विमुक्त घुमंतू जनजातियों को ‘जातीय गिरोह’ लिखने के पीछे मीडिया की मानसिकता!

 

विमुक्त घुमंतू जनजाति से आने वाली बावरिया और सांसी जाति के साथ गिरोह लिखने की मानसिकता को समझने के लिए हमने कईं राष्ट्रीय समाचार पत्रों और टीवी चैनलों की कवरेज को देखा. बावरिया और सांसी जाति के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रसित अखबारों और टीवी चैनलों की खबरों की हेडलाइन्स में आए दिन इन जातियों के नाम पढ़ने को मिलते हैं. डिनोटिफाइड ट्राइब्स (डीएनटी) से आने वाली सांसी और बावरिया जाति की इस साल की मीडिया कवरेज कुछ इस तरह की रही.  

17 जुलाई, 2021 को दैनिक जागरण ने हेडलाइन दी, ‘सांसी गिरोह का सरगना रोहतक से काबू’. 18 जुलाई को राजस्थान पत्रिका की आशिता गुप्ता ने खबर की हेडलाइन लगाई, ‘रेल यात्री सावधान! कहीं आपके कोच में सांसी गिरोह तो नहीं, थोड़ी चूक हुई और सामान पार’. 29 जून 2021 को अमर उजाला के पत्रकार जितेंद्र जोशी खबर की हेडलाइन देते हुए लिखते हैं, ‘सांसी गिरोह के तीन सदस्य गिरफ्तार’.       

इसी तरह बावरिया जाति को लेकर भी मीडिया का नजरिया कुछ ऐसा ही रहा. ‘आज तक’ नाम के एक राष्ट्रीय हिंदी न्यूज चैनल ने आपराधिक गैंग से संबधित कार्यक्रम किया. कार्यक्रम में आपराधी गैंग की जाति का नाम लिखा गया. चैनल ने ‘बावरिया गैंग की अनकही कहानी’ नाम से कार्यक्रम चलाया. इसी तहर एक और राष्ट्रीय न्यूज चैनल ‘न्यूज 24’ ने ‘गैंग्स ऑफ बावरिया’ नाम से कार्यक्रम किया. 27 जून, 2021 को राष्ट्रीय समाचार पत्र अमर उजाला ने लिखा ‘बागपत पुलिस ने बावरिया गिरोह का बदमाश पकड़ा’. पत्रिका ने 18 जुलाई, 2021 को लिखा, ‘बावरिया गरोह की तीन चैन स्नेचिंग करने वाली महिलाएं गिरफ्तार’. आज तक द्वारा चलाए गए इस कार्यक्रम पर जब क्राइम रिपोर्टर शम्स ताहिर खान को फोन किया गया तो उन्होने कोई जबाव नहीं दिया.

आज तक और न्यूज 24 द्वारा किए गए कार्यक्रम

इस तरह सामाजिक भेदभाव के साथ-साथ सरकार और मीडिया ने भी हाशिए के समाज की अनदेखी की है. मीडिया द्वारा विमुक्त घुमंतू जनजाति के संबंध में जो भी कवरेज की है उसका अध्ययन करें तो पाएंगे कि मीडिया में काम करने वाले अधिकतर पत्रकारों के पास इन जनजातियों से जुड़ें विषयों की समझ का अभाव है. विमुक्त जनजातियों को कवर करते हुए मीडिया की ओर से जो संवेदनशीलता अपनाई जानी चाहिए वह दिखाई नहीं देती है. राष्ट्रीय समाचार पत्रों और टेलीविजन चैनलों में इन जनजातियों की मीडिया कवरेज देखकर लगता है जैसे इनके प्रति समाज के दूसरे लोगों में विद्वेष पैदा करने और इन जातियों का सामाजिक बहिष्कार करने के लिए खबर चलाईं जाती हैं.

ऐतिहासिक पहलू

विमुक्त घुमंतू जनजातियों के अपराधीकरण की शुरूआत 1871 से हुई. अंग्रेजों के खिलाफ 1857 के विद्रोह में गोरिल्ला युद्ध की कला के साथ घुमंतू जनजातियों ने भी बड़ी भूमिका निभाई. इन जनजातियों से परेशान होकर अंग्रेजी सरकार ने 1871 में इऩपर क्रीमिनल ट्राइब एक्ट लगा दिया. क्रीमिनल ट्राइब एक्ट लागू होने के बाद स्थानीय प्रशासन की ताकत बढ़ा दी गई और स्थानिय प्रशासन ने इन जनजातियों पर दबिश डालकर पेरशान करना शुरू कर दिया. अंग्रेजों के हथियारों की लूट-पाट करने के कारण अंग्रेजी सरकार ने इन जनजातियों को जन्मजात अपराधी घोषित कर दिया. तब से लेकर आज तक इन जनजातियों पर चोरी-डकैती करने का ठप्पा लगा हुआ है. यही वजह है कि आज भी इस समाज की पीढ़ियां आदतन अपराधी होने का दंश झेल रही हैं. 

31 अगस्त 1952 को इन जानजातियों को डिनोटीफाई तो कर दिया लेकिन साथ ही आदतन अपराधी एक्ट भी लगा दिया गया. जिसके चलते किसा आपराधिक घटना में शामिल न होते हुए भी इन लोगों को पुलिस के दमन का सामना करना पड़ा.

जिस तरह मीडिया इन जनजातियों का पक्ष जानने में कोई दिलचस्पी नहीं रखता है, ऐसे ही इन लोगों पर होने वाली ज्यादतियों के खिलाफ राजनीतिक और प्रशासनिक स्तर पर आवाज उठाने वाले लोग न के बराबर हैं. समाज में पहले से गढ़ी गई छवि के चलते पुलिस द्वारा इन लोगों को निशाना बनाना आसान होता है. इन लोगों के आस-पास हुई किसी भी आपराधिक घटना के आरोप में पुलिस सबसे पहले सांसी और बावरिया जाति के लोगों को निशाना बनाती है. यही वजह है कि ये दोनों जातियां पुलिस के सबसे सॉफ्ट टारगेट हैं. किसी आपराधिक घटना में शामिल असली अपराधियों को बचाने के लिए भी इन जनजातियों के लोगों को निशाना बनाया जाता है.  

हरियाणवी म्यूजिक इंडस्ट्री में काम करने वाले गायक और लेखक बिंटू पाबड़ा भी सांसी से समुदाय आते हैं. ‘हरयाणवी हैं दबया नहीं करदे’ से लेकर ‘सलाम’ और ‘तेरे शहर की गली’ जैसे हिट गाने देने वाले बिंटू पाबड़ा ने भी मीडिया की इस मानसिकता पर आपत्ति जताई है. इस विषय पर गांव-सवेरा से बात करते हुए बिंटू पाबड़ा ने कहा,

“अपराधी किस्म के लोग हर जाति और समाज में होते हैं लेकिन कभी उन अपराधियों की जाति नहीं लिखी जाती है. वहीं जब बावरिया और सांसी जाति के लोगों पर किसी अपराध में लिप्त होने के आरोप लगते हैं तो अखबारों में जाति का नाम लिखकर पूरी जाति को निशाना बनाया जाता है. मेरा मानना है जो अपराधी हैं उनको सजा दी जानी चाहिए लेकिन उसके लिए पूरी जाति को निशाना बनाकर इस तरह खबर छापना बहुत गलत है. इसके चलते समाज हम जैसे लोगों को भी गलत नजरिए से देखते हैं.”

इसी समाज से आने वाले और सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी में काम करने वाले इंजीनियर ने बताया “यह सीधे तौर पर विमुक्त जनजातियों को निशाना बनाए जाने का मामला है. जब अखबार और टीवी जैसे माध्यम ऐसा करते हैं तो समाज के दूसरे लोग भी इन जनजातियों को उसी नजरिए से देखने लगते हैं जिसके चलते इन लोगों को समाज में शर्मिंदा होना पड़ता है. मीडिया द्वारा गढ़ी गई इस छवि के कारण हमारे लोगों को बाहर संस्थानों में नौकरी करने तक में दिक्कत आती है.  

डीएनटी समाज से आने वाले फिल्म डायरेक्टर दक्षिण छारा ने भी मीडिया के इस रवैये पर आपत्ति जताई है. उन्होंने कहा,

“गुजरात में भी छारा जाति को लेकर मीडिया ने इसी तरह की छवि बनाने की कोशिश की है, जिसको लेकर हमने कईं बार समाचार पत्रों के संपादकों से मिलकर इस विषय पर आपत्ति दर्ज करवाई लेकिन मीडिया के नजरिए में कोई ज्यादा बदलाव नहीं दिखा.” उन्होंने कहा जब कोई शाह या बनिया समाज से कोई व्यक्ति किसी अपराध में पकड़ा जाता है तो कोई अखबार उनकी जाति का नाम नहीं लिखताहै. लेकिन जब छारा,सांसी या बावरिया जाति से जुड़ा व्यक्ति किसी केस में आरोपी बनता है तो ये लोग उस अपराधी विशेष का नाम न लिखकर पूरी जाति का नाम छापते हैं. दक्षिण छारा ने कहा सरकार द्वारा डीएनटी जनजातियों को भी एससी\एसटी एक्ट की तरह कानूनी संरक्षण दिया जाना चाहिए.”

महर्षि दयानंद यूनिवर्सिटी, रोहतक में समाजशास्त्र विभाग के प्रोफेसर देशराज से इस विषय पर बात कि तो उन्होंने ने कहा, “विमुक्त-घूमंतु जनजातियों से आने वाली सांसी और बावरिया दो ऐसी जातियां हैं जिनपर अंग्रेजी हुकूमत के दौर से ही अपराधी होने का ठप्पा लगाया गया है, हो सकता है कुछ सामाजिक और आर्थिक कारणों से इन जातियों के कुछ लोग इस तरह की आपराधिक गतिविधियों में शामिल रहे हो लेकिन इसके लिए पूरी जाति को निशाना बनाना गलत है. इस तरह की आपराधिक छवि गढ़े जाने से इस सामज की नई पीढ़ी के बच्चों पर गलत असर पड़ता है और वो खुलकर अपनी बात रखने और सामाज के अन्य क्षेत्रों में घुलने-मिलने से हिचकिचाते हैं. इस तरह कि स्थिति किसी भी समाज के विकास में अवरोधक बनती है, यही इन दो जातियों के साथ हुआ है. आज अगर हम इन जातियों के आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक पहलुओं को देखते हैं तो हम पाते हैं कि ये लोग समाज और विकास की मुख्यधारा से अभी भी कोसों दूर हैं. इसकी असल वजह है इन जातियों पर आपराधी होने का ठप्पा लगाना और मीडिया द्वारा इसको प्रचारित करना बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है. भारतीय मीडिया को अपनी खबर की हेडलाइन में इस तरह से किसी जाति विशेष का नाम लिखने से बचना चाहिए.     

वहीं युवा सामाजिक कार्यकर्ता अंकुश सांसी ने कहा, “हम लोग किसी भी अपराधी के साथ जाति का नाम लिखे जाने के खिलाफ काफी समय से आवाज उठा रहे हैं. अपराधी, अपराधी होता है उसको उसकी जाति के आधार पर नहीं देखा जाना चाहिए. इस मामले पर हम राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के नाम उपायुक्त को ज्ञापन देंगे और इस तरह की खबरों में जाति का नाम लिखने वाले समाचार पत्रों और टीवी चैनलों के खिलाफ भी कानूनी कार्रवाई करने बाबत विचार कर रहें हैं.”

इस मामले पर विमुक्त-घुमंतु विकास बोर्ड के चैयरमेन डॉ बलवान ने कहा कि इस मसले पर हम डीएनटी विकास एवं कल्याण बोर्ड के चैयरमेन भीखूराम इदाते से मिले हैं. हमने उनके सामने अपनी मांग रखी है कि इन जातियों के साथ गिरोह लिखने वालों के खिलाफ एसएसटी एक्ट के तहत कार्रवाई होनी चाहिए और साथ ही पुलिस द्वारा इन लोगों को झूठे मुकदमों में फसाने पर पुलिस पर भी कार्रवाई होनी चाहिए.