बंजर होती कृषि भूमि और खाद्य सुरक्षा की चुनौती
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प्रत्येक जीवित प्राणी का एक सामान्य लक्ष्य होता है इस दुनिया में एक नई ज़िंदगी को लाना। इससे जीवन और क्रमागत उन्नति का चक्र चलता रहता है। लेकिन जीवित रहने के लिए और इस चक्र के चलते रहने के लिए सबसे महत्वपूर्ण है भोजन की उपलब्धता। केवल भोजन नहीं, उच्च गुणवत्ता और पोषण वाला भोजन।
वर्ष 2020 ने हमें कई महत्वपूर्ण सबक सिखाए हैं। आपने यह भी महसूस किया होगा कि यह वर्ष कितनी तेजी से बीतता जा रहा है। फिलहाल भारत की आबादी 1.38 अरब (138 करोड़) से ऊपर है और तेजी से बढ़ती जा रही है। द वायर में कबीर अग्रवाल द्वारा लिखे लेख के अनुसार, साल 2036 में भारत की आबादी 1.52 अरब (152 करोड़) हो जाएगी। यह आज से सिर्फ 16 वर्ष बाद होने वाला है। बस सोलह साल! इसमें अगर आप 14 साल और जोड़ दें तो 2050 में हमारी आबादी 1.7 अरब (170 करोड़) से बस कुछ ही कम होगी और भारत दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश होगा।
साल 2050 में धरती पर 10 अरब लोग होंगे (जेनेट रंगनाथन और अन्य 2018)। वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट (WRI) की एक रिपोर्ट के अनुसार 10 अरब लोगों को लगातार भोजन उपलब्ध करवाने के लिए हमें इन तीन अंतरों को भरना होगा –
- वर्ष 2010 में उत्पादित फसलों की कैलोरी और 2050 में अनुमानित आवश्यक कैलोरी के बीच 56% के अंतर को भरना
- वर्ष 2010 के मुकाबले वर्ष 2050 में 59.3 करोड़ हेक्टेयर (भारत से लगभग दुगना क्षेत्र) क्षेत्र के विस्तार की आवश्यकता पड़ेगी
- अगर जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणामों से बचना है तो 2050 तक कृषि द्वारा 11 गीगाटन ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन को कम करना होगा ताकि वैश्विक तापमान को 2 डिग्री सेल्सियस के भीतर सीमित रखा जाए।
इस रिपोर्ट के अनुसार, हमें कृषि भूमि का विस्तार किए बिना ही खाद्य उत्पादन बढ़ाने की जरूरत है। भारत में शहरों के तेजी से विस्तार और घटते कृषि भूमि क्षेत्र को देखते हुए हमें ऐसी जमीन को सुधारना होगा जो बंजर हो चुकी है और जिसे फिर से खेती के इस्तेमाल में लाया जा सकता है। हमें अपना भविष्य बचान है तो अपनी मिट्टी को बचाना ही पड़ेगा।
संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, साल 2050 तक सतत रूप से खाद्य उत्पादन को दोगुना करने की जरूरत है। दुनिया की सबसे बड़ी आबादी का पेट भरने के लिए भारत के सामने बढ़ती खाद्य मांग को पूरा करने में सर्वाधिक योगदान के अलावा कोई रास्ता नहीं है। लेकिन भूमि अवक्रमण की मौजूदा समस्या को देखते हुए इस लक्ष्य को हासिल करना और भी कठिन है। भूमि अवक्रमण की स्थिति चिंताजनक है, लेकिन हमारे पास अभी भी वक्त है कि हम अपनी प्राथमिकताओं को पुनर्व्यास्थित करें।
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भारत में भूमि अवक्रमण, जल भराव और खारेपन की समस्या
भारत का कुल भौगोलिक क्षेत्र 32.87 करोड़ हेक्टेयर है, जिसमें 26.45 करोड़ हेक्टेयर का उपयोग कृषि, वानिकी, चारागाह और बायोमास उत्पादन के लिए किया जाता है। मृदा सर्वेक्षण और भूमि उपयोग योजना के राष्ट्रीय ब्यूरो के अनुसार, लगभग 14.68 करोड़ हेक्टेयर जमीन का अवक्रमण हो चुका है। (रंजन भट्टचार्य और अन्य 2015)। यह भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र का करीब 45 फीसदी है।
मिट्टी की लवणता और जलभराव भूमि अवक्रमण करने वाली रासायनिक और भौतिक प्रक्रियाओं का हिस्सा हैं। ये दोनों प्रक्रियाएं प्राकृतिक या भौगोलिक कारणों से भी होती हैं, लेकिन खारेपन और जलभराव की मुख्य वजह मानव की गतिविधियां और हस्तक्षेप हैं। आंकड़ों के मुताबिक, भारत में करीब 67.3 लाख हेक्टेयर जमीन खारेपन से प्रभावित (लवणीय और क्षारीय) है। यह क्षेत्र श्रीलंका के कुल भौगोलिक क्षेत्र के बराबर है।
सीएसएसआरआई, करनाल के अनुसार, हर साल जलभराव और खारेपन की वजह से भारत को सालाना 8 हजार करोड़ रुपये का नुकसान पहुंचता है। साल दर साल ये दोनों समस्याएं बढ़ती जा रही हैं क्योंकि भूमि में सुधार की गति काफी धीमी है।
इसमें कोई दोराय नहीं है कि हरित क्रांति के कई लाभ हुए हैं, लेकिन हमें इस तथ्य को भी स्वीकार करना होगा कि हरित क्रांति के कई नुकसान भी हुए हैं। उर्वरकों और कीटनाशकों का अंधाधुंध इस्तेमाल मिट्टी को नुकसान पहुंचाता है। जरुरत से ज्यादा सिंचाई, पानी की बर्बादी और सिंचाई की वजह से होने वाले भूमि अवक्रमण से निपटने में दूरदर्शिता की कमी हमें हरित क्रांति के साथ आई है। अब बढ़ते तापमान और अप्रत्याशित बारिश के चलते अत्यधिक जलभराव, मिट्टी का कटाव और शुष्क व अर्धशुष्क क्षेत्रों में तेजी से वाष्पीकरण के कारण मिट्टी की उपजाऊ पर्रतों में नमक का जमाव बढ़ रहा है। इससे खेत की पैदावार घटती है, जमीन बंजर होने लगती और अंत में जमीन खेती लायक नहीं रहती।
समय की मांग
जब तक हम कृषि भूमि के अवक्रमण और सुधार के बीच संतुलन नहीं बनाएंगे, तब तक हमारी खाद्य सुरक्षा पर खतरा बना रहेगा। इस मुददे को लेकर जागरूकता बढ़ाना आज के समय की सबसे बुनियादी मांग है। किसान और उपभोक्ताओं दोनों को इस बात की जानकरी होनी चाहिए कि समस्या क्या है और उसका क्या समाधान है।
क्षेत्रीय स्तर पर डेटा संग्रह और डेटा बैंक के निर्माण की जरूरत है। इस काम के लिए गैर-सरकारी और निजी क्षेत्र को आगे आना होगा। इसका लाभ यह होगा कि जब सरकार भूमि अवक्रमण से प्रभावित क्षेत्र में किसी बड़ी परियोजना को लागू करेगी तो डेटा संग्रह में खर्च होने वाला समय बचेगा और बेहतर तरीके से नीति का क्रियान्वयन होगा।
इस कार्य में नागरिकों, गैर-सरकारी संगठनों, निजी उद्यमों और सरकारी विभागों की भागीदारी बहुत महत्वपूर्ण है। हमारे सामने जो लक्ष्य है वह बहुत बड़ा है और इसे केवल एक संस्था के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है। सार्वजनिक मांग किसी नीति के कार्यान्वयन का मुख्य चालक है और यदि नागरिकों को यह ही नहीं पता होगा कि भविष्य में क्या दांव पर लगा है तो कुछ भी नहीं किया जा सकता है।
नागरिक भागीदारी और शिक्षा
भारत की मध्य आयु लगभग 29 वर्ष है अर्थात हमारे देश की आधी आबादी 29 वर्ष की आयु से कम है। 2050 में 2020 में जन्म लेने वाले 30 वर्ष के होंगे और जो आज 29 वर्ष के हैं वे 59 के होंगे। यदि खाद्य सुरक्षा के मुद्दों को प्राथमिकता नहीं दी गई तो ये लोग पौष्टिक और भरपेट आहार के लिए संघर्ष कर रहे होंगे। वह बहुत भयावह स्थिति होगी।
आर्थिक और पर्यावरण दोनों की दृष्टि से समाज के समग्र विकास के लिए युवा पीढ़ी की शिक्षा बहुत मायने रखती है। विकास का कोई अंत नहीं है लेकिन हमारे पर्यावरण का अंत जरूर हो सकता है! समझने की जरूरत है कि इससे हमारा जीवन जुड़ा हुआ है। हमारे समाज और शिक्षा प्रणाली को पर्यावरण प्रेमियों, टिकाऊ विकास के पैरोकारों और मानवतावादियों की जरूरत है ताकि वे संरक्षित पर्यावरण की शीतलता से अंधाधुंध विकास की आंच को संतुलित कर सकें। यदि हम डाक्टरों से ज़्यादा चाकुओं का उत्पादन करेंगे तो घावों का इलाज होना नामुमकिन है।
(लेखक वासाल्ड फाउंडेशन के निदेशक हैं)
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