गेहूं खरीद में मध्यप्रदेश नंबर वन, पंजाब को पीछे छोड़ा

मध्य प्रदेश ने चालू रबी सीजन में 127.67 लाख टन गेहूं की खरीद कर पंजाब को पीछे छोड़ दिया है। अब मध्यप्रदेश देश में सबसे ज्यादा गेहूं खरीद करने वाला राज्य बन गया है। पंजाब में इस साल 127.62 लाख टन गेहूं की खरीद हुई है। बरसों से सबसे ज्यादा गेहूं खरीद पंजाब की उपलब्धि रही है। लेकिन इस बार एमपी ने बाजी मार ली।

मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने इस उपलब्धि के लिए प्रदेश के किसानों और मंडी अधिकारियों को बधाई दी है।

मध्यप्रदेश की यह उपलब्धि इसलिए भी खास है क्योंकि राज्य में पिछले साल के मुकाबले 74 फीसदी ज्यादा गेहूं खरीद हुई, जो देश की कुल गेहूं खरीद का करीब एक तिहाई है। गेहूं खरीद के मामले में पंजाब का प्रदर्शन भी काबिलेतारीफ है। लेकिन देश के सबसे बड़े गेहूं उत्पादक राज्य उत्तर प्रदेश में सिर्फ 27.5 लाख टन गेहूं खरीदा गया है, जो तय लक्ष्य का सिर्फ 50 फीसदी है। राजस्थान और गुजरात से भी गेहूं की बहुत कम खरीद हुई है।

गेहूं की सरकारी खरीद के चलते किसानों को उपज का सही दाम मिलना संभव हुआ है। लॉकडाउन के दौरान जहां तमाम काम-धंधे ठप पड़ गए थे, वहीं कृषि मंडियों और सरकारी खरीद की व्यवस्था ने गेहूं किसानों को नुकसान पहुंचने से बचाया है। प्याज-टमाटर जैसी जिन फसलों में एमएसपी और सरकारी खरीद की व्यवस्था नहीं है, वहां फसलें कौड़ियों के भाव बिक रही हैं।

इस साल देश में कुल 386 लाख टन गेहूं की खरीद हुई है। यानी इतनी उपज पैदा करने वाले किसान लॉकडाउन के बावजूद समर्थन मूल्य पर फसल बेचने में कामयाब रहे हैं। चालू रबी के दौरान देश में 407 लाख टन गेहूं खरीद का लक्ष्य तय किया गया था, जबकि पिछले रबी सीजन में 341.32 लाख टन गेहूं खरीद हुई थी।

मध्यप्रदेश में गेहूं की खरीद बढ़ने के पीछे सरकारी प्रयासों का बड़ा हाथ है। इस बार राज्य में खरीद केंद्रों की संख्या 3545 से बढ़ाकर 4529 की गई थी। रिकॉर्ड गेहूं खरीद के चलते राज्य में 14 लाख किसानों के खाते में करीब 20 हजार करोड़ रुपये की धनराशि पहुंच चुकी है।

 

 

एमपी में यूरिया के लिए मारामारी, थाने से मिल रहे हैं टोकन

मध्य प्रदेश की जिस चंबल नदी के नाम पर देश की प्रमुख फर्टीलाइजर कंपनी का नाम पड़ा, उसी राज्य में यूरिया के लिए ऐसी मारामारी मची है कि किसानों को पुलिस थाने से टोकन बांटे जा रहे हैं। यूरिया के लिए पुलिस के डंडे खाते किसानों का एक वीडियो भी सामने आया है।

रबी की बुवाई के दौरान यूरिया की किल्लत ने किसानों की मुश्किलें बढ़ा दी हैं। एक-दो बोरी यूरिया के लिए भी किसानों को सुबह 4-5 बजे से लाइनों में खड़ा होना पड़ रहा है। इसके बावजूद मुश्किल से 2-4 बोरी यूरिया मिल पा रहा है। यह सब उस सरकार कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में हो रहा है जो किसानों के मुद्दों पर सत्ता में आई है।

यूरिया की किल्लत के चलते हरदा, होशंगाबाद, रायसेन, विदिशा, गुना, सागर, नीमच समेत कई जिलों से कालाबाजारी की खबरें भी आने लगी हैं। कहीं 267 रुपये में मिलने वाली  यूरिया की बोरी 350-400 रुपये में मिल रही है तो कहीं किसानों को यूरिया के साथ 1,200 रुपये की डीएपी की बोरी लेने को मजबूर किया जा रहा है। राज्य सरकार और कृषि विभाग की ओर से पर्याप्त यूरिया होने के दावे तो जरूर किए जा रहे हैं मगर जमीन हालात अलग हैं।

इस यूरिया संकट के लिए मांग के अनुरुप आपूर्ति न होने को वजह माना जा रहा है। कई जिलों में अभी तक जरूरत के मुकाबले 50-60 फीसदी यूरिया ही पहुंचा है। जिसके चलते रबी की बुवाई में देरी हो रही है और बुवाई कर चुके किसानों को दुकानदारों से महंगा यूरिया खरीदना पड़ रहा है। इस साल अच्छी बारिश और गेहूं का रकबा बढ़ने की वजह से यूरिया की मांग बढ़ी है। इससे भी यूरिया की किल्लत बढ़ी है।

पिछले साल भी मध्य प्रदेश और राजस्थान में यूरिया को लेकर इसी तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ा था। तब विपक्ष में बैठी कांग्रेस ने तत्कालीन भाजपा सरकारों को इस मुद्दे पर खूब घेरा था। अब सरकारें बदल चुकी हैं लेकिन हालत नहीं बदले।

रबी बुवाई के दौरान यूरिया संकट को लेकर किसान संगठनों ने कमलनाथ सरकार को घेरना शुरू कर दिया है। आम किसान यूनियन के समस्या का समाधान नहीं होने पर आंदोलन की चेतावनी दी है।

भाजपा का किसान मोर्चा राज्य सरकार को इस मुद्दे पर घेरने में जुटा है तो मध्य प्रदेश किसान कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष केदार सिरोही ने भी कृषि विभाग पर सवाल खड़े किए हैं। सिरोही का कहना है कि एमपी में यूरिया की किल्लत होती तो 400 रुपये में यूरिया कैसे मिल पा रहा है। यानी कृषि विभाग की नीयत और मैनेजमेंट ठीक नहीं है। विभाग को इसकी जिम्मेदारी लेनी होगी। यूरिया की लाइनें खत्म होनी चाहिए।

इस यूरिया संकट के पीछे सरकार की बदइंतजामी के अलावा यूरिया की किल्लत के बहाने डीएपी बेचने की फर्टिलाइजर कंपनियों और डीलरों की कारगुजारी का भी बड़ा हाथ माना जा रहा है। पिछले एक सप्ताह में कालाबाजारी करने वाले कई खाद विक्रेताओं पर छापेमारी हुई है।

राशन के लिए रात भर लाइन में लगे रहने की मजबूरी

2018 के दिसंबर में मध्य प्रदेश की सत्ता में आई कमलनाथ सरकार ने कुछ ही दिनों के अंदर किसानों की कर्ज माफी की घोषणा की। इससे प्रदेश में कर्ज के बोझ तले दबे काफी किसानों को राहत तो मिली लेकिन प्रदेश के गरीब और वंचित लोगों को अब भी राशन के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है।

पिछले दिनों मध्य प्रदेश के सतना जिले से एक ऐसी खबर आई जो किसी को भी हैरत में डाल सकती है। यहां लोगों को 20 किलो राशन लेने के लिए रात-रात भर लाइन में लगकर इंतजार करना पड़ रहा है। राजस्थान पत्रिका ने इस संबंध में एक खबर प्रकाशित की।

इसमें यह बताया गया कि सतना जिले में सार्वजनिक वितरण प्रणाली की एक दुकान के सामने 50 से अधिक महिलाएं और बुजुर्ग लोग राशन लेने के लिए पूरी रात दुकान के बाहर खड़े रहे। इस खबर में यह भी बताया गया है कि जब सुबह हुई तो यह लाइन और बढ़ती गई।

दिन के नौ बजे से अनाज बंटने की शुरुआत इस केंद्र से हुई। इस बीच दोपहर के 12 बज गए। तब तक कुछ ही लोगों को अनाज मिल पाया था। इतने में इस दुकान पर बैठे सेल्समैन ने यह कहते हुए दुकान बंद कर दी कि अभी सर्वर डाउन है और ऐसे में राशन का वितरण नहीं किया जा सकता है।

यहां आने वाली महिलाओं को कोई पहली बार लाइन में नहीं लगना पड़ा है। बल्कि इन महिलाओं से बातचीत करने पर पता चलता है कि हर महीने इन्हें इसी तरह से रात भर लाइन में लगने के बाद राशन मिल पाता है। सर्दी के मौसम में ठिठुरन वाली ठंढ में भी इन्हें अनाज के लिए रात भर लाइन में खड़ा रहना पड़ता है।

यहां आने वाली महिलाएं और बुजुर्ग लोग रात भर इंतजार करने की तैयारी से ही आते हैं। रात में सोने के लिए ये बोरी अपने साथ लेते हैं। उसे ये यहीं बिछाकर सो जाते हैं। ओढ़ने के लिए भी ये चादर या कंबल अपने साथ लेकर आते हैं।

इन महिलाओं की त्रासदी यह भी है कि कई बार इन्हें रात भर लाइन में लगने के बाद भी राशन नहीं मिलता। कभी इस राशन दुकान का सर्वर डाउन हो जाता है तो कभी कोई और परेशानी सामने आ जाती है। ऐसी स्थिति में गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले इन लोगों के लिए राशन लेना और संघर्ष का काम बन जाता है।

राशन की यह दुकान चलाने वाले का इन महिलाओं में इतना खौफ है कि जब रिपोर्टर ने इन महिलाओं से कैमरे पर बात करने की कोशिश की तो इन्होंने अपना चेहरा छिपा लिया। इन लोगों ने राशन दुकान के संचालक का नाम बताने से भी इनकार कर दिया। इन्हें इस बात का डर है कि अगर दुकान चलाने वाले को उनकी पहचान का पता चल गया तो राशन लेने का उनका संघर्ष और जटिल हो जाएगा।

जब रिपोर्टर ने दूसरे स्थानीय लोगों से बात की तो पता चला कि इस दुकान की संचालक शिवराज कुमारी सिंह हैं। स्थानीय लोगों ने यह भी बताया कि इस दुकान से हर महीने सिर्फ दस दिन ही राशन का वितरण किया जाता है। इस बीच जिसे राशन नहीं मिला उन्हें अगले महीने आने के लिए कह दिया जाता है।

स्थानीय लोगों ने इस दुकान को चलाने वाली शिवराज कुमारी सिंह के बारे में यह भी बताया कि इनकी मनमानी के खिलाफ कई बार शिकायतें संबंधित विभाग में की गई हैं। यहां तक की स्थानीय विधायक और सांसद के समक्ष भी इस मसले को उठाया गया है। इसके बावजूद उनके खिलाफ कभी कोई कार्रवाई नहीं हुई।

इस दुकान में चाहे जितने भी लोग राशन लेने आ जाएं लेकिन यहां एक दिन में सिर्फ 60 लोगों को ही राशन दिया जा रहा है। अगर इन 60 लोगों में किसी का नंबर नहीं आया तो उसे फिर पूरी रात वहीं रहकर अगले दिन अपने नंबर का इंतजार करने के लिए मजबूर होना पड़ता है।

मध्य प्रदेश की कमलनाथ सरकार को सार्वजनिक वितरण प्रणाली की ऐसी दुकानों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करते हुए यह सुनिश्चित करना चाहिए कि गरीबों और वंचितों को उनके हक का राशन पूरे सम्मान के साथ एक निश्चित समय पर मिले। गरीबों को जो राशन दिया जा रहा है, वह उनका हक है। कोई भी दुकान संचालक उन्हें राशन देकर उन पर अहसान नहीं कर रहा है। लेकिन गलती कर रहे दुकान संचालकों को यह बात तब समझ में आएगी जब प्रदेश सरकार ऐसे कुछ केंद्रों पर कड़ी कार्रवाई करेगी।

कहीं चना तो कहीं सरसों एमएसपी के नीचे बेचने को मजबूर हैं किसान

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार किसानों के लिए किए गए अपने कार्यों को गिनाते हुए यह बताना नहीं भूलती कि उसने किसानों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को बढ़ाकर लागत का डेढ़ गुना कर दिया है। सरकार के मंत्री और सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी के लोग भी अक्सर ये दावे करते दिखते हैं।

लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही है। सरकार जो एमएसपी तय कर रही है, उस पर किसानों का उत्पाद खरीदे जाने की कोई ठोस व्यवस्था नहीं है। इस वजह से मंडियों में व्यापारी किसानों से मनमाने भाव पर उनके उत्पादों को खरीद रहे हैं।

इसे दो उदाहरणों के जरिए समझा जा सकता है। अभी चना देश की विभिन्न मंडियों में आना शुरू हुआ है। चने का न्यूनतम समर्थन मूल्य सरकार ने 4,620 रुपये प्रति क्विंटल तय किया है। लेकिन इस मूल्य पर सरकार ने चने की खरीद शुरू नहीं की है।

अब जाहिर है कि सरकार खरीद नहीं करेगी तो मंडियों में किसानों को व्यापारियों के तय किए गए दर पर चना बेचना पड़ेगा। यही हो रहा है। मध्य प्रदेश की मंडियों से ये खबरें आ रही हैं कि वहां चना का न्यूनतम समर्थन मूल्य भले ही 4,620 रुपये प्रति क्विंटल का हो लेकिन किसानों को 3,800 रुपये प्रति क्विंटल का दर हासिल करने के लिए नाकों चने चबाने पड़ रहे हैं। वहां यह दर भी जिन्हें मिल जा रहा है, वे खुद को खुशकिस्मत मान रहे हैं। किसानों को औसतन प्रति क्विंटल 800 से 900 रुपये का नुकसान हो रहा है।

अब इसके मुकाबले बाजार भाव देख लीजिए। इससे पता चलेगा कि किसानों को क्या दर मिल रहा है और आम उपभोक्ताओं को कितने पैसे चुकाने पड़ रहे हैं। जिस दिन मध्य प्रदेश की मंडियों से यह खबर आई कि वहां चना 3,800 रुपये प्रति क्विंटल यानी 38 रुपये प्रति किलो बेचने के लिए किसाना विवश हैं, उसी दिन दिल्ली में चना का खुदरा भाव पता करने पर यह बात सामने आई कि आम दिल्लीवासियों को एक किलो चने के लिए 105 रुपये से लेकर 115 रुपये तक खर्च करने पड़ रहे हैं। इसका मतलब यह हुआ कि किसानों से जिस भाव पर चना खरीदा जा रहा है, उससे तीन गुना अधिक कीमत पर उपभोक्ताओं को बेचा जा रहा है। सवाल यह उठता है कि बीच का जो अंतर है, वह कौन खा रहा है?

सरसों का उत्पादन करने वाले किसानों को भी एमएसपी नहीं मिल रही है। सरसों के पैदावार के लिहाज से राजस्थान का देश में बेहद अहम स्थान है। यहां सरसों की पैदावार मंडियों में आने लगी है। सरकार ने सरसों का न्यूनतम समर्थन मूल्य 4,200 रुपये प्रति क्विंटल तय किया है।

लेकिन राजस्थान के श्रीगंगानगर मंडी से यह खबर आ रही है कि 4,200 रुपये प्रति क्विंटल की एमएसपी के मुकाबले उन्हें सिर्फ 3,400 रुपये प्रति क्विंटल से लेकर 3,600 रुपये प्रति क्विंटल मिल रहे हैं। इस तरह से देखा जाए तो किसानों को एमएसपी के मुकाबले 600 से 800 रुपये कम में एक क्विंटल सरसों बेचना पड़ रहा है।

इन स्थितियों को देखने पर यह पता चलता है कि सिर्फ एमएसपी की घोषणा कर देना भर पर्याप्त नहीं है बल्कि इसे लागू कराने का एक उपयुक्त तंत्र विकसित करना बेहद जरूरी है। तब ही बढ़ी हुई एमएसपी का वास्तविक लाभ किसानों तक पहुंच पाएगा।

मध्य प्रदेश : ना भाव, ना भावांतर

मध्य प्रदेश में सोयाबीन की फसल कटने लगी हैं, लेकिन न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी पर सरकारी खरीद ना शुरू होने से किसान अपनी उपज औने-पौने दाम पर बेच रहे हैं। देखिए इंदौर से पुष्पेंद्र वैद्य की रिपोर्ट