सोया राज्य में संकट: मध्यप्रदेश के किसानों की रुचि घटी!
कभी ‘सोया राज्य’ कहलाने वाला मध्यप्रदेश आज अपनी पहचान खोने के कगार पर है. राज्य के सोयाबीन किसान लगातार घटती पैदावार, बढ़ती लागत, बाजार की अस्थिरता और नीति संबंधी उलझनों से परेशान हैं. प्रदेश के किसानों की रुचि इस पारंपरिक नकदी फसल से धीरे-धीरे कम होती जा रही है.
द हिंदू की रिपोर्ट के अनुसार मध्य प्रदेश के कई जिलों खासकर मंदसौर, उज्जैन, विदिशा और होशंगाबाद में किसानों का कहना है कि पहले जहां प्रति एकड़ 5 से 6 क्विंटल तक उपज होती थी, वहीं अब यह घटकर 2 से 2.5 क्विंटल रह गई है. उधर, बीज, खाद, डीजल और मजदूरी की बढ़ती कीमतों ने उत्पादन लागत को दोगुना कर दिया है. वहीं कई किसानों ने बीज की गुणवत्ता को लेकर भी सवाल उठाए हैं. किसान राजेश पाटीदार ने बताया, “महंगे बीज और घटिया गुणवत्ता ने हमें मुश्किल में डाल दिया है. उपज नहीं हो रही, और MSP पर बिक्री भी नहीं मिलती.”
सरकार भले ही हर साल सोयाबीन के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) घोषित करती है, लेकिन अधिकांश किसान अपनी फसल को उससे कम दामों पर बेचने को मजबूर हैं. खरीद केंद्रों की कमी, देर से भुगतान और निजी व्यापारियों के दबाव ने किसानों को असुरक्षित स्थिति में डाल दिया है.
पिछले कुछ वर्षों में अनियमित मानसून, सूखा और तिलहनी फसलों पर लगने वाले रोगों ने उत्पादन को गंभीर रूप से प्रभावित किया है. विशेषज्ञों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन और कीट-रोग प्रबंधन की कमी से सोयाबीन की पैदावार पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है.
राज्य और केंद्र सरकार की नीतियों को लेकर किसानों में असमंजस की स्थिति है. सोयाबीन तेल और मील के आयात ने घरेलू दामों पर दबाव बनाया है. इसके साथ ही सरकार के कुछ संकेत ऐसे हैं कि सोयाबीन की जगह वैकल्पिक फसलों जैसे मक्का या दालें को बढ़ावा दिया जा रहा है. कम मुनाफे और बढ़ते जोखिम के कारण युवा किसान सोयाबीन की खेती से दूरी बना रहे हैं. कई लोग अब गेहूं, मक्का या सब्जियों की ओर रुख कर रहे हैं.
मध्यप्रदेश के लिए सोयाबीन केवल एक फसल नहीं, बल्कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ रही है. यदि किसानों की रुचि घटती रही, तो इसका असर न केवल राज्य की कृषि पर बल्कि देश की तेल-उद्योग श्रृंखला पर भी पड़ेगा.
कृषि विशेषज्ञों का मानना है कि यदि स्थिति में सुधार नहीं हुआ तो मध्यप्रदेश अपनी “सोया राजधानी” की पहचान खो सकता है.
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