उजड़ने के डर में जीने को मजबूर गाजियाबाद के घुमंतू परिवार, धूमिल पड़ती स्थायी आवास की आस

 

सड़क के किनारे अपनी बांस और तिरपाल से बनी झोपड़ी के सामने बैठे 28 साल के सन्नी कोयले की गर्म भट्टी पर काम कर रहे हैं. लोहा पीटते-पीटते सन्नी ने कहा, “हमें किसी की जरूरत थी जो हमारी परेशानियों के बारे में लिख सके और हमारी समस्या सरकार तक पहुंचा सके.”

ऊपर निर्माणाधीन मेट्रो पुल, दोनों ओर सड़क से गुजरते ट्रैफिक के शोर-गुल के बीच मुश्किल से 15 फुट चौड़े, आधा किलोमीटर लंबे कच्चे रास्ते पर 50 घुमंतू परिवार पिछले कई दशकों से अपनी झोपड़ियों में रह रहे हैं. उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद शहर के गुलडेर गेट की गली नंबर पांच के पास रहने वाले इन घुंमतू परिवारों तक पहुंचते-पहुंचते सरकार की सारी योजनाएं दम तोड़ देती हैं.

लोहा पिटते हुए सवाल पूछने के लहजे में सन्नी कहते हैं, “हम लोग पिछले कई बरसों से यहां सड़क किनारे रहते हैं. हमारा भी कोई पक्का ठिकाना होना चाहिए. हम लोग क्या ऐसे ही भटकते रहेंगे. पांच साल हो गए कहते-कहते किसी ने कुछ नहीं किया. सरकार ने कहा था कि सबको पक्के मकान मिलेंगे. पक्के मकान तो दूर हमें तो एक गज जगह भी नहीं मिली.”

कोयले की भट्टी पर काम करते हुए सन्नी लोहार

इस बस्ती में रहने वाले अधिकतर लोगों के पास आधार कार्ड और राशन कार्ड जैसे आधारभूत दस्तावेज भी नहीं हैं. करीबन 65 साल की बुजुर्ग अंगूरी ने बताया, “मेरे पास आधार कार्ड है फिर भी पेंशन नहीं चालू करते. बोलते हैं कि पता स्थायी नहीं है. अब हमारे पास न जमीन है, न घर, तो स्थायी पता कहां से लाये.” सड़क किनारे रहने वाले इन 50 परिवारों में से केवल एक बुजुर्ग महिला की पेंशन आती है वो भी दिल्ली के पते पर. वो हर बार पेंशन लेने दिल्ली जाती हैं.

सड़क किनारे खुले में रहते हुए सबसे ज्यादा परेशानियों का सामना महिलाओं को करना पड़ रहा है. लगभग 55 वर्षीय महिला शर्पी ने बताया, “नगर निगम वाले हर महीने यहां से हटने के लिए कहकर जाते हैं. यहां से हटकर हम कहां जाएंगे. सरकार को हमारा भी कोई पक्का ठोर-ठिकाना बनाना चाहिए. सरकार की ओर से हमें कोई भी सुविधा नहीं मिली है. पीने का पानी एक किलोमीटर दूर से भरकर लाते हैं. यहां औरतों के लिए शौचालय नहीं है. शौच के लिए हमें बाहर जाना पड़ता है.”    

सड़क किनारे खेलने को मजबूर मासूम बच्चे

अपने कामधंधे के बारे में सन्नी बताते हैं, “अब हमारा काम भी खत्म हो चुका है. बाजार में नये-नये डिजाइन के बर्तन आ गए हैं, लोग उनको खरीदना पसंद करते हैं. हमारे बनाए हुए लोहे के बर्तन नहीं खरीदते. हमारे कुछ परिवार लोहे का काम छोड़कर दूसरे काम में भी लग गए हैं.”

85 साल की एक बुजुर्ग महिला ने बताया, “सब आते हैं बहका-बहका कर चले जाते हैं. फोटो खींचकर, कागज बनाकर ले जाते हैं लेकिन आज तक हुआ कुछ नहीं. हम वहीं के वहीं सड़क पर पड़े हैं. हमारे साथ परिवार में लड़कियां हैं. यहां से रात-बिरात को गलत आदमी आते-जाते हैं तो डर लगता है.” एक छोटे बच्चे को गोद में लिए खड़ी महिला ने कहा,“बारिश के मौसम में सड़क का सारा पानी हमारी झोपड़ियों में भर जाता है. पानी भरने की वजह से चूल्हा तक नहीं जलता. कई बार बच्चे भूखे-प्यासे रह जाते हैं.”

वहीं इस मामले पर जब गाजियाबाद विकास प्राधिकरण के अधिकारी से फोन पर बात की तो अधिकारी ने इन परिवारों को हटाने की जानकारी नहीं होने की बात कही.

ये लोग डीएनटी (डिनोटिफाइड नोमेडिक ट्राइब्स) से आते हैं. इस समुदाय को लेकर सरकर कितनी गंभीर है इसको सरकारी बजट से समझा जा सकता है. देशभर में करीबन 15 से 20 करोड़ की डीएनटी आबादी के लिए पिछले छह साल में महज 45 करोड़ का बजट दिया गया है यानी प्रधानमंत्री की एक विदेश यात्रा के खर्च से भी कम बजट. एक ओर प्रधानमंत्री के लिए दिल्ली में करोड़ों रुपये की लागत से नया पीएम आवास बन रहा है लेकिन पीएम द्वारा खुद शुरू की गई ‘प्रधानमंत्री आवास योजना’ बेघर लोगों तक नहीं पहुंच रही है.