किसान नेताओं के खोरी गांव पंचायत में पहुंचने से पहले लाठीचार्ज,छात्र नेता समेत कईं लोगों को पुलिस ने किया गिरफ्तार!

सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर फरीदाबाद प्रशासन खोरी गांव के 10 हजार गरीब परिवारों के घर ढहाने की प्रकिया में जुटा है. इस बीच खोरी गांव के लोगों को किसान आंदोलन का भी समर्थन मिला है.किसान नेताओं ने घर ढहाए जाने के डर से परेशान खोरी गांव को लोगों के समर्थन में पंचायत बुलाई. किसान नेता गुरनाम सिंह चढ़ूनी और सुरेश कौथ के खोरी गांव की पंचायत में पहुंचने से पहले ही पुलिस ने पंचायत के लिए इकट्ठा हुए लोगों पर लाठीचार्ज कर दिया. पुलिस ने लाठीचार्ज के दौरान भगत सिंह एकता छात्र मंच के कईं छात्रों समेत इंकलाबी मजदूर संगठन के संजय मोर्य और एक पत्रकार को भी गिरफ्तार कर लिया है. 

खोरी गांव के एक नौजवान ने बताया, “पंचायत में शामिल होने के लिए गांव के सभी लोग अंबेडकर मूर्ति के पास इकट्ठा हुए थे. पुलिसवाले आए और बोले कि यहां धारा 144 लगी है सभी यहां से अपने-अपने घर जाओ. गांव के लोगोंं की ओर से विरोध करने पर पुलिस ने लोगों पर लाठीचार्ज कर दिया.”

वहीं गांव की एक महिला ने कहा, “लोगों के घर तोड़े जा रहे हैं ऐसे में क्या हम लोग प्रदर्शन भी न करें. पुरूष पुलिसवाले ने औरतों को मारा है. लड़कियों को खींच कर ले गए. गांव में कल रात से बिजली, पानी की सप्लाई बंद कर रखी है.महिलाएं दो-दो किलोमीटर पैदल चलकर पीने का पानी लेकर आर रही हैं.प्रशासन के लोग हमें परेशान करके यहां से भगाना चाहते हैं.हम लोगों पर बहुत जुल्म किया जा रहा है. आखिर हम लोग कहां जाएं.”     

खोरी गांव की पंचायत में पहुंचे किसान नेता सुरेश कौथ ने गांव सवेरा की टीम से बात करते हुए कहा,“ खोरी गांव कोई पहला गांव नहीं है जहां से लोगों को हटाया जा रहा है, इससे पहले भी बहुत जगह से लोगों को हटाया गया है. लेकिन लोगों को हटाने से पहले पूनर्वास की व्यवस्था की जाती रही है. हम मांग करते हैं कि अगर सरकार को इन लोगों को यहां से हटाना है तो पहले इन लोगों के पूनर्वास की व्यवस्था की जाए, वरना इन लोगों को यहां से नहीं हटाने दिया जाएगा.” वहीं लाठीचार्ज के दौरान गिरफ्तार किए गए लोगों पर किसान नेता सुरेश कौथ ने कहा, “हमारी मांग है खोरी गांव के जो भी साथी गिरफ्तार किए गए हैं उनको जल्द-से-जल्द छोड़ा जाए. आखिर सरकार और प्रशासन कितने लोगों को मारेंगे, क्या सरकार अपने हकों के लिए लड़ने वाले पूरे हरियाणा के लोगों को मार देगी.”

किसान नेता गुरनाम सिंह चढ़ूनी ने खोरी गांव के लोगों के घर गिराए जाने के फरमान की निंदा करते हुए पूरे हरियाणा और देश की जनता से खोरी गांव के लोगों का साथ देने की अपील की. 

बता दें कि इन घरों को हटाने के पीछे सुप्रीम कोर्ट ने खोरी गाँव के वन विभाग की ज़मीन पर गैर क़ानूनी तरीके से बसे होने की दलील दी है. कई सामाजिक संगठनों ने मिलकर इस मामले में पुनर्विचार याचिका भी दायर की थी मगर सुप्रीम कोर्ट ने उसको खारिज करते हुए 6 हफ्तों के भीतर प्रशासन को गाँव खाली करवाए जाने के आदेश दिया है.

शिक्षण संस्थान खोेलने को लेकर छात्रों का प्रदर्शन, मांगें नहीं माने जाने पर दी आंदोलन की चेतावनी!

उच्च शिक्षण संस्थानों को खोलने के लिए छात्र देशभर में विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. एमडीयू, रोहतक के छात्रों ने भी यूनिवर्सिटी खोले जाने को लेकर प्रदर्शन किया. छात्र एकता मंच (हरियाणा) ने शिक्षण संस्थानों को पूर्ण रूप से खोले जाने की मांग करते हुए सरकार और यूनिवर्सिटी प्रशासन के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया. 

छात्रों ने हरियाणा सरकार और प्रशासन के खिलाफ नारेबाजी करते हुए यूनिवर्सिटी के गेट नंबर 2 से लेकर वीसी ऑफिस तक रोष मार्च निकाला. विरोध प्रदर्शन और मार्च का संचालन छात्र एकता मंच (हरियाणा) की राज्यसचिव मनीषा ने किया.

ऑनलाइन शिक्षा के खिलाफ बोलते हुए छात्र एकता मंच के जिला सचिव नरेश कुमार ने कहा,“ऑनलाइन शिक्षा के कारण शिक्षा एक बड़ी छात्र आबादी की पहुंच से बाहर होती जा रही है. एमडीयू यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले अधिकतर छात्र गांव-देहात से आते हैं. आज गांव में इंटरनेट की समस्या है और आधे से ज्यादा लड़कियों के पास स्मार्टफोन तक नहीं है जिसके कारण ऑनलाइन क्लास के चलते छात्र शिक्षा से वंचित हो रहे हैं.”

वहीं संगठन के सदस्य नवनीत ने कहा,“आज विद्यार्थियों को अपने हकों की लड़ाई लड़ते हुए किसान आंदोलन में भी अपनी भागीदारी देनी चाहिए और यह भागीदारी हम तभी दे सकते हैं जब हम कॉलेज यूनिवर्सिटी को खोलने के लिए संघर्ष तेज करेंगें और अपने हकों की लड़ाई लड़ेंगें. आज समाज में जरूरत है कि सभी तबके एक साथ इकट्ठा होकर सरकार द्वारा लाई गई जन विरोधी नीतियों का विरोध करें. जब तक सभी वर्ग एक साथ इकट्ठा होकर संघर्ष नहीं करेंगें तब तक हम सरकार की जन विरोधी नीतियों को वापिस नहीं करा पाएंगे.”

छात्र एकता मंच के सदस्य अमनप्रीत विद्यार्थी ने कहा, “करोना महामारी के दौरान जिम, मार्केट, मॉल आदि सब कुछ खुल चुके हैं, लेकिन सरकार ने कॉलेज, यूनिवर्सिटी को बंद कर रखा है.”

इस मामले पर सामाजिक कार्यकर्ता हरवीर सिंह राठी ने कहा, “इस देश की सरकारों ने शिक्षा व्यवस्था को पूरी तरह तबाह कर दिया है. सरकार की जनविरोधी नीतियों के कारण शिक्षा आम आदमी की पहुंच से बाहर होती जा रही है.”

छात्रों ने रजिस्ट्रार को सौंपे ज्ञापन में सभी शिक्षण संस्थानों को तुंरत प्रभाव से खोले जाने की मांग की. कॉलेज और यूनिवर्सिटी के साथ सभी होस्टलों को भी खोले जाने तकी मांग की ताकि विद्यार्थियों को पढ़ाई करने में आसानी हो. कोरोना महामारी के चलते लोगों के आर्थिक हालात ठीक नहीं हैं ऐसे में नए सत्र में सभी छात्र-छात्राओं को मुफ्त दाखिला दिया जाए. परीक्षाएं ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों माध्यम से ली जाएं. वहीं मांगें नहीं माने जाने पर छात्रों ने बड़ा आंदोलन करने की भी चेतावनी दी.

किसान आन्दोलन से दूरी क्यूं बनाए हुए है अहीरवाल

26 नंवबर 2020 को जब किसान दिल्ली की सीमाओं पर पहुंचे तो उनकी योजना थी कि दिल्ली को चारों तरफ़ से घेरा जाए ताकि सरकार पर ज़बरदस्त दबाव बनाया जा सके.

सिंघु, टिकरी और ग़ाज़ीपुर बॉर्डर घेरने में तो किसान सफ़ल रहें. मगर दिल्ली का गुडगाँव की तरफ़ सरहौल गाँव के नज़दीक लगने वाला बॉर्डर किसान नहीं घेर पाए. ये बॉर्डर मुख्यतः दिल्ली को जयपुर से जोड़ने वाले नेशनल हाईवे नम्बर 8 पर पड़ता है. किसानों द्वारा दिल्ली – गुडगाँव बॉर्डर न घेर पाने के पीछे मुख्य कारण था अहीरवाल.

दक्षिणी हरियाणा के तीन ज़िलों गुडगाँव, रेवाड़ी और महेंद्रगढ़ को मिलाकर बने क्षेत्र को अहीरवाल बोला जाता है. हालांकि अहीरवाल में कुछ क्षेत्र राजस्थान के अलवर ज़िले का भी आता है जिसमें बहरोड़, तिजारा, कोटकासिम आदि मुख्य रूप से शामिल है.

अहीरवाल बोले जाने के पीछे कारण है इस इलाक़े में अहीर (यादव) जाति के लोगों की सबसे अधिक आबादी होना. हरियाणा की राजनीति में जाति के आधार पर क्षेत्रों का नाम रखे जाने की परंपरा काफ़ी प्रचलित है जैसे जाटलैंड, अहिरवाल आदि.

हरियाणा के कुल क्षेत्रफ़ल का लगभग 10.74 प्रतिशत भू भाग अहीरवाल में पड़ता है. वहीँ अगर जनसंख्या की बात करें तो समूचे प्रदेश की लगभग 11.70 प्रतिशत आबादी अहीरवाल में निवास करती है.

अहीरवाल की राजनैतिक ताक़त

अहीरवाल के तीनों ज़िलों को मिलाकर वहां 11 विधान सभा सीटें पड़ती हैं. गुडगाँव में 4, रेवाड़ी में 3 और महेंद्रगढ़ में 4 सीटें आती है.

इसके अलावा अगर लोकसभा सीटों की बात करें तो अहीरवाल में मुख्य रूप से 2 सीटें आती है. गुडगाँव और भिवानी – महेंद्रगढ़ सीट. इनमें से गुडगाँव सीट पर अहीरवाल के लोगों का सीधा हस्तक्षेप रहता है वहीँ भिवानी- महेंद्रगढ़ सीट पर आंशिक रूप से उनका प्रभाव रहता है.

पहले महेंद्रगढ़ अपने आप में अलग और अहीरवाल की इकलौती लोक सभा सीट हुआ करती थी. साल 2008 में परीसीमन के बाद महेंद्रगढ़ और भिवानी को मिलाकर एक लोक सभा सीट बना दी गई वहीँ गुडगाँव को अलग लोक सभा सीट बना दिया गया.

इन सब से इतर अहीरवाल की सामाजिक और राजनीतिक पहचान यहाँ के रेवाड़ी राजघराने से भी रही है. रेवाड़ी के राजा राव तुलाराम ने 1857 की क्रान्ति में अंग्रेज़ी हुकूमत के ख़िलाफ़ अहीरवाल क्षेत्र के नसीबपुर गाँव में लड़ाई लड़ी थी. हालांकि वो इस युद्ध को जीत नहीं पाए और 23 सितम्बर 1863 को उनकी मृत्यु हो गई. हर वर्ष हरियाणा सरकार 23 सितम्बर को राव तुलाराम के शहीदी दिवस के रूप में मनाती है.

आज़ादी के बाद रेवाड़ी राजघराना चुनावी राजनीति में आ गया और यहाँ उसे रामपुर हाउस के नाम से जाना जाने लगा. रामपुर रेवाड़ी में राव तुलाराम का पैतृक गाँव है. राव तुलाराम के पहले राजनीतिक वंशज हुए राव बिरेंदर सिंह. राव बिरेंदर सिंह हरियाणा – पंजाब के बंटवारे के बाद हरियाणा के पहले निर्वाचित मुख्यमंत्री बने. हालांकि वो ज्यादा दिन टिक नहीं पाए और केवल 241 दिन बाद ही उनकी सरकार गिर गई.

राव बिरेंदर सिंह दोबारा कभी हरियाणा के मुख्यमंत्री नहीं बन पाए और तब से लेकर आजतक अहीरवाल के राजनीतिक गलियारों में इस इलाक़े से प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने का सपना कई नेताओं के दिलों में बरकरार है. इलाक़े के कुछ लोग भी ये चाह रखते हैं.

राव बिरेंदर सिंह के बाद रामपुर हाउस की कमान आई उनके सबसे बड़े बेटे राव इंद्रजीत सिंह के पास जो कि वर्तमान में गुडगाँव से भाजपा की टिकट पर सांसद है. प्रदेश में सरकार किसी की भी रही हो मगर अहीरवाल में हमेशा रामपुर हाउस का ही दबदबा रहा है. इस समय राव इंद्रजीत सिंह अहीरवाल के सबसे बड़े नेता है और पिछले 40 सालों से लगातार राजनीति में बने हुए हैं.

किसान आन्दोलन में अहीरवाल के शामिल न होने के प्रमुख कारण

दिल्ली से सटे हरियाणा के सभी इलाक़ों में किसान आन्दोलन की मज़बूत पकड़ है. चाहे आप दिल्ली से सटे बहादुरगढ़ – रोहतक बॉर्डर को देख लीजिए, सोनीपत- कुंडली बॉर्डर को देख लीजिए या फिर गाज़ीपुर बॉर्डर को देख लीजिए. मगर इन सब में एक अपवाद है दिल्ली- गुडगाँव बॉर्डर जहाँ आपको किसान आन्दोलन का जरा सा भी असर देखने को नहीं मिलेगा. ऐसा क्यों है कि किसान आन्दोलन को लेकर अहीरवाल के लोगों में किसी प्रकार का कोई उत्साह नहीं है, इसको विस्तार से समझतें हैं.

अहीरवाल में बाकी हरियाणा के किसानों के मुक़ाबले कम ज़मीन होना

रेवाड़ी ज़िले के 55 वर्षीय किसान रविंदर 1.5 एकड़ भूमि पर खेती करते हैं. उनसे जब हमने किसान आन्दोलन के बारे में पुछा तो उन्होंने कहा, “ देखो जी हमारी साइड तो लोगों के पास ज़मीन ही बहुत कम बची है. ज्यादातर 1-2 कीले वाले किसान हैं. हमारी खेती से कोई मोटी कमाई तो होती नहीं इसलिए हम इस लफड़े में नहीं पड़ेंगे.”

किसान रविंदर की कम ज़मीन वाली बात की तस्दीक करने के लिए हमने हरियाणा सरकार के सरकारी रिकॉर्ड को खंगाला. रिकॉर्ड इस बात की पुष्टि करता है कि अहीरवाल क्षेत्र में प्रति परिवार ज़मीन की दर हरियाणा के बाक़ी इलाक़ों से कम है.

नीचे टेबल के माध्यम से दिए गए डाटा पर आप नज़र डालेंगे तो पाएँगे कि अहीरवाल में पड़ने वाले तीन प्रमुख ज़िलों– रेवाड़ी, गुडगाँव, महेन्द्रगढ़ के परिवारों के पास हरियाणा के अन्य ज़िलों की तुलना में ज़मीनें कम हैं.

हरियाणा के जिन ज़िलों में किसान आन्दोलन का सबसे ज्यादा असर देखने को मिल रहा है, उनमें से केवल सोनीपत और पानीपत ऐसे ज़िले हैं जहाँ प्रति परिवार ज़मीन की दर अहीरवाल के तीनों ज़िलों से कम है, बाक़ी हर ज़िले में ये दर अहीरवाल से ज़्यादा है.

Landholdings as per Agricultural Census 2010 -11.

DistrictOverall Average (In Hectare)Less than 1 Hectare (In Percentage)More than 10 Hectare (In Percentage)
Gurgaon1.656.21.2
Rewari1.852.51.9
Mahendergarh1.851.42
Hisar3.036.04.7
Bhiwani3.039.05.0
Rohtak2.447.42.4
Jhajjar2.147.82.4
Jind2.640.94.1
Kaithal2.843.94.9
Kurukshetra2.746.24.3
Karnal2.4746.73.5
Sonipat1.3562.60.9
Sirsa2.837.23.9
Panipat1.562.21.1
Fatehabad2.437.73.0

वैसे तो इन कृषि कानूनों का असर छोट-बड़े सभी किसानों पर पड़ेगा लेकिन सबसे अधिक प्रभावित होंगे बड़े किसान परिवार जिनके पास ज़मीन भी ज्यादा है और जिनकी कमाई का एक बड़ा हिस्सा खेती से आता है.

अहीरवाल में पूरी तरह से खेती पर निर्भर परिवार बहुत कम है

दरअसल पानी की क़िल्लत और कम ज़मीन होने के कारण अहीरवाल क्षेत्र के लोग खेती के अलावा दूसरे व्यवसायों में अधिक हैं. यहाँ के लोग नौकरी-पेशा में अधिक विश्वास रखते हैं. इसके पीछे एक बड़ा कारण अहीरवाल का औद्योगीकरण भी है. गुडगाँव और रेवाड़ी जिलें के कई क्षेत्र ओद्योगिक हब के रूप में बनकर उभरे हैं. जहाँ लगभग पूरा गुडगाँव ज़िला एक आधुनिक शहर में बदल गया वहीं रेवाड़ी ज़िले के बावल और धारूहेड़ा जैसे कस्बों में बड़ी- बड़ी कम्पनियां लग गई हैं. इसलिए लोग खेती छोड़कर प्राइवेट धंधो की तरफ़ ज़्यादा जा रहे हैं. यहाँ लगभग परिवारों में खेती आमदनी का दूसरा साधन बन गई है, मुख्य कमाई नौकरी पेशे से आ रही है.

अहीरवाल में भूमिगत जल की भारी क़िल्लत होना

महेंद्रगढ़ ज़िले के गाँव बुडीन निवासी पीयूष बताते है कि, “मेरे गाँव में 80 प्रतिशत कुओं का पानी सूख चुका है. गाँव में केवल एक तिहाई खेती की ही सिंचाई हो पाती है बाक़ी सब बारिश पर निर्भर है. लोगों ने गेहूँ बोना छोड़ दिया है.”

पीयूष ने ये भी बताया कि उनके इलाक़े में कहीं-कहीं नहरें तो आईं, मगर उनमें पानी समय पर नहीं आता. लोग अपने एक कुएं से नाली दबाकर दूर-दूर तक खेतों में पानी ले जाने को मज़बूर हैं.

ज़िला रेवाड़ी के गाँव कुंडल निवासी बिक्रम सिंह 4 एकड़ की खेती करतें हैं. उन्होंने गाँव सवेरा को बताया कि, “हमारे गाँव में ऐसे–ऐसे किसान हैं जो 2-3 बार बोरिंग कर चुके हैं मगर कुए में पानी नहीं लगा. जिसके यहाँ लगा भी है उसका 1-2 साल के अंदर सूख गया. हम खेती करें तो भी मरे न करे तो भी मरे.”

रेवाड़ी के ही गाँव टिंट के रहने वाले रामकिशन के पास बोरिंग मशीन है. वो कहते हैं कि, “एक बार बोरिंग करवाने का ख़र्च लगभग 1 लाख रूपए आता है. ऊपर से डार्क ज़ोन होने की वजह से कुएं के लिए नया बिजली कनेक्शन नहीं मिलता. किसी का ठप हुए कुएं का कनेक्शन आप अपने नाम करवा सकतें हैं. उसके लिए भी लोग मनमाना पैसा वसूलतें हैं क्योंकि नए कनेक्शन न मिलने के कारण पुराना कनेक्शन ख़रीदना लोगों की मज़बूरी है.” 

वैसे तो हरियाणा के लगभग सभी ज़िलों में भूमिगत जल का स्तर लगातार तेज़ी से गिर रहा है. साल 2017 में आई राज्य सरकार की रिपोर्ट के मुताबिक, हरियाणा के कुल 128 ब्लॉक  में से 78 ब्लॉक “डार्क ज़ोन” की श्रेणी में चिन्हित किए गए हैं. डार्क ज़ोन उस इलाक़े को कहा जाता है जहाँ 100 प्रतिशत से भी अधिक भूमिगत जल का दोहन हो रहा हो.

अहीरवाल के तीनों ज़िलों को मिलाकर यहाँ 14 ब्लॉक पड़ते हैं. इन 14 ब्लॉक्स में से ज़िला रेवाड़ी के जाटूसाना ब्लॉक को छोड़कर बाक़ी सभी 13 ब्लॉक्स डार्क ज़ोन की श्रेणी में आते हैं. केन्द्रीय जल शक्ति मंत्रालय की वेबसाइट के मुताबिक़ इन 13 ब्लॉक्स में भूमिगत जलस्तर काफ़ी तेजी से नीचे जा रहा है और यहाँ तुरंत जल संरक्षण पर काम करने की आवश्यकता है.

सतलुज-यमुना लिंक नहर (SYL) की मांग

पूरे हरियाणा प्रदेश में अगर कहीं SYL नहर को लेकर सबसे अधिक चुनावी राजनीति होती है तो वो दक्षिणी हरियाणा का अहीरवाल क्षेत्र ही है. चूँकि ये इलाक़ा लगभग पूर्ण रूप से डार्क ज़ोन में आता है इसलिए सतलुज-यमुना लिंक नहर (SYL) यहाँ के लोगों के लिए बाक़ी हरियाणा की तुलना में सबसे अधिक मायने रखती है.

20 दिसंबर 2020 को भाजपा ने महेंद्रगढ़ ज़िले के नारनौल में SYL मुद्दे को लेकर जल अधिकार रैली का आयोजन किया था. राजनीतिक जानकार मानते हैं कि इसके पीछे भाजपा का मकसद था कि अहीरवाल से किसान आन्दोलन के समर्थन में मांग न उठे और SYL के मुद्दे पर अहीरवाल के किसानों और अन्य क्षेत्र के किसानों के बीच तकरार बनी रहे.

हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने जल अधिकार रैली को संबोधित करते हुए कहा था कि, “जो किसान कृषि कानूनों का विरोध कर रहे हैं उनको अपने एजेंडा में SYL की मांग भी रखनी चाहिए और केंद्र सरकार से इस बारे में बात करनी चाहिए.”

पंजाब सरकार पर निशाना साधते हुए खट्टर ने कहा था कि, “पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह सुप्रीम कोर्ट द्वारा हरियाणा के पक्ष में फ़ैसला दिए जाने के बावजूद इसपर कोई कार्रवाई नहीं कर रहे हैं.”

महेंद्रगढ़ ज़िले के छाजीवास गाँव के रहने वाले तेजपाल का कहना है कि, “भाजपा सरकार ने स्वयं SYL के मुद्दे पर अहीरवाल के लोगों के साथ धोखा किया है. जिस वक्त सुप्रीम कोर्ट से SYL को लेकर हरियाणा के पक्ष में फ़ैसला आया उस समय केंद्र, पंजाब, हरियाणा – तीनों जगह भाजपा की सरकार थी, फिर भी भाजपा ने SYL का निर्माण नहीं करवाया.”

तेजपाल के अनुसार SYL केवल एक राजनीतिक मुद्दा बनकर रह गया है और कोई भी पार्टी इस मुद्दे को लेकर गंभीर नज़र नहीं आती.  

अहीरवाल में किसान यूनियनों का मज़बूत न होना

भारतीय किसान यूनियन (चढुनी) के ज़िला प्रधान समय सिंह कहतें हैं, “ मैं साल 2010 से गुरनाम सिंह चढुनी जी की किसान यूनियन से जुड़ा हुआ था और उस समय जाटूसाना ब्लॉक का प्रधान था. हमने ख़ूब कोशिश की अहीरवाल के किसानों को जोड़ने की मगर यहाँ के नेता राव इंद्रजीत सिंह के प्रभाव के कारण लोग किसी भी तरह से उनके ख़िलाफ़ आवाज़ नहीं उठाते. उसके बाद हमारी यूनियन एक तरीके से निष्क्रिय हो गई.”

समय सिंह ने ये भी बताया कि देशभर में किसान आन्दोलन की शुरुआत के बाद उन्होनें  दोबारा से अहीरवाल में किसान यूनियन को सक्रीय किया है. अब उनके संगठन का विस्तार हो रहा है और उन्होनें लगभग 50 लोगों की एक सक्रीय टीम तैयार कर ली है जो किसानों के मुद्दों पर लगातार आवाज़ उठा रही है.

जय किसान आन्दोलन की रेवाड़ी इकाई से जुड़े राजबीर सिंह का कहना है कि, “अहीरवाल में कभी भी किसानों के नाम पर राजनीति नहीं हुई. यहाँ से चौधरी छोटू राम या चौधरी देवी लाल जैसे किसान नेता भी नहीं निकले. यहाँ तो सामंती व्यवस्था है जिसमें रामपुर हाउस पहले भी राज करता था और आज भी कर रहा है.”

राजबीर ने आगे जोड़ते हुए कहा, “2014 में मोदी लहर के दौरान समूचे देश ने सत्ता परिवर्तन किया था मगर अहीरवाल ने नहीं. यहाँ सिर्फ़ पार्टी और झंड़े बदले चेहरे आज भी वही है. जबतक इस इलाक़े के लोग रामपुर हाउस की सामंती व्यवस्था को नहीं तोड़ते, अहीरवाल का विकास नहीं हो सकता.”

गाँव राजपुरा से किसान रोहतास सिंह कहते हैं, “हमारे यहाँ किसान यूनियनें बिलकुल भी सक्रीय नहीं है. यूनियनों में चाहिए पैसा, कम जोत होने के कारण यहाँ के किसानों के पास इतना पैसा नहीं है कि वो यूनियन को दे सकें.” 

किसान यूनियनों के मज़बूत न होने के कारण अहीरवाल के किसानों तक कृषि कानूनों का केवल वही पक्ष पहुंचा है जो सरकार पहुँचाना चाहती है. अधिकतर किसानों को इन कृषि कानूनों के बारे में पूरी जानकारी ही नहीं है. 

अहीरवाल vs जाटलैंड

अहीरवाल में एक लंबे अरसे से इस इलाक़े की बाक़ी हरियाणा और ख़ासकर जाट बहुल इलाक़ों के विकास से तुलना होती रही है. अहीरवाल के राजनेता और लोग इस बात को ज़ोर देकर कहतें हैं कि उनके इलाक़े और जाट बहुल इलाक़ों में विकास के नाम पर भेदभाव हुआ है. अधिकतर लोग इसके पीछे हरियाणा की जाट केंद्रित राजनीति को ज़िम्मेदार मानते हैं.

विधान सभा चुनावों में भाजपा ने अहीरवाल में इसको एक मुख्य चुनावी मुद्दा बनाया था. भाजपा के नेता उनकी सरकार आने पर क्षेत्रवाद और नौकरियों में पक्षपात खत्म करने का वायदा लेकर अहीरवाल के चुनावी मैदान में उतरे थे.

खोल गाँव से समाज सेवक और पेशे से प्राइवेट अध्यापक हेमंत शेखावत कहते हैं, “अहीरवाल में ये आम धारणा है कि इस इलाक़े को सभी सरकारों ने अनदेखा किया है. सरकारी नौकरियों में भी जाट बहुल इलाक़ों के लोगों को अधिक महत्व दिया जाता रहा है. भाजपा ने इसी को चुनावी मुद्दा बनाकर यहाँ चुनाव लड़ा और जीत हासिल की.”

गाँव राजपुरा से 62 वर्षीय किसान रामेश्वर का कहना है, “किसान आन्दोलन कुछ नहीं है, यहाँ सारा रोला चौधर का है. जो जाटलैंड है वहां के लोग कांग्रेस के साथ है और वो नहीं चाहते कि दक्षिणी हरियाणा में कुछ काम हो. वो लोग अपनी चौधर चाहते हैं और हमें उनकी चौधर नहीं चाहिए.”

जब से किसान आन्दोलन शुरू हुआ है तब से हरियाणा में भाजपा और जेजेपी के कोई भी कार्यक्रम किसान नहीं होने दे रहें हैं. वहीँ दूसरी और अहीरवाल में भाजपा और जेजेपी बिना किसी विरोध के बड़ी आसानी से अपने सभी कार्यक्रम कर रही है. नारनौल में भाजपा की जल अधिकार रैली, जेजेपी के दुष्यंत चौटाला का रेवाड़ी में भीम राव आंबेडकर जयंती पर होने वाला कार्यक्रम इसके उदाहरण है.

अहीरवाल की राजनीति से खेती-किसानी का गायब रहना

रेवाड़ी दैनिक भास्कर ब्यूरो चीफ अजय भाटिया का कहना है कि अहीरवाल के इतिहास में कोई ऐसा नेता नहीं हुआ जो खेती-किसानी को लेकर मुखर रहा हो. उनके अनुसार अहीरवाल की राजनीति कभी भी किसानों के मुद्दों पर केंद्रित नहीं रही और यही सबसे बड़ा कारण है कि यहाँ के लोग वर्तमान किसान आन्दोलन से दूरी बनाए हुए हैं.

भाटिया ने बताया कि जिस तरह से हरियाणा के बाक़ी इलाक़ों में चौधरी देवीलाल, चौधरी छोटू राम आदि नेताओं की पुराने समय से ही खेती-किसानी वाली राजनीति करने की पहचान रही है, वैसा कोई नेता कभी अहीरवाल में नहीं हुआ.

भाटिया कहतें है, “अहीरवाल की गिनती हमेशा शांत इलाक़ों में होती है. हरियाणा जितना उत्तेजित माना जाता है, अहीरवाल कभी भी उतना उत्तेजित नहीं होता. यहाँ के लोग अपनी मांगों को लेकर कभी भी अड़ियल रुख़ नहीं अपनाते. सत्ता के लिहाज से अहीरवाल में किसी के लिए भी राज करना बाक़ी हरियाणा के मुक़ाबले काफ़ी आसान होता है.”

इन तमाम कारणों के अलावा राव इंद्रजीत सिंह का राजनीतिक विकल्प न होना भी लोगों को काफ़ी खलता है. रेवाड़ी के किसान अमीलाल ने गाँव सवेरा से बातचीत में कहा, “हमारे यहाँ लीडर की भी कमी है. हम किसान आन्दोलन में जाए भी तो किसकी अगुवाई में?. राव इंद्रजीत सिंह को हमने इसलिए वोट दिया क्योंकि वो भाजपा से चुनाव लड़े, अन्यथा हम उनको वोट नहीं देते.”

अहीरवाल क्षेत्र में भाजपा की मज़बूत पैंठ

राव इंद्रजीत सिंह पहले कांग्रेस में हुआ करते थे लेकिन 2014 के लोकसभा चुनावों में उन्होंने भाजपा का दामन थाम लिया. उसके बाद वो 2 बार भाजपा की टिकट पर लड़ते हुए गुडगाँव से लोकसभा पहुंचे हैं.

2014 के विधान सभा चुनावों में अहीरवाल क्षेत्र ने भाजपा को ज़बरदस्त मज़बूती देने का काम किया. अहीरवाल की जनता ने सभी 11 सीटें भाजपा की झोली में डाल दी. यही नहीं इलाक़े में पड़ने वाले 2 लोकसभा सीटों पर भी भाजपा ने जीत दर्ज़ की.

2019 के विधान सभा चुनावों में भी अहीरवाल ने भाजपा को 11 में से 9 सीटें पर जीत का तोहफ़ा दिया. साथ ही 2019 के लोकसभा चुनावों में इलाक़े की दोनों सीटें भाजपा के खाते में गई.

2014 से पहले भाजपा अहीरवाल में कभी इतनी मज़बूत स्तिथि में नहीं रही जितनी वो आज नज़र आती है. चुनावी राजनीति के लिहाज से देखा जाए तो लगभग पिछले एक दशक में अहीरवाल भाजपा का मज़बूत क़िला बनकर उभरा है.

शाहजहांपुर बॉर्डर पर चल रहे किसान धरने की सीमा रेवाड़ी से लगती है. 26 जनवरी को लाल किले पर हुई घटना के बाद रेवाड़ी ज़िले के लोगों ने इस धरने का विरोध करना शुरू कर दिया था.

यही नहीं, शाहजहांपुर धरने से किसानों का एक जत्था बैरिकेड तोड़कर रेवाड़ी की सीमा में मसानी गाँव के नज़दीक जा पहुंचा था. स्थानीय लोगों ने उस जत्थे को भी 26 जनवरी की घटना के बाद वहां से हटने पर मज़बूर कर दिया, जिसके बाद वो जत्था वापस शाहजहांपुर बॉर्डर आ गया था. किसानों के विरोध का ये पूरा प्रकरण लोकल भाजपा कैडर के इशारों पर हुआ था.   

ये तमाम राजनितिक, सामाजिक और आर्थिक कारण है जिनकी वजह से हरियाणा का एक बड़ा हिस्सा – अहीरवाल न केवल किसान आन्दोलन से दूरी बनाए हुए है बल्कि समय-समय पर आन्दोलन के प्रति विरोधी रणनीति भी अपनाए हुए है. 

खोरी गांव में मजदूरों के घर ढहाए जाने पर बरसे किसान नेता, खोरी में पंचायत करने का किया एलान

फरीदाबाद के सुरजकुंड से सटी अरावली की पहाड़ियों के पास बसे खोरी गांव के 10 हजार मजदूर परिवारों के घर उजड़ने की कगार पर हैं. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद प्रशासन इन घरों को हटाने की जुगत में है. घर गिराए जाने के नोटिस से परेशान खोरी गांव के लोग किसान आंदोलन के नेता गुरनाम सिंह चढ़ूनी के पास पहुंचे. गुरनाम सिंह चढ़ूनी ने इन परिवारों का साथ देने की बात कही. किसान नेता चढ़ूनी ने गरीब परिवारों के घर ढहाए जाने के फरमान के खिलाफ खोरी गांव में पंचायत बुलाने का एलान किया. साथ ही किसान नेता चढूनी ने पूरे हरियाणा और देश की जनता से खोरी गांव के लोगों का साथ देने की भी अपील की.   

खोरी गांव में मजदूरों के घर ढहाए जाने के आदेश पर गुरनाम सिंह चढूनी ने सरकार पर निशाना साधते हुए कहा, “क्या खोरी गांव की उसी जमीन पर जंगल बनाना जरूरी है जहां पिछले कईं दशकों से लोग रह रहे हैं, क्या खाली पड़ी जमीनों पर जंगल नहीं बनाए जा सकते, जब कॉलोनी काटी जा रही थी, लोग अपने मकान बना रहे थे तब सरकार और प्रशासन कहां था.”

किसान नेता गुरनाम सिंह चढूनी ने कहा सरकार को चेतावनी देते हुए कहा, “जहां लोग रह रहे हैं उनको वहां से उजाड़कर उसी जगह पर पेड़ लगाना कौन-सा कानून है. सरकार को हमारी चेतावनी है कि इन लोगों को वहां से न हटाया जाए. अगर हटाना है तो सरकार पहले इन लोगों को दूसरी जगह मकान बनाकर दिए जाएं वरना इन परिवारों को हटाने का कोई मतलब नहीं बनता है.

अगर खोरी गांव के लोगों के साथ छेड़छाड़ की गई तो इन एक लाख लोगों को भी कुंडली बॉर्डर जारी किसानों के धरने पर लेकर आएंगे. कुंडली बॉर्डर पर ही इन लोगों की खाने-पीने और रहने की व्यवस्था होगी और खोरी गांव के लाखों लोग भी हमारे साथ धरने में शामिल होंगे.     

बता दें कि इन घरों को हटाने के पीछे सुप्रीम कोर्ट ने खोरी गाँव के वन विभाग की ज़मीन पर गैर क़ानूनी तरीके से बसे होने की दलील दी है. कई सामाजिक संगठनों ने मिलकर इस मामले में पुनर्विचार याचिका भी दायर की थी मगर सुप्रीम कोर्ट ने उसको खारिज करते हुए 6 हफ्तों के भीतर प्रशासन को गाँव खाली करवाए जाने के आदेश दिया है.

यूपी पुलिस का अमानवीय चेहरा, मासूम बच्चे को एक हाथ से पकड़कर उठाते पुलिसकर्मी का फोटो वायरल

उत्तर प्रदेश के मेरठ का मामला है जहां फोटो में कैद एक पुलिसकर्मी की अमानवीय घटना सोशल मीडिया पर वायरल हो रही है. फोटो में देखा जा सकता है, किस तरह पुलिसकर्मी एक हाथ से दो से तीन माह के मासूम बच्चे को एक बाजू से पकड़कर हवा में उठाए हुए है. 

दरअसल दो गुटों के बीच के झगड़े की जांच के लिए मेरठ पुलिस के पुलिसकर्मी घटनास्थल पर पहुंचे थे. आपस में झगड़ा कर रहे दो गुटों में से एक गुट के परिवार में छोटे बच्चे भी थे. झगड़े के बीच से बच्चों को बचाने के नाम पर पुलिसकर्मी मासूम बच्चे को एक हाथ से पकड़कर हवा में उठाकर घटनास्थल से दूर कर रहा है.

घटनास्थल के पास खड़े लोगों ने अपने मोबाइल के कैमरे से पुलिसकर्मी का यह अमानवीय चेहरा कैद कर लिया. बच्चे को एक हाथ से उठाए पुलिसकर्मी का फोटो सोशल मीडिया पर वायरल हो गया.        

घटना मेरठ के बेगमपुल क्षेत्र की है. सोशल मीडिया पर फोटो वायरल होने के बाद मेरठ के पुलिस अधीक्षक को खुद आगे आकर सफाई देनी पड़ी.

एसपी ने घटना पर पुलिस का पक्ष रखते हुए कहा, “जब दो गुटों के बीच लड़ाई हो रही थी तो उनमे से एक गुट अपने मासूम बच्चों को घटनास्थल पर छोड़कर भाग गया, जिसके बाद बच्चे की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए पुलिस ने बच्चे को वहां से उठाया. वहीं जिस तरह से फोटो वायरल हो रही है उसकी भी जांच की जा रही है कि किस परस्थिति में बच्चे को उठाया गया था.”

यह पहली बार नहीं है जब यूपी पुलिस का इस तरह का अमानवीय चेहरा सामने आया हो इससे पहले भी सड़कों पर बेकसूर लोगों  को पीटते हुए पुलिसकर्मियों के वीडियो और फोटो सोशल मीडिया पर आए हैं.   

प्रशासन ने किसान आंदोलन में सेवाएं देने वाले राम सिंह राणा के ढाबे का रास्ता किया बंद

सिंघु बॉर्डर पर पिछले 7 महीनों से चल रहे किसान आन्दोलन में राम सिंह राणा अपने गोल्डन हट ढाबे के माध्यम से किसानों की मदद कर रहे हैं. प्रशासन ने राम सिंह राणा के कुरूक्षेत्र स्थित गोल्डन हट ढाबे को निशाना बनाते हुए ढाबे का रास्ते बंद कर दिया है. किसान आन्दोलन के चलते सिंघु बॉर्डर के आसपास कईं ढाबे व्यवसायिक रूप से बंद हो गए थे. उन्हीं में से एक राम सिंह राणा का गोल्डन हट ढाबा भी था. किसान आंदोलन की शुरुआत में कुछ दिनों तक राम सिंह राणा का ढाबा भी बंद रहा लेकिन उसके बाद राम सिंह ने अपने ढाबे को किसानों की मदद के लिए खोल दिया.

आट्टे की समस्या को देखते हुए राम सिंह राणा ने अपने ढाबे पर आटा चक्की लगवा दी. राम सिंह राणा गेंहू पिसवाकर, दस-दस किलो की पैकिंग में किसानों तक आट्टा पहुंचाने की निशुल्क सेवा कर रहे हैं. इससे पहले राम सिंह राणा ने आन्दोलन में पीने के पानी की सप्लाई का काम भी अपने जिम्मे लिया था. इसके लिए उन्होंने 11 हजार पानी के कैंपर किसानों में बंटवाए. साथ ही आन्दोलन स्थल पर कईं जगह पानी को फिल्टर करने की मशीनें भी लगवाई.

किसान आंदोलन में दी गई इन सेवाओं के चलते संयुक्त किसान मोर्चा के नेता भी राम सिंह राणा को सम्मानित कर चुके हैं. वहीं दहिया खाप की ओर से आई 40 से अधिक अनाज की ट्रॉलियों को भी राम सिंह राणा के गोल्डन हट ढाबे पर ही चून पिसाई के लिए रखा गया है.

ढाबे का रास्ता बंद किये जाने के मामले पर राम सिंह राणा ने गांव सवेरा को बताया, “मेरे 2 ढाबे चल रहें हैं. एक ढाबा सिंघु बॉर्डर पर है जो पूरी तरह से किसानों की सेवा में चल रहा है. दूसरा ढाबा कुरुक्षेत्र में उमरी चौक के पास है जो व्यवसायिक रूप से चालू है.”

राम सिंह राणा ने आगे बताया, “कल सुबह 10 बजे के आसपास प्रशासन ने क्रेन की मदद से बड़े-बड़े कंक्रीट के बैरियर रखवाकर मेरे कुरुक्षेत्र वाले ढाबे का रास्ता बंद कर दिया है. अब मुख्य सड़क से मेरे ढाबे का संपर्क टूट गया है, जिसके कारण ग्राहक ढाबे तक नहीं पहुँच पा रहे हैं. सड़क से जुड़ा रास्ता बंद होने से ढाबे की कमाई लगभग खत्म हो गई है.”

इस मामले में प्रशासन का पक्ष रखते हुए सदर थाना कुरुक्षेत्र से इंस्पेक्टर राजपाल ने गाँव सवेरा को बताया,“राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण, एनएच-1 पर पड़ने वाले सभी गैर-कानूनी कटों को बंद करने का काम कर रही है. इसी के चलते गोल्डन हट ढाबे के आगे जो कट था उसको भी बंद किया गया है.”

किसान नेता गुरनाम सिंह चढूनी ने इस मामले का संज्ञान लेते हुए मीडिया को दिए अपने ब्यान में कहा है, “वो राम सिंह राणा के साथ खड़े हैं, यदि सरकार बातचीत के माध्यम से उनके ढाबे का रास्ता नहीं खोलती है तो किसान स्वयं ये रास्ता खोलने का काम करेंगे. सरकार किसानों की मदद करने वालों को जानबूझकर निशाना बना रही है.” साथ ही किसान नेता गुरनाम सिंह चढूनी ने इस मसले को संयुक्त किसान मोर्चे की 9 सदस्यीय कमेटी में रखनी की भी बात कही. कमेटी इस मुद्दे पर जो फैसला करेगी उसके हिसाब से किसान आगे की कार्रवाई करेंगें.

पेट्रोल और डीजल की इतनी अधिक कीमतों की असली वजह है कम कॉर्पोरेट टैक्स

व्हाट्सएप फॉरवर्ड्स के बीच जो होता है, असल में वही जीवन है. कल शाम मेरे एक स्कूल दोस्त ने अपना एक सवाल मुझे व्हाट्सएप पर भेजा जिसको लेकर वो संशय में था. दरअसल वो जानना चाहता था कि कहीं पेट्रोल – डीजल के दाम बढ़ने के पीछे एक दशक पहले UPA सरकार द्वारा ज़ारी किए गए वो तेल ऋण पत्र (आयल बॉन्ड्स) तो नहीं जो मोदी सरकार को अबतक चुकाने पड़ रहें हैं.

इन आयल बॉन्ड्स को चुकाने के लिए सरकार को चाहिए पैसे. सरकार ने ये पैसा जुटाने के लिए पेट्रोल-डीजल पर लगने वाले टैक्स को बढ़ा दिया है जिसकी वजह से तेल के दाम आसमान छू रहें हैं.

ऊपर दी गई दलील आपको कितनी भी सही लगे मगर हक़ीकत में ऐसा बिल्कुल नहीं है. यह दलील 100 प्रतिशत गलत है.

हालांकि मुझे नहीं लगता मेरे कहने से लोग समझेंगे क्योंकि जब भी पेट्रोल डीजल के दाम बढ़ते हैं, इस तरह की दलीलें व्हाट्सएप पर फिर से चलने लगती हैं.
देश के कई हिस्सों में इस वक़्त पेट्रोल की कीमतें 100 रूपए/लीटर से अधिक है. इन बढ़ी हुई कीमतों का कारण है केंद्र सरकार द्वारा पेट्रोल पर बढ़ाया गया उत्पाद शुल्क. दरअसल सरकार की कॉर्पोरेट टैक्स के रूप में होने वाली कमाई कम हो गई है, इसलिए पेट्रोल पर उत्पाद शुल्क बढ़ाकर सरकार इस घाटे की पूर्ति कर रही है.

इसका मतलब यह है कि आपकी और मेरी जेब पर पड़ने वाली तेल की मार का कारण है सरकार द्वारा घटाए गया कॉर्पोरेट टैक्स.
आइए पेट्रोल डीजल की बढ़ती कीमतों के इस खेल को थोडा विस्तार से समझने की कोशिश करते हैं.

1)पिछले साल के मुक़ाबले इस साल कच्चे तेल के दाम बढ़े हैं. जून 2020 में कच्चे तेल की कीमत $40.63 प्रति बैरल थी. वही 16 जून 2021 को कच्चे तेल की कीमत $73.18 प्रति बैरल हो गई. इस से साफ़ होता है कि पेट्रोल डीजल के बढ़ते दामों के पीछे कच्चे तेल की बढ़ती कीमतें हैं. मगर भारत में महंगे होते पेट्रोल डीजल के पीछे न तो ये एकमात्र वजह है और न ही ये कोई प्रमुख वजह है.

2) इससे पहले, हम किसी और चीज़ में उलझें, आइए आयल बॉन्ड्स को समझते हैं. ये बॉन्ड्स भूतपूर्व UPA सरकार द्वारा तेल कम्पनियों (इंडियन आयल, भारत पेट्रोलियम, हिंदुस्तान पेट्रोलियम) को ज़ारी किए गए थे ताकि ये कम्पनियां अपना घाटा पूरा कर सकें. अर्थात लागत से कम दामों पर पेट्रोल, डीजल, रसोई गैस आदि बेचने पर इन कम्पनियों को जो घाटा हुआ वो इन्होंने सरकार के द्वारा मिले आयल बॉन्ड्स से पूरा कर लिया. ये प्रक्रिया 2009-2010 तक चलती रही. आधिकारिक तौर पर इन बॉन्ड्स को तेल कम्पनियों को नकद सब्सिडी के बदले दी जाने वाली विशेष आर्थिक सुरक्षा के तौर पर देखा जाता है.

तेल कम्पनियों द्वारा दी जा रही सब्सिडी के बदले सरकार ने उनको तुरंत प्रभाव से नकदी के रूप में आर्थिक सहायता देने की बजाय आयल बॉन्ड्स दिए. इन आयल बॉन्ड्स का कम्पनियों ने सरकार को सालाना ब्याज देना था और जब बॉन्ड की अवधि पूरी हो जाती.

ऐसा कर के सरकार ने अपने सालाना ख़र्च को बढ़ने से रोक लिया, जिससे राजकोषीय घाटे को भी सरकार संभालने में कामयाब हो गई. सरकार की कमाई और ख़र्च के बीच के अंतर को राजकोषीय घाटा कहते है.

3) ज़ाहिर है आने वाले समय में इन बॉन्ड्स की अवधि पूरे होने पर वर्तमान सरकार को ये चुकाने थे और उसके लिए सरकार को पैसों की ज़रूरत भी पड़नी थी.

अब सवाल आता है कि सरकार को कितनी कीमत के बॉन्ड चुकाने बाकी है? दिसंबर 2018 में राज्य सभा में इस विषय को लेकर पूछे गए एक प्रशन के जवाब में सरकार ने बताया था कि उनको आयल बॉन्ड्स के रूप में 1.30 लाख करोड़ रूपए चुकाने बाकी है.
नीचे दी गई टेबल में पूरी जानकारी है कि सरकार को कितनी कीमत का बॉन्ड कब चुकाना है, इसपर एक नज़र डालिए.

टेबल में दिए गए डाटा से हम देख सकतें हैं कि मार्च 2020 तक सरकार के पास आयल बॉन्ड्स के रूप में 1,30,923 करोड़ रूपए चुकाने बाकी थे. यानी की सरकार ने राज्य सभा में दिसंबर 2018 में दिए गए अपने जवाब में जितना पैसा बकाया बताया था, मार्च 2021 में भी वह उतना ही है.

4) वास्तव में मोदी सरकार के दौर में आयल बॉन्ड्स का जो पैसा सरकार पर बकाया था उसमे कोई बदलाव नहीं आया है अर्थात सरकार ने अबतक कोई पैसा आयल बॉन्ड्स के रूप में नहीं चुकाया है.

मार्च 2014 में आयल बॉन्ड्स का बकाया था 1,34,423 करोड़ रूपए. 17,50 करोड़ रूपए प्रति बॉन्ड के हिसाब से 2 बॉन्ड की अवधी साल 2015 में ही पूरी हो गई जो मनमोहन सरकार ने चूका दिए. इसके बाद मोदी सरकार पर आयल बॉन्ड्स का बकाया 1,34,423 करोड़ से घटकर 1,30,923 करोड़ रूपए ही रह गया जो अभी भी बना हुआ है.

इससे यह सिद्ध होता है कि वर्तमान सरकार ने मार्च 2015 से आयल बॉन्ड्स का एक पैसा नहीं चुकाया है. हालांकि सरकार इन बॉन्ड्स पर सालाना ब्याज़ अभी भी चूका रही है.

आयल बॉन्ड्स पर सरकार को सालाना कितना ब्याज़ चुकाना पड़ रहा है? इसके जवाब में सरकार ने दिसम्बर 2018 में राज्य सभा में जानकारी दी कि उनको हर साल 9,989.6 करोड़ रूपए आयल बॉन्ड्स के ब्याज़ के रूप में चुकाने पड़ रहें हैं.

पिछले तीन सालों में आयल बॉन्ड्स की बकाया राशि में किसी तरह की कोई तब्दीली नहीं हुई है. 2015 से लेकर 2018 तक सरकार ने जो ब्याज इन आयल बॉन्ड्स पर चुकाया है, वही ब्याज सरकार पिछले तीन सालों से चुकाती आ रही है.

चालू वित्तीय वर्ष में आयल बॉन्ड्स को लेकर स्तिथि क्या है? टेबल में दिखाए गए डाटा के अनुसार वित्तीय वर्ष 2021- 22 के अंत में सरकार को कुल 10 हज़ार करोड़ के 2 आयल बॉन्ड्स क्रमशः अक्टूबर और नवम्बर महीने में चुकाने हैं.

इसके अतिरिक्त बकाया बॉन्ड्स की ब्याज़ राशि भी सरकार को चुकानी है. अभी सरकार को Rs 9,989.96 करोड़ सालाना ब्याज के रूप में चुकाने पड़ते हैं, चूँकि 10 हज़ार करोड़ के 2 बॉन्ड्स सरकार इस साल के अंत में चूका देगी तो सालाना ब्याज़ राशि भी पहले के मुक़ाबले कम हो जाएगी.

यानी कि सरकार को साल 2021-22 में बकाया आयल बॉन्ड्स और ब्याज राशि चुकाने के लिए Rs 19,500 करोड़ की आवश्यकता होगी और सरकारी लेनदेन के लिहाज से ये रक़म सरकार के लिए कोई बहुत बड़ा बोझ नहीं है.

5) यदि हम पेट्रोलियम पदार्थों से उत्पाद शुल्क के रूप में सरकार को होने वाली कमाई की बात करें तो साल 2014-15 में मोदी सरकार ने Rs 99,068 करोड़ की कमाई की थी.

यही नहीं, साल-दर-साल पेट्रोल पर लगने वाले उत्पाद शुल्क से सरकार को होने वाली कमाई में ज़बरदस्त इज़ाफा हुआ है. वित्तीय वर्ष 2020-21 में अप्रैल से लेकर दिसंबर महीने तक सरकार ने पेट्रोल पर लगने वाले उत्पाद शुल्क से Rs 2,35,811 की कमाई की है. इस रफ़्तार से यदि उत्पाद शुल्क की वसूली जारी रही तो चालू वित्तीय वर्ष के अंत तक इस से होने वाली सरकारी कमाई Rs 3,00,000 करोड़ से अधिक हो जाएगी.
इस साल के बजट में भी सरकार ने पेट्रोल और डीजल पर लगने वाले अलग अलग शुल्कों से 2.75 लाख करोड़ रूपए कमाई करने का अनुमान लगाया है. सरकार के इस अनुमान को देखकर आसानी से कहा जा सकता है कि पेट्रोलियम पदार्थों पर लगने वाले उत्पाद शुल्क से सरकार की सालाना कमाई 3 लाख करोड़ का आंकड़ा पार कर लेगी.

मार्च 2014 में पेट्रोल और डीजल पर लगने वाला कुल उत्पाद शुल्क क्रमशः 10.38 रूपए/लीटर और 4.52 रूपए/लीटर था जो 2 फ़रवरी 2021 को बढ़कर पेट्रोल पर 32.90 रूपए/लीटर और डीजल पर 31.80 रूपए/लीटर हो गया.

अप्रैल महीने में पिछले साल के मुक़ाबले पेट्रोल की कीमतों में 10 रूपए और डीजल की कीमतों में 13 रूपए प्रति लीटर का इज़ाफा दर्ज़ किया गया है. इस से मोदी सरकार के सत्ता में आते ही पेट्रोलियम पदार्थों पर लगने वाले उत्पाद शुल्क में निरंतर होती बढ़ोतरी का अंदाज़ा लगाया जा सकता है.

6) तेल के बढतें दामों के पीछे एक और कारण है – इस पर राज्य सरकारों द्वारा वसूला जाने वाला शुल्क. इसको समझने के लिए निचे दी गई टेबल के साहरे दिल्ली में बेचे गए पेट्रोल के विवरण पर नज़र डालते हैं. 16 जून के रिकॉर्ड के मुताबिक भारत पेट्रोलियम ने डीलर को 37.68 रूपए/लीटर के हिसाब से पेट्रोल बेचा. इसके ऊपर केंद्र सरकार ने 32.90 रूपए/लीटर के हिसाब से उत्पाद शुल्क वसूल किया. इसके अलावा डीलर ने भी 3.80 रूपए/लीटर के हिसाब से अपना कमीशन वसूला. उसके बाद दिल्ली सरकार ने भी 30% प्रति लीटर के हिसाब से इसके ऊपर मूल्यवर्धित कर (VAT) वसूल किया. इन सब को जोड़कर एक लीटर पेट्रोल की कीमत हुई 96.70 रूपए/लीटर.

दिल्ली सरकार की ही तरह अन्य राज्य सरकारें भी पेट्रोल डीजल पर VAT वसूलती हैं, हालांकि हर राज्य में लगने वाले VAT की दर अलग- अलग होती हैं. यही कारण है कि पेट्रोल डीजल के दाम हर जगह एक समान नहीं होते. यदि डीलर को तेल मिलने वाले दाम में इज़ाफा होता है तो राज्य सरकारों के द्वारा वसूले जाने वाले VAT में भी बढ़ोतरी होती है.

पेट्रोलियम कंपनी द्वारा डीलर को जिस दाम पर एक लीटर तेल बेचा गया है, एक लीटर पर केंद्र सरकार ने जितना उत्पाद शुल्क वसूल किया है, डीलर का प्रति लीटर कमीशन – इन सब को जोड़ने के बाद जो कुल राशि आती है, राज्य सरकारें उसके ऊपर VAT वसूलती हैं.
इसको अगर बारिकी से समझा जाए तो पता लगता है कि देश की जनता तेल पर टैक्स के ऊपर टैक्स या कहें कि दोहरा टैक्स चूका रही है. सरकारों को इसको दुरुस्त करना चाहिए ताकि जनता पर कम बोझ पड़े. इसके लिए राज्य सरकारों को केवल प्रति लीटर तेल के दाम और डीलर कमीशन को मिलाकर बनने वाली कुल राशि पर VAT वसूलना चाहिए, केंद्र सरकार द्वारा वसूले जाने वाले उत्पाद शुल्क को इस से बाहर रखना चाहिए.

7) केंद्र सरकार द्वारा पेट्रोलियम पदार्थों पर इतनी अधिक मात्र में लगाए गए उत्पाद शुल्क का मुख्य कारण है सरकार का टैक्स के रूप में आने वाले राजस्व में सकल घरेलु उत्पाद (GDP)के अनुपात में आती निरंतर गिरावट.

निचे दिया गया चार्ट सरकार को टैक्ससे आने वाले कुल राजस्व को जीडीपी के अनुपात में दर्शाता है.

चार्ट के माध्यम से ये साफ़ देखा जा सकता है कि केंद्र सरकार का टैक्स से आने वाला राजस्व जीडीपी के अनुपात में लगातार कम होता जा रहा है. 2007-08 के बीच ये जीडीपी का 12.11 % था जो कि इसकी अब तक की सर्वाधिक दर रही है. वही अगर 2020-21 की बात करें तो जीडीपी के मुक़ाबले टैक्स राजस्व का अनुपात घटकर हो गया 10.25%.

जीडीपी के अनुपात में इस घटते टैक्स राजस्व के पीछे एक बड़ा कारण है सरकार की कॉर्पोरेट टैक्स के रूप में होने वाली कमाई में गिरावट. साल 2017-18 में जीडीपी के अनुपात में कॉर्पोरेट टैक्स राजस्व था 3.34% जो साल 2020-21 में घटकर रह गया केवल 2.32%. बावजूद इसके कम्पनियों ने चालू वित्तीय वर्ष में अपनी कमाई में बम्पर इज़ाफा दर्ज़ किया.

कॉर्पोरेट टैक्स के रूप में घटते राजस्व के पीछे मुख्य कारण है केंद्र सरकार द्वारा कम्पनियों के लिए बेस टैक्स रेट में भारी कटौती करना. सितम्बर 2019 में केंद्र सरकार ने कम्पनियों के कॉर्पोरेट टैक्स में बदलाव करते हुए बेस टैक्स रेट को 30% से घटाकर 22% कर दिया था. यह ही नहीं, सरकार ने नई विनिर्माण (मैन्युफैक्चरिंग) कम्पनियों के लिए इसको 25% से घटाकर 15% कर दिया था.

साल 2019-20 में कॉर्पोरेट टैक्स से सरकार की कमाई हुई थी 5.57 लाख करोड़ रूपए जो साल 2020-21 में घटकर हो गई 4.57 लाख करोड़ रूपए. ये सब हुआ सरकार द्वारा कॉर्पोरेट टैक्स की दरों में कटौती करने से. इसे यदि साफ़ शब्दों में समझना हो तो ये कहना बिलकुल ग़लत नहीं होगा कि कॉर्पोरेट टैक्स कम होने की वजह से सरकार को जो घाटा हुआ है उसकी भरपाई जनता अपनी जेब से पेट्रोल डीजल पर टैक्स देकर कर रही हैं.

सरकार की आमदनी घटती- बढ़ती रहती है मगर ख़र्च साल-दर-साल बढ़ता ही जाता है. ज़ाहिर है इस साल ख़राब अर्थ्वाव्स्था के चलते सरकार की आमदनी घटेगी और उसके अनुपात में ख़र्च बढेगा.

कुल मिलाकर अंत में इस बात से कतई इंकार नहीं किया जाना चाहिए कि सरकार की कमाई और उसके ख़र्चे के बीच का जो अंतर है वो अक्सर जनता की जेब से ही भरा जाता है. आगे भी ऐसा होने के सम्पूर्ण आसार नज़र आ रहें हैं.

Vivek Kaul is a widely published economic commentator. He is also the author of five books. His fifth book Bad Money—Inside the NPA Mess and How It Threatens the Indian Banking System, has just been released. He is also the author of the Easy Money trilogy.

एक मजदूरों के गांव को तोड़ने के लिए तैनात तंत्र और मजदूरों को उजाड़ने के लिए फ्लैग मार्च करती पुलिस!

फरीदाबाद ज़िले का खोरी गाँव जहाँ लगभग दस हज़ार से भी अधिक दिहाड़ी मज़दूर परिवार रहते हैं. सुप्रीम कोर्ट ने इस गाँव को यहाँ से हटाने का फैसला सुनाया है. इसके पीछे कोर्ट ने दलील दी कि यह गाँव वन विभाग की ज़मीन पर गैर क़ानूनी तरीके से बसाया गया है. कई सामाजिक संगठनों ने मिलकर इस मामले में पुनर्विचार याचिका भी दायर की थी मगर सुप्रीम कोर्ट ने उसको खारिज़ कर दिया और साथ ही प्रशासन को आदेश दिया है कि वो 6 हफ्तों के भीतर गाँव खाली करवाए.

सुप्रीम कोर्ट के इस सख्त रुख के बाद गाँव में रह रहे लोगों के लिए राहत की उम्मीद लगभग खत्म हो गई है. गाँव की रहने वाली 48 वर्षीय बिमलेश ने द हिंदू अख़बार को दिए अपने ब्यान में कहा कि उनका पति व बेटा दोनों मज़दूरी करते हैं. परिवार ने लगभग 6 साल पहले यहाँ 3 लाख रूपए में एक प्लाट ख़रीदा था. उन्होंने ये सारा पैसा किसी से कर्ज़ लिया था जो धीरे-धीरे चुकाया है. बिमलेश आगे कहती है कि बड़ी मुश्किलों से उन्हें अपने सर पर छत नसीब हुई थी और अब सरकार ये भी उनसे छीनना चाहती है.

सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद प्रशासन ने भी गाँव को खाली करवाने की तैयारियां शुरू कर दी है. बीते दिन प्रशासन ने लगभग 3 हज़ार से अधिक पुलिसवालों के साथ गाँव में फ्लैग मार्च निकाला. तोड़फोड़ के दिन किसी तरह का कोई विरोध प्रदर्शन न हो इसको सुनिश्चित करने के लिए गाँव में पुलिस ने अपने खुफिया विभाग (CID) को भी काम पर लगा दिया है. चूँकि गाँव का कुछ हिस्सा दिल्ली से सटा हुआ है इसलिए प्रशासन ने हरियाणा पुलिस और दिल्ली पुलिस दोनों को मिलाकर एक संयुक्त टीम का गठन किया है, जो तोड़फोड़ के वक़्त प्रशासन को सुरक्षा मुहैया करवाने का काम करेगी.

खोरी में रहने वाले ज्यादातर परिवार प्रवासी मजदूरों के हैं जो रोज़ कमाते और खाते हैं. अचानक से आए कोर्ट के इस फ़ैसले ने इन लोगों की मुश्किलें और बढ़ा दी हैं. गाँव की ही एक अन्य महिला नीमा देवी ने द हिंदू अख़बार से बातचीत में बताया कि पिछले एक साल से कोरोना महामारी में सब कुछ बंद होने के कारण गाँव के अधिकतर लोग बेरोज़गार बैठे हैं. किसी के पास इतना पैसा नहीं है कि यहाँ से कहीं और जाकर दूसरा घर बना सके, कोई हमारी सुध नहीं ले रहा है.

मुकेश जो रिक्शा चलाने का काम करते हैं उन्होंने द हिंदू अख़बार को बताया कि घर टूटने की ख़बर से लोगों में मानसिक तनाव भी बढ़ रहा है. लोग अपना कीमती सामान निकालकर किराए के कमरों में शिफ्ट कर रहे हैं. मौके का फ़ायदा पाकर आसपास के लोगों ने भी कमरों का किराया बढ़ा दिया है.  मुकेश ने बढ़ते मानसिक तनाव से तीन लोगों की जान जाने की बात भी कही है, जिसमें 2 लोगों ने आत्महत्या की है और एक की मौत हार्ट अटैक से होने की बात सामने आई है.

स्थानीय लोगों का आरोप है कि प्रशासन ने उनके गाँव की बिजली काट दी है. पानी के टैंकर भी गाँव में नहीं घुसने दिए जा रहें हैं. लोग बगल के इलाकों से बोतलों और बाल्टियों में पानी भरकर ला रहे हैं.

गाँव के ही रहने वाले सद्दाम हुसैन जो कि प्लम्बर का काम करते हैं, उनका कहना है उन्होंने किसी तरह का कोई कब्ज़ा किसी ज़मीन पर नहीं किया है बल्कि ये ज़मीन तो उन्होंने पैसों में ख़रीदी है. फिर भी सरकार उनकी ज़मीन छीन रही है. दिल्ली एनसीआर जैसे महंगे इलाक़े में उन्होंने बड़ी मुश्किल से अपने लिए घर का इंतजाम किया था. यदि सरकार इन्हें यहाँ से हटाती है तो ये लोग बेघर हो जाएंगे.

दरअसल खोरी गाँव में अधिकतर परिवारों ने डीलरों से ज़मीन ख़रीदी हुई है और उन्होंने ही गाँव में रह रहे लोगों को प्राइवेट बिजली कनेक्शन दिलाने में भी मदद की है. सद्दाम हुसैन कहते है कि उन्हें लगता था कि उनका गाँव भी दिल्ली में स्थित संगम विहार की तरह पक्का हो जाएगा. मगर अब न तो डीलर उनकी मदद कर रहे हैं, न कोई नेता और न सरकार.

स्थानीय लोगों का कहना है कि इस सब में उनकी कोई गलती नहीं है, ज़मीन अगर वन विभाग की थी तो सरकार को चाहिए कि जिन डीलर्स ने उनको ज़मीने बेची हैं उन पर भी कार्रवाई हो. अकेले गाँव में रह रहे परिवार ही दोषी नहीं है. साथ ही उनकी मांग है कि उन्हें मुआवज़ा मिले और दूसरी जगह रहने के लिए सरकार ज़मीन का प्रबंध भी करे.     

जिम, बार, क्लब हाउल, रेस्टोरेंट्स, मॉल्स तो खोल दिए, लेकिन शिक्षण संस्थानों से ऐसा क्या बैर!

कोरोना महामारी के चलते हरियाणा सरकार ने प्रदेश में जारी लॉकडाउन को 28 जून तक बढ़ा दिया है. कोरोना की नई गाइडलाइन को लेकर छात्रों को उम्मीद थी कि इस बार शिक्षण संस्थानों को खोला जाएगा लेकिन सरकार द्वारा जारी नई गाइडलाइन में भी शिक्षण संस्थानों को खोलने की कोई छूट नहीं दी गई है. शिक्षण संस्थानों को खोले जोने की मांग को लेकर कईं छात्र संगठनों ने विरोध-प्रदर्शन किया. 

बता दें कि लॉकडाऊन के नये नियमों को अनुसार जिम, बार, क्लब हाउल, रेस्टोरेंट्स, मॉल्स, कॉरपोरेट ऑफिस आदि को खोलने की छूट दी गई है. वहीं साथ ही शादियों, अंतिम संस्कार, व धार्मिक स्थानों में भी भीड़ की संख्या को बढा़या दिया गया है. ऐसे में छात्र सरकार पर सवाल उठा रहे हैं कि जब बारी-बारी से सभी संस्थानों को खोला जा रहा है तो फिर शिक्षण संस्थानों को बंद क्यो रखा जा रहा है. 

छात्र एकता मंच (हरियाणा) ने सरकार के इस फैसले का विरोध जताते हुए बयान में कहा, “ हम सरकार के शिक्षा विरोधी फरमान का विरोध करते हैं और जल्द-से-जल्द सभी शिक्षण संस्थानों को पूर्ण रूप से खोलने की मांग करते हैं. सभी संस्थानों को खोला जा रहा है जबकि कॉलेज, यूनिवर्सिटी, आईटीआई, कोचिंग सेंटर व प्रशिक्षण केंद्रो को बंद रखा गया है. पिछले डेढ़ साल से बंद पड़े कॉलेज, यूनिवर्सिटी व अन्य शिक्षण संस्थानों के कारण छात्र-छात्राओं को भारी नुकसान हुआ है. इस तालाबंदी से शिक्षा के स्तर में भी भारी गिरावट आई है.”

प्रोग्रेसिव स्टूडेंट्स फ्रंट ने भी शिक्षण संस्थानों को खोले जाने की मांग को लेकर प्रदर्शन किया. प्रोग्रेसिव स्टूडेंट्स फ्रंट की उपाध्यक्ष चाहना ने बताया, “जब से कोरोना महामारी आई है कॉलेज-यूनिवर्सिटी समेत सभी शिक्षण संस्थान को बन्द कर दिया गया है. ऑनलाइन शिक्षा के नाम पर छात्र-छात्राओं के भविष्य के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है. ऑनलाइन क्लास के द्वारा पाठ्यक्रम पूरा करने की लीपापोती ही की गई है.

वहीं एमडीयू के दिशा छात्र संगठन ने भी शिक्षण संस्थान खोले जाने को लेकर सरकार और प्रशासन के खिलाफ प्रदर्शन किया. दिशा छात्र संगठन ने कहा, “मोदी और खट्टर सरकार छात्रों के हितों को नजरन्दाज कर रही हैं. सरकार और शिक्षण संस्थान छात्रों के हितों को धत्ता बताकर कॉलेज-विश्वविद्यालयों को लठतन्त्र से चला रहे हैं.”

छात्रों ने सरकार पर ऑनलाइन शिक्षा एजेंडे को थोपने का आरोप लगाते हुए कहा, “शिक्षण संस्थानों की तालाबंदी कर सरकार ने अपने ऑनलाइन शिक्षा के एजेंडे का एक्सपेरिमेंट किया है जो पूरी तरह से विफल रहा है. इस विफलता के बावजूद भी सरकार इसे छात्र-छात्राओं पर थोपना चाहती है. सरकार सभी शिक्षण संस्थानों को बंद कर देना चाहती। ऐसा करने से सरकार को न ही संस्थानों को बजट देना पड़ेगा और न ही शिक्षकों की भर्ती करनी पड़ेगी.”

छात्रों ने शिक्षण संस्थानों को खोले जाने के साथ इस साल निशुल्क दाखिला दिया जाने और कोरोना महामारी के दौरान बढ़ाई गयी सभी कोर्सों की फीस बढ़ोतरी को वापस लिया जाने की भी मांग की. शिक्षण संस्थानों को खोलने की मांग न माने जाने पर छात्र संगठनों ने आंदोनल की चेतावनी दी.   

पांच ट्रिलियन इकॉनमी के सपने वाले देश में एक पांच साल की मासूम बच्ची की पीने का पानी न मिलने से मौत

राजस्थान के जालोर जिले के सिरोही गाँव की अंजलि की पीने का पानी न मिलने से मौत हो गई. दादी सुखी (60) के साथ रिश्तेदार के घर जाते समय रास्ते में पानी न मिलने के कारण अंजली ने दम तोड़ दिया. इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार सुखी देवी ने बताया है कि उनको लगभग 9 किमी दूर जाना था. मुख्य सड़क के रास्ते दूरी लगभग दोगुनी पड़ती है इसलिए वो पैदल ही एक छोटे और कच्चे रास्ते से जा रहे थे. सुखी देवी इस छोटे रास्ते से पहले भी आती-जाती रही हैं. 

सुखी देवी और उनकी पोती अंजलि 5 जून की सुबह अपने घर से निकली थीं. पूरा दिन चलने के बाद दोनों ने एक रात रास्ते में ही पहाड़ी पर बिताई. अगली सुबह दोनों ने फिर से अपनी यात्रा शुरू की. कुछ देर चलने के बाद रोड़ा गाँव के पास पहुंचते ही चक्कर आने के बाद दोनों जमीन पर गिर पड़ीं.

रोड़ा गाँव के एक चरवाहे नागजी राम ने दोनों को जमीन पर पड़े हुए देखकर गाँव के सरपंच को सूचना दी. सरपंच और गाँव वालों की मदद से दोनों को पहले रानीवाड़ा गाँव के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र ले जाया गया जहां डॉक्टर ने अंजलि को मृत घोषित कर दिया. उसके बाद सुखी देवी को जोधपुर मेडिकल कॉलेज ले जाया गया.

मामले को लेकर केन्द्रीय जल शक्ति मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत ने इंडियन एक्सप्रेस अखबार को दिए अपने बयान में कहा, “लड़की की मौत की वजह पानी की कमी नहीं कुछ और है.”

हालांकि उनका ये दावा जालोर जिले की उपायुक्त नम्रता वृशनी के ब्यान से बिलकुल मेल नहीं खाता है. उपायुक्त ने मेडिकल रिपोर्ट्स का हवाला देते हुए इस बात की पुष्टि की है कि अंजलि की मौत उसके शरीर में पानी की गंभीर कमी के कारण हुई है.

अंजलि एक खेतिहर मजदूर परिवार से आती थीं जिनकी खुद की कोई जमीन नहीं है. सुखी देवी ने बताया, “हम जब भी इस रास्ते से जाते थे तो हमेशा पानी की बोतल साथ रखते थे. इस बार पानी की बोतल साथ लेना भूल गए और रास्ते में कहीं पर भी पीने का पानी नहीं मिला.”

वहीं स्वास्थ्य विभाग के मुख्य अभियंता नीरज माथुर ने कहा, “सिरोही-जालोर क्षेत्र में पीने के पानी की कमी नहीं है. अंजली अपनी दादी के साथ जिस रास्ते से गुजर रही थी, उसके आसपास कोई इंसानी बस्ती नहीं है जहाँ से वो पानी पी सकती थीं और इस रास्ते पानी न मिलने की वजह से अंजली की मौत हुई है”

वहीँ राजस्थान के स्वास्थ्य और जल संसाधन मंत्री बी.डी काला ने अखबार को दिए अपने ब्यान में उल्टा अंजलि पर सवाल खड़े करते हुए कहा, “यदि कोई जंगल के रास्ते गुजरेगा और साथ में पानी नहीं लेकर जाएगा तो इसके लिए राज्य सरकार कैसे जिम्मेदार हो सकती है.”

राजस्थान सरकार की खुद की एक रिपोर्ट के अनुसार राज्य के ग्रामीण इलाकों में रह रहे लगभग एक करोड़ से अधिक परिवारों को पीने के पानी की कमी का सामना करना पड़ रहा है. इसके बावजूद अभी तक केवल 20 लाख परिवारों तक ही नल का पानी पहुंचा है. पीने के पानी की कमी से मासूम बच्ची की मौत सरकार की जल नीति पर सवाल खड़े कर रही है.