पर्यावरण दिवस: भूमि को बंजर होने से बचाने की चुनौती
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धरती का हर तरह से दोहना जारी है। इसी कारण धरती बंजर होती जा रही है। धरती का तेजी से बंजर होना पूरे विश्व के सामने एक ज्वलंत समस्या है। इस विषय पर गत वर्ष कोप (कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज) का 14वां सम्मेलन गंगा-यमुना के दोआब में आयोजित हुआ था। जिसमें कि दुनिया के करीब 196 देशों के विशेषज्ञों और प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया था।
गौरतलब है कि कोप का पहला सत्र 1999 में जर्मनी में आयोजित किया गया था। इसका गठन भूमि की भूमि की गिरती गुणवत्ता को रोकने के लिए ही किया गया था। क्योंकि अगर समूचे विश्व ने सार्थक प्रयास नहीं किये तो दुनिया की करीब एक चौथाई उपजाऊ भूमि आने वाले दशक में बंजर हो चुकी होगी, जिसका प्रभाव किसी न किसी रूप में विश्व की करीब तीन अरब आबादी पर पड़ेगा।
भारत जिस गांधी दर्शन से मौसम परिवर्तन की चिंता से निजात पाने की खुराक सम्पूर्ण विश्व को दे रहा है उसका कुछ असर अब होता दिख रहा है। इसके लिए हमें गांवों को गांव ही रहने देना होगा, शहरों की आबादी को सीमित करना होगा तथा आबादी के बोझ को कम करना होगा।
आज विश्व के आगे मौसम परिवर्तन की समस्या मुंह बाए खड़ी है कि आखिर इससे निपटा कैसे जाए। यह किसी एक देश के लिए नासूर नहीं है बल्कि सम्पूर्ण विश्व इससे प्रभावित है। संयक्त राष्ट्र के अनुसार अगर बंजर होती भूमि की समस्या से समय रहते नहीं निपटा गया तो 2050 तक करीब 70 करोड़ लोग अपनी भूमि से विस्थापित होंगे।
इस समस्या से निपटने के लिए यूनाइटेड नेशन्स कन्वेंशन टू काॅम्बेट डेजरटिफिकेशन (यूएनसीसीडी) द्वारा 2018-2030 स्ट्रैटेजिक फे्रमवर्क तैयार किया गया है। इसको लागू करने के व संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा तय किए गए सतत् विकास के 17 लक्ष्यों को लागू करने के लिए कोप-14 में भी विस्तार से चर्चा हुई थी। इन सतत विकास के लक्ष्यों को पाने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ विकास कार्यक्रम की विशेष भूमिका तय की गई है, क्योंकि दुनिया में विकास के कार्यक्रम यूनाइटेड नेशन्स डवलेपमेंट प्रोग्राम के माध्यम से ही संचालित किए जाते हैं।
कान्फ्रेंस ऑफ पार्टीज में जुड़े 100 देश भू-क्षरण के लिए अपने लक्ष्य तय कर चुके हैं जबकि करीब 70 देश अपनी समस्याओं के निपटार हेतु यूएनसीसीडी के सूखा नियंत्रण कार्यक्रम के साथ सक्रियता से कार्य कर रहे हैं। कोप का लक्ष्य यही है कि विकसित देश गरीब व विकासशील देशों की मदद के लिए आगे आएं। इसमें कहीं न कहीं विकसित व विकासशील देशों के बीच अहम का टकराव भी देखने को मिलता है क्योंकि विकसित देश जोकि अपने प्राकृतिक संसाधनों का अधिकाधिक उपयोग करके आधुनिकता की दौड़ में आगे निकल चुके हैं और वे चाहते हैं कि गरीब या विकासशील देश अपने संसाधनों का दोहन न करें जोकि सही भी है लेकिन ऐसा होता दिख नहीं रहा है।
पृथ्वी एक ही है इसको बचाने के लिए कुछ पुख्ता उपाय करने होंगे जिनमें भारत की अहम भूमिका होगी। ग्रामीण स्तर पर सरकारों को रोजगार उपलब्ध कराने होंगे। अधिकाधिक जंगल खड़े करने होंगे। अपने रहन-सहन में बदलाव लाकर प्रकृति के साथ जीवन जीना प्रारम्भ करना होगा। अपने जल स्रोतों को संरक्षित करना होगा तथा अपनी कृषि पद्धति को रसायनमुक्त करना होगा।
ये कुछ ऐसे उपाय हैं जिनमें कि भारत के लिए नया कुछ भी नहीं है लेकिन विकास की बेतरतीब दौड़ में कहीं हम पीछे न रह जाएं इसीलिए अपने ज्ञान से जो विमुखता हुई है बस उसको वापस पाना है और सम्पूर्ण विश्व को अपने आचरण से अपने पीछे चलाना है। कोरोना महामारी के वर्तमान दौर ने हमें वही सब सोचने व करने पर मजबूर कर दिया है जोकि वास्तव में होना चाहिए।
(लेखक नैचुरल एन्वायरन्मेंटल एजुकेशन एण्ड रिसर्च, नीर फाउंडेशन के निदेशक हैैं)
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