लखीमपुर न्याय के लिए किसानों का रेल रोको आंदोलन, देश भर में दिखा असर!

3 अक्तूबर को उत्तर प्रदेश के लखीमपुर में गृह राज्य मंत्री के बेटे की गाड़ी द्वारा किसानों को कुचलने की घटना में राज्य मंत्री अजय मिश्र टेनी की बर्खास्तगी और गिरफ्तारी की मांग को लेकर किसान संगठनों ने देशभर में रेल रोको आंदोलन की कॉल दी थी. किसानों के रेल रोको आंदोलन का असर पूरे भारत में दिखाई दिया.

हरियाणा के अंबाला में किसानों ने सुबह 10 बजे ही दिल्ली-जम्मू रेल लाइन रोक दी. किसान अपने ट्रैक्टर और गाड़ियों के साथ रेलवे ट्रैक पर बैठ गए. किसानों का रेल रोको आंदोलन सुबह 10 बजे से शुरू हुआ जो शाम चार बजे तक जारी रहेगा.

दिल्ली-जम्मू रेलवे लाइन रोकी

वहीं दक्षिण भारत में भी किसानों के रेल रोको आंदोलन का असर दिखा. कर्नाटक के विजयपुर में भी किसानों ने रेल लाइन रोकी.

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कर्नाटक के विजयपुर में किसानों ने रेल ट्रेक जाम किया

बिहार के वैशाली में भी किसानों ने रेल ट्रैक जाम कर दिया

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बिहार के वैशाली में किसानों ने रेल ट्रेक रोका
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हरियाणा के बहादुरगढ़ में ट्रैक पर बैठे किसान

हिमाचल के किसानों को अदानी का झटका, कंपनी ने घटाए सेब के दाम!

एक ओर दिल्ली की सीमाओं पर किसान पिछले नौ महीने से तीन नये कृषि कानूनों और कॉर्पोरेट की मनमानी के खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं वहीं दूसरी ओर हिमाचल में किसानों के साथ कॉर्पोरेट कंपनी की मनमर्जी जारी है. हिमाचल में प्राइवेट कंपनियां बागवानी किसानों की फसल के मनमाफिक दाम तय कर रही हैं. दैनिक भास्कर की रिपोर्ट के अनुसार हिमाचल में अदानी एग्री फ्रेश कंपनी ने सेब खरीद मूल्य सार्वजिनक किया है. किसानों के अनुसार अदानी कंपनी ने सेब के दाम बहुत कम तय किए हैं. कंपनी ने 80 से 100 फीसदी रंग वाले सबसे बड़े आकार के सेब का दाम 52 रुपये प्रति किलो जबकि बड़े, मीडियम और छोटे आकार के सेब का दाम 72 रुपये प्रति किलो तय किया है.  

सेब खरीदने वाली अदानी एग्री फ्रेश कंपनी ने सेब किसानों को झटका दिया है. कंपनी ने जो दाम तय किए हैं, उन्हें सुनकर बागवानों में निराशा है. पिछले साल की तुलना में इस बार प्रतिकिलो के हिसाब से 16 रुपये कम दाम तय किए हैं.

26 अगस्त से सेब की खरीद शुरू करने से पहले कंपनी ने सेब खरीद मूल्य सार्वजनिक किये हैं. कपनी अस्सी से 100 फीसदी रंग वाला एक्स्ट्रा लार्ज सेब 52 रुपये प्रति किलो जबकि लार्ज, मीडियम और स्मॉल सेब 72 रुपये प्रति किलो की दर पर खरीदेगी. 

वहीं पिछले साल सबसे बड़े आकार का सेब 68 रुपये जबकि मीडियम और छोटे आकार का सेब 88 रुपये प्रति किलो बिका था. कंपनी ने इस सीजन में 60 से 80 फीसदी रंग वाला सबसे बड़े आकार के सेब की कीमत 37 रुपये किलो जबकि मीडियम और छोटे आकार के सेब की कीमत 57 रुपये प्रति किलो तय की है. वहीं 60 फीसदी से कम रंग वाले सेब की खरीद 15 रुपये प्रति किलो की कीमत पर होगी जबकि पिछले साल ऐसा सेब 20 रुपये किलो खरीदा गया था.

अदानी कंपनी के सेब बेचने के लिए किसानों को सेब क्रेटों में भरकर अदानी के कलेक्शन सेंटर तक लाना होता है. कंपनी ने 26 से 29 अगस्त तक के लिए दाम तय किए हैं. 29 अगस्त के बाद फिर से सेब के दाम में बदलाव किया जाएगा. अदानी एग्री फ्रेश के टर्मिनल मैनेजर पंकज मिश्रा ने अखबार को बताया, “मंडियों के मुकाबले अदानी ने अच्छे रेट खोले हैं. मार्केट का फीडबैक लेने के बाद ही रेट तय किए गए हैं. 29 अगस्त के बाद मार्केट की स्थिति के अनुसार भी रेट में बदलाव किया जाएगा.” 

सही निकली किसानों की आशंका, दालों की जमाखोरी ने बढ़ायी सरकारी की चिंता

तीन विवादित कृषि कानूनों में से एक आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक, 2020 को लेकर किसानों की आशंका सही साबित हुई। केंद्र सरकार ने जिस कानून को बदलकर अनाज, दाल, खाद्य तेल, तिलहन, आलू और प्याज को आवश्यक वस्तुओं की सूची से बाहर कर दिया था, अब जमाखोरी रोकने के लिए उसी पुराने कानून का सहारा लेना पड़ रहा है। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, गत वर्ष की तुलना में दालों के खुदरा दाम 33 फीसदी तक बढ़ चुके हैं। इसके पीछे जमाखोरी को वजह माना जा रहा है।  

सोमवार को भारत सरकार के उपभोक्ता मामलों के विभाग की सचिव लीना नंदन ने राज्यों के खाद्य एवं आपूर्ति विभाग के प्रमुख सचिवों के साथ वीडियो कांफ्रेंस करते हुए देश में दालों की उपलब्धता और कीमतों की समीक्षा की। बैठक में दालों की कीमतों में अचानक बढ़ोतरी के पीछे जमाखोरी की आशंका जतायी गई। केंद्र सरकार ने राज्यों को आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 की शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए जरूरी चीजों की उपलब्धता सुनिश्चित कराने को कहा है। इससे पहले 14 मई को केंद्र सरकार ने राज्यों को पत्र लिखकर व्यापारियों, निर्यातकों और मिलर्स से दालों के स्टॉक की जानकारी लेने को कहा था। राज्यों को साप्ताहिक आधार पर दालों की कीमतों पर नजर रखने के निर्देश दिए गये हैं।  

केंद्र सरकार ने पिछले साल आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 में संशोधन कर अनाज, दाल, तिलहन, खाद्य तेल, आलू और प्याज को आवश्यक वस्तुओं की सूची से बाहर कर दिया था। इसके लिए केंद्र सरकार लॉकडाउन के दौरान ही आवश्यक वस्तु (संशोधन) अध्यादेश, 2020 लेकर आई थी और सितंबर में इसका विधेयक संसद में पारित हुआ था। मगर किसान आंदोलन के चलते इस साल जनवरी में सुप्रीम कोर्ट ने आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक, 2020 समेत तीनों कृषि कानूनों पर रोक लगा दी। फिलहाल आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 लागू है, जिनका इस्तेमाल सरकार जमाखोरी पर अंकुश लगाने के लिए कर रही है।

किसान संगठन पिछले साल से ही कृषि उत्पादों को आवश्यक वस्तुओं की सूची से बाहर कर जमाखोरी की खुली छूट दिए जाने का विरोध कर रहे हैं। अब कोराना संकट के बीच जैसे ही दालों की कीमतों में उछाल आया तो केंद्र सरकार को नेहरू दौर के उसी आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 की याद आई, जिसे बदलने के लिए उसने पूरी ताकत लगा दी थी। यह कानून उस समय का है जब आजादी के बाद देश खाद्यान्न संकट से जूझ रहा था और जमाखोरी रोकना बड़ी चुनौती था। इस कानून की जरूरत बाद के वर्षों में भी बनी रही और 22 आवश्यक वस्तुओं को स्टॉक लिमिट के दायरे में लाया गया। इन पर स्टॉक लिमिट लगाने और जमाखोरों पर कार्रवाई करने का अधिकार राज्य सरकारों का दिया गया है।

पिछले साल कृषि सुधारों के तहत अनाज, दाल, तिलहन, खाद्य तेल, आलू और प्याज को आवश्यक वस्तुओं की सूची से बाहर करते हुए सरकार ने तर्क दिया गया था कि इससे कृषि क्षेत्र में निजी निवेश को बढ़ावा मिलेगा। कृषि उपज के स्टॉक की पूरी छूट मिलने से कोल्ड स्टोरेज और फूड सप्लाई चेन में निवेश आकर्षित होगा। जरूरी वस्तुओं को केवल विशेष परिस्थितियों जैसे युद्ध, अकाल, प्राकृतिक आपदा या कीमतों में अत्यधिक बढ़ोतरी की स्थिति में ही रेगुलेट किया जाएगा। जबकि जमाखोरी पर अंकुश लगाने की जरूरत सामान्य परिस्थितियों में भी है। देश की खाद्य सुरक्षा को जमाखोरे के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है। कृषि कानूनों के आलोचकों का यही तर्क है।

नए कानून में बागवानी उपज का खुदरा मूल्य 100 फीसदी और जल्द खराब न होने वाली कृषि उपज के खुदरा दाम 50 फीसदी बढ़ने पर ही स्टॉक लिमिट लगाने का प्रावधान किया गया है। लेकिन प्रोसेसर्स और एक्सपोर्टर्स को उनकी क्षमता और ऑर्डर के आधार पर स्टॉक लिमिट से छूट दी गई। यह लगातार दूसरा साल है जब केंद्र सरकार को जरूरी चीजों  की जमाखोरी रोकने के लिए आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 का सहारा लेना पड़ रहा है। इससे कृषि उत्पादों से स्टॉक लिमिट हटाने की केंद्र सरकार की कोशिशों को झटका है। क्योंकि जमाखोरी रोकने के लिए आवश्यक वस्तुओं पर स्टॉक लिमिट लगाने जैसे उपायों की जरूरत लगातार महसूस की जा रही है।

बिजनौर में चक्का जाम करने वाले 575 किसानों पर केस दर्ज

कृषि कानूनों के खिलाफ किसान संगठनों के राष्ट्रव्यापी चक्का जाम की अपील पर अमल करना बिजनौर जिले के किसानों को भारी पड़ सकता है। हालांकि, इस तरह के विरोध-प्रदर्शन 5 नवंबर को देश भर में हुए थे। सरदार वीएम सिंह के राष्ट्रीय किसान मजदूर संगठन के कई पदाधिकारियों समेत चक्का जाम में शामिल बिजनौर के लगभग 575 किसानों के खिलाफ पुलिस ने केस दर्ज किये हैं।

स्थानीय मीडिया के अनुसार, बिजनौर जिले में चक्का जाम करने वाले सैकड़ों किसानों के खिलाफ विभिन्न थानों में कुल सात मुकदमे दर्ज किये गये हैं। इनमें 87 लोगों को नामजद किया है, जबकि सैकड़ों अज्ञात लोगों के खिलाफ एफआईआर कराई गई है। ये केस थाना कोतवाली शहर, हल्दौर, मंडावर, नजीबाबाद, नहटौर, चांदपुर, अफजलगढ़ थाने में दर्ज हुए हैं।

गुरुवार को केंद्र के कृषि कानूनों और गन्ना मूल्य व भुगतान समेत विभिन्न मांगों को लेकर राष्ट्रीय किसान मजदूर संगठन ने बिजनौर जिले में आठ जगहों पर चक्का जाम किया था। मिली जानकारी के मुताबिक, प्रदर्शनकारियों के खिलाफ जाम लगाकर शांति भंग करने, धारा 144 के उल्लंघन और महामारी में नियमों का पालन न करने पर ये केस दर्ज हुए हैं।

चक्का जाम करने पर राष्ट्रीय किसान मजदूर संगठन के जिन पदाधिकारियों पर केस दर्ज हुए हैं, उनमें बिजनौर के जिलाध्यक्ष विनोद कुमार, जिला महासचिव वेद प्रकाश चौधरी, प्रदेश महासचिव कैलाश लांबा, ब्लॉक अध्यक्ष संजीव कुमार, हरिराज, रामपाल सिंह, सुरेश पाल, ब्रजपाल सिंह आदि शामिल हैं। संगठन से जुड़े कार्यकर्ता पुलिस की इस कार्रवाई का कड़ा विरोध कर रहे हैं।

राष्ट्रीय किसान मजदूर संगठन से जुड़े अदित चौधरी ने असलीभारत.कॉम को बताया कि योगी सरकार किसानों की आवाज को दबाने का प्रयास कर रही है। गुरुवार को बिजनौर में हिंदूवादी संगठनों ने भी महाराष्ट्र सरकार के खिलाफ प्रदर्शन किया था, लेकिन उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई। हैरानी की बात है कि प्रदर्शनकारी किसानों पर केस दर्ज कराये गये हैं। जिला प्रशासन मनमाने तरीके से धारा-144 का इस्तेामल कर किसानों का दमन करना चाहता है।

महाराष्ट्र के अकोला में चौथा राष्ट्रीय किसान एकता सम्मेलन

किसान एकता की भावी रणनीति पर विचार के लिए किसान संगठनों का चौथा राष्ट्रीय सम्मलेन महाराष्ट्र के अकोला में 12 और 13 सितम्बर को रहा है।

मौजूदा कृषि संकट के मद्देनज़र किसान एकता की भावी रणनीति पर विचार के लिए किसान संगठनों का चौथा राष्ट्रीय सम्मेलन महाराष्ट्र के अकोला जिले में 12 और 13 सितम्बर को रहा है। शेतकरी संगटना की मेजबानी में हो रहे इस सम्मलेन में देश भर के प्रमुख किसान और मछुवारा यूनियनों/संगठनों के 50 से ज्यादा नेता शामिल हो रहे हैं। उत्तर-पूर्व में मणिपुर से लेकर केरल में त्रिवेंद्रम तक और तमिलनाडु में कोयंबटूर से हिमाचल प्रदेश में शिमला से आये नेता ‘किसान एकता’ नाम से चलाये जा रहे एक राष्ट्रीय अभियान के तहत एकजुट हुए हैं।
विभिन्न किसान संगठनों और राजनीतिक दलों से जुड़े किसान नेताओं और गैर-सरकारी यूनियनों को एक मंच पर लाने का प्रयास जाने-माने कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा की पहल पर शुरू हुआ है। देविंदर शर्मा के साथ भारती किसान यूनियन, पंजाब के बलबीर सिंह राजेवाल और कर्नाटक राज्य रैयत संघा (केआरआरएस) के चंद्रशेखर कोडीहली ‘किसान एकता’ के समन्वयक हैं।

किसान आंदोलन के पुराने दौर को वापस लाने का प्रयास

देविंदर शर्मा बताते हैं कि ‘किसान एकता’ का बुनियादी विचार यह है की देश के 60 करोड़ किसान की आवाज़ को मजबूत करने के लिए किसान संगठनों के बीच आपसी समझ और एकता कायम होनी चाहिए। किसान आंदोलनों को 80 व 90 के दशक जैसी मजबूती देने के लिए इस तरह के प्रयास ज़रूरी हैं।

देविंदर शर्मा का कहना है कि आज तक राजनैतिक दलों ने सिर्फ दो मकसद से किसानों का इस्तेमाल किया है- वोट बैंक के तौर पर और लैंड बैंक के तौर पर। समय आ गया है जब किसान अपनी आवाज़ को इतनी मजबूती दे कि 2019 के चुनाव में किसान की अनदेखी ना हो सके।

सोमवार को अकोला के वेदनंदिनी फार्म में शुरू हुए किसान एकता सम्मेलन को संबोधित करते हुए किसान नेता और देशोन्नति समाचार-पत्र समूह के प्रधान संपादक प्रकाश पोहरे ने कहा कि देश के अलग-अलग हिस्सों में किसान अलग-अलग तरह की समस्याओं से जूझ रहे हैं। इन अलग-अलग आवाज़ों को एकजुट करने में किसान एकता अहम भूमिका निभा सकता है। इसी मुद्दे पर सम्मेलन के दौरान व्यापक चर्चा होगी।

शेतकरी संघटना के राष्ट्रीय समन्वयक विजय जावंधिया का कहना है कि जिस प्रकार 80 और 90 के दशक में किसान आन्दोलन ताकतवर बनकर उभरे वैसी ही ज़रूरत आज भी है। अपने अनुभवों से सीखते हुए किसान नेताओं को एकजुट होना पड़ेगा।

राष्ट्रीय किसान एकता सम्मेलन में आम किसान यूनियन, बुंदेलखंड किसान पंचायत, गुजरात खेडूत समाज, हिमाचल प्रदेश फल एवं सब्जी उत्पादक संघ, छत्तीसगढ़ कृषक बिरादरी, भारतीय किसान यूनियन (असली अराजनैतिक), किसान एकता मंच, धरतीपुत्र बचाओ संगठन जैसे कई संगठनों के नेता हिस्सा ले रहे हैं।