गतिरोध की अवस्था की ओर बढ़ रही है भारतीय अर्थव्यवस्था

 

एडम स्मिथ और डेविड रिकार्डों को यह ख्याल बहुत डराता था कि पूंजीवाद कहीं एक ‘अचल अवस्था’ में न पहुंच जाए. अचल अवस्था से उनका आशय था शून्य वृद्धि दर की एक स्थिर अवस्था. इस प्रकार की अवस्था को सूचित करने के लिए मार्क्स ‘सरल पुनरुत्पादन’ की संज्ञा का प्रयोग करते थे. यह ऐसी अवस्था का सूचक है जहां उत्पादन क्षमता में कोई शुद्ध इजाफा नहीं होता है और अर्सा दर अर्सा अर्थव्यवस्था पहले वाले स्तर पर ही अपने को पुनरुत्पादित करती रहती है. भारतीय अर्थव्यवस्था ऐसी ही अवस्था की ओर बढ़ती लग रही है.

आर्थिक बहाली का दावा प्रतिव्यक्ति जीडीपी में गिरावट

मोदी सरकार की प्रचार मशीनरी, जैसाकि उसका कायदा है, सवाया-ड्योढ़ा जोर लगाकर, अर्थव्यवस्था की रंगी-चुनी तस्वीर पेश करने की कोशिश कर रही है. लेकिन, सच्चाई इससे ठीक उल्टी है. सरकार के इस प्रचार में एक सरल सी गणितीय तिकड़म का इस्तेमाल किया जा रहा है. तिकड़म यह है कि अगर उत्पाद, 100 इकाई से घटकर 90 इकाई रह जाता है, हम कहेंगे कि 10 फीसद गिरावट हुई है. लेकिन, अगर वही उत्पाद फिर से बढक़र 100 इकाई हो जाता है, गणित के हिसाब से उसमें 11.1 फीसद बढ़ोतरी होगी क्योंकि इस बढ़ोतरी को घटे हुए आधार पर रखकर मापा जा रहा होगा. अब चूंकि बढ़ोतरी का 11.1 फीसद का यह आंकड़ा, गिरावट के 10 फीसद के आंकड़े से ज्यादा होता है, इसके सहारे यह झूठा दावा किया जा सकता है कि अर्थव्यवस्था ने वृद्धि की पटरी पर दौड़ना शुरू कर दिया है, जबकि वास्तव में दोनों वर्षों को मिलाकर देखें तो, अर्थव्यवस्था में कोई वृद्धि दर्ज नहीं हुई होगी. इस समय सरकार ठीक ऐसे ही एक झूठे दावे का सहारा ले रही है.

आइए, हम 2020-21 के वर्ष को बिल्कुल भूल ही जाते हैं, जब महामारी का प्रकोप बहुत भयंकर था और सिर्फ उससे पहले तथा बाद के वर्षों को ही हिसाब के लिए ले लेते हैं. 2019-20 और 2021-22 के बीच, वास्तविक मूल्य में सकल घरेलू उत्पाद में सिर्फ 1.5 फीसद की बढ़ोतरी हुई है, जो कि इन दो वर्षों के बीच आबादी में हुई बढ़ोतरी, 2 फीसद से कम है. इस तरह, 2021-22 में प्रतिव्यक्ति वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी), 2021-22 की तुलना में घटकर रहा था.

इस गतिरोध के लिए जिम्मेदार घटक पड़ताल के हकदार हैं. उपभोग यानी वास्तविक मूल्य में निजी अंतिम उपभोग खर्च 2019-20 की तुलना में, 2021-22 में करीब 1.5 फीसद ज्यादा रहा था, जबकि वास्तविक मूल्य के लिहाज से कुल स्थिर पूंजी निर्माण यानी इन्वेंटरियों में बढ़ोतरी को निकाल कर, वास्तविक मूल्य के लिहाज से कुल निवेश, 3.75 फीसद बढक़र रहा था. उपभोग के मुकाबले, निवेश की दर में वृद्धि का किसी हद तक बढ़कर रहना, लॉकडाउन के चलते स्थगित हुई निवेश परियोजनाओं के नयी परियोजनाओं के साथ इकठ्ठा हो जाने की वजह से था. बहरहाल जो भी हो, इस निवेश की अपेक्षाकृत बढ़ी हुई दर को ज्यादा समय तक बनाए नहीं रखा जा सकता है. जैसे-जैसे निवेश में वृद्धि की दर नीचे आएगी, वैसे-वैसे उपभोग में वृद्धि की दर भी नीचे आएगी. यह उस कारक के चलते होगा, जिसे अर्थशास्त्री ‘गुणनकारी’ प्रभाव कहते हैं यानी ऐसा इसलिए होगा कि निवेश घटकर रहने से उत्पाद तथा इसलिए रोजगार तथा उपभोग मांग भी घट रहे होंगे. और यह अर्थव्यवस्था को और भी प्रबल तरीके से एक अचल अवस्था की ओर या सरल पुनरुत्पादन की अवस्था की ओर धकेल देगा. इस तरह अर्थव्यवस्था, जो पहले ही करीब-करीब गतिरोध की तथा प्रतिव्यक्ति जीडीपी के लिहाज से पीछे खिसकने की अवस्था में है, मजबूती से शुद्ध गतिरोध की ओर तथा इसलिए प्रतिव्यक्ति जीडीपी के लिहाज से और ज्यादा पीछे खिसकने की ओर बढ़ेगी.

इस गतिरोध से निकलना मुश्किल

और जब अर्थव्यवस्था ऐसे शुद्घ गतिरोध की अवस्था में पहुंच जाती है, उसके लिए इस अवस्था से निकलना बहुत मुश्किल हो जाता है. इसका कारण एकदम सरल है. कुल जीडीपी अनिर्वायत:, निजी अंतिम उपभोग खर्च, सकल निवेश, शुद्घ निर्यात (यानी मालों व सेवाओं का आयात घटाकर निर्यात) और सरकारी उपभोग के योग के बराबर होता है. आइए, एक क्षण को हम आखिर के दो आइटमों को अनदेखा कर देते हैं. आइए, हम निवेश के उस हिस्से को भी अनदेखा कर  देते हैं, जो निर्यात बाजार के लिए मालों व सेवाओं का उत्पादन करने के लिए ही है. तब, अगर अर्थव्यवस्था गतिरोध का सामना कर रही हो, तो उपभोग के बढऩे का कोई कारण नहीं है, क्योंकि यह आय के स्तर पर निर्भर करता है. इसलिए, अर्थव्यवस्था में गतिरोध ही बना रहेगा. निवेश भी इसलिए नहीं बढ़ेगा क्योंकि फर्मों के अपनी उत्पादन क्षमता बढ़ाने का कोई कारण ही नहीं होगा क्योंकि अर्थव्यवस्था तथा इसके चलते घरेलू बाजार, गति-अवरोध की अवस्था में बने हुए होंगे. इसलिए, खर्च के जिन तीन आइटमों को हम यहां तक अनदेखा कर रहे थे, उनमें से कम से कम एक में स्वायत्त उछाल यानी घरेलू बाजार से स्वायत्त रूप से उछाल नहीं आता है, तब तक अर्थव्यवस्था गतिरोध की अवस्था में ही बनी रहेगी या जब तक गतिरोध की अवस्था तक नहीं पहुंच जाती है, उसमें ऋणात्मक वृद्घि भी बनी रह सकती है.

अब शुद्घ निर्यातों में तो एकाएक बढ़ोतरी होने वाली नहीं है क्योंकि विश्व अर्थव्यवस्था तो खुद ही गतिरोध में फंसी हुई है. इसलिए, भारतीय मालों की विदेशी मांग में अचानक बढ़ोतरी हो जाने का कोई कारण नहीं बनता है. दूसरी ओर, नवउदारवादी निजाम के चलते सरकार, भारत के आयातों को घटाने के लिए एकाएक न तो इन आयातों पर ऊंचे तटकर लगाने जा रही है और न अन्य संरक्षणात्मक कदम उठाने जा रही है. ठीक इसी वजह से, निवेश बाजारों के लिए या आयात की जगह लेने के लिए किए जाने वाले निवेशों में कोई उछाल नहीं आने जा रहा है. रही बात सरकारी खर्चों की तो, चूंकि वर्तमान सरकार, जीडीपी के अनुपात में राजकोषीय घाटे पर अंकुश लगाए रखने के लिए कसम खाए हुए है, अगर जीडीपी के अनुपात के रूप में कर राजस्व में ही एकाएक बढ़ोतरी नहीं हो जाती है, तो सरकार के खर्चों का रुझान भी जीडीपी जैसा ही रहने जा रहा है.

इस पहलू से भी, अगर जीडीपी के अनुपात मे रूप में कर राजस्व में अप्रत्यक्ष कराधान के चलते बढ़ोतरी होती भी है, जिसकी चोट मुख्यत: निजी उपभोग पर ही पडऩे जा रही है, तो शुद्घ मांग में कोई बढ़ोतरी नहीं होगी. ऐसी सूरत में जीडीपी के अनुपात के रूप में सरकारी उपभोग में जो बढ़ोतरी होगी भी, उसे जीडीपी के अनुपात के रूप में निजी उपभोग में गिरावट द्वारा बराबर कर दिया जाएगा. यही बात सरकारी खर्चे में ऐसी बढ़ोतरी पर लागू होती है, जिसके लिए वित्त जुटाने के लिए आबादी के उस हिस्से पर अतिरिक्त प्रत्यक्ष कर लगाया जा रहा हो, जो अपनी आय का अधिकांश हिस्सा उपभोग पर खर्च कर देता है.

उपाय तो हैं, पर उल्टा है नवउदारवाद का रास्ता

इसलिए, सरकारी खर्चों में सिर्फ ऐसी बढ़ोतरी ही गतिरोध की अवस्था से उबारने का काम कर सकती है, जिसके लिए वित्त या तो जीडीपी के अनुपात के रूप में राजकोषीय घाटा बढ़ाने के जरिए जुटाया जाए या धनी तबके पर प्रत्यक्ष कर की दरों में बढ़ोतरी के जरिए, इसके लिए वित्त जुटाया जाए. बाद वाले उपाय में कार्पोरेट आमदनियों पर पहले से ज्यादा कर लगाना या निजी संपदा पर ज्यादा कर लगाना, दोनों शामिल हैं. लेकिन, वर्तमान सरकार को इन उपायों का सहारा लेना ही तो किसी भी तरह मंजूर नहीं है. मौजूदा सरकार राजकोषीय घाटे की तय सीमा से कमाबेश बंधी ही रही है और धनिकों पर कर बढ़ाने की बात तो दूर रही, वह तो कारपोरेट क्षेत्र को कर रियायतें ही देती रही है और ऐसा इस गलतफहमी में करती आयी है कि इस तरह की रियायतों से, निजी निवेश में बढ़ोतरी के जरिए, अर्थव्यवस्था में नये प्राण फूंके जा सकेंगे.

यह विश्वास दो कारणों से भ्रमपूर्ण है. पहला कारण तो यह कि, अगर बहस के लिए हम यह मान भी लें कि इस तरह की कर रियायतों से कारपोरेट निवेश में बढ़ोतरी होती है, तब भी इस बढ़ोतरी को सरकारी राजस्व में कमी के चलते, सरकारी खर्चों में होने वाली कटौती बराबर कर देगी और इस तरह सकल मांग में कोई शुद्ध बढ़ोतरी नहीं होगी और इसलिए, अर्थव्यवस्था में नयी जान पडऩा बाधित ही रहेगा. दूसरी वजह यह है कि कारपोरेट निवेश तो किसी भी अर्थव्यवस्था में मांग में बढ़ोतरी पर निर्भर होते हैं, न कि कर रियायतों पर. अगर अर्थव्यवस्था में मांग नहीं बढ़ रही हो, तो पूंजीपतियों को जो भी कर रियायतें दी जाएंगी, वे उन्हें हजम कर जाएंगे और कोई अतिरिक्त निवेश नहीं करेंगे.

इसका अर्थ यह है कि जब कोई अर्थव्यवस्था सरल पुनरुत्पादन के चक्र में फंस जाती है, तो उसके लिए नवउदारवादी व्यवस्था के दायरे में रहते हुए, इस गतिरोध से निकलना बहुत ही मुश्किल हो जाता है. यह कोई खासतौर पर वामपंथ की ही दलील नहीं है. यह दलील तो ऐसे सभी को स्वीकार करनी पड़ेगी जिनकी दिलचस्पी सिर्फ विचारधारात्मक कारणों से धुंधलका फैलाने में नहीं हो. अचरज की बात नहीं है कि कुछ ईमानदार उदारतावादी अर्थशास्त्री भी ठीक यही बात कहते आए हैं.

कृषि क्षेत्र भी उबार नहीं पाएगा

किसी को ऐसा लग सकता है कि चूंकि कृषि क्षेत्र का उत्पादन, मांग के पहलू से संचालित नहीं होता है बल्कि स्वायत्त तरीके से ही तय होता है, मांग के मुकाबले फालतू उत्पाद सरकारी भंडारों के लिए उठाए जाने के चलते, कृषि उत्पाद में बढ़ोतरी समग्रता में अर्थव्यवस्था में आर्थिक वृद्धि का स्वायत्त स्रोत जोड़ सकती है और यह संबंधित अर्थव्यवस्था को सरल उत्पादन के चक्र में फंसने बचा सकता है. बेशक, इसे एक तार्किक संभवना तो कहना ही होगा. लेकिन, 2019-20 और 2021-22 के बीच जीडीपी में वृद्घि के जो आंकड़े हमने शुरू में दिए हैं, उनमें कृषि क्षेत्र की वृद्घि भी शामिल है. इसलिए, अगर कृषि क्षेत्र में एकाएक तेजी से बढ़ोतरी नहीं हो रही हो तो, यह गतिरोध टूटने वाला नहीं है. और नवउदारवादी व्यवस्था में, जिसकी एक मूलभूत विशेषता ही किसानी खेती का ज्यादा से ज्यादा निचोड़ा जाना है, यह उम्मीद करने का कोई कारण नहीं है कि कृषि की वृद्धि में स्वायत्त तेजी आएगी. इसलिए, सरल पुनरुत्पादन के चक्र में गिर जाने की अर्थव्यवस्था की प्रवृत्ति कोई कमी आने नहीं जा रही है.

और अगर किसी कारण से, अर्थव्यवस्था के सरल पुनरुत्पादन में फंसे रहते हुए, आय वितरण में और गिरावट आती है, इससे अर्थव्यवस्था के सरल उत्पादन के चक्र से बाहर निकलने की बात तो दूर, मंदी ही पैदा हो रही होगी. इसकी वजह यह है कि अगर कोई ऋणात्मक वृद्घि दर आती है, तो वह अर्थव्यवस्था को सरल पुनरुत्पादन के एक और नये स्तर पर ही धकेल रही होगी, जहां बेरोजगारी की दर और ज्यादा होगी. ऐसा इसलिए होगा कि आय वितरण में उल्टी दिशा में यह बदलाव, उपभोग में कमी के जरिए, सकल मांग के स्तर को घटाने का ही काम करेगा. इसकी वजह यह है कि गरीब ही अपनी इकाई आय का कहीं बड़ा हिस्सा उपभोग पर खर्च करते हैं.

नवउदारवादी निजाम में भारतीय अर्थव्यवस्था का सरल पुनरुत्पादन की ओर खिसकने की प्रवृत्ति प्रदर्शित करना, इसी तथ्य की ओर इशारा करता है कि नवउदारवाद, अंधी गली में पहुंच गया है और यह भारत के लिए ही नहीं पूरी दुनिया के लिए ही सच है.

साभार: News Click

(प्रभात पटनायक एक भारतीय मार्क्सवादी अर्थशास्त्री और राजनीतिक टिप्पणीकार हैं.)