कॉरपोरेट कब्जे से गांव-किसान को बचाने का आखिरी मौका

खेती को कॉरपोरेट के हवाले करने वाले कृषि अध्यादेश एवं उन पर बने कानूनों के विरोध की पहली सालगिरह पर उन सभी साथियों को बधाई जिनके संघर्ष के कारण खेती और गांव बचने की उम्मीद अभी भी जिन्दा है।

सुप्रीम कोर्ट, संसद भवन, विज्ञान भवन, टीवी चैनल, विदेशी अखबारों से लेकर खेतों की पगडंडियों तक इन कानूनों पर हुई बहसों के बाद यह तो निश्चित है ये कानून दुनिया के सबसे अधिक विवादित कानूनों में शामिल हैं। दिल्ली की सड़कों पर  खुले आसमान के नीचे सर्दी, गर्मी, बरसात और कोरोना की दोनों लहरों को झेलते हुए लाखों किसानों के आंदोलन के बाद भी यदि यह आंदोलन भारत की अर्थव्यवस्था और उसकी संस्कृति बचाने का आंदोलन नहीं बन पाया है तो इसकी जिम्मेदारी उन राजनीतिक दलों और स्वतंत्र मीडिया की है जो भाजपा की पूंजीवादी अर्थव्यवस्था तथा खेती पर कॉरपोरेट के नियंत्रण के विरोध का दावा करते हैं।

इस आंदोलन को समाप्त करने के लिए भाजपा के पास जितने भी औजार थे वो सब इस्तेमाल कर लिए हैं। कॉरपोरेट व भाजपा को पता है कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था और समाज पर नियंत्रण के विरोध में किया जाने वाला यह आखिरी प्रतिरोध है, यदि 65% आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाले किसान जिनके पास आंदोलन चलाने के जीवट के साथ ही भोजन सहित अन्य आवश्यक संसाधन जुटाने की सामर्थ्य भी हो, उनके असफल होने के बाद शायद ही कोई अन्य वर्ग/संगठन आंदोलन करने की हिम्मत जुटा पाएगा।

खेती पर कॉरपोरेट के नियंत्रण के दूरगामी प्रभाव को दूसरे देशों खासकर अमेरिका के उदाहरण से समझा जा सकता है, जहां 1970 के दशक में सरकार ने पारिवारिक खेती की बजाय कॉरपोरेट के नियंत्रण वाली औद्योगिक खेती को प्रोत्साहित किया, जिससे वहां न केवल फसलों की विविधता समाप्त हो गई, पारिवारिक फार्म उजड़ गए बल्कि सरकार को खेती करने के लिए कॉरपोरेट को अधिक सब्सिडी भी देनी पड़ी।

खेती पर कॉरपोरेट के नियंत्रण के बाद ग्रामीण अर्थव्यवस्था कैसे प्रभावित होगी उसे पंजाब, हरियाणा एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 60-70 के दशकों में किसान परिवारों में जन्मे व्यक्ति आसानी से समझ सकते हैं। हरित क्रांति से देश भले ही खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर हो गया है लेकिन उसने जहां एक ओर किसानों को कर्जदार बनाया है वहीं फसलों की विविधता समाप्त कर कृषि भूमि एवं वातावरण को प्रदूषित कर दिया है।

औद्योगिक खेती केवल ग्रामीण अर्थव्यवस्था ही नहीं समाज को प्रभावित करती है इसे समझने के लिए गन्ने की खेती अच्छा उदाहरण है। सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य नीति (एमएसपी) के माध्यम से गन्ने की फसल को अन्य फसलों से अधिक लाभकारी बनाया क्योंकि उससे किसानों की तुलना में चीनी मिल मालिकों का अधिक लाभ होता है। कृषि भूमि के 90% भाग पर गन्ने की खेती होने से समाज में आर्थिक एवं सामाजिक संबंधों में परिवर्तन हुए। केवल गन्ने की खेती होने से गांवों में ‘फसलाना’ व्यवस्था समाप्त हो गई जिससे गांवों में रहने वाले दस्तकार लुहार, धोबी, बढ़ई, नाई आदि समुदायों के साथ लेन-देन नगदी में बदल गया। कपास, सरसों, मक्का आदि की खेती बंद होने से उस पर आधारित दस्तकारों जैसे जुलाहे, धोबी, तेली, लुहार, बढ़ई आदि बेरोजगार हो गए। मजबूरी में उन्हें जीवनयापन के लिए शहरों का रूख करना पड़ा।

गन्ने की पैदावार बढ़ाने के लिए जहां एक और कर्ज लेकर मशीनें खरीदी वहीं दूसरी ओर रासायनिक खादों एवं कीटनाशकों के अधिक प्रयोग ने जमीन की उर्वरता घटाई। और जब किसान गन्ने की फसल पर आधारित हो गए तब चीनी मिलों ने ना केवल भुगतान करने में देरी की बल्कि सरकार पर गन्ना मूल्यों में बढ़ोतरी न करने का दवाब बनाने में भी सफल रहे, जिसके कारण आज किसान घाटे में भी गन्ने की खेती करने के लिए मजबूर हैं।

आश्चर्य की बात है कि कॉरपोरेट ताकतों के खिलाफ यह लड़ाई किसान अकेला लड़ रहा है जबकि इसका सबसे अधिक नुकसान मजदूरों, छोटे व्यापारियों एवं उपभोक्ताओं का होने जा रहा है। व्यापारी वर्ग थोक एवं खुदरा व्यापार में आने वाली कम्पनियों अमेजन, वालमार्ट और रिलायंस जैसे कॉरपोरेट का तो विरोध करता है लेकिन खाद्यान्न उत्पादन और कृषि व्यापार पर कॉरपोरेट कब्जे के विरोध शतुरमुर्गी नीति अपनाए हुए है।

समाज के विभिन्न वर्गों को समझ लेना चाहिए कि पूंजीवादी व्यवस्था का किसी से कोई रिश्ता नहीं होता। उसका उद्देश्य केवल मुनाफा और अधिक मुनाफा कमाना होता है। कॉरपोरेट समर्थक इन कृषि कानूनों की बरसी पर हमें आने वाले संघर्ष की ऊर्जा के लिए ग्रामीण भारत के दो सबसे बड़े पैरोकार महात्मा गांधी तथा चौधरी चरण सिंह के विचार ‘भारत की आत्मा गांवों में निवास करती है’ तथा ‘हिन्दुस्तान की तरक्की का रास्ता खेत-खलिहानों से होकर गुजरता है’ को अवश्य स्मरण कर लेना चाहिए।

सत्ता प्राप्ति के लिए कॉरपोरेट की सारथी बनी भाजपा को याद रखना चाहिए की कॉरपोरेट व्यवस्था का पहला निशाना ग्रामीण अर्थव्यवस्था और समाज होगा। उसके विघटन के बाद आत्मा तो निकल जाएगी और उनके शासन करने के लिए ‘भारत’ का केवल शरीर मात्र ही बचेगा। भाजपा से इतर विपक्षी पार्टियों के लिए भी यह अंतिम अवसर है क्योंकि इसके बाद वो समाज और उसके मुद्दे ही नहीं बचेंगे जिसके आधार पर प्रजातंत्र चलता है, यदि कुछ बचेगा तो कॉरपोरेट जो संसाधनों के बल पर सत्ता दिला तो देते हैं लेकिन कीमत भी पूरी वसूल करते हैं।

इस कॉरपोरेट विरोधी आन्दोलन को जीतने तक लड़ने का संकल्प लेने वाले बहादुरों को सलाम एवं शुभकामनाएं।

किसान आंदोलन: निर्णायक संघर्ष या एक नई शुरुआत?

भारत में तीन नए कृषि कानून लगभग 20 करोड़ छोटे किसानों और उनके परिवारों के लिए निर्णायक संघर्ष साबित हो रहे हैं। अपनी आजीविका के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से खेती पर निर्भर लगभग 80 करोड़ की ग्रामीण आबादी के लिए भी इसके गंभीर निहितार्थ हैं। इसके अलावा, 135 करोड़ की आबादी वाले देश की खाद्य सुरक्षा को लेकर भी कई चिंताएं जताई ज रही हैं। भारत सरकार का कहना है कि ये कानून संकटग्रस्त कृषि क्षेत्र में एक नई आर्थिक क्रांति की शुरूआत करेंगे। जबकि किसान इनका विरोध कर रहे हैं क्योंकि कॉरपोरेट को बढ़ावा दिये जाने से उन्हें सरकारी मंडियों के खत्म होने और अपनी जमीन खोने का खतरा है।

फिलहाल, भारत सरकार 22 प्रमुख फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का ऐलान कर कृषि उपज मंडियों के जरिये इन्हें किसानों से खरीदने की व्यवस्था करती है। असल में यह व्यवस्था केवल 2-4 फसलों और देश के कुछ ही हिस्सों खासकर पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और तेलंगाना आदि में लागू है। बाकी फसलों पर किसानों को एमएसपी नहीं मिल पाता है क्योंकि उनकी सरकारी खरीद की कोई व्यवस्था नहीं है।

मौटे तौर पर सरकार केवल धान और गेहूं की एमएसपी पर खरीद करती है, जिसका इस्तेमाल दुनिया की सबसे बड़ी सार्वजनिक वितरण प्रणाली (टीपीडीएस) के जरिये आबादी के बड़े हिस्से विशेषकर गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले परिवारों को सस्ता अनाज मुहैया कराने के लिए किया जाता है। इस प्रकार एमएसपी पर खरीद सीधे तौर पर देश की खाद्य सुरक्षा से जुड़ा मामला भी है।

इस प्रणाली का फायदा यह है कि किसानों को उनकी उपज का सुनिश्चित दाम मिलता है। जबकि गरीब उपभोक्ताओं को बहुत ही रियायती दरों पर अनाज मुहैया कराया जाता है। लेकिन इसकी कमी यह है कि एमएसपी केवल दो मुख्य फसलों और मुख्यत: उत्तर भारत के राज्यों में मिलता है। इसलिए किसान साल-दर-साल गेहूं और धान ही उगाते रहते हैं। न्यूनतम समर्थन मूल्य के रूप में धान और गेहूं को सरकारी प्रोत्साहन ने प्राकृतिक संसाधनों पर बुरा असर डाला है। इससे मिट्टी की सेहत खराब हुई है, भूजल स्तर गिर गया है और फसल विविधता घटकर दो फसलों तक सीमित रह गई है।

कृषि कानूनों पर सरकार समर्थक पक्ष का तर्क है कि एमएसपी के परिणामस्वरूप प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन हुआ है, इसलिए एमएसपी को खत्म कर देना चाहिए। बाजार के दरवाजे सभी खरीदारों के लिए खुले होने चाहिए। दूसरी तरफ किसानों की मांग है कि एमएसपी सभी फसलों के लिए होना चाहिए और सभी फसलों की एमएसपी पर खरीद होनी चाहिए। तभी किसान बाकी फसलें उगाएंगे और फसल विविधता को बढ़ावा मिल सकेगा।

इस प्रकार किसान प्राकृतिक संसाधनों को बचाने और फसल विविधता को बनाये रखने में सक्षम हो पाएंगे। यह खाद्य सुरक्षा और पर्यावरण सुरक्षा दोनों के लिए कारगर रहेगा। इतना ही नहीं सरकारी मंडियों के जरिये एमएसपी पर खरीद की व्यवस्था को पूरे देश में लागू करने की जरूरत है, ताकि पूरे देश में किसानों को उपज का उचित दाम मिल सके और उनकी आमदनी बढ़े।

इसके विपरीत, भारत सरकार किसानों को भरोसे में लिए बगैर धीरे-धीरे एमएसपी से हाथ खींचने वाले कृषि कानून लेकर आई। छोटे किसानों को बड़े कॉरपोरेट के साथ अनुबंध का रास्ता दिखाया जा रहा है, जबकि किसानों के पास न तो कॉरपोरेट से मोलभाव की ताकत है और न ही कानून और मार्केटिंग के विशेषज्ञों की टीम। इसलिए किसानों को डर है कि कृषि कानून लागू हो गये तो उनकी आजीविका का एकमात्र सहारा उनकी जमीन छिन जाएगी।

संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ किसानों की सामाजिक-आर्थिक खुशहाली और आजीविका में सुधार की वकालत करते हैं। इनका जोर सबको पोषणयुक्त आहार उपलब्ध कराने पर है। इन लक्ष्यों को पूरा करने में छोटे किसानों की भूमिका को संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) की अगुवाई वाले ‘इकोसिस्टम एंड इकोनॉमिक्स फॉर बायोडायवर्सिटी फॉर एग्रीकल्चर एंड फूड’ (TEEBAgriFood) जैसे प्रयासों ने मान्यता दी है।

भारत में सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करने और खाद्य व पोषण सुरक्षा सुनिश्चित करने में किसानों की भूमिका को मजबूत करने की आवश्यकता है। अधिकांश शहरी आबादी और भारतीय नीति निर्माता यह पहचानने में विफल रहे हैं कि छोटे किसान भारत में 41 फीसदी श्रमबल को रोजगार देते हैं। जमीन के छोटे-छोटे टुकड़ों पर 20 करोड़ से अधिक लोगों को रोजगार मिला हुआ है।

वास्तव में, किसान भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं और लगभग 80 करोड़ की ग्रामीण आबादी को सहारा देते हैं। 2018 में भारत के किसानों ने लगभग 20 लाख करोड़ रुपये की कृषि उपज पैदा की, जिनमें से अधिकांश के पास 5 एकड़ से कम जमीन है। (भारत में कुल कृषि योग्य भूमि लगभग 40 करोड़ एकड़ है)। भारत में किसानों को मिलने वाली सब्सिडी ज्यादातर कीटनाशकों और उर्वरकों के लिए दी जाती है जो प्रति एकड़ लगभग 2070 रुपये बैठती है। यह न सिर्फ नाकाफी है बल्कि सभी किसानों को मिल भी नहीं पाती है।

सोचने वाली बात यह है कि यदि देश में छोटे किसान नहीं बचेंगे तो ग्रामीण क्षेत्रों के कामगार कहां जाएगा? गांवों से शहरी क्षेत्रों में पलायन के कारण शहरों पर पहले ही अत्यधिक बोझ है।

यह किसान आंदोलन विश्व समुदाय, वैज्ञानिकों, नेताओं, मशहूर हस्तियों और आम जनता का ध्यान खींचने में कामयाब रहा है। किसानों के विरोध-प्रदर्शन और दृढ़ता ने खेती-किसानी के मुद्दों पर चर्चा का अवसर दिया है जो एक नई शुरुआत का अवसर बन सकता है। अगर किसानों से बातचीत कर सही कदम उठाये जाएं तो छोटे किसानों की स्थिति में सुधार लाया जा सकता है।


(डॉ हरपिंदर संधू कृषि अर्थशास्त्री और पर्यावरण विशेषज्ञ हैं जो दक्षिण ऑस्ट्रेलिया विश्वविद्यालय, एडिलेड में पढ़ाते हैं। यह लेख foodtank.comपर प्रकाशित उनके अंग्रेजी लेख का अनुवाद है। डॉ. संधू से उनके ट्विटर https://twitter.com/001harpinder पर संपर्क कर सकते हैं।)

गुजरात: राजनीति और इंजीनियरिंग के लिहाज से क्‍यों खास है सौनी प्रोजेक्‍ट?

अपने महत्‍वाकांक्षी सौनी प्रोजेक्‍ट के जरिये गुजरात की सियासी इंजीनियरिंग को साधने में जुटे हैं नरेंद्र मोदी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मंगलवार को गुजरात के जामनगर पहुंचे और ‘सौराष्ट्र नर्मदा अवतरण फॉर इरिगेशन’ (SAUNI) यानी सौनी प्रोजेक्‍ट के पहले चरण का लोकार्पण किया। साल 2012 में विधानसभा चुनाव से पहले बतौर सीएम नरेंद्र मोदी ने ही इस सिंचाई परियोजना का ऐलान किया था। एक बार फिर चुनाव से पहले 12 हजार करोड़़ रुपये की यह महत्‍वाकांक्षी परियोजना सुर्खियों में है। उम्‍मीद की जा रही है कि यह प्रोजेेक्‍ट सौराष्‍ट्र से सूखा पीड़‍ि़त किसानों के लिए बड़ी राहत लेकर आएगा। लेकिन इसका सियासी महत्‍व भी कम नहीं है। विपक्षी दल कांग्रेस ने परियोजना पूरी होने से पहले ही प्रथम चरण के लोकार्पण और प्रधानमंत्री की जनसभा को चुनावी हथकंंड़ा करार दिया है। पीएम बनने के बाद नरेंद्र मोदी की आज गुजरात में पहली सभा थी।

जामनगर, राजकोट और मोरबी जिले की सीमाओं से सटे सणोसरा गांव मेंं एक जनसभा को संबोधित करते हुए पीएम मोदी ने कहा कि सौनी प्रोजेक्ट पर हर गुजराती को गर्व होगा। किसान को जहां भी पानी मिलेगा, वह चमत्‍कार करके दिखाएगा। गुजरात के मुख्‍यमंत्री विजय रूपाणी का कहना है कि सौनी प्रोजेक्‍ट सूखे की आशंका वाले सौराष्‍ट्र के 11 जिलों की प्‍यास बुझाएगा। परियोजना के पहले चरण में राजकोट, जामनगर और मोरबी के 10 बांधों में नर्मदा का पानी पहुंचेेगा। अनुमान है कि सौराष्‍ट्र की करीब 10 लाख हेक्‍टेअर से अधिक कृषि भूमि को फायदा होगा।

सिविल इंजीनियरिंग का कमाल

सिविल इंजीनियरिंग के लिहाज से भी सौनी प्रोजेेक्‍ट काफी मायने रखता है। इसके तहत 1,126 किलोमीटर लंबी पाइपलाइन बिछाई जाएगी, जिसके जरिये सरदार सरोवर बांध का अतिरिक्‍त पानी सौराष्ट्र के छोटे-बड़े 115 बांधों में डाला जाएगा। पहले चरण में 57 किलोमीटर लंबी पाइपलाइन बिछाई गई है जिससे सौराष्‍ट्र में तीन जिलों के 10 बांधों में पानी पहुंचने लगा है। गुजरात सरकार का दावा है कि सभी 115 बांधों के भरने से करीब 5 हजार गांव के किसानों को फायदा होगा। गौरतलब है कि सौराष्‍ट्र के ये इलाके अक्‍सर सूखे की चपेट में रहते हैं। नर्मदा का पानी पहुंचने से यहां के किसानों को राहत मिल सकती है।

मोदी की रैली के सियासी मायने

हालांकि, सौनी प्रोजेक्‍ट 2019 तक पूरा होना है लेकिन अगले साल गुजरात में होने वाले विधानसभा चुनाव के मद्देनजर भाजपा और राज्‍य सरकार अभी से इसका श्रेय लेने में जुट गई है। आनंदीबेन पटेल के सीएम की कुर्सी से हटने और विजय रूपाणी के मुख्‍यमंत्री बनने के बाद यह पीएम मोदी की पहली गुजरात यात्रा है। उधर, पाटीदार आरक्षण और दलित आंदोलन भी भाजपा के लिए खासी चुनौती बना हुआ हैै। इसलिए भी पीएम मोदी के कार्यक्रम और जनसभा के सियासी मायने निकाले जा रहे हैं। सौराष्‍ट्र कृषि प्रधान क्षेत्र है और यहां पटेल आरक्षण और दलित आंदोलन का काफी असर है।

परंपरागत सिंचाई योजना से कैसे अलग है सौनी

देखा जाए तो सौनी प्रोजेेक्‍ट नर्मदा प‍रियोजना का ही विस्‍तार है। लेकिन परंपरागत सिंचाई परियोजनाओं की तरह सौनी प्रोजेक्‍ट में नए बांध, जलाशयों और खुली नहरों के निर्माण के बजाय पहले से मौजूद बाधों में पानी पहुंंचाया जाएगा। इसके लिए खुली नहरों की जगह पाइपलाइन बिछाई जा रही है। उल्‍लेखनीय है कि भूमि अधिग्रहण के झंझटों को देखते हुए गुजरात सरकार ने खुली नहरों के बजाय भूमिगत पाइपलाइन का विकल्‍प चुना था। इसी पाइपलाइन के जरिये नर्मदा का पानी सौराष्‍ट्र के 115 बांधों तक पहुंचााने की योजना है। भूमिगत पाइपलाइन से बांधों में पानी डालने के लिए बड़े पैमाने पर पंपिंग की जरूरत होगी। इस पर आने वाले खर्च को लेकर भी सवाल उठते रहे हैं।

परियोजना पर सवाल भी कम नहीं

12 हजार करोड़ रुपये केे सौनी प्रोजेक्‍ट पर सवाल भी कम नहीं हैं। दरअसल, राज्‍य सरकार का अनुमान है कि नर्मदा से करीब 1 मिलियन एकड़ फीट अतिरिक्‍त पानी सौराष्‍ट्र के 115 बांधों को मिल सकता है। गुजरात विधानसभा में विपक्ष के नेता शंकर सिंह वाघेला का कहना है कि सौनी प्रोजेक्‍ट की सच्‍चाई दो महीने बाद सामने आएगी। अभी तो बरसात की वजह से अधिकांश बांधों में बारिश का पानी पहुंंच रहा है। दो-तीन महीने बाद जब बांध सूख जाएंगे तब पता चलेगा सौनी प्रोजेक्‍ट से कितना पानी पहुंचता है। सरकार को कम से कम दो महीने का इंतजार करना चाहिए था।

यवतमाल: किसान बाप-बेटे ने एक ही पेड़ से लगाई फांसी

किसानों की आय दोगुनी करने के दावों और किसान कल्‍याण की तमाम योजनाओं के बावजूद देश में किसानों की खुदकुशी का सिलसिला थम नहीं रहा है। अब महाराष्‍ट्र के यवतमाल से एक किसान और उसके बेटे के कथित तौर पर खुदकुशी करने की खबर आई है। जबकि उत्‍तर प्रदेश के महोबा में फसल नुकसान के सदमे से एक किसान की मौत हो गई।

मिली जानकारी के अनुसार, यवतमाल की अर्णी तहसील में मंगलवार को किसान बाप-बेटे ने एक ही पेड़ से लटककर खुदकुशी कर ली। बताया जाता है कि यह परिवार कर्ज के बोझ तले दबा था और बेटा मानसिक तौर पर बीमार था। किसान काशीराम मुधोलकर और उसके बेटे अनिल ने पेड़ की एक ही डाल से लटककर खुद को फांसी लगा ली। अनिल कथित तौर पर अवसाद से ग्रस्त था। बतायाज जाता है कि काशीराम ने अपने बेटे के इलाज के लिए स्थानीय क्रेडिट सोसाइटी से एक लाख रुपये उधार लिए थे।

मृतक किसान काशीराम मुधोलकर (65) के पास पांच एकड़ जमीन थी और उन्‍होंने 14 एकड़ खेती बंटाई पर ली हुई थी। इस साल भयंकर सूखे और बारिश में कमी की वजह से उनकी खेती को नुकसान हुआ जिससे वह काफी परेशान थे। काशीराम का बेटा अनिल (20) भी कई महीने से बेरोजगार था। गौरतलब है कि इस साल महाराष्‍ट्र के यवतमाल जिले में सूखे और बाढ़ दोनों की मार पड़ी है। सूखे और बाढ़ प्रभावित किसान मुआवजे का इंतजार कर रहे हैं और अवसादग्रस्‍त हो रहे हैं।

40 फीसदी बढ़े किसान आत्‍महत्‍या के मामले

देश में किसान आत्‍महत्‍या के मामले 40 फीसदी बढ़े हैं। अंग्रेजी अखबार ‘इंडियन एक्‍सप्रेस’ में छपी एक खबर के अनुसार, वर्ष 2014 में किसान आत्‍महत्‍या के 5650 मामले सामने आए थे जबकि 2015 में यह आंकड़ा 8 हजार के ऊपर चला गया है। सबसे ज्‍यादा महाराष्‍ट्र के किसान खुदकुशी कर रहे हैं। वर्ष 2014 में महाराष्‍ट्र में 2568 किसानों ने आत्‍महत्‍या की थी जबकि 2015 में 3030 किसान आत्‍महत्‍या कर चुके हैं। महाराष्‍ट्र के बाद से ज्‍यादा किसान आत्‍महत्‍याएं तेलंगाना और कर्नाटक में हो रही हैं।

फसल बर्बाद, किसान की सदमे से मौत

उत्‍तर प्रदेश के महोबा जिले में बारिश से फसल की बर्बादी कुआं ढह जाने के सदमे से एक किसान की मौत हो गई। ग्राम नरेड़ी निवासी दुलीचंद्र (45) ने एक लाख रुपये खर्च कर एक कुआं खुदवाया था। फसल की बुवाई के लिए उसने उधार भी लिया था। लेकिन, खेतों में पानी भर जाने और कुआं धस जाने से उसे काफी सदमा लगा। उसे सीने में दर्द उठा। परिजन अस्पताल ले जा पाते इससे पहले ही रास्ते में उसकी मौत हो गई।