जहां दूसरों की विफलता, हमारी सफलता का पैमाना हो गई है। उदाहरण के तौर पर, कुछ लोग गौरक्षा के नाम पर मुस्लिमों पर हमले करने, उनकी हत्या तक कर देने को भी जायज ठहराने लगते हैं। यह विकृत सोच हिंदुस्तान के संविधान और सभ्यता के विपरीत है। एक तरफ लीक हुए सरकारी आंकड़ों से संकेत मिलता है कि बेरोजगारी पिछले 45 साल में सबसे ऊंचाई पर है, वहां दूसरी तरफ प्रज्ञा ठाकुर जैसे आतंक के आरोपियों को लोकसभा का टिकट दिया जाता है। मकसद साफ है, हिंदुत्व के परदे से जनता के असल मुद्दों को ढक दो। देखते ही देखते ‘सबका साथ’ काल्पनिक बन गया और ‘सबका विकास’ केवल नारा और मजाक बनकर रह गया।

इस दौर का सबसे घिनौना मजाक नोटबंदी था। सूचना के अधिकार कानून द्वारा पता चला है कि आरबीआई ने नोटबंदी करने से मना किया था। लेकिन आरबीआई की इस सलाह को नकारते हुए नोटबंदी का ऐलान किया गया। नोटबंदी का 99% से ज्यादा पैसा आरबीआई को वापस मिल गया। अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय की स्टेट ऑफ वर्किंग इन इंडिया रिपोर्ट 2019 (एसडब्ल्यूआई) एक गंभीर स्थिति को दर्शाती है – (1) नोटबंदी के बाद कम से कम 55 लाख पुरुषों का रोजगार छिन गया (2) 20-24 वर्ष की आयु के लगभग हर 5 में से 3 पुरुष बेरोजगार हैं। केंद्र सरकार की प्रतिक्रिया आकड़ों को दबाने या फिर ईपीएफओ और मुद्रा जैसे अधूरे डेटा को दिखाकर लोगों को बहकाने की रही।

नोटबंदी के बाद गरीबों को यह भरोसा दिलाया गया कि इससे जो काला धन मिलेगा, उससे उनके जनधन खातों में 15 लाख रुपये जमा होंगे। लेकिन ना काला धन मिला और न ही किसी के जनधन खाते में कोई पैसा आया। जो सरकार काला धन लाने की बात करती थी उसकी निगाहों के सामने 36 बड़े व्यापारी हाल के दिनों में बैंकों का पैसा लेकर देश छोड़कर भाग गए हैं।

अब मजाक का कारवां निकल चुका था। कहा गया कि आधार कार्ड का मकसद उन्हें पहचान देना है जिनके पास और कोई पहचान पत्र नहीं है। परंतु जितने लोगों ने आधार बनवाया उनमें से 99.97% ने कोई मौजूदा पहचान पत्र जैसे – राशन कार्ड या वोटर कार्ड का उपयोग किया। यानी उनके पास कोई न कोई पहचान पत्र पहले से था। तो फिर उन्हें आधार की क्या जरूरत थी? फिर कहा गया कि आधार का उपयोग सही लाभार्थी तक सरकारी योजनाओं के लाभ पहुंचाने के लिए किया जा रहा है। परंतु सच तो यह है कि आधार गलत तरीके से जुड़ने के कारण कई लोगों को छात्रवृत्ति, गैस सब्सिडी, आवास योजना का पैसा इत्यादि पाने में अत्यंत परेशानी हुई है। बायोमेट्रिक पहचान की प्रक्रिया में विफलताओं के कारण राशन और पेंशन से वंचित कम से कम 75 लोगों की भूख से मौत हो चुकी है। हैदराबाद के इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस ने झारखंड के पिछले 4 सालों के एक करोड़ मनरेगा मजदूरी भुगतानों का अध्ययन किया तो पता चला कि जो मजदूरी भुगतान आधार से जुड़े थे, उनमें से 38% किसी अन्य मजदूर के खाते में जमा हुए।

मनरेगा के तहत हर साल करीब 7.5 करोड़ लोगों को रोजगार मिलता है। पिछले पांच साल में हर साल वित्त मंत्री ऐलान करते आये हैं कि इस साल मनरेगा का आवंटन सर्वाधिक है। मगर महंगाई को समायोजित करते हुए देखा जाए तो पिछले पांच साल में हर साल का आवंटन 2010-11 के आवंटन से भी कम था। जबकि हर साल करीब 20 फीसदी आवंटन पिछले सालों का लंबित भुगतान है। केंद्र सरकार का दावा है कि 90 फीसदी भुगतान 15 दिन में हुए हैं लेकिन वास्तव में केवल 21 फीसदी भुगतान 15 दिनों में हुए हैं। यह लंबित भुगतान सुप्रीम कोर्ट के आदेश का उल्लंघन है। बेरोजगारी की समस्या को हल करने में मनरेगा के शक्तिकरण के साथ शहरी रोजगार कानून की जरूरत है। एसडब्ल्यूआई की रिपोर्ट में भी इसकी सिफारिश की गई है।

मोदी सरकार के पांच साल के कामकाज और दावों में अंतर की लंबी फेहरिस्त है। मिसाल के तौर पर, वर्ष 2019-20 में आयुष्मान भारत के तहत 10 करोड़ परिवारों के लिए 6 हजार करोड़ रुपये के आवंटन का दावा किया गया। परंतु हिसाब लगाईये तो पता चलेगा कि इस पैसे में देश के सिर्फ 1.20 लाख परिवार ही 5 लाख की बीमा का फायदा उठा पाएंगे। यह मजाक नही तो क्या है?

खुले में शौच से मुक्ति पर भी इस सरकार का खूब जोर रहा है। इसी के चलते कई जिलों को खुले में शौच मुक्त घोषित कर दिया गया। लेकिन अमेरिका के एक विश्वविद्यालय में शोध कर रहे आशीष गुप्ता की टीम के अध्ययन से पता चला कि गांवों को खुले में शौच से मुक्त (ODF) होने के दावे पूरी तरह झूठे हैं। जबकि खुले में शौच रोकने के लिए सरकार जोर-जबरदस्ती की रणनीति अपना रही है। इसके लिए ‘निगरानी समितियां’ बनाई गई हैं जो शौच करते लोगों से लोटा छीनकर, उनकी तस्वीरें लेकर सार्वजनिक रूप से पोस्टर बनवाकर गांव में चिपकाती हैं। कहीं शौचालय बनने तक राशन रोक दिया गया तो कहीं ड्रोन का इस्तेमाल कर खुले में शौच करने वालों के वीडियो बनाए गए। क्या यह एक सभ्य समाज की निशानी है?

बीते पांच साल गोरक्षा के नाम पर गुंडागर्दी और मॉब लिचिंग की वजह से भी भुलाए नहीं जा सकेंगे। झारखंड के गुमला जिले में 11 अप्रैल, 2019 को कुछ लोगों ने आदिवासी समुदाय के चार व्यक्तियों को गोहत्या के शक में बेरहमी से मारा-पीटा था जिनमें से एक प्रकाश लकड़ा की मौत हो गई। हैरानी की बात है कि जिन गरीब आदिवासियों की पिटाई हुई उन्हीं के ऊपर झारखण्ड गोवंशीय पशु हत्या प्रतिषेध अधिनियम, 2005 के तहत मुकदमा दर्ज करा दिया गया, जबकि अपराधी फरार हैं। इसी तरह राजस्थान में अलवर के रहने वाले उमर खान भी 2017 में मॉब लिंचिंग के शिकार हुए थे। यहां भी पीड़ित परिवार को न्याय दिलाने के बजाय उमर के बेटे मकसूद को गोतस्करी के आरोप में जेल में डाल दिया गया।

कश्मीर के बडगाम जिले में मेजर नितिन गोगोई द्वारा सेना की जीप के बोनट से बंधे फारुख अहमद दार की छवि हमारी मानवता के पतन का स्थायी गवाह बनी रहेगी। दार तब से अत्यधिक न्यूनता और अनिद्रा से पीड़ित हैं। समाज को नफरत, विकृति, और हिंसा की आग में धकेला जा रहा है। सरकार कहती है सेना को खुली छूट दी है, परन्तु सच यह है कि देश में दहशत फैलाने वालों को खुली छूट मिल रही है। जबकि भारत को एक शांतिप्रिय, समावेशी, न्यायसंगत, पारदर्शी और जवाबदेह सरकार की जरुरत है।

राजेंद्रन (@rajendran_naray) अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी, बेंगलुरु और शयानदेब (@sayandeb) अम्बेडकर यूनिवर्सिटी, दिल्ली में पढ़ाते हैं।)