गतिरोध की अवस्था की ओर बढ़ रही है भारतीय अर्थव्यवस्था

एडम स्मिथ और डेविड रिकार्डों को यह ख्याल बहुत डराता था कि पूंजीवाद कहीं एक ‘अचल अवस्था’ में न पहुंच जाए. अचल अवस्था से उनका आशय था शून्य वृद्धि दर की एक स्थिर अवस्था. इस प्रकार की अवस्था को सूचित करने के लिए मार्क्स ‘सरल पुनरुत्पादन’ की संज्ञा का प्रयोग करते थे. यह ऐसी अवस्था का सूचक है जहां उत्पादन क्षमता में कोई शुद्ध इजाफा नहीं होता है और अर्सा दर अर्सा अर्थव्यवस्था पहले वाले स्तर पर ही अपने को पुनरुत्पादित करती रहती है. भारतीय अर्थव्यवस्था ऐसी ही अवस्था की ओर बढ़ती लग रही है.

आर्थिक बहाली का दावा प्रतिव्यक्ति जीडीपी में गिरावट

मोदी सरकार की प्रचार मशीनरी, जैसाकि उसका कायदा है, सवाया-ड्योढ़ा जोर लगाकर, अर्थव्यवस्था की रंगी-चुनी तस्वीर पेश करने की कोशिश कर रही है. लेकिन, सच्चाई इससे ठीक उल्टी है. सरकार के इस प्रचार में एक सरल सी गणितीय तिकड़म का इस्तेमाल किया जा रहा है. तिकड़म यह है कि अगर उत्पाद, 100 इकाई से घटकर 90 इकाई रह जाता है, हम कहेंगे कि 10 फीसद गिरावट हुई है. लेकिन, अगर वही उत्पाद फिर से बढक़र 100 इकाई हो जाता है, गणित के हिसाब से उसमें 11.1 फीसद बढ़ोतरी होगी क्योंकि इस बढ़ोतरी को घटे हुए आधार पर रखकर मापा जा रहा होगा. अब चूंकि बढ़ोतरी का 11.1 फीसद का यह आंकड़ा, गिरावट के 10 फीसद के आंकड़े से ज्यादा होता है, इसके सहारे यह झूठा दावा किया जा सकता है कि अर्थव्यवस्था ने वृद्धि की पटरी पर दौड़ना शुरू कर दिया है, जबकि वास्तव में दोनों वर्षों को मिलाकर देखें तो, अर्थव्यवस्था में कोई वृद्धि दर्ज नहीं हुई होगी. इस समय सरकार ठीक ऐसे ही एक झूठे दावे का सहारा ले रही है.

आइए, हम 2020-21 के वर्ष को बिल्कुल भूल ही जाते हैं, जब महामारी का प्रकोप बहुत भयंकर था और सिर्फ उससे पहले तथा बाद के वर्षों को ही हिसाब के लिए ले लेते हैं. 2019-20 और 2021-22 के बीच, वास्तविक मूल्य में सकल घरेलू उत्पाद में सिर्फ 1.5 फीसद की बढ़ोतरी हुई है, जो कि इन दो वर्षों के बीच आबादी में हुई बढ़ोतरी, 2 फीसद से कम है. इस तरह, 2021-22 में प्रतिव्यक्ति वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी), 2021-22 की तुलना में घटकर रहा था.

इस गतिरोध के लिए जिम्मेदार घटक पड़ताल के हकदार हैं. उपभोग यानी वास्तविक मूल्य में निजी अंतिम उपभोग खर्च 2019-20 की तुलना में, 2021-22 में करीब 1.5 फीसद ज्यादा रहा था, जबकि वास्तविक मूल्य के लिहाज से कुल स्थिर पूंजी निर्माण यानी इन्वेंटरियों में बढ़ोतरी को निकाल कर, वास्तविक मूल्य के लिहाज से कुल निवेश, 3.75 फीसद बढक़र रहा था. उपभोग के मुकाबले, निवेश की दर में वृद्धि का किसी हद तक बढ़कर रहना, लॉकडाउन के चलते स्थगित हुई निवेश परियोजनाओं के नयी परियोजनाओं के साथ इकठ्ठा हो जाने की वजह से था. बहरहाल जो भी हो, इस निवेश की अपेक्षाकृत बढ़ी हुई दर को ज्यादा समय तक बनाए नहीं रखा जा सकता है. जैसे-जैसे निवेश में वृद्धि की दर नीचे आएगी, वैसे-वैसे उपभोग में वृद्धि की दर भी नीचे आएगी. यह उस कारक के चलते होगा, जिसे अर्थशास्त्री ‘गुणनकारी’ प्रभाव कहते हैं यानी ऐसा इसलिए होगा कि निवेश घटकर रहने से उत्पाद तथा इसलिए रोजगार तथा उपभोग मांग भी घट रहे होंगे. और यह अर्थव्यवस्था को और भी प्रबल तरीके से एक अचल अवस्था की ओर या सरल पुनरुत्पादन की अवस्था की ओर धकेल देगा. इस तरह अर्थव्यवस्था, जो पहले ही करीब-करीब गतिरोध की तथा प्रतिव्यक्ति जीडीपी के लिहाज से पीछे खिसकने की अवस्था में है, मजबूती से शुद्ध गतिरोध की ओर तथा इसलिए प्रतिव्यक्ति जीडीपी के लिहाज से और ज्यादा पीछे खिसकने की ओर बढ़ेगी.

इस गतिरोध से निकलना मुश्किल

और जब अर्थव्यवस्था ऐसे शुद्घ गतिरोध की अवस्था में पहुंच जाती है, उसके लिए इस अवस्था से निकलना बहुत मुश्किल हो जाता है. इसका कारण एकदम सरल है. कुल जीडीपी अनिर्वायत:, निजी अंतिम उपभोग खर्च, सकल निवेश, शुद्घ निर्यात (यानी मालों व सेवाओं का आयात घटाकर निर्यात) और सरकारी उपभोग के योग के बराबर होता है. आइए, एक क्षण को हम आखिर के दो आइटमों को अनदेखा कर देते हैं. आइए, हम निवेश के उस हिस्से को भी अनदेखा कर  देते हैं, जो निर्यात बाजार के लिए मालों व सेवाओं का उत्पादन करने के लिए ही है. तब, अगर अर्थव्यवस्था गतिरोध का सामना कर रही हो, तो उपभोग के बढऩे का कोई कारण नहीं है, क्योंकि यह आय के स्तर पर निर्भर करता है. इसलिए, अर्थव्यवस्था में गतिरोध ही बना रहेगा. निवेश भी इसलिए नहीं बढ़ेगा क्योंकि फर्मों के अपनी उत्पादन क्षमता बढ़ाने का कोई कारण ही नहीं होगा क्योंकि अर्थव्यवस्था तथा इसके चलते घरेलू बाजार, गति-अवरोध की अवस्था में बने हुए होंगे. इसलिए, खर्च के जिन तीन आइटमों को हम यहां तक अनदेखा कर रहे थे, उनमें से कम से कम एक में स्वायत्त उछाल यानी घरेलू बाजार से स्वायत्त रूप से उछाल नहीं आता है, तब तक अर्थव्यवस्था गतिरोध की अवस्था में ही बनी रहेगी या जब तक गतिरोध की अवस्था तक नहीं पहुंच जाती है, उसमें ऋणात्मक वृद्घि भी बनी रह सकती है.

अब शुद्घ निर्यातों में तो एकाएक बढ़ोतरी होने वाली नहीं है क्योंकि विश्व अर्थव्यवस्था तो खुद ही गतिरोध में फंसी हुई है. इसलिए, भारतीय मालों की विदेशी मांग में अचानक बढ़ोतरी हो जाने का कोई कारण नहीं बनता है. दूसरी ओर, नवउदारवादी निजाम के चलते सरकार, भारत के आयातों को घटाने के लिए एकाएक न तो इन आयातों पर ऊंचे तटकर लगाने जा रही है और न अन्य संरक्षणात्मक कदम उठाने जा रही है. ठीक इसी वजह से, निवेश बाजारों के लिए या आयात की जगह लेने के लिए किए जाने वाले निवेशों में कोई उछाल नहीं आने जा रहा है. रही बात सरकारी खर्चों की तो, चूंकि वर्तमान सरकार, जीडीपी के अनुपात में राजकोषीय घाटे पर अंकुश लगाए रखने के लिए कसम खाए हुए है, अगर जीडीपी के अनुपात के रूप में कर राजस्व में ही एकाएक बढ़ोतरी नहीं हो जाती है, तो सरकार के खर्चों का रुझान भी जीडीपी जैसा ही रहने जा रहा है.

इस पहलू से भी, अगर जीडीपी के अनुपात मे रूप में कर राजस्व में अप्रत्यक्ष कराधान के चलते बढ़ोतरी होती भी है, जिसकी चोट मुख्यत: निजी उपभोग पर ही पडऩे जा रही है, तो शुद्घ मांग में कोई बढ़ोतरी नहीं होगी. ऐसी सूरत में जीडीपी के अनुपात के रूप में सरकारी उपभोग में जो बढ़ोतरी होगी भी, उसे जीडीपी के अनुपात के रूप में निजी उपभोग में गिरावट द्वारा बराबर कर दिया जाएगा. यही बात सरकारी खर्चे में ऐसी बढ़ोतरी पर लागू होती है, जिसके लिए वित्त जुटाने के लिए आबादी के उस हिस्से पर अतिरिक्त प्रत्यक्ष कर लगाया जा रहा हो, जो अपनी आय का अधिकांश हिस्सा उपभोग पर खर्च कर देता है.

उपाय तो हैं, पर उल्टा है नवउदारवाद का रास्ता

इसलिए, सरकारी खर्चों में सिर्फ ऐसी बढ़ोतरी ही गतिरोध की अवस्था से उबारने का काम कर सकती है, जिसके लिए वित्त या तो जीडीपी के अनुपात के रूप में राजकोषीय घाटा बढ़ाने के जरिए जुटाया जाए या धनी तबके पर प्रत्यक्ष कर की दरों में बढ़ोतरी के जरिए, इसके लिए वित्त जुटाया जाए. बाद वाले उपाय में कार्पोरेट आमदनियों पर पहले से ज्यादा कर लगाना या निजी संपदा पर ज्यादा कर लगाना, दोनों शामिल हैं. लेकिन, वर्तमान सरकार को इन उपायों का सहारा लेना ही तो किसी भी तरह मंजूर नहीं है. मौजूदा सरकार राजकोषीय घाटे की तय सीमा से कमाबेश बंधी ही रही है और धनिकों पर कर बढ़ाने की बात तो दूर रही, वह तो कारपोरेट क्षेत्र को कर रियायतें ही देती रही है और ऐसा इस गलतफहमी में करती आयी है कि इस तरह की रियायतों से, निजी निवेश में बढ़ोतरी के जरिए, अर्थव्यवस्था में नये प्राण फूंके जा सकेंगे.

यह विश्वास दो कारणों से भ्रमपूर्ण है. पहला कारण तो यह कि, अगर बहस के लिए हम यह मान भी लें कि इस तरह की कर रियायतों से कारपोरेट निवेश में बढ़ोतरी होती है, तब भी इस बढ़ोतरी को सरकारी राजस्व में कमी के चलते, सरकारी खर्चों में होने वाली कटौती बराबर कर देगी और इस तरह सकल मांग में कोई शुद्ध बढ़ोतरी नहीं होगी और इसलिए, अर्थव्यवस्था में नयी जान पडऩा बाधित ही रहेगा. दूसरी वजह यह है कि कारपोरेट निवेश तो किसी भी अर्थव्यवस्था में मांग में बढ़ोतरी पर निर्भर होते हैं, न कि कर रियायतों पर. अगर अर्थव्यवस्था में मांग नहीं बढ़ रही हो, तो पूंजीपतियों को जो भी कर रियायतें दी जाएंगी, वे उन्हें हजम कर जाएंगे और कोई अतिरिक्त निवेश नहीं करेंगे.

इसका अर्थ यह है कि जब कोई अर्थव्यवस्था सरल पुनरुत्पादन के चक्र में फंस जाती है, तो उसके लिए नवउदारवादी व्यवस्था के दायरे में रहते हुए, इस गतिरोध से निकलना बहुत ही मुश्किल हो जाता है. यह कोई खासतौर पर वामपंथ की ही दलील नहीं है. यह दलील तो ऐसे सभी को स्वीकार करनी पड़ेगी जिनकी दिलचस्पी सिर्फ विचारधारात्मक कारणों से धुंधलका फैलाने में नहीं हो. अचरज की बात नहीं है कि कुछ ईमानदार उदारतावादी अर्थशास्त्री भी ठीक यही बात कहते आए हैं.

कृषि क्षेत्र भी उबार नहीं पाएगा

किसी को ऐसा लग सकता है कि चूंकि कृषि क्षेत्र का उत्पादन, मांग के पहलू से संचालित नहीं होता है बल्कि स्वायत्त तरीके से ही तय होता है, मांग के मुकाबले फालतू उत्पाद सरकारी भंडारों के लिए उठाए जाने के चलते, कृषि उत्पाद में बढ़ोतरी समग्रता में अर्थव्यवस्था में आर्थिक वृद्धि का स्वायत्त स्रोत जोड़ सकती है और यह संबंधित अर्थव्यवस्था को सरल उत्पादन के चक्र में फंसने बचा सकता है. बेशक, इसे एक तार्किक संभवना तो कहना ही होगा. लेकिन, 2019-20 और 2021-22 के बीच जीडीपी में वृद्घि के जो आंकड़े हमने शुरू में दिए हैं, उनमें कृषि क्षेत्र की वृद्घि भी शामिल है. इसलिए, अगर कृषि क्षेत्र में एकाएक तेजी से बढ़ोतरी नहीं हो रही हो तो, यह गतिरोध टूटने वाला नहीं है. और नवउदारवादी व्यवस्था में, जिसकी एक मूलभूत विशेषता ही किसानी खेती का ज्यादा से ज्यादा निचोड़ा जाना है, यह उम्मीद करने का कोई कारण नहीं है कि कृषि की वृद्धि में स्वायत्त तेजी आएगी. इसलिए, सरल पुनरुत्पादन के चक्र में गिर जाने की अर्थव्यवस्था की प्रवृत्ति कोई कमी आने नहीं जा रही है.

और अगर किसी कारण से, अर्थव्यवस्था के सरल पुनरुत्पादन में फंसे रहते हुए, आय वितरण में और गिरावट आती है, इससे अर्थव्यवस्था के सरल उत्पादन के चक्र से बाहर निकलने की बात तो दूर, मंदी ही पैदा हो रही होगी. इसकी वजह यह है कि अगर कोई ऋणात्मक वृद्घि दर आती है, तो वह अर्थव्यवस्था को सरल पुनरुत्पादन के एक और नये स्तर पर ही धकेल रही होगी, जहां बेरोजगारी की दर और ज्यादा होगी. ऐसा इसलिए होगा कि आय वितरण में उल्टी दिशा में यह बदलाव, उपभोग में कमी के जरिए, सकल मांग के स्तर को घटाने का ही काम करेगा. इसकी वजह यह है कि गरीब ही अपनी इकाई आय का कहीं बड़ा हिस्सा उपभोग पर खर्च करते हैं.

नवउदारवादी निजाम में भारतीय अर्थव्यवस्था का सरल पुनरुत्पादन की ओर खिसकने की प्रवृत्ति प्रदर्शित करना, इसी तथ्य की ओर इशारा करता है कि नवउदारवाद, अंधी गली में पहुंच गया है और यह भारत के लिए ही नहीं पूरी दुनिया के लिए ही सच है.

साभार: News Click

(प्रभात पटनायक एक भारतीय मार्क्सवादी अर्थशास्त्री और राजनीतिक टिप्पणीकार हैं.)

भारत में कामकाजी महिलाओं की संख्या में आई भारी गिरावट, मात्र 9% महिलाएं ही वर्कफोर्स का हिस्सा-रिपोर्ट

कोरोना महामारी का देश में रोजगार और अर्थव्यवस्था पर विनाशकारी प्रभाव पड़ा है. कोरोना की पहली लहर की वजह से 25 मार्च, 2020 को पूरे देश में लॉकडाउन किया गया. जिसकी वजह से लगभग सभी उद्योग और व्यापार अचानक ठप हो गए. कुछ ही हफ्तों में देश भर में अनुमानित 10 करोड़ लोगों ने अपनी नौकरी खो दी. साथ ही बड़ी संख्या में मजदूरों को गांव लौटना पड़ा. इस दौरान बड़ी संख्या में महिला कर्मचारियों का भी काम छुट गया.

हाल ही में जारी एक रिपोर्ट के अनुसार भारतीय अर्थव्यवस्था में कामकाजी महिलाओं की संख्या में भारी गिरावट देखने को मिली है. विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार, भारत के कार्यबल में कामकाजी महिलाओं का अनुपात 2010 में जहां 26% था, वहीं 2020 में यह घट कर 19% से भी कम हो गया.

यही नहीं महामारी ने हालातों को और भी ज्यादा बिगाड़ दिया. देश में पहले से ही गिरती अर्थव्यवस्था के ग्राफ को महामारी ने और भी ज्यादा गिरा दिया. ब्लूमबर्ग की हालिया रिपोर्ट के अनुसार साल 2022 में अर्थव्यवस्था में कामकाजी महिलाओं की संख्या 19% से घट कर मात्र 9% ही रह गई है. रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में, महामारी के दौरान पुरुषों की तुलना में महिलाओं की नौकरी जाने की संभावना अधिक थी, और उनकी रिकवरी अभी भी धीमी रही है.

यह भारत की अर्थव्यवस्था, युवा महिलाएं और लड़कियों के लिए के लिए विनाशकारी खबर है, जिसे बिलकुल भी अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए. अर्थशास्त्रियों के मुताबिक, भारत में पुरुषों के मुकाबले महिलाओं के वर्कफोर्स में लौटने की संभावना कम है.

ब्लूमबर्ग इकोनॉमिक्स विश्लेषण के अनुसार, देश में पुरुषों और महिलाओं के बीच रोजगार का अंतर 58 फीसदी है, जिसे अगर जल्द ही खत्म किया जाता है तो 2050 तक भारत की अर्थव्यवस्था लगभग एक-तिहाई तक बढ़ सकती है.

दूसरी ओर, यदि कुछ नहीं किया जाता तो वैश्विक बाजार के लिए भारत का प्रतिस्पर्धी उत्पादक बनने का लक्ष्य और सपना पटरी से उतरने का जोखिम होगा.

रिपोर्ट के मुताबिक महिलाएं भारत की कुल जनसंख्या का 48% हैं लेकिन देश के सकल घरेलू उत्पाद जिसे अंग्रेजी में जीडीपी कहते हैं, में उनका योगदान केवल 17% ही है. वहीं दुसरी ओर दुनिया में सबसे ज्यादा आबादी वाला देश चीन की जीडीपी में महिलाओं का योगदान 40% तक है.

रिपोर्ट के अनुसार लैंगिक असमानता को खत्म करके कामकाजी महिलाओं की संख्या बढ़ाने से 2050 तक वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद में 20 ट्रिलियन (लगभग 1,552 लाख करोड़ रुपये) जोड़ने में मदद मिलेगी.

रिपोर्ट के अनुसार अर्थशास्त्रियों का मानना है कि महामारी से पहले ही भारत की आर्थिक वृद्धि धीमी हो गई थी. कार्यबल में कामकाजी महिलाओं की गिरावट चिंताजनक है. दूसरी ओर, सरकार ने कामकाजी महिलाओं के लिए काम करने की स्थिति में सुधार के लिए बहुत ही कम प्रयास किया है. विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं के लिए रोजगार के अवसर कम होते जा रहे हैं.

भारतीय जॉब मार्किट में महिलाओं के साथ साथ पुरुषों के भी हालात कुछ खास ठीक नहीं है. स्थिति इतनी खराब हो गई है कि भारत में रोज़गार की उम्र वाले लोगों में से आधे लोगों ने अब किसी रोज़गार की तलाश ही छोड़ दी है और घर बैठने का निश्चय किया है. और इन लोगों की संख्या में लगातार इज़ाफा भी हो रहा है. अर्थव्यवस्था पर नज़र रखने वाली संस्था सेंटर फॉर मोनिटरिंग इंडियन इकॉनमी (सीएमईआई) के जारी नए आंकड़ों के अनुसार भारत की अर्थव्यवस्था में भाग लेने वाले कामगारों का हिस्सा 2016 के मुकाबले 15% और अधिक कम हो गया है.

दुनिया भर में लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन की दर करीब 60 फीसदी है, यानी काम करने वाले उम्र के सभी लोगों में 60 फीसदी या तो काम कर रहे हैं या फिर काम ढूंढ़ रहे हैं. जबकि भारत में पिछले दस सालों में लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन की दर गिरते-गिरते दिसंबर, 2021 में 40 फीसदी पर जा पहुंची है. जबकि पांच साल पहले यह 47 फीसदी थी.

चार दशक में पहली बार साल भर शून्य से नीचे रहेगी जीडीपी ग्रोथ

अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर देश कई चुनौतियों से जूझ रहा है। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया का अनुमान है कि वित्त वर्ष 2020-21 के दौरान पूरे साल सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर शून्य से नीचे यानी निगेटिव रहेगी। यह स्थिति तब है जबकि अर्थव्यवस्था को सामान्य मानसून और कृषि क्षेत्र का भरपूर साथ मिल रहा है।

गुरुवार को मौद्रिक नीति की समीक्षा के बाद आरबीआई के गवर्नर शक्तिकांत दास ने कहा कि कोविड-19 महामारी के चलते चालू वित्त वर्ष की पहली छमाही के दौरान इकनॉमी सकुंचित रहेगी। पूरे वित्त वर्ष 2020-21 के दौरान भी वास्तविक जीडीपी ग्रोथ निगेटिव रहने का अनुमान है। अगर महामारी पर जल्द काबू पा लिया जाता है तो आर्थिक स्थिति सुधर सकती है लेकिन अगर महामारी और ज्यादा फैलती है या फिर मानूसन सामान्य नहीं रहता है तो अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ेगा।

India GDP Growth Rate 1961-2020. www.macrotrends.net. Retrieved 2020-08-06.

महामारी में महंगाई का खतरा

अर्थव्यवस्था में सुस्ती के साथ-साथ महंगाई का खतरा भी बढ़ता जा रहा है जिसे देखते हुए आरबीआई ने ब्याज दरों में कोई कटौती नहीं की है। इस साल जून में वार्षिक महंगाई दर मार्च के 5.84 फीसदी के मुकाबले बढ़कर 6.09 फीसदी रह गई, जो केंद्रीय बैंक के मीडियम टर्म टारगेट से अधिक है। आरबीआई का टारगेट 2 से 6 फीसदी है।

कोरोना संकट को देखते हुए ऋणों के एक बार पुनर्गठन की छूट दे दी है। इस तरह की राहत का कॉरपोरेट जगत को बेसब्री से इंतजार था। बैंकों का कर्ज डूबने और एनपीए संकट के पीछे इस तरह के कर्ज पुनर्गठन बड़ी वजह है। हालांकि, आरबीआई ने कर्ज भुगतान में मोहलन यानी लोन मोरेटोरियम के बारे में आज कोई ऐलान नहीं किया। लोन मोरेटोरियम की अवधि 31 अगस्त को खत्म हो रही है।

साल दर साल बढ़ती आर्थिक सुस्ती

पिछले चार दशक में यह पहला मौका है जब भारत की जीडीपी ग्रोथ शून्य से नीचे रहेगी। इससे पहले सन 1979 में जनता पार्टी सरकार के वक्त जीडीपी की विकास दर शून्य से नीचे रही थी। साल 2005 से 2014 के दौरान जीडीपी की ग्रोथ रेट 7-8 फीसदी के आसपास रही है। लेकिन 2016 से जीडीपी ग्रोथ में गिरावट का सिलसिला जारी है। साल 2019-20 में देश की जीडीपी ग्रोथ 11 साल में सबसे कम 4.2 फीसदी रही थी, लेकिन इस साल तो जीडीपी में इतनी वृद्धि की उम्मीद भी नहीं है।

देश की अर्थव्यवस्था पर महामारी की मार का अंदाजा मई महीने में ही लग गया था, तभी से जीडीपी ग्रोथ निगेटिव रहने की आशंका जताई जा रही हैं। क्रेडिट रेटिंग एजेंसी फिच के मुताबिक, अर्थव्यवस्था पर कोरोना वायरस का असर अगले कई वर्षों तक रहेगा। हालांकि, आरबीआई गवर्नर ने कृषि क्षेत्र से उम्मीद लगाते हुए कहा कि खरीफ की फसल अच्छी रहने से ग्रामीण क्षेत्र में मांग सुधरेगी। शून्य या इससे भी नीचे की विकास दर असर रोजगार, वेतन, मांग और बिक्री समेत अर्थव्यवस्था के हरेक हिस्से और हर व्यक्ति पर पड़ेगा।

क्या गांव-किसान की सुध लेगा बजट?

एक फरवरी को पेश होने वाले बजट पर सारे देश की निगाहें लगी हैं। लगातार गिरती जीडीपी विकास दर, बढ़ती महंगाई दर और बेरोजगारी, मांग और निवेश की कमी, ग्रामीण क्षेत्रों में आर्थिक आपदा आदि की समस्याओं से वित्त मंत्री देश को कैसे निकालती हैं, यह अंतरराष्ट्रीय चिंता का विषय है। मंदी के बादलों को हटाने में बजट में क्या कदम उठाए जाते हैं सभी जानना चाहते हैं। परन्तु इस मंदी से उबरने का रास्ता केवल ग्रामीण भारत से होकर ही गुजरता है।

वर्तमान वित्त वर्ष का कुल बजट लगभग 27,86,349 करोड़ रुपये है। इसमें से कृषि मंत्रालय को 138,564 करोड़ रुपये, ग्रामीण विकास मंत्रालय को 117,650 करोड़ रुपये, रासायनिक उर्वरकों पर सब्सिडी के लिए 80,000 करोड़ रुपये, तथा मत्स्यपालन, पशुपालन और डेयरी मंत्रालय को मात्र 3,737 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे। इन सबको जोड़ दें तो ग्रामीण भारत का 2019-20 का कुल बजट लगभग 340,000 करोड़ रुपए है। यह सम्पूर्ण बजट का लगभग 12 प्रतिशत है जबकि ग्रामीण भारत में लगभग 70 प्रतिशत आबादी बसती है। अब यह कितना उचित है यह बात पाठकों के विवेक पर छोड़ते हैं।

मार्च 2018 की तिमाही में देश की जीडीपी विकास दर 8.1 प्रतिशत थी जो सितम्बर 2019 की तिमाही में गिरकर 4.5 प्रतिशत पर आ गई है। वित्त वर्ष 2019-20 में जीडीपी विकास दर पांच प्रतिशत से कम रहने का अनुमान है। अर्थव्यवस्था में छाई मंदी का मूल कारण मांग की कमी बताया गया है। इससे उबरने के लिए हमें ग्रामीण क्षेत्र के लिए उचित मात्रा में बजट आवंटन करना होगा। इससे मांग तत्काल बढ़ेगी और अर्थव्यवस्था के पहिये गति के साथ चल पड़ेंगे।

सरकार ने एक बहुत ही सराहनीय योजना- प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि (पीएम- किसान) शुरू की है। इस योजना का 2019-20 में 75,000 करोड़ रुपये का बजट है। परन्तु इस वर्ष इस बजट में से केवल 50,000 करोड़ रुपये ही बांटे जाने की संभावना है। इसके पीछे किसानों का धीमी गति से सत्यापन होना है। अब तक इस योजना में कुल 14.5 करोड़ किसानों में से केवल 9.5 करोड़ किसानों का ही पंचीकरण हुआ है। इनमें से अभी तक केवल 7.5 करोड़ किसानों का ही सत्यापन हो पाया है। बंगाल जैसे कुछ राज्यों ने राजनीतिक कारणों से अभी तक अपने एक भी किसान का पंजीकरण नहीं करवाया है, जो वहां के किसानों के साथ एक अन्याय है। परन्तु खेती की बढ़ती लागत को देखते हुए आगामी बजट में इसमें दी जाने वाली राशि को 6,000 रुपये से बढ़ाकर 24,000 रुपये प्रति किसान प्रति वर्ष किया जाना चाहिए। भविष्य में भी इस योजना की राशि को महंगाई दर के सापेक्ष बढ़ाना चाहिए। किसानों को 24,000 रुपये मिलने से ग्रामीण क्षेत्रों में तुरन्त क्रय-शक्ति बढ़ेगी और अर्थव्यवस्था की गाड़ी तेजी से आगे बढ़ेगी।

पशुपालन और दुग्ध उत्पादन कृषि का अभिन्न अंग है और कृषि जीडीपी में इसकी लगभग 30 प्रतिशत हिस्सेदारी है। परन्तु पशुपालन और डेयरी कार्य हेतु बजट मात्र 2,932 करोड़ रुपये है। दुग्ध उत्पादन और पशुपालन जैसी अति महत्वपूर्ण आर्थिक गतिविधि का बजट कृषि बजट का कम से कम 30 प्रतिशत यानी लगभग 45,000 करोड़ रुपये होना चाहिए।

पशुपालन से होने वाली आय कृषि आय की तरह आयकर से भी मुक्त नहीं है। आगामी बजट में इस विसंगति को दूर किया जाना चाहिए। दूध के क्षेत्र में अमूल जैसी किसानों की अपनी सहकारी संस्थाएं काम कर रही हैं। ये उपभोक्ता द्वारा खर्च की गई राशि का 75 प्रतिशत किसानों तक पहुंचाती हैं। पिछले साल सरकार ने घरेलू कंपनियों के आयकर की दर को 30 प्रतिशत से घटाकर 22 प्रतिशत कर दिया था, परन्तु किसानों की इन सहकारी संस्थाओं पर आयकर पहले की तरह 30 प्रतिशत की दर से ही लग रहा है। जबकि 2005-06 तक इन सहकारी संस्थाओं पर कंपनियों के मुकाबले पांच प्रतिशत कम दर से आयकर लगता था। कंपनियों से भी अधिक आयकर लगाना किसानों के साथ अन्याय है, इसे तत्काल 2005-06 से पहले वाली व्यवस्था के अनुरूप यानी 17 प्रतिशत किया जाना चाहिए।

2012 तक किसानों की सहकारी संस्थाओं को मिलने वाले ऋण को रिज़र्व बैंक ‘प्राथमिक क्षेत्र कृषि ऋण’ के रूप में परिभाषित करता था। आगामी बजट में 2012 से पहले की स्थिति को बहाल कर किसानों की इन सहकारी संस्थाओं को मिलने वाले ऋण को रिज़र्व बैंक पुनः ‘प्राथमिक क्षेत्र को दिए कृषि ऋण’ के रूप में ही परिभाषित करे, ताकि किसानों की इन संस्थाओं को महंगा ऋण लेने के लिए मजबूर ना होना पड़े। सरकार को दुग्ध उत्पादन की लागत कम करने हेतु सस्ता पशु-आहार, सस्ती पशु-चिकित्सा और दवाइयां उपलब्ध कराने के लिए बजट में कदम उठाने चाहिए। ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़ती आवारा पशुओं की संख्या एक विकराल समस्या बन गई है। इनकी संख्या सीमित करने और इनके आर्थिक उपयोग के लिए विशेष बजट प्रावधान करने होंगे।

ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार उपलब्ध कराने की मनरेगा योजना का बजट 60,000 करोड़ रुपये है। इस योजना को खेती किसानी से जोड़ने की आवश्यकता है ताकि किसानों की श्रम की लागत कम हो और इस योजना में गैर उत्पादक कार्यों में होने वाली धन की बर्बादी को रोका जा सके।

कृषि हेतु रासायनिक उर्वरकों की सब्सिडी 80,000 करोड़ रुपये है। यूरिया खाद पर अत्यधिक सब्सिडी के कारण इस खाद का ज़रूरत से ज्यादा प्रयोग हो रहा है जिससे ज़मीन और पर्यावरण दोनों का क्षरण हो रहा है। इस सब्सिडी को भी सीधे किसानों के खातों में नकद भेजा जाए तो खाद सब्सिडी में भारी कमी भी होगी और रासायनिक खाद का अत्यधिक मात्रा में प्रयोग भी बंद होगा।

हम तिलहन को छोड़कर बाकी लगभग सभी कृषि उत्पादों में आत्मनिर्भर हैं या घरेलू मांग से ज्यादा उत्पादन कर रहे हैं। अतः हमें बजट में कृषि उत्पादों के प्रसंस्करण, भंडारण, शीतगृहों और वितरण प्रणाली की आधारभूत संरचना को विकसित करने हेतु उचित आवंटन करना होगा। हमें कृषि उत्पाद विपणन अधिनियम और आवश्यक वस्तु अधिनियम जैसे कानूनों से भी कृषि उत्पादों के व्यापार को मुक्त करने की दिशा में बढ़ना होगा।

आज गेहूं-चावल के अत्यधिक मात्रा में भंडार होने से परेशान है। दिसंबर 2019 में भारतीय खाद्य निगम के भंडारों में लगभग 213 लाख टन चावल और 352 लाख टन गेहूं था, यानी कुल मिलाकर इन दोनों खाद्यान्नों का स्टॉक 565 लाख टन था। जबकि 1 जनवरी को यह बफर स्टॉक 214 लाख टन होना चाहिए। इसके अलावा 260 लाख टन धान भी गोदामों में पड़ी है। देश का खाद्य सब्सिडी का बिल 1.84 लाख करोड़ रुपये है जिसे तत्काल कम किया जाना चाहिए। खाद्य सब्सिडी को वास्तविक जरूरतमंदों तक ही सीमित करना होगा। इसके लिए लाभार्थियों को सीधे नकद राशि हस्तांतरण करना उचित होगा।

कृषि उत्पादों का निर्यात किसानों की आमदनी बढ़ाने में बहुत मददगार होता है। भारत ने 2013-14 में 4,325 करोड़ डॉलर (आज के मूल्यों में लगभग तीन लाख करोड़ रुपये) मूल्य के कृषि उत्पादों का निर्यात किया था, परन्तु इसके बाद हम इस स्तर को कभी भी छू नहीं पाए। अतः हमें बजट में कृषि जिन्सों के निर्यात को बढ़ावा देने के लिए विशेष बजट प्रावधान करने होंगे। अर्थव्यवस्था को मंदी से उबारने के लिए ग्रामीण भारत के लिए उठाए गए ये कदम अत्यधिक उपयोगी साबित होंगे।

(लेखक किसान शक्ति संघ के अध्यक्ष है)

 

जीडीपी ग्रोथ 6 साल में सबसे कम, एग्रीकल्चर ग्रोथ साल भर में हुई आधी   

अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर स्थिति लगातार बिगड़ती जा रही है। ताजा सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, जुलाई-सितंबर तिमाही में भारतीय अर्थव्यवस्था के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी की ग्रोथ घटकर 4.5 फीसदी रह गई है जो पिछले छह वर्षों में सबसे कम है। पिछले साल इसी अवधि में जीडीपी ग्रोथ 7 फीसदी जबकि इससे पहली तिमाही में यह 5 फीसदी थी। जीडीपी ग्रोथ में गिरावट का सिलसिला पिछली 6 तिमाही से जारी है। डेढ़ साल पहले वित्त वर्ष 2017-18 की आखिरी तिमाही में जीडीपी ग्रोथ 8.1 फीसदी थी जो अब 4.5 फीसदी रह गई है। इससे पहले इतनी कम जीडीपी ग्रोथ साल 2012-13 की आखिरी तिमाही में 4.3 फीसदी रही थी।

सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर में कमी से अर्थव्यवस्था के अलग-अलग क्षेत्रों और उद्योगों की हालात को समझा जा सकता है। देश की आधी से ज्यादा आबादी की निर्भरता वाले कृषि क्षेत्र की ग्रोथ महज 2.1 फीसदी है जो पिछले साल की समान अवधि में 4.9 फीसदी थी। यानी एक साल में कृषि क्षेत्र की ग्रोथ घटकर आधी से भी कम रह गई है।

चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में भी कृषि क्षेत्र की ग्रोथ (जीवीए) 2 फीसदी थी। जबकि साल 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करने के लिए कम से कम 10 फीसदी की ग्रोथ होनी चाहिए। लेकिन कृषि क्षेत्र की ग्रोथ बढ़ने के बजाय लगातार कम होती जा रही है। कुल मिलाकर ये आंकड़े गहराते कृषि संकट को बयान करते हैं।

इस समय सबसे बुरा हाल मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर का है। मेक इन इंडिया के तमाम दावों के बावजूद जुलाई-सितंबर के दौरान मैन्युफैक्चरिंग की ग्रोथ -1.0 फीसदी रही जबकि पिछले साल इसी दौरान मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में 6.9 फीसदी की ग्रोथ दर्ज की गई थी। इसी तरह कंस्ट्रक्शन सेक्टर की ग्रोथ भी 8.5 फीसदी से घटकर 3.3 फीसदी रह गई है।

जीडीपी ग्रोथ में कमी का कारण कृषि, खनन और विनिर्माण जैसे अहम क्षेत्रों का फीका प्रदर्शन है। इस आर्थिक सुस्ती को उपभोक्ता मांग और निजी निवेश में कमी के अलावा वैश्विक सुस्ती से भी जोड़कर देखा जा रहा है। हाल के महीनों में केंद्र सरकार ने अर्थव्यवस्था को सुस्ती से उबारने के लिए कॉरपोरेट टैक्स में कटौती जैसी कई राहतों और रियायतों को ऐलान किया है जिसका असर दिखना अभी बाकी है। आर्थिक चुनौतियों से उबरने के लिए मोदी सरकार कई सरकारी उपक्रमों का निजीकरण भी करने जा रही है।

देश की अर्थव्यवस्था को दोबारा 8-9 फीसदी की रफ्तार देना मोदी सरकार के लिए बड़ी चुनौती बन गया है। मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में निगेटिव ग्रोथ उपभोक्ता मांग में कमी की ओर इशारा कर रही है। इसका असर रोजगार के मौकों पर पड़ना तय है। इस आर्थिक चुनौती से उबरने के लिए सरकार को कुछ बड़े कदम उठाने पड़ेंगे, लेकिन सरकार पहले ही वित्तीय घाटे से जूझ रही है। नोटबंदी की मार और जीएसटी के भंवर में फंसी अर्थव्यवस्था कुछ बड़े उपायों का इंतजार कर रही है।