किसानों के लिए क्यों जरूरी है एमएसपी की गारंटी
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भारत में तीन कृषि कानूनों को रद्द करने की लेकर एक तरफ ऐतिहासिक किसान आंदोलन चल रहा है वहीं एमएसपी पर खरीफ फसलों की खरीद भी जारी है। यह किसान आंदोलन का ही असर है कि खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय और कृषि मंत्रालय रोज धान और अन्य फसलों की खरीद के आंकड़े जारी करते हुए एक जताने का दावा कर रहा है कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य यानि एमएसपी पर खरीद के प्रति कितनी गंभीर है।
खैर तीनों कानूनों के लागू होने के बाद सरकार खरीफ 2020-21 में रिकार्ड खरीद का दावा कर रही है। किसान आंदोलन का यह असर है कि मौजूदा खरीद के आंकड़े रोज सरकार जारी कर रही है। एमएसपी पर धान 23 राज्यों में और गेहूं 10 राज्यों में खरीदा जाता है। इस बार सरकारी मंशा 156 लाख से अधिक किसानों से 738 लाख टन तक धान खरीदने की है जिस पर 1.40 लाख करोड़ रुपए व्यय होगे। पिछले साल 627 लाख टन धान खरीदी हुई थी। इस बार 125 लाख गांठ कपास की खरीद का लक्ष्य भी सरकार ने रखा है जिस पर 35,500 करोड़ रुपए व्यय होगा। धान खरीदी के लिए इस बार देश भर में करीब 40 हजार केंद्र खोले गए हैं। फिर भी उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों की बुरी दशा है जहां पखवारे तक भाग दौड़ के बाद भी तमाम किसान अपना धान नहीं बेंच पा रहे हैं और मजबूरी में एक हजार से 1200 रुपए में व्यापारियों को बेच रहे हैं। जबकि धान का एमएसपी 1868 रुपए कामन और 1888 रुपए प्रति कुंतल ए ग्रेड का है।
सरकार एमएसपी पर देश भर में 15 दिसंबर तक करीब 391 लाख टन धान की खरीदी कर चुकी है। यह पिछले साल इसी अवधि की गयी 319 लाख टन से 22.41 फीसदी ज्यादा है। खरीद में भी सबसे अधिक 202 लाख टन से अधिक का योजना पंजाब का है जो करीब 52 फीसदी का बैठता है। 22 नवंबर तक पंजाब का योगदान करीब 70 फीसदी तक था। अब तक खरीफ में 73,781 करोड़ रुपये से अधिक का धान किसानों से खरीदा गया है और इससे 44.32 लाख किसान लाभान्वित हुए हैं। वही 52.40 करोड़ रुपये एमएसपी मूल्य पर 5089 टन खोपरा खरीद से कर्नाटक और तमिलनाडु के 3,961 किसानों को फायदा हुआ। धान के बाद सबसे अधिक 10.01 लाख किसानों को एमएसपी पर कपास बेचने से हुआ। कपास खरीद पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, ओडिशा और कर्नाटक राज्यों में जारी है और अब तक 14,894 करोड़ रुपये से अधिक दाम पर 5179479 गांठ कपास खरीदी गयी है।
पंजाब में सबसे अधिक खरीद की वजह व्यवस्थित तैयारी और मंडियां भी हैं। लेकिन इसी साल देश मे पंजाब से भी अधिक और 129.42 लाख टन गेहूं मध्य प्रदेश ने खरीदा, जबकि उत्तर प्रदेश केवल 35.77 लाख टन खरीदी के साथ चौथे नंबर पर रहा। एमएसपी पर खरीद को लेकर कई राज्यों में दिक्कतें हैं। इसी साल के आरंभ में आंध्र प्रदेश में धान किसानों की समस्याओं को लेकर उपराष्ट्रपति एम वेंकैया नायडु को कृषि मंत्री और खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्री से हस्तक्षेप करना पड़ा था। बाद में 2 मार्च 2020 को खाद्य मंत्रालय और एफसीआई के अधिकारियों ने उपराष्ट्रपति से मुलाकात कर धान किसानों से समय पर खरीदारी न होने और समय पर भुगतान के मसले पर सफाई दी और समाधान के लिए जल्दी कार्रवाई करने औऱ राज्य सरकार को बकाया राशि का तुरन्त भुगतान करने की बात कही।
इस समय चल रहा देशव्यापी किसान आंदोलन तीनों कृषि कानूनों को रद्द करने के साथ एमएसपी पर खरीद की कानूनी गारंटी भी मांग रहा है। किसानों की एमएसपी की मांग को राष्ट्रव्यापी समर्थन मिलते देख भारत सरकार के कई मंत्री एक स्वर में एमएसपी पर खरीद जारी रखने की बात किसान संगठनों को लिख कर देने को तैयार है। लेकिन किसान चाहते हैं कि सरकार ऐसा कानून बनाए जिससे कोई भी उनके उत्पाद को एमएसपी से नीचे न खरीद सके। उसके लिए दंड की व्यवस्था हो। अभी एमएसपी पर खरीद दो दर्जन फसलों तक सीमित है। लेकिन गेहूं औऱ धान को छोड़ दें तो अधिकतर फसलों की खरीद दयनीय दशा में है। और ऐसा नहीं है कि मौजूदा किसान आंदोंलन में ही एमएसपी पर खरीद की चर्चा हो रही है। बीती एक सदी से किसान आंदोलनों के केंद्र में कृषि मूल्य नीति या वाजिब दाम शामिल रहा है।
भारतीय किसान यूनियन के नेता स्व. महेंद्र सिंह टिकैत अपने जीवनकाल में कृषि उत्पादों के मूल्य 1967 को आधार वर्ष पर तय करने की मांग करते रहे। सारे प्रमुख किसान संगठन भी इस मांग से सहमत थे। अस्सी के दशक के बाद कोई ऐसा किसान आंदोलन नहीं हुआ जिसमें फसलों का वाजिब दाम न शामिल रहा हो। खुद संसद, संसदीय समितियों और विधान सभाओं में इस पर व्यापक चर्चाएं हुई हैं। किसान संगठन चाहते हैं कि उनका उत्पाद सरकार खरीदे या निजी क्षेत्र लेकिन सही दाम मिलेगा तो उनके जीवन स्तर पर असर पड़ेगा और देश की अर्थव्यवस्था पर भी।
भारत के किसानों ने कठिन चुनौतियों और अपनी मेहनत से कम उत्पादकता के बावजूद भारत को चीन के बाद सबसे बडा फल औऱ सब्जी उत्पादक बना दिया है। चीन और अमेरिका के बाद सबसे बड़ा खाद्यान्न उत्पादक देश भारत ही है। पांच दशको में हमारा गेहूं उत्पादन 9 गुना और धान उत्पादन पांच गुणा से ज्यादा बढ़ा है। लेकिन खेती की लागत भी लगातार बढी है, जबकि उनके उत्पादों के दाम नहीं मिलते। जैसे ही किसान की फसल कटने वाली होती है, दाम गिरने लगते हैं। मौजूदा तीन कृषि कानूनो के बाद अगर एमएसपी की गारंटी बिना किसान बाजार के हवाले हो गया तो बड़े कारोबारी किसानों और उपभोक्ताओं दोनों की क्या दशा करेंगे, यह बात किसान समझ रहा है।
सरकारी स्तर पर यह दावा हो रहा है कि पीएम-किसान सम्मान निधि जैसी योजना जो सरकार शुरू कर सकती है वह किसानों का अहित कैसे कर सकती है। भूमि जोतों के आधार पर साढे 14 करोड़ किसानों को किसान सम्मान निधि के दायरे में लाने की बात सरकार ने की थी लेकिन अब तक 10 करोड़ किसानों के खाते में सरकार ने एक लाख करोड़ रूपये पहुंचाया है। किसानों के इस आंकड़े के हिसाब से एमएसपी पर सरकारी खरीद को देखेंगे तो पता चलेगा कि कितने कम किसानो से एमएसपी पर उनकी उपज खरीदी जाती है। सरकारी एकाधिकार के दौर में अगर एमएसपी पर खरीद चंद राज्यों और दो फसलों तक सीमित है तो निजी क्षेत्र के दबदबे के बाद बिना गारंटी के किसान की क्या हालत होगी।
संसद के मानसून सत्र में भी यह विषय उठा था तो कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर ने दावा किया था कि अब किसानों को उपज बेचने के प्रतिबंधों से मुक्ति के साथ अधिक विकल्प मिलेगा। कृषि मंडियों के बाहर एमएसपी से ऊंचे दामों पर खरीद होगी। उसी दौरान सांसदों ने मांग की थी कि विधेयक में यह गारंटी शामिल की जाये कि जो कारोबारी मंडियों से बाहर एमएसपी से कम दाम पर खरीदेगा वह दंडित होगा। लेकिन सरकार ने इसे नजरंदाज किया। जिससे किसानों के मन में संदेह का और बीजारोपण हुआ। यही नहीं हाल में हरियाणा और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री अपने राज्यों में अनाज बिक्री के लिए आने वाले दूसरे राज्यों के किसानों को रोकने और दंडित करने की बात तक की। अगर किसान अपनी मर्जी का मालिक है तो ऐसे बंधन क्यों।
सरकार ने इसी साल खरीफ में मूल्य समर्थन योजना के तहत 48.11 लाख टन दलहन और तिलहन की खरीद को मंजूरी दी। लेकिन 15 दिसंबर 2020 तक 1.72 लाख टन से अधिक दलहन खरीद हुई जिसका एमएसपी मूल्य 924.06 करोड़ रुपये है। इस खरीद से तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गुजरात, हरियाणा और राजस्थान के 96,028 किसानों को लाभ मिला। दलहन और तिलहन खरीद को बढ़ावा देने के लिए 2018 में प्रधानमंत्री अन्नदाता आय संरक्षण अभियान के तहत खास तवज्जो दी गयी। लेकिन इसके दिशानिर्देशों में उत्पादित 75 फीसदी फसल खरीद के दायरे से बाहर कर दी गयी। 2020-21 में राजस्थान में कुल 22.07 चना की खरीद हुई जबकि उपचुनावों के नाते मध्य प्रदेश में 27 फीसदी तक चना खरीदी हुई। मूंग खरीद न होने के कारण राजस्थान के किसानों को करीब 98 करोड़ का घाटा उठाना पड़ा। इसे लेकर किसानों ने आंदोलन भी किया और किसान महापंचायत के अध्यक्ष रामपाल जाट ने केंद्र सरकार को पत्र लिख कर गुहार भी लगायी लेकिन हालत नहीं सुधरी।
कोरोना संकट में खाद्य सुरक्षा के हित में किसानों ने खरीफ बुवाई का क्षेत्र 316 लाख हेक्टेयर तक पहुंचा दिया जो पिछले पांच सालों के दौरान औसतन 187 लाख हेक्टेयर था। लेकिन एमएसपी में आशाजनक बढोत्तरी नहीं की गयी। भारतीय किसान यूनियन ने खरीफ एमएसपी घोषणा के साथ ही यह कहते हुए विरोध जताया था कि पिछले पांच वर्षों में इसकी सबसे कम मूल्य वृद्धि रही। धान का एमएससी 2016-17 में 4.3 फीसदी, 2017-18 में 5.4, 2018-19 में 12.9 और 2019-20 में 3.71 फीसदी बढ़ा था जबकि 2020-21 में सबसे कम 2.92 फीसदी बढ़ा।
कृषि मूल्य नीति और मंडियो को लेकर किसानों को तमाम शिकायतें है। मोदी सरकार ने स्वामिनाथन आयोग की सिफारिश के तहत एमएसपी तय करने का वादा किया था। लेकिन इसे आधा अधूरा माना गया। तमाम कमजोरियों के बाद भी सरकारी मंडियां बाजार की तुलना में किसानों के हितों की अधिक रक्षा करती हैं। अगर यह व्यवस्था भी अर्थहीन हो गयीं तो उत्तर भारत का किसान अपना गेहूं या चावल हैदराबाद या भुवनेश्वर के बाजार में बेचने कैसे जाएगा। यह काम बड़ा कारोबारी ही करेगा। बेशक किसान के पास कई विकल्प होने चाहिए। लेकिन यह छोटे किसानों के संदर्भ में 22 हजार ग्रामीण मंडियों या हाट बाजार के विकास से निकल सकते हैं। अधिकतर छोटे किसान अपने गांव में ही छोटे व्यापारियों को उपज बेचते हैं, जिस पर कोई रोक नहीं है। रोक इस पर लगनी चाहिए कि सरकार जो एमएसपी घोषित करती है बाजार में इससे कम में कोई कारोबारी न खरीदे। औद्योगिक औऱ दूसरे उत्पादों को अधिकतम कीमत वसूलने का लाइसेंस देने वाली सरकार किसानों को न्यूनतम मूल्य की गारंटी क्यों नहीं दे सकती।
राज्य सभा में 19 जुलाई, 2019 को गैर-सरकारी सदस्यों के संकल्प के तहत सांसद और भाजपा किसान मोर्चा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष विजय पाल सिंह तोमर ने किसानों की समस्याओं के समाधान के लिए संवैधानिक दर्जे वाले एक राष्ट्रीय किसान आयोग की स्थापना की मांग की थी जिसे व्यापक समर्थन मिला। उनका कहना था कि सरकार यह सुनिश्चित करे कि फसलों को सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम कीमत पर खरीदा या बेचा न जाए और इसका उल्लंघन करने पर दंडात्मक कार्रवाई की जाए। लेकिन अब यह मांग किसान आंदोलन की व्यापक मांग बन गयी है। जमीनी हकीकत यही है कि अगर इस व्यवस्था में किसानो के लिए एमएसपी पर खरीद की कानूनी गारंटी नहीं दी गयी तो सुधार किसानों को गहरी खाई में धकेल देंगे।
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