दक्षिण हरियाणा: बिजली ट्यूबवेल सिंचाई का किसानों और भूजल स्तर पर गहरा असर!

 

हरियाणा के बिसोहा गांव (रेवाड़ी जिला) निवासी दीपक पिछले 20 वर्षों से खेती में लगे हैं. वह खेतों में बिजली ट्यूबवेल द्वारा फुव्वारा तकनीक से सिंचाई करते हैं. गांव में खेतों की सिंचाई के लिए अन्य साधन उपलब्ध नहीं हैं. इसी कारण गांव में ज्यादातर किसान सिंचाई के लिए बिजली ट्यूबवेल का प्रयोग करते हैं. दीपक के मुताबिक बिजली ट्यूबवेल से सिंचाई का खर्चा कम पड़ता है. महीने में ट्यूबवेल द्वारा सिंचाई का खर्च 80 रूपए है, जो ज्यादा नहीं है. इसलिए वह सोलर पम्पसेट के बारे में नहीं सोच रहे.

दीपक बताते हैं कि खाली पड़ी जमीन भी ख़राब हो रही है और जमीन का अन्य प्रयोग भी नहीं हो रहा है. इसलिए ट्यूबवेल लगवाकर खेतों में सिंचाई करते हैं. जमीनी पानी भी लगातार खारा हो रहा है और नीचे जा रहा है लेकिन सिंचाई का साधन भी ट्यूबवेल ही है. यहां कोई नहर नहीं है. बिजली ट्यूबवेल से सिंचाई की लागत डीज़ल ट्यूबवेल की तुलना में कम आती है.

अहीरवाल में सिंचाई फुव्वारा तकनीक से ही होती है. गांव के सरपंच नितेश कुमार ने बताया कि फुव्वारा तकनीक द्वारा सिंचाई करने से लाइन बदलने के लिए मजदूर लगाने पड़ते हैं, जिस कारण सिंचाई का खर्च बढ़ जाता है यदि सिंचाई के लिए पानी अन्य स्रोतों द्वारा मिल जाए तो खेतों में खुली सिंचाई की जा सकेगी, जिससे अन्य कई खर्च (पाइपलाइन, मजदूरी आदि) बच जाएंगे.

इस इलाके में ज्यादातर किसान अपना जीवन चलाने के लिए खेती पर निर्भर हैं, लेकिन खेती से लगातार आय कम होती जा रही है. फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं मिल पाता तो फसलों की लागत भी पूरी नहीं होती. जब दीपक और बिसोहा के गांव वालों से प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (2015) के बारे में पूछा गया तो उन्हें इस योजना के बारे में नहीं पता था.

प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के तहत सरकार किसानों को खेत में सिंचाई करने के लिए उचित मात्रा में पानी उपलब्ध करवाने और सिंचाई उपकरणों के लिए सब्सिडी प्रदान करती है. सुनील कुमार शोधार्थी हैं और ग्रामीण एवं औद्योगिक विकास अनुसन्धान केंद्र चंडीगढ़ में काम कर चुके हैं. उनका शोध कार्य “खेती के कार्यो में बिजली के उपयोग” से संबधित है. सुनील कुमार से संबंधित विषय पर बात करने पर उन्होंने बताया कि पेट्रोल तथा डीजल से सिंचाई की लागत ज्यादा है, जिस कारण फसलों की उत्पादन लागत बढ़ती है. सिंचाई लागत कम होने की वजह से किसान बिजली टूबवेल की तरफ ज्यादा रुझान कर रहे हैं, जिससे किसानों के उत्पादन एरिया में भी बढ़ोतरी हुई है. लेकिन उत्पादित फसल चक्र में परिवर्तन नकारात्मक हो रहा है. किसान गहन सिंचाई की फसलों जैसे धान और गेहूं से कम गहन सिंचाई (कम सिंचाई) की फसलों सरसों, बाजरा आदि की तरफ आ रहे हैं, लेकिन बिजली टूबवेल की तरफ ज्यादा रुझान का विपरीत प्रभाव यह हो रहा है कि भूजल ज्यादा प्रयोग होने की वजह से भूजल स्तर लगातार नीचे जा रहा है. किसानों को अपने ट्यूबेल पम्प सेट ज्यादा गहरे करवाने पड़ रहे हैं जिससे पम्प सेट की लगता में बढ़ोतरी हो रही है.

देश में भूजल स्तर लगातार कम हो रहा है. डाउन-टू-अर्थ की रिपोर्ट के अनुसार, केंद्रीय जल शक्ति व सामाजिक न्याय मंत्री रतन लाल ने मार्च 2020 में संसद में जानकारी दी कि किसान 2001 में प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता 1816 घनमीटर थी, जो साल 2021 में 1488 घनमीटर रही और साल 2031 में काम होकर 1367 घनमीटर हो सकती है.

हरियाणा सरकार की रिपोर्ट के अनुसार “हरियाणा के कृषि योग्य भूमि की सिंचाई नहर, डीजल तथा बिजली ट्युबवेल्स आदि के माध्यम से की जाती है. हरियाणा में सिंचित कृषि क्षेत्र का 1154 हजार एकड़ भूमि नहरों द्वारा तथा 1801 हजार एकड़ भूमि टुबवेल्स द्वारा सिंचित किया जाता है. हरियाणा में कुल 821399 बिजली ट्यूबवेल्स तथा डीजल पंप सेट हैं जिसमें 275211 डीजल पंप से तथा 546188 बिजली पंप सेट हैं. रेवाड़ी जिले की बात की जाए तो यहां कुल 13605 ट्यूबवेल तथा पंपसेट हैं जिसमें 3311 डीजल और 10294 बिजली ट्यूबवेल पंपसेट हैं.

मौसम अनुसार फसलों की पैदावार

बिसोहा निवासी दीपक कहते हैं कि खरीफ (ग्रीष्म काल) के मौसम में कपास तथा बाजरा और रबी (शीत काल) मौसम में गेहूं तथा सरसों की फसलों का उत्पादन करते हैं. एक एकड़ में गेंहू की पैदावार 50 से 55 मण (1मण=40 किलोग्राम) है, एक एकड़ में सरसों की पैदावार 20 से 25 मण है, एक एकड़ में बाजरा की पैदावार 20 से 22 मण है, खरीफ की फसलों में 1 से 2 बार सिंचाई करते हैं तथा रबी की फसल सरसों में 2 से 3 बार और गेहूं की फसल में 5 से 7 बार सिंचाई करते हैं, यदि समय पर बारिश हो जाए तो ट्यूबवेल द्वारा 1 या 2 सिंचाई कम करनी पड़ती है. बिसोहा से लगभग 35 किलोमीटर दूर मीरपुर निवासी हरि सिंह अपने खेतों में गेहूं और बाजरा की पैदावार करते हैं. गेहूं में सरसो, बाजरा तथा कपास की तुलना में ज्यादा सिंचाई की जरूरत पड़ती है. एक एकड़ में गेहूं की पैदावार लगभग 38-40 मण (1 मण=40 किलोग्राम) और बाजरा की पैदावार लगभग 18-20 मण होती है.

डॉ अजय कुमार एग्रीकल्चर डेवलपमेंट ऑफिसर महेन्द्रगढ़ ने बताया कि मिट्टी में सॉइल आर्गेनिक कॉम्पोनेन्ट की कार्बन संरचना होती है जिससे मिट्टी की उपजाऊपन बना रहता है, खारा पानी, रासायनिक खाद, फसल चक्रण आदि से सॉइल आर्गेनिक कम्पोनेंट का अनुपात कम होता जा रहा है. ग्रामीण जनसंख्या की कृषि पर ज्यादा निर्भरता तथा साधन उपलब्धता के कारण फसल चक्रण के बीच अंतर कम होता जा रहा है. पहले किसान फसल चक्र के बीच अंतर करते थे जिससे मिट्टी की उपजाऊ शक्ति ठीक बनी रहती थी, साथ-साथ जलवायु परिवर्तन से तापमान में जो वृद्धि हो रही है, वह भी फसलों पर नकारात्मक प्रभाव डाल रही है. जैसे मार्च 2022 में हीट वेव (ज्यादा तापमान) के कारण गेहूं की पैदावार में 15% से ज्यादा की कमी आयी है.

खारा (नमकीन) पानी और रासायनिक खाद का खेती पर प्रभाव

राजेश कुमार एक एकड़ गेहूँ 70 से 75 किलोग्राम और सरसो में 50 किलोग्राम तथा बाजरा में 25 से 30 किलोग्राम रासायनिक खाद का प्रयोग करते हैं. वह बताते हैं, “रासायनिक खाद के ज्यादा प्रयोग के कारण मिट्टी की पैदावार भी कम हो रही है. देसी खाद (गोबर की खाद) जमीन को तो ठीक रखता है, लेकिन उससे पैदावार पर ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ता. रासायनिक खाद जमीन को तो ख़राब कर रहा है, पर पैदावार पर देसी खाद की तुलना में ज्यादा असर डालता है.”

कृषि विज्ञान केंद्र झज्जर (हरियाण) से संदर्भित विषय में सम्बंधित जानकारी लेने पर उन्होंने बताया कि रेवाड़ी से लगते हुए झज्जर का दो तिहाई पानी खारा (नमकीन) हो गया है, जिससे मिट्टी लवणीय (कैल्सियम, मैग्निसियम और सल्फेट आयन की अधिकता) होती जा रही है. फसल चक्र में रबी सीजन में गेहूं तथा खरीफ सीजन में पेड्डी चावल, बाजरा तथा कपास की फसलों का उत्पादन किया जाता है. रासायनिक खाद का प्रयोग खेत की मिट्टी को कृषि विज्ञान केंद्र की लैब में चेक करवा के करना चाहिए लेकिन ज्यादातर किसान आपस में एक दूसरे से बात करके रासायनिक खाद का प्रयोग करते हैं.

अस्सिस्टेंट प्रोफेसर डॉ.नवीन कटारिया ने बताया कि दक्षिणी हरियाणा की जमीन में फसल उत्पादन के आवश्यक तत्व (जिंक, कॉपर, मैंगनीज, आयरन,कॉपरआदि) कम मात्रा में पाए जाते हैं इसके साथ-साथ भूजल में फलोरिड, नमक की मात्रा ज्यादा है इसलिए फसल उत्पादन लगातार कम हो रहा है. जिस कारण किसानों को लगातार ज्यादा रासायनिक खाद का प्रयोग करना पड़ रहा है. जो रसायनिक खाद नाइट्रोजन फॉस्फोरस और पोटैशियम के आदर्श अनुपात (4:2:1) से ज्यादा है. फलोरिड और नमक युक्त भूजल दक्षिण हरियणा के जन मानस को भी बहुत ज्यादा प्रभावित कर रहा है, क्योंकि वहां के लोग पेय जल के रूप में भी इसी पानी का उपयोग करते हैं, जिससे मुख्यत दांतों की बीमारी दांतो का पीला पड़ना देखा जा सकता है.

हरियाणा का भूजल स्तर

बिसोहा निवासी हरीश ने 15 वर्ष पहले 150 फीट गहराई में ट्यूबवेल लगवाया था. पहले पांच वर्षों तक अच्छे से पानी चला लेकिन बाद में टूबवेल पानी छोड़ने लगा फिर ट्यूबवेल को दो बार 20- 20 फीट गहरा किया जा चुका है, लेकिन भूजल लगातार नीचे जाने की वजह से अब एक एकड़ फसल की सिंचाई के लिए दो-तीन बार ट्यूबवेल को चलना और बंद करना पड़ता है. जमीन में पानी इकट्ठा हो सके और खेत की सिंचाई पूरी हो सके, इसके लिए 3 किला (एकड़) जमीन की सिंचाई में एक सप्ताह का समय लग जाता है. फसलों को समय पर पानी नहीं मिलने से फसलों की पकावट अच्छी नहीं हो पाती है. जिस कारण खेतो में कुल पैदावार भी कम होती है.

डॉ अजय कुमार के अनुसार जलवायु परिवर्तन के कारण बारिश होने की प्रवृति बदल रही है. मानसून स्तर में पहले बारिश लगातार होती रहती थी लेकिन अब कभी बहुत ज्यादा और कभी कई दिनों तक बारिश नहीं होती है, जिससे जमीनी पानी का रिचार्ज नहीं हो पाता है. महेन्द्रगढ़ तथा उसके आसपास के एरिया का पानी प्रतिवर्ष 1 मीटर से 3 मीटर तक नीचे जा रहा है, और पानी खारा (नमकीन) हो रहा है. पानी में फ्लोरिड की मात्रा भी बढ़ती जा रही है, इसके कई कारण है जैसे इंडस्ट्रीज से निकलने वाला पानी, ज्यादा फर्टीलिज़ेर का प्रयोग आदि है.

डॉ.नवीन कटारिया ने बताया कि लगातार पानी का उपयोग करने तथा दक्षिण हरियाणा की वातावरणीय पारिस्तिथि शुष्क और रेतीली जमीन होने की वजह से यहां बारिश भी कम मात्रा में होती है, जिससे जमीन से निकलने वाले पानी की पूर्ति वापिस बारिश के पानी से पूरी नहीं हो पाती है. पहले भूजल की पूर्ति गांव में तालाब और जोहड़ों से भी हो जाती थी लेकिन अब गांव में तालाब और जोहड़ लगभग सूख चुके हैं. भूजल में फ्लोराइड के ज्यादा होने के कई कारण हो सकते हैं, दक्षिणी हरियाणा में मुख्य वजह चट्टानों का घुलना है, यह बारिश और भूजल के कारण हो रहा है. कई चट्टानों में फ्लोराइड, एपेटाइट और बिओटिट आदि की मात्रा ज्यादा होती है. इन चट्टानों के अपक्षय (घुलना) से भूजल में फ्लोराइड की मात्रा बढ़ जाती है. खेतों में फसल उत्पादकता बढ़ाने के लिए प्रयोग किये जाने वाले ज्यादा रासायनिक खाद (फॉस्फेट फर्टिलिसेर) से भी फ्लोराइड बढ़ता है.

भारतीय मौसम विज्ञान विभाग की रिपोर्ट के अनुसार “सामान्य मानसून लंबी अवधि का औसत 2005 से 2010 में सामान्य मानसून वर्षा की LPA दर 89.04 सेन्टीमीटर थी, जो 2011 से 2015 के बीच कम होकर 88.75 सेन्टीमीटर तथा 2018 से 2021 के बीच और भी कम होकर 88.6 सेन्टीमीटर हो गया है.”

कृषि विज्ञान केंद्र झज्जर से मिली जानकारी के अनुसार रेवाड़ी जिले से लगे हुए झज्जर जिले में चोवा (जमीनी पानी की उपलब्धता) 20-30 फीट है, लेकिन वह पानी खरा (नमकीन) है, जो किसी उपयोग लायक नहीं है. खेतो में सिंचाई तथा अन्य उपयोग के लिए अच्छे भूजल 80-100 फ़ीट की गहराई पर मिलता है.

पोस्ट ग्रेजुएट गवर्नमेंट कॉलेज तोशाम तथा बिहार सरकार के जीआईएस विभाग में काम कर चुके असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ वीरेंदर सिंह ने बताया कि रेवाड़ी तथा झज्जर भूजल स्तर की उपलब्धता में अन्तर का मुख्य कारण यह है कि रोहतक और झज्जर जिले में पानी के नहरी व्यवस्था अच्छी है, जिससे जमीन को लगातार पानी मिलता रहता है तथा नहरों के पानी रिसाव से भूजल रिचार्ज होता रहता है. इसी कारण यहां पर जलभराव की समस्या भी हो जाती है जबकि रेवाड़ी में नहरी व्यवस्था अच्छी नहीं है. दक्षिणी हरियाणा मुख्यत रेवाड़ी, महेन्द्रगढ़ और मेवात में रेतीली जमीन होने के साथ-साथ पहाड़ी इलाका है. जबकि रेवाड़ी के साथ लगते झज्जर जिले में जमीन मिट्टी युक्त है.

रेवाड़ी में नहरी व्यवस्था अच्छी नहीं है. दक्षिणी हरियाणा की भूगर्भिक संरचना हरियाणा के अन्य भाग से अलग होने की वजह से रोहतक, झज्जर का भूजल भी रेवाड़ी महेन्द्रगढ़ की तरफ नहीं जा पता है, जिस कारण जमीन को पानी भी कम मिल पाता है, जिससे भूजल स्तर लगातार गहरा हो रहा है.

मोंगाबे की रिपोर्ट के अनुसार हरियाणा के करीब 25.9 प्रतिशत गांव गंभीर रूप से भूजल संकट से जूझ रहे हैं, इसी तरह की स्थिति उतर प्रदेश और बिहार में बन रही है. हरियाणा जल संसाधन प्राधिकरण (HWRA) द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार हरियाणा के 319 गांव संभावित जल भराव वाले गांव हैं, जिनमें जल स्तर की गहराई 1.5 से 3 मीटर तक है हरियाणा में 85 गांव ऐसे हैं जो गंभीर रूप से जलजमाव से जूझ रहे हैं, जहां जल स्तर की गहराई 1.5 मीटर से कम है.

(यह स्टोरी स्वतंत्र पत्रकारों के लिए नेशनल फाउंडेशन फ़ॉर इंडिया की मीडिया फेलोशिप के तहत रिपोर्ट की गई है.)