उत्तराखंड आपदा: लोगों के प्राणों से ज्यादा पावर प्रोजेक्ट की चिंता?

 

उत्तराखंड में जोशीमठ क्षेत्र में 7 फरवरी को आई आपदा को हफ्ता भर पूरा हो चुका है। इन सात दिनों में देश और उत्तराखंड की भाजपा सरकार की तेजी, मुस्तैदी का काफी महिमागान हुआ। उस महिमागान को देखें तो लगता है कि यही वो डबल इंजन है, जिसका वायदा मोदी जी करते रहे हैं। लेकिन जमीनी हकीकत देखें तो मालूम पड़ता है कि सात दिनों में एक सुरंग के भीतर फंसे 35 लोगों तक पहुंचना अभी भी दूर की कौड़ी मालूम पड़ रहा है। उस सुरंग के साथ की बैराज साइट पर लोगों की तलाश का काम भी अभी नहीं हो सका है।

दो दिन पहले उत्तराखंड की राज्यपाल श्रीमति बेबी रानी मौर्य जायज़ा लेने तपोवन में उस सुरंग के पास पहुंची, जहां 35 लोग फंसे हैं। उनसे जब एक लापता व्यक्ति के परिजन ने कहा कि सुरंग से मलबा बाहर फेंकने के लिए दस जेसीबी लगवाई जाएं तो राज्यपाल महोदया ने कहा कि दस जेसीबी कहाँ से आएंगी? राज्यपाल ने यहां तक कह दिया कि मशीनें मुंबई और हिमाचल प्रदेश से आ रही हैं। राज्यपाल महोदया प्रदेश की संवैधानिक मुखिया हैं। बद्रीनाथ भी घूमने गयी होंगी। लेकिन न वे जान सकीं, न ही कोई लायक सरकारी अफसर उनके इर्दगिर्द था जो उन्हें बता पाता कि जोशीमठ के इलाके में तो कदम तो कदम पर जलविद्युत परियोजनाएं हैं, जहां जेसीबी और लोडर जैसी मशीनें फावड़े, गैंती, बेलचे से अधिक संख्या में हैं!

इस तरह देखें तो दिल्ली और देहरादून की डबल इंजन सरकार का मैनेज्ड मीडिया महिमागान अपनी जगह है और जमीन पर डबल इंजन की कच्छप गति अपनी जगह। यह अलग बात है कि महिमागान प्राण नहीं बचा सकता और हर बीतते हुए पल के साथ डबल इंजन की यह कच्छप गति सुरंग में कैद लोगों के जीवित होने की संभावना को निरंतर क्षीण कर रही है।

सात दिनों में प्राथमिकताएं भी स्पष्ट हुई। स्थानीय लोग और देश के विभिन्न हिस्सों से जोशीमठ पहुंचे लोग चाहते हैं कि किसी तरह भी उनके परिजनों की तलाश की जाये। लेकिन हुक्मरान चाहते हैं कि बाकी जो भी हो जलविद्युत परियोजनाओं और उनकी खामियों पर कोई बात न हो। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने घटना के अगले ही दिन यानि 8 फरवरी को ट्वीट किया कि इस “हादसे को विकास के खिलाफ प्रोपेगैंडा का कारण न बनाएं।” केन्द्रीय ऊर्जा मंत्री आरके सिंह ने तपोवन-विष्णुगाड़ परियोजना को जल्द से जल्द शुरू करने का इरादा जताया है।

इन दोनों बयानों को जोड़ कर देखें तो स्पष्ट है कि जिस त्रासदी में 200 लोग एक हफ्ते बाद भी नहीं खोजे जा सके, उससे सरकारी तंत्र कोई सबक लेने को तैयार नहीं है। यह समीक्षा करने को भी सरकारें तैयार नहीं हैं कि 2013 की भीषण आपदा के बावजूद इस तरह की हादसे से निपटने की कोई पूर्व तैयारी क्यूं नहीं थी?

रैणी गांव देश और दुनिया में चिपको आंदोलन और उसकी नेता गौरादेवी के गांव के रूप में जाना जाता है। यहीं पर 13 मेगावाट की परियोजना ऋषिगंगा नदी पर स्थित थी, जो पूरी तरह बह गयी है। यह नंदा देवी बायोस्फेयर रिजर्व का इलाका है, जो यूनेस्को द्वारा भी संरक्षित क्षेत्र की सूची में रखा गया है। बायोस्फेयर रिजर्व के प्रतिबंधों के चलते इस क्षेत्र में स्थानीय लोगों को एक लकड़ी का टुकड़ा या फिर घास तक उठाने की अनुमति नहीं है। लेकिन ऐसी पाबंदियों वाले क्षेत्र में परियोजना निर्माण के लिए स्थानीय निवासियों के विरोध के बावजूद बड़े पैमाने पर पेड़ों का कटान और डाइनामाइट के विस्फोट किए गए।

दूसरी परियोजना जो इस जल प्रलय की चपेट में आई है वो है – एनटीपीसी की निर्माणाधीन 530 मेगावाट की तपोवन-विष्णुगाड़ परियोजना। 2003-04 में इस परियोजना की शुरुआत से इस परियोजना के खिलाफ लोग मुखर रहे। विरोध प्रदर्शन इतना तीव्र था कि दो-तीन बार परियोजना निर्माण के उद्घाटन कार्यक्रम को रद्द करना पड़ा। अंततः तत्कालीन मुख्यमंत्री एनडी तिवारी ने जोशीमठ से 300 किलोमीटर दूर देहारादून में तत्कालीन केन्द्रीय ऊर्जा मंत्री पीएम सईद के हाथों इस परियोजना का उद्घाटन करवाया। उस समय से इस परियोजना के खिलाफ निरंतर संघर्ष की अगुवाई करने वाले भाकपा (माले) के राज्य कमेटी सदस्य अतुल सती के अनुसार इस परियोजना के निर्माण में जोशीमठ की भौगलिक स्थितियों पर हुए वैज्ञानिक अध्ययनों की घनघोर उपेक्षा की गयी और भूगर्भीय जटिलताओं को भी अनदेखा किया गया।

इस परियोजना में तपोवन में बैराज स्थल से 12 किलोमीटर लंबी सुरंग जोशीमठ शहर के नीचे से पावर हाउस स्थल अणिमठ तक नदी का पानी ले जाने के लिए खोदी जानी थी। 2011 में पावर हाउस वाली तरफ से टनल बोरिंग मशीन (टीबीएम) द्वारा सुरंग खोदने का काम शुरु किया गया और कुछ ही दूर जाकर मशीन द्वारा खोदने से एक बड़ा पानी का झरना फूट पड़ा और मशीन वहीं अटक गयी। उस स्थल से आज भी वो पानी का झरना बह रहा है। शुरू में बताया गया कि वहां से 600 लीटर प्रति सेकेंड पानी बह रहा है, बाद में बताया गया कि उसकी रफ्तार कम हो कर 200 लीटर प्रति सेकेंड हो गयी है। एक भूगर्भीय जल स्रोत को अवैज्ञानिक तरीके से छेड़ कर उससे हर सेकेंड सैकड़ों लीटर पानी बहने के लिए छोड़ दिया गया और बीते एक दशक से किसी को उसकी चिंता तक नहीं है। अब बैराज वाली तरफ से सुरंग खोदी जा रही थी,जो 7 फरवरी को मलबे से पट गयी है।

निरंतर प्राकृतिक आपदाओं की मार झेलते हुए भी न तो प्रकृति का लिहाज किया जा रहा है न इन आपदाओं का शिकार होने वालों के जीवन का कोई मोल समझा जा रहा है। मुख्यमंत्री जब “हादसे को विकास के खिलाफ प्रोपेगैंडा न” बनाने की अपील का ट्वीट करते हैं और सुरंग में फंसे मजदूरों को निकालने के बजाय केंद्रीय ऊर्जा मंत्री परियोजना शुरू करने पर जोर देते हैं तो इसका स्पष्ट अर्थ है कि प्राकृतिक तबाही और मनुष्यों के प्राण उनके लिए महत्वपूर्ण नहीं हैं। परियोजना से होने वाला मुनाफा ही उनके लिए सबकुछ है।

(लेखक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माले) से जुड़े हैं और चमोली जिले के आपदा प्रभावित क्षेत्र में मौजूद हैं)