क्यों घाटे में हैं दूध उत्पादक किसान?

 

दूध के बढ़ते दामों से चिंतित केंद्र सरकार ने पिछले दिनों सभी प्रमुख डेरियों की एक बैठक बुलाई थी। प्याज के मामले में किरकिरी होने के बाद सरकार दूध को लेकर पहले ही सतर्क रहना चाहती है। कुछ दिनों पहले ही डेयरियों ने दूध के दाम दो से तीन रुपये प्रति लीटर बढ़ाए हैं। यह पिछले सात महीनों में दूसरी बढ़ोतरी थी। दूध के दाम बढ़ने के कारणों को जानने के लिए पिछले दस वर्षों में दूध की कीमतों और सरकारी नीतियों का आंकलन करना जरूरी है।

फरवरी 2010 में दिल्ली में फुल-क्रीम दूध का दाम 30 रुपये प्रति लीटर थे, जो मई 2014 में बढ़कर 48 रुपये प्रति लीटर हो गए। यानी दूध का दाम सालाना औसतन 15 प्रतिशत की दर से बढ़ा। मोदी सरकार के पांच सालों के कार्यकाल में दिल्ली में फुल-क्रीम दूध का दाम मई 2014 में 48 रुपये प्रति लीटर से बढ़कर मई 2019 में 53 रुपए प्रति लीटर पर पहुंच गया। यानी हर साल औसतन महज 2.1 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। इस अवधि में 3.3 प्रतिशत की उपभोक्ता खाद्य महंगाई दर को देखते हुए दूध के वास्तविक दाम घट गए। मतलब, जब खाने-पीने की बाकी चीजों के दाम सालाना 3.3 फीसदी की दर से बढ़े तब दूध के दाम में केवल 2.1 फीसदी की बढ़ोतरी हुई। महंगाई को जोड़कर देखें तो दूध उत्पादक किसानों को नुकसान ही हुआ।

दुग्ध उत्पादन की बढ़ती लागत और खाद्य महंगाई दर के हिसाब से दूध के दाम कम से कम 7 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से बढ़ते, तब भी मई 2019 में फुल-क्रीम दूध का दाम कम से कम 65 रुपये प्रति लीटर होना चाहिए था। जबकि 15 दिसंबर को हुई बढ़ोतरी के बाद भी फुल-क्रीम दूध का दाम दिल्ली में 55 रुपये प्रति लीटर ही हैं। यानी हालिया बढ़ोतरी के बावजूद उपभोक्ताओं को दूध लगभग 10 रुपये लीटर सस्ता मिल रहा है।

डेयरी क्षेत्र में अमूल जैसी सहकारी संस्थाओं के कारण एक तरफ तो उपभोक्ताओं को दूध के बहुत अधिक दाम नहीं चुकाने पड़ते, वहीं दूसरी तरफ दूध के दाम का लगभग 75 फीसदी पैसा दूध उत्पादकों तक पहुंचता है। देश में हर साल किसान लगभग 10 करोड़ टन दूध बेचते हैं। दूध के दाम 10 रुपये प्रति लीटर कम मिलने के कारण दुग्ध उत्पादक किसान लगभग एक लाख करोड़ रुपये सालाना का नुकसान अब भी सह रहे हैं।

दुग्ध उत्पादन की बढ़ती लागत को देखते हुए किसान पशुओं को उचित आहार और चारा भी नहीं खिला पा रहे हैं। पशुओं के इलाज और रखरखाव पर होने वाले खर्चे में भी कटौती करनी पड़ी। डीज़ल के दाम और मजदूरी भी पिछले पांच सालों में काफी बढ़े हैं, जिसका प्रभाव दूध के दामों में दिख रहा है। इस बीच, ग्रामीण क्षेत्रों में आवारा पशुओं की संख्या बेतहाशा बढ़ी है जो दुधारू पशुओं के हरे चारे को बड़ी मात्रा में खेतों में ही खा जाते हैं। इसका असर दुधारू पशुओं के लिए चारे और पशु-आहार की उपलब्धता पर पड़ रह है।

भारतीय चरागाह और चारा अनुसंधान संस्थान के अनुसार देश में हरे चारे की 64 प्रतिशत और सूखे चारे की 24 प्रतिशत कमी है। हाल के वर्षों में पशु-आहार जैसे खल, चूरी, छिलका आदि के दाम भी काफी बढ़े हैं जिस कारण दुग्ध उत्पादन की लागत में काफी वृद्धि हुई है।

गौरक्षा के नाम पर गुंडागर्दी और सरकारी नीतियों के कारण बांझ और बेकार पशुओं का व्यापार और परिवहन बहुत जोखिम भरा हो गया है। इस कारण अनुपयोगी पशुओं खासकर गौवंश का कारोबार लगभग समाप्त हो गया है। इन्हें बेचकर किसानों के हाथ में कुछ पैसा आ जाता था, जो नये पशुओं की खरीद और मौजूदा पशुओं की देखरेख पर खर्च होता था। आय का यह स्रोत लगभग समाप्त हो गया है, उल्टा आवारा पशु ग्रामीण अर्थव्यवस्था और किसानों पर बोझ बन गए हैं। इसका खामियाजा एक तरफ दुग्ध उत्पादन किसानों को तो दूसरी तरफ महंगे दूध के रूप में उपभोक्ताओं को उठाना पड़ रहा है।

इस बीच सहकारी और निजी डेयरियों द्वारा किसानों से खरीदे जाने वाले दूध की मात्रा पिछले साल के मुकाबले 5-6 प्रतिशत कम हुई है। इस वर्ष विलंब से आये मानसून के कारण कई राज्यों में पहले तो सूखा पड़ा, फिर बाद में अत्यधिक बारिश और बाढ़ की स्थिति बन गई। इस कारण भी चारे की उपलब्धता घटी है। अक्टूबर से मार्च के बीच का समय दूध के अधिक उत्पादन का सीजन होता है जिसे ‘फ्लश सीज़न’ कहते हैं। इस दौरान दूध के दाम बढ़ने की संभावना ना के बराबर होती है। लेकिन इस बार सर्दियों में दाम बढ़ाने के बावजूद डेरियों की दूध की खरीद में गिरावट आना अच्छा संकेत नहीं है।

पिछले साल जब देश में दूध पाउडर का काफी स्टॉक था और इसके दाम गिरकर 150 रुपये प्रति किलोग्राम के स्तर पर आ गए थे, तब सरकार ने दूध पाउडर के निर्यात के लिए 50 रुपये प्रति किलोग्राम की सब्सिडी दी थी। अब दूध पाउडर के दाम दोगुने होकर 300 रुपये प्रति किलोग्राम हो गए हैं। यदि पिछले साल सरकार दूध पाउडर का बफर स्टॉक बना लेती तो उस वक्त किसानों को दूध की कम कीमत मिलने से नुकसान नहीं होता और आज उपभोक्ताओं को भी बहुत अधिक कीमत नहीं चुकानी पड़ती।

(लेखक किसान शक्ति संघ के अध्यक्ष हैं)