छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार का अडानी प्रेम ‘हसदेव वन’ में तांडव मचा रहा है!

“अध्यक्ष महोदय, सालों पहले फैमिली प्लानिंग का एक नारा था – “हम दो हमारे दो”. जैसे कोरोना दूसरे रूप धारण कर आता है वैसे ही यह नारा दूसरा रूप धारण कर आया है, आज इस देश को 4 लोग चलाते हैं ‘हम दो और हमारे दो’. यह किसकी सरकार है? पीछे से कई लोगों की आवाज आती है–मोदी, अमित शाह और अडानी व अंबानी की”.

फरवरी 2021 में क्रोनी कैपिटलिस्ट के विरुद्ध यह रणभेरी आवाज भारत की सबसे बड़ी पंचायत में गूंज रही थी. यह आवाज कांग्रेस के आलाकमानी नेता राहुल गांधी की थी.

लेकिन जिस अडानी का विरोध राहुल गांधी सदन में कर रहे थे, नेपथ्य में छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार उसी अडानी का हाथ मजबूत करने में लगी हुई थी.

जिसका पता राहुल गांधी को भी था. 23 मई को, विदेश में हसदेव को बचाने से जुड़ा प्रश्न पूछने पर श्री गांधी ने बताया कि वो इस मुद्दे पर काम कर रहे हैं और इसका परिणाम आपको जल्द दिखेगा. कुछ दिन बाद छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री एक बयान में  हसदेव की तीनों खदानों पर रोक लगा देने की बात करते हैं.

इसके बाद मीडिया में आदिवासी हितेषी और जुबान के पक्के होने की खूब सुर्खियां बटोरी जाती हैं.

ट्वीट लिंक

7 सितंबर को जब छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भारत के दक्षिणतम छोर पर राहुल को तिरंगा सौंप भारत जोड़ो यात्रा का बिगुल फूंक रहें थे. उसी 7 सितंबर को छत्तीसगढ़ में उनकी पुलिस उस यात्रा के मकसद का मखौल उड़ा रही थी. हसदेव के स्थानीय निवासियों की चीत्कार (वन को बचाने के लिए) को अनसुना कर हसदेव वन को उजाड़ने का काम कर रही थी.

वनों का यह सफाया ग्राम सभा की अनुमति के बिना किया जा रहा है. पुलिस के द्वारा कई लोगों को हिरासत में लिया गया है. पेड़ों की यह कटाई परसा ईस्ट केते बासेन खदान के दूसरे चरण के लिए हो रही है.

बयानों से पहली बार मुंह नहीं मोड़ा है. वर्ष 2015 में राहुल गांधी हसदेव वन में बसे मदनपुर गांव गए थे. वहां श्री गांधी ने वादा किया कि कांग्रेस आपके साथ खड़ी है, आपकी लड़ाई लड़ेगी.

वर्ष 2018 में कांग्रेस दल की सरकार बनने के बाद हसदेव वन को बचाने के लिए एक कदम भी नहीं उठाया गया. उल्टा कई और खदानों के लिए अडानी की कंपनी के साथ एमडीओ (माइन डेवलपर एंड ऑपरेटर) कर दिया.

राहुल गांधी. 15 जून, 2015 को हसदेव के मदनपुर गांव में आदिवासियों को संबोधित करते हुए. 

कहां बसा है हसदेव

छत्तीसगढ़ राज्य के उत्तरी इलाके में करीब 1750 वर्ग किलोमीटर में फैला गहरे वनों का क्षेत्र है. जो मध्यप्रदेश के कान्हा वन क्षेत्र से झारखंड के पलामू वन क्षेत्र के बीच वन गलियारे का निर्माण करता है.

यहां से हसदेव नदी बहती है. हसदेव वन उसी नदी के संभरण (केचमेंट) क्षेत्र का निर्माण करता है.

हसदेव अरण्य वन का पूरा मामला क्या है?

छत्तीसगढ़ में कोयले का भंडार है. जिसे कुछ लोग विकास की आड़ लेकर हड़पना चाहते हैं. ऐसा ही हसदेव के मामले में हो रहा है.

यूपीए की सरकार वर्ष 2007 में हसदेव अरण्य वन क्षेत्र में 20 के करीब कोयला खदान चिन्हित करती है. 2008 में परसा ईस्ट केते बासन खदान राजस्थान सरकार के उपक्रम राजस्थान राज्य विद्युत निगम लिमिटेड को आवंटित करती है. यह उपक्रम माइन खनन और संचालन के लिए अडानी की कंपनी के साथ समझौता करती है.

वर्ष 2010 में भारत सरकार के पर्यावरण मंत्रालय द्वारा हसदेव की जैव संपदा को देखते हुए हसदेव वन क्षेत्र को “नो गो जोन” इलाका घोषित कर दिया जाता है.

कंपनी के दबाव में, वर्ष 2011 में तत्कालीन मंत्री जयराम रमेश परसा ईस्ट केते बासन खदान में खनन की अनुमति देते हैं. यह अनुमति विशेषज्ञ समिति की सिफारिश से विपरीत थी.

“इस कोल ब्लॉक का खनन दो चरणों में किया जाना था. अभी इसके दूसरे चरण के लिए वनों की कटाई की जा रही है.”

इस निर्णय को सुदीप श्रीवास्तव द्वारा एनजीटी में चुनौती दी जाती है. मार्च 2014 में एनजीटी जयराम रमेश के फैसले को खारिज कर देता है.

अप्रैल 2014 में सर्वोच्च न्यायालय उस एनजीटी के फैसले पर रोक लगा देता है.

*इसी रोक के बूते अडानी की कंपनी कोयला बेचती रही.*

दिसंबर 2014, में ग्राम सभाएं वन अधिकार अधिनियम, 2006 का प्रयोग करते हुए खनन के विभाग्य प्रस्तावों का विरोध करती हैं.

यह कसमकस लंबी चलती है. धनबल और भुजबल का पूरा प्रयोग किया जाता है.

फर्जी तरीके से ग्राम सभा की सहमति ले ली जाती है. 

अब कलेक्टर Noc (अनापत्ति प्रमाणपत्र) जारी करता है.

राज्य सरकार के पास में वन अधिकार अधिनियम की धारा 2 के तहत वन कटाई का अधिकार आ जाता है.

कलेक्टर के द्वारा जारी NOC के खिलाफ गावों के लोग राज्यपाल के पास जाते हैं.

तस्वीर में– अक्टूबर 2021 में हसदेव के स्थानीय निवासी राजधानी रायपुर की ओर कूच करते हुए.

राज्यपाल मुख्य सचिव को जांच की अनुमति देते है.

कलेक्टर साहब काउंटर करने के लिए कुछ लोगों को इकट्ठा कर कंपनी के साथ खड़ा कर देते हैं.

राज्यपाल अनुसुइया उईके हसदेव के निवासियों से मिलकर फर्जी ग्राम पंचायतों की जांच के लिए पत्र लिखती हैं.

23 दिसंबर, 2021 को केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय की वन सलाहकार समिति ने पीईकेबी के दूसरे फेज को शुरू करने के पक्ष में अनुसंशा की.

पहले फेज का काम मार्च 2022 में पूरा हो जाता है.

25 मार्च को भूपेश बघेल और अशोक गहलोत मिलते है. सहमति बन जाती है.

26 अप्रैल को रात्रि 3 बजे पेड़ काटने शुरू करते है. आदिवासी अपना कठोरी त्योहार मना रहे थे.

हवाला दिया गया कि पेड़ो की कटाई कॉल एक्ट 1957 के तहत की गई है. अगर उस कानून के तहत करना था तो फिर रात में क्यों?

स्मरणीय है पांचवी अनुसूची वाले क्षेत्र में वन अधिकार अधिनियम 2006 लागू है. वहां 1957 के उस कानून की कोई प्रासंगिकता नहीं है.

हाईकोर्ट की लताड़ और जनसमूह के दबाव में पेड़ों की कटाई कुछ समय के लिए रोक दी जाती है.

तस्वीर में– 26 अप्रैल की रात में काटे गए पेड़.

राहुल गांधी के विदेश में दिए गए बयान के बाद 7 जून को छत्तीसगढ़ सरकार में मंत्री और हसदेव क्षेत्र से विधायक टीएस सिंह देव धरना स्थल पर जाते हैं. धरना करीब 200 दिनों से हो रहा था. वहां मंत्री बाबा यह घोषणा करते है कि पहली गोली मैं खाऊंगा.

जवाब में मुख्यमंत्री बघेल कहते हैं कि टीएस सिंह की अनुमति के बिना एक डंगाल भी नहीं कटेगी.

तस्वीर हसदेव में बसे हरिहरपुर गांव में स्थानीय निवासियों को संबोधित करते हुए मंत्री श्री टीएस सिंह

27 जुलाई को छत्तीसगढ़ विधानसभा में अशासकीय प्रस्ताव पारित किया जाता है. प्रस्ताव हसदेव क्षेत्र में आबंटित सभी कोयला खदानें निरस्त करने का अनुरोध केंद्र सरकार से करता है. इसे भी सभी सदस्यों ने सर्वसम्मति से पारित कर दिया.

फिर अचानक जज्बात बदल दिया. 40 दिन बाद हसदेव के हरे भरे जंगलों में अडानी की मशीनें गूंज रही थी, बड़े–बड़े पेड़ गिर रहे थे.

तस्वीर में भूपेश बघेल का ट्वीट।

राहुल गांधी और उनकी पार्टी जब आदिवासियों के हित में बोलती है तो कोरी लंतरानी ही लगती है. क्योंकि असल में वो भी उसी रास्ते पर चल रही है जिसमे लोगों को दर–ब–दर कर दिया जाता है, विकास के नाम पर.

हसदेव नहीं रहा तो क्या फर्क पड़ेगा? 

हसदेव में कई कोल ब्लॉक्स चिन्हित किए गए हैं. अगर उन्हें सभी तरह की स्वीकृतियां मिल जाती हैं तो लाखों पेड़ धरती पर लेट जाएंगे. अशासकीय प्रस्ताव के अनुसार केवल परसा ईस्ट केते बासन के लिए करीबन तीन लाख पेड़ काटे जाएंगे.

हसदेव नदी और बांगो बांध में आने वाले पानी में रुकावट आ जायेगी.

केते खदान क्षेत्र के समीप में लेमरु हाथी रिजर्व है. इसके क्षेत्रफल को लेकर भी विवाद है. खदानों के लिए दी जा रही अनुमति मानव–पशु संघर्ष को बढ़ावा देगी.

जिसकी चेतावनी वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया ने भी दी है.

कंपनी किसे मूर्ख बना रही है

अडानी कंपनी के साथ राजस्थान सरकार ने परसा ईस्ट केते बासन (पीईकेबी) में खनन के लिए समझौता किया था. पीईकेबी खदान का पहला चरण 2028 तक पूरा होना था. जिसमें से 140 मेट्रिक टन कोयला निकालना था. कंपनी केवल 80 मेट्रिक टन कोयला निकाल के बाद कोयला समाप्ति की घोषणा कर देती है. आपूर्ति में भी कमी कर देती है. सरकार और मीडिया दोनों माहौल बनाने लगते हैं कि देश में अंधेरा छाने वाला है. 

और अंत में तथाकथित सभ्य लोग हसदेव के निवासियों को उखाड़ फेंकने लिए तैयार मंडली में शामिल हो जाते हैं.

दक्षिण हरियाणा: बिजली ट्यूबवेल सिंचाई का किसानों और भूजल स्तर पर गहरा असर!

हरियाणा के बिसोहा गांव (रेवाड़ी जिला) निवासी दीपक पिछले 20 वर्षों से खेती में लगे हैं. वह खेतों में बिजली ट्यूबवेल द्वारा फुव्वारा तकनीक से सिंचाई करते हैं. गांव में खेतों की सिंचाई के लिए अन्य साधन उपलब्ध नहीं हैं. इसी कारण गांव में ज्यादातर किसान सिंचाई के लिए बिजली ट्यूबवेल का प्रयोग करते हैं. दीपक के मुताबिक बिजली ट्यूबवेल से सिंचाई का खर्चा कम पड़ता है. महीने में ट्यूबवेल द्वारा सिंचाई का खर्च 80 रूपए है, जो ज्यादा नहीं है. इसलिए वह सोलर पम्पसेट के बारे में नहीं सोच रहे.

दीपक बताते हैं कि खाली पड़ी जमीन भी ख़राब हो रही है और जमीन का अन्य प्रयोग भी नहीं हो रहा है. इसलिए ट्यूबवेल लगवाकर खेतों में सिंचाई करते हैं. जमीनी पानी भी लगातार खारा हो रहा है और नीचे जा रहा है लेकिन सिंचाई का साधन भी ट्यूबवेल ही है. यहां कोई नहर नहीं है. बिजली ट्यूबवेल से सिंचाई की लागत डीज़ल ट्यूबवेल की तुलना में कम आती है.

अहीरवाल में सिंचाई फुव्वारा तकनीक से ही होती है. गांव के सरपंच नितेश कुमार ने बताया कि फुव्वारा तकनीक द्वारा सिंचाई करने से लाइन बदलने के लिए मजदूर लगाने पड़ते हैं, जिस कारण सिंचाई का खर्च बढ़ जाता है यदि सिंचाई के लिए पानी अन्य स्रोतों द्वारा मिल जाए तो खेतों में खुली सिंचाई की जा सकेगी, जिससे अन्य कई खर्च (पाइपलाइन, मजदूरी आदि) बच जाएंगे.

इस इलाके में ज्यादातर किसान अपना जीवन चलाने के लिए खेती पर निर्भर हैं, लेकिन खेती से लगातार आय कम होती जा रही है. फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं मिल पाता तो फसलों की लागत भी पूरी नहीं होती. जब दीपक और बिसोहा के गांव वालों से प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (2015) के बारे में पूछा गया तो उन्हें इस योजना के बारे में नहीं पता था.

प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के तहत सरकार किसानों को खेत में सिंचाई करने के लिए उचित मात्रा में पानी उपलब्ध करवाने और सिंचाई उपकरणों के लिए सब्सिडी प्रदान करती है. सुनील कुमार शोधार्थी हैं और ग्रामीण एवं औद्योगिक विकास अनुसन्धान केंद्र चंडीगढ़ में काम कर चुके हैं. उनका शोध कार्य “खेती के कार्यो में बिजली के उपयोग” से संबधित है. सुनील कुमार से संबंधित विषय पर बात करने पर उन्होंने बताया कि पेट्रोल तथा डीजल से सिंचाई की लागत ज्यादा है, जिस कारण फसलों की उत्पादन लागत बढ़ती है. सिंचाई लागत कम होने की वजह से किसान बिजली टूबवेल की तरफ ज्यादा रुझान कर रहे हैं, जिससे किसानों के उत्पादन एरिया में भी बढ़ोतरी हुई है. लेकिन उत्पादित फसल चक्र में परिवर्तन नकारात्मक हो रहा है. किसान गहन सिंचाई की फसलों जैसे धान और गेहूं से कम गहन सिंचाई (कम सिंचाई) की फसलों सरसों, बाजरा आदि की तरफ आ रहे हैं, लेकिन बिजली टूबवेल की तरफ ज्यादा रुझान का विपरीत प्रभाव यह हो रहा है कि भूजल ज्यादा प्रयोग होने की वजह से भूजल स्तर लगातार नीचे जा रहा है. किसानों को अपने ट्यूबेल पम्प सेट ज्यादा गहरे करवाने पड़ रहे हैं जिससे पम्प सेट की लगता में बढ़ोतरी हो रही है.

देश में भूजल स्तर लगातार कम हो रहा है. डाउन-टू-अर्थ की रिपोर्ट के अनुसार, केंद्रीय जल शक्ति व सामाजिक न्याय मंत्री रतन लाल ने मार्च 2020 में संसद में जानकारी दी कि किसान 2001 में प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता 1816 घनमीटर थी, जो साल 2021 में 1488 घनमीटर रही और साल 2031 में काम होकर 1367 घनमीटर हो सकती है.

हरियाणा सरकार की रिपोर्ट के अनुसार “हरियाणा के कृषि योग्य भूमि की सिंचाई नहर, डीजल तथा बिजली ट्युबवेल्स आदि के माध्यम से की जाती है. हरियाणा में सिंचित कृषि क्षेत्र का 1154 हजार एकड़ भूमि नहरों द्वारा तथा 1801 हजार एकड़ भूमि टुबवेल्स द्वारा सिंचित किया जाता है. हरियाणा में कुल 821399 बिजली ट्यूबवेल्स तथा डीजल पंप सेट हैं जिसमें 275211 डीजल पंप से तथा 546188 बिजली पंप सेट हैं. रेवाड़ी जिले की बात की जाए तो यहां कुल 13605 ट्यूबवेल तथा पंपसेट हैं जिसमें 3311 डीजल और 10294 बिजली ट्यूबवेल पंपसेट हैं.

मौसम अनुसार फसलों की पैदावार

बिसोहा निवासी दीपक कहते हैं कि खरीफ (ग्रीष्म काल) के मौसम में कपास तथा बाजरा और रबी (शीत काल) मौसम में गेहूं तथा सरसों की फसलों का उत्पादन करते हैं. एक एकड़ में गेंहू की पैदावार 50 से 55 मण (1मण=40 किलोग्राम) है, एक एकड़ में सरसों की पैदावार 20 से 25 मण है, एक एकड़ में बाजरा की पैदावार 20 से 22 मण है, खरीफ की फसलों में 1 से 2 बार सिंचाई करते हैं तथा रबी की फसल सरसों में 2 से 3 बार और गेहूं की फसल में 5 से 7 बार सिंचाई करते हैं, यदि समय पर बारिश हो जाए तो ट्यूबवेल द्वारा 1 या 2 सिंचाई कम करनी पड़ती है. बिसोहा से लगभग 35 किलोमीटर दूर मीरपुर निवासी हरि सिंह अपने खेतों में गेहूं और बाजरा की पैदावार करते हैं. गेहूं में सरसो, बाजरा तथा कपास की तुलना में ज्यादा सिंचाई की जरूरत पड़ती है. एक एकड़ में गेहूं की पैदावार लगभग 38-40 मण (1 मण=40 किलोग्राम) और बाजरा की पैदावार लगभग 18-20 मण होती है.

डॉ अजय कुमार एग्रीकल्चर डेवलपमेंट ऑफिसर महेन्द्रगढ़ ने बताया कि मिट्टी में सॉइल आर्गेनिक कॉम्पोनेन्ट की कार्बन संरचना होती है जिससे मिट्टी की उपजाऊपन बना रहता है, खारा पानी, रासायनिक खाद, फसल चक्रण आदि से सॉइल आर्गेनिक कम्पोनेंट का अनुपात कम होता जा रहा है. ग्रामीण जनसंख्या की कृषि पर ज्यादा निर्भरता तथा साधन उपलब्धता के कारण फसल चक्रण के बीच अंतर कम होता जा रहा है. पहले किसान फसल चक्र के बीच अंतर करते थे जिससे मिट्टी की उपजाऊ शक्ति ठीक बनी रहती थी, साथ-साथ जलवायु परिवर्तन से तापमान में जो वृद्धि हो रही है, वह भी फसलों पर नकारात्मक प्रभाव डाल रही है. जैसे मार्च 2022 में हीट वेव (ज्यादा तापमान) के कारण गेहूं की पैदावार में 15% से ज्यादा की कमी आयी है.

खारा (नमकीन) पानी और रासायनिक खाद का खेती पर प्रभाव

राजेश कुमार एक एकड़ गेहूँ 70 से 75 किलोग्राम और सरसो में 50 किलोग्राम तथा बाजरा में 25 से 30 किलोग्राम रासायनिक खाद का प्रयोग करते हैं. वह बताते हैं, “रासायनिक खाद के ज्यादा प्रयोग के कारण मिट्टी की पैदावार भी कम हो रही है. देसी खाद (गोबर की खाद) जमीन को तो ठीक रखता है, लेकिन उससे पैदावार पर ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ता. रासायनिक खाद जमीन को तो ख़राब कर रहा है, पर पैदावार पर देसी खाद की तुलना में ज्यादा असर डालता है.”

कृषि विज्ञान केंद्र झज्जर (हरियाण) से संदर्भित विषय में सम्बंधित जानकारी लेने पर उन्होंने बताया कि रेवाड़ी से लगते हुए झज्जर का दो तिहाई पानी खारा (नमकीन) हो गया है, जिससे मिट्टी लवणीय (कैल्सियम, मैग्निसियम और सल्फेट आयन की अधिकता) होती जा रही है. फसल चक्र में रबी सीजन में गेहूं तथा खरीफ सीजन में पेड्डी चावल, बाजरा तथा कपास की फसलों का उत्पादन किया जाता है. रासायनिक खाद का प्रयोग खेत की मिट्टी को कृषि विज्ञान केंद्र की लैब में चेक करवा के करना चाहिए लेकिन ज्यादातर किसान आपस में एक दूसरे से बात करके रासायनिक खाद का प्रयोग करते हैं.

अस्सिस्टेंट प्रोफेसर डॉ.नवीन कटारिया ने बताया कि दक्षिणी हरियाणा की जमीन में फसल उत्पादन के आवश्यक तत्व (जिंक, कॉपर, मैंगनीज, आयरन,कॉपरआदि) कम मात्रा में पाए जाते हैं इसके साथ-साथ भूजल में फलोरिड, नमक की मात्रा ज्यादा है इसलिए फसल उत्पादन लगातार कम हो रहा है. जिस कारण किसानों को लगातार ज्यादा रासायनिक खाद का प्रयोग करना पड़ रहा है. जो रसायनिक खाद नाइट्रोजन फॉस्फोरस और पोटैशियम के आदर्श अनुपात (4:2:1) से ज्यादा है. फलोरिड और नमक युक्त भूजल दक्षिण हरियणा के जन मानस को भी बहुत ज्यादा प्रभावित कर रहा है, क्योंकि वहां के लोग पेय जल के रूप में भी इसी पानी का उपयोग करते हैं, जिससे मुख्यत दांतों की बीमारी दांतो का पीला पड़ना देखा जा सकता है.

हरियाणा का भूजल स्तर

बिसोहा निवासी हरीश ने 15 वर्ष पहले 150 फीट गहराई में ट्यूबवेल लगवाया था. पहले पांच वर्षों तक अच्छे से पानी चला लेकिन बाद में टूबवेल पानी छोड़ने लगा फिर ट्यूबवेल को दो बार 20- 20 फीट गहरा किया जा चुका है, लेकिन भूजल लगातार नीचे जाने की वजह से अब एक एकड़ फसल की सिंचाई के लिए दो-तीन बार ट्यूबवेल को चलना और बंद करना पड़ता है. जमीन में पानी इकट्ठा हो सके और खेत की सिंचाई पूरी हो सके, इसके लिए 3 किला (एकड़) जमीन की सिंचाई में एक सप्ताह का समय लग जाता है. फसलों को समय पर पानी नहीं मिलने से फसलों की पकावट अच्छी नहीं हो पाती है. जिस कारण खेतो में कुल पैदावार भी कम होती है.

डॉ अजय कुमार के अनुसार जलवायु परिवर्तन के कारण बारिश होने की प्रवृति बदल रही है. मानसून स्तर में पहले बारिश लगातार होती रहती थी लेकिन अब कभी बहुत ज्यादा और कभी कई दिनों तक बारिश नहीं होती है, जिससे जमीनी पानी का रिचार्ज नहीं हो पाता है. महेन्द्रगढ़ तथा उसके आसपास के एरिया का पानी प्रतिवर्ष 1 मीटर से 3 मीटर तक नीचे जा रहा है, और पानी खारा (नमकीन) हो रहा है. पानी में फ्लोरिड की मात्रा भी बढ़ती जा रही है, इसके कई कारण है जैसे इंडस्ट्रीज से निकलने वाला पानी, ज्यादा फर्टीलिज़ेर का प्रयोग आदि है.

डॉ.नवीन कटारिया ने बताया कि लगातार पानी का उपयोग करने तथा दक्षिण हरियाणा की वातावरणीय पारिस्तिथि शुष्क और रेतीली जमीन होने की वजह से यहां बारिश भी कम मात्रा में होती है, जिससे जमीन से निकलने वाले पानी की पूर्ति वापिस बारिश के पानी से पूरी नहीं हो पाती है. पहले भूजल की पूर्ति गांव में तालाब और जोहड़ों से भी हो जाती थी लेकिन अब गांव में तालाब और जोहड़ लगभग सूख चुके हैं. भूजल में फ्लोराइड के ज्यादा होने के कई कारण हो सकते हैं, दक्षिणी हरियाणा में मुख्य वजह चट्टानों का घुलना है, यह बारिश और भूजल के कारण हो रहा है. कई चट्टानों में फ्लोराइड, एपेटाइट और बिओटिट आदि की मात्रा ज्यादा होती है. इन चट्टानों के अपक्षय (घुलना) से भूजल में फ्लोराइड की मात्रा बढ़ जाती है. खेतों में फसल उत्पादकता बढ़ाने के लिए प्रयोग किये जाने वाले ज्यादा रासायनिक खाद (फॉस्फेट फर्टिलिसेर) से भी फ्लोराइड बढ़ता है.

भारतीय मौसम विज्ञान विभाग की रिपोर्ट के अनुसार “सामान्य मानसून लंबी अवधि का औसत 2005 से 2010 में सामान्य मानसून वर्षा की LPA दर 89.04 सेन्टीमीटर थी, जो 2011 से 2015 के बीच कम होकर 88.75 सेन्टीमीटर तथा 2018 से 2021 के बीच और भी कम होकर 88.6 सेन्टीमीटर हो गया है.”

कृषि विज्ञान केंद्र झज्जर से मिली जानकारी के अनुसार रेवाड़ी जिले से लगे हुए झज्जर जिले में चोवा (जमीनी पानी की उपलब्धता) 20-30 फीट है, लेकिन वह पानी खरा (नमकीन) है, जो किसी उपयोग लायक नहीं है. खेतो में सिंचाई तथा अन्य उपयोग के लिए अच्छे भूजल 80-100 फ़ीट की गहराई पर मिलता है.

पोस्ट ग्रेजुएट गवर्नमेंट कॉलेज तोशाम तथा बिहार सरकार के जीआईएस विभाग में काम कर चुके असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ वीरेंदर सिंह ने बताया कि रेवाड़ी तथा झज्जर भूजल स्तर की उपलब्धता में अन्तर का मुख्य कारण यह है कि रोहतक और झज्जर जिले में पानी के नहरी व्यवस्था अच्छी है, जिससे जमीन को लगातार पानी मिलता रहता है तथा नहरों के पानी रिसाव से भूजल रिचार्ज होता रहता है. इसी कारण यहां पर जलभराव की समस्या भी हो जाती है जबकि रेवाड़ी में नहरी व्यवस्था अच्छी नहीं है. दक्षिणी हरियाणा मुख्यत रेवाड़ी, महेन्द्रगढ़ और मेवात में रेतीली जमीन होने के साथ-साथ पहाड़ी इलाका है. जबकि रेवाड़ी के साथ लगते झज्जर जिले में जमीन मिट्टी युक्त है.

रेवाड़ी में नहरी व्यवस्था अच्छी नहीं है. दक्षिणी हरियाणा की भूगर्भिक संरचना हरियाणा के अन्य भाग से अलग होने की वजह से रोहतक, झज्जर का भूजल भी रेवाड़ी महेन्द्रगढ़ की तरफ नहीं जा पता है, जिस कारण जमीन को पानी भी कम मिल पाता है, जिससे भूजल स्तर लगातार गहरा हो रहा है.

मोंगाबे की रिपोर्ट के अनुसार हरियाणा के करीब 25.9 प्रतिशत गांव गंभीर रूप से भूजल संकट से जूझ रहे हैं, इसी तरह की स्थिति उतर प्रदेश और बिहार में बन रही है. हरियाणा जल संसाधन प्राधिकरण (HWRA) द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार हरियाणा के 319 गांव संभावित जल भराव वाले गांव हैं, जिनमें जल स्तर की गहराई 1.5 से 3 मीटर तक है हरियाणा में 85 गांव ऐसे हैं जो गंभीर रूप से जलजमाव से जूझ रहे हैं, जहां जल स्तर की गहराई 1.5 मीटर से कम है.

(यह स्टोरी स्वतंत्र पत्रकारों के लिए नेशनल फाउंडेशन फ़ॉर इंडिया की मीडिया फेलोशिप के तहत रिपोर्ट की गई है.)

शेर हमेशा चीतों की जान ले लेता है!

भारत में नामीबिया के चीतों को बसाए जाने से कुछ लोग उत्साह में है। जाहिर है कि जानवरों के बारे में हमारी समझ बहुत ही भोथरी है। और हम उस समझ को बदलना भी नहीं चाहते। न ही इस बारे में कुछ पढ़ना-समझना चाहते हैं। यही कारण है कि कुछ पत्रकार इस तरह की खबरें चला रहे हैं कि भारत में शेर अब चीता लेकर आया है। लेकिन, उन्हें शायद पता नहीं कि जंगल में शेर जब भी मौका मिले चीते को मार देते हैं।

मांसाहारी जीव एक दूसरे को पसंद नहीं करते हैं। जब भी मौका मिलेगा एक बाघ किसी तेंदुए को मार देगा। जब भी मौका मिलेगा एक शेर चीते को मार डालेगा। जब भी मौका लगेगा बाघ और शेर में एक दूसरे को मारने की लड़ाई छिड़ जाएगी। वे एक दूसरे को पसंद नहीं करते हैं। यहां तक कि स्पाटेड हायना भी शेरों के बच्चों को मारने की फिराक में लगे होते हैं। शेर भी जहां मौका लगे हायना (लकड़बग्घा) को मार डालते हैं। हाथी को भी अगर मौका मिल जाए तो वो शेरों को बच्चों को मार डालते हैं।

इसके पीछे कुल मिलाकर मतलब पारिस्थितिक संतुलन बनाने से है। मांसाहारी जानवर एक-दूसरे की जान के पीछे पड़े रहते हैं। किसी चीते या लकड़बग्घे को मारने के बाद शेर उसे खाता नहीं है। क्योंकि, चीता या लकड़बग्घा उसके लिए खाना नहीं है। उसके लिए वह प्रतिद्वंद्वी है। दुश्मन है। आज अगर उसे नहीं मारा गया तो कल वह उसके शिकारों पर हमला करेगा। उसके साथ भोजन साझा करना पड़ेगा। इसीलिए वह जब भी मौका लगे वह उसे मार डालता है। इसलिए कृपया शेर लाया चीता जैसे मुहावरे का इस्तेमाल नहीं करें। इससे सिर्फ यही पता चलता है कि आप वन्यजीवों के मामले में कितने बड़े अनपढ़ हैं।

फिर गूंजी चीते की दहाड़ भी गलत है। क्योंकि, चीते दहाड़ते नहीं है। इसकी बजाय यह कहा जा सकता है कि भारत में फिर से फर्राटा भरेंगे चीते। क्योंकि, रफ्तार के ही वे प्रतीक हैं। रफ्तार ही उनका सबकुछ है। उनकी दहाड़ में जान नहीं है। उनकी रफ्तार में जान है।

इसलिए जैसे ही आप कहते हैं कि फिर गूंजेगी चीते की दहाड़, आप अपने आप को फिर से अनपढ़, जाहिर और अहमक सिद्ध करते हैं।

चित्र इंटरनेट से लिया गया है। इसमें एक शेरनी चीते की हत्या कर रही है। अफ्रीका के जंगलों में हत्या के ऐसे मामले अक्सर ही सामने आते रहते हैं।

खनन के चलते मौत के कगार पर पहुंची यमुना!

“हमारे यहां सारस, लाल सुर्खाब, सफेद सुर्खाब, नीलसर, जलकाग जैसे प्रवासी पक्षी हज़ारों की संख्या में आया करते थे. महासीर जैसी दुर्लभ मछली, लालपरी, सुआ, सेवड़ा, लोंछी, किरण, गोल्डन फिश, रोहू जैसी मछलियां हजारों की संख्या में रहती थीं. हमने यहां 70-70 किलो वज़न तक के कछुए देखे हैं. जब से रेत-बजरी खनन शुरू हुआ नदी के भीतर से जीव-जंतु, जलीय पौधे सब घटने लगे. मशीनों के शोर ने पक्षियों को यहां से जाने पर मजबूर कर दिया. रात्रिचर जीव भी पलायन कर गए. खनन के चलते हमारी यमुना मरने की कगार पर पहुंच गई है.”

यमुना तट पर मरी हुई मछली दिखाते हुए स्थानीय निवासी किरणपाल राणा कहते हैं कि खनन वाहनों के पहियों के नीचे आकर नदी के भीतर और बाहर जलीय जीव और पौधे नष्ट हो रहे हैं.

यमुना के किनारे खड़े होकर किरनपाल राणा जब ये बता रहे थे, वहीं रेत पर एक छोटी मरी हुई मछली पड़ी थी. वह दिखाते हैं “यहां बचे-खुचे प्राणियों का यही हश्र है. खनन वाहनों के पहियों के नीचे आकर इनके अंडे, बच्चे, बीज, छोटे पौधे सब नष्ट हो जाते हैं.” वह हरियाणा के यमुनानगर जिले के जगाधरी तहसील के कनालसी गांव में रहते हैं.

यहां वर्ष 2016 में 44.14 हेक्टेअर नदी क्षेत्र में 9 वर्ष के लिए खनन की अनुमति मिली. गंगा की सबसे लंबी सहायक नदी यमुना उत्तराखंड में 6,387 मीटर ऊंचाई पर यमनोत्री ग्लेशियर से निकलकर 5 राज्यों में 1,376 किलोमीटर का सफ़र तय करते हुए, उत्तर प्रदेश के प्रयागराज जिले में गंगा में मिल जाती है. भारतीय वन्यजीव संस्थान में वैज्ञानिक डॉ सैयद ऐनुल हुसैन नेशनल मिशन फॉर क्लीन गंगा से जुड़े हैं.

कनालसी गांव में खनन के चलते यमुना में जलीय जीवों की घटती संख्या पर वह बताते हैं. “नदी से तय मात्रा से अधिक रेत खनन पूरे क्षेत्र को असंतुलित करता है. जलीय पौधे, सूक्ष्म जीव सब प्रभावित होते हैं. नदी और उसके ईर्दगिर्द रहने वाले जीवों की खाद्य श्रृंखला प्रभावित होने से जानवरों को भोजन नहीं मिलेगा. खनन क्षेत्र में जीव-जंतुओं की संख्या कम होना या स्थानीय तौर पर विलुप्त होना इसका संकेत है.”

रेत खनन का यमुना नदी और इसके जलीय जीवन पर किस तरह असर पड़ा है, इस पर अब तक कोई ठोस वैज्ञानिक अध्ययन किया ही नहीं गया. चंबल नदी पर रेत खनन के असर का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिक डॉ एसआर टैगोर भी यह सवाल उठाते हैं. वह कहते हैं “इटावा में यमुना की सहायक चंबल नदी पर किए गए हमारे अध्ययन से ये सिद्ध हो चुका है कि रेत खनन से नदी की जैव-विविधता पर खतरा आता है. हमने पाया कि चंबल में रेत खनन से घड़ियाल और कछुओं के प्रवास स्थल, नेस्टिंग पैटर्न, अंडे देने की प्रक्रिया बाधित हुई और इन जीवों ने उस नदी क्षेत्र से पलायन किया.”

डॉ टैगोर कहते हैं कि नदी क्षेत्र में भोजन की उपलब्धता के आधार पर पक्षी अपना प्रवास चुनते हैं. कई पक्षी नदी के बीच बने टापुओं पर अंडे देते हैं. खनन से होने वाली उथलपुथल जीव-जंतुओं की इन प्रक्रियाओं में बाधा आती है और उन्हें अपना घर छोड़ना पड़ता है. किरणपाल राणा के मुताबिक उनके गांव में यही हो रहा है.

यमुना स्वच्छता के लिए सक्रिय किरणपाल राणा बताते हैं कि रेत खनन से पहले यहां हजारों की संख्या में प्रवासी पक्षी आया करते थे. अब गिने-चुने पक्षी ही नजर आते हैं. ‘यमुना जिए’ अभियान चला रहे पूर्व आईएफएस अधिकारी मनोज मिश्रा कहते हैं यमुना की जैव-विविधता रेत खनन से कैसे प्रभावित हो रही है, इस पर कोई अलग से अध्ययन नहीं किया गया है. लेकिन गंगा या चंबल पर रेत खनन को लेकर किया गया अध्ययन यमुना पर भी लागू होता है.

धरती अपनी जैव विविधता बड़े पैमाने पर खो रही है. वर्ष 2018 की डब्ल्यूडब्ल्यूएफ की रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 1970 से 2014 के बीच वैश्विक स्तर पर वन्यजीवों की आबादी 60% तक घटी है. अवैध खनन पर वर्ष 2012 में दीपक कुमार व अन्य बनाम हरियाणा सरकार के मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला नज़ीर माना जाता है. इस महत्वपूर्ण फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि वर्षों से हो रहे खनन से जलीय जीवों के अस्तित्व पर संकट आ गया है.

बेलगाम रेत खनन से भारत की नदियां और नदियों का पारिस्थितकीय तंत्र बुरी तरह प्रभावित हो रहा है. नदियों का इकोसिस्टम प्रभावित होने के साथ उनके किनारों कमजोर हो रहे हैं, उन पर बने पुल खतरे में हैं और नदी और उसके किनारे रहने वाले जीवों का प्राकृतिक आवास, उनका प्रजनन प्रभावित हो रहा है. पक्षियों की कई प्रजातियों के संरक्षण को लेकर आपदा जैसी स्थिति हो गई है. इस फैसले के 10 साल बाद भी नदियां और नदियों पर निर्भर जीवन के संरक्षण के लिए कोई ठोस उपाय नहीं किए गए. कनालसी गांव के लोगों का आरोप है कि नियम के विरुद्ध रात के समय भी नदी से रेत खनन किया जाता है. रेत की धुलाई के लिए दिन-रात भूजल दोहन किया जाता है.

भूजल संकट

इंसान का पेट रोटी और पानी से भरता है. नदी का पेट रेत और पानी से. यमुना में जब रेत ही नहीं होगी तो पानी धरती में कैसे समाएगा, गांव के बुजुर्ग कहते हैं. ज्यादातर ग्रामीण भूजल स्तर में आ रही गिरावट और भविष्य के जल संकट से चिंतित हैं. कनालसी गांव के किसान महिपाल सिंह कहते हैं, “यमुना के करीब 5 किलोमीटर लंबाई में 40-50 स्क्रीनिंग प्लांट लगे हैं. रेत-बजरी की धुलाई के लिए ये प्लांट दिन-रात भूमिगत जल का दोहन करते हैं. खनन के चलते नदी का तल भी नीचे जा चुका है. पहले ज़मीन में 25-30 फुट पर पानी आ जाता था. अब 60 फुट तक मुश्किल से पानी आता है. किसानों के ट्यूबवैल बिलकुल ठप पड़ गए और नए बोरिंग करवाने पड़े. अगले 5 साल खनन की यही स्थिति रही तो सिंचाई और पेयजल का बड़ा संकट होगा.”

खनन के चलते भूजल स्तर गिरने, सांस, आंख, त्वचा संबंधी बीमारियों, खराब सड़कों, धूल से पशुओं का चारा खराब होने, प्रदूषण जैसी समस्याओं को लेकर कनालसी के ग्रामीणों ने वर्ष 2021 में हरियाणा के मुख्यमंत्री को लिखा पत्र दिखाया. जिसमें शिकायत करने पर खनन ठेकेदारों से धमकियां मिलने का भी जिक्र किया गया. मंडोलीगग्गड़ गांव के मल्लाह कहते हैं कि खनन के चलते उन्हें अपना पारंपरिक पेशा छोड़ना पड़ा. अब उनके गांव के ज्यादातर मल्लाह मजदूरी करने शहर की ओर चले गए हैं.

मल्लाह बने मजदूर

खनन से जलीय जीव संकट में आ गए जबकि मल्लाह, मछुआरे रोजगार बदलने पर मजबूर हो गए. यमुनानगर के छछरौली तहसील के मंडोलीगग्गड़ गांव में 60 मल्लाह परिवार रहते हैं. जिनका पारंपरिक पेशा यमुना में किश्तियां चलाना और नदी तट पर खेती करना रहा है.

कभी मल्लाह रहे प्रमोद कुमार कहते हैं, “अब हमारे समुदाय के लोग शहर की प्लाईवुड फैक्ट्रियों में मज़दूरी करने जाते हैं. नदी में अब किश्तियां नहीं लगती। हम यमुना में लौकी, करेला, कद्दू, ककड़ी, खीरा, तरबूज, खरबूजा जैसी बेल वाली सब्जियां-फल उगाते थे. हमारे पूर्वज यही काम करते आए थे। तब नदी हम सबकी हुआ करती थी, अब सिर्फ खनन वालों की है.”

खनन के चलते यमुना का बहाव एक समान न होने से मल्लाहों ने किश्तियां चलाने में खतरे की समस्या बताई. क्षेत्र में अब गिने-चुने मल्लाह ही यमुना में किश्तियां ले जाते हैं. नदी पार लगाने वालेबाकी बचे गिने-चुने मल्लाह मायूसी जताते हैं. जगाधरी तहसील के बीबीपुर गांव के युवा मोहम्मद मुकर्रम इनमें से एक हैं. सड़क से जो दूरी दो घंटे में तय होती है, किश्ती से दस मिनट में. मोटरसाइकिल सवारों के वाहन नदी पार कराते हुए मुकर्रम बताते हैं, “खनन के बाद नदी कहीं बहुत ज्यादा गहरी तो कहीं उपर है. पानी का बहाव एक समान नहीं रह गया. इससे किश्तियां चलाने में डर लगता है.”

जगाधरी तहसील के बहरामपुर गांव के किसान लक्ष्मीचंद की आवाज़ रुआंसी हो उठती है. वह यमुना की जद में आए अपने खेत दिखाते हैं. “जहां खनन होना चाहिए, वहां नहीं होता, कहीं और हो जाता है. ये सामान्य कटाव नहीं है. नदी को रोक दिया है. जब पानी को निकलने का रास्ता नहीं मिलेगा तो नदी कहां जाएगी. सरकार की कमाई तो खूब होती है. लेकिन सरकार हम पर ध्यान नहीं देती. गांव के कई किसानों की ज़मीन कट गई है. हमारे पेड़ नदी में समा गए.”

साभार- डाउन-टू-अर्थ

फरीदाबाद: खोरी गांव के विस्थापित परिवारों में से केवल 5.5 फीसदी को ही मिले मकान!

पिछले साल जून में फरीदाबाद के खोरी गांव में 10 हजार से ज्यादा लोगों के मकान गिराए गए थे. सुप्रीम कोर्ट ने खोरी गांव की इस कॉलोनी में रहने वाले लोगों के मकानों को अवैध बताकर जमीन खाली करवाने का आदेश दिया था. जिसके बाद फरीदाबाद प्रशासन ने 10 हजार परिवारों के मकानों पर बुलडोजर चलाकर जमीन खाली करवा ली थी. इस विध्वंस के बाद विस्थापित हुए लगभग 10 हजार परिवारों में से केवल 550 परिवारों को ही पुनर्वास के लिए मकान दिए गए हैं.

खोरी गांव की करीबन 150 एकड़ से ज्यादा वन क्षेत्र को खाली करवाने के लिए फरीदाबाद नगर निगम द्वारा इन इन परिवारों का यहां से हटाने का अभियान चलाया गया था. विस्थापित परिवारों के पुनर्वास की प्रक्रिया पिछले साल जुलाई में शुरू की गई थी लेकिन सरकार की अनेक शर्तों और कठिन प्रक्रिया के चलते अबतक केवल 5.5 प्रतिशत प्रभावित परिवारों का पुनर्वास किया गया है.

वहीं फरीदाबाद नगर निगम का कहना है कि पात्र पाए गए 4,100 में से 1,009 आवेदकों को आवंटन पत्र जारी किए गए हैं जबकि उनमें से 550 को कब्जा मिल गया. पुनर्वास योजना के तहत पात्र आवेदकों को 20 साल के लिए 10 हजार रुपये की एकमुश्त राशि जमा करवानी होगी और 1,950 रुपये की मासिक किस्त का भुगतान करना होगा.

वहीं अधिकतर लोग दस हजार की एकमुश्त राशि जमा करवाने और अन्य खर्च का भुगतान करने में असमर्थ रहे तो कई परिवार दस्तावेजों की कमी के कारण पुनर्वास की प्रक्रिया से बाहर हो गए.

सरकार ने रेलवे की 62 हजार हेक्टेयर जमीन निजी हाथों में सौंपने की मंजूरी दी!

केंद्र सरकार ने पिछले सप्ताह हुई कैबिनेट बैठक के बाद घोषणा की कि भारतीय रेलवे की जमीन को लंबे समय के लिए पट्टे पर देने की योजना को मंजूरी दे दी है. सरकार ने रेलवे की जमीन के लिए लाइसेंस शुल्क को 6 प्रतिशत से घटाकर 1.5 प्रतिशत कर दिया है, लीज अवधि को भी पांच साल से बढ़ाकर 35 साल कर दिया गया है. सरकार ने इसके पीछे 30 हजार करोड़ के लाभ का दावा किया है.

सरकार का कहना है कि रेलवे की जमीन को 5 साल से बढ़ाकर 35 साल के लिए प्राइवेट कंपनियों के हाथों में देने से सरकार की आमदनी बढ़ेगी. सरकार का दावा है कि रेलवे की जमीन पर कार्गो टर्मिनल बनाने के साथ पीपीपी यानी पब्लिक पाइवेट पार्टनरशिप से अस्पताल और स्कूल बनाने के लिए भी उपयोग में लाया जाएगा.

रेल मंत्रालय के अनुसार रेलवे के पास 4.84 लाख हेक्टेयर जमीन है इसमें से 62 हजार हेक्टेयर जमीन खाली पड़ी है, यानी अब इस 62 लाख हेक्टेयर जमीन को 35 साल के लिए निजी कंपनियों को सौंप दिया जाएगा.

पंचकूला: माइनिंग कंपनी ने अधिकारियों की मिलीभगत से किया 35 करोड़ का खनन घोटाला!

हरियाणा में आए दिन माइनिंग माफियाओं द्वारा अवैध तरीके से खनन के मामले सामने आ रहे हैं इसी कड़ी में स्टेट विजीलेंस ब्यूरो ने पंचकूला में अवैध खनन के आरोप में एक माइनिंग फर्म, मालिकों और माइनिंग विभाग के अधिकारियों के खिलाफ मामला दर्ज किया है. स्टेट विजीलेंस ब्यूरो की जांच में 35 करोड़ के माइनिंग घोटाले की बात सामने आई है. माइनिंग अधिकारियों ने खनन फर्म के साथ मिलकर 35 करोड़ रुपए का घोटाला किया है.

विजीलेंस ब्यूरो ने हरियाणा स्पेस एपलिकेशन सेंटर की मदद से अवैध खनन के घोटाले को उजागर किया है. दरअसल तिरुपति रोडवेज नाम की फर्म को पंचकूला के रत्तेवाली गांव में खनन के लिए टेंडर जारी किया गया था. विजीलेंस ब्यूरो की टीम जब 11 मई, 2022 को साइट पर गई तो पाया कि 5 मई से 11 मई, 2022 के बीच माइनिंग साइट से रेत से भरे कुल 1,868 ट्रक निकाले गए जबकि एंट्री में केवल 518 ट्रकों के बिल दिखाए गए हैं.

वहीं हरियाणा स्पेस एपलिकेशन सेंटर की रिपोर्ट से पता चला कि पंचकूला के रत्तेवाली गांव की खदान से निकाली गई कुल मात्रा 47.66 LTPA थी. जबकि फर्म को माइनिंग साइट से केवल केवल 8.39 LTPA तक मेटिरियल निकालने की मंजूरी थी.
इस तरह खनन कंपनी ने एक साल के लिए तय क्षमता से छह गुना ज्यादा खनन कर करीबन 35 करोड़ के घोटाले को अंजाम दिया है.

स्टेट विजीलेंस ब्यूरो ने प्रदेश के मुख्य सचिव को मामले की सूचना देते हुए लिखा कि खनन विभाग के अधिकारियों ने प्राइवेट माइनिंग कंपनी के साथ मिलकर अवैध खनन और कर चोरी के घोटाले को अंजाम दिया है. इस बीच माइनिंग कंपनी और माइनिंग विभाग के अधिकारियों के खिलाफ आईपीसी की धारा 420, 379 (चोरी के लिए), और खान और खनिज अधिनियम 1957 के तहत मामला दर्ज किया गया है.

एयर क्वालिटी ट्रैकर: अंबाला-नंदेसरी सहित देश के पांच शहरों में खराब रही हवा, जानिए अन्य शहरों का हाल

यदि दिल्ली-एनसीआर की बात करें तो यहां की वायु गुणवत्ता ‘मध्यम’ श्रेणी में है। दिल्ली में एयर क्वालिटी इंडेक्स 113 दर्ज किया गया है। पिछले दिनों बारिश होने के कारण यहां की हवा की गुणवत्ता में सुधार हो गया था। दिल्ली के अलावा फरीदाबाद में एयर क्वालिटी इंडेक्स 131, गाजियाबाद में 112, गुरुग्राम में 103, नोएडा में 111 पर पहुंच गया है। 

देश के अन्य प्रमुख शहरों से जुड़े आंकड़ों को देखें तो मुंबई में वायु गुणवत्ता सूचकांक 63 दर्ज किया गया, जो प्रदूषण के ‘संतोषजनक’ स्तर को दर्शाता है। जबकि कोलकाता में यह इंडेक्स 57, चेन्नई में 61, बैंगलोर में 46, हैदराबाद में 60, जयपुर में 105 और पटना में 86 दर्ज किया गया।  

देश के इन शहरों की हवा रही सबसे साफ

देश के जिन 38 शहरों में वायु गुणवत्ता सूचकांक 50 या उससे नीचे यानी ‘बेहतर’ रहा, उनमें आगरा 46, आइजोल 24, अमरावती 38, बागलकोट 43, बेंगलुरु 46, बेतिया 42, ब्रजराजनगर 49, चामराजनगर 37, चिकबलपुर 41, चिक्कामगलुरु 31, कोयंबटूर 32, दमोह 30, दावनगेरे 26, एर्नाकुलम 49, गडग 40, गांधीनगर 46, गंगटोक 20, गुवाहाटी 43, हसन 25, झांसी 48, कानपुर 46, मदिकेरी 22, मैहर 29, मंडीखेड़ा 34, मैसूर 45, नारनौल 48, पंचकुला 36, पानीपत 46, पुदुचेरी 40, राजमहेंद्रवरम 35, सासाराम 49, शिलांग 22, शिवमोगा 42, श्रीनगर 38, तिरुवनंतपुरम 36, थूथुकुडी 38, तिरुपति 41 और वाराणसी 36 आदि शामिल रहे।

वहीं अगरतला, अहमदाबाद, अलवर, अमृतसर, अंकलेश्वर, अररिया, आरा, आसनसोल, औरंगाबाद (बिहार), औरंगाबाद (महाराष्ट्र), बागपत, बल्लभगढ़, बरेली, बठिंडा, बेगूसराय, बेलगाम, भागलपुर, भिवानी, भोपाल, बिहारशरीफ, बिलासपुर, चंडीगढ़, चंद्रपुर, चरखी दादरी, चेन्नई, देवास, एलूर, फतेहाबाद, फिरोजाबाद, गया, गोरखपुर, हाजीपुर, हल्दिया, हापुड़, हावेरी, हिसार, हावड़ा, हुबली, हैदराबाद, इंफाल, इंदौर, जबलपुर, जालंधर, जींद, कैथल, कल्याण, कन्नूर, करनाल, कटनी, खन्ना, किशनगंज, कोलकाता, कोल्लम, कोप्पल, कोटा, कोझिकोड, कुरुक्षेत्र, लखनऊ, लुधियाना, मंडीदीप, मानेसर, मैंगलोर, मुरादाबाद, मोतिहारी, मुंबई, मुजफ्फरनगर, मुजफ्फरपुर, नागपुर, नवी मुंबई, पाली, पलवल, पटियाला, पटना, पीथमपुर, प्रयागराज, रायचुर, राजगीर, रतलाम, रूपनगर, सागर, सतना, सिलीगुड़ी, सिंगरौली, सिरसा, सोलापुर, सोनीपत, तालचेर, ठाणे, उज्जैन, वातवा, विशाखापत्तनम और वृंदावन आदि 92 शहरों में हवा की गुणवत्ता संतोषजनक रही, जहां सूचकांक 51 से 100 के बीच दर्ज किया गया। 

क्या दर्शाता है यह वायु गुणवत्ता सूचकांक, इसे कैसे जा सकता है समझा?

देश में वायु प्रदूषण के स्तर और वायु गुणवत्ता की स्थिति को आप इस सूचकांक से समझ सकते हैं जिसके अनुसार यदि हवा साफ है तो उसे इंडेक्स में 0 से 50 के बीच दर्शाया जाता है। इसके बाद वायु गुणवत्ता के संतोषजनक होने की स्थिति तब होती है जब सूचकांक 51 से 100 के बीच होती है। इसी तरह 101-200 का मतलब है कि वायु प्रदूषण का स्तर माध्यम श्रेणी का है, जबकि 201 से 300 की बीच की स्थिति वायु गुणवत्ता की खराब स्थिति को दर्शाती है।

वहीं यदि सूचकांक 301 से 400 के बीच दर्ज किया जाता है जैसा दिल्ली में अक्सर होता है तो वायु गुणवत्ता को बेहद खराब की श्रेणी में रखा जाता है। यह वो स्थिति है जब वायु प्रदूषण का यह स्तर स्वास्थ्य को गंभीर और लम्बे समय के लिए नुकसान पहुंचा सकता है।

इसके बाद 401 से 500 की केटेगरी आती है जिसमें वायु गुणवत्ता की स्थिति गंभीर बन जाती है। ऐसी स्थिति होने पर वायु गुणवत्ता इतनी खराब हो जाती है कि वो स्वस्थ इंसान को भी नुकसान पहुंचा सकती है, जबकि पहले से ही बीमारियों से जूझ रहे लोगों के लिए तो यह जानलेवा हो सकती है।

साभार: डाउन टू अर्थ

पौधारोपण के लिए हर साल 40-50 करोड़ रूपए खर्च करने के बाद भी घटा वनक्षेत्र!

सरकार की ओर से हर साल करोड़ों पौधे लगाने का दावा किय जाता है. पौधारोपण के लिए करोड़ों का बजट जारी किया जाता है. लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही है. हर साल लगाए जाने वाले पौधों का रखरखाव नहीं किया जाता है. जिन पौधों को पेड़ों में बदलने के लिए हर साल करोड़ों रुपये बहाए जा रहे हैं उसका परिणाम सीफर नजर आता है.

आईएएफएस की 2021 कि रिपोर्ट के बाद हरियाणा विधानसभा में पेश की गई पब्लिक अकाउंट कमेटी (पीएसी) ने भी वन विभाग के पौधारोपण सिस्टम को लेकर सवाल उठाए हैं. हरियाणा में हर साल करोड़ों पौधें लगाए जाते हैं. इंडिया स्टेट ऑफ फारेस्ट सर्वे की 2021 की एक रिपोर्ट के अनुसार हरियाणा में 2 साल के भीतर 140 स्क्वायर किलोमीटर ट्री कवर घटा है, जबकि पौधारोपण के लिए सालाना 40 से 50 करोड़ रूपए खर्च किये जाते रहे हैं.

अभी वन और ट्री-कवर हरियाणा के 44 हजार 212 स्क्वेयर किलोमीटर के क्षेत्र में 2,990 स्क्वेयर किलोमीटर क्षेत्र ट्री कवर क्षेत्र है. 1425 स्क्वेयर किलोमीटर में वन है. आईएएसएफ की 2021 कि रिपोर्ट के अनुसार 2019 में 1565 स्क्वेयर किलोमीटर क्षेत्र में ट्री-कवर घटकर 2021 में 1425 स्क्वेयर किलोमीटर हो गया है.

आईएएसएफ की रिपोर्ट के बाद पीएसी ने वन विभाग से पौधारोपण को लेकर ब्यौरा मांगा है जिसमें पौधारोपण पर होने वाले खर्च को लेकर जानकारी की बात की गई है. इस रिपोर्ट से यह पता चलेगा की आखिर पेड़ों की वृद्धि क्यों नहीं हो रही है. वहीं पौधे ना बढ़ने के दो कारण है. पहला देखरेख में कमी, पौधे लगा तो दिये जाते है लेकिन उनकी देखरेख उचित ढंग से नहीं कि जाती है, जिसके कारण पेड़ बढ़ने से पहले ही खत्म हो जाते हैं. दूसरा करण है कि कही पौधे लगाए ही नहीं जाते हैं.

वहीं हिंदी अखबार दैनिक भास्कर में छपि एक रिपोर्ट के अनुसार वन विभाग का कहना है कि लगाए गए पौधों में से यदि 60 फीसदी पौधे भी जीवित रहते हैं तो यह हमारे लिए अच्छा है, लेकिन असल में ऐसा नहीं होता है. जीवित पौधों की संख्या 60 फीसदी से भी बहुत कम रह पाती है. वन विभाग ने इस साल के लिए भी 2 करोड़ पौधों का लक्ष्य रखा है. साथ ही वन विभाग के मंत्री कंवर पाल गुर्जर भी मंचों से कईं दफा यह एलान कर चुके हैं कि हरियाणा में वन क्षेत्र 7 फीसदी से बढ़ाकर 20 फीसदी करने का लक्ष्य रखा गया है. ऐसे एक ओर से वन क्षेत्र घटता जा रहा है वहीं मंत्री जी 20 फीसदी का लक्ष्य लेकर चल रहे हैं.

22 अगस्त को जंतर-मंतर पर किसान पंचायत, रोड़े अटकाने में जुटी दिल्ली पुलिस!

संयुक्त किसान मोर्चा ने एसएसपी यानि न्यूनतम समर्थन मूल्य, अग्निपथ योजना और लखीमपुर हिंसा के मुद्दों पर केंद्र सरकार के विरोध में 22 अगस्त को दिल्ली के जंतर-मंतर पर पंचायत की कॉल दी है. जंतर-मंतर पर पंचायत के बाद किसान अपनी सभी मांगों को लेकर राष्ट्रपति के नाम ज्ञापन सैंपेंगे. वहीं कोई भी राजनीतिक संगठन इस कार्यक्रम का हिस्सा नहीं होगा.

दिल्ली के जंतर-मंतर पर होने वाली पंचायत में जहां एक ओर किसान भारी संख्या में पहुंच रहे हैं, वहीं दूसरी ओर दिल्ली पुलिस किसानों को जंतर-मंतर पर पहुंचने से रोकने के लिए पहले की तरह बैरिकेडिंग करने में जुट गई है. जंतर-मंतर पर होने जा रही किसान पंचायत के एक दिन पहले ही दिल्ली में प्रवेश करने वाले सभी वाहनों की चैकिंग की जा रही है खासकर किसानी झंड़े लगे वाहनों को रोका जा रहा है. खबर है कि दिल्ली पुलिस द्वारा टिकरी बॉर्डर पर बड़े-बड़े पत्थर रखने के साथ सीसीटीवी कैमरे लगाए गए हैं. इसके साथ ही दिल्ली में प्रवेश करने वाले हर रास्ते पर नाके लगाकर चैकिंग की जा रही है.

करीबन एक साल तक दिल्ली के बॉर्डरों पर धरना देने वाले किसान सरकार के वादों से संतुष्ट नहीं हैं. सरकार ने हालंहि में बिलजी संशोधन बिल-2022 पेश कर दिया है जिसको लेकर देशभर के किसान रोष व्यक्त कर चुके हैं. वहीं किसानों पर दर्ज केस अब तक वापस नहीं लिए गए हैं जिसके चलते किसान सरकार से नाखुश हैं. साथ ही सरकार ने एमएसपी गारंटी को लेकर भी कोई ठोस कदम नहीं उठाया है. सरकार पर दबाव बनाने के लिए किसानों जंतर-मंतर पर किसान पंचायत करने जा रहे हैं.