किसान आंदोलन: निर्णायक संघर्ष या एक नई शुरुआत?

 

भारत में तीन नए कृषि कानून लगभग 20 करोड़ छोटे किसानों और उनके परिवारों के लिए निर्णायक संघर्ष साबित हो रहे हैं। अपनी आजीविका के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से खेती पर निर्भर लगभग 80 करोड़ की ग्रामीण आबादी के लिए भी इसके गंभीर निहितार्थ हैं। इसके अलावा, 135 करोड़ की आबादी वाले देश की खाद्य सुरक्षा को लेकर भी कई चिंताएं जताई ज रही हैं। भारत सरकार का कहना है कि ये कानून संकटग्रस्त कृषि क्षेत्र में एक नई आर्थिक क्रांति की शुरूआत करेंगे। जबकि किसान इनका विरोध कर रहे हैं क्योंकि कॉरपोरेट को बढ़ावा दिये जाने से उन्हें सरकारी मंडियों के खत्म होने और अपनी जमीन खोने का खतरा है।

फिलहाल, भारत सरकार 22 प्रमुख फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का ऐलान कर कृषि उपज मंडियों के जरिये इन्हें किसानों से खरीदने की व्यवस्था करती है। असल में यह व्यवस्था केवल 2-4 फसलों और देश के कुछ ही हिस्सों खासकर पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और तेलंगाना आदि में लागू है। बाकी फसलों पर किसानों को एमएसपी नहीं मिल पाता है क्योंकि उनकी सरकारी खरीद की कोई व्यवस्था नहीं है।

मौटे तौर पर सरकार केवल धान और गेहूं की एमएसपी पर खरीद करती है, जिसका इस्तेमाल दुनिया की सबसे बड़ी सार्वजनिक वितरण प्रणाली (टीपीडीएस) के जरिये आबादी के बड़े हिस्से विशेषकर गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले परिवारों को सस्ता अनाज मुहैया कराने के लिए किया जाता है। इस प्रकार एमएसपी पर खरीद सीधे तौर पर देश की खाद्य सुरक्षा से जुड़ा मामला भी है।

इस प्रणाली का फायदा यह है कि किसानों को उनकी उपज का सुनिश्चित दाम मिलता है। जबकि गरीब उपभोक्ताओं को बहुत ही रियायती दरों पर अनाज मुहैया कराया जाता है। लेकिन इसकी कमी यह है कि एमएसपी केवल दो मुख्य फसलों और मुख्यत: उत्तर भारत के राज्यों में मिलता है। इसलिए किसान साल-दर-साल गेहूं और धान ही उगाते रहते हैं। न्यूनतम समर्थन मूल्य के रूप में धान और गेहूं को सरकारी प्रोत्साहन ने प्राकृतिक संसाधनों पर बुरा असर डाला है। इससे मिट्टी की सेहत खराब हुई है, भूजल स्तर गिर गया है और फसल विविधता घटकर दो फसलों तक सीमित रह गई है।

कृषि कानूनों पर सरकार समर्थक पक्ष का तर्क है कि एमएसपी के परिणामस्वरूप प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन हुआ है, इसलिए एमएसपी को खत्म कर देना चाहिए। बाजार के दरवाजे सभी खरीदारों के लिए खुले होने चाहिए। दूसरी तरफ किसानों की मांग है कि एमएसपी सभी फसलों के लिए होना चाहिए और सभी फसलों की एमएसपी पर खरीद होनी चाहिए। तभी किसान बाकी फसलें उगाएंगे और फसल विविधता को बढ़ावा मिल सकेगा।

इस प्रकार किसान प्राकृतिक संसाधनों को बचाने और फसल विविधता को बनाये रखने में सक्षम हो पाएंगे। यह खाद्य सुरक्षा और पर्यावरण सुरक्षा दोनों के लिए कारगर रहेगा। इतना ही नहीं सरकारी मंडियों के जरिये एमएसपी पर खरीद की व्यवस्था को पूरे देश में लागू करने की जरूरत है, ताकि पूरे देश में किसानों को उपज का उचित दाम मिल सके और उनकी आमदनी बढ़े।

इसके विपरीत, भारत सरकार किसानों को भरोसे में लिए बगैर धीरे-धीरे एमएसपी से हाथ खींचने वाले कृषि कानून लेकर आई। छोटे किसानों को बड़े कॉरपोरेट के साथ अनुबंध का रास्ता दिखाया जा रहा है, जबकि किसानों के पास न तो कॉरपोरेट से मोलभाव की ताकत है और न ही कानून और मार्केटिंग के विशेषज्ञों की टीम। इसलिए किसानों को डर है कि कृषि कानून लागू हो गये तो उनकी आजीविका का एकमात्र सहारा उनकी जमीन छिन जाएगी।

संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ किसानों की सामाजिक-आर्थिक खुशहाली और आजीविका में सुधार की वकालत करते हैं। इनका जोर सबको पोषणयुक्त आहार उपलब्ध कराने पर है। इन लक्ष्यों को पूरा करने में छोटे किसानों की भूमिका को संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) की अगुवाई वाले ‘इकोसिस्टम एंड इकोनॉमिक्स फॉर बायोडायवर्सिटी फॉर एग्रीकल्चर एंड फूड’ (TEEBAgriFood) जैसे प्रयासों ने मान्यता दी है।

भारत में सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करने और खाद्य व पोषण सुरक्षा सुनिश्चित करने में किसानों की भूमिका को मजबूत करने की आवश्यकता है। अधिकांश शहरी आबादी और भारतीय नीति निर्माता यह पहचानने में विफल रहे हैं कि छोटे किसान भारत में 41 फीसदी श्रमबल को रोजगार देते हैं। जमीन के छोटे-छोटे टुकड़ों पर 20 करोड़ से अधिक लोगों को रोजगार मिला हुआ है।

वास्तव में, किसान भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं और लगभग 80 करोड़ की ग्रामीण आबादी को सहारा देते हैं। 2018 में भारत के किसानों ने लगभग 20 लाख करोड़ रुपये की कृषि उपज पैदा की, जिनमें से अधिकांश के पास 5 एकड़ से कम जमीन है। (भारत में कुल कृषि योग्य भूमि लगभग 40 करोड़ एकड़ है)। भारत में किसानों को मिलने वाली सब्सिडी ज्यादातर कीटनाशकों और उर्वरकों के लिए दी जाती है जो प्रति एकड़ लगभग 2070 रुपये बैठती है। यह न सिर्फ नाकाफी है बल्कि सभी किसानों को मिल भी नहीं पाती है।

सोचने वाली बात यह है कि यदि देश में छोटे किसान नहीं बचेंगे तो ग्रामीण क्षेत्रों के कामगार कहां जाएगा? गांवों से शहरी क्षेत्रों में पलायन के कारण शहरों पर पहले ही अत्यधिक बोझ है।

यह किसान आंदोलन विश्व समुदाय, वैज्ञानिकों, नेताओं, मशहूर हस्तियों और आम जनता का ध्यान खींचने में कामयाब रहा है। किसानों के विरोध-प्रदर्शन और दृढ़ता ने खेती-किसानी के मुद्दों पर चर्चा का अवसर दिया है जो एक नई शुरुआत का अवसर बन सकता है। अगर किसानों से बातचीत कर सही कदम उठाये जाएं तो छोटे किसानों की स्थिति में सुधार लाया जा सकता है।


(डॉ हरपिंदर संधू कृषि अर्थशास्त्री और पर्यावरण विशेषज्ञ हैं जो दक्षिण ऑस्ट्रेलिया विश्वविद्यालय, एडिलेड में पढ़ाते हैं। यह लेख foodtank.comपर प्रकाशित उनके अंग्रेजी लेख का अनुवाद है। डॉ. संधू से उनके ट्विटर https://twitter.com/001harpinder पर संपर्क कर सकते हैं।)