पंजाब: आंगनवाड़ी केंद्रों की खाद्य सुरक्षा में धांधली, गर्भवती महिलाओं के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़!

पंजाब के 5 जिले फिरोजपुर, गुरदासपुर, फतेहगढ़ साहिब, रोपड़ और एसबीएस नगर में सप्लीमेंट्री न्यूट्रिशन प्रोग्राम के फंड में करोड़ों रुपए की धांधली सामने आई है. सामाजिक सुरक्षा और महिला एवं बाल विकास अधिकारियों द्वारा फंड को कथित तौर पर डाइवर्ट करने का मामला प्रकाश में आया है. जिसके चलते बच्चों में महिलाओं को हल्की गुणवत्ता वाले खाद्य कंटेनर से आहार दिया जा रहा था. मामले की जांच वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा जारी है.

सामाजिक सुरक्षा और महिला एवं बाल विकास विभाग के निर्देशक अरविंद पाल संधू ने कहा कि विभागीय मामले की जांच वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा की जा रही है. जल्द ही मामले में आरोपियों पर कड़ी से कड़ी कार्रवाई की जाएगी. वहीं विभाग के प्रमुख सचिव कृपा शंकर सरोज ने कहा कि वह स्वयं इस मामले को देखेंगे. कंटेनर हल्की गुणवत्ता के थे और अधिक दरों पर खरीदे गए थे. 5 जिलो ने प्रति कंटेनर 100 किलोग्राम क्षमता वाले 30,085 कंटेनरों की खरीद पर 807.22 लाख रुपए खर्च किए. हालांकि विभिन्न जिलों में कंटेनरों की दरें अलग अलग थी.

जानें क्या है मामला

सप्लीमेंट्री न्यूट्रिशन प्रोग्राम भारत सरकार द्वारा बच्चों व महिलाओं की स्थिति में सुधार लाने का एक जरिया है. जिसमें 2009 में महत्वपूर्ण परिवर्तन भी किए गए थे. एसएनपी का उद्देश्य 6 वर्ष से कम उम्र के बच्चों और गर्भवती और स्तनपान कराने वाली माताओं को उनके स्वास्थ्य और पोषण की स्थिति में सुधार के लिए आहार उपलब्ध करवाना है. लेकिन पंजाब के 5 जिलों में साल 2014 से 2017 तक एक विशेष ऑडिट में सीएजी ने खुलासा किया है कि करोड़ों रुपए की धनराशि से हल्की गुणवत्ता वाले खाद्य कंटेनर महंगी दरों पर खरीदने के लिए फंड के साथ छेड़छाड़ की गई है. 5 जिलों में दिशा-निर्देशों के विपरीत एसएनपी निधि से कंटेनर खरीदे गए. वहीं 9 जिलों में कंटेनर खरीदे गए लेकिन केवल 5 जिलों का ही ऑडिट किया गया. क्योंकि इन 5 जिलों में किया गया खर्च सबसे ज्यादा था. वही ऑडिट में यह भी सामने आया कि 1 क्विंटल खाद्यान्न की भंडारण क्षमता के अपेक्षा कंटेनर कम भंडारण क्षमता के थे. इस मामले के सामने आने से गरीब बच्चों व गर्भवती महिलाओं के पोषक आहार और खाद्य सुरक्षा पर बड़ा खतरा मंडरा रहा है.

उत्तराखंड आपदा: लोगों के प्राणों से ज्यादा पावर प्रोजेक्ट की चिंता?

उत्तराखंड में जोशीमठ क्षेत्र में 7 फरवरी को आई आपदा को हफ्ता भर पूरा हो चुका है। इन सात दिनों में देश और उत्तराखंड की भाजपा सरकार की तेजी, मुस्तैदी का काफी महिमागान हुआ। उस महिमागान को देखें तो लगता है कि यही वो डबल इंजन है, जिसका वायदा मोदी जी करते रहे हैं। लेकिन जमीनी हकीकत देखें तो मालूम पड़ता है कि सात दिनों में एक सुरंग के भीतर फंसे 35 लोगों तक पहुंचना अभी भी दूर की कौड़ी मालूम पड़ रहा है। उस सुरंग के साथ की बैराज साइट पर लोगों की तलाश का काम भी अभी नहीं हो सका है।

दो दिन पहले उत्तराखंड की राज्यपाल श्रीमति बेबी रानी मौर्य जायज़ा लेने तपोवन में उस सुरंग के पास पहुंची, जहां 35 लोग फंसे हैं। उनसे जब एक लापता व्यक्ति के परिजन ने कहा कि सुरंग से मलबा बाहर फेंकने के लिए दस जेसीबी लगवाई जाएं तो राज्यपाल महोदया ने कहा कि दस जेसीबी कहाँ से आएंगी? राज्यपाल ने यहां तक कह दिया कि मशीनें मुंबई और हिमाचल प्रदेश से आ रही हैं। राज्यपाल महोदया प्रदेश की संवैधानिक मुखिया हैं। बद्रीनाथ भी घूमने गयी होंगी। लेकिन न वे जान सकीं, न ही कोई लायक सरकारी अफसर उनके इर्दगिर्द था जो उन्हें बता पाता कि जोशीमठ के इलाके में तो कदम तो कदम पर जलविद्युत परियोजनाएं हैं, जहां जेसीबी और लोडर जैसी मशीनें फावड़े, गैंती, बेलचे से अधिक संख्या में हैं!

इस तरह देखें तो दिल्ली और देहरादून की डबल इंजन सरकार का मैनेज्ड मीडिया महिमागान अपनी जगह है और जमीन पर डबल इंजन की कच्छप गति अपनी जगह। यह अलग बात है कि महिमागान प्राण नहीं बचा सकता और हर बीतते हुए पल के साथ डबल इंजन की यह कच्छप गति सुरंग में कैद लोगों के जीवित होने की संभावना को निरंतर क्षीण कर रही है।

सात दिनों में प्राथमिकताएं भी स्पष्ट हुई। स्थानीय लोग और देश के विभिन्न हिस्सों से जोशीमठ पहुंचे लोग चाहते हैं कि किसी तरह भी उनके परिजनों की तलाश की जाये। लेकिन हुक्मरान चाहते हैं कि बाकी जो भी हो जलविद्युत परियोजनाओं और उनकी खामियों पर कोई बात न हो। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने घटना के अगले ही दिन यानि 8 फरवरी को ट्वीट किया कि इस “हादसे को विकास के खिलाफ प्रोपेगैंडा का कारण न बनाएं।” केन्द्रीय ऊर्जा मंत्री आरके सिंह ने तपोवन-विष्णुगाड़ परियोजना को जल्द से जल्द शुरू करने का इरादा जताया है।

इन दोनों बयानों को जोड़ कर देखें तो स्पष्ट है कि जिस त्रासदी में 200 लोग एक हफ्ते बाद भी नहीं खोजे जा सके, उससे सरकारी तंत्र कोई सबक लेने को तैयार नहीं है। यह समीक्षा करने को भी सरकारें तैयार नहीं हैं कि 2013 की भीषण आपदा के बावजूद इस तरह की हादसे से निपटने की कोई पूर्व तैयारी क्यूं नहीं थी?

रैणी गांव देश और दुनिया में चिपको आंदोलन और उसकी नेता गौरादेवी के गांव के रूप में जाना जाता है। यहीं पर 13 मेगावाट की परियोजना ऋषिगंगा नदी पर स्थित थी, जो पूरी तरह बह गयी है। यह नंदा देवी बायोस्फेयर रिजर्व का इलाका है, जो यूनेस्को द्वारा भी संरक्षित क्षेत्र की सूची में रखा गया है। बायोस्फेयर रिजर्व के प्रतिबंधों के चलते इस क्षेत्र में स्थानीय लोगों को एक लकड़ी का टुकड़ा या फिर घास तक उठाने की अनुमति नहीं है। लेकिन ऐसी पाबंदियों वाले क्षेत्र में परियोजना निर्माण के लिए स्थानीय निवासियों के विरोध के बावजूद बड़े पैमाने पर पेड़ों का कटान और डाइनामाइट के विस्फोट किए गए।

दूसरी परियोजना जो इस जल प्रलय की चपेट में आई है वो है – एनटीपीसी की निर्माणाधीन 530 मेगावाट की तपोवन-विष्णुगाड़ परियोजना। 2003-04 में इस परियोजना की शुरुआत से इस परियोजना के खिलाफ लोग मुखर रहे। विरोध प्रदर्शन इतना तीव्र था कि दो-तीन बार परियोजना निर्माण के उद्घाटन कार्यक्रम को रद्द करना पड़ा। अंततः तत्कालीन मुख्यमंत्री एनडी तिवारी ने जोशीमठ से 300 किलोमीटर दूर देहारादून में तत्कालीन केन्द्रीय ऊर्जा मंत्री पीएम सईद के हाथों इस परियोजना का उद्घाटन करवाया। उस समय से इस परियोजना के खिलाफ निरंतर संघर्ष की अगुवाई करने वाले भाकपा (माले) के राज्य कमेटी सदस्य अतुल सती के अनुसार इस परियोजना के निर्माण में जोशीमठ की भौगलिक स्थितियों पर हुए वैज्ञानिक अध्ययनों की घनघोर उपेक्षा की गयी और भूगर्भीय जटिलताओं को भी अनदेखा किया गया।

इस परियोजना में तपोवन में बैराज स्थल से 12 किलोमीटर लंबी सुरंग जोशीमठ शहर के नीचे से पावर हाउस स्थल अणिमठ तक नदी का पानी ले जाने के लिए खोदी जानी थी। 2011 में पावर हाउस वाली तरफ से टनल बोरिंग मशीन (टीबीएम) द्वारा सुरंग खोदने का काम शुरु किया गया और कुछ ही दूर जाकर मशीन द्वारा खोदने से एक बड़ा पानी का झरना फूट पड़ा और मशीन वहीं अटक गयी। उस स्थल से आज भी वो पानी का झरना बह रहा है। शुरू में बताया गया कि वहां से 600 लीटर प्रति सेकेंड पानी बह रहा है, बाद में बताया गया कि उसकी रफ्तार कम हो कर 200 लीटर प्रति सेकेंड हो गयी है। एक भूगर्भीय जल स्रोत को अवैज्ञानिक तरीके से छेड़ कर उससे हर सेकेंड सैकड़ों लीटर पानी बहने के लिए छोड़ दिया गया और बीते एक दशक से किसी को उसकी चिंता तक नहीं है। अब बैराज वाली तरफ से सुरंग खोदी जा रही थी,जो 7 फरवरी को मलबे से पट गयी है।

निरंतर प्राकृतिक आपदाओं की मार झेलते हुए भी न तो प्रकृति का लिहाज किया जा रहा है न इन आपदाओं का शिकार होने वालों के जीवन का कोई मोल समझा जा रहा है। मुख्यमंत्री जब “हादसे को विकास के खिलाफ प्रोपेगैंडा न” बनाने की अपील का ट्वीट करते हैं और सुरंग में फंसे मजदूरों को निकालने के बजाय केंद्रीय ऊर्जा मंत्री परियोजना शुरू करने पर जोर देते हैं तो इसका स्पष्ट अर्थ है कि प्राकृतिक तबाही और मनुष्यों के प्राण उनके लिए महत्वपूर्ण नहीं हैं। परियोजना से होने वाला मुनाफा ही उनके लिए सबकुछ है।

(लेखक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माले) से जुड़े हैं और चमोली जिले के आपदा प्रभावित क्षेत्र में मौजूद हैं)

पर्यावरण विनाश और कृषि संकट, एक सिक्के के दो पहलू

भारत की 30 प्रतिशत से अधिक भूमि अवक्रमण से प्रभावित है। इसे अंग्रेजी में Land Degradation कहा जाता है। जमीन का कटाव, अम्लीकरण, बाढ़, मृदा अपरदन या मिट्टी में बढ़ता खारापन कुछ ऐसी प्रक्रियाएं हैं जिनके कारण मिट्टी अपनी उर्वरता खो देती है और जमीन मरुस्थलीकरण की ओर अग्रसर होने लगती है।

पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली मानवीय गतिविधियां इक्कीसवी सदी में अपने चरम पर हैं। आज मनुष्य प्रकृति का अधिक से अधिक दोहन करना चाहता है। इसके अलावा पृथ्वी पर आबादी का बोझ भी बढ़ता जा रहा है। वैसे, यह अपने आप में ही एक वाद-विवाद का विषय है कि गरीबी से आबादी बढ़ रही है या आबादी बढ़ने से गरीबी बढ़ी है ! फिर भी आज का सबसे बड़ा सत्य यही है कि हम बेलगाम आर्थिक वृद्धि के लिए निरंकुश तंत्रों का इस्तेमाल कर रहे हैं।

भूमि अवक्रमण
(https://india.mongabay.com/2018/10/why-land-degradation-in-india-has-increased-and-how-to-deal-with-it/)

अनुचित कृषि गतिविधियां, वनों की अंधाधुंध कटाई, औद्योगिक कचरे का अनुचित प्रबंधन, अत्याधिक चराई, वनों का लापरवाह प्रबंधन, सतह खनन और वाणिज्यिक/औद्योगिक विकास कुछ बुनियादी कारण हैं जिनकी वजह से पर्यावरण का प्राकृतिक संचालन अस्त-व्यस्त हो गया है। ऐसे में स्वाभाविक है कि मिट्टी, जल, वायु जैसे कुछ प्राकृतिक संसाधन अपनी उत्पादकता खोने लगे हैं। इसलिए खेती जैसा व्यवसाय जो इन्हीं संसाधनों पर टिका है, उस पर संकट आना स्वाभाविक है।

इसके अलावा 1960 के बाद आई हरित क्रान्ति के कारण कृषि क्षेत्र में ऐसी नई तकनीकें और बीज प्रौद्योगिकी आई जिनकी वजह से पानी की खपत बहुत बढ़ गई है। भारत में कुल पानी के उपयोग में से 70 प्रतिशत केवल कृषि सिंचाई में लग जाता है। तो जिस प्रकार मशीन के सतत प्रयोग से साल दर वह पुरानी पड़ती है, वैसे ही इन प्राकृतिक संसाधनों का साल दर साल ह्रास हो रहा है। ऐसा इसलिए है क्योंकि हम इन्हें इनकी धारण क्षमता से अधिक प्रयोग में ला रहे हैं।

आज  कृषि विविधता भी कम होती जा रही है। पहले लोग हर तरह की साग-सब्जियां, तमाम तरह के अनाज और दालें उगाते थे जिसकी वजह से कृषि में विवधता बनी रहती थी और प्राकृतिक संतुलन भी सुरक्षित रहता था। वहीं आज की पीढ़ी के भोजन में विवधता कम हो गई है। पैकेजिंग और प्रोसेसिंग पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है जिस वजह से हम केवल कुछ ही फसलों पर जोर देते हैं। इससे कूड़ा-कचरा तो बढ़ता ही है, लोगों के स्वास्थ्य पर भी बुरा असर पड़ता है। साथ ही साथ कृषि विविधता कम होने से मिट्टी, पानी, हवा की सेहत खराब होती है जिस वजह से किसान को आर्थिक घाटा उठाना पड़ता है।

खेतों में जलभराव
(https://www.indiawaterportal.org/articles/water-woes-different-kind)

ऐसे में यह समझना आवश्यक हो जाता कि क्या सरकार की तरफ से दी गई सब्सिडी और आर्थिक मदद या फिर बाजार उदारीकरण पर्याप्त कदम हैं ? ये तो केवल आपूर्ति पक्ष को मजबूत करने के लिए कुछ कदम हैं जिनका फायदा और नुकसान अभी भी हम नहीं जानते हैं। असल में दीर्घकालिक परिप्रेक्ष्य से देखा जाए तो खपत पक्ष की तरफ आए हुए बदलाव भी खेती के व्यवसाय के लिए उतने ही घातक हैं जितनी सरकारी नाकामयाबी। इन्हीं परिस्थितियों के चलते कृषि संकट विकराल रूप घारण कर रहा है।

अक्सर देखा जाता है कि हम कृषि क्षेत्र में आए संकट को किसानों की अज्ञानता, निरक्षरता से जोड़ने लगते हैं। हमें लगता है कि किसान प्रौद्योगिकी नहीं समझता। हमें दरअसल खुद से सवाल करना चाहिए कि क्या हम भी विज्ञान और प्रौद्योगिकी के सही अर्थ को समझ पाएं हैं! क्यों हम विज्ञान और तकनीक का इस्तेमाल प्रकृति से संरक्षण, संवर्धन से ज्यादा अंधाधुंध दोहन में कर रहे हैं?

(लेखिका अर्थशास्त्र और पर्यावरण विषयों की शोधार्थी हैं)

बर्फीले आर्कटिक में हीटवेव, साइबेरिया में गर्मी ने तोड़े रिकॉर्ड

उत्तरी ध्रुव के नजदीक अधिकतर बर्फ से ढका आर्कटिक वृत्त इस साल गर्मी से झुलस रहा है। रूस की एक मौसम एजेंसी के अनुसार, पृथ्वी के सबसे ठंडे स्थानों में शुमार साइबेरिया के वर्खोयांस्क का तापमान 38 डिग्री सेल्सियस के रिकॉर्ड स्तर तक पहुंच गया है जो सामान्य से 17 डिग्री अधिक है। यहां न्यूनतम तापमान माइनस 68 डिग्री तक गिर जाता है। अब से पहले यहां उच्चतम तापमान 37.2 डिग्री सेल्सियस था। ऐसे समय जब पूरी दुनिया कोरोना संकट से जूझ रही है, आर्कटिक वृत्त में बढ़ती गर्मी जलवायु परिवर्तन के खतरे की आहट दे रही है।

इस साल आर्कटिक के साइबेरिया में गर्म हवाएं यानी हीटवेव चलने से जंगलों में काफी आग लगी है। साइबेरिया में गर्मी बढ़ने के पीछे जंगलों की इस आग को भी वजह माना जा रहा है।

साइबेरिया के अलावा आर्कटिक वृत्त में शामिल उत्तरी कनाडा, ग्रीनलैंड और स्कैंडिनेविया प्रायद्वीप में भी अत्यधिक गर्मी पड़ रही है और तापमान सामान्य से 20-30 डिग्री अधिक हैं। उत्तरी ध्रुव के नजदीक इन बेहद ठंडे इलाकों में बढ़ती गर्मी बेहद चिंताजनक है। इसे जलवायु परिवर्तन से जोड़कर देखा जा रहा है। आमतौर पर गर्म एशियाई क्षेत्र भी इस साल तापमान सामान्य से 5 डिग्री ज्यादा अधिक है। माना जा रहा है कि साल 2020 अब तक का सबसे गर्म साल रहेगा।

जलवायु के लिहाज बेहद महत्वपूर्ण आर्कटिक वृत्त को पृथ्वी का बैरोमीटर माना जाता है। दुनिया भर के मौसम वैज्ञानिक, पर्यावरण विशेषज्ञ और संस्थाएं जलवायु परिवर्तन की इन घटनाओं को लेकर काफी चिंतित हैं। इस साल मई का महीना पिछले 170 वर्षों में सबसे गर्म रहा है। यह भी जलवायु परिवर्तन का बड़ा प्रमाण है।

कैनेडियन मीडिया हाउस सीबीएस की खबर के मुताबिक, गत जनवरी से ही साइबेरिया के कई इलाकों में तापमान सामान्य से अधिक है। साइबेरिया में जितना तापमान सदी के आखिर यानी सन 2100 तक बढ़ने का अनुमान था, उतनी वृद्धि साल 2020 में ही हो चुकी है। हालांकि, कई लोग इस दावे पर सवाल भी उठा रहे हैं लेकिन जलवायु के बदले मिजाज और एक्सट्रीम वेदर इवेंट्स पर शायद ही किसी को संदेह हो।

आर्कटिक वृत्त में तापमान बढ़ने के पीछे मानव जनित जलवायु परिवर्तन को वजह माना जा रहा है। ग्रीन हाउस गैसों के अत्यधिक उत्सर्जन के कारण आर्कटिक वृत्त का तापमान संपूर्ण पृथ्वी के मुकाबले दोगुनी तेजी से बढ़ रहा है। इससे समुद्रों और बाकी इलाकों में जमी बर्फ पिघल रही है। एक अनुमान के मुताबिक, पिछले 40 साल में आर्कटिक वृत्त की 50 फीसदी बर्फ पिघल चुकी है। जिसके चलते समुद्री और थल क्षेत्र बढ़ा है। बर्फ का क्षेत्र घटने से सूर्य की किरणों के परावर्तन में कमी आई है और ज्यादा अवशोषण हो रहा है, जिससे ग्लाेबल वार्मिंग बढ़ रही है। इससे निपटने के लिए जीवाश्म ईंधन की खपत और ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी पर जोर दिया जा रहा है।

गायब मुद्दे: चुनावों में पर्यावरण चुनौतियों पर चुप्पी

2019 लोकसभा चुनाव के लिए प्रचार अभियान जोरों पर है। सात चरणों में होने वाले लोकसभा चुनावों में से चार चरण के चुनाव हो गए हैं। तीन चरणों का चुनाव बाकी है। लेकिन पर्यावरण की समस्याएं कहीं भी चुनावी मुद्दा बनते नहीं दिख रही हैं। चुप्पी

जबकि सच्चाई यह है कि जलवायु परिवर्तन से लेकर वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, घटता जलस्तर, मिट्टी की खराब होती स्थिति से लेकर कई स्तर पर भारत को पर्यावरण की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। ऐसे समय में जब भारत में लोकसभा चुनाव हो रहे हैं तो पर्यावरण से संबंधित ये समस्याओं न तो राजनीतिक दलों के लिए मुद्दा बन पा रही हैं और न ही आम लोगों के लिए।

लोकतंत्र के बारे में कहा जाता है कि इसमें जनता से जुड़े मसलों पर बातचीत होती है। लेकिन पर्यावरण के संकट से आम लोगों के हर दिन प्रभावित होने के बावजूद ये संकट चुनावी मुद्दा नहीं बन पा रहा है। कहीं भी वोट देने के निर्णयों को प्रभावित करने वाली वजहों में पर्यावरण संकट एक वजह नहीं है।

जबकि हकीकत यह है कि भारत के शहरों में वायु प्रदूषण कभी इतना नहीं रहा जितना आज है। दिल्ली जैसे शहरों में साफ हवा में सांस लेना एक तरह से बीते जमाने की बात हो गई है। खराब हवा की वजह से भारत मंे लोग कई तरह की बीमारियों के शिकार हो रहे हैं। एक अध्ययन में यह बात सामने आई है कि 2017 में भारत में जितने बच्चों की जान गई, उनमें से हर आठ में से एक की मौत वायु प्रदूषण की वजह से हुई। इसी तरह से दूषित जल की वजह से भी बच्चों और बड़ों को कई तरह की बीमारियों का सामना करना पड़ रहा है।

देश की नदियों का हाल बुरा है। 2014 में भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी ने गंगा की साफ-सफाई को बड़ा चुनावी मुद्दा बनाया था। लेकिन पांच साल में गंगा की स्थिति में कोई खास सुधार नहीं आया है। इस वजह से न तो सत्ता पक्ष इस बार नदियों की साफ-सफाई को चुनावी मुद्दा बना रहा है और न ही इसमें विपक्षी खेमे की कोई दिलचस्पी दिख रही है। भाजपा ने अपने घोषणापत्र में यह जरूर कहा है कि अब वह 2022 तक गंगा को साफ-सुथरा बनाने का लक्ष्य हासिल करेगी।

भूजल का गिरता स्तर और भूजल प्रदूषण देश की बहुत बड़ी समस्या बनती जा रही है। आधिकारिक आंकड़े बता रहे हैं कि देश के 640 जिलों में से 276 जिलों के भूजल में फ्लुराइड प्रदूषण है। जबकि 387 जिलों का भूजल नाइट्रेट की वजह से प्रदूषित हुआ है। वहीं 113 जिलों के भूजल में कई भारी धातु पाए गए हैं और 61 जिलों के भूजल में यूरेनियम प्रदूषण पाया गया है। इस वजह से इन जिलों में रहने वाले लोगों को कई तरह की बीमारियों का सामना करना पड़ रहा है।

जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण की वजह से देश में पलायन भी देखा जा रहा है। जहां सूखे की मार अधिक है और जहां प्रदूषण की वजह से जानलेवा बीमारियां हो रही हैं, वहां से लोग दूसरी जगहों का रुख कर रहे हैं। महाराष्ट्र और बुंदेलखंड से सूखाग्रस्त इलाकों से लोगों के पलायन की खबरें अक्सर आती रहती हैं।

जाहिर है कि इस स्तर पर अगर कोई समस्या लोगों को परेशान कर रही हो तो यह अपेक्षा स्वाभाविक है कि यह चुनावी मुद्दा बनेगा। लेकिन फिर भी ये समस्याएं लोकसभा चुनावों में गायब दिख रही हैं। न तो कोई पार्टी अपनी ओर से ये मुद्दे उठाती दिख रही हैं और न ही प्रभावित लोगों द्वारा इन पार्टियों और स्थानीय उम्मीदवारों पर इन मुद्दों पर प्रतिबद्धता दिखाने और इनके समाधान की राह बताने के लिए कोई दबाव बनाया जा रहा है। न ही सिविल सोसाइटी की ओर से पार्टियों पर पर्यावरण को मुद्दा बनाने के लिए प्रभावी दबाव बनाया गया।

पार्टियों के चुनावी घोषणापत्रों में भी पर्यावरण के मुद्दों पर खास गंभीरता नहीं दिखती है। जो बातें पहले भी इन घोषणापत्रों में कही गई हैं, उन्हीं बातों को कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी दोनों के घोषणापत्रों में दोहराया गया है। किसी निश्चित रोडमैप के साथ पर्यावरण की समस्या से निपटने ही राह भाजपा और कांग्रेस में से किसी भी पार्टी ने अपने घोषणापत्र में नहीं सुझाई है।

विलुप्त होने के कगार पर 10 लाख प्रजातियां

संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट 6 मई, 2019 को आने वाली है। 1,800 पन्नों की इस रिपोर्ट में पर्यावरण में हो रहे बदलावों, इसमें मनुष्य की भूमिका और इससे दूसरी प्रजातियों के लिए पैदा हो रहे खतरों के अलावा जलवायु परिवर्तन के विभिन्न आयामों पर विस्तृत चर्चा की गई है। इस पर चर्चा के लिए दुनिया के 130 देशों के वैज्ञानिक पेरिस में जमा हो रहे हैं।

अभी इस विस्तृत रिपोर्ट का ड्राफ्ट सार्वजनिक हुआ है। 44 पन्नों के इस ड्राफ्ट में बताया गया है कि इंसानी गतिविधियों की वजह से तकरीबन दस लाख प्रजातियों पर विलुप्त होने का खतरा पैदा हो गया है। इसमें यह भी कहा गया है कि इंसानों ने जिस तरह से सिर्फ अपने हितों का ध्यान रखते हुए संसाधनों का अंधाधुंध दोहन किया है, उसकी वजह से इस तरह के खतरे पैदा हो रहे हैं।

इस ड्राफ्ट रिपोर्ट में यह कहा गया है कि सिर्फ दस लाख प्रजातियों पर विलुप्त होने का ही खतरा नहीं मंडरा रहा बल्कि तकरीबन 25 फीसदी प्रजातियां दूसरे तरह के खतरों का सामना कर रही हैं। इसमें यह दावा किया गया है कि पिछले एक करोड़ साल में यह दौर ऐसा है जिसमें सबसे तेज गति से प्रजातियां विलुप्त हो रही हैं।

इसकी वजह मुख्य तौर पर मनुष्य की गतिविधियां हैं। मनुष्य की बसावट, कृषि और अन्य जरूरतों की वजह से जंगलों की अंधाधुंध ढंग से नष्ट किया जा रहा है। इससे जानवरों के रहने की जगहें सीमित हो रही हैं। वहीं दूसरी तरफ पेड़-पौधों की प्रजातियां भी विलुप्त होते जा रही हैं। रिपोर्ट में प्रदूषण और जानवरों के अवैध व्यापार को भी मुख्य वजहों के तौर पर रेखांकित किया गया है।

इंसान ने खुद की गतिविधियों से दूसरी प्रजातियों के लिए जो संकट पैदा किए हैं, उसकी आंच खुद उस तक आनी है। इसकी पुष्टि संयुक्त राष्ट्र की यह ड्राफ्ट रिपोर्ट भी कर रही है। इसमें यह बताया गया है कि इससे खास तौर पर वैसे लोग प्रभावित होंगे जो गरीब हैं और हाशिये पर रहते हुए अपना जीवन जी रहे हैं। क्योंकि उनके पास इन बदलावों के हिसाब से जरूरी बंदोबस्त करने के लिए संसाधन नहीं होंगे।

इसके प्रभावों के बारे में यह भी कहा जा रहा है दीर्घकालिक तौर पर इससे पीने के पानी का संकट पैदा होगा। सांस लेने के लिए स्वच्छ हवा का संकट होगा। कृषि उत्पादन नीचे जाएगा। इससे खाद्यान्न की कीमतों में तेज बढ़ोतरी हो सकती है और दुनिया के कई हिस्सों को खाद्य संकट का सामना करना पड़ सकता है।

इस ड्राफ्ट रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि इससे समुद्र के पानी में प्रदूषण बढ़ेगा और जो मछलियां निकाली जाएंगी, उनमें प्रोटीन की मात्रा कम होगी। साथ ही उनमें दूसरे तरह के जहरीले रसायन बढ़ेंगे। इसका मतलब यह हुआ कि जो लोग इन मछलियों को खाएंगे, उन्हें स्वास्थ्य संबंधित परेशानियों का सामना करना पड़ेगा।

इसमें यह भी कहा गया है कि कई वैसे कीटों पर भी विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है जो परागन का काम करते हैं। अगर ऐसा होता है तो कई पौधों और फूलों का अस्तित्व बचना मुश्किल हो जाएगा।

अब सवाल यह उठता है कि इस स्थिति के समाधान के लिए क्या किया जाए? सबसे पहले तो हमें यह समझना होगा कि इंसानी गतिविधियां इस संकट के लिए जिम्मेदार हैं, इसलिए सुधार की शुरुआत भी मनुष्य की गतिविधियों से ही होनी चाहिए। हमें यह समझना होगा कि प्रकृति की विभिन्न प्रजातियों में से मनुष्य भी एक प्रजाति है और प्राकृतिक संसाधनों पर सिर्फ हमारा ही हक नहीं है।

हमें यह भी समझना होगा कि अगर संसाधनों का सही और पर्याप्त इस्तेमाल करें तो इससे प्रकृति का पूरा चक्र बना रहेगा। जब प्रकृति का चक्र सही ढंग से चलता रहेगा तभी मनुष्य भी सामाजिक और आर्थिक रूप से आगे बढ़ता रहेगा। लेकिन अगर मनुष्य की गतिविधियों की वजह से प्राकृतिक चक्र गड़बड़ होता है तो इससे पूरी व्यवस्था गड़बड़ हो जाएगी।

जरूरत इस बात की है कि इंसानी गतिविधियों की वजह से लाखों प्रजातियों पर विलुप्त होने के खतरे को वैश्विक स्तर पर समझा जाए और इसके समाधान के लिए दुनिया के अलग-अलग देश एकजुट होकर काम करें। पर्यावरण समझौतों को लेकर विकसित देशों और विकासशील देशों में विचारों की जो दूरी है, उसे पाटने की जरूरत है।

क्या सतत विकास लक्ष्यों को भारत हासिल कर पाएगा?

संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि अगर भारत को 2030 तक सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करना है तो उसे जीडीपी का दस फीसदी खर्च करना पड़ेगा
2015 में पूरी दुनिया ने मिलकर 17 सतत विकास लक्ष्य तय किए थे। इन्हें 2030 तक हासिल किया जाना है। इसके तहत गरीब और भूखमरी मिटाने से लेकर बेहतर स्वास्थ्य, बेहतर पर्यावरण, बेहतर रोजगार, दुनिया में अमन सुनिश्चित करने जैसे लक्ष्य रखे गए हैं।
इन लक्ष्यों को पूरा करने के लिए दुनिया के देशों के बीच आपसी सहयोग का लक्ष्य भी रखा गया था। जिन देशों ने सतत विकास लक्ष्यों ;एसडीजीद्ध को हासिल करने का लक्ष्य रखा है, वे सभी देश संयुक्त राष्ट्र को हर साल एक रिपोर्ट सौंपते हैं। इसमें यह बताया जाता है कि इन लक्ष्यों को हासिल करने के मोर्चे पर कितनी प्रगति हुई है।
भारत ने एसडीजी से संबंधित जो रिपोर्ट दी है, उससे अब तक की भारत की प्रगति बेहद उत्साहजनक नहीं है। कई मोर्चे ऐसे हैं जिन पर भारत को और ठोस ढंग से काम करने की जरूरत है।
वार्षिक रिपोर्ट को पिछले दिनों में संयुक्त राष्ट्र की सहयोगी संस्था यूनाइटेड नेशंस इकाॅनोमिक ऐंड सोशल कमिशन फोर एशिया ऐंड दि पैसिफिक ने जारी किया। इस रिपोर्ट में यह कहा गया है कि अगर भारत को 2030 तक गरीबी मिटानी है तो प्रति व्यक्ति हर दिन 140 रुपये खर्च करने होंगे। यह एशिया-प्रशांत क्षेत्र के कुल खर्चे के मुकाबले दोगुना है।
इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि अगर भारत 2030 तक सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करने को लेकर गंभीर है तो उसे अपनी जीडीपी का 10 फीसदी खर्च करना होगा। अब सवाल यह उठता है कि क्या भारत के पास इतने पैसे एसडीजी को हासिल करने के लिए खर्च करने को हैं?
संयुक्त राष्ट्र की इस रिपोर्ट में इस संदर्भ में भारत का जिक्र करते हुए कहा गया है कि भारत के बैंकों की बढ़ती गैर निष्पादित संपत्तियां यानी एनपीए एक बहुत बड़ी चिंता है। क्योंकि इस वजह से देश की आर्थिक स्थिति खराब होगी और इतने पैसे नहीं रहेंगे कि भारत सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करने के पर्याप्त पैसे खर्च कर पाए।
इस रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में जितनी गरीबी है, उसे देखते हुए भारत को अपनी जीडीपी का तकरीबन 10 फीसदी सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करने पर खर्च करना होगा। जबकि एशिया-प्रशांत क्षेत्र को संयुक्त तौर पर इन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए जीडीपी का पांच फीसदी खर्च करना होगा।
भारत में गरीबी को लेकर अलग-अलग आंकड़े हैं। सी. रंगराजन समिति के आंकड़ों का इस्तेमाल सरकार के स्तर पर हो रहा है। इस समिति के मुताबिक देश में गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करने वाले लोगों की संख्या 36.3 करोड़ है। जाहिर है कि अगर इतनी बड़ी आबादी की गरीबी दूर करनी है तो इसके लिए युद्धस्तर पर काम करना होगा और काफी पैसे खर्च करने होंगे।
सच्चाई तो यह है कि भारत में चुनावी वादे करते वक्त हर पार्टी कहती है कि वह गरीबी के खिलाफ जंग छेड़ेगी और गरीबी से भारत को मुक्त करेगी। देश ने हर दल का शासन देख लिया है। लेकिन गरीबी से मुक्ति मिलती नहीं दिख रही है।
इस रिपोर्ट में भारत जैसे देशों को आगाह करते यह भी लिखा गया है कि आर्थिक विकास पर बहुत अधिक जोर देने से सतत विकास नहीं होगा और इससे भविष्य का विकास नकारात्मक ढंग से प्रभावित होगा। इससे समाज में गैरबराबरी बढ़ेगी और पर्यावरण को नुकसान होगा। इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि आर्थिक असमानता बढ़ने से आर्थिक विकास की अवधि कम होगी।
अब सवाल यह उठता है कि क्या भारत के नीति निर्धारक इन चेतावनियों को समझते हुए भारत को सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करने के मार्ग पर प्रभावी ढंग से आगे ले जाने के लिए जरूरी निर्णय लेंगे या फिर जिस तरह से इस मोर्चे पर 2015 से 2019 तक काम हुआ है, वही रवैया आगे भी बरकरार रहेगा।

पर्यावरण में कार्बन डाइऑक्साइड इतिहास के सबसे उच्चतम स्तर पर

पर्यावरण की बिगड़ती सेहत को लेकर पूरी दुनिया में चिंता जताई जा रही है। इस समस्या से निपटने के लिए बड़ी-बड़ी बातें भी की जा रही हैं। पर्यावरण संरक्षण के लिए कई अंतरराष्ट्रीय समझौते भी हुए हैं। सबसे हालिया और महत्वकांक्षी समझौता पेरिस समझौता है। इसके तहत विभिन्न देशों ने अपने-अपने यहां कार्बन उत्सर्जन में कमी के साथ-साथ अन्य जरूरी उपाय अपनाकर पर्यावरण को बचाने की बात कही है।
लेकिन अमेरिका के इस समझौते के बाहर होने के बाद यह सवाल उठने लगा है कि क्या पेरिस समझौता पर्यावरण की सेहत सुधारने की दिशा में उपयोगी साबित हो पाएगा। अंतरराष्ट्रीय पर पर्यावरण संरक्षण को लेकर चिंता की एक वजह यह भी है कि विकसित देशों ने पर्यावरण की रक्षा के लिए विकासशील देशों को जो आर्थिक सहयोग देने की बात कही थी, वह वादा ठीक से पूरा होता नहीं दिख रहा है।
पर्यावरण संरक्षण के लिए काम करने वाले संगठनों को इस रवैये को देखते हुए ऐसा लगता है कि दुनिया के बड़े देश अब भी इस मसले पर उतने गंभीर नहीं हैं जितना होना चाहिए। इंसान और देश चाहे गंभीर हो या नहीं लेकिन यह स्पष्ट होता जा रहा है कि पर्यावरण की सेहत बेहद गंभीर हो गई है।
इसकी पुष्टि इस बात से होती है कि कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा पर्यावरण में बढ़कर इतनी अधिक हो गई है जितनी अधिक कभी नहीं थी। अमेरिका की एक संस्था स्क्रिप्स इंस्टीट्यूशन आॅफ ओसियानोग्राफी ने पिछले दिनों यह घोषणा की कि हवाई में कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर बढ़ते 411.66 पीपीएम हो गया।
इस संस्था ने बताया कि पिछले साल हरित गैसों का उत्सर्जन रिकाॅर्ड मात्रा में हुआ था। पिछले साल जितना उत्सर्जन हुआ था, उतना इतिहास में पहले किसी और साल में नहीं हुआ। इस वजह से लोगों को यह डर सता रहा था कि कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा अपने सर्वोच्च स्तर पर पहुंच सकती है। अब यह डर सही साबित हुआ।
जिस अमेरिकी संस्था ने यह पता लगाया है कि कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ाने में अहम योगदान जीवाश्म ईंधन का है। इस संस्था का यह भी कहना है कि पिछले साल हरित गैस के रिकाॅर्ड उत्सर्जन के बावजूद दुनिया ने सबक नहीं लिया। इस वजह से संस्था को अंदेशा है कि कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर बढ़ते हुए 415 के पार जा सकता है।
पहले वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड इतनी भारी मात्रा में नहीं थी। कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में उल्लेखनीय बढ़ोतरी आज के 10,000 साल पहले कृषि के विकास के साथ शुरू हुई। लेकिन उस वक्त भी इसकी वृद्धि की गति इतनी अधिक नहीं थी कि यह प्रकृति के लिए खतरा बन जाए।
कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा सबसे तेज गति से तब बढ़ी जब दुनिया में जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल तेजी से बढ़ा। सड़कों पर गाड़ियों की संख्या बढ़ने लगी और पूरी दुनिया तेजी से औद्योगिक विकास की ओर बढ़ी तो कार्बन डाइआॅक्साइड की मात्रा भी तेजी से बढ़ने लगी। एक बार जो तेजी कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में आई तो फिर यह घटने का नाम नहीं ले रही है।
हाल के सालों में में इससे काफी तेजी आई है। इस वजह से वैज्ञानिक कह रहे हैं कि पूरा ब्रह्मांड उस ओर बढ़ रहा है जहां से वापसी संभव नहीं है और अगर इस प्रक्रिया को नहीं रोका गया तो कार्बन डाइऑक्साइड की बढ़ती मात्रा मानवता के लिए खतरा बन जाएगी। जाहिर है कि अगर इस स्थिति को बदलना है और कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा एक ऐसे स्तर पर रखनी है कि प्रकृति का चक्र अपने हिसाब से चलता रहे तो पूरी दुनिया को एक स्वर में पूरी ताकत से पर्यावरण संरक्षण के लिए काम करना होगा।

क्या भारत में सौर ऊर्जा क्षमता विस्तार की गति धीमी हो रही है?

भारत ने 2022 तक 1,75,000 मेगावाॅट बिजली का उत्पादन नवीकरणीय स्रोतों से करने का लक्ष्य रखा है। इसमें सौर ऊर्जा की हिस्सेदारी 1,00,000 मेगावाॅट रखी गई है। इसका मतलब यह हुआ कि भारत ने अपने नवीकरणीय ऊर्जा लक्ष्यों को हासिल करने की योजना कें केंद्र में सौर ऊर्जा को रखा है।

यह बात सच है कि पिछले कुछ सालों में सौर ऊर्जा के उत्पादन में तेजी भी देखी गई। जहां कुछ साल पहले तक सौर ऊर्जा का उत्पादन काफी कम हो रहा था, वह बढ़ते हुए 2018 के दिसंबर में बढ़कर 25,000 मेगावाॅट के पार चला गया। ऐसे में कुछ लोगों को यह लग सकता है कि इस मामले में भारत प्रगति कर रहा है और 2022 तक सौर ऊर्जा से 1,00,000 मेगावाॅट बिजली उत्पादन का लक्ष्य हासिल कर सकता है।

लेकिन सौर ऊर्जा के मामले में क्षमता विस्तार की गति को देखते हुए 2022 के लक्ष्यों को भारत द्वारा हासिल किए जाने को लेकर वैश्विक स्तर पर काम करने वाली विश्लेषण एजेंसियां अब सवाल खड़े कर रही हैं। हाल ही में ऐसी एक एजेंसी क्रिसिल ने एक रिपोर्ट जारी की है।

किसिल की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि 2022 तक भारत सौर ऊर्जा से 1,00,000 मेगावाॅट बिजली उत्पादन के लक्ष्य से तकरीबन 40 फीसदी तक पीछे रह सकता है। इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि जिस गति से सौर ऊर्जा का क्षमता विस्तार हो रहा है, उससे 2022 तक भारत के सौर ऊर्जा उत्पादन में अभी के स्तर से 44,000 से 46,000 मेगावाॅट का अतिरिक्त उत्पादन होगा। लेकिन इस स्थिति में भी 1,00,000 मेगावाॅट के उत्पादन लक्ष्य को पूरा नहीं किया जा सकेगा।

भारत में सौर ऊर्जा क्षमता विस्तार में आई कमी का अंदाज पिछले दो साल के आंकड़ों की तुलना से लगाया जा सकता है। 2017-18 में जहां सौर ऊर्जा में 9,000 मेगावाॅट का क्षमता विस्तार हुआ था। वहीं 2018-19 में यह आंकड़ा 7,000 मेगावाॅट पर रहने की उम्मीद है।

क्रिसिल ने भारत में सौर ऊर्जा में क्षमता विस्तार की धीमी गति के लिए केंद्र सरकार की कुछ नीतियों को जिम्मेदार ठहराया है। जुलाई, 2018 में केंद्र सरकार ने आयातित सोलर सेल पर एंटी-डंपिंग कदम उठाते हुए सुरक्षा कर लगाया। इसके तहत पहले एक साल में आयातित सौर सेल पर 25 फीसदी की दर पर कर वसूला जाएगा। इसके बाद के छह महीने के लिए यह दर 20 फीसदी होगी और इसके बाद के छह मीने के लिए 15 फीसदी।

क्रिसिल की रिपोर्ट बताती है कि सरकार ने यह निर्णय इसलिए लिया था क्योंकि भारत के बाजारों में सोलर सेल वाली कंपनियों की सुरक्षा हो सके। दरअसल, हो यह रहा था कि चीन और मलेशिया से आने वाले सोलर सेल भारत में उत्पादित सोलर सेल के मुकाबले भारत के बाजारों में सस्ते बिक रहे थे। जाहिर है कि इससे भारत की कंपनियों को नुकसान हो रहा था।

क्रिसिल की रिपोर्ट में कहा गया है आने वाले समय में इस कर में कमी आएगी और इस वजह से सौर ऊर्जा उत्पादन के क्षमता विस्तार में तेजी आ सकती है। क्रिसिल का मानना है कि सरकार द्वारा लगाए गए इस शुल्क की वजह से सौर ऊर्जा उत्पादन के लिए इकाइयों को लगाने में 10 से 15 फीसदी अतिरिक्त खर्च हो रहे हैं। इस क्षेत्र में काम करने वाली कंपनियां इस अतिरिक्त बोझ को उठाने से बच रही हैं।

क्रिसिल ने अपनी रिपोर्ट में आने वाले सालों में सौर ऊर्जा के उत्पादन को लेकर जो तस्वीर पेश की है, उसके मुताबिक 2019-20 में 10,000 मेगावाॅट का क्षमता विस्तार संभावित है। क्रिसिल का मानना है कि 2020-21 में यह आंकड़ा 12,000 मेगावाॅट पर पहुंच सकता है।

लेकिन इसके बावजूद 2022 तक 1,00,000 मेगावाॅट की सौर ऊर्जा क्षमता को हासिल करना संभव नहीं हो पाएगा। ऐसे में अगर सरकार सौर ऊर्जा उत्पादन के अपने लक्ष्यों को हासिल करना चाहती है तो उसे सौर ऊर्जा उत्पादन में आई सुस्ती के कारणों का विश्लेषण करके इसके समाधान की दिशा मे ठोस कदम उठाना होगा।

क्योंकि सौर ऊर्जा से संबंधित लक्ष्यों को हासिल करना सिर्फ एक लक्ष्य को पूरा करने भर नहीं है बल्कि इससे पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ भारत ऊर्जा सुरक्षा की दिशा में बढ़ेगा। इससे पेरिस समझौते के लक्ष्यों को हासिल करना तो आसान होगा ही साथ ही साथ इससे ऊर्जा संबंधित जरूरतों के लिए भारत की पारंपरिक स्रोतों पर निर्भरता घटेगी।

दुनिया के प्रदूषित शहरों को कोपेनहेगन दिखा रहा है सुधार की राह

भारत की राजधानी दिल्ली में प्रदूषण की समस्या काफी गंभीर बनी हुई है। कुछ महीने तो ऐसे होते हैं जब दिल्ली में सांस लेना मुश्किल हो जाता है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की जहरीली हवा लोगों को बीमार करने लगती है।

ऐसी स्थिति देश के कुछ शहरों की भी है। पूरी दुनिया में कई ऐसे शहर हैं जो लोगों को प्रदूषण की वजह से बीमार बना रहे हैं। इन शहरों में सुधार को लेकर बड़ी-बड़ी योजनाएं भी चल रही हैं। फिर भी नतीजा अक्सर ढाक के तीन पात ही नजर आता है।

ऐसे शहरों के लिए डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगन में हो रहे प्रयोगों में कई सबक हैं। डेनमार्क में सबसे अधिक लोग अगर किसी शहर में रहते हैं तो वह कोपेनहेगन ही है। राजधानी होने के नाते यहां काफी औद्योगिक गतिविधियां भी हैं।

इसके बावजूद इस शहर ने अपनी आबोहवा को सुधारने के लिए यह लक्ष्य तय किया है कि 2025 तक उसे अपनी ऊर्जा जरूरतों को न सिर्फ नवीकरणीय स्रोतों से पूरा करना है बल्कि अपनी जरूरत से अधिक ऊर्जा का उत्पादन इन स्रोतों से करना है। हरित गैसों का उत्सर्जन इस शहर से होगा ही नहीं।

अब सवाल यह उठता है कि कोपेनहेगन ने अब तक ऐसा क्या किया है कि उसे 2025 तक इस लक्ष्य को हासिल करने का भरोसा है। 2005 के स्तर से कोपेनहेगन ने अपने उत्सर्जन में 42 फीसदी की कमी की है। बिजली पैदा करने के लिए और अपनी दूसरी जरूरतों को पूरा करने के लिए जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल यहां के लोगों ने काफी कम कर दिया है।

पवन ऊर्जा उत्पादन के मामले में भी कोपेनहेगन ने पिछले कुछ सालों में काफी तरक्की की है। सार्वजनिक परिवहन के अपने ढांचे को भी इस शहर ने बहुत अच्छा कर लिया है। कोपेनहेगन में कोई भी ऐसी बसावट नहीं है जहां से 650 मीटर से अधिक दूरी पर मेट्रो स्टेशन हो।

वहीं दूसरी तरफ साइकिल के इस्तेमाल को बढ़ावा देने की दिशा में भी काफी काम हुआ है। व्यस्त सड़कों पर साइकिल के लिए तीन लेन बनाए गए हैं। शहर के 43 फीसदी लोग अपने काम पर जाने के लिए या पढ़ाई करने या अन्य किसी काम के लिए साइकिल का इस्तेमाल कर रहे हैं।

शहर के लोगों को जागरूक किया गया है कि उनके यहां से कम से कम कचरा निकला। जो कचरा निकलता है उससे बिजली बनाने का रास्ता भी शहर ने अपनाया है। इससे कोपेनहेगन में पड़ने वाली ठंढी से लोगों को निजात दिलाने के लिए घरों को गर्म रखने का काम किया जा रहा है।

हैरानी की बात यह है कि यहां बड़े बदलावों के लिए स्थानीय निकाय ने बड़ी पहल की है। राष्ट्रीय सरकार से इस शहर को इन कार्यों के लिए कोई बहुत बड़ी मदद नहीं मिली है।

आज जो कोपेनहेगन दिख रहा है, उसे देखकर लगता ही नहीं कि यह वही कोपेनहेगन जहां पहले काफी प्रदूषण था। यहां प्रदूषण फैलाने वाले कारखाने थे। कोयला इस्तेमाल करके बिजली बनाने वाले संयंत्र थे। हवा में धुआं-धुआं रहता था। प्रदूषण की वजह से लोग शहर छोड़कर जा रहे थे।

लेकिन इस शहर ने दिखाया है कि अगर लोगों को साथ लेकर ईमानदार कोशिश की जाए तो बदलाव संभव है। कोपेनहेगन ने जिस रास्ते को अपनाया है, उस पर दुनिया के दूसरे शहरों का चलना जरूरी है।

इसकी बड़ी वजह यह है कि पूरी दुनिया में जितनी इंसानी आबादी है, उसमें से आधे लोग दुनिया के अलग-अलग शहरों में ही रहते हैं। भारत की कुल आबादी में शहरी आबादी की हिस्सेदारी तकरीबन 31 फीसदी है। लेकिन ग्लोबल वार्मिंग बढ़ाने वाले गैसों के उत्सर्जन में शहरों की हिस्सेदारी काफी अधिक है।