सरकार की किसानों से जालसाज़ी, खरीफ फसलों पर तय एमएसपी लागत से बहुत कम

केंद्र सरकार ने बुधवार 8 जून 2022 को धान समेत 14 फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की घोषणा की है. सरकार ने सामान्य ग्रेड के धान के एमएसपी में 100 रूपए प्रति क्विंटल का इजाफा करते हुए इसे 2021-22 के 1940 रूपए से बढ़ाकर 2022-23 के लिए 2040 रूपए प्रति क्विंटल कर दिया है.

वहीं फसलों जैसे कि ज्वार हाइब्रिड का एमएसपी 232 रूपए बढ़ा कर 2970 रूपए, रागी 201 रूपए बढ़ाकर 3578 रूपए, मक्का 92 रूपए बढ़ाकर 1962 रूपए, अरहर 300 रूपए बढ़ाकर 6600 रूपए, मूंग 480 रूपए बढ़ाकर 7755 रूपए, उड़द 300 रूपए बढ़ाकर 6600 रूपए, मूंगफली 300 रूपए बढ़ाकर 5850 रूपए, सूरजमुखी बीज 385 रूपए बढ़ाकर 6400 रूपए, सोयाबीन 350 रूपए बढ़ाकर 4300 रूपए, और तिल 523 रूपए बढ़ाकर 7830 रूपए क्विंटल किया गया है. मध्यम रेशा वाली कपास का एमएसपी 354 रूपए बढ़ा है और यह 6080 रूपए हो गया है.

कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय की तरफ से जारी विज्ञप्ति में यह दावा किया गया है कि यह एमएसपी किसानों की लागत की तुलना में 50 से 85 फीसदी तक अधिक है. लेकिन बुधवार को ही अपनी मौद्रिक नीति समीक्षा में रिज़र्व बैंक ने साल 2022-23 में खुदरा महंगाई दर, 6.7 फीसदी रहने का अनुमान किया है. वहीं सरकार ने 14 फसलों की एमएसपी में औसतन 5.8% की वृद्धि की है.

सीधे शब्दों में कहें तो एक तरफ सरकार यह दावा कर रही है कि उन्होंने किसानों की फसल में लागत से ज्यादा एमएसपी तय किया है, तो वहीं दुसरी ओर रिज़र्व बैंक ने साल 2022-23 तक महंगाई दर 6.7 फीसदी होने का अनुमान लगाया है. इसका अर्थ यह है कि खेती में इस्तेमाल ईंधन, मशीनरी, उर्वरक, कीटनाशक इत्यादि की लागत लगातार बढ़ रही है. इस तरह एमएसपी में हुई वृद्धि महंगाई दर से कम है.

सरकार का कहना है कि लागत में किराया, मानव श्रम, बैल श्रम/मशीन श्रम, पट्टे की भूमि के लिए दिया गया किराया, बीज, उर्वरक, खाद, सिंचाई आदि का खर्च, उपकरणों और फार्म भवनों का मूल्यह्रास, कार्यशील पूंजी पर ब्याज, पंप सेटों आदि के लिए डीजल/बिजली, अन्य व्यय और पारिवारिक श्रम का मूल्य शामिल है.

किसान नेता योगेन्द्र यादव ने गांव सवेरा को बताया कि जिन 14 फसलों के लिए एमएसपी की घोषणा की गई है उनमें से 11 फसलों में बढ़ोतरी रिजर्व बैंक की अनुमानित महंगाई दर से कम है. इस तरह सरकार ने किसान की फसल का दाम घटा दिया है. सरकार ने स्वामीनाथन कमीशन द्वारा सिफारिश की गई फसल की लागत पर डेढ़ गुना एमएसपी नहीं बढ़ाया, बल्कि ए2+एफएल पर डेढ़ गुना बढ़ा कर एमएसपी तय की है.

योगेन्द्र यादव ने कहा कि अगर सरकार स्वामीनाथन कमीशन के हिसाब से धान पर एमएसपी तय करती तो एमएसपी 2,040 रूपए नहीं बल्कि 2,708 रूपए होती, यानि कि धान के हर क्विंटल पर सरकार 668 रूपए की लूट कर रही है. सरकार ने किसानों से खरीफ की लगभग हर फसल पर 1,000 रूपए से ज्यादा का धोखा किया है.

इसी विषय पर फार्म एक्सपर्ट रमनदीप सिंह मान ने गांव सवेरा से कहा, “खरीफ की फसलों पर एमएसपी की घोषणा के अगले दिन कमीशन फॉर एग्रीकल्चरल कोस्ट एंड प्राइसेज़ ने खरीफ की इन्ही फसलों पर औसत लागत के मूल्यांकन की रिपोर्ट जारी की, जिसमें कुछ और ही तस्वीर निकल कर सामने आई. इस रिपोर्ट में लागत को ध्यान में रख कर ही एमएसपी को तय किया जाता है. रिपोर्ट के अनुसार खरीफ फसलों की लागत पर समग्र इनपुट मूल्य सूचकांक* में 6.8% की बढौतरी साल 2022-23 में हुई है.”

{*समग्र इनपुट मूल्य सूचकांक (कम्पोजिट इनपुट प्राइस इंडेक्स) में मानव श्रम, बैल श्रम, मशीन श्रम, बीज, उर्वरक, खाद, सिंचाई इत्यादि को जोड़ कर फसल की मूल लागत तय की जाती है, जिसके बाद ही सरकार फसलों पर एमएसपी निर्धारित करती है.}

रमनदीप सिंह मान ने बताया कि सरकार ने 14 फसलों की एमएसपी में से 12 फसलों की एमएसपी में 6.8% से कम की बढौतरी की है. यदि फसल उगाने में खर्च (समग्र इनपुट मूल्य लागत), सरकार द्वारा फसलों पर तय एमएसपी से ज्यादा है तो ऐसे में किसानों को ही नुकसान है.

इस को लेकर विपक्ष की कांग्रेस पार्टी ने सरकार पर हमला किया है. पार्टी के मुख्य प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने 9 जून को आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस में अपने बयान में कहा कि एक बार फिर मोदी सरकार ने खरीफ फसलों के 2022-23 के समर्थन मूल्य घोषित करने में देश के किसानों के साथ घोर विश्वासघात किया है. किसान की आमदनी बढ़ाना तो दूर, किसान का दर्द सौ गुना बढ़ा दिया है. उन्होंने दावा किया कि एक तरफ सरकार पर्याप्त मात्रा में फसल नयूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर नहीं खरीद रही है, वहीं दूसरी ओर लागत बढ़ाकर किसानों की आमदनी को आधा कर दिया है.

रणदीप सुरजेवाला ने कहा कि एनएसएसओ ने हाल ही में जारी रिपोर्ट में बताया था कि किसानों की औसत आमदनी 27 रूपए प्रतिदिन रह गई है और औसत कर्ज 74,000 रूपए हो गया है. मोदी सरकार को किसानों से सरोकार है तो सिर्फ समर्थन मूल्य घोषित करने की औपचारिकता का छलावा करने की अपेक्षा वह समर्थन मूल्य का कानून बनाए.

ऐसी MSP योजना जो खेती का उद्धार करे

किसानों का संघर्ष जारी है। यह राजनीतिक सत्ता हासिल करने का संघर्ष नहीं है। यह संघर्ष है भारत की खेती और खेतिहर आबादी के बहुत बड़े हिस्से की आजीविका और रहन सहन को बेहतर करने का जो देश के ज्यादातर हिस्सों में बहुत ही बुरी दशा में है। इसलिए यह निहायत जरूरी हो गया है कि इस शांतिमय जनांदोलन को एक नई दिशा दी जाए ताकि छोटी खेती किसानी में जान आए। अगर ऐसा हो सका तो इससे हमारा लोकतंत्र भी सार्थक और जनहितकारी हो सकेगा। किसानों की आमदनी दोगुना करने के सरकारी झांसे और बाजारवादी बदलावों के भुलावों से इतर हम न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) तय करने का एक नया तरीका पेश कर रहे हैं।

लेखक

पृष्ठभूमि

हमारे समाज में मौजूद गहरी विभाजक रेखाओं के बावजूद हाल के किसान आंदोलन के क्रम में बनी जबर्दस्त एकता ने घोर अहंकारी सरकार को भी हिला दिया। इस एकता को बनाए रखना जरूरी है। इसके लिए यह जरूरी है कि एमएसपी तय करने में छोटे किसानों और भूमिहीन मजदूरों की जरूरतों का खास तौर पर खयाल रखा जाए।

सिद्धांततः एमएसपी से तीन मकसद हासिल किए जा सकते हैं। अनाजों के बाजार में कीमतें स्थिर रखी जा सकती हैं, किसानों की आमदनी बढ़ाई जा सकती है और किसानों के कर्जदारी की समस्या भी हल की जा सकती है।

भारत में खाद्यान्‍न की कीमतें स्थिर रखने की नीति समय के साथ अलग-अलग रूप लेती गई है। यह नीति शुरू हुई अनिवार्य वस्तुएं अधिनियम 1955 के साथ। इसका मकसद था कालाबाजारी पर लगाम लगाना। फिर 1960 के दशक में एमएसपी की नीति लागू की गई। समय के साथ अनाजों का सार्वजनिक सुरक्षित भंडार बनाए रखने की नीति अपनाई गई ताकि बाजार में अनाजों की किल्लत हो और दाम बढ़ने लगें तो जरूरतमंदों को सस्ते दाम पर अनाज देकर बाजार में दखल दिया जा सके। इस क्रम में तरह-तरह की व्यवस्थाएं ईजाद की गईं। मसलन, अनाजों की सरकारी खरीद के लिए लागत के आधार पर न्यूनतम मूल्य तय करना; अनाजों की सरकारी खरीद और बाजार मूल्य के बीच के फर्क की राशि का भुगतान करना; सरकार द्वारा खरीदे गए अनाज को तय कीमत पर जनवितरण प्रणाली के जरिये बेचने के लिए सरकारी गोदामों में इकट्ठा रखना और जब भी जरूरी लगे तब कीमतें स्थिर रखने के लिए बाजार में दखल देना।

इन व्यवस्थाओं के जरिये देश के लोगों के लिए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित हुई, लेकिन इस क्रम में किसान लोग हरित क्रांति के दौरान ऊंची पैदावार वाली किस्मों की खेती करने को भी प्रेरित हुए। इस सबके लिए सरकारी खरीद, भंडारण और वितरण की प्रक्रिया का एक दूसरे से जुड़ना लाजिमी था और इनमें से हर काम के लिए केंद्रीय निवेश और नियंत्रण का सिलसिला बढ़ता गया।

आंशिक दायरा

हरित क्रांति के दौरान शुरु हुई सरकारी खरीद और जनवितरण प्रणाली की व्यवस्था ने तय कीमतों के जरिये चावल, गेहूं और गन्ने की फसल की खेती बढ़ाने को प्रोत्साहन दिया। यही तीन फसलें हरित क्रांति का पर्याय बन गईं, लेकिन वे कोई बीसेक फसलें एमएसपी की व्यवस्था के बाहर रह गईं जिन्हें इनके दायरे में लाने पर अब चर्चा हो रही है, जैसे ज्वार, बाजरा और दूसरे मोटे अनाज, दलहन और ति‍लहन।

एमएसपी के दायरे में कुछ ही फसलों को रखने का नतीजा हुआ कि ज्वार-बाजरा जैसे मोटे अनाजों की खेती कम होने लगी और चावल और गेहूं जैसे अनाजों की खेती बढ़ती गई। ऐसा खास तौर पर हुआ अच्छी बारिश वाले इलाकों में। हरित क्रांति शुरू होने से लेकर हाल फिलहाल तक चावल की खेती 300 लाख हेक्टेयर से बढ़ कर 440 लाख हेक्टेयर तक पहुंच गई थी और गेहूं की 90 लाख  हेक्टेयर से बढ़ कर 310 लाख हेक्टेयर।

एमएसपी के दायरे से बाहर रह गए अनाज देश भर में काफी सारे लोगों के खानपान में शामिल हैं, लेकिन वे राशन की दुकानों से लोगों को मुहैया नहीं कराए गए। ये फसलें ज्यादातर तो बारिश वाले इलाकों में ही उपजाई जाती हैं। भारत में कुल खेती का करीबन 68 फीसद बारिश वाले इलाकों में होता है। इन इलाकों में उपजाई जाने वाली फसलें आम तौर पर सूखे से प्रभावित नहीं होतीं। वे पौष्टिक भी होती हैं और गरीब किसानों के खानपान का मुख्य हिस्सा हैं।

ऐसी फसलों का एमएसपी व्यवस्था से बाहर रखा जाना हमारी खाद्य सुरक्षा व्यवस्था का बड़ा ही कमजोर पक्ष है। एमएसपी के तहत तमाम 23 फसलों को लाया जा सके तो इससे खाद्य सुरक्षा भी बेहतर होगी और बारिश वाले इलाकों के सबसे गरीब किसानों की आमदनी भी बढ़ेगी।

आर्थिक लागत

सरकार द्वारा तय एमएसपी पर चावल और गेहूं की सरकारी खरीद और उसके भंडारण की व्यवस्था बड़ी ही केंद्रीकृत है। खरीदे गए अनाज को भारतीय खाद्य निगम के गोदामों में लाना होता है। वहां उनकी कुटाई होती है और उन्हें लोगों के खानपान के लायक बनाया जाता है। फिर उन्हें हर जिले और राज्य में भेजा जाता है। वहां से फिर उन्हें गांवों, नगर निगम वार्डों और स्लमों में राशन दुकानों के जरिये बिक्री के लिए भेजा जाता है। इसके लिए कीमत भी सरकार ही तय करती है। इसे इशु प्राइस कहा जाता है और इसे बाजार भाव से कम रखा जाता है ताकि गरीब परिवार उसे खरीद सकें।

इस पूरी व्यवस्था पर सालाना लागत तीन लाख करोड़ रुपए के करीब बैठती है। इसमें अनाजों की सरकारी खरीद, उसकी ढुलाई और भंडारण वगैरह पर आने वाला खर्च, प्रशासनिक खर्च और अनाजों को एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाने और भंडारण में होने वाली बर्बादी से होने वाला नुकसान भी शामिल है। इसमें गन्ने की फसल पर आने वाली सरकारी लागत शामिल नहीं है क्योंकि उसकी खरीद निजी चीनी मिलों के जरिये होती है और उसमें होने वाली लेटलतीफी जगजाहिर है।

अगर कीमतों की एक अधिकतम और न्यूनतम सीमा तय कर दी जाए और एमएसपी को कीमतों की इस पट्टी के भीतर खेती के हालात के मुताबिक तय किया जाए तो इस पर आने वाली लागत कीमतों की उस पट्टी के भीतर कम या ज्यादा हो सकेगी।

एमएसपी कीमतों की एक पट्टी

एमएसपी की रूपरेखा तेईस फसलों के लिए एक ज्यादा लचीली व्यवस्था के तहत बनाई जानी चाहिए। हर फसल के लिए कीमतों की एक अधिकतम और न्यूनतम सीमा तय कर दी जाए जो खेती किसानी के हालात के मुताबिक तय हो। फसल अच्छी हो तो एमएसपी को कम रखा जाए और खराब हो तो एमएसपी ऊंचा, लेकिन हर हाल में यह यह पहले से तय अधिकतम और न्यूनतम कीमतों की पट्टी के बीच ही तय हो। कुछ मोटे अनाजों की कीमतें पट्टी के ऊपरी स्तर पर तय की जा सकती हैं ताकि बारिश वाले इलाकों में उनकी खेती को बढ़ावा मिले। इस तरह किसानों की आमदनी बढ़ाने, कीमतें स्थिर रखने, खाद्य सुरक्षा,और मौसम के अनुकूल खेती को बढ़ावा देने के लक्ष्यों को कुछ हद तक एक दूसरे से जोड़ा जा सकता है।

किसानों की आमदनी बढ़ा कर एमएसपी का दायरा बढाने का सकारात्मक असर दूसरी आर्थिक गतिविधियों पर भी पड़ेगा। किसानों की आमदनी बढ़ेगी तो औद्योगिक उत्पादनों की उनकी मांग भी बढ़ेगी। खास तौर पर असंगठित क्षेत्र के उत्पादनों की। इससे फिर दूसरे उत्पादनों की मांग बढ़ेगी और इस तरह पूरी अर्थव्यवस्था में मांग में विस्तार का एक पूरा सिलसिला चल निकलेगा।

अब सवाल बनता है कि एमएसपी की ऐसी योजना पर लागत कितनी आएगी? देश में अनाजों के कुल उत्पादन का 45-50 फीसद किसानों के अपने खानपान में खप जाता है और बाकी बाजार में आता है। बाजार में आने वाले इस 50-55 फीसद उत्पादन को एमएसपी मिल सके तो यही सरकारी खरीद पर आने वाली अधिकतम लागत हो सकती है। इसमें से हमें वह राशि घटा देनी चाहिए जो राशन की दुकानों से इन अनाजों की बिक्री से हासिल की जाती है। इस तरह एमएसपी की इस योजना पर हमें लगता है कि करीबन पांच लाख करोड़ रुपए की लागत आएगी। यह 17 लाख करोड़ रुपए से तो काफी कम है जो सरकार कहती है कि स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश के मुताबिक किसानों की सारी लागत मिला कर एमएसपी देने पर आएगी। पांच लाख करोड़ रुपए की यह राशि उतनी ही है जो सरकारी कर्मचारियों को महंगाई भत्ता देने पर खर्च होती है जो कुल आबादी का पांच फीसद भी नहीं हैं।

सरकार हर साल बजट में औद्योगिक घरानों को करों में छूट देकर ही करीबन तीन लाख करोड़ रुपए का राजस्व गंवा देती है। कुछ गिने चुने बड़े कर्जदारों ने बैंक कर्जों की दस लाख करोड़ रुपए की राशि डकार रखी है। इन सबकी तुलना में पांच लाख करोड़ रुपए की राशि तो कुछ भी नहीं है जबकि इससे देश की आधी से ज्यादा आबादी को सीधे तौर पर फायदा होगा और 20-25 फीसद आबादी को असंगठित क्षेत्र में परोक्ष रूप से। इस तरह एमएसपी की ऐसी योजना से देश के 70 फीसद से ज्यादा नागरिकों को फायदा होगा।

कर्ज से निजात

एमएसपी की योजना के तहत अनाजों की बिक्री को बैंकों द्वारा कर्ज देने से जोड़ दिया जाए तो किसानों के कर्ज में डूबे रहने की समस्या से भी निजात मिल सकती है। खास तौर पर छोटे किसानों को। एमएसपी के तहत अनाज बेचने वाले किसानों को एक सर्टिफिकेट दिया जा सकता है जो बेचे गए अनाज के अनुपात में क्रेडिट पॉइंट्स होगा और इसके मुताबिक उन्हें बैंकों से कर्ज लेने का अधिकार होगा। ऐसी व्यवस्था की जा सकती है कि किसान कर्ज लेने के लिए इन सर्टिफिकेटों का इस्तेमाल अपनी जरूरत के मुताबिक कर सकें। किसी साल फसल अच्छी हुई और उन्हें कर्ज की जरूरत नहीं पड़ी या कम पड़ी तो वे इनका इस्तेमाल बुरी फसल के वक्त कर्ज लेने के लिए कर सकें। ऐसी व्यवस्था प्रशासनिक तौर पर भी सरल होगी और बैंक आसानी से कर्ज दे सकेंगे और इससे किसान समुदाय की कर्जग्रस्तता की समस्या का भी काफी हद तक निदान हो सकेगा।

एमएसपी की ऐसी योजना का असरकारी ढंग से लागू होना काफी हद तक लागू करने वाली एजेंसियों को संविधान से अधिकार प्राप्त पंचायतों की देखरेख में विकेंद्रित करने पर निर्भर करेगा। हमने देखा है कि जाति, वर्ग और औरत-मर्द भेदभाव के परे जाकर किस तरह पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पंचायतों और महापंचायतों के जरिये किसान आंदोलन ने एकता कायम की। इससे उम्मीद बनती है कि किसान आंदोलन अब अपना ध्यान एमएसपी लागू करने की प्रक्रिया को विकेंद्रित करने पर लगाएगा। इन विकेंद्रित संस्थाओं के जरिये किसानों की विशाल तादाद को असरदार ढंग से जुटाने में किसान आंदोलन कामयाब रहा। इसलिए वह ऐसा फिर से कर ही सकता है।


लेख का अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद प्रीति ने किया है। इस लेख को जनपथ वेबसाइट पर भी पढ़ा जा सकता है।

बाजरा खरीद से हरियाणा सरकार ने पल्ला झाड़ा, भावांतर भरोसे छोड़े किसान!

बीते मंगलवार सूबे के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने खरीफ सीजन 2021-22 में बाजरे की फसल की सरकारी खरीद से हाथ खड़े कर दिए. इस बार बाजरे की खरीद एमएसपी यानी न्यूनतन समर्थन मूल्य की बजाय ‘भावांतर भरपाई योजना’ के तहत होगी. इस साल प्रदेश में 2.71 लाख किसानों ने ‘मेरी फसल, मेरा ब्यौरा’ पोर्टल पर बाजरे की सरकारी खरीद के लिए रजिस्ट्रेशन करवाया था मगर अब उनकी उमीदों पर पानी फिरता नजर आ रहा है.

सरकार का कहना है कि पिछले सीजन में 7 लाख टन बाजरा एमएसपी पर खरीदा. पिछले सीजन में खरीदे बाजरे को सरकार बाजार में अच्छे दामों पर नहीं बेच पाई इसलिए उसे लगभग 600 करोड़ का घाटा हुआ था. इसके अलावा सरकार ने पड़ोसी राज्य राजस्थान से भी हरियाणा में बाजरे की आवक का हवाला देते हुए इस बार एमएसपी पर खरीद करने से मना कर दिया है.

हैरानी की बात ये है कि इसी साल जून महीने में केंद्र सरकार ने बाजरे के दामों में 100 रुपये की बढ़ोतरी भी की थी. इस बढ़ोतरी के बाद बाजरे का न्यूनतम समर्थन मूल्य 2250 रूपए/प्रति क्विंटल हो गया था जो कि अबतक का सर्वाधिक दाम है.

हालांकि सरकार ने अपनी इस योजना में बाजरे का बाजार भाव 1650 रूपए/प्रति क्विंटल माना है. भावांतर योजना के तहत सरकार 600 रूपए/प्रति क्विंटल के हिसाब से किसान के खाते में डालेगी यानी अगर किसी किसान का बाजरा प्राइवेट मंडी में 1650 रूपए/प्रति क्विंटल बिका तो इसके बाद सरकार 600 रूपए/प्रति क्विंटल के हिसाब से पैसा उसके खाते में डालेगी. इस तरह जो बाजार भाव और एमएसपी के बीच का अंतर है उसको सरकार अपनी भावांतर भरपाई योजना के तहत भरने का काम करेगी.

भावांतर भरपाई योजना का लाभ उन्हीं किसानों को मिलेगा जिन्होंने ‘मेरी फ़सल,मेरा ब्यौरा’ पोर्टल पर रजिस्ट्रेशन करवाया है. इस योजना में भी सरकार ने इलाके की औसत उपज के हिसाब से भरपाई करने की बात कही है. पहले एमएसपी पर खरीद के दौरान सरकार प्रति एकड़ उपज की सीमा तय करती थी और केवल उतनी ही उपज की एमएसपी पर खरीद करती थी. हालांकि इस योजना में सरकार ने एक निश्चित उपज सीमा का ऐलान तो नहीं किया है लेकिन इलाके की औसत उपज के तहत भावांतर भरपाई का लाभ देने की बात सरकार कह रही है.

अब सवाल खड़ा होता है कि अलग-अलग इलाकों में बाजरे की अलग-अलग औसत झड़त आती है तो क्या सरकार इलाके के हिसाब से अलग-अलग उपज सीमा तय करेगी या पूरे हरियाणा में एक ही औसत उपज सीमा तय की जाएगी और उसके तहत ही भुगतान होगा. इसको लेकर सरकार ने अभी स्तिथि स्पष्ट नहीं की है.

सरकार ने अपनी तरफ से बाजरे का बाजार भाव 1650 रूपए/प्रति क्विंटल मान लिया है लेकिन वास्तव में बाजार भाव इस से कम है. आज 30 सितम्बर, 2021 को रेवाड़ी, महेंद्रगढ़ और गुडगांव मंडी में बाजरे का बाजार भाव मात्र 1300 से 1400 रुपये/प्रति क्विंटल है. इसका मतलब ये है कि यदि किसान 1300 रुपये/प्रति क्विंटल के हिसाब से बाजार भाव पर अपना बाजरा बेचता है और 600 रुपये/प्रति क्विंटल पर उसको सरकार देती है, तो उस किसान का बाजरा बिका 1900 रूपए/प्रति क्विंटल. इस हिसाब से किसान को प्रति क्विंटल 350 रूपए का नुकसान होगा क्योंकि बाजरे का न्यूनतम समर्थन मूल्य 2250 रुपये/प्रति क्विंटल है.

किसान अभी तक सरकारी खरीद के इंतजार में थे, इसलिए उन्होंने बाजरे को मंडी में ले जाना शुरू नहीं किया था. लेकिन इस योजना के ऐलान के बाद सरकारी खरीद का तो रास्ता ही बंद हो गया. ऐसे में किसान के पास अपना बाजरा बेचने के लिए एकमात्र जगह बची है प्राइवेट मंडी. हमने इस विषय में मंडियों में बैठें व्यापारियों से भी बात की तो उनका कहना है कि जब मंडी में बाजरा भारी मात्र में आना शुरू हो जाएगा तो वर्तमान में बाजरे का बाजार में जो भाव है उसके और भी कम होने की संभावनाएं हैं क्योंकि सरकारी खरीद न होने के कारण सारा बाजरा प्राइवेट मंडियों में ही आएगा.

ऐसे में भाजपा सरकार का बार बार एमएसपी को लेकर दावा करना. एक-एक दाने की खरीद करने की बात कहना ये महज भाषण ही साबित होता नजर आ रहा है.

केंद्र सरकार ने 2022-23 के लिए रबी फसलों की MSP में की बढ़ोतरी, खेतीबाड़ी जानकारों ने बताया नाकाफी

आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडल समिति ने रबी विपणन सीजन (आरएमएस) 2022-23 के लिए सभी रबी फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में बढ़ोतरी करने को मंजूरी दी है.

सरकार ने आरएमएस 2022-23 के लिए रबी फसलों की एमएसपी में इजाफा कर दिया है. सरकार ने गेहूं, जौ, चना, मसूर, सरसों और सूरजमुखी की सरकारी खरीद की कीमतों में इजाफा किया है. गेहूं की एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) 1975 रुपये प्रति क्विंटल से प्रति क्विंटल 40 रुपये बढ़ाकर 2015 रुपये कर दी गयी है. पिछले वर्ष के एमएसपी में मसूर की दाल और कैनोला (रेपसीड) तथा सरसों में उच्चतम संपूर्ण बढ़ोतरी (प्रत्येक के लिए 400 रुपये प्रति क्विंटल) करने की सिफारिश की गई है. इसके बाद चने (130 रुपये प्रति क्विंटल) को रखा गया है. पिछले वर्ष की तुलना में कुसुम के फूल का मूल्य 114 रुपये प्रति क्विंटल बढ़ा दिया गया है. कीमतों में यह अंतर इसलिए रखा गया है, ताकि भिन्न-भिन्न फसलें बोने के लिये प्रोत्साहन मिले.

फसलों की एमएसपी में बढ़ोतरी को ऐतिहासिक बताने वाले नेताओं पर कृषि पत्रकार अजीत सिंह ने सरकार तंज कसते हुए लिखा है,

“केंद्र सरकार ने गेहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) 40 रुपये प्रति कुंतल बढ़ाकर 2,015 रुपये करने का ऐलान किया है. कुल 40 पैसे प्रति किलोग्राम की बढ़ोतरी है. प्रतिशत में देखें तो महज 2 फीसदी का इजाफा. फिर भी इसे ऐतिहासिक बताया जाएगा. बाकी रबी फसलों के MSP में जौ पर 35 रुपये, चने पर 130 रुपये, मसूर और सरसों पर 400 रुपये प्रति कुंतल बढ़े हैं. मसूर दाल और सरसों के MSP में बढ़ोतरी ठीक-ठाक लग सकती है लेकिन बाज़ार में इनके भाव पहले ही ज्यादा हैं. MSP पर खरीदी जाने वाली प्रमुख फसल गेहूं है.

इस तरह रबी फसलों पर कुल 2 से 8.6 फीसदी तक की बढ़ोतरी हुई है जो खेती की बढ़ती लागत को देखते हुए नाकाफी है. महंगाई के हिसाब से देखें तो मसूर और सरसों के अलावा रबी फसलों के MSP में गिरावट ही आई है. इस मामूली बढ़ोतरी को भी सरकार लागत का डेढ़ से दो गुना दाम बता रही है. क्योंकि लागत ही कम आंकी गई है. वैसे, किसान अब इस खेल को समझ गए हैं.”

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ट्वीट कर इस बड़ा निर्णय बताया है.

दूसरी तरफ खेतीबाड़ी मामलों के जानकार रमनदीप मान ने सरकार पर तंज करते हुए लिखा है, “रबी सीजन के लिए गेहूं 2022-23 का न्यूनतम समर्थन मूल्य 40 रुपए/क्विंटल बढ़ाया गया, मिनिमम सपोर्ट प्राइस में इतनी ज्यादा वृदि का क्या करेंगे किसान, कहाँ रखेंगे इतने ज्यादा पैसे, बैंक में या फिर कहीं और?”

अफ्रीकी दाल खाएगा इंडिया, मोजांबिक से 2 लाख टन अरहर आयात को मंजूरी

आत्मनिर्भरता के दावों के बीच भारत सरकार ने अफ्रीकी देश मोजांबिक से दो लाख टन अरहर दाल के आयात की अनुमति दी है। यह आयात किस प्रकार और किन बंदरगाहों के जरिये होगी यह भी निर्धारित किया गया है।

वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय के तहत काम करने वाले विदेश व्यापार महानिदेशक (डीजीएफटी) ने मोजांबिक से अरहर दाल के आयात की अनुमति का पब्लिक नोटिस जारी किया है। 19 मार्च, 2021 को जारी इस नोटिस के अनुसार, भारत सरकार ने वर्ष 2021-22 में मोजांबिक से 2 लाख टन अरहर दाल के आयात की अनुमति देने का फैसला किया है। यह निर्णय भारत और मोजांबिक के बीच हुए समझौते के तहत लिया गया है। अरहर का आयात केवल 5 बंदरगाहों – मुंबई, तूतीकोरिन, चेन्नई, कोलकाता और हजीरा के जरिये हो सकेगा।   

केंद्र सरकार ने मोजांबिक से 2 लाख टन अरहर के आयात को मंजूरी देने का फैसला ऐसे समय लिया है जब देश में किसान आंदोलन चल रहा है और न्यूनतम समर्थनम मूल्य (एमएसपी) के कानूनी अधिकार की मांग उठ रही है। कृषि जिंसों से जुड़े व्यापार के जानकार आरएस राणा का मानना है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में अरहर की कीमतों को देखते हुए भारतीय बंदरगाहों तक अरहर का आयात 6,000 रुपये प्रति कुंतल के एमएसपी से कम नहीं बैठेगा। जबकि देश के कई इलाकों में किसानों को अरहर का एमएसपी भी नहीं मिल पा रहा है।

योगेंद्र यादव के नेतृत्व में जय किसान आंदोलन किसानों से एमएसपी पर खरीद नहीं होने का मुद्दा उठा रहा है। इसे एमएसपी लूट कैटकुलेटर का नाम दिया है, जिसमेें एमएसपी न मिलने से किसानों को होने वाले नुकसान का अनुमान लगाया जाता है। यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि लाखों टन दालों का आयात करने वाले देश अपने किसानों को उनकी उपज का लाभकारी मूल्य क्यों नहीं दिला पा रहा है।

आरएस राणा का मानना है कि अगर देश के किसानों को एमएसपी की गारंटी दी जाए तो दालों का आयात करने की बजाय देश में ही दलहन उत्पादन को बढ़ावा दिया जा सकता है। लेकिन भारत सरकार ने देश में दालों की कमी दूर करने के लिए पांच साल तक मोजांबिक से अरहर के आयात का समझौता कर लिया है।  

अरहर के आयात की अनुमति के संबंध में डीजीएफटी की ओर से जारी पब्लिक नोटिस

किसान आंदोलन: निर्णायक संघर्ष या एक नई शुरुआत?

भारत में तीन नए कृषि कानून लगभग 20 करोड़ छोटे किसानों और उनके परिवारों के लिए निर्णायक संघर्ष साबित हो रहे हैं। अपनी आजीविका के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से खेती पर निर्भर लगभग 80 करोड़ की ग्रामीण आबादी के लिए भी इसके गंभीर निहितार्थ हैं। इसके अलावा, 135 करोड़ की आबादी वाले देश की खाद्य सुरक्षा को लेकर भी कई चिंताएं जताई ज रही हैं। भारत सरकार का कहना है कि ये कानून संकटग्रस्त कृषि क्षेत्र में एक नई आर्थिक क्रांति की शुरूआत करेंगे। जबकि किसान इनका विरोध कर रहे हैं क्योंकि कॉरपोरेट को बढ़ावा दिये जाने से उन्हें सरकारी मंडियों के खत्म होने और अपनी जमीन खोने का खतरा है।

फिलहाल, भारत सरकार 22 प्रमुख फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का ऐलान कर कृषि उपज मंडियों के जरिये इन्हें किसानों से खरीदने की व्यवस्था करती है। असल में यह व्यवस्था केवल 2-4 फसलों और देश के कुछ ही हिस्सों खासकर पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और तेलंगाना आदि में लागू है। बाकी फसलों पर किसानों को एमएसपी नहीं मिल पाता है क्योंकि उनकी सरकारी खरीद की कोई व्यवस्था नहीं है।

मौटे तौर पर सरकार केवल धान और गेहूं की एमएसपी पर खरीद करती है, जिसका इस्तेमाल दुनिया की सबसे बड़ी सार्वजनिक वितरण प्रणाली (टीपीडीएस) के जरिये आबादी के बड़े हिस्से विशेषकर गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले परिवारों को सस्ता अनाज मुहैया कराने के लिए किया जाता है। इस प्रकार एमएसपी पर खरीद सीधे तौर पर देश की खाद्य सुरक्षा से जुड़ा मामला भी है।

इस प्रणाली का फायदा यह है कि किसानों को उनकी उपज का सुनिश्चित दाम मिलता है। जबकि गरीब उपभोक्ताओं को बहुत ही रियायती दरों पर अनाज मुहैया कराया जाता है। लेकिन इसकी कमी यह है कि एमएसपी केवल दो मुख्य फसलों और मुख्यत: उत्तर भारत के राज्यों में मिलता है। इसलिए किसान साल-दर-साल गेहूं और धान ही उगाते रहते हैं। न्यूनतम समर्थन मूल्य के रूप में धान और गेहूं को सरकारी प्रोत्साहन ने प्राकृतिक संसाधनों पर बुरा असर डाला है। इससे मिट्टी की सेहत खराब हुई है, भूजल स्तर गिर गया है और फसल विविधता घटकर दो फसलों तक सीमित रह गई है।

कृषि कानूनों पर सरकार समर्थक पक्ष का तर्क है कि एमएसपी के परिणामस्वरूप प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन हुआ है, इसलिए एमएसपी को खत्म कर देना चाहिए। बाजार के दरवाजे सभी खरीदारों के लिए खुले होने चाहिए। दूसरी तरफ किसानों की मांग है कि एमएसपी सभी फसलों के लिए होना चाहिए और सभी फसलों की एमएसपी पर खरीद होनी चाहिए। तभी किसान बाकी फसलें उगाएंगे और फसल विविधता को बढ़ावा मिल सकेगा।

इस प्रकार किसान प्राकृतिक संसाधनों को बचाने और फसल विविधता को बनाये रखने में सक्षम हो पाएंगे। यह खाद्य सुरक्षा और पर्यावरण सुरक्षा दोनों के लिए कारगर रहेगा। इतना ही नहीं सरकारी मंडियों के जरिये एमएसपी पर खरीद की व्यवस्था को पूरे देश में लागू करने की जरूरत है, ताकि पूरे देश में किसानों को उपज का उचित दाम मिल सके और उनकी आमदनी बढ़े।

इसके विपरीत, भारत सरकार किसानों को भरोसे में लिए बगैर धीरे-धीरे एमएसपी से हाथ खींचने वाले कृषि कानून लेकर आई। छोटे किसानों को बड़े कॉरपोरेट के साथ अनुबंध का रास्ता दिखाया जा रहा है, जबकि किसानों के पास न तो कॉरपोरेट से मोलभाव की ताकत है और न ही कानून और मार्केटिंग के विशेषज्ञों की टीम। इसलिए किसानों को डर है कि कृषि कानून लागू हो गये तो उनकी आजीविका का एकमात्र सहारा उनकी जमीन छिन जाएगी।

संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ किसानों की सामाजिक-आर्थिक खुशहाली और आजीविका में सुधार की वकालत करते हैं। इनका जोर सबको पोषणयुक्त आहार उपलब्ध कराने पर है। इन लक्ष्यों को पूरा करने में छोटे किसानों की भूमिका को संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) की अगुवाई वाले ‘इकोसिस्टम एंड इकोनॉमिक्स फॉर बायोडायवर्सिटी फॉर एग्रीकल्चर एंड फूड’ (TEEBAgriFood) जैसे प्रयासों ने मान्यता दी है।

भारत में सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करने और खाद्य व पोषण सुरक्षा सुनिश्चित करने में किसानों की भूमिका को मजबूत करने की आवश्यकता है। अधिकांश शहरी आबादी और भारतीय नीति निर्माता यह पहचानने में विफल रहे हैं कि छोटे किसान भारत में 41 फीसदी श्रमबल को रोजगार देते हैं। जमीन के छोटे-छोटे टुकड़ों पर 20 करोड़ से अधिक लोगों को रोजगार मिला हुआ है।

वास्तव में, किसान भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं और लगभग 80 करोड़ की ग्रामीण आबादी को सहारा देते हैं। 2018 में भारत के किसानों ने लगभग 20 लाख करोड़ रुपये की कृषि उपज पैदा की, जिनमें से अधिकांश के पास 5 एकड़ से कम जमीन है। (भारत में कुल कृषि योग्य भूमि लगभग 40 करोड़ एकड़ है)। भारत में किसानों को मिलने वाली सब्सिडी ज्यादातर कीटनाशकों और उर्वरकों के लिए दी जाती है जो प्रति एकड़ लगभग 2070 रुपये बैठती है। यह न सिर्फ नाकाफी है बल्कि सभी किसानों को मिल भी नहीं पाती है।

सोचने वाली बात यह है कि यदि देश में छोटे किसान नहीं बचेंगे तो ग्रामीण क्षेत्रों के कामगार कहां जाएगा? गांवों से शहरी क्षेत्रों में पलायन के कारण शहरों पर पहले ही अत्यधिक बोझ है।

यह किसान आंदोलन विश्व समुदाय, वैज्ञानिकों, नेताओं, मशहूर हस्तियों और आम जनता का ध्यान खींचने में कामयाब रहा है। किसानों के विरोध-प्रदर्शन और दृढ़ता ने खेती-किसानी के मुद्दों पर चर्चा का अवसर दिया है जो एक नई शुरुआत का अवसर बन सकता है। अगर किसानों से बातचीत कर सही कदम उठाये जाएं तो छोटे किसानों की स्थिति में सुधार लाया जा सकता है।


(डॉ हरपिंदर संधू कृषि अर्थशास्त्री और पर्यावरण विशेषज्ञ हैं जो दक्षिण ऑस्ट्रेलिया विश्वविद्यालय, एडिलेड में पढ़ाते हैं। यह लेख foodtank.comपर प्रकाशित उनके अंग्रेजी लेख का अनुवाद है। डॉ. संधू से उनके ट्विटर https://twitter.com/001harpinder पर संपर्क कर सकते हैं।)

सरकारी खरीद और मंडी सिस्टम से आगे सोचना क्यों जरूरी?

आज सभी मानते हैं कि कृषि के क्षेत्र में सुधार के लिए खेत से बाजार और बाजार से उपभोक्ता तक एक नई प्रणाली और तंत्र बनना बहुत जरूरी है। सारे देश में, मुख्य तौर पर कृषि आधारित पिछड़े राज्य जैसे बिहार में नई व्यवस्था की जरूरत है। इसके लिए पंजाब, हरियाणा जैसे जिन राज्यों में मंडी सिस्टम मजबूत है उसे बरकरार रखते हुए भी आगे बढ़ा जा सकता है। देखा जाए तो पंजाब और हरियाणा में अनाज के न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी और मंडी प्रणाली को बचाये रखने के लिए भी खेती से जुड़े ये नए कानून जरूरी हैं।

इस बात को समझने के लिए हमें देखना होगा कि न्यूनतम समर्थन मूल्य, मंडी प्रणाली और सरकारी खरीद किस तंत्र पर टिकी है। आज से करीब पांच दशक पहले सरकारी मंडी और एमएसपी सिस्टम की शुरुआत देश को भुखमरी से बचाने के लिए हुई थी। इस सिस्टम के तहत सरकार ने शुरुआत में पंजाब और हरियाणा, और बाद में उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के किसानों को खूब गेहूं और धान उगाने के लिए प्रोत्साहित किया। इसमें न्यूनतम समर्थन मूल्य का भरोसा अज्ञैर खरीद की गारंटी मुख्य प्रोत्साहन हैं। फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया अनाज उत्पादक राज्यों से एमएसपी पर अनाज खरीदकर सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिये अन्य राज्यों तक पहुंचाती है। मतलब, हरियाणा-पंजाब का किसान बिहार, झारखंड और अन्य राज्यों के लिए अनाज उगाता है। पीडीएस के राशन की सस्ती दरों का असर इन राज्यों के अनाज बाजार और मार्केट दरों पर भी पड़ता है, जिसका नुकसान वहां के किसान उठाते हैं।

अक्सर हमें यह सुनने को मिलता है कि बिहार में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सरकारी खरीद क्यों नहीं होती है? बिहार में हरियाणा-पंजाब की तरह मंडी सिस्टम क्यों नहीं है? मान लीजिए कि बिहार भी न्यूनतम समर्थन मूल्य वाली मंडी प्रणाली लागू कर देता है। इससे क्या होगा? फूड कॉरपोरेशन को पंजाब और हरियाणा से कम अनाज खरीदना पड़ेगा। क्योंकि तब बिहार को दूसरे राज्यों से अनाज मंगाने की उतनी जरूरत नहीं रहेगी। इसीलिए भी फूड कॉरपोरेशन बिहार में अनाज की खरीद नहीं करता, ताकि हरियाणा-पंजाब में अनाज की सरकारी खरीद जारी रख सके।

फूड कॉरपोरेशन की समस्या यह है कि उसके पास हर साल जरूरत से ज्यादा अनाज जमा होता है, क्योंकि साल दर साल अनाज का उत्पाद और सरकारी खरीद बढ़ती गई। हम अनाज की कमी से अनाज के सरप्लस की स्थिति में आ पहुंचे हैं। अब सरकार चाहे भी तो पूरे देश के किसानों से सारा अनाज एमएसपी पर नहीं खरीद सकती है। एक तो सरकार के पास इतना पैसा नहीं है और दूसरा पीडीएस की खपत की एक सीमा है। फिर सरकारी खरीद के लिए हरियाणा-पंजाब, यूपी, मध्यप्रदेश के अलावा अन्य राज्यों में भंडारण आदि की व्यवस्थाएं भी नहीं है। इसलिए एमएसपी पर सरकारी खरीद कुछ ही फसलों और कुछ ही राज्यों तक सीमित है।  

इसमें कोई दोराय नहीं है कि पंजाब और हरियाणा के किसानों ने देश को भुखमरी से बचाया है। इन राज्यों में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सरकारी खरीद की व्यवस्था बनी रही, इसके लिए बिहार जैसे राज्यों में गेहूं और धान की खरीद की बजाय अन्य फसलों को बढ़ावा देने की जरूरत है। इसके लिए बेहतर बाजार और खरीद तंत्र बनाने की जरूरत है। यह नई व्यवस्था प्राइवेट सेक्टर की भागीदारी के बिना संभव नहीं है। और इस व्यवस्था को सिर्फ सरकारी खरीद और एमएसपी के बूते नहीं चलाया जा सकता है। क्योंकि अनाज तो पीडीएस में बंट सकता है, इसलिए सरकारी खरीद संभव है। लेकिन बाकी उपज और फल-सब्जियों को एमएसपी पर खरीदने की न तो सरकार की क्षमता है और न ही इतने संसाधन हैं। इसलिए कृषि व्यापार की ऐसी व्यवस्थाएं बनानी होंगी, जिसमें सरकारी खरीद के बगैर भी किसानों के हितों और लाभ को सुनिश्चित किया जा सके। इसमें किसान को बाजार के उतार-चढ़ाव और जोखिम से बचाना और कृषि क्षेत्र में नई तकनीक, बेहतर इंफ्रास्ट्रक्चर और निवेश लाना भी शामिल है।

आज जगह-जगह सुपर मार्केट के जरिये खाने की चीज़ें, फल, सब्जियों इत्यादि बिकने की संभावनाएं बढ़ रही हैं। इस क्षेत्र की  कंपनियों को किसान से भागीदारी करने की जरूरत है। यहां सरकार की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। सरकार का काम है कि इस भागीदारी में किसान के अधिकार और हितों को मजबूत करे। जिस तरह सरकारी खरीद में फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया अनाज के दाम और खरीद की गारंटी देता है, उसी तरह किसान के साथ कॉन्ट्रैक्ट में खरीद और दाम को सुनिश्चित करना होगा। नए कृषि  कानून उस दिशा में एक कदम हैं। लेकिन अभी उसमें किसानों के लिए और भी सुरक्षा प्रावधानों को जरूरत है।

केंद्र सरकार ने किसान और खेती के लिए जो नए कानून बनाये हैं, उनमें किसानों के अधिकारों को और भी मजबूत किया जाना चाहिए। लेकिन सरकार पर किसानों का विश्वास न होना मोदी सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती बन गया है। इसके लिए खुद मोदी सरकार जिम्मेदार है। इसके लिए किसी और को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है।

(अनूप कुमार अमेरिका की क्लीवलैंड स्टेट यूनिवर्सिटी में जनसंचार के प्रोफेसर हैं)

हरियाणा में सरसों खरीद को लेकर किसान नाराज क्यों हैं?

हरियाणा में सरसों पैदा करने वाले किसान गुस्से में हैं। पिछले कई दिनों से इन्हें कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। सरसों की सरकारी खरीद को लेकर हरियाणा के किसानों को समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है।

हरियाणा में इस साल सरसों की अच्छी पैदावार हुई है। इसके बावजूद सरसों किसानों को अपनी फसल के बदले उचित मूल्य नहीं मिल पा रहा है। दरअसल, केंद्र सरकार ने इस सीजन के लिए सरसों का न्यूनतम समर्थन मूल्य 4,200 रुपये प्रति क्विंटल तय किया है। लेकिन किसानों को इस दर से प्रति क्विंटल 800 से 900 रुपये कम मिल रहे हैं।

दूसरी समस्या यह हो रही है कि किसानों की कुल पैदावार की सरकारी खरीद हरियाणा के मंडियों में नहीं हो पा रही है। सरकार ने अधिकतम खरीद की सीमा तय कर रखी है। यह सीमा प्रति एकड़ 6.5 क्विंटल की है। लेकिन हरियाणा से यह जानकारी मिल रही है कि इस साल वहां प्रति एकड़ औसतन 10 से 12 क्विंटल सरसों का उत्पादन हुआ है।

इस लिहाज से देखें तो किसानों से उनकी सरसों की कुल पैदावार को मंडियों में नहीं खरीदा जा रहा है। इसके अलावा मंडियों में एक दिन में एक किसान से 25 क्विंटल सरसों खरीदने की अधिकतम सीमा भी तय की गई है। इन दोनों वजहों से किसानों को खुले बाजार में औने-पौने दाम में सरसों बेचने को मजबूर होना पड़ रहा है।

पिछले दिनों स्वराज इंडिया पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक योगेंद्र यादव ने हरियाणा की कुछ मंडियों का दौरा करके सरसों किसानों की समस्याओं को लेकर सरकार को घेरने की कोशिश की थी। उन्होंने आरोप लगाया है कि किसानों से खरीदी जा रही सरसों की फसल की तौल में भी किसानों के साथ धोखा किया जा रहा है। उनका आरोप है कि हर बोरी पर किसानों की फसल लूटी जा रही है। योगेंद्र यादव ने सरकार से मांग की कि इस समस्या को दूर करने के साथ खरीद पर तय की गई अधिकतम सीमा तत्काल हटाई जानी चाहिए।

सरसों किसानों की समस्या बढ़ाने का काम खरीद एजेंसी में बदलाव की वजह से भी हुआ है। पहले हरियाणा में सरसों खरीद का काम नैफेड और हैफेड के माध्यम से किया जा रहा था। लेकिन इन एजेंसियों का खरीद लक्ष्य पूरा हो गया। जबकि मंडियों में सरसों की आवक जारी रही। इस वजह से अब सरसों खरीद का काम खाद्य एवं आपूर्ति विभाग को दिया गया है। खरीद एजेंसी में हुए इस बदलाव से हरियाणा के विभिन्न मंडियों में अव्यवस्था बनी हुई है।

एजेंसी बदलने की वजह से किसानों को नए सिरे से रजिस्ट्रेशन कराना पड़ रहा है। क्योंकि बगैर रजिस्ट्रेशन के किसानों की सरसों नहीं खरीदने का प्रावधान किया गया है। एजेंसी में बदलाव किए जाने की वजह से खरीद प्रक्रिया ठीक से चल नहीं रही है। प्रदेश में कुछ जगहों पर तो नाराज किसानों ने हंगाम भी किया। कुछ जगहों पर किसानों ने सड़क जाम भी किया।

बहादुरगढ़ की मंडी में सरसों किसानों को हंगाम करने का बाध्य होना पड़ा तब जाकर सरसों खरीद शुरू हो सकी। बहादुरगढ़ मंडी में खाद्य एवं आपूर्ति विभाग ही गेहूं की खरीद भी कर रहा है। इस वजह से न तो मंडी में विभाग के पर्याप्त कर्मचारी थे और न ही कोई उपयुक्त व्यवस्था बन पाई।

हरियाणा की मंडियों में सरसों की सरकारी खरीद ठीक से नहीं होने की वजह से कुछ मंडियों में सरसों से लदे ट्रालियों की लंबी कतारें लगी हुई हैं। रेवाड़ी में नाराज सरसों किसानों ने सड़क जाम किए। यहां किसानों से सरसों की खरीद ही शुरू नहीं हो पा रही थी। जबकि उन्हें सरसों खरीदने से संबंधित टोकन जारी हो गया था।

सरसों किसानों को इन समस्याओं का सामना तब करना पड़ा है जब केंद्र सरकार में बैठे नीति निर्धारक तिलहन के मामले में देश को आत्मनिर्भर बनाने और खाद्य तेलों का आयात कम करने की बात लगातार कर रहे हैं। केंद्र की सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी ने दोबारा सत्ता में आने के बाद तिलहन मिशन शुरू करने का वादा किया है। मार्च, 2019 में भारत ने 14.46 लाख टन खाद्य और अखाद्य तेलों का आयात किया।

एक तरफ भारी आयात है तो दूसरी तरफ देश में हो रहे उत्पादन की खरीदारी ठीक से नहीं हो रही है। ऐसे में क्या ये किसान फिर से सरसों उपजाने का निर्णय लेंगे? अगर ये फिर से सरसों नहीं उपजाते हैं या उपजाते भी हैं तो अगर सरसों की खरीद ठीक ढंग से नहीं हो पाती है तो क्या देश को तिलहन के मामले में आत्मनिर्भर बनाने का सपना पूरा हो पाएगा।

किसान और खेती की आउटसोर्सिंग से किसका भला होगा?

पिछले 20 साल के दौरान हर रोज औसतन 2035 किसान मुख्‍य खेतीहर का दर्जा खो रहे हैं।

 

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कृषि प्रधान भारत की विडंबना यह है कि एक के बाद एक सरकारों की नीतियों, लागत व मूल्‍य नीति की खामियों और घटती जोत के आकार के चलते किसान और समूचा कृषि क्षेत्र मुश्किल में उलझा हुआ है।

इसका प्रत्‍यक्ष प्रमाण यह है कि पिछले 20 साल के दौरान हर रोज औसतन 2035 किसान मुख्‍य खेतीहर का दर्जा खो रहे हैं। इसके पीछे एक बड़ी वजह यह है कि सभी सरकारें महंगाई पर काबू करने के नाम पर किसानों को उनकी उपज का पूरा दाम देने से बचती रही हैं। यह सिलसिला आगे भी जारी रहेगा। किसान की बदकिस्‍मती देखिए कि वह हर चीज फुटकर में खरीदता है, थोक में बेचता है और दोनों तरफ का भाड़ा भी खुद ही उठाता है।

एनएसएसओ के 70वें राउंड के आंकड़े बताते हैं कि राष्‍ट्रीय स्‍तर पर कृषक परिवार की औसत मासिक आमदनी महज 6426 रुपये है। इस औसत आमदनी में खेती से प्राप्‍त आय का हिस्‍सा महज 47.9 फीसदी है जबकि 11.9 फीसदी आय मवेशियों से, 32.2 फीसदी मजदूरी या वेतन से और 8 फीसदी आय गैर-कृषि कार्यों से होती है।

बढ़ती लागत के चलते किसान का मुनाफ लगातार घटता जा रहा है। वर्ष 2015 में पंजाब के कृषि विभाग ने बढ़ती लागत के मद्देनजर गेहूं का न्‍यूनतम समर्थन मूल्‍य 1950 रुपये प्रति कुंतल तय करने की सिफारिश की थी। खुद पंजाब के मुख्‍यमंत्री ने कृषि लागत एवं मूल्‍य आयोग यानी सीएसीपी और केंद्र सरकार से गेहूं का एमएसपी 1950 रुपये करने की मांग की थी। लेकिन नतीजा क्‍या हुआ? गेहूं का एमएसपी महज 1525 रुपये तय किया गया। अब बताईये 425 रुपये प्रति कुंतल का नुकसान किसान कैसे उठाएगा?

केंद्र में नई सरकार आने के बाद किसानों को उम्‍मीद जगी थी कि स्‍वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट को लागू किया जाएगा। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी चुनावी सभाओं में किसानों को लागत पर 50 फीसदी मुनाफा दिलाने का वादा किया था। लेकिन ये उम्‍मीदें भी फरवरी, 2015 ने चकनाचूर हो गईं जब केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि वह कृषि उपज का न्‍यूनतम समर्थन मूल्‍य लागत से 50 फीसदी ज्‍यादा बढ़ाने में सक्षम नहीं है। केंद्र सरकार की ओर से दाखिल हलफनामे में कहा गया है कि लागत पर 50 फीसदी बढ़ोतरी बाजार में उथलपुथल ला सकती है। तर्क यह है कि 60 करोड़ लोगों सिर्फ इसलिए वाजिब दाम से वंचित रखा जाए ताकी बाजार न बिगड़े। इस तरह की नीतियां लागू करने वाले सरकारी अधिकारी क्‍या 30 दिन काम कर 15 दिन का वेतन लेने को तैयार हैं? फिर किसान के साथ ये खिलवाड़ क्‍यों?

कृषि के मामले में नीतिगत खामियों का सिलसिला उपज के दाम तक सीमि‍त नहीं है। और भी तमाम उदाहरण हैं। सरकार ने 5 लाख टन ड्यूटी फ्री मक्‍का का आयात किया था जिससे कीमतों में जबरदस्‍त गिरावट आई। अब इसमें मक्‍का उगाने वाले किसान का क्‍या दोष जो समर्थन मूल्‍य से कम से उपज बेचने को मजबूर हुआ? क्‍या ऐसे स्थितियों में सरकार को किसान के नुकसान की भरपाई नहीं करनी चाहिए? क्‍या इसी तरह के हालत किसान को कर्ज के जाल में नहीं उलझाते हैं? मांग और आपूर्ति की स्थिति को देखते हुए कृषि उपज के आयात या निर्यात के फैसले सरकार को लेने होते हैं लेकिन इन फैसलों में किसान के हितों की रक्षा भी तो होनी चाहिए।

हाल ही में केंद्र सरकार ने मोजांबिक से दाल आयात के लिए दीर्घकालीन समझौता किया है। इसके तहत वर्ष 2021 तक 2 लाख टन दालों का आयात किया जाएगा। भारत सरकार मोजांबिक में कॉपरेटिव फार्मिंग का नेटवर्क खड़ा करेगी और किसानों को दलहन उत्‍पादन के लिए अच्‍छे बीज और सहायता दी जाएगी। इन किसानों की उपज को सरकार न्‍यूनतम समर्थन मूल्‍य पर खरीदेगी।

हैरानी की बात यह है कि सरकारी एजेंसियां भारत में सिर्फ 1 फीसदी दालों की खरीद न्‍यूनतम समर्थन मूल्‍य पर कर पाती हैं। जबकि यही सरकार अफ्रीका के किसानों को 100 फीसदी खरीद एमएसपी पर करने का भरोसा दिला रही है। ऐसा भरोसा भारत के किसानों को दिया जाए तो यहां भी दलहन उत्‍पादन बढ़ सकता है। इसका सबूत यह है कि इस साल दलहन के समर्थन मूल्‍य में सरकार ने 425 रुपये प्रति कुंतल तक की बढ़ोतरी की है और 15 जुलाई तक दलहन की बुवाई में गत वर्ष के मुकाबले 40 फीसदी बढ़ोतरी दर्ज की जा चुकी है। अधिकांश कृषि विशेषज्ञों का मानना है कि खेती की आउटसोर्सिंग भारतीय किसानों के हितों के खिलाफ है।

हालांकि, सरकार ने मुख्‍य आर्थिक सलाहकार के नेतृत्‍व में दलहन पर नीति बनाने के लिए एक समिति का गठन किया है जो एमएसपी, बोनस और दालों के उत्‍पादन के लिए किसानों को रियायतें आदि देने जैसे विकल्‍पों पर विचार करेगी। लेकिन दिक्‍कत यह है कि सरकार अपनी नीतिगत खामियों की तरफ तभी ध्‍यान देती है जबकि राष्‍ट्रीय स्‍तर पर बवाल खड़ा हो जाए। जबकि कामचलाऊ उपायों के बजाय दीर्घकालीन नीतियों और उपायों के जरिये किसान को सहारा देने की जरूरत है।