गन्ने की कीमत बढ़ाने की मांग को लेकर किसानों ने दूसरे दिन भी जड़ा शुगर मिलों पर ताला!

हरियाणा सरकार ने विधानसभा के शीतकालीन सत्र के अखिरी दिन प्रदेश में गन्ने के दाम बढ़ाने की विपक्ष की मांग को नहीं माना था. गन्ने के दाम में बढ़ोतरी न होने से प्रदेश के किसान आक्रोषित हैं. जिसको लेकर आज नेता गुरनाम सिंह चढ़ूनी के नेतृत्व में भारतीय किसान यूनियन चढूनी ने प्रदेश की सभी शुगरमिलों को बंद

पिछले कईं दिनों से किसानों ने गन्ने की छिलाई बंद कर रखी है और किसान नेताओं की ओर से जारी कार्यक्रम के तहत प्रदेशभर की शुगर मिलों पर तालाबंदी की गई है. किसानों ने पानीपत ,फफड़ाना ,करनाल ,भादसोंभाली आनंदपुर शुगर मिल व महम शुगर मिल पर भी सुबह 9 बजे ताला लगाते हुए धरना शुरू किया. साथ ही जो भी गन्ने की ट्राली मिल पर पहुंची, उन्हें वापस लौटा दिया. उन्होंने कहा कि जब तक सरकार किसानों की मांग पूरी नहीं करती, तब तक शुगर मिलों को बंद रखते हुए प्रदर्शन किया जाएगा.

किसानों ने अम्बाला में नारायणगढ़ शुगर मिल के बाहर धरना दिया. सोनीपत के गोहाना में आहुलाना शुगर मिल पर ताला जड़कर किसानों ने सरकार के खिलाफ नारेबाजी की तो वहीं किसानों का शाहबाद शुगर मिल और करनाल शुगर मिल पर भी धरना जारी है.

किसान गन्ने के रेट को बढ़ाकर 450 रुपए करने की मांग कर रहे हैं. बता दें कि पंजाब में गन्ना किसानों को 380 रुपये प्रति किवंटल का रेट मिल रहा है.

दो दिन पहले किसान नेता गुरनाम सिंह चढ़ूनी ने ट्वीट किया था, “आज रात के बाद कोई भी किसान भाई किसी भी शुगर मिल में अपना गन्ना लेकर ना जाए अगर कोई किसी नेता या अधिकारी का नजदीकी या कोई अपना निजी फायदा उठाने के लिए शुगर मिल में भाईचारे के फैसले के विरुद्ध गन्ना ले जाता है और कोई उसका नुकसान कर देता है तो वह अपने नुकसान का खुद जिम्मेदार होगा.”

किसान नेता गुरनाम सिंह चढ़ूनी ने आज लिखा, “हरियाणा के सभी शुग़रमिल बंद करने पर सभी पदाधिकारियों व किसान साथियों का धन्यवाद, अगर सरकार 23 तारीख़ तक भाव नहीं बढ़ाती तो आगे की नीति 23 तारीख़ जाट धर्मशाला में बनायी जाएगी.”

सोनीपत गन्ना मिल के बाहर किसानों का प्रदर्शन.

सरकारी योजनाओं के लाभ के लिए साल भर नेताओं और सरकारी बाबुओं से भिड़ते रहे किसान!

एक ओर राज्य सरकार साल भर किसानों की आय दोगुनी करने का दावा करते हुए कृषि क्षेत्र के विकास पर जोर देने की बात करती रही वहीं दूसरी ओर किसान खराब फसलों के मुआवजे, एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) और खड़े पानी की निकासी जैसे मुद्दों से जूझते रहे. इन सब दिक्कतों के चलते किसान अपनी आय बढ़ाने के प्रयास में नई खेती नहीं अपना सके और गेहूं-और धान चक्र से बाहर निकलने में भी सक्षम नहीं रहे.

हरियाणा सरकार की आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट ने भी हरियाणा में कृषि के महत्व की ओर इशारा किया है. रिपोर्ट में कहा गया कि “हालांकि पिछले कुछ वर्षों के दौरान प्रदेश की आर्थिक वृद्धि, उद्योग और सेवा क्षेत्रों की वृद्धि पर ज्यादा निर्भर हो गई है लेकिन हाल के अनुभव बताते हैं कि निरंतर और तीव्र कृषि विकास के बिना उच्च सकल राज्य मूल्य (जीएसवीए) विकास से राज्य में मुद्रास्फीति में तेजी आने की संभावना थी, जिससे बड़ी विकास प्रक्रिया खतरे में पड़ गई. आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट में कहा गया है कि 2021-22 के अग्रिम अनुमानों के अनुसार, कृषि क्षेत्र से जीएसवीए में 2.6 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी.

हिसार क्षेत्र में किसानों ने बेमौसम बारिश और कपास में गुलाबी सुंडी के कारण खरीफ सीजन में हुए फसल के नुकसान के मुआवजे की मांग को लेकर आंदोलन का सहारा लिया. हालांकि कपास के उत्पादन में पिछले साल की तुलना में 30% से अधिक की वृद्धि दर्ज की गई, लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि अभी बहुत कुछ किए जाने की आवश्यकता है.

चौधरी चरण सिंह कृषि विश्वविद्यालय, हिसार के डिस्टेंस एजुकेशन के पूर्व निदेशक डॉ. राम कुमार ने अंग्रेजी अखबार दैनिक ट्रिब्यून के पत्रकार दिपेंद्र देसवाल को बताया कि सरकार की किसान के लाभ के लिए बनाई गई कई योजनाओं के बावजूद किसानों को बहुत कम लाभ मिल पा रहा है.

उन्होंने कहा कि प्रदेश में गुणवत्ता वाले बीजों की उपलब्धता एक मुख्य मुद्दा है. खेतों में जरूरत पड़ने पर किसानों को खाद उपलब्ध की जानी चाहिए. सरकार की सूक्ष्म सिंचाई योजना ठीक ढंग से लागू नहीं होने के कारण किसानों को फायदा नहीं पहुंचा सकी है. साथ ही हरियाणा के अगल-अलग क्षेत्रों में मौजूदा पानी के आवंटन को बेहतर तरीके से इस्तेमाल करने की जरूरत है. डॉ. राम कुमार ने कहा, “सरकारी संस्थान, किसानों को कपास और सरसों जैसी फसलों के अच्छे बीज उपलब्ध कराने में असमर्थ हैं जिसके कारण, किसान निजी कंपनियों के शिकार हो रहे हैं. हरियाणा और पंजाब में ऐसे उदाहरण हैं जहां खराब गुणवत्ता वाले बीजों के कारण किसानों की फसल को भारी नुकसान हुआ है.”

वहीं अंग्रेजी अखबार दैनिक ट्रिब्यून के अनुसार करनाल के 153 किसान, बीमा कंपनियों पर खराब फसलों का मुआवजा नहीं देने के आरोप लगा रहे हैं. वहीं करनाल, कैथल और अंबाला के किसान गन्ने के रेट में बढ़ोतरी की मांग को लेकर प्रदर्शन करते नजर आए. इस तरह प्रदेश के अलग अलग हिस्सों में किसान साल भर अपने मुआवजों को लेकर नेताओं और सरकारी अधिकारियों के दफ्तरों के चक्कर लगाते रह गए.

दिल्ली: दिल्ली पुलिस की रोक-टोक के बाद भी किसान महापंचायत में जुटे हजारों किसान!

किसान संगठनों द्वारा दिल्ली के जंतर-मंतर पर एक दिवसीय किसान महापंचायत बुलाई गई है. यह किसान महापंचायत लखीमपुर हत्याकांड के मुख्यारोपी राज्य मंत्री अजय मिश्र के बेटे आशीष मिश्र को सजा दिलाने और मंत्री के इस्तीफे की मांग को लेकर बुलाई गई है. किसानों को दिल्ली आने से रोकने के लिए सरकार के इशारों पर दिल्ली पुलिस किसानों का रास्ता रोकने में जुटी थी. सड़क के रास्ते को रोका गया तो किसान रेल के रास्ते दिल्ली पहुंच गए.

दिल्ली पहुंचे किसानों ने गांव-सवेरा के पत्रकार मनदीप पुनिया को बताया कि दिल्ली रेलवे स्टेशन पर उतरने के बाद भी पुलिस ने हमारा रास्ता रोकने की कोशिश की. पुलिस ने हमें अपनी बसों में बैठने को कहा लेकिन हम लोगों ने पुलिस की बसों में बैठने से मना कर दिया. पुलिस ने जंतर-मंतर की ओर जाने वाले रास्तों पर भारी बैरिकेडिंग कर रखी है.

वहीं पंजाब के मानसा से दिल्ली पहुंची 70 साल की बुजुर्ग माता ने कहा हम लखीमपुर में मारे गए किसानों को न्याय दिलाने के लिए पहुंचे हैं. साथ ही बिजली संशोधन बिल-2022 वापिस होना चाहिए.

संयुक्त किसान मोर्चा अराजनैतिक की ओर से जारी प्रेस रिलीज में किसान महापंचायत की प्रमुख मांगें.
1). लखीमपुर खीरी नरसंहार के पीड़ित किसान परिवारों को इंसाफ, जेलों में बंद किसानों की रिहाई व नरसंहार के मुख्य दोषी केंद्रीय मंत्री अजय मिश्रा टेनी की गिरफ्तारी की जाए.
2). स्वामीनाथन आयोग के C2+50% फॉर्मूले के अनुसार एमएसपी की गारंटी का कानून बनाया जाए.
3). देश के सभी किसानों को कर्जमुक्त किया जाए.
4). बिजली संशोधन बिल-2022 रद्द किया जाए.
5). गन्ने का समर्थन मूल्य बढ़ाया जाए और गन्ने की बकाया राशि का भुगतान तुरन्त किया जाए.
6). भारत WTO से बाहर आये और सभी मुक्त व्यापार समझौतों को रद्द किया जाए.
7). किसान आंदोलन के दौरान दर्ज किए गए सभी मुकदमे वापस लिए जाएं.
8). प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के तहत किसानों के बकाया मुआवज़े का भुगतान तुरन्त किया जाए.
9). अग्निपथ योजना वापिस ली जाए.

22 अगस्त को जंतर-मंतर पर किसान पंचायत, रोड़े अटकाने में जुटी दिल्ली पुलिस!

संयुक्त किसान मोर्चा ने एसएसपी यानि न्यूनतम समर्थन मूल्य, अग्निपथ योजना और लखीमपुर हिंसा के मुद्दों पर केंद्र सरकार के विरोध में 22 अगस्त को दिल्ली के जंतर-मंतर पर पंचायत की कॉल दी है. जंतर-मंतर पर पंचायत के बाद किसान अपनी सभी मांगों को लेकर राष्ट्रपति के नाम ज्ञापन सैंपेंगे. वहीं कोई भी राजनीतिक संगठन इस कार्यक्रम का हिस्सा नहीं होगा.

दिल्ली के जंतर-मंतर पर होने वाली पंचायत में जहां एक ओर किसान भारी संख्या में पहुंच रहे हैं, वहीं दूसरी ओर दिल्ली पुलिस किसानों को जंतर-मंतर पर पहुंचने से रोकने के लिए पहले की तरह बैरिकेडिंग करने में जुट गई है. जंतर-मंतर पर होने जा रही किसान पंचायत के एक दिन पहले ही दिल्ली में प्रवेश करने वाले सभी वाहनों की चैकिंग की जा रही है खासकर किसानी झंड़े लगे वाहनों को रोका जा रहा है. खबर है कि दिल्ली पुलिस द्वारा टिकरी बॉर्डर पर बड़े-बड़े पत्थर रखने के साथ सीसीटीवी कैमरे लगाए गए हैं. इसके साथ ही दिल्ली में प्रवेश करने वाले हर रास्ते पर नाके लगाकर चैकिंग की जा रही है.

करीबन एक साल तक दिल्ली के बॉर्डरों पर धरना देने वाले किसान सरकार के वादों से संतुष्ट नहीं हैं. सरकार ने हालंहि में बिलजी संशोधन बिल-2022 पेश कर दिया है जिसको लेकर देशभर के किसान रोष व्यक्त कर चुके हैं. वहीं किसानों पर दर्ज केस अब तक वापस नहीं लिए गए हैं जिसके चलते किसान सरकार से नाखुश हैं. साथ ही सरकार ने एमएसपी गारंटी को लेकर भी कोई ठोस कदम नहीं उठाया है. सरकार पर दबाव बनाने के लिए किसानों जंतर-मंतर पर किसान पंचायत करने जा रहे हैं.

साम-दाम-दंड-भेद से पतंजलि ने खरीदी दलितों की सैकड़ों एकड़ जमीन!

उत्तराखंड के हरिद्वार जिले में तेलीवाला नाम का एक गांव है. तेलीवाला, औरंगाबाद और इसके आस पास के गांवों में सैकड़ों बीघा जमीन पतंजलि के पास है. एक विश्व प्रसिद्ध योग गुरु खासकर जो एक समय में भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान चला चुका है, उसके द्वारा जमीनें खरीदने के लिए ऐसा कुछ भी किया जा सकता है, यह विश्वास से परे लगता है. कहीं ग्रामसभा की जमीन पर कब्जा तो कहीं बरसाती नदी को भरकर कब्जा. कहीं दलितों की जमीन खरीदने के लिए दलितों को ही मोहरा बनाया गया.

हरिद्वार से तकरीबन 20 किलोमीटर दूर स्थित तेलीवाला गांव में तकरीबन 1500 के करीब दलित वोटर हैं. कई बार यहां के प्रधान दलित समुदाय से हुए हैं. साल 2005 से 2010 के बीच यहां पतंजलि और उनके सहयोगियों ने खूब जमीन खरीदी है. चूंकि गांव में दलित समुदाय की बड़ी आबादी है, इसलिए उनके पास गांव में जमीनें भी ज्यादा थीं. किसी समय में भूमिहीन दलितों को सरकार से छह-छह बीघा जमीन पट्टे पर मिली थी.

उत्तराखंड में कानूनी प्रावधान है कि दलित की जमीन दलित ही खरीद सकते हैं. दलितों द्वारा किसी अन्य को जमीन बेचने के नियम बहुत कठोर हैं. दलित किसी अन्य जाति को जमीन सिर्फ उसी हालत में बेच सकते हैं, जब उसके पास 18 बीघा या उससे ज्यादा जमीन हो. इसके लिए भी एसडीएम और डीएम से विशेष इजाजत लेनी पड़ती है और जमीन का लैंडयूज बदलवाना पड़ता है.

पतंजलि ने इन गांवों के आस पास जड़ी-बूटियों और गन्ने आदि की खेती के लिए बड़े पैमाने पर जमीनें खरीदीं. चूंकि वो सीधे तौर पर इन्हें नहीं खरीद सकते थे, इसलिए उन्होंने कुछ दलितों को ही मोहरा बना कर उनके नाम पर गांव के दलितों की जमीन को बिकवा दिया. इस तरह तेलीवाला में पतंजलि ने सैकड़ों बीघा जमीन खरीद ली.

जान मोहम्मद तेलीवाला गांव के प्रधान हैं. वे बताते हैं, ‘‘हमारे गांव के ही महेंद्र सिंह, कुरड़ी प्रधान और उनका लड़का अर्जुन, मुरसलीन समेत कई लोगों ने रामददेव के लिए जमीन की खरीदारी की है. खरीद के लिए पैसे पतंजलि के लोग देते थे. जमीन दलितों के नाम पर होती थी, लेकिन कब्जा उस पर पतंजलि का होता था. कुछ लोगों से दान में भी जमीन ली गई, लेकिन दान में ली गई जमीनों के लिए भी पैसे दिए गए हैं.’’

ग्रामीणों के मुताबिक जमीनों की इस अपरोक्ष खरीद-फरोख्त में तत्कालीन पटवारी गुलाब सिंह और तत्कालीन प्रधान कुरड़ी सिंह ने पतंजलि की मददद की. गुलाब सिंह और कुरड़ी दोनों दलित थे. दोनों का निधन हो चुका है.

पतंजलि ने पूरे परिवार के नाम खरीदी जमीन

तेलीवाला के ग्रामीण हमें बताते हैं कि एक समय में पतंजलि के लिए ज़मीन खरीदना आसपास के लोगों के लिए व्यवसाय बन गया था. हमने पाया कि कुछ लोगों ने अपने परिवार के हर सदस्य के नाम पर जमीन खरीदी. कुछ ने तो अपने ड्राइवर और नौकर तक के नाम पर जमीन खरीदी थी. यह सब साल 2005 से 2010 के बीच हुआ.

52 वर्षीय महेंद्र सिंह तेलीवाला गांव के रहने वाले हैं. हम उनसे उनके घर पर मिले. सिंह ने खुद अपने नाम पर, पत्नी पल्ली, भाई फूल सिंह, बेटे अंकित कुमार और अपने ड्राइवर प्रमोद कुमार के नाम पर पतंजलि के लिए अपरोक्ष तरीके से जमीन खरीदी थी. यह बात वो खुद न्यूज़लॉन्ड्री को बताते हैं.

महेंद्र सिंह कहते हैं, ‘‘मैंने तकरीबन 100 बीघा जमीन अपने और अपने घर वालों के अन्य सदस्यों के नाम पर पतंजलि के लिए खरीदी थी. पतंजलि के वरिष्ठ कर्मचारी देवेंद्र चौधरी मेरे पास आये थे. उन्होंने कहा कि अपने नाम पर कुछ जमीन लिखवा लो. पैसे हम देंगे, बस नाम तुम्हारा होगा. चौधरी खुद ही जमीन बेचने वालों को कैश में पैसा देते थे. नाम हम लोगों का होता था.’’

उत्तराखंड लैंड रिकॉर्ड के मुताबिक साल 2008 में सिंह और उनके परिवार ने तकरीबन 18 बार जमीन की खरीद, बिक्री और एग्रीमेंट किया. साल 2007 में सात बार और साल 2009 में 21 बार.

सिंह कहते हैं, ‘‘उस वक्त गुलाब सिंह हमारे गांव का पटवारी था. वो रामदेव का आदमी था. पटवारी को एक-एक जमीन की जानकारी होती है. गांव के किसी दलित से मेरे नाम पर जमीन ली जाती थी. इसके कुछ दिन बाद मेरे नाम पर ली गई जमीन अमर सिंह को बेच दी गई. अमर सिंह, गुलाब सिंह के रिश्ते में मामा लगते हैं.’’

दरअसल गुलाब सिंह और अमर सिंह पतंजलि के भरोसे के आदमी थे, जबकि महेंद्र सिंह गांव के आदमी थे. उनके नाम पर जमीन होने की स्थिति में बाद में वो कानूनी मुसीबत खड़ी कर सकते थे. लैंड रिकॉर्ड से भी इस बात की पुष्टि होती है. 9 जनवरी, 2009 के दिन अमर सिंह, पुत्र हरभजन सिंह ने लगभग 1.8 हेक्टेयर जमीन महेंद्र सिंह से खरीदी थी. इन जमीनों की कीमत 9 लाख 60 हजार रुपए थी. अमर सिंह ने 2009 में ही एक जनवरी को कुरड़ी सिंह से भी लगभग 1.9 हेक्टेयर जमीन खरीदी थी. जिसकी कीमत 10 लाख 15 हजार रुपए के करीब थी.

महेंद्र सिंह कहते हैं, ‘‘रामदेव या बालकृष्ण जमीन के मामले में कभी सामने नहीं आए. देवेंद्र चौधरी और पंकज ही यह सब करते थे. गुलाब सिंह उन्हें जमीन की जानकारी देते थे. जमीन एक आदमी से दूसरे के नाम दर्ज होती. दूसरे से तीसरे के पास. अभी भी पतंजलि का जिन जमीनों पर कब्जा है, उसमें से कई खसरा किसी और के नाम पर है.’’ ‘‘रामदेव के करीबी देवेंद्र चौधरी के यहां जितना कैश रुपया मैंने देखा, उतना मैंने सिर्फ फिल्मों में देखा था. वे जमीनों का भुगतान कैश में ही करते थे. पैसे देने का काम पंकज करते थे.’’

महेंद्र बताते हैं, पतंजलि द्वारा दलितों की जमीन की अपरोक्ष खरीद-फरोख्त का नतीजा यह हुआ कि आज तेलीवाला के ज्यादातर दलित भूमिहीन हैं. वे पतंजलि के मजदूर बन गए या फिर काम के लिए शहरों की तरफ पलायन कर गए. गांव के बुजुर्ग हरी सिंह ने पतंजलि को ग्रामसभा की सैकड़ों बीघा जमीन दान में देने के खिलाफ आंदोलन किया था.

हरी सिंह कहते हैं, ‘‘साल 2005 से 2010 के बीच हमारे गांव में खूब जमीन की बिक्री हुई. उन दिनों गांव में भू-माफियाओं का डेरा रहता था. अगर कोई अपनी जमीन बेचने के लिए राजी नहीं होता था तो उस पर तरह-तरह से दबाव बनाया जाता था, उसे लालच दिया जाता था.’’ हरी सिंह आगे कहते हैं, ‘‘साल 1975-76 में काफी कोशिश करके गांव के दलितों को हमने 6-6 बीघा जमीन पट्टे पर दिलवाई थी. ताकि वे गुजर-बसर कर सकें. आज इसमें से 80 प्रतिशत लोग भूमिहीन हो गए हैं.’’

महेंद्र के मुताबिक पतंजलि के लिए काम करने के कारण उन्हें फायदे की जगह नुकसान हुआ है. वे कहते हैं, ‘‘साल 2009 के करीब पतंजलि के लोगों के कहने पर मैंने कुछ जमीनों का एग्रीमेंट किया. एग्रीमेंट के पैसे मैंने दे दिए क्योंकि देवेंद्र ने कहा था कि वो जल्द ही हमें वापस कर देगा. बाद में उन्होंने जमीन लिया नहीं और मेरे पास पैसे नहीं थे कि जमीन ले सकूं. नतीजतन जिनकी जमीन थी उन्होंने वापस कब्जा कर लिया. मेरे पैसे डूब गए. पैसे मैंने कर्ज पर लिए थे. कर्ज चुकाने के लिए मुझे अपनी पुश्तैनी जमीन बेचनी पड़ी.’’

पतंजलि के लिए जमीन खरीदने वाले महेंद्र सिंह अकेले नहीं हैं. तेलीवाला के ही रहने वाले देवेंद्र कुमार ने अपनी मां प्रेमवती, पत्नी ममता रानी और खुद अपने नाम पर जमीन खरीदी थी. कुमार भी दलित समुदाय से ताल्लुक रखते हैं. कुमार कहते हैं, ‘‘पतंजलि के लिए मैंने अपने और अपने परिवारजनों के नाम पर 35 बीघा के करीब जमीन खरीदी थी. इसके लिए मुझसे गुलाब सिंह ने संपर्क किया था. गुलाब ने कहा था कि स्वामी जी (रामदेव) के ट्रस्ट के लिए जमीन लेनी है. उनके कहने पर मैं गांव के दलितों की जमीन अपने नाम करवाता गया.’’

महेंद्र सिंह की तरह देवेंद्र भी, गुलाब सिंह के अलावा देवेंद्र चौधरी और पंकज के नामों का जिक्र करते हैं. वे कहते हैं कि यहीं लोग जमीन की खरीद बिक्री कराते थे. साल 2008 में देवेंद्र और उनके परिजनों ने तकरीबन 18 बार जमीन की खरीद बिक्री की. उत्तराखंड सरकार के लैंड रिकॉर्ड के मुताबिक साल 2008 में देवेंद्र कुमार और उनकी पत्नी ममता रानी ने 1.4 हेक्टेयर जमीन खरीदी थी. जिसकी कीमत 9 लाख 25 हजार रुपए थी.

पतंजलि की जमीन बटोरने में कुरड़ी सिंह आगे

बाबा रामदेव और जमीन का जिक्र आते ही तेलीवाला गांव के लोग तीन बार के प्रधान रहे कुरड़ी सिंह का जिक्र सबसे ज्यादा करते हैं. इनकी मृत्यु 2009 में हो गई. पटवारी गुलाब सिंह के साथ मिलकर कुरड़ी प्रधान ने पतंजलि के लिए खूब जमीनें बटोरी.

कुरड़ी सिंह के निधन के महज तीन दिन बाद ही गुलाब सिंह उनके घर पहुंचे और जमीन अपने लोगों के नाम करवाने का दबाव बनाया. जिसके बाद कुरड़ी की पत्नी और बेटों ने जमीन गुलाब सिंह के जानने वालों के नाम कर दी. यह जानकारी कुरड़ी के बेटे अर्जुन और तेलूराम देते हैं.

अर्जुन और तेलूराम दोनों के पास जेसीबी मशीन हैं. जिसे वे किराए पर चलाते हैं. न्यूज़लॉन्ड्री ने अर्जुन से मुलाकात की. अर्जुन जब हमसे मिलने आए तो उनके साथ मुरसलीन भी थे. मुरसलीन गांव के उन चंद लोगों में से एक हैं, जिन्होंने पतंजलि के लिए जमीन खरीदी थी. मुरसलीन हर चीज से अनजान होने का दिखावा करते हैं. लेकिन थोड़ा कुरेदने पर कहते हैं, ‘‘अब तो पुरानी बात हो गई. अब तो पतंजलि वाले इन्हें ही (अर्जुन की तरफ इशारा) मुसीबत में डाल दिए हैं.’’

अर्जुन पतंजलि के लिए जमीन खरीदने के सवाल पर कहते हैं, ‘‘पिताजी किसके लिए जमीन खरीदते थे यह तो हमें नहीं मालूम है. पर उनके निधन के तीन दिन बाद ही गुलाब सिंह हमारे घर आए और कहा कि उनके नाम पर मेरी जमीनें हैं. उसे वापस कर दो. मेरी मां और हम दोनों भाइयों ने जमीन वापस कर दी. वह जमीन अभी पतंजलि के पास है.’’

अर्जुन के नाम पर भी कई बार जमीन की खरीद बिक्री हुई है. इस पर अर्जुन कहते हैं, ‘‘वो जमीन मेरे पिताजी ने अपने पैसों से हमारे नाम पर खरीदी थी. उसमें से कुछ जमीन गुलाब सिंह ने हमसे वापस ले ली.’’ जब अर्जुन के नाम पर लाखों रुपए की जमीन की खरीदारी हो रही थी तब उनकी उम्र 22-23 साल थी. वे दिल्ली में रहकर मजदूरी करते थे.

उत्तराखंड सरकार के लैंड रिकॉर्ड के मुताबिक कुरड़ी सिंह और उनके बेटे अर्जुन ने साल 2006 में छह बार जमीन की खरीद-बिक्री की. 2007 में चार बार, 2008 में छह बार, 2009 में 11 दफा जमीन की खरीद बिक्री की है. कुरड़ी सिंह ने पतंजलि को जमीन दिलाने में मदद की, लेकिन उनके निधन के बाद उनके बेटे अर्जुन से जमीन की खरीद में पतंजलि ने छल किया. अर्जुन से जमीन लेने के लिए फिर एक दलित व्यक्ति सोमलाल का इस्तेमाल किया गया.

अर्जुन न्यूज़लॉन्ड्री को बताते हैं, ‘‘पतंजलि के लोगों से उनकी बात आठ बीघा जमीन बेचने की हुई थी. जब बेचने गए तो 28 बीघा जमीन अपने नाम करा ली. जिसमें आठ बीघा की रजिस्ट्री थी और 20 बीघा दान करा ली. यह हमारे साथ छल था. हम लोग इतने अमीर तो है नहीं कि 20 बीघा जमीन दान करेंगे. हम इसके खिलाफ कोर्ट गए. आठ बीघा तो उनके पास चली गई, लेकिन 20 बीघा पर स्टे है, जिस पर हमारा कब्जा है. केस चल रहा है. पतंजलि की तरफ से राजू वर्मा केस की सुनवाई के समय आते हैं.’’

पतंजलि पर रुड़की में जमीन विवाद को लेकर तकरीबन 20 मामले चल रहे हैं. पतंजलि की तरफ से राजू वर्मा इनमें से कुछेक मामले की पैरवी कोर्ट में करते हैं. वर्मा अर्जुन की जमीन की बिक्री में सोमपाल की तरफ से गवाह बने थे. अर्जुन ने जो शिकायत की है उसमें इनका भी नाम है. यह जानकारी अर्जुन और राजू वर्मा दोनों न्यूज़लॉन्ड्री से साझा करते हैं.

वर्मा हमसे से बात करते हुए पहले तो स्वीकार करते हैं कि जमीन पतंजलि के लिए ली गई थी, लेकिन जैसे ही उन्हें भनक लगती है कि पत्रकार हैं, तो वे बात पलटने लगते हैं. वर्मा कहते हैं, ‘‘सोमलाल यहां अपनी जमीन खरीदने आए थे. उनको एक गवाह की जरूरत थी. उन्होंने मुझे कहा तो मैं गवाह बन गया.’’

न्यूज़लॉन्ड्री सोमलाल के घर पहुंचा तो अलग ही कहानी सामने आई. हरिद्वार के धेनुपुरा गांव के रहने वाले सोमलाल का निधन हो चुका है. हमारी मुलाकात उनके बेटे प्रणेश कुमार से हुई. कुमार उत्तराखंड पुलिस में सिपाही हैं. धेनुपुरा, तेलीवाला से करीब 25 किलोमीटर की दूरी पर है. यहां से थोड़ी ही दूर स्थित पदार्था गांव में पतंजलि का फूड पार्क है.

कुमार ने बताया, ‘‘पतंजलि के फूड पार्क में दलितों की जमीन पिताजी के नाम पर ली गई थी. जिसे बाद में उन्होंने वापस कर दिया. इसकी तो मुझे जानकारी है, लेकिन तेलीवाला की जानकारी नहीं है. अगर कोई मामला चल रहा है तो नोटिस तो मिलना चाहिए था. हमें अभी तक कोई नोटिस तक नहीं मिला है.’’

प्रणेश कहते हैं, ‘‘उनके (पिताजी) नाम पर दलितों की जमीन दूसरी जाति के लोग खरीदते थे. देहरादून में उनके नाम पर करोड़ों की जमीन ली गई थी. बहुत लोग ऐसे मौके पर लालच दिखा देते हैं, लेकिन उन्होंने जमीन वापस कर दी. उन्हें पीने का शौक था तो पीने का खर्च लेकर वे जमीन अपने नाम करा लेते थे. हमारे पास पुश्तैनी जमीन छोड़कर एक इंच जमीन नहीं है. कभी भी आप इसकी जांच करा सकते हैं.’’

साभार- न्यूजलॉंड्री

गुजरात की कंपनी ने नकली दवाई बेच कर किसानों के साथ की 37 करोड़ की ठगी!

पंजाब में मालवा के किसान बीटी कॉटन (नरमे) के बीज घोटाले में करोड़ों की ठगी का शिकार हो गए. किसानों को गुलाबी सूंडी का हमला न होने की गारंटी बता कर गुजरात के ब्रांड का घटिया बीटी कॉटन बीज बेच डाला. पंजाब के 25 से 30 एजेंटों ने गुजरात की कंपनी पिंक-73 4G, रोनक 4G व पिंक पेंथर-3 के नाम पर करीब 10 हजार किसानों को चूना लगाया दिया. गुजरात की कंपनी ने किसानों को 37 करोड़ रुपए के 2.5 लाख पैकेट बेच दिए. पंजाब में मालवा के किसान इससे पहले ढैंचा के बीज की ठगी के भी शिकार हुए थे.

समाचार पत्र दैनिक भास्कर में पत्रकार हरपाल रंधाव की छपी रिपोर्ट के अनुसार जब इस मामले की पड़ताल की तो पता चला कि इसमें गुजरात के भी 8 से 10 एजेंट व विक्रेता शामिल थे. यह बीज मालवा के बठिंडा और मानसा जिलों के गांवों में स्टाल लगा कर बेचा गया. यूनिवर्सिटी का बीटी कॉटन बीज 760 रुपए तक प्रति किलो में आता था, लेकिन बीज माफिया ने इसे गुलाबी व सफेद सूंडी के हमले का सामना करने वाला बताकर किसानों से दोगुने पैसे वसूले. किसानों को यह बीज 1300 से 1500 रुपए तक बेचा गया. सूंडी पर हमला भी ज्यादातर इसी बीज पर हुआ. दूसरी तरफ, किसान घटिया बीज की विजिलेंस जांच व खराब फसल की मुआवजे की मांग के लिए धरने पर हैं.

पत्रकार हरपाल रंधाव की रिपोर्ट के अऩुसार कृषि विभाग की 230 टीमों ने आनन फानन में 3 दिन में 757 जगह का निरीक्षण किया. लेकिन अभी तक यह भी पता नहीं चल पाया है कि गुजरात के इस बीज घपले का माफिया कौन है. इतना बीज बिना मंजूरी कैसे और किसकी मिलीभगत से बेचा गया.

वहीं किसानों पर इसकी दोहरी मार पड़ी है. किसानों ने जो कीटनाशक छिड़का वो भी एक्सपायरी निकला जिसके कारण किसानों की फसल खराब हो गई. यह खुलासा कृषि विभाग की टीम द्वारा दुकानों की चेकिंग के दौरान हुआ. कृषि विभाग ने 2500 लीटर एक्सपायरी कीटनाशक जब्त किया. 21 स्पेशल सैंपल लिए. विभाग ने 3 फर्मों की बिक्री बंद भी कर दी. कृषि विभाग के ज्वाइंट डायरेक्टर (कॉटन) हरिंदर सिंह ने कहा, “मालवा में लगभग 40 हजार एकड़ में किसानों ने गुजरात का बीज बीजा है. यह किसानों ने खुद उनसे खरीदा था. उनको गलत कहा गया कि इस बीज पर सूंडी का हमला नही होता है. ये कौन लोग थे, इसकी विभाग जांच कर रहा है. पता लगा कर कड़ी कार्रवाई करेंगे.”

बंजर होती कृषि भूमि और खाद्य सुरक्षा की चुनौती

प्रत्येक जीवित प्राणी का एक सामान्य लक्ष्य होता है इस दुनिया में एक नई ज़िंदगी को लाना। इससे जीवन और क्रमागत उन्नति का चक्र चलता रहता है। लेकिन जीवित रहने के लिए और इस चक्र के चलते रहने के लिए सबसे महत्वपूर्ण है भोजन की उपलब्धता। केवल भोजन नहीं, उच्च गुणवत्ता और पोषण वाला भोजन।

वर्ष 2020 ने हमें कई महत्वपूर्ण सबक सिखाए हैं। आपने यह भी महसूस किया होगा कि यह वर्ष कितनी तेजी से बीतता जा रहा है। फिलहाल भारत की आबादी 1.38 अरब (138 करोड़) से ऊपर है और तेजी से बढ़ती जा रही है। द वायर में कबीर अग्रवाल द्वारा लिखे लेख के अनुसार, साल 2036 में भारत की आबादी 1.52 अरब (152 करोड़) हो जाएगी। यह आज से सिर्फ 16 वर्ष बाद होने वाला है। बस सोलह साल! इसमें अगर आप 14 साल और जोड़ दें तो 2050 में हमारी आबादी 1.7 अरब (170 करोड़) से बस कुछ ही कम होगी और भारत दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश होगा।

साल 2050 में धरती पर 10 अरब लोग होंगे (जेनेट रंगनाथन और अन्य 2018)। वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट (WRI) की एक रिपोर्ट के अनुसार 10 अरब लोगों को लगातार भोजन उपलब्ध करवाने के लिए हमें इन तीन अंतरों को भरना होगा –

  1. वर्ष 2010 में उत्पादित फसलों की कैलोरी और 2050 में अनुमानित आवश्यक कैलोरी के बीच 56% के अंतर को भरना
  2. वर्ष 2010 के मुकाबले वर्ष 2050 में 59.3 करोड़ हेक्टेयर (भारत से लगभग दुगना क्षेत्र) क्षेत्र के विस्तार की आवश्यकता पड़ेगी
  3. अगर जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणामों से बचना है तो 2050 तक कृषि द्वारा 11 गीगाटन ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन को कम करना होगा ताकि वैश्विक तापमान को 2 डिग्री सेल्सियस के भीतर सीमित रखा जाए।

इस रिपोर्ट के अनुसार, हमें कृषि भूमि का विस्तार किए बिना ही खाद्य उत्पादन बढ़ाने की जरूरत है। भारत में शहरों के तेजी से विस्तार और घटते कृषि भूमि क्षेत्र को देखते हुए हमें ऐसी जमीन को सुधारना होगा जो बंजर हो चुकी है और जिसे फिर से खेती के इस्तेमाल में लाया जा सकता है। हमें अपना भविष्य बचान है तो अपनी मिट्टी को बचाना ही पड़ेगा।

संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, साल 2050 तक सतत रूप से खाद्य उत्पादन को दोगुना करने की जरूरत है। दुनिया की सबसे बड़ी आबादी का पेट भरने के लिए भारत के सामने बढ़ती खाद्य मांग को पूरा करने में सर्वाधिक योगदान के अलावा कोई रास्ता नहीं है। लेकिन भूमि अवक्रमण की मौजूदा समस्या को देखते हुए इस लक्ष्य को हासिल करना और भी कठिन है। भूमि अवक्रमण की स्थिति चिंताजनक है, लेकिन हमारे पास अभी भी वक्त है कि हम अपनी प्राथमिकताओं को पुनर्व्यास्थित करें।

भारत में भूमि अवक्रमण, जल भराव और खारेपन की समस्या

भारत का कुल भौगोलिक क्षेत्र 32.87 करोड़ हेक्टेयर है, जिसमें 26.45 करोड़ हेक्टेयर का उपयोग कृषि, वानिकी, चारागाह और बायोमास उत्पादन के लिए किया जाता है। मृदा सर्वेक्षण और भूमि उपयोग योजना के राष्ट्रीय ब्यूरो के अनुसार, लगभग 14.68 करोड़ हेक्टेयर जमीन का अवक्रमण हो चुका है। (रंजन भट्टचार्य और अन्य 2015)। यह भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र का करीब 45 फीसदी है।

मिट्टी की लवणता और जलभराव भूमि अवक्रमण करने वाली रासायनिक और भौतिक प्रक्रियाओं का हिस्सा हैं। ये दोनों प्रक्रियाएं प्राकृतिक या भौगोलिक कारणों से भी होती हैं, लेकिन खारेपन और जलभराव की मुख्य वजह मानव की गतिविधियां और हस्तक्षेप हैं। आंकड़ों के मुताबिक, भारत में करीब 67.3 लाख हेक्टेयर जमीन खारेपन से प्रभावित (लवणीय और क्षारीय) है। यह क्षेत्र श्रीलंका के कुल भौगोलिक क्षेत्र के बराबर है।
सीएसएसआरआई, करनाल के अनुसार, हर साल जलभराव और खारेपन की वजह से भारत को सालाना 8 हजार करोड़ रुपये का नुकसान पहुंचता है। साल दर साल ये दोनों समस्याएं बढ़ती जा रही हैं क्योंकि भूमि में सुधार की गति काफी धीमी है।

इसमें कोई दोराय नहीं है कि हरित क्रांति के कई लाभ हुए हैं, लेकिन हमें इस तथ्य को भी स्वीकार करना होगा कि हरित क्रांति के कई नुकसान भी हुए हैं। उर्वरकों और कीटनाशकों का अंधाधुंध इस्तेमाल मिट्टी को नुकसान पहुंचाता है। जरुरत से ज्यादा सिंचाई, पानी की बर्बादी और सिंचाई की वजह से होने वाले भूमि अवक्रमण से निपटने में दूरदर्शिता की कमी हमें हरित क्रांति के साथ आई है। अब बढ़ते तापमान और अप्रत्याशित बारिश के चलते अत्यधिक जलभराव, मिट्टी का कटाव और शुष्क व अर्धशुष्क क्षेत्रों में तेजी से वाष्पीकरण के कारण मिट्टी की उपजाऊ पर्रतों में नमक का जमाव बढ़ रहा है। इससे खेत की पैदावार घटती है, जमीन बंजर होने लगती और अंत में जमीन खेती लायक नहीं रहती।

समय की मांग

जब तक हम कृषि भूमि के अवक्रमण और सुधार के बीच संतुलन नहीं बनाएंगे, तब तक हमारी खाद्य सुरक्षा पर खतरा बना रहेगा। इस मुददे को लेकर जागरूकता बढ़ाना आज के समय की सबसे बुनियादी मांग है। किसान और उपभोक्ताओं दोनों को इस बात की जानकरी होनी चाहिए कि समस्या क्या है और उसका क्या समाधान है।

क्षेत्रीय स्तर पर डेटा संग्रह और डेटा बैंक के निर्माण की जरूरत है। इस काम के लिए गैर-सरकारी और निजी क्षेत्र को आगे आना होगा। इसका लाभ यह होगा कि जब सरकार भूमि अवक्रमण से प्रभावित क्षेत्र में किसी बड़ी परियोजना को लागू करेगी तो डेटा संग्रह में खर्च होने वाला समय बचेगा और बेहतर तरीके से नीति का क्रियान्वयन होगा।

इस कार्य में नागरिकों, गैर-सरकारी संगठनों, निजी उद्यमों और सरकारी विभागों की भागीदारी बहुत महत्वपूर्ण है। हमारे सामने जो लक्ष्य है वह बहुत बड़ा है और इसे केवल एक संस्था के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है। सार्वजनिक मांग किसी नीति के कार्यान्वयन का मुख्य चालक है और यदि नागरिकों को यह ही नहीं पता होगा कि भविष्य में क्या दांव पर लगा है तो कुछ भी नहीं किया जा सकता है।

नागरिक भागीदारी और शिक्षा

भारत की मध्य आयु लगभग 29 वर्ष है अर्थात हमारे देश की आधी आबादी 29 वर्ष की आयु से कम है। 2050 में 2020 में जन्म लेने वाले 30 वर्ष के होंगे और जो आज 29 वर्ष के हैं वे 59 के होंगे। यदि खाद्य सुरक्षा के मुद्दों को प्राथमिकता नहीं दी गई तो ये लोग पौष्टिक और भरपेट आहार के लिए संघर्ष कर रहे होंगे। वह बहुत भयावह स्थिति होगी।

आर्थिक और पर्यावरण दोनों की दृष्टि से समाज के समग्र विकास के लिए युवा पीढ़ी की शिक्षा बहुत मायने रखती है। विकास का कोई अंत नहीं है लेकिन हमारे पर्यावरण का अंत जरूर हो सकता है! समझने की जरूरत है कि इससे हमारा जीवन जुड़ा हुआ है। हमारे समाज और शिक्षा प्रणाली को पर्यावरण प्रेमियों, टिकाऊ विकास के पैरोकारों और मानवतावादियों की जरूरत है ताकि वे संरक्षित पर्यावरण की शीतलता से अंधाधुंध विकास की आंच को संतुलित कर सकें। यदि हम डाक्टरों से ज़्यादा चाकुओं का उत्पादन करेंगे तो घावों का इलाज होना नामुमकिन है।

(लेखक वासाल्ड फाउंडेशन के निदेशक हैं)

पर्यावरण दिवस: भूमि को बंजर होने से बचाने की चुनौती

धरती का हर तरह से दोहना जारी है। इसी कारण धरती बंजर होती जा रही है। धरती का तेजी से बंजर होना पूरे विश्व के सामने एक ज्वलंत समस्या है। इस विषय पर गत वर्ष कोप (कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज) का 14वां सम्मेलन गंगा-यमुना के दोआब में आयोजित हुआ था। जिसमें कि दुनिया के करीब 196 देशों के विशेषज्ञों और प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया था।

गौरतलब है कि कोप का पहला सत्र 1999 में जर्मनी में आयोजित किया गया था। इसका गठन भूमि की भूमि की गिरती गुणवत्ता को रोकने के लिए ही किया गया था। क्योंकि अगर समूचे विश्व ने सार्थक प्रयास नहीं किये तो दुनिया की करीब एक चौथाई उपजाऊ भूमि आने वाले दशक में बंजर हो चुकी होगी, जिसका प्रभाव किसी न किसी रूप में विश्व की करीब तीन अरब आबादी पर पड़ेगा।

भारत जिस गांधी दर्शन से मौसम परिवर्तन की चिंता से निजात पाने की खुराक सम्पूर्ण विश्व को दे रहा है उसका कुछ असर अब होता दिख रहा है। इसके लिए हमें गांवों को गांव ही रहने देना होगा, शहरों की आबादी को सीमित करना होगा तथा आबादी के बोझ को कम करना होगा।

आज विश्व के आगे मौसम परिवर्तन की समस्या मुंह बाए खड़ी है कि आखिर इससे निपटा कैसे जाए। यह किसी एक देश के लिए नासूर नहीं है बल्कि सम्पूर्ण विश्व इससे प्रभावित है। संयक्त राष्ट्र के अनुसार अगर बंजर होती भूमि की समस्या से समय रहते नहीं निपटा गया तो 2050 तक करीब 70 करोड़ लोग अपनी भूमि से विस्थापित होंगे।

इस समस्या से निपटने के लिए यूनाइटेड नेशन्स कन्वेंशन टू काॅम्बेट डेजरटिफिकेशन (यूएनसीसीडी) द्वारा 2018-2030 स्ट्रैटेजिक फे्रमवर्क तैयार किया गया है। इसको लागू करने के व संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा तय किए गए सतत् विकास के 17 लक्ष्यों को लागू करने के लिए कोप-14 में भी विस्तार से चर्चा हुई थी। इन सतत विकास के लक्ष्यों को पाने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ विकास कार्यक्रम की विशेष भूमिका तय की गई है, क्योंकि दुनिया में विकास के कार्यक्रम यूनाइटेड नेशन्स डवलेपमेंट प्रोग्राम के माध्यम से ही संचालित किए जाते हैं।

कान्फ्रेंस ऑफ पार्टीज में जुड़े 100 देश भू-क्षरण के लिए अपने लक्ष्य तय कर चुके हैं जबकि करीब 70 देश अपनी समस्याओं के निपटार हेतु यूएनसीसीडी के सूखा नियंत्रण कार्यक्रम के साथ सक्रियता से कार्य कर रहे हैं। कोप का लक्ष्य यही है कि विकसित देश गरीब व विकासशील देशों की मदद के लिए आगे आएं। इसमें कहीं न कहीं विकसित व विकासशील देशों के बीच अहम का टकराव भी देखने को मिलता है क्योंकि विकसित देश जोकि अपने प्राकृतिक संसाधनों का अधिकाधिक उपयोग करके आधुनिकता की दौड़ में आगे निकल चुके हैं और वे चाहते हैं कि गरीब या विकासशील देश अपने संसाधनों का दोहन न करें जोकि सही भी है लेकिन ऐसा होता दिख नहीं रहा है।

पृथ्वी एक ही है इसको बचाने के लिए कुछ पुख्ता उपाय करने होंगे जिनमें भारत की अहम भूमिका होगी। ग्रामीण स्तर पर सरकारों को रोजगार उपलब्ध कराने होंगे। अधिकाधिक जंगल खड़े करने होंगे। अपने रहन-सहन में बदलाव लाकर प्रकृति के साथ जीवन जीना प्रारम्भ करना होगा। अपने जल स्रोतों को संरक्षित करना होगा तथा अपनी कृषि पद्धति को रसायनमुक्त करना होगा।

ये कुछ ऐसे उपाय हैं जिनमें कि भारत के लिए नया कुछ भी नहीं है लेकिन विकास की बेतरतीब दौड़ में कहीं हम पीछे न रह जाएं इसीलिए अपने ज्ञान से जो विमुखता हुई है बस उसको वापस पाना है और सम्पूर्ण विश्व को अपने आचरण से अपने पीछे चलाना है। कोरोना महामारी के वर्तमान दौर ने हमें वही सब सोचने व करने पर मजबूर कर दिया है जोकि वास्तव में होना चाहिए।

(लेखक नैचुरल एन्वायरन्मेंटल एजुकेशन एण्ड रिसर्च, नीर फाउंडेशन के निदेशक हैैं) 

किसानों ने प्रधानमंत्री को जेवर हवाईअड्डे की आधारशिला नहीं रखने दी

10 मार्च, 2019 को जब शाम पांच बचे चुनाव आयोग ने 2019 के लोकसभा चुनावों की घोषणा की तो उसके कुछ वक्त पहले तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कई परियोजनाओं का शिलान्यास और उद्घाटन कर रहे थे। इसके ठीक एक दिन पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली से सटे नोएडा में मेट्रो लाइन के विस्तार का उद्घाटन किया था। इसके पहले उन्होंने ग्रेटर नोएडा में कई परियोजनाओं की शुरुआत की थी। प्रधानमंत्री की योजना में ग्रेटर नोएडा से सटे जेवर में प्रस्तावित नए हवाई अड्डे की आधारशिला रखना भी शामिल था। लेकिन यहां के किसानों के विरोध ने उन्हें ऐसा नहीं करने दिया।
यही वजह है कि प्रधानमंत्री जब विभिन्न परियोजनाओं की शुरुआत के लिए ग्रेटर नोएडा पहुंचे तो भले ही वे जेवर हवाई अड्डे की आधारशिला नहीं रख पाए लेकिन उन्होंने अपने संबोधन में नए हवाई अड्डे के फायदों को गिनाया। उन्होंने बताया कि नवा हवाई अड्डा बन जाने से स्थानीय लोगों को कितना फायदा होगा।
हवाई अड्डे की आधारशिला प्रधानमंत्री के हाथों रखवाना भारतीय जनता पार्टी की योजना में कितना अहम था, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि स्थानीय सांसद महेश शर्मा सार्वजनिक तौर पर पहले यह कह चुके थे कि 2019 के लोकसभा चुनावों में उनके लिए जेवर हवाई अड्डे का काम शुरू करवाना एक बड़ी कामयाबी होगी।
अब यह सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर राजनीतिक दृष्टि से इतनी महत्वपूर्ण परियोजना की आधारशिला प्रधानमंत्री क्यों नहीं रख पाए? दरअसल, जेवर हवाई अड्डा बनाने में जिन किसानों की जमीन जा रही है, उनमें से 200 से अधिक किसान सरकार द्वारा तय दर पर अपनी जमीन नहीं देना चाह रहे हैं। ये किसान 170 दिनों से अधिक से अपना विरोध जाहिर करने के लिए धरने पर बैठे हैं। इनका कहना है कि ग्रामीण जमीन के अधिग्रहण के लिए भूमि अधिग्रहण कानून में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि ऐसी जमीन के लिए सर्किल रेट से चार गुना अधिक पैसे किसानों को दिए जाएंगे लेकिन सरकार उन्हें जमीन के बदले इतने पैसे नहीं दे रही है।
सरकार पर विभिन्न स्तर पर गुहार लगाने के बावजूद जेवर हवाई अड्डा परियोजना से प्रभावित किसानों की मांग नहीं मानी गई। इसके बाद इन किसानों ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय का रुख किया। वहां इन किसानों ने जमीन अधिग्रहण के संबंध में याचिका डाली है। इससे जेवर हवाई अड्डे के लिए जमीन अधिग्रहण में देरी हो रही है। यही वजह है कि आखिरी समय में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस हवाई अड्डे की आधारशिला रखने की अपनी योजना को छोड़ना पड़ा।
जेवर हवाई अड्डा परियोजना में जिन किसानों की जमीन जा रही है, उन किसानों ने सरकार से अपनी जमीन की सही कीमत हासिल करने के लिए जेवर हवाई अड्डा संघर्ष समिति बनाई है। इसी समिति के बैनर तले जेवर के किशोरपुर गांव में 200 से अधिक किसान विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय में इन किसानों ने जो याचिका दायर की है, उस पर तकरीबन 250 किसानों के दस्तखत हैं।
इस परियोजना के लिए पहले जिन किसानों ने जमीन देने को लेकर अपनी सहमति दी थी, उनमें से भी कई किसानों ने अपनी सहमति वापस ले ली है। यहां असल विवाद जमीन की कीमत को लेकर है। उत्तर प्रदेश सरकार का कहना है कि हवाई अड्डा बनाने में जो जमीन जा रही है, वह उत्तर प्रदेश सरकार की अधिसूचना के हिसाब से शहरी जमीन है। इसलिए सरकार का कहना है कि वह सर्किल दर से तीन गुना अधिक कीमत मुआवजा के तौर पर देगी। जबकि संघर्ष कर रहे किसानों का कहना है कि हमारे गांव की जमीन शहरी कैसे हो सकती है, हमें तो भूमि अधिग्रहण कानून के हिसाब से ग्रामीण जमीन के लिए सर्किल दर से चार गुना अधिक पैसे चाहिए।
इस संघर्ष के अंत में इन किसानों से सरकार किस दर पर समझौता करती है, यह तो भविष्य में ही पता चलेगा। लेकिन यह जरूर सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि कोई भी बड़ी परियोजना अगर विकसित हो रही है और उसमें किसानों की खेती की जमीन जा रही हो तो उन्हें कानून के हिसाब से उचित मुआवजा मिलना चाहिए। ऐसा न हो कि सरकार के स्तर पर नियमों में फेरबदल करके किसानों को उनका हक नहीं मिले।

सिंगुर फैसला: किसानों को बिना मुआवजा लौटाए वापस मिलेगी जमीन

किसान विरोधी भूमि-अधिग्रहण नीतियों को पश्चिम बंगाल में बड़ा झटका लगा है। टाटा मोटर्स के लिए सिंगुर में हुए भूमि अधिग्रहण को सुुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दिया है। साल 2006 में बुद्धदेव भट्टाचार्य की वामपंथी सरकार ने टाटा के नैनो प्रोजेक्‍ट के लिए एक हजार एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया था। हालांकि, मामले के तूल पकड़ने और किसानों के भारी विरोध के चलते टाटा मोटर्स को अपना प्‍लांट गुजरात के साणंद में शिफ्ट करना पड़ा। लेकिन जमीन का मामला सुप्रीम कोर्ट में था।
आज सुप्रीम कोर्ट ने सिंगुर में हुए भूमि अधिग्रहण को पब्लिक परपज यानी जनहित में नहीं माना और टाटा मोटर्स को 12 हफ्तों के अंदर किसानों को जमीन वापस लौटाने का आदेश दिया है। सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि किसी कंप‍नी के लिए सरकार की ओर से भूमि अधिग्रहण ‘जन उद्देश्य’ नहीं माना जाएगा। फैसले की खास बात यह है कि किसानों को उनकी जमीन तो वापस मिलेगी लेकिन उनसे मुआवजा वापस नहीं लिया जाएगा। अदालत का मानना है कि ये किसान पिछले 10 वर्षों से अपनी जमीन से वंचित है इसलिए उन्‍हें मिला मुआवजा वापस नहीं लिया जाना चाहिए। सिंगुर के किसानों के साथ-साथ यह ममता बनर्जी और तृणमूल कांग्रेस के लिए भी बड़ी कामयाबी है। ममता बनर्जी ने ही सिंगुर को लेकर आंदोलन छेड़ा था जो बंगाल से वामपंथी सरकार की विदाई का कारण बना।

प्राइवेट कंपनी के लिए भूमि अधिग्रहण ‘जन उद्देश्य’ नहीं!

सिंगुर मामले पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला भूमि अधिग्रहण से जुड़े कई अन्‍य मामलों में भी नज़ीर बन सकता है जहां सरकारें जनहित के नाम पर प्राइवेट कंपनियों के लिए भूमि अधिग्रहण करती हैं। हाईवे, रियल एस्‍टेट और इंफ्रास्‍ट्रक्‍चर से जुड़ी परियोजनाओं में ‘जन उद्देश्य’ के नाम पर होने वाले भूमि अधिग्रहण का फायदा निजी कंपनियां उठा जाती हैं। लेकिन अब ऐसे मामलों में कमी आने की उम्‍मीद जगी है।
सिंगुर मामले में सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि किसी कंपनी के कार प्‍लांट के लिए किसानों से भूमि अधिग्रहण पब्लिक परपज के दायरे में नहीं आता है। यह अधिग्रहण निजी कंपनी को फायदा पहुंचाने के लिए हुआ था। गौरतलब है कि इस मामले में टाटा मोटर्स को राहत देते हुए कोलकाता हाईकोर्ट ने अधिग्रहण को सही ठहराया था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के आदेश से न सिर्फ टाटा मोटर्स को झटका लगा है बल्कि मार्क्‍सवादी कम्‍युनिस्‍ट पार्टी (सीपीएम) के लिए स्थिति और भी असहज हो गई है। सिंगुर आंदोलन के बाद ही ममता बनर्जी बंगाल की राजनीति में सबसे बड़ी ताकत बनकर उभरींं जबकि वामपंथी दलों की सियासी जमीन लगातार खिसक रही है।

सिंगुर भूमि अधिग्रहण में कई खामियां

सुप्रीम कोर्ट ने टाटा मोटर्स की नैनो परियोजना के लिए सिंगुर में हुए भूमि अधिग्रहण में कई खामियां पायी हैं। सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि किसानों की आपत्तियों और शिकायतों की सही तरीके से जांच नहीं हुई। गैर-कानूनी तरीके से किसानों की जमीन लेने को लेकर अदालत ने तत्‍कालीन वामपंथी सरकार और टाटा मोटर्स को फटकार भी लगाई।

यह किसानों की जीत है: ममता बनर्जी

सिंगुर पर सर्वोच्‍च अदालत के फैसले को पश्चिम बंगाल की मुख्‍यमंत्री ममता बनर्जी ने ऐतिहासिक निर्णय और किसानों की जीत बताया है। एक पत्रकार वार्ता में उन्‍होंने कहा कि उच्चतम न्यायालय के निर्णय को किस तरह लागू किया जाए, इस पर विचार करने के लिए कल एक रणनीतिक बैठक होगी। किसानों को जमीन लौटाने के लिए एक व्यवस्था बनाने पर काम करेंगे।