महामारी में सफाईकर्मियों को साबुन-सैनिटाइजर भी उपलब्ध नहीं

पिछले करीब छह महीने से देश और दुनिया कोविड-19 के संकट से जूझ रहा है। कोरोना संक्रमण की रोकथाम के लिए मास्क पहनने, बार-बार साबुन या सैनिटाइजर से हाथ धोने और सामाजिक दूरी बनाए रखने पर जोर दिया जा रहा है। लेकिन इस महामारी से निपटने के सबसे अग्रिम मोर्चे पर तैनात सफाई कर्मचारी बेहद मुश्किल हालात में काम करने को मजबूर हैं। यह बात एक सर्वे में भी उजागर हुई है।

देश के दो राज्यों और दो महानगरों में सफाई कर्मचारियों के बीच किए गए सर्वे के मुताबिक, लॉकडाउन के दौरान सिर्फ 30.7 फीसदी सफाई कर्मचारियों को मास्क, 22.4 फीसदी को दस्ताने, 31.1 फीसदी को हाथ धोने के लिए साबुन और 18.9 फीसदी को सैनिटाइजर मिल पाया। बाकी सफाई कर्मचारियों को ये चीजें नहीं मिली या अपर्याप्त थीं। जबकि साफ-सफाई के काम में संक्रमण होने का खतरा और भी ज्यादा रहता है। कोरोना के खिलाफ भारत की जंग का यह ऐसा पहलू जो ताली-थाली के शोर में गुम हो गया।

सफाई कर्मचारियों से जुड़े मुद्दों पर सक्रिय स्वतंत्र शोधार्थी और सामाजिक कार्यकर्ता धम्म दर्शन निगम और शीवा दुबे का यह अध्ययन कोविड-19 महामारी के दौरान भारत के सफाई कर्मचारियों की स्थिति को उजागर करता है कि कैसे अपनी जान जोखिम में डालकर सफाई कर्मचारी फ्रंटलाइन वर्कर्स और कोरोना वारियर की भूमिका निभा रहे हैं। यह सर्वे प्रमुखता से दो राज्य – असम और मध्य प्रदेश और दो महानगरों – दिल्ली और मुंबई के कुल 214 सफाई कर्मचारियों के बीच अप्रैल और मई महीनों किया गया था।

सर्वे में भाग लेने वाले 64 फीसदी सफाई कर्मचारियों ने बताया कि उन्हें कोविड-19 के संक्रमण से बचने के लिए किसी तरह की कोई ट्रेनिंग या सुरक्षा संबंधी दिशानिर्देश नहीं दिए गए थे। 92.5% सफाई कर्मचारियों को लॉकडाउन के पहले भी जरूरी साधन नहीं मिलते थे, जिनकी उन्हें काम करने में जरूरत होती है। इसके अलावा 89.9% सफाई कर्मचारियों को काम करने के लिए कोई वर्दी नहीं मिलती थी। 96.1% सफाई कर्मचारियों को आपातकाल के लिए कोई प्राथमिक चिकित्सा किट नहीं मिली थी जबकि 89.7% सफाई कर्मचारियों के पास किसी प्रकार का कोई स्वास्थ्य बीमा भी नहीं था।

सर्वे में महिला सफाई कर्मचारियों से पूछा कि कोविड-19 से उनके बचाव के लिए कोई खास व्यवस्था सुनिश्चित की गई या नहीं। काम पर जाने वाली 96.5% फीसदी महिला सफाईकर्मियों ने कहा कि उनके लिए काम पर कोई विशेष व्यवस्था नहीं की गई थी। इन सफाई कर्मचारियों में आधे से ज्यादा (54.7%) ठेका मजदूर हैं। यह संख्या बताती है कि लगभग सभी शहरों में ठेके पर ही ज्यादा काम चल रहा है।

हालांकि, सफाई कर्मचारियों के लिए कोविड-19 महामारी के चलते एक सकारात्मक बदलाव भी आया है। सर्वे में शामिल 71 फीसदी सफाई कर्मचारियों ने बताया कि उनकी तनख्वाह पहले समय पर नहीं आ रही थी अब समय पर आने लगी। इनमें ठेकेदार और सरकार के लिए काम करने वाले दोनों ही थे। ऐसा हो सकता है कि कोविड-19 से बचने के लिए और इस काम की ज़रूरत को देखते हुए सफाई कर्मचारियों की तनख्वाह समय पर दी जा रही हो।

कोविड-19 से संक्रमित होने पर क्या करें? इस बारे में कोई निर्देश मिला है क्या, इस सवाल का जवाब देने वाले 93.2% सफाई कर्मचारियों ने बताया कि उन्हें ऐसी कोई सूचना या निर्देश नहीं मिला। सिर्फ 4.2% भागीदारों ने कहा कि अगर उन्हें कोविड-19 पॉजिटिव पाया जाता है तो उनके विभाग में बताने के लिए कहा गया था। सिर्फ 1.6% भागीदारों को मुफ्त जांच का वादा किया गया और केवल 1.0% भागीदारों को संक्रमित होने पर मुफ्त इलाज का भरोसा दिया गया था। 87.5% भागीदारों ने कहा कि राशन, वेतन, नौकरी की सुरक्षा, स्वास्थ्य बीमा और मुफ्त इलाज जैसा उन्हें कोई आश्वासन सरकार की तरफ से नहीं मिला। सिर्फ 3.8% भागीदारों ने कहा कि उनको नौकरी ना छूटने का आश्वासन दिया गया था। जबकि 3.8% सफाई कर्मचारियों ने कहा कि कोविड-19 महामारी में उन्हें बीमार पड़ने पर मुफ्त इलाज का आश्वासन दिया गया था।

जब तक यह सर्वे चला करीब 14% भागीदारों में से उनके एक या अधिक परिवार वालों को कोविड-19 पॉजिटिव पाया गया था। अतः यह समझा जा सकता है कि सफाई कर्मचारी उनके परिवार से दूरी बनाने में असमर्थ रहे। इसका कारण उनका छोटा घर होना और काम के लिए भीड़ वाली जगह जानी की मजबूरी हो सकता है। सर्वे में सफाई कर्मचारियों के परिवार में से किसी की मृत्यु की सूचना नहीं मिली है। उल्लेखनीय है कि बेहद जोखिम उठाने के बावजूद केंद्रीय सरकार की प्रथम पंक्ति के कामगारों (फ्रंट लाइन वर्कर्स) के लिए 50 लाख रूपये के बीमा की योजना के अंतर्गत सफाई कर्मचारी नहीं आते हैं।

सैंपल साइज छोटा होने और केवल दो राज्यों व दो महानगरों तक सीमित होने के चलते इस सर्वे के नतीजों को पूरे देश ही हकीकत नहीं माना जा सकता है। लेकिन यह अध्ययन सफाई कर्मचारियों के काम करने की स्थिति को दर्शाता है। सफाई कर्मचारियों की खराब स्थिति और उसमें बदलाव ना होने में जाति एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है।

फसल बीमा के लिए एक किसान पुत्री का संघर्ष

मैं एक किसान परिवार से ताल्लुक रखती हूं और खेती ही हमारा मुख्य व्यवसाय है। पिछले साल अतिवृष्टि के कारण राजस्थान के कई जिलों में किसानों की फसलें खराब हुई थी। हमारी भी हुई थी। चूंकि प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के तहत बीमा करवा रखा था, अतः क्लेम के लिए आवेदन भी किया। एक उम्मीद थी कि बीमा क्लेम से इस क्षति की कुछ हद तक भरपाई हो जाएगी।

लेकिन हकीकत कुछ और ही निकली। कुछ दिनों पहले मेरे पिताजी का गांव (राजस्थान के चित्तौड़गढ़ के निम्बाहेडा ब्लॉक का भावलियां गांव) से फोन आया कि एग्रीकल्चर इंश्योरेंस कंपनी ऑफ इंडिया के नंबर 0141-4042999 पर लगातार फोन कर रहे हैं पर कोई उठाता ही नहीं है। तुम इस नंबर पर कोशिश करके देखना। नंबर जयपुर का है और संभव हो तो बीमा कंपनी के ऑफिस जाकर भी पता करना कि 2019 की अतिवृष्टि में खराब हुई फसलों का बीमा क्लेम अभी तक क्यों नहीं मिला है।

बैंक से पूछने पर कहा गया कि बीमा कंपनी से बात करो, हमें कोई जानकारी नहीं है। बीमा कंपनी की जानकारी मांगने पर भी बैंक से यही कहा गया कि बीमा कंपनी के बारे में कोई जानकारी नहीं है। आप यानी कि किसान अपने स्तर पर पता करे। फसल बीमा के मामले में बैंक का ये रवैया हताश और हैरान करने वाला था।

इसके बाद मैंने कई बार कृषि बीमा कंपनी के नंबर पर फोन किया लेकिन किसी ने फोन उठाया नहीं। फिर बीमा कंपनी के नाम से गूगल पर सर्च किया और तब कहीं जाकर कंपनी के जयपुर ऑफिस में रीजनल मैनेजर का मोबाइल नंबर और ईमेल आईडी मिला। मैंने उस मेल पर अंग्रेजी में एक लंबा मेल लिखा और पूछा कि साल भर बाद भी फसल बीमा का क्लेम क्यों नहीं मिला है। मैंने रीजनल मैनेजर के मोबाइल नंबर पर फोन भी किया और अंग्रेजी में उन्हें पूरा मामला बताया। यहां ये बताना जरूरी है कि अगर बातचीत और मेल अंग्रेजी में नहीं होते तो शायद मेरी बात सुनी ही न जाती।

खैर, दो दिन बाद मुझे बीमा कंपनी का एक मेल आता है कि आपके तीन खातों में से दो खातों की कोई जानकारी बैंक से नहीं मिली है और एक खाते की जानकारी अनुसार बीमा क्लेम मंजूर हो गया है। अतः क्लेम राशि एक सप्ताह के अंदर आपके बैंक खाते में पहुंच जाएगी। अन्य दो खातों के बारे में पूछने पर बीमा कंपनी के रीजनल मैनेजर ने बताया कि बैंक ने आधार विवरण नेशनल क्रॉप इंश्योरेंस पोर्टल (एनसीआईपी) पर अपलोड नहीं किया होगा, इसलिए हमारे पास खातों की डिटेल नहीं पहुंची। जब कोई विवरण ही नहीं आया है तो दोनों खातों का बीमा भी नहीं हुआ है और इस वजह से क्लेम भी नहीं मिल सकता है। अब तो भारत सरकार का पोर्टल भी वर्ष 2019 के लिये बंद हो चुका है। इसे पुनः एक बार खोला गया था लेकिन बैंकों ने त्रुटियां नहीं सुधारी। अब इसमें हम कुछ नहीं कर सकते हैं।

जब मुझे पता चला कि दो खातों की डिटेल बैंक ने इंश्योरेंस पोर्टल पर अपलोड नहीं की है तो संबंधित बैंक शाखा (स्टेट बैंक ऑफ इंडिया, निम्बाहेडा, चित्तौड़गढ़) से वापस संपर्क किया। तब बैंक ने स्वीकार किया कि आधार विवरण पोर्टल पर अपलोड नहीं हो पाया, इसलिए बीमा नहीं हुआ है। जबकि किसान क्रेडिट कार्ड (केसीसी) वाले किसानों का बीमा प्रीमियम काटकर बीमा कंपनी को जमा करना बैंक की जिम्मेदारी है। आधार वगैहरा की डिटेल भी बैंक को ही पोर्टल पर अपलोड करनी होती हैं। लेकिन बैंक इसमें चूक करे तो किसान कहां जाए?

यह बड़ी विचित्र स्थिति है। किसान सोचे बैठा है कि उसकी फसल का बीमा हो चुका है, लेकिन बैंक ने बीमा पोर्टल पर ब्यौरा ही अपलोड नहीं किया। वास्तव में, बीमा हुआ है या नहीं और फसल को नुकसान होने पर कितना क्लेम मिलेगा यह पता करने का किसान के पास कोई तरीका नहीं है। थक-हारकर मैंने कृषि विभाग, बैंक और बीमा कंपनी के आला अधिकारियों के साथ-साथ राजस्थान के कृषि मंत्री को एक ईमेल भेजा और पूरा मामला बताया।

ताज्जुब की बात है आज तक कि इनमें से केवल बीमा कंपनी का जवाब आया हैं, जिसमें यही कहा गया है कि अगर एनसीआईपी पोर्टल पर किसानों का डाटा अपलोड नहीं किया गया है तो उनका बीमा नहीं हुआ है। योजना के दिशा-निर्देशों के मुताबिक सिर्फ वित्तीय संस्था यानी बैंक ही किसानों का विवरण पोर्टल पर अपलोड कर सकते हैं। बैंक ने किसानों का ब्यौरा पोर्टल पर क्यों अपलोड नहीं किया, इसका कोई जवाब न तो बैंक के पास है और न ही कृषि विभाग या फसल बीमा कंपनी के पास। इस सवाल को लिए मैं इन तीनों के बीच जद्दाेजहद कर रही हूं।

सवाल ये है कि किसानों से आधार का विवरण लेने के बाद भी यदि बैंक उसे पोर्टल पर अपलोड नहीं करता है तो इसका जवाबदार कौन होगा? बैंक की लापरवाही या प्रक्रियागत त्रुटि का खामियाजा किसान क्यों भुगते? इस पूरे मामले में कृषि विभाग ने तो ईमेल का जबाव देना भी जरूरी नहीं समझा। चित्तौड़गढ़ कृषि उपनिदेशक को कई बार फोन किया लेकिन उन्होंने फोन उठाना ही बंद कर दिया।

ऐसी परिस्थितियों में किसान क्या करे? किससे शिकायत? किससे मदद की उम्मीद करे? बीमा प्रीमियम कटने के बाद भी पता चलता है कि बीमा हुआ ही नहीं? किसी ने बताना भी जरूरी नहीं समझा कि पोर्टल पर ब्यौरा अपलोड नहीं हुआ है। बैंक औेर बीमा कंपनी के बीच गफलत में किसान का बीमा गुम हो गया।

इस मामले में मैंने चित्तौड़गढ़ के सांसद से भी गुहार लगाई ताकि वे केंद्रीय कृषि मंत्री से पुनः पोर्टल खुलवाने का निवेदन करें। लेकिन उन्होंने भी वह चिट्ठी आगे नहीं भेजी है। राजस्थान के कृषि सचिव का कहना है कि जयपुर में उनसे आकर मिलो। जबकि कृषि आयुक्त को विस्तृत ईमेल किया जा चुका है। शायद मैं सचिव से मिल भी लूंगी लेकिन महामारी के दौरान कितने किसान राजस्थान के दूर-दराज इलाकों से जयपुर आकर सचिव से मिल सकते हैं? कितने किसान गूगल पर ईमेल खोजकर बैंक और बीमा कंपनियों के साथ इतना फोलोअप कर पाएंगे?

डिजिटल इंडिया के दौर में फसल बीमा के लिए किसानों को कैसे दर-दर भटकना पड़ता है, यह मैं खुद भुगत चुकी हूं। जबकि फसल बीमा की पूरी जानकारी मसलन कितना प्रीमियम कटा, कितना बीमा हुआ, कितना क्लेम बनता है इत्यादि किसानों को आसानी से उपलब्ध होनी चाहिए। अगर फिर भी कोई दिक्कत है तो शिकायत निवारण की पुख्ता व्यवस्था होनी चाहिए।

मैं पिछले एक महीने से फसल बीमा क्लेम के लिए जूझ रही हूं। मेरे पापा पढ़े-लिखे हैं, स्मार्टफोन चलाते हैं जब वो भी पता नहीं कर पाए कि क्लेम क्यों नहीं मिल पा रहा है तो आम किसानों की परेशानी का आप अंदाजा लगा सकते हैं। यह किसी एक किसान की व्यथा नहीं है। देश में न जानें कितने किसान ऐसे ही फसल बीमा से वंचित रह जाते होंगे।

कृषि अध्यादेशों के खिलाफ किसानों ने ट्विटर और ट्रैक्टर को बनाया हथियार

खेती-किसानी को प्रभावित करने वाले केंद्र सरकार के तीन अध्यादेशों के खिलाफ हरियाणा-पंजाब सहित कई राज्यों में किसानों ने विरोध का बिगुल बजा दिया है। सोमवार को हरियाणा-पंजाब के हजारों किसान ट्रैक्टर लेकर सड़कों पर उतर आए। किसानों का यह विरोध-प्रदर्शन की ट्विटर पर भी खूब चर्चाएं बटोर रहा है।

किसानों का यह विरोध फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी पर खरीद की व्यवस्था को कमजोर या खत्म करने की आशंका से उपजा है। पिछले महीने केंद्र सरकार ने किसानों को कहीं भी, किसी को भी उपज बेचने की छूट देने सहित कई मंडी सुधारों को ऐलान करते हुए तीन अध्यादेश जारी किए थे।

ये अध्यादेश हैं
– कृषि उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अध्यादेश, 2020
– मूल्‍य आश्‍वासन पर किसान (बंदोबस्ती और सुरक्षा) समझौता और कृषि सेवा अध्‍यादेश – 2020
– आवश्यक वस्तु (संशोधन)अध्यादेश, 2020

एक राष्ट्र-एक बाजार नारे के साथ लाए गए इन अध्यादेशों के जरिए सरकार किसानों से सीधी खरीद और कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग को बढ़ावा देना चाहती है। इसके अलावा अनाज, दालों, आलू, प्याज, टमाटर आदि को स्टॉक लिमिट के दायरे से बाहर निकालने का फैसला किया गया है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इन अध्यादेशों को किसानों के हित में ऐतिहासिक कदम बताते हुए कृषि क्षेत्र को अनलॉक करने का दावा किया है। केंद्र सरकार ने राज्यों के बीच कृषि व्यापार की कई अड़चनें दूर कर दी हैं। मंडी के बाहर उपज की खरीद-फरोख्त पर मंडी टैक्स भी नहीं देना पड़ेगा।

लेकिन सवाल ये है कि सरकार के इन दावों के बावजूद किसान सड़कों पर उतरने पर क्यों मजबूर हैं। किसान एक्टिविस्ट रमनदीप सिंह मान के अनुसार, किसानों में भय है कि कृषि अध्यादेशों के जरिए सरकार समर्थन मूल्य और सरकारी खरीद की व्यवस्था को खत्म करने जा रही है। यह ट्रैक्टर मार्च किसानों के लिए चेतावनी है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य से किसी तरह की छेड़छाड़ न की जाए।

कृषि अध्यादेशों के खिलाफ विरोध के सबसे ज्यादा स्वर पंजाब से उठे हैं जहां कांग्रेस की सरकार है। पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह कृषि अध्यादेशों को किसान विरोधी बताकर केंद्र सरकार पर दबाव बना रहे हैं। इस मुद्दे पर पंजाब की राजनीति गरमा गई है। पंजाब में आम आदमी पार्टी के विधायक कुलतार सिंह खुद ट्रैक्टर चलाकर विरोध-प्रदर्शन में शामिल हुए। भाजपा के सहयोगी अकाली दल ने किसानों के विरोध-प्रदर्शन का समर्थन तो नहीं किया लेकिन एमएसपी से किसी तरह की छेड़छाड़ न होने देने की बात जरूर कही है।

कृषि मामलों के विशेषज्ञ देविंदर शर्मा की मानें तो इन तीन अध्यादेशों के साथ एक चौथा अध्यादेश लाकर किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य का कानूनी हक दिलाने की जरूरत है। उनका कहना है कि जब सरकार मानती है कि किसानों को कहीं भी बेचने की छूट मिलने से बेहतर दाम मिलेगा तो एमएसपी को कानूनी अधिकार बनाने में क्या दिक्कत है? एमएसपी से नीचे किसी भी खरीद की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।

खेती पर कॉरपोरेट के कब्जे का डर

कृषि से जुड़े तीनों अध्यादेशों से किसानों को कितना फायदा या नुकसान होगा, इस पर बहस जारी है। सरकार का दावा है कि मुक्त बाजार मिलने से किसान के पास उपज बेचने के ज्यादा विकल्प होंगे, जिससे बिचौलियों की भूमिका घटेगी। इसका लाभ किसानों को मिलेगा। भंडारण की पाबंदियां हटने से कृषि से जुड़े बुनियादी ढांचे में निवेश जुटाने में मदद मिलेगी।

लेकिन कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग को बढ़ावा मिलने से खेती पर कॉरपोरेट के कब्जे का डर भी है।

मंडियों के बाहर खरीद-फरोख्त की छूट मिलने से राज्यों को राजस्व का नुकसान उठाना पड़ सकता है। इसलिए पंजाब, छत्तीसगढ़ जैसे राज्य इन अध्यादेशों का विरोध का रहे हैं। प्राइवेट मंडियों और किसान से सीधी खरीद की छूट मिलने से मंडियों का वर्चस्व टूट सकता है। इसलिए कई राज्यों में कृषि उपज के व्यापारी यानी आढ़तिये भी कृषि अध्यादेशों का विरोध कर रहे हैं।

कई किसान संगठन केंद्र के इन अध्यादेशों को खेती के कॉरपोरेटाइजेशन के तौर पर देख रहे हैं। अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के संयोजक सरदार वीएम सिंह का कहना है कि ये अध्यादेश सुधारों के नाम पर किसानों की आंखों में धूल झोंकने का काम कर रहे हैं। इनसे न तो किसानों को सशक्त करेंगे और न ही उनकी आमदनी बढ़ा पाएंगे। इनमें कहीं भी न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) या स्वामीनाथम कमीशन के फॉर्मूले (सी2 के साथ 50 फीसदी मार्जिन) का जिक्र नहीं है।

यूरोप से मिला ट्रैक्टर मार्च का आइडिया

हरियाणा और पंजाब के अलावा राजस्थान और मध्यप्रदेश से भी किसानों के ट्रैक्टर मार्च निकालने की खबरें आ रही हैं। सोशल मीडिया के जरिए शुरू हुई यह मुहिम किसी बड़े संगठन के बिना ही दूर-दराज के गांवों तक फैल रही है। किसानों को ट्रैक्टर मार्च का आइडिया कुछ दिनों पहले नीदरलैंड्स में हुए इसी तरह के विरोध-प्रदर्शन से आया था। फिर सोशल मीडिया के माध्यम से इसकी गूंज हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और मध्यप्रदेश तक पहुंच गई।

सरकारी अमले के सामने किसान दंपति ने जहर पिया, पुलिस बर्बरता का वीडियो वायरल

मध्यप्रदेश के गुना में किसान परिवार पर पुलिस बर्बरता का वीडियो सामने आया है। सरकारी कॉलेज की जमीन पर कब्जा हटाने गए एसडीएम और पुलिस के सामने ही किसान राजकुमार अहिरवार और उनकी पत्नी ने जहर पी लिया। इस दौरान पुलिस ने किसान पर खूब लाठियां बरसाईं।

किसान राजकुमार का दावा है कि यह उसकी पैतृक जमीन है जिस पर दो लाख रुपये का कर्ज लेकर खेती कर रहा है। जब पुलिस ने बोयी फसल पर जेसीबी चलवानी शुरू कर दी तो उसने फसल बचाने की बहुत गुहार की, लेकिन पुलिस ने एक ना सुनी। मेहनत की कमाई बर्बाद होता देख उसके पास खुदकुशी करने के अलावा दूसरा रास्ता नहीं बचा।

किसान द्वारा आत्महत्या के प्रयास और पुलिस बर्बरता का वीडियो वायरल होने के बाद विपक्ष ने भाजपा सरकार को घेरना शुरू कर दिया है। कांग्रेस विधायक पीसी शर्मा ने किसान दंपति पर लाठियां बरसाते पुलिसकर्मियों का वीडियो ट्वीट करते हुए भाजपा में गए ज्योतिरादित्य सिंधिया पर निशाना साधा। सिंधिया लोकसभा में गुना क्षेत्र से ही चुने गए थे।

क्या है मामला?

मिली जानकारी के अनुसार, गुना में सरकारी कॉलेज के लिए आवंटित जमीन पर किसान राजकुमार का परिवार लंबे समय से खेती कर रहा है। लेकिन उसके पास पट्टा नहीं है।

मंगलवार दोपहर को एसडीएम के नेतृत्व में गुना नगर निगम का अतिक्रमण हटाओ दस्ता वहां पहुंचा और फसल पर जेसीबी चलवानी शुरू कर दी। राजकुमार ने सरकारी अमले को रोकने की बहुत कोशिश की। जब किसी ने उसकी बात नहीं सुनी तो वह खेत में बनी झोपड़ी में गया और कीटनाशक की बोतल में रखा जहर पी लिया। उसे देखकर उसकी पत्नी सावित्री ने भी जहर पी लिया। यहां तक कि दोनों अस्पताल जाने से भी इनकार करने लगे तो पुलिस ने घसीटकर गाड़ी में बैठाया और अस्पताल पहुंचा दिया। इस दौरान पुलिस ने खूब लाठियां बरसायीं। मां-बाप को पिटता देखकर बिलखते बच्चों की तस्वीरें और वीडियो अब वायरल हो रहे हैं।

अस्पताल में भर्ती किसान की पत्नी की हालत गंभीर बताई जा रही है। इस पूरे मामले में पुलिस के रवैये और किसान परिवार के साथ हुए सलूक पर सवाल उठ रहे हैं।

खाद्य तेलों के बाजार में अमूल की एंट्री, लॉन्च किया ‘जन्मेय’ ब्रांड

देश के सबसे बड़े डेयरी ब्रांड अमूल के स्वामित्व वाली गुजरात कोऑपरेटिव मिल्क मार्केटिंग फेडरेशन (जीसीएमएमएफ) खाद्य तेलों के बाजार में भी आ गई है। इसकी शुरुआत फिलहाल गुजरात से हुई है जहां जीसीएमएमएफ तिलहन किसानों की मदद करेगी। संस्था ने जन्मेय ब्रांड के तहत मूंगफली, सूरजमुखी, सरसों, सोयाबीन और बिनौला तेल बाजार में उतारे हैं, जो संस्था के रिटेल नेटवर्क के जरिए बेचे जाएंगे।

दुनिया भर में अमूल के कोऑपरेटिव मॉडल को सराहा जाता है क्योंकि इसकी आय का अधिकांश हिस्सा पशुपालकों को जाता है। जीसीएमएमएफ के प्रबंध निदेशक आरएस सोढ़ी का कहना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा प्रेरित आत्मनिर्भर भारत अभियान के तहत गुजरात के तिलहन किसानों को लाभकारी मूल्य दिलाने के लिए जन्मेय ब्रांड के खाद्य तेलों की शुरुआत की गई है। आरएस सोढ़ी ने असलीभारत.कॉम को बताया कि खाद्य तेलों का बाजार संस्था के लिए नया क्षेत्र है और इसके अनुभवों को देखने के बाद ही नेशनल लेवल पर लॉन्चिंग का फैसला किया जाएगा।

गौरतलब है कि भारत विश्व में सबसे ज्यादा खाद्य तेल आयात करने वाला देश है जो अपनी जरूरत का 65-70 फीसदी खाद्य तेल आयात करता है। अभी जून के महीने में ही खाद्य तेलों का आयात 8 फीसदी बढ़कर 8 महीने के उच्चतम स्तर पर पहुंचा है। देश को आत्मनिर्भर बनाने और व्यापार घाटा कम करने के लिए खाद्य तेलों के आयात पर अंकुश लगाना जरूरी है।

अमूल को चलाने वाली सहकारी संस्था की एंट्री से खाद्य तेलों के बाजार में हलचल मच सकती है। हालांकि, नेशनल डेयरी डेवलपमेंट बोर्ड (एनडीडीबी) से जुड़ी मदर डेयरी लंबे समय से धारा ब्रांड के साथ खाद्य तेलों के बाजार में मौजूद है। गुजरात में जीसीएमएमएफ को दूध बेचने वाले ज्यादातर पशुपालक तिलहन के किसान भी हैं, इसलिए इन्हें संगठित संस्था के लिए करना आसान होगा।

जनता की आवाज़ में रैप का हैशटैग लगा इंटरनेट पर छाए दुले रॉकर

देश के सबसे पिछड़े जिलों में शुमार ओडिशा का कालाहांडी जिला आजकल बिल्कुल अलग वजहों से सुर्खियों में है। यहां के 27 वर्षीय दुलेश्वर टांडी रैप के जरिए सत्ता और व्यवस्था पर तीखे सवाल उठा रहे हैं। आम जनता से जुड़े गरीबी, गैर-बराबरी और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दाें पर उनकी आवाज, अंदाज और अल्फाज सोशल मीडिया पर धूम मचाने लगे हैं। लॉकडाउन के हालात पर उनका रैप हैशटैग लॉकडाउन काफी पॉपुलर हुआ। उनके ज्यादातर गीत हैशटैग से शुरू होते हैं।

अपने आक्रोश को रैप के जरिए आवाज देने वाले दुलेश्वर कालाहांडी के बोरडा गांव के रहने वाले हैं। समाजशास्त्र में एमए और रसायन विज्ञान में बीएससी कर चुके डुलेश्वर प्रवासी मजदूर हैं। कई राज्यों में रिक्शा चलाने से लेकर अखबार बांटने, मजदूरी करने और बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने जैसे काम कर चुके हैं। गरीबी, बेरोजगारी और लाचारी को काफी करीब से देखा है। गरीब किसान-मजदूरों के लिए उनकी पीड़ा और सत्ता से सवाल पूछने की बेचैनी इन्हीं हालात से निकली है। यूट्यूब पर वे रैपर दुले रॉकर के नाम से मौजूद हैं और हिंदी, अंग्रेजी के अलावा स्थानीय कोशली या संबलपुरी भाषा में गाते हैं।

पिछले सप्ताह ग्रामीण भारत की रिपोर्टिंग पर केंद्रित पोर्टल https://ruralindiaonline.org/ ने डुले रॉकर पर एक स्टोरी की थी। इसके बाद से ही लोगों का ध्यान उनकी तरफ गया। टाइम्स ऑफ इंडिया समेत कई अखबार उनके बारे में लिख चुके हैं।

किसानों की दुर्दशा के बारे में दुले रॉकर का हैशटैग फार्मर पर सुनने लायक है। जिसके बोल हैं

हां तुम्हें आता बस लूटना
हां तुम्हें आता बस चुराना
हम लेंगे अपना हक छीनके
तुम खड़े-खड़े देखना
बंद करो फेंकना
बंद करो भौंकना
बड़े-बड़े वादे, झूठी-झूठी कसमें
जिसमें इतनी सी भी सच्चाई है नहीं
बस जुमला ही जुमला है
सिस्टम ये खोखला है

लॉकडाउन के दौरान पैदल लौटने को मजबूर प्रवासी मजदूरों की लाचारी को भी दुले रॉकर ने आवाज दी थी। उनका गाया सरकार जवाब दो गीत काफी सुना जा रहा है। बेहद जोशीले अंदाजा के अलावा कड़वी सच्चाईयों से रूबरू कराते उनके सवाल ध्यान खींचने वाले हैं।

रैपर दुले रॉकर की प्रतिभा से प्रभावित होकर बॉलीवुड के मशहूर संगीतकार और गायक विशाल ददलानी ने उन्हें संपर्क में रहने का कहा है। विशाल का कहना है कि इस अद्भुत कलाकार की हरसंभव मदद करेंगे।


कोरोना संकट में यूरिया की किल्लत, एमपी-महाराष्ट्र में लंबी लाइनें

कोरोना संकट के बीच यूरिया की किल्लत ने किसानों की मुश्किलें बढ़ा दी हैं। इस साल अच्छे मानसून और जल्द बुवाई की वजह से यूरिया की मांग भी जल्द बढ़ने लगी है। लेकिन जरूरत के मुताबिक आपूर्ति नहीं होने से मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश के कई जिलों में यूरिया के लिए किसानों की लंबी लाइनें लगने लगी हैं।

हाल ही में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने केंद्रीय रसायन एवं उर्वरक मंत्री डीवी सदानंद गौड़ा से मिलकर राज्य के लिए यूरिया का कोटा बढ़ाने का अनुरोध किया था। लेकिन जब तक यह मांग पूरी होती, उससे पहले ही यूरिया के लिए मारामारी और कालाबाजारी की खबरें आने लगी हैं। यूरिया के लिए लंबी लाइनें लगने से महामारी का खतरा भी बढ़ रहा है।

मिली जानकारी के अनुसार, मध्यप्रदेश के खड़वा, खरगोन, बुरहानपुर, देवास, हरदा, उज्जैन और बैतूल जिलों में यूरिया की काफी किल्लत है। इन जिलों से खरीफ सीजन के लिए जितने यूरिया की मांग शासन को भेजी गई थी, उसके मुकाबले काफी कम यूरिया की रैक पहुंची हैं। नतीजन, सहकारी समितियों पर यूरिया के लिए किसानों की लंबी लाइनें हैं या फिर यूरिया की कालाबाजारी हो रही है।

यूरिया की किल्लत को लेकर कांग्रेस ने भी मध्यप्रदेश सरकार को घेरना शुरू कर दिया है। किसान कांग्रेस के कार्यकारी प्रदेश अध्यक्ष केदार शंकर सिरोही का कहना है कि शिवराज सरकार के पास यूरिया की किल्लत से निपटने का कोई प्लान ही नहीं है। भाजपा का पूरा ध्यान सरकार गिराने और बनाने पर रहा। किसानों की समस्याओं का इनके पास कोई समाधान नहीं है।

इससे पहले मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा था कि जुलाई के लिए डेढ़ लाख टन और अगस्त-सितंबर के लिए 4.25 लाख टन यूरिया की अतिरिक्त आवश्यकता है। चौहान ने केंद्र सरकार से 5.75 लाख मीट्रिक टन अतिरिक्त यूरिया के शीघ्र आवंटन की मांग की है। इस साल अच्छी बारिश और बुवाई का क्षेत्र बढ़ने से प्रदेश में यूरिया की मांग 23 फीसदी बढ़ने का अनुमान है। इस साल खरीफ सीजन के लिए केंद्र सरकार ने मध्यप्रदेश को 11 लाख टन यूरिया देने पर सहमति जताई थी।

मध्यप्रदेश के अलावा महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में भी कई जगहों से यूरिया की किल्लत और कालाबाजारी की खबरें आ रही हैं


कैसी आत्मनिर्भरता? खाद्य तेलों का आयात 8 फीसदी बढ़ा

कोरोना संकट के दौरान एक तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश को आत्मनिर्भर बनाने और ‘लोकल के लिए वोकल’ होने का मंत्र दे रहे हैं, तो दूसरी तरफ किसानों के हितों पर चोट कर खाद्य तेल का आयात हो रहा है।

गत जून में खाद्य तेलों का आयात 8 फीसदी बढ़कर 11.62 लाख टन तक पहुंचा गया है जो पिछले 8 महीनों में सर्वाधिक है। पिछले साल जून में भारत ने 10.71 लाख टन खाद्य तेलों का आयात किया था। जबकि खाद्य तेल कोई ऐसी चीज नहीं है, जिसका देश में उत्पादन ना हो सके।

खाद्य तेलों की प्रोसेसिंग से जुड़े उद्योगों के संगठन सॉल्वेंट एक्सट्रेक्टर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया (एसईए) के अनुसार नवंबर, 2019 से जून, 2020 के दौरान खाद्य तेलों का आयात पिछले साल के मुकाबले 15 फीसदी कम रहा है। इसकी वजह पाम ऑयल के आयात में आई कमी है। लेकिन पिछले आठ महीनों में खाद्य तेलों का सर्वाधिक आयात जून में हुआ।

इस साल जनवरी में भारत सरकार ने पाम ऑयल के आयात पर कुछ पाबंदियां लगा दी थीं, तब से देश में पाम ऑयल का आयात घटने लगा है। लेकिन हैरानी की बात यह है कि जब देश में आत्मनिर्भरता का शोर नहीं था तब तो खाद्य तेलों का आयात घट रहा था, लेकिन जून में जब आत्मनिर्भर भारत अभियान चलाया गया, तब खाद्य तेलों का आयात 8 फीसदी बढ़ गया।

खपत का 65 फीसदी खाद्य तेल विदेशी

भारत हर साल अपनी जरूरत को पूरा करने के लिए बड़ी मात्रा में खाद्य तेलों का आयात करता है। इससे सबसे ज्यादा करीब 60 फीसदी हिस्सेदारी पाम ऑयल की है जो इंडोनेशिया और मलेशिया से आता है। इसके अलावा अर्जेंटीना, यूक्रेन और रूस से अन्य खाद्य तेल मंगाए जाते हैं।

पाम ऑयल का आयात घटा

साल 2018-19 के दौरान देश में खाद्य तेलों की घरेलू खपत करीब 230 लाख टन थी, जिसे पूरा करने के लिए 149 लाख टन खाद्य तेलों का आयात हुआ। लेकिन अब पाम ऑयल की बजाय सूरजमुखी और सोयाबीन के तेल का आयात ज्यादा हो रहा है। जून में पाम ऑयल का आयात 18 फीसदी गिरा जबकि सूरजमुखी के तेल का आयात 17 फीसदी और सोयाबीन ऑयल का आयात 13 फीसदी बढ़ गया। पाम ऑयल के अलावा अन्य खाद्य तेलों का आयात बढ़ने की वजह से जून में खाद्य तेलों का कुल आयात 8 फीसदी बढ़ गया है।

नब्बे के दशक से बढ़ती नीति

नब्बे के दशक की शुरुआत में भारत खाद्य तेलों के मामले में तकरीबन आत्मनिर्भर हो गया था। लेकिन विश्व व्यापार संगठन के दबाव और आर्थिक उदारीकरण की लहर में देश के दरवाजे सस्ते पाम ऑयल के लिए खोल दिए गए। 90 के दशक में अपनाई इस नीति के चलते तिलहन की खेती की उपेक्षा हुई और देश में खाद्य तेलों का आयात बढ़ता चला गया। अब कई साल बाद पाम ऑयल के आयात पर अंकुश लगा है लेकिन दूसरे खाद्य तेलों का आयात बढ़ने लगा है।

अगर किसानों को सही दाम और प्रोत्साहन दिया जाए तो लाखों टन खाद्य तेलों के आयात की बजाय यह पैसा देश के किसानों की जेब में जा सकता है। खेती और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत किए बिना देश आत्मनिर्भर कैसे बनेगा?

ट्विटर पर किसानों की एकजुटता, टॉप ट्रेंड में #कर्जा_मुक्ति_पूरा_दाम

कोरोना संकट में समूची अर्थव्यवस्था को खेती-किसानी ने सहारा दिया। लेकिन खुद को बेबस महसूस कर रहे किसानों ने अपनी आवाज उठाने के लिए ट्विटर को जरिया बनाया है। #कर्जा_मुक्ति_पूरा_दाम की मांग के साथ आज किसानों ने खूब ट्वीट किए। इस मांग के साथ किसान अपनी दिक्कतें और लॉकडाउन में हुई परेशानी का जिक्र भी कर रहे हैं। खासतौर पर फसलों के समर्थन मूल्य में मामूली बढ़ोतरी, लागत से भी कम दाम और समर्थन मूल्य से नीचे बिक रही फसलों का मुद्दा उठ है।

लॉकडाउन में घटी मांग के चलते फल-सब्जियां और फूल उगाने वाले किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ा है। जिसे देखते हुए किसान कर्जमाफी और फसल के बेहतर दाम की मांग कर रहे हैं। लेकिन कोरोना संकट से निपटने के लिए घोषित हुए आर्थिक पैकेज में भी किसानों को खास राहत नहीं मिली। आत्मनिर्भर भारत पैकेज में घोषित ज्यादातर रियायतें कर्ज दिलाने से संबंधित और दूरगामी हैं जबकि किसानों को तत्काल सीधी राहत पहुंचाने की जरूरत है।

किसान संगठन अब ट्विटर जैसे सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर भी काफी सक्रिय हैं और इसका इस्तेमाल अपनी आवाज उठाने के लिए करने लगे हैं। आज #कर्जा_मुक्ति_पूरा_दाम की मांग को ट्रेंड कराने का आह्वान राष्ट्रीय किसान मजदूर संगठन और अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के संयोजक सरदार वीएम सिंह सहित कई किसान नेताओं ने किया था, जिसे देश भर के किसान संगठनों और राजनीतिक दलों का समर्थन मिला।

किसानों के अलावा समाज के अन्य वर्गों के लोग भी किसानों की मांग का समर्थन कर रहे हैं। किसानों की एकजुटता के चलते घंटे भर में ही #कर्जा_मुक्ति_पूरा_दाम ट्वविटर पर टॉप ट्रेंड यानी चर्चित मुद्दाें में शुमार हो गया।


किसान कर्जमुक्ति की मांग के साथ ही कॉरपोरेट की कर्जमाफी या एनपीए का मुद्दा भी उठ रहा है। कृषि नीति के विशेषज्ञ देविंदर शर्मा ने लिखा कि साल 2014 से 2019 के बीच 16.88 लाख करोड़ रुपये का कर्ज एनपीए हुआ या राइट ऑफ किया गया है। फिर भी कर्ज में अनुशासनहीनता के लिए किसान को जिम्मेदार ठहराया जाता है।

इस दौरान किसानों को उपज के डेढ़ गुना दाम के सरकारी दावों पर भी खूब सवाल उठे।

मुद्दा किसानों की जमीन पक्की करने का है, सिख या गैर-सिख का नहीं | वीएम सिंह

आपको याद होगा जून के दूसरे सप्ताह में सोशल मीडिया पर उत्तर प्रदेश में बीजेपी सरकार द्वारा 30 हजार सिखों को उनकी जमीन से हटाने की खबर तेजी से फैली। जिसने भी सुना वो हैरान था कि हजारों सिखों को उनकी जमीन से क्यों बेदखल किया जा रहा है। पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टेन अमरिंदर सिंह, अकाली दल के नेताओं और आम आदमी पार्टी ने तुरंत इस मुद्दे पर बयान दिए और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से बात करने की बात कही। मुझे देश-विदेश से लोगों के फोन आये क्योंकि उन्हें मालूम था कि पिछले 25 साल में जब भी किसानों को उजाड़ने की बात हुई है, हमने पहल कर शासन/प्रशासन या कोर्ट के माध्यम से उजाड़ने से रुकवाया।

सन 1996 में लिया गया हाईकोर्ट का आर्डर 15 साल से ज्यादा समय तक लोगों को जमीन से बेदखल होने से बचाता गया। साल 2018 में योगी सरकार नानक सागर डाम के बदले वाली भूमि पर बैठे किसानों को उजाड़ने आई थी, तब हाई कोर्ट में केस किया गया जो आज भी चल रहा है। इसलिए मुझे सोशल मीडिया की खबरों पर आश्चर्य हुआ कि हजारों सिख किसानों को उजाड़ने का मामला सही नहीं हो सकता।

लखीमपुर खीरी जिले के रननगर में जमीन पर कब्जा करने गए पुलिस बल के साथ किसानों का टकराव

हमने जमीनी हकीकत का पता लगाने के लिए तीन सदस्य समिति बिजनौर और रामपुर भेजी जिसके अध्यक्ष तेजिंदर सिंह विर्क (वर्किंग ग्रुप सदस्य-AIKSCC) थे। ऐसी ही एक दूसरी समिति प्रताप बहादुर जी की अध्यक्षता में पीलीभीत और खीरी भेजी गई। इस समिति को खासतौर से कहा गया कि रननगर की जांच में ज्यादा समय दें। दोनों टीमें 19 जून को जांच के लिए गई थी और पूरे मामले की पड़ताल के बाद दोनों समितियों ने अपनी रिपोर्ट सौंप दी है।

दोनों जांच रिपोर्ट में साफ है कि सरकार किसानों को जमीनों से हटाने का जोर डाल रही है लेकिन किसी को भी हटाने में नाकामयाब रही है। रननगर में 3 जून को फोर्स ने जेसीबी के माध्यम से 10-12 एकड़ गन्ना उजाड़ दिया। किसानों को जैसे ही इसकी जानकारी मिली, उन्होंने विरोध किया और फोर्स को वापस लौटना पड़ा। अधिकारियों ने उसी दिन गांव वालों पर एफआईआर लिखवा दी। इससे पहले 2018 में जब फोर्स टाटरगंज, कंबोज नगर ओर टिल्ला के किसानों को उजाड़ने गई थी, तब भी नाकामयाब रही थी। क्योंकि किसानों ने पुलिस बल को वापस लौटने पर विवश कर दिया था।

अब देखने की बात है कि जब हमारे किसानों ने दोनों जगहों पर सरकारी फोर्स को भगा दिया तो क्या आज यह कहना सही होगा कि सरकार ने 30 हजार सिखों को उजाड़ दिया? अगर सही मैसेज जाता कि बिना देश के नेताओं/किसानों की सपोर्ट के गांव के किसानों ने फोर्स को भगा दिया और अगर ऐसा फिर हुआ तो पूरे देश के किसान उनके साथ खड़े रहेंगे तो सरकार पर दबाव बनता और वो किसी को उजाड़ने के पहले दो बार सोचती।

लेकिन सोशल मीडिया पर इस मामले को फैलाकर सरकार की नाकामयाबी को उनकी ताकत बना दिया और खुद सरकार से गुहार लगाने गए कि हमें मत उजाड़ो। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अकाली दल की टीम को 20 जून का टाइम दिया। लेकिन वहां किसी ने यह नहीं कहा कि 30 हजार उजड़े हुए लोगों को दोबारा बसाया जाए। उन्हें मालूम था कि सरकार उजाड़ने में नाकामयाब रही और जो 10-12 एकड़ गन्ना जो जोत दिया गया था उस पर भी किसानों ने फोर्स को भगाने के बाद धान लगा दिया है।

इससे एक तरफ 30 हजार सिख किसानों को उजाड़ने की गलत खबर से हमारी कमजोरी दिखाई दी और दूसरी तरफ जात-बिरादरी छोड़ देश के किसानों को एक प्लेटफॉर्म पर लाने की मुहिम को कमजोर करने की कोशिश दिख रही है। सिख किसानों के मालिकाना हक की बात पहले भी बहुत मुख्यमंत्रियों ने की पर ऐसे उजाड़ने का प्रयास तो किसी ने नहीं किया। क्या सिखों को उजाड़ने कि झूठी बात सोशल मीडिया पर वायरल करना मुख्यमंत्री से अकालियों के साथ मिलने की सुनियोजित रणनीति थी?

मुख्यमंत्री ने 4 जांच कमेटियां बनाई हैं जो मालिकाना हक दिलवाने का काम करेंगी। वहीं उस वार्ता के कुछ दिन बाद उसी निघासन तहसील के सिंघाई थाने में सिखों पर सरकारी जमीन पर कब्जा करने के आरोप में 10 गंभीर धाराओं लगते हुए एफआईआर दर्ज करवाई गई।

हकीकत है कि पिछले 50-60 सालों से बैठे किसानों को बीजेपी सरकार ने उखाड़ने की कोशिश की है। मंगल ढिल्लों जी ने पीलीभीत में सिखों (सुरजीत कौर आदि) की विरासत जिला अधिकारी द्वारा पलटने की बात कही! यह मामला 1997-98 में भाजपा सरकार का है आज का नहीं। यह मामला 20-22 किसानों का है और आज ये मामला कमिश्नरी से वापस चकबंदी अफसर के पास पहुंचा है। केवल मामला उछालने की बजाय हम अगर उन परिवारों की अच्छे वकीलों के द्वारा मदद करे तो बेहतर होगा।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हमें हर बिरादरी के किसानों को जमीन का मालिकाना हक दिलवाने की कोशिश करनी है। नानक सागर डाम और रामपुर जिले का मामला कोर्ट में है। सरकार हल निकाल दे तो सोने पर सुहागा, अगर कमेटी की सिफारिशों का इंतज़ार कर रही है तो कम से कम गन्ने का सट्टा तो आने वाले सर्वे में चालू करवा दें, जिससे उनका कब्जा तो बरकरार रहेगा। किसान 50-60 साल से अपनी जमीन पर काबिज हैं। कुछ सरकारों ने उसकी जमीन की मलकियत देने की बात कही पर आज तक दोनों मुद्दों पर सरकारें नाकामयाब रही हैं।

पिछले 25 सालों में मैंने अपना फर्ज निभाया। किसानों का सट्टा दिलवाने का काम भी किया। अब अकाली दल और बीजेपी के माध्यम से अगर किसानों को मलकियत मिलती है तो उससे बड़ी बात कोई नहीं हो सकती। हाई कोर्ट में जो हमसे होगा हम करेंगे। मैं उम्मीद करता हूं कि अगले 6 महीने में इन कमेटी की प्रक्रिया समाप्त होकर किसानों को मलकियत मिलेगी।

मुझे मालूम है कि उत्तराखंड में बीजेपी सरकार द्वारा खटीमा में हाल ही में 106 एकड़ गेहूं उजाड़ दी गई और बाजपुर में प्रशासन द्वारा 20 हजार किसानों की 5,838 एकड़ पर संकट के बादल छाए हुए हैं। जैसे दिल्ली में कोरोना कम होता है और उत्तराखंड में जाने की अनुमति मिलती है, तब मैं खटीमा और बाजपुर आऊंगा। पर इसी बीच में उत्तर प्रदेश/उत्तराखंड सिख संगठन और अकाली दल के नेताओं से कहना चाहूंगा कि आपकी सहयोगी बीजेपी सरकार से इन मामलों का भी हल निकलवाने की कोशिश करें। बाजपुर और खटीमा में सिखों के साथ-साथ अन्य बिरादरियों के किसान भी हैं। सिख पहले श्रेणी की खेती करता है, देश का पेट भरता है। उसकी बात किसान के रूप में कि जाए तो बेहतर होगा। जब हमारे गुरु ने जात बिरादरी में फर्क ना रखते हुए एक धर्म को बचाने के लिए सब कुछ किया तो कुछ लोग सिख किसान और गैर सिख किसान की दरार क्यों पैदा कर रहे हैं?

(लेखक राष्ट्रीय किसान मजदूर संगठन और अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के राष्ट्रीय संयोजक हैं)