देश में ‘चीनी कम’ फिर भी क्यों नहीं बढ़े गन्ने के दाम?

 

पिछले दिनों पूरे उत्तर प्रदेश में जगह-जगह गन्ना किसानों ने प्रदर्शन कर गन्ने की होली जलाई। उत्तर प्रदेश में भाजपा सरकार बनने के बाद तीन वर्षों में गन्ने के भाव में केवल 2017-18 में मात्र 10 रुपये प्रति क्विंटल की बढ़ोतरी की गई थी। उत्तर प्रदेश में गन्ने का एसएपी यानी राज्य परामर्शित मूल्य पिछले दो सालों से 315-325 रुपये प्रति क्विंटल के स्तर पर ही है। इस साल गन्ना किसानों को सरकार से गन्ने का भाव बढ़ने की बड़ी उम्मीद थी, परन्तु ऐसा नहीं हुआ। जबकि पिछले दो सालों से अत्यधिक चीनी उत्पादन और विशाल चीनी-भंडार से परेशान चीनी उद्योग की स्थिति इस साल सुधर गई है। इस कारण सभी आर्थिक तर्क भी भाव बढ़ाने के पक्ष में थे। इस साल देश में चीनी उत्पादन कम होने और अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में अधिक मांग के कारण चीनी उद्योग को तो पूरी राहत मिलेगी, परन्तु गन्ने के रेट ना बढ़ने से गन्ना किसानों की स्थिति और बिगड़ेगी।

2018-19 में देश में चीनी का आरंभिक भंडार (ओपनिंग स्टॉक) 104 लाख टन, उत्पादन 332 लाख टन, घरेलू खपत 255 लाख टन और निर्यात 38 लाख टन रहा। इस प्रकार वर्तमान चीनी वर्ष में चीनी का प्रारंभिक भंडार 143 लाख टन है। अतः हमारी लगभग सात महीने की खपत के बराबर चीनी पहले ही गोदामों में रखी हुई है। कुछ महीने पहले तक यह बहुत ही चिंताजनक स्थिति थी जिसको देखते हुए सरकार ने चीनी मिलों को चीनी की जगह एथनॉल बनाने के लिए कई आर्थिक पैकेज भी दिए थे।

इस्मा (इंडियन शुगर मिल्स एसोसिएशन) के अनुसार देश में इस वर्ष चीनी का उत्पादन पिछले वर्ष के 332 लाख टन के मुकाबले घटकर लगभग 260 लाख टन होने का अनुमान है, जो केवल घरेलू बाज़ार की खपत के लिए ही पर्याप्त होगा। इस गन्ना पेराई सत्र की पहली तिमाही अक्टूबर से दिसंबर 2019 के बीच चीनी का उत्पादन पिछले साल की इस अवधि के मुकाबले 30 प्रतिशत घटकर 78 लाख टन रह गया है। पिछले साल इस अवधि में देश में चीनी का उत्पादन 112 लाख टन था।

2019-20 में विश्व में चीनी का उत्पादन 1756 लाख टन और मांग 1876 लाख टन रहने की संभावना है। यानी उत्पादन मांग से 120 लाख टन कम होने का अनुमान है। इस कारण अन्तर्राष्ट्रीय बाज़ार में चीनी की अच्छी मांग होगी, जिसकी आपूर्ति भारत कर सकता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चीनी उत्पादन में संभावित कमी से हमारे पहाड़ से चीनी भंडार अचानक अच्छी खबर में बदल गए हैं। उत्तर प्रदेश के चीनी उद्योग का इस स्थिति में सबसे ज्यादा लाभ होगा क्योंकि पिछले साल की तरह इस साल भी चीनी उत्पादन में प्रथम स्थान पर उत्तर प्रदेश ही रहेगा, जहां 120 लाख टन चीनी उत्पादन होने का अनुमान है।

पिछले साल उत्तर प्रदेश के किसानों ने 33,048 करोड़ रुपये मूल्य के गन्ने की आपूर्ति चीनी मिलों में की थी। परन्तु 31 दिसंबर 2019 तक इसमें से 2,163 करोड़ रुपये का गन्ना भुगतान बकाया है। चालू पेराई सत्र में तीन महीने बीतने के बाद भी 31 दिसंबर तक इस सीज़न का केवल 3,492 करोड़ रुपये का गन्ना भुगतान हुआ है, जबकि किसान लगभग 10,500 करोड़ रुपये मूल्य का गन्ना चीनी मिलों को दे चुके हैं। इसके अलावा विलम्बित भुगतान के लिए देय ब्याज़ का आंकड़ा भी 2,000 करोड़ रुपये से ज्यादा का है। इस तरह 31 दिसंबर तक उत्तर प्रदेश के गन्ना किसानों का चीनी मिलों के ऊपर 11,000 करोड़ रुपये से ज्यादा का गन्ना भुगतान बकाया है।

इस साल गन्ना मूल्य निर्धारण से पहले उत्तर प्रदेश सरकार ने सभी हितधारकों से विचार विमर्श किया था। इस बैठक में उत्तर प्रदेश चीनी मिल्स एसोसिएशन ने अपनी खराब आर्थिक स्थिति, चीनी के अत्यधिक उत्पादन और भंडार का डर दिखाकर इस साल भी गन्ने का रेट ना बढ़ाने की मांग रखी थी। किसानों का कहना है कि दो सालों से गन्ने के रेट नहीं बढ़ाये गए हैं जबकि लागत काफी बढ़ गई है। गन्ना शोध संस्थान, शाहजहांपुर के अनुसार गन्ने की औसत उत्पादन लागत लगभग 300 रुपये प्रति क्विंटल आ रही है। सरकार के लागत के डेढ़ गुना मूल्य देने के वायदे को भूल भी जाएं तो भी बदली परिस्थिति में कम से कम 400 रुपये प्रति क्विंटल का भाव मिलना चाहिए था। यदि पिछले तीन सालों में 10 प्रतिशत की मामूली दर से भी वृद्धि की जाती तो भी इस वर्ष 400 रुपये प्रति क्विंटल का भाव अपने आप हो जाता।

वास्तविकता तो यह है कि चीनी मिलें चीनी के सह-उत्पादों जैसे शीरा, खोई (बगास), प्रैसमड़ आदि से भी अच्छी कमाई करती हैं। इसके अलावा सह-उत्पादों से एथनॉल, बायो-फर्टीलाइजर, प्लाईवुड, बिजली व अन्य उत्पाद बनाकर भी बेचती हैं। गन्ना (नियंत्रण) आदेश के अनुसार चीनी मिलों को 14 दिनों के अंदर गन्ना भुगतान कर देना चाहिए। भुगतान में विलम्ब होने पर 15 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से ब्याज भी देय होता है। परन्तु चीनी मिलें साल-साल भर गन्ना भुगतान नहीं करतीं और किसानों की इस पूंजी का बिना ब्याज दिये इस्तेमाल करती हैं। इस तरह चीनी मिलें अपने बैंकों के ब्याज के खर्चे की बचत भी करती हैं। पिछले दो सालों में सरकार ने चीनी मिलों को चीनी बफर स्टॉक, एथनॉल क्षमता बनाने और बढ़ाने, चीनी निर्यात के लिए कई आर्थिक पैकेज भी दिए हैं। इसके बावजूद भी मिलों ने गन्ने का समय पर भुगतान नहीं किया और न ही सरकार ने गन्ने का भाव बढ़ाया।

महंगाई के प्रभाव और बढ़ती लागत के कारण गन्ने का वास्तविक दाम घट गया है। बदली परिस्थितियों में कम चीनी उत्पादन और अच्छी अंतरराष्ट्रीय मांग को देखते हुए सरकार को लाभकारी गन्ना मूल्य दिलाना सुनिश्चित करना चाहिए था। परन्तु इस स्थिति का सारा लाभ अब चीनी मिलें ही उठाएंगी और किसानों के हाथ मायूसी के अलावा कुछ नहीं लगेगा। सरकार अब भी अलग से बोनस देकर गन्ना किसानों को बदहाली से बचा सकती है।

(लेखक किसान शक्ति संघ के अध्यक्ष हैं)