अमूल और मदर डेयरी ने दूध की कीमतों में की 2 रुपए की बढ़ोतरी!

डेयरी ब्रांड अमूल और मदर डेयरी ने अपने दूध की कीमतों में 2 रुपए की बढ़ोतरी की है. बढ़ोतरी का मुख्य कारण पशुपालकों द्वारा दूध की कीमतों में बढ़ोतरी और अन्य इनपुट खर्चों में बढ़ोतरी होना बताया है. दोनों ब्रांडों ने घोषणा की है कि दूध की बढ़ी हुई कीमतें बुधवार से प्रभावी होंगी.

अमूल डेयरी ब्रांड की मूल फर्म गुजरात कोऑपरेटिव मिल्क मार्केटिंग फेडरेशन ने कहा कि 500 मिलीलीटर के लिए, अमूल गोल्ड की कीमत अब 31 रुपये, अमूल ताजा 25 रुपये और अहमदाबाद और सौराष्ट्र बाजारों में अमूल शक्ति की कीमत 28 रुपये होगी. मदर डेयरी ने कहा है कि इसका मूल्य संशोधन उसके सभी दूध प्रकारों के लिए लागू होगा.

फुल क्रीम दूध की कीमत अब ₹ 61 प्रति लीटर, टोंड दूध ₹ 51, और डबल टोन्ड ₹ 45, बल्क वेंडेड दूध (टोकन दूध) की कीमत अब ₹ 48 प्रति लीटर होगी. कंपनियों ने बताया कि कीमतों में वृद्धि इनपुट लागत में वृद्धि को देखते हुए की गई है.

मदर डेयरी के एक अधिकारी ने अपने एक ब्यान में कहा है कि कंपनी ने पिछले पांच महीनों में इनपुट लागत में वृद्धि देखी है. कंपनी ने पिछली बार मार्च में दिल्ली-एनसीआर (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र) में अपने दूध की कीमतों में 2 रुपये प्रति लीटर की बढ़ोतरी की थी.

अमूल ने भी एक बयान जारी कर बताया, “यह मूल्य वृद्धि दूध के संचालन और उत्पादन की समग्र लागत में वृद्धि के कारण की जा रही है. पिछले वर्ष की तुलना में अकेले पशु आहार लागत लगभग 20 प्रतिशत तक बढ़ गई है. इनपुट लागत में वृद्धि को ध्यान में रखते हुए, हमारे सदस्य संघों ने पिछले वर्ष की तुलना में किसानों की कीमतों में 8-9 प्रतिशत की वृद्धि हुई है.” कंपनी दूध से होने वाली बिक्री का लगभग 75-80 प्रतिशत किसानों से दूध की खरीद पर खर्च करती है.

उपज की अधिक कीमत दिलाकर या लागत घटाकर ही बढ़ाई जा सकती है किसानों की आय: जयेन मेहता

किसानों की आय बढ़ाने के दो रास्ते हैं- पहला, उनकी उपज की कीमत अधिक मिले, और दूसरा, किसानों की लागत कम हो. प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) उपभोक्ताओं के लिए अच्छा हो सकता है, लेकिन यह किसानों के लिए ठीक नहीं है. गुजरात कोऑपरेटिव मिल्क मार्केटिंग फेडरेशन (जीसीएमएमएफ) अमूल के चीफ ऑपरेटिंग ऑफिसर जयेन मेहता ने पिछले दिनों कोऑपरेटिव पर आयोजित एक परिचर्चा में यह विचार रखे. ‘सहकार से समृद्धि: मेनी पाथवेज’ विषय पर आयोजित इस परिचर्चा का आयोजन रूरल वॉयस और सहकार भारती ने किया था. 

अमूल का जिक्र करते हुए मेहता ने कहा कि उपभोक्ता के द्वारा खर्च की गई रकम का 80 से 85 फ़ीसदी दुग्ध किसानों को मिलता है. दुनिया के अन्य हिस्सों में किसानों को सिर्फ एक तिहाई रकम मिलती है. बाकी पैसा रिटेलर और प्रोसेसर के बीच जाता है. मेहता के अनुसार कोऑपरेटिव किसानों की उत्पादकता बढ़ाने और इस तरह उनकी लागत घटाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं.

उन्होंने 10 साल पहले रिटेल में एफडीआई पर एक कॉन्फ्रेंस का जिक्र किया और कहा कि एफडीआई उपभोक्ताओं के लिए अच्छा हो सकता है लेकिन किसानों के लिए नहीं. उन्होंने कहा कि आज की सत्तारूढ़ पार्टी जब विपक्ष में थी तब उसने संसद में यह मुद्दा उठाया था और रिटेल में एफडीआई से संबंधित विधेयक का विरोध किया था.

मेहता के अनुसार मूल्य का मतलब सबके लिए अलग-अलग है. जैसे मार्केटिंग के लोग 4पी की बात करते हैं- प्रोडक्ट यानी उत्पाद, प्राइस यानी कीमत, प्लेस यानी स्थान और प्रमोशन. लेकिन किसानों के मामले में दो और पी- पॉलिसी और परमेश्वर जुड़ जाते हैं. यहां परमेश्वर का अर्थ बारिश-बाढ़ जैसी बातों से है जिनका नियंत्रण किसानों के हाथ में नहीं होता है.

कोऑपरेटिव से किसानों को किस तरह लाभ हो सकता है इसके लिए उन्होंने अमेरिका का एक उदाहरण दिया. उन्होंने बताया, कुछ समय पहले जीसीएमएमएफ अमेरिका में अपनी शाखा खोलना चाहती थी. अमेरिकी अधिकारियों ने सी यानी कोऑपरेटिव शब्द पर आपत्ति की. उनका कहना था कि अमेरिकी कानून के मुताबिक किसी कोऑपरेटिव का तभी रजिस्ट्रेशन हो सकता है जब वे स्थानीय किसानों के साथ मिलकर काम करें. तब अमूल ने नाम बदलकर जीएसएमएमएफ रखा जिसमें एफ का मतलब सहकारी था. हालांकि अमेरिकी अधिकारी तब भी नहीं माने. मेहता के अनुसार नवगठित सहकारिता मंत्रालय भारतीय किसानों के हितों की रक्षा के लिए इस तरह के कानून ला सकता है.

उन्होंने बताया की अमूल के साथ 36 लाख किसान जुड़े हुए हैं. इसका सालाना टर्नओवर 61 हजार करोड़ रुपए के आसपास है. अमूल में इन सबका मालिकाना हक किसानों के पास है. उन्होंने कहा कि कोऑपरेटिव किसानों को उपभोक्ताओं से जोड़ती है, वैल्यू एडिशन करती है और बिचौलिए की भूमिका को खत्म करती है. यहां उत्पादन प्रसंस्करण और मार्केटिंग तीनों स्तर पर किसान ही मालिक हैं. अमूल इसी मॉडल पर काम करता है. देश की अन्य दुग्ध कोऑपरेटिव ने इसी मॉडल को अपनाया है.

भारत में दुग्ध कोऑपरेटिव की संभावनाओं के बारे में उन्होंने कहा कि अभी दुनिया का 22 फ़ीसदी दूध उत्पादन भारत में होता है. एक दशक में यह 33 फ़ीसदी हो जाएगा. अगले 10 वर्षों में जो अतिरिक्त दूध उत्पादन होगा उसमें भारत का हिस्सा दो-तिहाई होगा.

साभार: Rural Voice

खाद्य तेलों के बाजार में अमूल की एंट्री, लॉन्च किया ‘जन्मेय’ ब्रांड

देश के सबसे बड़े डेयरी ब्रांड अमूल के स्वामित्व वाली गुजरात कोऑपरेटिव मिल्क मार्केटिंग फेडरेशन (जीसीएमएमएफ) खाद्य तेलों के बाजार में भी आ गई है। इसकी शुरुआत फिलहाल गुजरात से हुई है जहां जीसीएमएमएफ तिलहन किसानों की मदद करेगी। संस्था ने जन्मेय ब्रांड के तहत मूंगफली, सूरजमुखी, सरसों, सोयाबीन और बिनौला तेल बाजार में उतारे हैं, जो संस्था के रिटेल नेटवर्क के जरिए बेचे जाएंगे।

दुनिया भर में अमूल के कोऑपरेटिव मॉडल को सराहा जाता है क्योंकि इसकी आय का अधिकांश हिस्सा पशुपालकों को जाता है। जीसीएमएमएफ के प्रबंध निदेशक आरएस सोढ़ी का कहना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा प्रेरित आत्मनिर्भर भारत अभियान के तहत गुजरात के तिलहन किसानों को लाभकारी मूल्य दिलाने के लिए जन्मेय ब्रांड के खाद्य तेलों की शुरुआत की गई है। आरएस सोढ़ी ने असलीभारत.कॉम को बताया कि खाद्य तेलों का बाजार संस्था के लिए नया क्षेत्र है और इसके अनुभवों को देखने के बाद ही नेशनल लेवल पर लॉन्चिंग का फैसला किया जाएगा।

गौरतलब है कि भारत विश्व में सबसे ज्यादा खाद्य तेल आयात करने वाला देश है जो अपनी जरूरत का 65-70 फीसदी खाद्य तेल आयात करता है। अभी जून के महीने में ही खाद्य तेलों का आयात 8 फीसदी बढ़कर 8 महीने के उच्चतम स्तर पर पहुंचा है। देश को आत्मनिर्भर बनाने और व्यापार घाटा कम करने के लिए खाद्य तेलों के आयात पर अंकुश लगाना जरूरी है।

अमूल को चलाने वाली सहकारी संस्था की एंट्री से खाद्य तेलों के बाजार में हलचल मच सकती है। हालांकि, नेशनल डेयरी डेवलपमेंट बोर्ड (एनडीडीबी) से जुड़ी मदर डेयरी लंबे समय से धारा ब्रांड के साथ खाद्य तेलों के बाजार में मौजूद है। गुजरात में जीसीएमएमएफ को दूध बेचने वाले ज्यादातर पशुपालक तिलहन के किसान भी हैं, इसलिए इन्हें संगठित संस्था के लिए करना आसान होगा।

क्यों घाटे में हैं दूध उत्पादक किसान?

दूध के बढ़ते दामों से चिंतित केंद्र सरकार ने पिछले दिनों सभी प्रमुख डेरियों की एक बैठक बुलाई थी। प्याज के मामले में किरकिरी होने के बाद सरकार दूध को लेकर पहले ही सतर्क रहना चाहती है। कुछ दिनों पहले ही डेयरियों ने दूध के दाम दो से तीन रुपये प्रति लीटर बढ़ाए हैं। यह पिछले सात महीनों में दूसरी बढ़ोतरी थी। दूध के दाम बढ़ने के कारणों को जानने के लिए पिछले दस वर्षों में दूध की कीमतों और सरकारी नीतियों का आंकलन करना जरूरी है।

फरवरी 2010 में दिल्ली में फुल-क्रीम दूध का दाम 30 रुपये प्रति लीटर थे, जो मई 2014 में बढ़कर 48 रुपये प्रति लीटर हो गए। यानी दूध का दाम सालाना औसतन 15 प्रतिशत की दर से बढ़ा। मोदी सरकार के पांच सालों के कार्यकाल में दिल्ली में फुल-क्रीम दूध का दाम मई 2014 में 48 रुपये प्रति लीटर से बढ़कर मई 2019 में 53 रुपए प्रति लीटर पर पहुंच गया। यानी हर साल औसतन महज 2.1 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। इस अवधि में 3.3 प्रतिशत की उपभोक्ता खाद्य महंगाई दर को देखते हुए दूध के वास्तविक दाम घट गए। मतलब, जब खाने-पीने की बाकी चीजों के दाम सालाना 3.3 फीसदी की दर से बढ़े तब दूध के दाम में केवल 2.1 फीसदी की बढ़ोतरी हुई। महंगाई को जोड़कर देखें तो दूध उत्पादक किसानों को नुकसान ही हुआ।

दुग्ध उत्पादन की बढ़ती लागत और खाद्य महंगाई दर के हिसाब से दूध के दाम कम से कम 7 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से बढ़ते, तब भी मई 2019 में फुल-क्रीम दूध का दाम कम से कम 65 रुपये प्रति लीटर होना चाहिए था। जबकि 15 दिसंबर को हुई बढ़ोतरी के बाद भी फुल-क्रीम दूध का दाम दिल्ली में 55 रुपये प्रति लीटर ही हैं। यानी हालिया बढ़ोतरी के बावजूद उपभोक्ताओं को दूध लगभग 10 रुपये लीटर सस्ता मिल रहा है।

डेयरी क्षेत्र में अमूल जैसी सहकारी संस्थाओं के कारण एक तरफ तो उपभोक्ताओं को दूध के बहुत अधिक दाम नहीं चुकाने पड़ते, वहीं दूसरी तरफ दूध के दाम का लगभग 75 फीसदी पैसा दूध उत्पादकों तक पहुंचता है। देश में हर साल किसान लगभग 10 करोड़ टन दूध बेचते हैं। दूध के दाम 10 रुपये प्रति लीटर कम मिलने के कारण दुग्ध उत्पादक किसान लगभग एक लाख करोड़ रुपये सालाना का नुकसान अब भी सह रहे हैं।

दुग्ध उत्पादन की बढ़ती लागत को देखते हुए किसान पशुओं को उचित आहार और चारा भी नहीं खिला पा रहे हैं। पशुओं के इलाज और रखरखाव पर होने वाले खर्चे में भी कटौती करनी पड़ी। डीज़ल के दाम और मजदूरी भी पिछले पांच सालों में काफी बढ़े हैं, जिसका प्रभाव दूध के दामों में दिख रहा है। इस बीच, ग्रामीण क्षेत्रों में आवारा पशुओं की संख्या बेतहाशा बढ़ी है जो दुधारू पशुओं के हरे चारे को बड़ी मात्रा में खेतों में ही खा जाते हैं। इसका असर दुधारू पशुओं के लिए चारे और पशु-आहार की उपलब्धता पर पड़ रह है।

भारतीय चरागाह और चारा अनुसंधान संस्थान के अनुसार देश में हरे चारे की 64 प्रतिशत और सूखे चारे की 24 प्रतिशत कमी है। हाल के वर्षों में पशु-आहार जैसे खल, चूरी, छिलका आदि के दाम भी काफी बढ़े हैं जिस कारण दुग्ध उत्पादन की लागत में काफी वृद्धि हुई है।

गौरक्षा के नाम पर गुंडागर्दी और सरकारी नीतियों के कारण बांझ और बेकार पशुओं का व्यापार और परिवहन बहुत जोखिम भरा हो गया है। इस कारण अनुपयोगी पशुओं खासकर गौवंश का कारोबार लगभग समाप्त हो गया है। इन्हें बेचकर किसानों के हाथ में कुछ पैसा आ जाता था, जो नये पशुओं की खरीद और मौजूदा पशुओं की देखरेख पर खर्च होता था। आय का यह स्रोत लगभग समाप्त हो गया है, उल्टा आवारा पशु ग्रामीण अर्थव्यवस्था और किसानों पर बोझ बन गए हैं। इसका खामियाजा एक तरफ दुग्ध उत्पादन किसानों को तो दूसरी तरफ महंगे दूध के रूप में उपभोक्ताओं को उठाना पड़ रहा है।

इस बीच सहकारी और निजी डेयरियों द्वारा किसानों से खरीदे जाने वाले दूध की मात्रा पिछले साल के मुकाबले 5-6 प्रतिशत कम हुई है। इस वर्ष विलंब से आये मानसून के कारण कई राज्यों में पहले तो सूखा पड़ा, फिर बाद में अत्यधिक बारिश और बाढ़ की स्थिति बन गई। इस कारण भी चारे की उपलब्धता घटी है। अक्टूबर से मार्च के बीच का समय दूध के अधिक उत्पादन का सीजन होता है जिसे ‘फ्लश सीज़न’ कहते हैं। इस दौरान दूध के दाम बढ़ने की संभावना ना के बराबर होती है। लेकिन इस बार सर्दियों में दाम बढ़ाने के बावजूद डेरियों की दूध की खरीद में गिरावट आना अच्छा संकेत नहीं है।

पिछले साल जब देश में दूध पाउडर का काफी स्टॉक था और इसके दाम गिरकर 150 रुपये प्रति किलोग्राम के स्तर पर आ गए थे, तब सरकार ने दूध पाउडर के निर्यात के लिए 50 रुपये प्रति किलोग्राम की सब्सिडी दी थी। अब दूध पाउडर के दाम दोगुने होकर 300 रुपये प्रति किलोग्राम हो गए हैं। यदि पिछले साल सरकार दूध पाउडर का बफर स्टॉक बना लेती तो उस वक्त किसानों को दूध की कम कीमत मिलने से नुकसान नहीं होता और आज उपभोक्ताओं को भी बहुत अधिक कीमत नहीं चुकानी पड़ती।

(लेखक किसान शक्ति संघ के अध्यक्ष हैं)