जमाखोरी रोकने के लिए पुराने कानून का सहारा, सही निकली किसानों की आशंका

किसान जिन तीन कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग को लेकर आंदोलन कर रहे हैं उनमें नया ‘आवश्यक वस्तु अधिनियम’ भी शामिल है. इस अधिनियम को लेकर सरकार का दोहरा चरित्र सामने आया है. सरकार एक ओर तो कृषि कानून के जरिये कृषि उपजों पर स्टॉक लिमिट हटाती है वहीं दूसरी ओर जमाखोरी रोकने के लिए पुराने आवश्यक वस्तु अधिनियम की मदद ले रही है. इतना ही नहीं, आवश्यक वस्तुओं के स्टॉक पर निगरानी रखने के लिए डिजिटाइजेशन का प्रचार कर वाहवाही लूटने की कोशिश की जा रही है.

केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल ने एक ट्वीट किया है जिसमें उन्होंने बताया है कि कैसे मोदी सरकार ने कालाबाजारी को रोकने के लिए आवश्यक वस्तुओं के स्टॉक को ऑनलाइन करने का कदम उठाया है. सरकार ने 22 आवश्यक वस्तुओं के थोक व खुदरा मूल्यों की निगरानी का दावा किया है. केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल ने ट्वीट किया, “उपभोक्ता हित में देश में दालों के स्टॉक का डिजिटाइजेशन! खाद्यान्नों की ब्लैक मार्केटिंग रोकने व बफर स्टॉक के निर्माण में सहायक, अब दालों के स्टॉक की जानकारी अब एक क्लिक पर है उपलब्ध.”

अब सवाल है कि अगर पुराने आवश्ययक वस्तु अधिनियम के तहत उठाए गए ये कदम इतने प्रभावी हैं कि इसके लिए बाकायदा प्रधानमंत्री का फोटो लगाकर प्रचार किया जा रहा है तो फिर कृषि कानून के जरिये आवश्यक वस्तु अधिनियम को बदलने की क्या जरूरत है जिसका किसान भी पिछले दस महीने से विरोध कर रहे हैं.

आंदोलनकारी किसान स्टॉक लिमिट हटने से जमाखोरी की आशंका जताते हुए पहले दिन से कृषि कानूनों का विरोध कर रहे हैं. अब ये आशंकाएं सही साबित हो रही है। जमाखोरी रोकने के लिए सरकार को पुराने कानून का सहारा लेना पड़ रहा है. यही सरकार कृषि कानून के जरिये स्टॉक लिमिट हटाने को ऐतिहासिक बता रही थी.

वहीं केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयक के ट्विट पर प्रतिक्रिया देते हुए खेती-किसानी को प्रमुखता से कवर करने वाले पत्रकार अजीत सिंह ने लिखा “कृषि कानून लाकर जमाखोरी की खुली छूट दी तो उसे ऐतिहासिक कदम बताया अब जमाखोरी रोकने के लिए पुराने आवश्यक वस्तु अधिनियम का सहारा लिया तो इसकी भी वाहवाही बटोरी जा रही है. नीतिगत विरोधाभास का गजब उदाहरण है.”

इसको लेकर बाकायदा पीआईबी (प्रेस इनफार्मेशन ब्यूरो) ने ‘उपभोक्‍ता कार्य, खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण मंत्रालय’ की ओर से प्रेस रिलीज भी जारी की है. प्रेस रिलीज में 11 हजार से अधिक स्टॉकिस्टों द्वारा सरकारी पोर्टल पर दालों का करीबन 31लाख मीट्रिक टन भंडार घोषित करने का दावा किया गया है.

सरकार के अनुसार ‘उपभोक्‍ता कार्य, खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण मंत्रालय’ का उपभोक्ता मामले विभाग 22 आवश्यक खाद्य वस्तुओं के खुदरा और थोक मूल्यों की निगरानी कर रहा है. यह विभाग कालाबाजारी पर अंकुश लगाने, बफर स्टॉक बनाने और असामान्य मूल्य वृद्धि को कम करने के लिए समय पर भंडार सुनिश्चित करने का काम करता है.

तीन नये कृषि कानूनों में से एक ‘आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन’ के लागू होने से कई कृषि उत्पादों के भंडारण पर कोई रोक नहीं होगी और कोई भी व्यापारी बिना लिमिट स्टॉक कर सकेगा. इसका किसान लगातार विरोध कर रहे हैं. लेकिन अब सरकार द्वारा पुराने आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत उठाये गए कदम का प्रचार करना कहीं न कहीं किसानों की बात पर मुहर लगाता है कि कृषि कानून किसानों के साथ-साथ उपभोक्ताओं के हित में नहीं है। इससे जमाखोरी बढ़ेगी।

सही निकली किसानों की आशंका, दालों की जमाखोरी ने बढ़ायी सरकारी की चिंता

तीन विवादित कृषि कानूनों में से एक आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक, 2020 को लेकर किसानों की आशंका सही साबित हुई। केंद्र सरकार ने जिस कानून को बदलकर अनाज, दाल, खाद्य तेल, तिलहन, आलू और प्याज को आवश्यक वस्तुओं की सूची से बाहर कर दिया था, अब जमाखोरी रोकने के लिए उसी पुराने कानून का सहारा लेना पड़ रहा है। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, गत वर्ष की तुलना में दालों के खुदरा दाम 33 फीसदी तक बढ़ चुके हैं। इसके पीछे जमाखोरी को वजह माना जा रहा है।  

सोमवार को भारत सरकार के उपभोक्ता मामलों के विभाग की सचिव लीना नंदन ने राज्यों के खाद्य एवं आपूर्ति विभाग के प्रमुख सचिवों के साथ वीडियो कांफ्रेंस करते हुए देश में दालों की उपलब्धता और कीमतों की समीक्षा की। बैठक में दालों की कीमतों में अचानक बढ़ोतरी के पीछे जमाखोरी की आशंका जतायी गई। केंद्र सरकार ने राज्यों को आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 की शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए जरूरी चीजों की उपलब्धता सुनिश्चित कराने को कहा है। इससे पहले 14 मई को केंद्र सरकार ने राज्यों को पत्र लिखकर व्यापारियों, निर्यातकों और मिलर्स से दालों के स्टॉक की जानकारी लेने को कहा था। राज्यों को साप्ताहिक आधार पर दालों की कीमतों पर नजर रखने के निर्देश दिए गये हैं।  

केंद्र सरकार ने पिछले साल आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 में संशोधन कर अनाज, दाल, तिलहन, खाद्य तेल, आलू और प्याज को आवश्यक वस्तुओं की सूची से बाहर कर दिया था। इसके लिए केंद्र सरकार लॉकडाउन के दौरान ही आवश्यक वस्तु (संशोधन) अध्यादेश, 2020 लेकर आई थी और सितंबर में इसका विधेयक संसद में पारित हुआ था। मगर किसान आंदोलन के चलते इस साल जनवरी में सुप्रीम कोर्ट ने आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक, 2020 समेत तीनों कृषि कानूनों पर रोक लगा दी। फिलहाल आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 लागू है, जिनका इस्तेमाल सरकार जमाखोरी पर अंकुश लगाने के लिए कर रही है।

किसान संगठन पिछले साल से ही कृषि उत्पादों को आवश्यक वस्तुओं की सूची से बाहर कर जमाखोरी की खुली छूट दिए जाने का विरोध कर रहे हैं। अब कोराना संकट के बीच जैसे ही दालों की कीमतों में उछाल आया तो केंद्र सरकार को नेहरू दौर के उसी आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 की याद आई, जिसे बदलने के लिए उसने पूरी ताकत लगा दी थी। यह कानून उस समय का है जब आजादी के बाद देश खाद्यान्न संकट से जूझ रहा था और जमाखोरी रोकना बड़ी चुनौती था। इस कानून की जरूरत बाद के वर्षों में भी बनी रही और 22 आवश्यक वस्तुओं को स्टॉक लिमिट के दायरे में लाया गया। इन पर स्टॉक लिमिट लगाने और जमाखोरों पर कार्रवाई करने का अधिकार राज्य सरकारों का दिया गया है।

पिछले साल कृषि सुधारों के तहत अनाज, दाल, तिलहन, खाद्य तेल, आलू और प्याज को आवश्यक वस्तुओं की सूची से बाहर करते हुए सरकार ने तर्क दिया गया था कि इससे कृषि क्षेत्र में निजी निवेश को बढ़ावा मिलेगा। कृषि उपज के स्टॉक की पूरी छूट मिलने से कोल्ड स्टोरेज और फूड सप्लाई चेन में निवेश आकर्षित होगा। जरूरी वस्तुओं को केवल विशेष परिस्थितियों जैसे युद्ध, अकाल, प्राकृतिक आपदा या कीमतों में अत्यधिक बढ़ोतरी की स्थिति में ही रेगुलेट किया जाएगा। जबकि जमाखोरी पर अंकुश लगाने की जरूरत सामान्य परिस्थितियों में भी है। देश की खाद्य सुरक्षा को जमाखोरे के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है। कृषि कानूनों के आलोचकों का यही तर्क है।

नए कानून में बागवानी उपज का खुदरा मूल्य 100 फीसदी और जल्द खराब न होने वाली कृषि उपज के खुदरा दाम 50 फीसदी बढ़ने पर ही स्टॉक लिमिट लगाने का प्रावधान किया गया है। लेकिन प्रोसेसर्स और एक्सपोर्टर्स को उनकी क्षमता और ऑर्डर के आधार पर स्टॉक लिमिट से छूट दी गई। यह लगातार दूसरा साल है जब केंद्र सरकार को जरूरी चीजों  की जमाखोरी रोकने के लिए आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 का सहारा लेना पड़ रहा है। इससे कृषि उत्पादों से स्टॉक लिमिट हटाने की केंद्र सरकार की कोशिशों को झटका है। क्योंकि जमाखोरी रोकने के लिए आवश्यक वस्तुओं पर स्टॉक लिमिट लगाने जैसे उपायों की जरूरत लगातार महसूस की जा रही है।

कृषि से जुड़े 3 फैसले, जिन्हें ऐतिहासिक बता रही है सरकार

पहला फैसला: स्टॉक लिमिट खत्म 

बुधवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में हुई मंत्रिमंडल की बैठक में आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन को मंजूरी दी गई है। इससे दलहन, तिलहन, अनाज, आलू और प्याज आवश्यक वस्तु की सूची से बाहर हो जाएंगे। अब इन पर आपात स्थिति में ही स्टॉक लिमिट लगेगी। सूचना एवं प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर का कहना है कि इस फैसले से किसानों को लाभ पहुंचेगा और कृषि क्षेत्र का कायाकल्प हो जाएगा। सरकार का मानना है कि आवश्यक वस्तु अधिनियम की वजह से कृषि को नुकसान पहुंचा है।

आवश्यक वस्तु अधिनियम में बदलाव क्यों?

अनाज, दाल, तिलहन, आलू और प्याज जैसी वस्तुएं आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत आती हैं, इसलिए इन पर स्टॉक लिमिट लगती है और तय सीमा से ज्यादा भंडारण या ट्रांसपोर्टेशन नहीं हो सकता है। सरकार की सोच है कि स्टॉक लिमिट की पाबंदी के चलते इन वस्तुओं के कारोबार में निजी निवेश नहीं आ पाया। न ही इनका स्टोरेज और एक्सपोर्ट बढ़ पाया है।

सरकार का मानना है कि कृषि उपज के भंडारण, परिवहन, वितरण और आपूर्ति की पाबंदियां हटने से निजी और विदेशी निवेश को बढ़ावा मिलेगा। इससे कोल्ड स्टोरेज और सप्लाई चेन में निवेश आएगा। इस सब का फायदा किसानों को मिलेगा। इसलिए अब सिर्फ युद्ध या अकाल जैसी आपात स्थिति में ही कृषि उपज पर स्टॉक लिमिट जैसी पाबंदियां लगाई जाएंंगी।

दूसरा फैसला: मंडी में बिक्री की बाध्यता खत्म 

मंत्रिमंडल ने कृषि व्यापार की बाधाएं दूर करने के लिए एक अध्यादेश लाने का निर्णय लिया है। कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने बताया कि ‘एक राष्ट्र, एक कृषि बाजार’ बनाने के लिए कृषि उपज व्यापार एवं वाणिज्य (प्रोत्साहन व सुविधा) अध्यादेश, 2020 को मंजूरी दी गई है। इससे किसानों और व्यापारियों को देेेश में कहीं भी उपज खरीदने-बेचने की छूट मिलेगी।

सरकारी विज्ञप्ति के अनुसार, कृषि उपज की बिक्री में किसानों को कई बाधाएं आती हैं। उन्हें मंडी में ही पंजीकृत विक्रेताओं को ही उपज बेचनी पड़ती है। इसके अलावा एक राज्य से दूसरे राज्य के बीच व्यापार में भी कई रुकावटें हैं। सरकार इन बाधाओं को दूर करने जा रही है।

मंडी के बाहर भी उपज बेचने की छूट मिलने से किसानों के पास ज्यादा विकल्प होंगे और प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी जिससे किसानों को बेहतर दाम मिल सकेगा। इस अध्यादेश के जरिए ई-ट्रेडिंग को बढ़ावा देने की बात भी कही गई है।

इस सबसे किसान का भला होगा या ट्रेडर्स या बड़े रिटेलर का यह देखने वाली बात है।

तीसरा फैसला: कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग का रास्ता

किसानों और प्रोसेसर, एग्रीगेटर, होलसेलर, रिटेलर और एक्सपोर्टर के बीच कारोबार को आसान बनाने के लिए भी केंद्र सरकार एक अध्यादेश लेकर आ रही है।

माना जा रहा है कि यह अध्यादेश कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग का रास्ता साफ कर सकता है। वैसे, कहा ये जा रहा है कि इससे किसानों को नई तकनीक का लाभ मिलेगा और जोखिम घटने के साथ-साथ मार्केटिंग का खर्च भी घटेगा। किसान बिचौलियों को हटाकर अपने माल की डायरेक्ट मार्केटिंग कर सकेंगे।

फिलहाल ये सब दावे हैं। असल में क्या होगा, वो देखने वाली बात है। वैसे किसानों से पहले उद्योग जगत ने सरकार के इन फैसलों का स्वागत किया है।

सबसे बड़ा सवाल यह है कि इन फैसलों का लाभ किसानों को मिलेगा या व्यापारियों को या फिर ऑनलाइन रिटेल की दिग्गज कंपनियों को? डर यह है कि कहीं किसानों को मंडी से मुक्त करने के नाम पर मंडियों की रही-सही व्यवस्था भी ध्वस्त न हो जाए। क्योंकि कई साल पहले बिहार ने मंडी एक्ट खत्म किया था, वहां किसानों की हालत और भी बदतर है।

सवाल यह भी है कि जो मुक्त बाजार, जो ऑनलाइन तकनीक, जो मार्केट रिफॉर्म्स अमेरिका में भी किसानों की आमदनी नहीं बढ़ा पाए, उसी रास्ते पर चलकर भारत में किसानों का कल्याण कैसे होगा?

सरकार भले ही इन कृषि सुधारों को ऐतिहासिक बता रही है, लेकिन कृषि सुधार की इन बातों में किसान को उपज का सही दाम दिलाने और सुनिश्चित आय का जिक्र तक नहीं है।

 

 

 

 

किसान को नकद मदद चाहिए, ‘डिरेगुलेशन’ का झुनझुना नहीं

हमारे किसानों को स्वतंत्र करें। वो कोविड-19 के प्रभाव को कम करने में मददगार साबित हो सकते हैं। यहां पर स्वतंत्र करने का मतलब है कि उनकी सप्लाई चेन की रुकावटों को दूर किया जाए। जी हां, वही ‘सप्लाई चेन’ जिसका उल्लेख प्रधानमंत्री जी ने 12 मई को दिए अपने भाषण में 9 बार किया था। इसके बाद, वित्त मंत्री ने ‘फार्म-गेट इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए 1 लाख करोड़ रु. के एग्री इन्फ्रास्ट्रक्चर फंड’ तथा आवश्यक वस्तु अधिनियम एवं एपीएमसी एक्ट में संशोधन के लिए एक ‘लीगल फ्रेमवर्क’ के निर्माण की घोषणा की। कागजों पर देखें, तो ये सही दिशा में उठाए गए साहसी कदम मालूम पड़ते हैं, लेकिन आज फैली महामारी के संदर्भ में इनसे किसानों को कोई राहत नहीं मिलेगी।

कृषि सेक्टर में जान फूंकने का मौजूदा सरकार का पिछला रिकॉर्ड काफी निराशाजनक रहा है। साल 2004-05 से 2013-14 के बीच भारत की औसत कृषि जीडीपी वृद्धि 4 प्रतिशत थी, जो 2014-15 से 2018-19 के बीच गिरकर 2.9 प्रतिशत रह गई।

कृषि देश का सबसे बड़ा निजी क्षेत्र है, लेकिन केंद्र सरकार ने अनेक पाबंदियां लगाकर कृषि क्षेत्र को पूरी क्षमता का इस्तेमाल करने से रोक रखा है। कृषि को नियंत्रित करने की मानसिकता दो ऐतिहासिक कारणों से है। पहला, जब तक हरित क्रांति ने हमें आत्मनिर्भर नहीं बनाया, तब तक भारत खाद्यान्न के लिए विकसित देशों पर निर्भर था। हमारे किसान सूखा, बारिश जैसी हर चुनौती का सामना करते हैं फिर भी हर साल खाद्यान्न उत्पादन में रिकॉर्ड वृद्धि हुई है। अनाज के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) सरकार का दायित्व है, ताकि किसानों को ‘कृषि उत्पादन व उत्पादकता में वृद्धि’ होने पर भी स्थिर व उचित दाम मिल सके।

दूसरा, भारत की राजनैतिक अर्थव्यवस्था में किसानों को उचित दाम 1960 के बाद एक महत्वपूर्ण मुद्दा बन गया क्योंकि बड़े किसान राजनैतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हो चुके थे। किसानों ने अपनी नवअर्जित राजनैतिक शक्ति का उपयोग सरकारी हस्तक्षेप से ऊंचे व ज्यादा स्थिर दाम पाने के लिए किया, जिससे भारत दुनिया में खाद्यान्न का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक बन गया। इस प्रकार सालों से खाद्यान्न आयात करने की भारत की समस्या का अंत हुआ। हमारे लिए रिकॉर्ड स्तर पर खाद्यान्न का उत्पादन गर्व की बात है क्योंकि इसके साथ इतिहास जुड़ा हुआ है। किसी भी कृषि रिपोर्ट में सरकार सबसे पहले इसी का उल्लेख करती है।

खेत से लेकर खाने की मेज तक कृषि सेक्टर पर वास्तविक नियंत्रण सरकार के हाथ में है। प्रतिबंधात्मक स्वामित्व, लीज़ एवं टीनेंसी कानून के रूप में सरकार का पूरा ‘कैपिटल कंट्रोल’ है। अपनी जमीन निजी लोगों को बेचने या किराये पर देने में किसान के सामने कई बाधाएं हैं। खाद-बीज के दाम और पानी-बिजली पर सब्सिडी पर सरकारी नियंत्रण के रूप में सरकार का ‘इनपुट कंट्रोल’ रहता है। कृषि उपकरणों एवं कलपुर्जों पर जीएसटी भी एक तरह का नियंत्रण ही है।

आवश्यक वस्तु अधिनियम कृषि उत्पाद का मूल्य और मात्रा को नियंत्रित करता है। एपीएमसी एक्ट कृषि उपजों की खरीद-फरोख्त की ऐसी व्यवस्था है, जिसमें एकाधिकार, बिचौलिये और कमीशनबाजी हावी है। दुनिया के साथ भारत के किसानों के स्वतंत्र व्यापार को बाधित करने के लिए अनेक व्यापारिक प्रतिबंध हैं।

किसानों के कल्याण के लिए काम करने वाले अनेक विशेषज्ञ एवं नीति-निर्माताओं का मानना है कि भारतीय कृषि को धीरे-धीरे खोला जाना चाहिए। देश की आधी आबादी की आर्थिक स्थिति और पूरे देश की खाद्य सुरक्षा कृषि पर निर्भर है। इसलिए इस सेक्टर के लिए एक स्थिर व संतुलित दृष्टिकोण की आवश्यकता है, न कि डिरेगुलेशन के झुनझुने की। वित्त मंत्री की हाल की घोषणाओं में न तो किसानों को स्वतंत्र करने के लिए कोई ठोस प्रगतिशील नीतिगत उपाय दिए गए और न ही किसी सुधार का रोड मैप है। इन घोषणाओं में सुर्खियां बटोरने के लिए केवल ‘पैकेज’ दिए जाने की औपचारिकता पूरी कर दी।

इसके अनेक कारण हैं। कृषि राज्य का विषय है। केंद्र सरकार ज्यादा से ज्यादा एक ‘मॉडल कानून’ बना सकती है, जिसे सभी राज्य अपनाएं। लेकिन इन्हें अपनाना है या नहीं, यह राज्यों के ऊपर है। केंद्र सरकार ने ‘लिबरलाईज़िंग लैंड लीज़ मार्केट्स एंड इंप्लीमेंटेशन ऑफ मॉडल एग्रीकल्चरल लैंड लीज़ एक्ट, 2016’ पारित करके ऐसा किया भी था। लेकिन यह कानून सत्ताधारी दल के नेतृत्व वाले राज्यों सहित बहुत कम राज्यों ने अपनाया। इसलिए ‘कैपिटल कंट्रोल’ हटाए जाने का उपाय सफल नहीं हो सका।

कृषि वस्तुओं की मार्केटिंग भी राज्य का विषय है। ‘केंद्र सरकार द्वारा किसान को अपना उत्पाद आकर्षक मूल्य में बेच पाने के पर्याप्त विकल्प प्रदान करने के लिए एक कानून बनाए जाने’ तथा ‘स्वतंत्र अंतर्राज्यीय व्यापार की बाधाओं’ को दूर किए जाने की घोषणा करते हुए, वित्तमंत्री जी यह बताना भूल गईं कि यह केवल एक मॉडल कानून होगा, जिसे अपनाना या न अपनाना राज्य के ऊपर निर्भर करेगा, जैसा कि लैंड लीज़ एक्ट में हुआ था।

केंद्र सरकार के लिए दूसरा विकल्प ‘समवर्ती सूची’ की वस्तुओं में आश्रय लिया जाना है, जिसमें ‘खाद्य सामग्री’, ‘रॉ कॉटन’, ‘रॉ जूट’ एवं ‘पशु आहार’ सूचीबद्ध हैं। उसके लिए भी संविधान के अनुच्छेद 301 के तहत एक और कानून को पारित करना होगा।

वित्तमंत्री ने घोषणा की है कि किसानों को प्रोसेसर्स, एग्रीगेटर्स, बड़े रिटेलर्स, एक्सपोर्टर्स आदि से जुड़ने के लिए एक सुविधाजनक कानूनी ढांचा बनाया जाएगा। यह कागज पर बहुत अच्छा लगता है। लेकिन यह एक विस्तृत नीतिगत घोषणा है, जिसका कोई विवरण, रोडमैप या संस्थागत फ्रेमवर्क नहीं दिया गया है।

देश में फैली इस महामारी के दौरान, संसद या इसकी स्टैंडिंग कमेटी वीडियो कॉन्फ्रेंस के माध्यम से भी काम नहीं कर रही हैं। कोई संवैधानिक निगरानी नहीं है। कोई भी विधेयक जन परामर्श के लिए नहीं रखा गया। इसलिए अध्यादेश लाने से कोई भी उद्देश्य पूरा नहीं होगा। सरकार को संसद के मानसून सत्र में संपूर्ण कानूनी प्रारूप प्रस्तुत करना होगा। यह राज्यों से परामर्श लिए नहीं हो सकेगा। बिना संस्थागत प्रारूप के आनन-फानन में नीति थोपने का परिणाम वही होगा, जो बिना योजना के त्रुटिपूर्ण जीएसटी लागू करने का हुआ है।

‘प्राईस एवं ट्रेड कंट्रोल’ को आंशिक रूप से हटाया जाना भी आधा अधूरा उपाय है। कृषि को नियंत्रण मुक्त करने के लिए संपूर्ण ढांचा बदलना होगा। साथ ही लागत और पूंजी संबंधी नियंत्रणों को समाप्त करना होगा। इसके लिए काफी व्यापक योजना और संस्थागत ढांचे की जरूरत होगी। केंद्र सरकार द्वारा प्रारंभ की गई ई-नाम मंडियां बुनियादी ढांचे की योजना के अभाव में विफल साबित हुई हैं।

कोविड-19 के संकट में जब अर्थव्यवस्था संकट में है और किसानों को लागत के लिए पैसे की जरूरत है, ऐसे में उन्हें पुख्ता मदद दिए बिना अधूरी स्वतंत्रता देना उनका उपहास उड़ाने के बराबर है। अच्छा तो यह होता कि पहले उन्हें आर्थिक सहयोग दिया जाए और उसके बाद संस्थागत सुधारों की शुरुआत की जाए।

(लेखक तक्षशिला इंस्टीट्यूट, बैंगलोर में पब्लिक पॉलिसी का अध्ययन कर रहे हैं। लेख में अभिव्यक्त किए गए विचार उनके अपने हैं। लेख का इंग्लिश रूपांतरण सीएनएन न्यूज़18 में प्रकाशित हुआ था।)