आजमगढ़: जमीन अधिग्रहण के खिलाफ 100 दिन से किसानों का आंदोलन जारी!

उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ में संयुक्त किसान मोर्चा समेत कईं किसान संगठन पिछले 100 दिनों से आजमगढ़ मंडुरी हवाई अड्डे के विस्तार के लिए जमीन अधिग्रहण का विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. संयुक्त किसान मोर्चा ने पूर्वी यूपी के सभी किसानों से आजमगढ़ के धरने में शामिल होने का आह्वान किया है. वहीं धरना स्थल पर मौजूद किसानों ने आरोप लगाया कि ‘मोदी सरकार निजीकरण के नाम पर लगातार सरकार और सार्वजनिक संस्थानों को पूंजीपतियों को बेच रही है, जिससे जनता का इस सरकार पर से विश्वास उठ गया है.’

किसान संगठनों का आरोप है कि हवाई पट्टी, मंडी, हाईवे, एक्सप्रेसवे के नाम पर नए सामंत, बड़े जमींदार बनाए जा रहे हैं. उनका कहना है कि मोदी सरकार के कार्यकाल में किसानों और मजदूरों को सबसे सस्ता और लाचार मजदूर बना दिया गया है और अब तैयारी उनके सम्मान और स्वाभिमान को छीन कर उन्हें बंधुआ मजदूर बनाने की है.

धरना-प्रदर्शन कर रहे किसानों का कहना है कि अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट के विस्तारीकरण के लिए जमीन और मकान नहीं छोड़ेंगे. किसानों कि मांग है कि हवाई अड्डे का मास्टर प्लान रदद् किया जाए. वहीं रविवार को एक बार फिर बड़े स्तर पर संयुक्त किसान मोर्चा पूर्वी उत्तर प्रदेश के किसान नेता और किसान धरना स्थल पर जुटेंगे. वहीं इस बीच आजमगढ़ आंदोलन में जमीन अधिग्रहण का विरोध कर रहे एक बुजुर्ग किसान का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है वीडियो में बुजुर्ग किसान जमीन छीन जाने के डर से रोते हुए नजर आ रहे हैं.

पत्रकार सिद्दीकी कप्पन की जमानत याचिका पर सुप्रीम कोर्ट का योगी सरकार को नोटिस!

पत्रकार सिद्दीकी कप्पन को अक्टूबर 2020 में उत्तर प्रदेश के हाथरस जाते समय गिरफ्तार किया गया था, जहां कथित तौर पर सामूहिक बलात्कार के बाद एक दलित युवती की मौत हो गई थी, पत्रकार कप्पन को हाथरस जाते वक्त मथुरा से गिरफ्तार किया गया था. जिसके बाद उनपर यूएपीए लगाकर जेल भेज दिया गया था. इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इस महीने की शुरुआत में उनकी जमानत याचिका को खारिज कर दिया था.

वहीं अब चीफ जस्टिस यू यू ललित और जस्टिस एस रवींद्र भट की पीठ ने मामले के निपटारे के लिए 9 सितंबर की तारीख दी है और उत्तर प्रदेश सरकार को 5 सितंबर तक जवाब दाखिल करने के लिए कहा है.

कप्पन की ओर से पेश वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने कहा, “पत्रकार कप्पन 6 अक्टूबर 2020 से जेल में बंद हैं. उनपर आरोप है कि पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) ने आतंकवादी गतिविधियों के लिए उनके खाते में 45 हजार रुपए डाले है. इसका कोई सबूत नहीं है,यह केवल आरोप है.”

वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने कहा कि कप्पन का संगठन से कोई लेना-देना नहीं है और वह अपने पेशेवर काम के लिए हाथरस गए थे. वहीं सिब्बल ने कप्पन की ओर से कहा, “मेरा इस तरह के संगठन से कोई लेना-देना नहीं है. मैं रिपोर्टिंग के लिए हाथरस गया था.”

पीठ ने सिब्बल से कप्पन के साथ कार में सवार अन्य यात्रियों के बारे में पूछा. सिब्बल ने कहा कि उनमें से एक को पहले ही जमानत मिल चुकी है. उन्होंने कहा, और पीएफआई एक आतंकवादी संगठन नहीं है. यह प्रतिबंधित संगठन भी नहीं है. उन्होंने कहा कि कई और पत्रकार भी हाथरस जा रहे थे और इसलिए वह भी गए.

वहीं उत्तर पर्देश सरकार की ओर से पेश होते हुए अतिरिक्त महाधिवक्ता गरिमा प्रसाद ने कहा कि मामले में आठ आरोपी हैं और उनमें से एक दिल्ली दंगों और दूसरा बुलंदशहर दंगों में आरोपी था. उन्होंने कहा इस केस में दो गवाहों को भी धमकाया गया और दोनों गवाह एक हलफनामा दाखिल करेंगे.

कप्पन की ओर से सुप्रीम कोर्ट में दाखित याचिका में कहा गया है कि उच्च न्यायालय के फैसले ने जमानत देने के संबंध में सिद्धांतों की पूरी तरह से अनदेखी की है, और बिना किसी ठोस कारण के, जमानत याचिका को खारिज कर दिया है. जबकि कप्पन ने दावा किया कि वह बलात्कार-हत्या की घटना पर रिपोर्ट करने के लिए हाथरस जा रहा था, यूपी पुलिस ने तर्क दिया कि उन्हें एक आतंकवादी गिरोह द्वारा समाज में अशांति फैलाने के लिए वहां जाने के लिए पैसा दिया गया था.

लखीमपुर हत्याकांड में सुप्रीम कोर्ट की योगी सरकार को फटकार, कहा- जांच से संतुष्ट नहीं!

3 अक्तूबर को उत्तर प्रदेश के लखीमपुर में हुए हत्याकांड पर सुप्रीम कोर्ट ने स्वत: संज्ञान लेते हुए मामले पर सरकार का पक्ष जानते हुए सुनवाई की. सुप्रीम कोर्ट ने लखीमपुर खीरी की घटना पर यूपी पुलिस की जांच से नराजगी जाहिर करते हुए कहा कि हम यूपी सरकार की जांच से संतुष्ट नहीं हैं. चीफ जस्टिस एनवी रमना, न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति हेमा कोहली की पीठ ने लखीमपुर मामले में केस दर्ज करने, घटना में शामिल दोषियों को सजा देने की मांग को लेकर सुनवाई की.

उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से सुप्रीम कोर्ट में पक्ष रखने के लिए अधिवक्ता हरिश साल्वे पेश हुए. साल्वे ने कोर्ट को जानकारी देते हुए कहा कि मुख्य आरोपी आशिष मिश्रा को कल 11 बजे तक पेश होने के लिए नोटिस भेजा गया है. साल्वे ने आरोप स्वीकार हुए कहा “मुझे बताया गया था कि पोस्टमार्टम में गोली के घाव नहीं दिखे हैं. इसलिए 160 सीआरपीसी के तहत नोटिस भेजा गया था. लेकिन जिस तरह से कार चलाई गई, आरोप सही हैं और 302 का मामला दर्ज किया गया है.”

इसके जवाब में चीफ जस्टिस ने कहा, “अगर कोई बुलेट इंजरी नहीं है तो भी यह गंभीर अपराध नहीं है क्या?”

चीफ जस्टिस ने यूपी सरकार पर सवाल उठाते हुए पूछा कि हत्या के मामले में आरोपी से अलग व्यवहार क्यों हो रहा है? हम एक जिम्मेदार सरकार और जिम्मेदार पुलिस देखना चाहते हैं. सीजेआई ने कहा कि अगर 302 यानी हत्या का मामला दर्ज होता है तो ऐसे हालात में पुलिस क्या करती है? सीजेआई ने पूछा कि मामले की जांच सीबीआई से करने के बारे में क्या सरकार या किसी और कि ओर से कहा गया है?

चीफ जस्टिस ने आदेश में कहा,”उत्तर प्रदेश सरकार की स्टेट्स रिपोर्ट से संतुष्ट नहीं है राज्य सरकार ने जो एक्शन लिया है इस मामले में उससे हम संतृष्ट नहीं.” साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने डीजीपी को मामले से जुड़े सभी सबूत सुरक्षित रखने को कहा.

उजड़ने के डर में जीने को मजबूर गाजियाबाद के घुमंतू परिवार, धूमिल पड़ती स्थायी आवास की आस

सड़क के किनारे अपनी बांस और तिरपाल से बनी झोपड़ी के सामने बैठे 28 साल के सन्नी कोयले की गर्म भट्टी पर काम कर रहे हैं. लोहा पीटते-पीटते सन्नी ने कहा, “हमें किसी की जरूरत थी जो हमारी परेशानियों के बारे में लिख सके और हमारी समस्या सरकार तक पहुंचा सके.”

ऊपर निर्माणाधीन मेट्रो पुल, दोनों ओर सड़क से गुजरते ट्रैफिक के शोर-गुल के बीच मुश्किल से 15 फुट चौड़े, आधा किलोमीटर लंबे कच्चे रास्ते पर 50 घुमंतू परिवार पिछले कई दशकों से अपनी झोपड़ियों में रह रहे हैं. उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद शहर के गुलडेर गेट की गली नंबर पांच के पास रहने वाले इन घुंमतू परिवारों तक पहुंचते-पहुंचते सरकार की सारी योजनाएं दम तोड़ देती हैं.

लोहा पिटते हुए सवाल पूछने के लहजे में सन्नी कहते हैं, “हम लोग पिछले कई बरसों से यहां सड़क किनारे रहते हैं. हमारा भी कोई पक्का ठिकाना होना चाहिए. हम लोग क्या ऐसे ही भटकते रहेंगे. पांच साल हो गए कहते-कहते किसी ने कुछ नहीं किया. सरकार ने कहा था कि सबको पक्के मकान मिलेंगे. पक्के मकान तो दूर हमें तो एक गज जगह भी नहीं मिली.”

कोयले की भट्टी पर काम करते हुए सन्नी लोहार

इस बस्ती में रहने वाले अधिकतर लोगों के पास आधार कार्ड और राशन कार्ड जैसे आधारभूत दस्तावेज भी नहीं हैं. करीबन 65 साल की बुजुर्ग अंगूरी ने बताया, “मेरे पास आधार कार्ड है फिर भी पेंशन नहीं चालू करते. बोलते हैं कि पता स्थायी नहीं है. अब हमारे पास न जमीन है, न घर, तो स्थायी पता कहां से लाये.” सड़क किनारे रहने वाले इन 50 परिवारों में से केवल एक बुजुर्ग महिला की पेंशन आती है वो भी दिल्ली के पते पर. वो हर बार पेंशन लेने दिल्ली जाती हैं.

सड़क किनारे खुले में रहते हुए सबसे ज्यादा परेशानियों का सामना महिलाओं को करना पड़ रहा है. लगभग 55 वर्षीय महिला शर्पी ने बताया, “नगर निगम वाले हर महीने यहां से हटने के लिए कहकर जाते हैं. यहां से हटकर हम कहां जाएंगे. सरकार को हमारा भी कोई पक्का ठोर-ठिकाना बनाना चाहिए. सरकार की ओर से हमें कोई भी सुविधा नहीं मिली है. पीने का पानी एक किलोमीटर दूर से भरकर लाते हैं. यहां औरतों के लिए शौचालय नहीं है. शौच के लिए हमें बाहर जाना पड़ता है.”    

सड़क किनारे खेलने को मजबूर मासूम बच्चे

अपने कामधंधे के बारे में सन्नी बताते हैं, “अब हमारा काम भी खत्म हो चुका है. बाजार में नये-नये डिजाइन के बर्तन आ गए हैं, लोग उनको खरीदना पसंद करते हैं. हमारे बनाए हुए लोहे के बर्तन नहीं खरीदते. हमारे कुछ परिवार लोहे का काम छोड़कर दूसरे काम में भी लग गए हैं.”

85 साल की एक बुजुर्ग महिला ने बताया, “सब आते हैं बहका-बहका कर चले जाते हैं. फोटो खींचकर, कागज बनाकर ले जाते हैं लेकिन आज तक हुआ कुछ नहीं. हम वहीं के वहीं सड़क पर पड़े हैं. हमारे साथ परिवार में लड़कियां हैं. यहां से रात-बिरात को गलत आदमी आते-जाते हैं तो डर लगता है.” एक छोटे बच्चे को गोद में लिए खड़ी महिला ने कहा,“बारिश के मौसम में सड़क का सारा पानी हमारी झोपड़ियों में भर जाता है. पानी भरने की वजह से चूल्हा तक नहीं जलता. कई बार बच्चे भूखे-प्यासे रह जाते हैं.”

वहीं इस मामले पर जब गाजियाबाद विकास प्राधिकरण के अधिकारी से फोन पर बात की तो अधिकारी ने इन परिवारों को हटाने की जानकारी नहीं होने की बात कही.

ये लोग डीएनटी (डिनोटिफाइड नोमेडिक ट्राइब्स) से आते हैं. इस समुदाय को लेकर सरकर कितनी गंभीर है इसको सरकारी बजट से समझा जा सकता है. देशभर में करीबन 15 से 20 करोड़ की डीएनटी आबादी के लिए पिछले छह साल में महज 45 करोड़ का बजट दिया गया है यानी प्रधानमंत्री की एक विदेश यात्रा के खर्च से भी कम बजट. एक ओर प्रधानमंत्री के लिए दिल्ली में करोड़ों रुपये की लागत से नया पीएम आवास बन रहा है लेकिन पीएम द्वारा खुद शुरू की गई ‘प्रधानमंत्री आवास योजना’ बेघर लोगों तक नहीं पहुंच रही है.

विमुक्त घुमंतू जनजातियों की अनदेखी करने पर योगी सरकार को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की फटकार!

उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा विमुक्त घुमंतू जनजातियों को सरकारी योजनाओं से वंचित रखने की शिकायत मिलने पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने उत्तरप्रदेश की योगी सरकार को फटकार लगाई है. राष्ट्रीय मानवधिकार आयोग ने एक शिकायत पर संज्ञान लेते हुए उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव को पत्र लिखते हुए मामले में कार्रवाई न करने पर कानूनी दंढ भुगतने की चेतावनी जारी की है. 

इस मामले में उत्तर प्रदेश के सामाजिक कार्यकर्ता मोहित तंवर ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को उत्तर प्रदेश सरकार की शिकायत की थी. मोहित ने अपनी शिकायत में सरकार द्वारा विमुक्त एवं घुमंतू जनजातियों को योजनाओं का लाभ नहीं पहुंचाने का आरोप लगाया है.

उत्तर प्रदेश में 29 जातियों को विमुक्त घुमंतू जनजाती का दर्जा प्राप्त है. फिलहाल ये जनजातियां अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़ा वर्ग में शामिल हैं. जिसके चलते इन जातियों को डीएनडी (डिनोटिफाईड ट्राईब्स) होने का लाभ नहीं मिल पा रहा है.

इन जनजातियों को अब तक विमुक्त घुमंतू जाति के प्रमाणपत्र जारी नहीं किये गए हैं. जाति प्रमाण पत्र न होने के कारण इन जनजातियों को सरकारी योजनाओं का कोई लाभ नहीं मिल रहा है और इस समाज के बच्चे शिक्षा के अधिकार से भी वंचित हैं. 

इन लोगों को न केवल उत्तर प्रदेश सरकार की योजनाओं का बल्कि केंद्र सरकार की योजनाओं का भी लाभ नहीं मिल पा रहा है. डीएनटी प्रमाण पत्र बनाने की मांग को लेकर कईं सामाजिक संगठन लगातार मांग कर रहे हैं.

यहां तक कि इससे पहले केंद्र सरकार का सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय भी इस संबंध में राज्य सरकार को तीन पत्र लिख चुका है लेकिन उसके बाद भी उत्तर प्रदेश सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया. बता दें कि उत्तर प्रदेश में विमुक्त एवं घुमंतू जनजातियों की सबसे ज्यादा 6 करोड़ आबादी है.

राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग ने उत्तर प्रदेश के प्रमुख सचिव से इस मामले में दो हफ्ते के भीतर विमुक्त जातियों को जाति प्रमाण पत्र जारी करने का कड़ा निर्देश देते हुए फटकार लगाई है.

दरअसल उत्तर प्रदेश सरकार ने विमुक्त जातियों को मिलने वाली योजनाओं के लाभ को अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के साथ मिला रखा है. ऐसे में अगर विमुक्त घुमंतू जनजाति का कोई अभ्यर्थी दावेदार नहीं मिलता है तो उनके बजट का पूरा लाभ अपने आप अनुसूचित जातियों के खाते में ट्रांसफर हो जाता है.विमुक्त जाति के प्रमाण पत्र के अभाव में विमुक्त जाति के विद्यार्थी एवं अभ्यर्थी अपने हक का दावा नहीं कर पा रहे हैं. 

सामाजिक कार्यकर्ता मोहित तंवर ने गांव-सवेरा से बात करते हुए कहा,” घुमंतू एवं विमुक्त जनजातियां आजादी के 5 साल बाद 1952 तक भी गुलामी का दंश झेलती रहीं. 1857 की क्रांति में इन जनजातियों ने अंग्रेजी सरकार के खिलाफ अपना लोहा मनवाया था. जिसके चलते 1971 में अंग्रेजी सरकार ने इन जनजातियों पर क्रिमिनल ट्राईब एक्ट लगाकर दबाने की कोशिश की. आज ये जनजातियां मुख्यधारा से कटी हुईं हैं. सरकारों की ओर से इनके उत्थान के लिए बड़ी-बड़ी घोषणाएं की गईं लेकिन घोषणाओं पर कोई अमल नहीं हुआ. हम चाहते हैं कि सरकार इऩ जनजातियों के साथ न्याय करें और विमुक्त एवं घुमंतू जनजातियों को मुख्यधारा से जोड़ने का काम करे.