दरअसल अशोक गुलाटी और दिलीप मंडल को एक “कॉरपोरेट” बीमारी है!

 

अक्सर नवउदारवादी अर्थशास्त्रियों द्वारा यह तर्क दिया जाता है कि हर साल केंद्रीय बजट का एक बड़ा हिस्सा बर्बाद हो जाता है, क्योंकि सरकार खाद्य और उर्वरक सब्सिडी पर खर्च करती है. बिल्कुल यही तर्क अशोक गुलाटी ने द वायर को दिए अपने एक इंटरव्यू में भी दिया था और ऐसा ही तर्क दिलीप मंडल ने किसानों के एमएसपी के आंदोलन के खिलाफ दिया है. पूरे बजट के साथ-साथ सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के सापेक्ष इन दोनों सब्सिडी के डेटा का उपयोग अक्सर इस तर्क को बल देने के लिए किया जाता है कि आर्थिक के साथ ही साथ देश की पर्यावरणीय स्थिरता (राज्य द्वारा प्रदान की जाने वाली सब्सिडी के अलावा बिजली सब्सिडी) का मुख्य कारण ये दो सब्सिडी ही हैं. अशोक गुलाटी ने खाद्य और उर्वरक सब्सिडीज को बड़े एलिटपने में मुफ्तखोरी कहा और अपना टैक्स मनी को यूहीं बांट देने की बात कही. खैर, अशोक गुलाटी जैसे मीडिया टीकाकार और वित्तीय पंडित, टैक्स छूट और कॉर्पोरेट क्षेत्र और गैर-कॉरपोरेट संस्थाओं (यानी आयकरदाताओं) को प्रदान किए जाने वाले प्रोत्साहन के कारण राजस्व के नुकसान पर शायद ही बात करते हैं, जबकि आधिकारिक आंकड़ें उपलब्ध हैं. मैंने सोचा उनको उनकी और कॉरपोरेट, जिनकी वो वकालत करते हैं कि मुफ्तखोरी भी याद दिलवा दूं.

करदाताओं को विशिष्ट टैक्स दरों, छूट, कटौती, डिफरल और क्रेडिट समेत कई तरह के टैक्स प्रोत्साहन के कारण राज्य कम राजस्व का सामना करता है. इसलिए, इन राजकोषीय उपायों का राजस्व प्रभाव पड़ता है और इसे करदाताओं को अप्रत्यक्ष सब्सिडी के रूप में देखा जा सकता है, जिसे आधिकारिक नामकरण में “टैक्स खर्च” के नाम से भी जाना जाता है. टैक्स सब्सिडी, प्रोत्साहन और छूट के विभिन्न रूप मौजूद हैं, जिनका कॉर्पोरेट क्षेत्र और आयकरदाता आनंद लेते हैं और मजदूर-किसान को मुफ्तखोर कह देते हैं.

कॉर्पोरेट करदाताओं के लिए प्रमुख टैक्स प्रोत्साहन का राजस्व प्रभाव

2011-12 से 2019-20 के बीच नौ वर्षों के दौरान, केंद्र सरकार ने कॉर्पोरेट करदाताओं को विभिन्न प्रकार के टैक्स प्रोत्साहन और छूट (अप्रत्यक्ष सब्सिडी भी कहा जाता है) के कारण राजस्व में 7.18 लाख करोड़ रुपए का घाटा उठाया है. कृपया तालिका -1 से देखें. केंद्रीय टैक्स प्रणाली के तहत टैक्स प्रोत्साहन के राजस्व प्रभाव का विवरण: वित्तीय वर्ष 2018-19 और 2019-20, जो केंद्रीय बजट 2021-22 दस्तावेजों में यह दर्शाता है कि छोटी कंपनियों की तुलना में बड़ी कंपनियां अधिक टैक्स कटौती और प्रोत्साहन का लाभ उठा रही हैं. उदाहरण के लिए, 2018-19 में 500 करोड़ रुपए से अधिक टैक्स (पीबीटी) से पहले लाभ वाली कंपनियों की औसत प्रभावी टैक्स दर 25.91 प्रतिशत थी, जो कि सभी कंपनियों के पीबीटी से कम है.

तालिका 1: 2011-12 से 2019-20 तक केंद्रीय टैक्स प्रणाली (करोड़ रुपये में) के तहत टैक्स प्रोत्साहन का राजस्व प्रभाव

यह गौरतलब है कि हाल के वर्षों में कॉरपोरेट टैक्स की दरों में कमी के बावजूद बड़ी कॉरपोरेट संस्थाओं को टैक्स रियायतें देने की प्रथा जारी रही है. उदाहरण के लिए, केंद्रीय बजट 2019-20 (अंतिम) के जुलाई 2019 में पेश किए जाने के दो महीने बाद सितंबर, 2019 में कॉरपोरेट टैक्स की दरों को 30 प्रतिशत से घटाकर 22 प्रतिशत कर दिया गया था. सरकार ने भारत में मैन्यूफैक्चरिंग बढ़ाने और विदेशी निवेशकों को बुलाने के लिए नई मैन्यूफैक्चरिंग कंपनी के लिए कॉरपोरेट टैक्स की दर घटाकर 15 फीसदी कर दी थी, जोकि आजतक जारी है. इस राजकोषीय उपाय के परिणामस्वरूप 2019-20 में कुल टैक्स संग्रह में गिरावट आई थी. सरकार की अपनी गणना के अनुसार, कॉर्पोरेट टैक्स की दर में कमी और अन्य राहत के कारण 2019-20 में उस वर्ष कुल राजस्व में 1,45,000 करोड़ रुपए के घाटे का अनुमान लगाया गया था.

अपने केंद्रीय बजट 2015-16 के भाषण में, पूर्व वित्त मंत्री स्वर्गीय श्री अरुण जेटली ने कहा था कि वह अगले चार वर्षों में कॉर्पोरेट टैक्स की दर को 30 प्रतिशत से घटाकर 25 प्रतिशत करने के साथ-साथ विभिन्न प्रकार के टैक्स को हटाने की कामना करते हैं. कॉर्पोरेट करदाताओं के लिए छूट और प्रोत्साहन, जो गलती से बड़ी संख्या में टैक्स विवादों, मुकदमों और राजस्व की हानि को दबाव समूहों की उपस्थिति से अलग करते हैं. उन्होंने अपने बजट भाषण में कहा कि भारत में कॉर्पोरेट टैक्स की मूल दर 30 प्रतिशत होने के बावजूद कॉर्पोरेट टैक्स का प्रभावी संग्रह लगभग 23 प्रतिशत था.

सितंबर 2019 में कॉर्पोरेट टैक्स कटौती ने कार्यक्रमों और योजनाओं पर खर्च करने के लिए उपलब्ध वित्तीय संसाधनों को कम कर दिया, जो पहले से ही केंद्रीय बजट 2019-20 में प्रतिबद्ध हैं. कॉरपोरेट टैक्स में कटौती के बाद, सरकार के पास कम वित्तीय संसाधन बचे, जिनका उपयोग आर्थिक मंदी के चक्र को तोड़ने के लिए प्रति-चक्रीय उपायों के लिए किया जा सकता था.

आयकरदाताओं के लिए प्रमुख टैक्स प्रोत्साहन का राजस्व प्रभाव

2011-12 से 2019-20 की अवधि के दौरान गैर-कॉर्पोरेट क्षेत्र, यानी, फर्म/एसोसिएशन ऑफ पर्सन्स (एओपी)/बॉडी ऑफ इंडिविजुअल्स (बीओआई) के लिए आयकर प्रोत्साहन के कारण टैक्स राजस्व में 50,680.99 करोड़ रुपए का घाटा हुआ है. इसी तरह, 2011-12/2019-20 की अवधि के दौरान व्यक्तियों/हिंदू अविभाजित परिवार (HUF) करदाताओं के लिए आयकर प्रोत्साहन के कारण टैक्स राजस्व में 5.47 लाख करोड़ रुपए का घाटा हुआ है. कृपया तालिका -1 देखें.

2011-12 से 2019-20 की अवधि के दौरान गैर-कॉर्पोरेट क्षेत्र, यानी फर्म / एसोसिएशन ऑफ पर्सन्स (एओपी) / बॉडी ऑफ इंडिविजुअल्स (बीओआई) और साथ ही व्यक्तियों / हिंदू अविभाजित परिवार (एचयूएफ) करदाताओं के लिए आयकर प्रोत्साहन के कारण कुल कर राजस्व में 5.98 लाख करोड़ रुपए का घाटा हुआ है.

2011-12 से 2019-20 की अवधि के दौरान विभिन्न प्रकार के प्रत्यक्ष टैक्स प्रोत्साहन / छूट / रियायतों के कारण सकल टैक्स राजस्व में 13.16 लाख करोड़ रुपए की कमी आई है.

सीमा शुल्क और उत्पाद शुल्क के लिए दिए गए प्रमुख टैक्स प्रोत्साहन का राजस्व प्रभाव

चूंकि 2015-16 से सीमा शुल्क और उत्पाद शुल्क के तहत प्रदान की गई टैक्स छूट के आकलन की कार्यप्रणाली में बदलाव आया है, इसलिए हमने केंद्रीय टैक्स प्रणाली के तहत अप्रत्यक्ष कर प्रोत्साहन के राजस्व प्रभाव को ध्यान में नहीं रखा है. यह ध्यान देने योग्य है कि जीडीपी के प्रतिशत के रूप में राजस्व 2005-06 में 6.6 प्रतिशत, 2006-07 में 6.7 प्रतिशत, 2007-08 में 6.8 प्रतिशत, 2008-09 में 8.1 प्रतिशत, 2009-10 में 7.4 प्रतिशत थी। 2010-11 में 5.9 प्रतिशत, 2011-12 में 6.1 प्रतिशत, 2012-13 में 5.7 प्रतिशत, 2013-14 में 4.9 प्रतिशत और 2014-15 में 4.5 प्रतिशत था. वित्तीय वर्ष 2008-09 में (जब वैश्विक वित्तीय मंदी हुई) राजस्व की मात्रा अपने चरम पर थी, लेकिन तब से लगातार गिरावट देखी जा रही है. सीमा शुल्क और उत्पाद शुल्क के तहत प्रदान की जाने वाली टैक्स छूटों के आकलन की कार्यप्रणाली में बदलाव के बाद, 2015-16 में कुल राजस्व में 49 प्रतिशत की गिरावट आई और सकल घरेलू उत्पाद का प्रतिशत 2015-16 में 2.1 और 2016-17 में 2.0 प्रतिशत हो गया.

वित्तीय वर्ष 2015-16 और 2018-19 के बीच राजस्व में गिरावट के पीछे एक और कारण 2017-18 में वस्तु एवं सेवा टैक्स (जीएसटी) की शुरुआत है, जिसने अधिकांश अप्रत्यक्ष टैक्सों को कम कर दिया. 2017-18 और 2019-20 के बीच जीडीपी के प्रतिशत के रूप में राजस्व प्रत्येक वर्ष में 1.4 प्रतिशत रहा.

बहरहाल 2011-12 से 2019-20 की अवधि के दौरान विभिन्न प्रकार के प्रत्यक्ष टैक्स प्रोत्साहन / छूट / रियायतों के कारण सकल टैक्स राजस्व में 13.16 लाख करोड़ रुपए की कमी आई है. कॉरपोरेट क्षेत्र पर राज्य सरकार कई अलग तरह से भी मेहरबान रहती है (जैसे सस्ती दरों पर जमीन उपलब्ध कराना, पर्यावरण और श्रम मानदंडों का कमजोर करना आदि), जिसके बारे में अगर लिखने बैंठू तो कई महीने निकल जाएंगे. जबकि 2011-12 से 2019-20 की अवधि के दौरान, केंद्र सरकार ने खाद्य सब्सिडी पर 9.27 लाख करोड़ रुपये और उर्वरक सब्सिडी पर 6.31 लाख करोड़ रुपए दी है. कुल मिलाकर, केंद्र सरकार ने 2011-12 और 2019-20 के बीच इन दोनों सब्सिडी पर 15.58 लाख करोड़ खर्च किए थे. कृपया टेबल -2 देखें.

तालिका 2: केंद्र सरकार द्वारा दिए गए खाद्य और उर्वरक सब्सिडी (करोड़ में)

इस इंटरव्यू में अशोक गुलाटी के मुंह से यह भी सुना कि अगर सरकार के हस्तक्षेप से कोई सामान मुफ्त या रियायती दर पर उपलब्ध है, तो लोग ऐसे सामान/वस्तु का अति प्रयोग या अधिक उपभोग करते हैं. तो, सबसे अच्छा समाधान इस तरह के ‘लगभग मुफ्त में उपलब्ध’ या ‘अत्यधिक सब्सिडी वाले’ सामान या वस्तुओं को खुले बाजार के हवाले कर देना है. एक बार जब लोग ऐसे सामान/वस्तुओं के उपयोग या उपभोग के लिए भुगतान करना शुरू कर देंगे, तो वे उन्हें बर्बाद करना बंद कर देंगे. इसी तर्ज पर वह आगे कहते हैं कि यदि बिजली मुफ्त या रियायती दर पर उपलब्ध है, तो किसानों द्वारा सिंचाई के लिए भूजल का अत्यधिक दोहन किया जाएगा (वह हरित क्रांति वाले राज्य पंजाब का उदाहरण देते हैं). वे पानी की अधिकता वाली फसलों (जैसे धान, गेहूं और गन्ना) की सिंचाई के लिए बिजली के पानी के पंपों का उपयोग करके अत्यधिक भूजल को बाहर निकालेंगे, भले ही इसकी आवश्यकता न हो. इसलिए, भूजल जैसे कीमती संसाधनों को अतिदोहन से बचाने के लिए बिजली सब्सिडी को बंद करने की सलाह के साथ गुलाटी जी बाजार-आधारित समाधान को अन्य आदान, जो कृषि के लिए आवश्यक हैं, जैसे कि रासायनिक कीटनाशक, रासायनिक उर्वरक, डीजल, आदि के लिए भी लागू करने की सरसरी सलाह पसारते हैं.

फसल उत्पादकों द्वारा अक्सर दिया जाने वाला प्रतिवाद यह है कि पिछले 10-15 साल में सब्सिडी में कमी या इनपुट की कीमतों पर नियंत्रण ने कृषि की लागत को काफी बढ़ा दिया है. हालांकि, किसानों को अपनी उपज बेचने से प्राप्त कीमतों में इनपुट कीमतों में वृद्धि (या खेती से जुड़े जेब खर्च) की तुलना में आनुपातिक रूप से वृद्धि नहीं हुई है. नतीजतन, हम पाते हैं कि ‘खेती/फसल उत्पादन से शुद्ध प्राप्ति – जब केवल भुगतान किए गए खर्च पर विचार किया जाए’ पिछले कुछ वर्षों में कम हो गया है. विभिन्न किसान आंदोलनों के दौरान, किसान अपने द्वारा उगाई जाने वाली और कटाई के बाद बेचने वाली उपज के लिए सुनिश्चित और लाभकारी मूल्य की मांग भी करते दिखते हैं.

फसल वर्ष 2012-13 और 2018-19 के बीच फसल से अर्जित आय की तुलना में इनपुट पर किए गए खर्च की स्थिति के बारे में डेटा विश्लेषण से पता चलता है कि राष्ट्रीय स्तर पर, फसल उत्पादन की सूचना देने वाले प्रति परिवार फसल उत्पादन के लिए औसत मासिक भुगतान खर्च फसल वर्ष 2012-13 और 2018-19 के बीच लगभग 35 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. इसके विपरीत, भारत में प्रति परिवार फसल उत्पादन की औसत मासिक प्राप्तियों में लगभग 25.59 प्रतिशत की वृद्धि हुई. राष्ट्रीय स्तर पर, औसत शुद्ध प्राप्तियां (अर्थात, औसत मासिक प्राप्तियों और प्रति परिवार फसल उत्पादन के लिए औसत मासिक भुगतान खर्च के बीच का अंतर) फसल वर्ष 2012-13 और 2018-19 के बीच 3,350 रुपये से बढ़कर 4,001 रुपये हो गया यानि +19.4 प्रतिशत की बढ़ोतरी. फसल वर्ष 2012-13 और 2018-19 के बीच +19.4 प्रतिशत की यह बढ़ोतरी औसत ‘उपभोक्ता मूल्य सूचकांक – संयुक्त’ (34.0 प्रतिशत) में मुद्रास्फीति की दर के साथ-साथ औसत ‘उपभोक्ता मूल्य सूचकांक – ग्रामीण’ (35.3 प्रतिशत) में मुद्रास्फीति की दर से कम है.

इनपुट लागत में मुद्रास्फीति

फसल वर्ष 2012-13 और 2018-19 के बीच, प्रति कृषि परिवार पर फसल उत्पादन के लिए औसत मासिक भुगतान खर्च (नाममात्र शर्तों में) में उच्चतम वृद्धि नोट की गई थी. ‘सिंचाई’ (71.4 प्रतिशत), इसके बाद ‘ब्याज’ (50.0 प्रतिशत), ‘पौधे संरक्षण रसायन’ (49.1 प्रतिशत), ‘अन्य सभी खर्च’ (45.3 प्रतिशत), ‘मानव श्रम’ (41.9 प्रतिशत), ‘बीज’ ‘ (36.4 प्रतिशत), ‘भूमि का पट्टा किराया’ (26.6 प्रतिशत), ‘उर्वरक/खाद’ (16.9 प्रतिशत) और ‘पशु श्रम’ (15.6 प्रतिशत) का स्थान आता है. केवल ‘मशीनरी और उपकरणों की मामूली मरम्मत और रखरखाव’ (-11.6 प्रतिशत) के मामले में, फसल वर्ष 2012-13 और 2018-19 के बीच खर्च में गिरावट देखी जा सकती है. औसत ‘उपभोक्ता मूल्य सूचकांक – संयुक्त’ (34.0 प्रतिशत) में मुद्रास्फीति की दर के साथ-साथ फसल वर्ष 2012-13 और के बीच औसत ‘उपभोक्ता मूल्य सूचकांक – ग्रामीण’ (35.3 प्रतिशत) में मुद्रास्फीति की दर की तुलना में 2018-19, ‘सिंचाई’ (71.4 प्रतिशत), ‘ब्याज’ (50.0 प्रतिशत), ‘पौधे संरक्षण रसायन’ (49.1 प्रतिशत), ‘अन्य सभी खर्च’ (45.3 प्रतिशत), ‘मानव श्रम’ (41.9 प्रतिशत) और ‘बीज’ (36.4 प्रतिशत) से संबंधित इनपुट लागत अधिक बढ़ी है.

कोई गुलाटी साहब के कान में कह आए, सब्सिडी किसानों को नहीं दी जाती. किसानों के बहाने उपभोक्ताओं को दी जाती है, ताकि उनको सस्ता खाना मिल सके. जिस दिन किसान अपनी लागत की हिसाब से फसल का दाम तय करने लगेगा तो करोड़ों लोग भूखे मर जाएंगे.

फ्री मार्केट के समर्थक बन गुलाटियां मारते गुलाटी जी

अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी मोदी सरकार के कृषि कानूनों को क्रांतिकारी बता रहे थे. कृषि कानूनों के खिलाफ खड़े हुए किसान आंदोलन के खिलाफ भी उन्होंने सत्ता का साथ दिया और खुलकर बड़े कॉरपोरेटों के समर्थक बने रहे. इस इंटरव्यू में भी वह सरकार को हाथ खींच लेने और खेतीबाड़ी में फ्री मार्केट की बात करते हैं. इसी फ्री मार्केट की वजह से कोको की खेती करने वाले पश्चिमी अफ्रीका के एक किसान की औसत दिहाड़ी एक चॉकलेट बार के मूल्य से भी कम है. चॉकोलेट बैरोमीटर नामक संस्था की द्विवार्षिक रिपोर्ट-2020 दर्शाती है कि फ्री मार्केट में कोको की उच्च उत्पादन मात्रा के बूते चॉकलेट उद्योग खुद तो काफी मुनाफा कमा रहा है किंतु कोको की खेती में लगे लगभग 50-60 लाख किसान निरंतर गरीबी में फंसे हुए हैं. फ्री मार्केट की वजह से यही हाल ब्रिटेन के डेयरी फार्मर्स का भी हुआ, वह पूरी तरह बर्बाद हो गए. पिछले दो दशकों में अमेरिका के भी 50 फीसदी डेयरी फार्म बंद हो गए हैं.

अर्थशास्त्री और कृषि विशेषज्ञ देवेंदर शर्मा अपने कई लेखों में फ्री मार्केट से दुनियाभर में किसानों को हुए नुकसानों के बारे में लिख चुके हैं. एक लेख में उन्होंने ओपन मार्केट इंस्टीट्यूट के निदेशक ऑस्टिन फ्रेरिक ने कंजर्वेटिव अमेरिकन में लिखी एक बात का भी जिक्र किया था, जिसमें वह कहते हैं, “1980 के दशक में किसान प्रत्येक डॉलर में से 37 सेंट घर ले जाते थे. वहीं आज उन्हें हर डॉलर पर 15 सेंट से कम मिलते हैं.” फ्रेरिक इस तथ्य के जरिए पिछले कुछ दशक में किसानों की आमदनी घटने की प्रमुख वजह चुनिंदा बहुराष्ट्रीय कंपनियों की बढ़ती आर्थिक ताकत बताते हैं. अमेरिका में आए किसानी संकट में जब वहां के छोटे किसान आवाज उठाने लगे तो अमेरिका को भी किसानों को मंडी भावों के उतार-चढ़ाव के रहमो-करम पर छोड़ने की बजाय एग्रीकल्चर रिस्क कैम्पेन (कृषि जोखिम बचाव) और प्राइस लॉस कवरेज (मूल्य अवनति भरपाई) कार्यक्रमों को 2018 के कृषि कानून में शामिल करना पड़ा. चीन में भी फ्री मार्केट नाकामयाब रही है, और चीनियों को भी अपनी किसानी बचाने के साल 2016 में 212 खरब डॉलर की सब्सिडी देनी पड़ी थी, जोकि दुनिया में सबसे अधिक थी.

दुनिया की इन दो महाशक्तियों के उदाहरण के अलावा बिहार राज्य भी फ्री मार्केट की असफलता का एक उदाहरण है. पिछले साल, वहां किसान अपना धान 1200 रुपए क्विंटल बेचने के लिए मजबूर थे, जबकि एमएसपी 1940 रुपए था. मगर अशोक गुलाटी साहब को खेतीबाड़ी को फ्री मार्केट में ले जाकर बड़े खिलाड़ियों को फायदा पहुंचाने की इतनी जल्दबाजी है कि वह भूल जाते हैं कि हरियाणा-पंजाब के किसान उनके और उनके हुक्मरान के काबू में नहीं आने वाले.

गुलाटी जी, फसलों की सरकारी खरीद पर भी गुस्सा हो उठते हैं. वह कहते हैं, “जब जरूरत ही नहीं है चावल की, तो सरकार खरीद क्यों रही है. क्या सर पर रखेगी खरीदकर.” खैर, अशोक गुलाटी के इंटरव्यू में द वायर के एंकर यह बताना भूल गए कि पिछले एक दशक में देश की कृषि नीतियों में गुलाटी का बड़ा हाथ है. वे सरकारी खरीद और सब्सिडी घटाने के पैरोकार हैं, प्रो मार्केट इकोनॉमिस्ट हैं. अब सोचिए कि अनाज की सरकारी खरीद ना होती तो कोरोना काल और यूक्रेन संकट में क्या होता? गुलाटी जी, खाए-अघाए हैं, उन्हें संकटों और महामारियों के बारे में सोचने की भले क्या जरूरत आन पड़ी.

निजीकरण के समर्थन में पब्लिक सेक्टर को पुरानी सोच बताते मिस्टर गुलाटी

इस इंटरव्यू में गुलाटी साहब एक जगह कहते हैं कि टेलीकॉम सेक्टर में रिलाइंस जियो और एयरटेल सिर्फ दो प्लेयर हैं, वे लोगों को लूट नहीं रहे. खैर, गुलाटी जी को जियो के रिचार्ज की कीमत पता होती तो वह शायद न कहते. मैं पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इसी साल हुए चुनावों की कवरेज कर रहा था तो ग्राउंड पर देश में जो डिजीटल डिवाइड है, वह साफ दिखा. ग्रामीण गरीबों के पास न स्मार्टफोन थे और न ही इंटरनेट कनेक्शन. कोरोना काल में ऑनलाइन शिक्षा पर हुए कितने ही अध्ययन यह बताते हैं कि ग्रामीण गरीब वर्ग के छात्र अपनी पढ़ाई जारी नहीं रख पाए.

गुलाटी जी, वहीं नहीं रूके. वह निजीकरण के समर्थन में एयर इंडिया का टाटा के पास जाने का हवाला देकर निजीकरण को सही ठहराते हैं. शायद उन्हें यह न ध्यान रहा हो कि भारत में सार्वजनिक क्षेत्र का निर्माण किन कारणों से किया गया था. ये कारण अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक अपने एक लेख में पहले गिनवा चुके हैं. पटनायक लिखते हैं, “भारत में सार्वजनिक क्षेत्र का निर्माण कई कारणों से किया गया था. मसलन, देश के कच्चे माल संसाधनों का नियंत्रण विदेशी पूंजी से छुड़ाकर, देश के हाथों में लाने के लिए, जैसे तेल क्षेत्र में. प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता को आगे बढ़ाने के लिए, ताकि विदेशी पूंजी पर निर्भरता से तथा इसलिए विदेशी पूंजी की आधीनता से बचा जा सके, जैसे हैवी इलैक्ट्रिकल्स. आवश्यक सेवाएं जनता को कम दाम पर या मुफ्त मुहैया कराने के लिए, जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा, बिजली आदि. ऐसे साधन मुहैया कराना, जिनके जरिए ऐसे खास-खास क्षेत्रों में सार्वजनिक संसाधनों का निवेश किया जा सके,  जिनमें निजी संसाधन या तो लग ही नहीं रहे थे या पर्याप्त मात्रा में नहीं लगने वाले थे, जैसे कि बुनियादी ढांचा. किसानी खेती को मदद देने के लिए उचित दामों पर उसकी पैदावार की खरीदी के लिए, जैसे भारतीय खाद्य निगम. लघु उत्पादन क्षेत्र को, जिसे अन्यथा ऋण नहीं मिले थे, ऋण मुहैया कराने के लिए, जैसे कि सार्वजनिक क्षेत्र बैंक. सार्वजनिक क्षेत्र के निर्माण के ये सभी कारण, आर्थिक निरुपनिवेशीकरण की प्रक्रिया के हिस्से थे और संविधान में सूत्रबद्घ किए गए, शासन की नीति के निर्देशक सिद्घांतों के जरिए सूत्रबद्घ की गयी भविष्य कल्पना के अनुरूप थे. वास्तव में, जैसाकि सार्वजनिक क्षेत्र तथा सार्वजनिक सेवाओं पर पीपुल्स कमीशन की रिपोर्ट में जोर देकर कहा गया है, उक्त भविष्य कल्पना के अनुरूप, कल्याणकारी राज्य को स्थापित करने के एक आवश्यक औजार के तौर पर सार्वजनिक क्षेत्र का निर्माण किया गया था.”

प्रभात पटनायक के मुताबिक, “सार्वजनिक क्षेत्र के निजीकरण का अनिवार्य रूप से अर्थ है, इन परिसंपत्तियों का चंद बड़े इजारेदार घरानों या अंतरराष्ट्रीय बड़ी पूंजी के हाथों बेचा जाना, क्योंकि और किसी में इसका बूता ही नहीं है कि इन परिसंपत्तियों की खरीद के लिए आवश्यक संसाधन जुटा सके. और इसका अर्थ है, राज्य द्वारा अपने दायित्व से हाथ खींचा जाना और एक ऐसी प्रक्रिया का उन्मुक्त किया जाना, जिसमें एक ओर तो अर्थव्यवस्था का पुनरुपनिवेशीकरण होता है, क्योंकि इस तरह आजादी के 75 साल बाद अर्थव्यवस्था के नियंत्रणकारी मुकामों (कमांडिंग हाइट्स) को विकसित दुनिया की पूंजी के हवाले किया जाता है और दूसरी ओर, संविधान में सूत्रबद्घ किए गए, शासन के लिए नीति निर्देशक सिद्घांतों से पलटा जा रहा होगा. संक्षेप में इसका अर्थ है, यदि हम इसे एक सामाजिक दर्शन कह सकते हों तो ऐसे सामाजिक दर्शन को आगे बढ़ाना, जो हमारे संविधान के सामाजिक दर्शन से ठीक उल्टा है. यह तो ऐसा सामाजिक दर्शन है जिसमें विकसित दुनिया के स्वार्थों की आधीनता और कल्याणकारी राज्य के लिए प्रतिबद्घता के परित्याग, का ही योग हो रहा है.”

पिछले दिनों में चंडीगढ़ के बिजली निगम को निजी हाथों में दिए जाने के खिलाफ चल रहे एक धरने में गया तो पता चला कि वह बिजली निगम हर साल सरकार को 200 से 300 करोड़ का मुनाफा कमाकर देता था, फिर भी कोड़ियों के भाव में उसे बेच दिया गया. सार्वजनिक क्षेत्र की इन संपत्तियों को उनके वास्तविक मूल्य से कम पर बेचा जाता है, और इनके बेचे जाने में पूँजी के आदिम संचय की प्रक्रिया भी चल रही होती है. यह देश में संसाधनों की असमानता को और बढ़ाने का काम करता है और चूंकि संपदा की असमानता, आय की असमानता को पोषण करती है, यह आय असमानता को भी बढ़ाता है.

आखिर में इसी आय असमानता की ओर अशोक गुलाटी साहब का ध्यान आकर्षित करना चांहूगा. साल 2020 के अक्टूबर में प्रकाशित आईएमएफ के वर्ल्ड इकोनॉमिक आउटलुक के अनुसार, उन्नत पूंजीवादी के साथ-साथ उभरती अर्थव्यवस्थाओं में आय असमानता में वृद्धि के लिए कई कारक जिम्मेदार हैं, “कौशल-पक्षपाती तकनीकी परिवर्तन जोकि उच्च शैक्षिक स्तर की पक्षधर थी, यूनियनों की गिरावट, बढ़ती बाजार एकाग्रता और कर्मचारियों की सौदेबाजी की शक्ति में संबद्ध कमी, और प्रतिगामी कर नीति में बदलाव के कारण श्रम बाजार में फर्मों की मोनोपॉनी शक्ति में वृद्धि हुई है, जिसके परिणामस्वरूप उच्चतम आय वाले लोगों पर कम टैक्स लगाया गया है. साथ ही पिछले कई वर्षों में कॉर्पोरेट टैक्सों को कम किया है.”

केसरिया नवउदारवादी अर्थव्यवस्था के ध्वजवाहक अशोक गुलाटी को द वायर द्वारा कई बार पहले भी इंटरव्यू किया जा चुका है. इस बार जो इंटरव्यू ले रहा था वह अशोक गुलाटी के हर जवाब पर कह रहा था, “आप सही कह रहे हैं.” खैर अपने अपने मत. अपने अपने पाले.

मुझे इस इंटरव्यू में जो अखरा, वह था गुलाटी का खुद को बतौर टैक्स पेयर बताकर कई बार चिल्लाना. जैसे किसान-मजदूरों का सारा खर्च वह और उनके कॉरपोरेट मित्र उठाते हों. गुलाटी और इंटरव्यू लेने वाले के लिए मुझे साल 1900 में जैक लन्दन (1876-1916) द्वारा धनिकों की एक सभा में दिया गया वक्तव्य ध्यान आता है, “हज़ारों साल पहले गुफ़ा में रहनेवाला कमदिमाग़ मानव बग़ैर औज़ार फ़क़त अपनी मेहनत से इतनी ख़ुराक जुटा लेता था कि उसके बच्चे क्या अड़ोसी-पड़ोसी भी छक जायें। वहीं दूसरी तरफ़ तुम हो – उत्पादन की आधुनिकतम तकनीकों से लैस, और गुफ़ावाले मानव की पैदावार-शक्ति से कई लाख गुना ज़्यादा शक्तियोंवाले! तुम सभी लोगों के लिये जीने लायक़ रोटी और रोज़ी का प्रबन्ध नहीं रख सकते। तुमने इस दुनिया को ग़लत प्रबन्धित किया है। …और ये प्रबन्ध करने का हक़ तुम से एक दिन ज़रूर छीना जायेगा।”

वायर पर अशोक गुलाटी का इंटरव्यू देखने के लिए यहां क्लिक करें.

References:

Union Budget, various years, https://www.indiabudget.gov.in/

https://www.im4change.org/news-alerts-57/tax-exemptions-and-incentives-for-the-corporate-sector-continue-despite-reduction-in-corporate-tax-rates.html

Union Budget Speech 2017-18 delivered by Shri Arun Jaitley, 1 February, 2017, please click here to access

Union Budget Speech 2015-16 delivered by Shri Arun Jaitley, 28 February, 2015, please click here to access

Video: Union Budget 2015-16 Speech by Finance Minister Shri Arun Jaitley, please click here to access

Press release: Corporate tax rates slashed to 22% for domestic companies and 15% for new domestic manufacturing companies and other fiscal reliefs, Ministry of Finance, Press Information Bureau, dated 20 September, 2019, please click here to access

An Introduction: WTO Agreement on Agriculture, Ministry of Commerce and Industry, please click here to access

Explanation: Domestic Support to Agriculture, WTO, please click here to access

Budget in the Time of the Pandemic: An Analysis of Union Budget 2021-22 -Centre for Budget and Governance Accountability (CBGA), released in February, 2021, please click here to access

Decoding the Priorities: An analysis of Union Budget 2020-21 -Centre for Budget and Governance Accountability (CBGA), February 2020, please click here and here to access

Promises and Priorities: An analysis of Union Budget 2019-20 -Centre for Budget and Governance Accountability (CBGA), please click here to access

‘Of Hits and Misses: Analysis of Union Budget 2018-19’ -Centre for Budget and Governance Accountability (CBGA), released on 2 February, 2018, please click here and here to access

What Do the Numbers Tells? An Analysis of Union Budget 2017-18 -Centre for Budget and Governance Accountability (CBGA), please click here and here to access

News alert: Fiscal transparency jacks up ‘expenditure’ numbers in the Union Budget 2021-22, Inclusive Media for Change, Published on Feb 4, 2021, please click here to access

News alert: Size of tax rebates is large as compared to spending by agricultural & rural development ministries, Inclusive Media for Change, Published on Feb 6, 2018, please click here to access

The double standards in support to farmers stir -Rohit Parakh, The Hindu Business Line, 3 March, 2021, please click here to access

Prophetic! Arun Jaitley’s big promise fulfilled within deadline – Here’s what he said -Rajeev Kumar, Financial Express, 20 September, 2019, please click here to access

Union Budget 2017: Did Jaitley just prove his critics right on corporate tax exemptions? -Seetha, Firstpost.com, 4 February, 2017, please click here to access

स्रोत: केंद्रीय टैक्स प्रणाली के तहत टैक्स प्रोत्साहन के राजस्व प्रभाव का विवरण: वित्तीय वर्ष 2018-19 और 2019-20, अनुबंध –7, केंद्रीय बजट 2021-22, कृपया यहां क्लिक करें

* केंद्रीय टैक्स प्रणाली के तहत टैक्स प्रोत्साहन के राजस्व प्रभाव का विवरण: वित्तीय वर्ष 2018-19 और 2019-20, अनुलग्नक –7, केंद्रीय बजट 2020-21, उपयोग करने के लिए कृपया यहां क्लिक करें

केंद्रीय टैक्स प्रणाली के तहत टैक्स प्रोत्साहन के राजस्व प्रभाव का विवरण: वित्तीय वर्ष 2017-18 और 2018-19, अनुबंध –7, केंद्रीय बजट 2019-20, कृपया यहां क्लिक करें

केंद्रीय टैक्स प्रणाली के तहत टैक्स प्रोत्साहन के राजस्व प्रभाव का विवरण: वित्तीय वर्ष 2016-17 और 2017-18, अनुलग्नक –7, केंद्रीय बजट 2018-19, कृपया यहां क्लिक करें

केंद्रीय टैक्स प्रणाली के तहत टैक्स प्रोत्साहन के राजस्व प्रभाव का विवरण: वित्तीय वर्ष 2015-16 और 2016-17, अनुलग्नक –13, केंद्रीय बजट 2017-18, कृपया यहां क्लिक करें

केंद्रीय टैक्स प्रणाली के तहत टैक्स प्रोत्साहन के राजस्व प्रभाव का विवरण: वित्तीय वर्ष 2014-15 और 2015-16, अनुबंध –15, केंद्रीय बजट 2016-17, कृपया यहां क्लिक करें

केंद्रीय टैक्स प्रणाली के तहत टैक्स प्रोत्साहन के राजस्व प्रभाव का विवरण: वित्तीय वर्ष 2013-14 और 2014-15, केंद्रीय बजट 2015-16, एक्सेस करने के लिए कृपया यहां क्लिक करें

केंद्रीय टैक्स प्रणाली के तहत टैक्स प्रोत्साहन के राजस्व प्रभाव का विवरण: वित्तीय वर्ष 2012-13 और 2013-14, केंद्रीय बजट 2014-15,  एक्सेस करने के लिए कृपया यहां क्लिक करें 

केंद्रीय टैक्स प्रणाली के तहत टैक्स प्रोत्साहन के राजस्व प्रभाव का विवरण: वित्तीय वर्ष 2011-12 और 2012-13, केंद्रीय बजट 2013-14, एक्सेस करने के लिए कृपया यहां क्लिक करें 

नोट: केंद्रीय बजट 2020-21 के दस्तावेज 2018-19 * में कॉर्पोरेट टैक्स प्रोत्साहन और आयकर प्रोत्साहन (तालिका –1 में पीली छायांकित कोशिकाओं) के साथ जुड़े राजस्व के आंकड़े मिलते हैं. हालांकिकॉरपोरेट टैक्स प्रोत्साहन और 2018-19 में आयकर प्रोत्साहन से संबंधित राजस्व के आंकड़ों से अलग हैंजो केंद्रीय बजट 2021-22 दस्तावेजों द्वारा प्रदान किया गया है।. अपनी गणना मेंहमने बादका उपयोग किया है और पूर्वशब्द का नहीं.

स्रोत: प्रमुख मदों का व्यय, केंद्रीय बजट २०२१-२२, कृपया उपयोग करने के लिए यहां क्लिक करें

2020-21 के प्रमुख मदों का व्यय, कृपया यहाँ क्लिक करें

केंद्रीय बजट 2019-20 के प्रमुख मदों का खर्च, एक्सेस करने के लिए कृपया यहां क्लिक करें

केंद्रीय बजट 2018-19 के प्रमुख मदों का व्यय, कृपया यहां क्लिक करें

प्रमुख आइटम केंद्रीय बजट 2017-18 का व्यय, एक्सेस करने के लिए  कृपया यहां क्लिक करें

व्यापक श्रेणियों द्वारा गैर-योजना व्यय, व्यय बजट वॉल्यूम. I, 2016-2017, कथन -4, एक्सेस करने के लिए कृपया यहां क्लिक करें

गैर-योजना व्यय व्यापक श्रेणियों द्वारा, व्यय बजट वॉल्यूम. मैं, २०१५-२०१६, कथन -४, कृपया यहां क्लिक कर देखें

व्यापक श्रेणियों द्वारा गैर-योजना व्यय, व्यय बजट वॉल्यूम. I, 2014-2015, कथन -4, एक्सेस करने के लिए कृपया यहां क्लिक करें

व्यापक श्रेणियों द्वारा गैर-योजना व्यय, व्यय बजट वॉल्यूम. I, 2013-2014, कथन -4, एक्सेस करने के लिए  कृपया यहां क्लिक करें

स्रोत: फसल वर्ष 2018-19 से संबंधित आंकड़ों के लिए, कृपया विवरण 5.3A.1, ग्रामीण भारत में परिवारों की कृषि परिवारों और भूमि और पशुधन की स्थिति का आकलन, 2019, एनएसएस 77वें दौर, जनवरी 2019-दिसंबर 2019, राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ), सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय (एमओएसपीआई), कृपया यहां क्लिक करें.

फसल वर्ष 2012-13 से संबंधित आंकड़ों के लिएकृपया परिशिष्ट ए में तालिका-8 देखेंभारत में कृषि परिवारों की स्थिति आकलन सर्वेक्षण के प्रमुख संकेतक (जनवरी-दिसंबर 2013), एनएसएस 70वां दौरसांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालयभारत सरकारदिसंबर 2014, कृपया एक्सेस करने के लिए यहां क्लिक करेंकृपया एक्सेस करने के लिए यहां क्लिक करें