सूखा – सच का या सोच का ?

आज सूखे की मार से दस राज्यों के 256 जिले और देश की एक तिहाई आबादी ग्रस्त है। कामधेनु की तरह सबका पोषण करने वाली धरती का सीना मोटी-मोटी दरारों से चिरा पड़ा है। सूखे पेड़-पौधे, प्यासे जानवर और पक्षियों का रुदन राग भविष्य के महाविनाश का संकेत दे रहे हैं। किसान अपनी आंखों के सामने कुम्हलाती खेती, मवेशियों की चारा-पानी के लिए तड़पन, अपनी घर-गृहस्थी को उजड़ता देख, निराशा-हताशा में डूब, उस रास्ते की ओर बढ़ चला है, जहां से कोई लौटकर नहीं आता। इन परिस्थितियों का सही-सही विश्लेषण कर, विचार करने की आवश्यकता है, ताकि समझदारी के साथ समाधान खोजने में सही दिशा की ओर बढ़ चलेंं।

विश्व के अन्य देशों की तरह अपने देश में भी प्राकृतिक आपदाएं आना कोई नई बात नहीं है। किसी ना किसी क्षेत्र में सूखा-बाढ़, चक्रवात, तूफान, अकाल, महामारी और भूकंप आदि घटनाएं होती रहीं हैं होती रहेंगी। हर भू-भाग में रहने वाली आबादी ने उन्ही परिस्थितियों में रहने का कौशल विकसित कर लिया था और आज भी कई देश ऐसा कर पाने में सफल हैं। जैसे हर मिनट किसी ना किसी भूकंप की कंपन सहने वाले जापान के क्रांतिकारी भवन डिजाइन, इजराइल में पानी की कमी है, लेकिन सिंचाई के सभी उन्नत टेक्नोलाॅजी के साथ-साथ डेयरी में भी इजराइल काफी ऊपर है। इसके अलावा दुनिया के ठंडे रेगिस्तान में गिने जाने वाले लाहौल-स्पिति में भी वहां के पांरपरिक ज्ञान के कारण ही पानी की उपलब्धता है और फल व सब्जी उत्पादन भी हो रहा है, ऐसे सैंकड़ों उदाहरण हैं। तीन ओर समुद्र और उत्तर में हिमालय से घिरे इस देश में अनगिनत नदियां, झील, तालाब और मानव निर्मि त बड़े-बड़े बांध हैं, लेकिन इन सबके बावजूद देश जल-संकट से जूझ रहा है, यहां विचारणीय बिंदु यह है कि क्या ये स्थितियां अचानक पैदा हुई हैं या फिर इन्हे हमने धीरे-धीरे पैदा किया है। भौतिक समृद्धि पाने की अंधी दौड़ में, हमने सांस्कृतिक मूल्यों की उपेक्षा कर, जिस तरह की जीवन पद्धति को अपनाया है वह ही जिम्मेदार है। विकास और प्रकृति के बीच सहज सामंजस्य को भुलाकर, विकास के जिस मार्ग को हमने चुना है, क्या वोो मार्ग मानव सभ्यता को सुख और समृद्धि की ओर ने जाने में सक्षम है? या महाविनाश की ओर!

जिस तरह गरमाती धरती पर जलवायु परिवर्तन हो रहा है, उसे वैज्ञानिक भी सामान्य नहीं मान रहे हैं। हिमालयी क्षेत्र में दो दशक से अधिक समय काम कर चुके वैज्ञानिकों ने आशंका जताई है कि हिमालय में सूखा चक्र की शुरूआत हो चुकी है। भूगर्भ वैज्ञानिकों का कहना है कि 50 वर्ष में हिमालयी क्षेत्र का तापमान और बढ़ेेगा, जिससे शुरूआत में बाढ़ आएगी और फिर सूखा बढ़ेगा, अनियमित तेज बारिश होगी। इन बदलावों के चलते ना तो हिमालय में पानी रुकेगा और ना ही ग्लेशियरों के पिघलने से फिर बर्फ जम सकेगी। हिमालय के बाहरी वातावरण और नीचे भूगर्भ में हो रहे बदलाव अच्छे संकेत नहीं दे रहे हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि इंडियन प्लेट प्रतिवर्ष दो सेंटीमीटर हिमालय के नीचे सरक रही है, जिससे हर वर्ष हिमालय भी ऊंचा उठता जा रहा है। हिमालय अपने संक्रमणकाल से गुजर रहा है। कम से कम पचास हजार साल सेे अधिक चलने वाले इस चक्र को हिमालय एक बार पहले भी झेल चुका है। इन वैज्ञानिकों की बातें सुन इस देश के नीति-निर्माता जाने-समझे कि उन्हे क्या करना है।

इन नीति-निर्माताओं से जो हम समझे उसकी चर्चा भी कर लेते हैं, हरित क्रांति ने गेहूं- धान के भंडार तो जरूर भरे, लेकिन तिलहन-दलहन और मोटे अनाजों की स्थिति क्या है? पारंपरिक फसल चक्र के बदले फसल कुचक्र ने मिट्टी-पानी-बीज और पर्यावरण आदि को किस स्थिति में पहुंचाया है हम सब जानते हैं। इन नीति निर्माताओं ने देश की कृषि को गर्त में और किसान को मौत के मुंह में धकेल दिया है। अभी सूखे की परिस्थिति पर ही चर्चा करें तो ठीक रहेगा। आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 1951 में भारत में प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता 5177 घनमीटर थी जो आज घटकर 1650 घनमीटर रह गई है। वर्ष 2050 तक ये आंकड़ा 1447 घनमीटर या उससे भी कम होने की संभावना है। प्रति व्यक्ति कम जल उपलब्धता का बड़ा कारण बढ़ती आबादी है। देश में प्रति वर्ष बारिश और हिमनदों से 4000 अरब घनमीटर प्राप्त जल में से 2131 अरब घनमीटर यों ही बह जाता है, शेष 1869 में से मात्र 1123 अरब घनमीटर जल को हम सतही उपयोग या धरती के पेट में उतार पाते हैं। बड़े-बड़े बांध और नदी जोड़ने जैसी महत्वाकांक्षी महंगी परियोजनाओं की सोच रखने वाले नीति निर्माताओं की देन है सूखा।

इन अदूरदर्शी नीति निर्माताओं के पास न तो टिकाऊ कृषि नीति है ना ही प्राकृतिक आपदाओं से निपटने की समझ और ना ही जल-प्रबंधन का सहूर। अगर ठीक से प्रबंधन कर लें तो अकेले 86,140 वर्ग किलोमीटर में फैला गंगा बेसिन ही 47 फीसद खेतों और 35 फीसद आबादी की सूखे से मुक्ति में सक्षम है। प्रबंधन की ही बात करें तो दिल्ली में प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता करीब 250 लीटर प्रति दिन है, जबकि मैक्सिको में प्रति व्यक्ति प्रति दिन पानी की उपलब्धता लगभग 150 लीटर है और इजराइल में प्रति व्यक्ति प्रति दिन पानी की उपलब्धता करीब 100 लीटर है, फिर भी पानी वहां की मारामारी नहीं है जबकि दिल्ली में पानी के लिए त्राहि-त्राहि है। इजराइल में ये सिर्फ पानी के सही प्रबंधन से ही संभव हुआ है।

मानकों के अनुसार अगर पानी की उपलब्धता प्रति वर्ष 1000 घनमीटर प्रति व्यक्ति हो तो ठीक माना जाता है। इजराइल में ये आंकड़ा करीब 461 घनमीटर प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष का है। यानी तय मानकों से बेहद कम पानी की उपलब्धता होने के बावजूद इजराइल में पानी की कमी नहीं है और भारत 1650 घनमीटर प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष पानी की उपलब्धता के बावजूद पानी की समस्या से जूझ रहा है। ये कुप्रबंधन का ही नतीजा है कि देश की जहां 40 फीसद आबादी पानी की कमी से जूझ रही है, वहीं दूसरी बड़ी समस्या जल संदूषण की है, जिसे कई लोग जल प्रदूषण भी कह देते हैं। भू-जल हो या गंगा और यमुना जैसी पवित्र अविरल बहती नदियां, भयानक रूप से संदूषण की शिकार हैं। उदाहरण लें तो गंगा नदी के 100 मिलीलीटर जल में 60 हजार मल जीवाणु यानी ईकोलाई बैक्टिरिया पाए गए हैं। देश में लाखों लोगों की मौत जल-जनित रोगों के कारण हो रही है।

विश्व के करीब ढ़ाई फीसद भू-भाग पर लगभग अट्टारह फीसद आबादी को लेकर रहने वाले भारत के पास समस्त प्रकार की जलवायु क्षेत्र मौजूद है। यहां बर्फ से ढंकी चोटियां…ध्रुव प्रदेश जैसा दृश्य! दक्षिणी प्रायद्वीप का भूमध्य रेखा के निकट सूर्य भी सीधी किरणों के कारण भीषण गर्मी वाला क्षेत्र भी भारत में है और कभी चेरापूंजी जैसा क्षेत्र 16000 मिलीमीटर बारिश के साथ अधिकतम वार्षिक वर्षापात वाला क्षेत्र है, तो शून्य से 50 मिलीलीटर वर्ष का थार मरूस्थल वाला राजस्थान या लेह, लद् दाख, करगिल और लाहौल स्पिति के शुष्क क्षेत्र भी यहीं हैं। जहां आसमान से बरसीं एक-एक बूंदों को संजोने की वे पारंपरिक तकनीके, जिनके चलते ये कम वर्षा वाले क्षेत्र भी बेपानी नहीं हुए। अगर, यहां पानी को संजोने की स्थानीय कौशल ना होता, तो यहां आबादी भी ना होती।

देश की प्रभावित आबादी का बड़ा हिस्सा अपने घर और पशुओं को भगवान भरोसे छोड़ पलायन कर गया है। सच तो ये है कि, सरकारें भाग-दौड़ कर के भी पीने का पानी, पशुओं के लिए चारा, जरूरतमंदों को अनाज की व्यवस्था और फसल बर्बाद होने पर रोजगार मुहैया नहीं करा पाईं हैं। लेकिन ये वक्त सूखे से उभरी चुनौतियों से निपटने का है, कोसने का नहीं। हम सबको मिल बैठकर तत्कालिक व दीर्घकालिन योजना पर विचार कर उनको क्रियानवित करने का मार्ग प्रशस्त करना होगा। इसके लिए सरकार की सहभागिता के साथ-साथ जनभागिता भी जरूरी है। स्कूलों के पाठ्यक्रमों में बच्चों को बचपन से ही जल संरक्षण, संवर्ध न और विवेकपूर्ण उपयोग के पाठ पढ़ाने होंगे, तभी इन आपदाओं से निपटने में हम फिर से सक्षम हो सकेंगे। और इसके लिए संचार माध्यमों को भी कारगर, रचनात्मक भूमिका निभानी होगी।

हरित क्रांति के शुुरूआती दौर से चले आ रहे फसल चक्र ने देश के 264 जिलों को डार्कजोन में पहुंचा दिया है। अभी तक औसतन 11 मीटर जल स्तर नीचे गिर चुका है। हमारे यहां भूजल का 70 से 80 फीसदी उपयोग अकेले सिंचाई के लिए होता है। हमें योजनाएं बनाते वक्त भौगोलिक और प्राकृतिक स्थितियों को ध्यान में रखना होगा। हमें मिट्टी, मौसम और उपलब्ध जल के अनुसार फसल और फसल चक्र का चुनाव करना चाहिए। कम पानी वाले क्षेत्रों में गन्ना और धान जैसी फसलों के बजाए कम पानी में होने वाले मोटे अनाज, दलहन, तिलहन आदि की पैदावार ले सकते हैं। जलवायु परिस्थिति के अनुसार बीजों का चुनाव भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। दुनिया में तीन ‘‘आर‘‘ यानी ‘रीड्यूज़, रिसाइकल और रीयूज़‘ की बात कही जा रही है। सही भी है हमें पानी और अन्य संसाधनों के उपभोग में कमी करनी है, फिर उनका पुनःचक्रण करना है, यानी अपशिष्ट जल को उपचारित करके सिंचाई, सफाई या अन्य कार्यों में दोबारा उपयोग करना आदि। इससे शहरी क्षेत्र में 60 फीसद के अधिक जल की खपत कम की जा सकती है।

भारत का पारंपरिक ज्ञान एक नहीं पांच साल सूूखा और अकाल में भी सुख से रहने का गुर जानता था। लेकिन आधुनिकता की चकाचैंध ने जल को सहज कर रखने, बीजों को बचाने और पशुओं की नस्ल सुधार के हुनर को भुला दिया है। सूखे से निपटने में पशुधन की बड़ी भूमिका है। अगर इनके लिए पर्याप्त पानी और चारे का इंतजाम हो तो पशु भी बचेगा और उनके दूध से हमारी सेहत भी बनी रहेगी। बरसात के दिनों में जंगलों और खेतों में घास की और पतझड़ में पत्ते की भरमार होती है। पहले इन्हे सहज कर रखने का चलन था, जो सूखे के दिनों में चारे के रूप में काम आता था। बागवानी भी सूखे के प्रभाव से निपटने में बड़ी भूमिका निभाती है। हुनरमंद हाथों की अहमियत को समझना होगा, सूखे के समय पूरे परिवार को रोजगार तो मिलता ही है, लेकिन उस समय भी सृजनशीलता की उड़ान दुखभरे वक्त को कैसे बिता देती है, इसकी गहराई को समझना होगा। फिर से पारंपरिक ज्ञान की अहमियत को समझना होगा…गांवों में कुटीर धन्धों, हाथों के हुनरमंदों से जीवन जीने के हुनर को सीखना होगा।

हाल ही के दिनों में महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले में कर्जत के निकट खाडवे गांव जाना हुआ। यहां अशोक गायकर और उनके मित्रों ने मिलकर दोनो ओर पहाड़ों से घिरे साठ एकड़ भूमि पर वनदेवता डेयरी एंव कृषि फार्म विकसित किया है। यहां वर्षा जल संरक्षण के लिए चैकडैम तथा पहाड़ों से बहकर आए जल को एक एकड़ तालाब में एकत्र किया जाता है। यहां पारंपरिक ज्ञान और आधुनिक तकनीक के उपयोग का अद्भुत संगम देखने को मिला। दस भारतीय नस्लों की 150 गायों का संरक्षण और संवर्धन, दूध के अलावा गोबर-गोमूत्र से बने उत्पाद, गोबर गैस का उपयोग तथा कंपोस्ट खाद आदि द्वारा जैविक कृषि, बकरी पालन, मुर्गीपालन और मत्स्य पालन भी यहां हो रहा है। बेमौसमी फल, फूल, सब्जी आदि पैदा करने के लिए पालीहाऊस तथा सूखे के मौसम में भी हाइड्रोपोनिक्स विधि द्वारा पशुओं के लिए हरेे और पौष्टिक चारे का उत्पादन। आम, आंवला, चिकू सहित अन्य बागवानी फसलें हो रही है। खेतों में सिंचाई के लिए बूंद-बूंद या टपक (ड्रिप सिंचाई पद्धति) तकनीक का प्रयोग हो रहा है। यहां प्रधानमंत्री के ‘मोर क्राप पर ड्राप‘ के नारे को साकार होते देखा जा सकता है। अगर दो साल वर्षा ना भी हो तो यहां 60 एकड़ खेती और 150 गायों के लिए पर्याप्त मात्रा में जल उपलब्ध है। देश के अलग-अलग भागों में उत्तराखंड में उफरेखाल में सच्चिदानंद भारती, बुंदेलखंड में मंगल सिंह, जयपुर के लापोड़िया के लक्ष्मण सिंह, मध्यप्रदेश के आईएएस उमाकांत उमराव जैसे आर्थिक और सामाजिक महाशक्ति के अनेक उदाहरण हैं, जो हमें सूखे में सुख से रहने के लिए प्रेरित कर रहे हैं।

आर्थिक महाशक्ति की चाह तभी पूरी होगी, जब आर्थिक स्थिति को गिरने से रोकने के उपायों के साथ-साथ गिरते भूजल के स्तर के उपाय भी हों। जब भू-जल का स्तर गिरता है तो जीवन की गुणवत्ता का स्तर भी गिर जाता है। जल की उपलब्धता और खाद्य सुरक्षा के बीच गहरा संबंध है…और बिन पानी खाद्य सुुरक्षा की बात भी बेमानी है। हमें जरूरत है…भारतीय पारंपरिक ज्ञान के अनुभवों के आधार पर शोध और अनुसंधान की छूटी कड़ी को फिर से जोड़, आगे बढ़ने की…

मप्र: कर्ज तले दबे किसान ने एसिड पीकर दी जान

देश में कर्ज के बोझ तले किसानों की खुदकुशी का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। अब मध्‍य के इंदौर जिले में कथित तौर पर कर्ज के बोझ से परेशान 41 वर्षीय किसान ने एसिड पी लिया।

देश में कर्ज के बोझ तले किसानों की खुदकुशी का सिलसिला थमने का नाम  नहीं ले रहा है। अब मध्‍य के इंदौर जिले में कथित तौर पर कर्ज के बोझ से परेशान 41 वर्षीय किसान ने एसिड पी लिया। अस्पताल में इलाज के दौरान उसकी मौत हो गयी।

बड़गोंदा क्षेत्र के कैलोद गांव में रहने वाले , 41 की इलाज के दौरान कल रात मौत हो गयी। सुनील के बडे़ भाई माखनलाल ने कहा कि उनके अनुज ने पंजाब नेशनल बैंक से ढाई लाख रपये का कर्ज ले रखा था। इसके अलावा, उसने एक साहूकार से भी कुछ रकम उधार ले रखी थी। उन्होंने कहा, खेती में नुकसान के कारण सुनील कर्ज चुका नहीं पा रहा था। इस पर आये दिन कर्जदाताओं के तगादों के कारण वह मानसिक रूप से बेहद परेशान चल रहा था।

इस बीच, पुलिस ने इस बात को सिरे से खारिज किया कि किसान ने कर्ज न चुका पाने के कारण जान दी। बड़गोंदा थाने के प्रभारी मोहनलाल मीणा ने कहा कि इजारदार ने पुलिस को मृत्यु से पूर्व दिये बयान में खुद पर किसी तरह कर्ज बकाया होने की कोई बात नहीं की है। मीणा ने कहा, इजारदार ने 16 जून को एसिड पी लिया, जब वह घर में अकेला था। वह मानसिक रूप से परेशान था।

उन्होंने बताया कि इजारदार ने खाद भरने की प्लास्टिक की थैलियां बनाने का छोटी..सी इकाई भी शुरू की थी। लेकिन इस काम में उसे नुकसान हो गया था। इसके बाद उसने रेडीमेड कपड़ों की दुकान खोली। लेकिन यह दुकान भी नहीं चल सकी थी।

टमाटर की महंगाई के बावजूद क्‍यों घाटे में रहा किसान?

अत्‍यधिक गर्मी के कारण इस साल टमाटर की फसल कई तरह की बीमारियों की चपेट में रही। जिससे उत्‍पादन पर असर पड़ा।

टमाटर की कीमतों में आए उछाल ने देश की राजनीति को गरमा दिया। थोक मंडियों में आवक कम होने से कई शहरों में टमाटर की कीमतें 100 रुपये तक पहुंच गईंं। हालांकि, अब टमाटर की कीमतें काबू में आने लगी है। लेकिन खुदरा कीमतों में जबरदस्‍त उछाल के बावजूद किसानों को इसका फायदा मिल। आईये समझते हैं आखिर क्‍यों महंगा हुआ टमाटर-

सूखे की मार, वायरस का हमला

देश के विभिन्‍न राज्‍यों में टमाटर की पैदावार घटने से कीमतें अचानक चढ़ गईं। इस साल सूखे के कारण महाराष्‍ट्र और मध्‍य प्रदेश में टमाटर की काफी फसल बर्बाद हो गई। अत्‍यधिक गर्मी के कारण टमाटर की फसल कई तरह की बीमारियों और कीटों की चपेट में रही।  उत्‍पादन गिरने का सीधा असर मंडियों में टमाटर की आवक पर पड़ा जिसके बाद दाम बढ़ने लगे।

प्रति एकड़ 50 हजार तक का नुकसान

इस साल देश के 13 राज्‍यों में पड़े भयंकर सूखे की मार टमाटर की फसल पर भी पड़ी है। टमाटर उत्‍पादक आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्‍ट्र, मध्‍य प्रदेश, कर्नाटक और केरल में इस साल उत्‍पादन कम है। दरअसल, अप्रैल से ही भीषण गर्मी और गर्म हवाओं के चलते टमाटर में फूल ही नहीं आए। टमाटर उत्‍पादक राज्‍यों में सिंचाई की कमी के चलते भी इस साल उत्‍पादन पर असर पड़ा। एक एकड़ में टमाटर की फसल पर करीब 70 हजार रुपए का खर्च आता है। जबकि लागत निकालने के बाद किसान के हाथ में 30 से 40 हजार रुपए ही आ रहे हैं।

टस्‍पा वायरस का प्रकोप

देश के प्रमुख टमाटर उत्‍पादक राज्‍य महाराष्‍ट्र में तकरीबन सवा लाख हेक्‍टेअर क्षेत्र में टमाटर की खेती होती है। इसमें से करीब 30 हजार हेक्‍टेयर क्षेत्र में सिजेंटा कंपनी का बीज टीओ-1057 को लगाया गया था।  मिली जानकारी के अनुसार, सिजेंटा के बीजों पर टस्‍पा वायरस का प्रकोप काफी रहा। इस वायरस से टमाटर तीन रंग लाल, पीला और हरा पड़कर खराब हो जाता है। इसके अलावा बाकी किस्‍म के टमाटर में भी किसी में टस्‍पा और किसी में पत्तियां सिकुड़ने का रोग लगा। नतीजा यह हुआ कि प्रति हेक्‍टेअर टमाटर का उत्‍पादन 60-70 टन से घटकर 10-20 टन पर आ गया।

महाराष्‍ट्र सरकार ने बीज पर लगाया प्रतिबंध 

सिजेंटा कंपनी ने फसल खराब होने की दशा में किसानों को इसकी क्षतिपूर्ति दिए जाने का वादा किया था। लेकिन कंपनी अपने वादे से मुकर गई। किसानों की शिकायत पर राज्‍य सरकार ने सिजेंटा की टीओ-1857 प्रजाति के बीज पर प्रतिबंध लगा दिया है।

वेटनरी कॉलेज खोलना होगा आसान, एक्‍ट में संशोधन की तैयारी 

देश में पशु चिकित्‍सकों की कमी दूर करने के लिए केंद्र सरकार वेटनरी कॉलेज खोलने की प्रक्रिया को आसान बनाने जा रही है।

13339717_675510069263552_3938440903111106119_n

नई दिल्‍ली। देश में पशु चिकित्‍सकों कमी को दूर करने के लिए केंद्र सरकार वेटनरी कॉलेज खोलने की राह आसान बनाने जा रही है। नए काॅलेज खाेलने के‍ लिए जमीन जैसे मानदंडों में छूट दी जाएगी। इसके लिए तीन दशक से ज्‍यादा पुराने भारतीय पशु चिकित्‍सा परिषद अधिनियम में संशोधन होगा। इस समय देश में पशु चिकित्‍सों की काफी कमी है और विश्‍व में मवेशियों की स
र्वाधिक आबादी होने के बावजूद पूरे भारत में सिर्फ 52 वेटनरी कॉलेज हैं। इनमें से भी 16 कॉलेज पिछले दो साल में खुले हैं।

कृषि एवं किसान कल्‍याण राज्‍य मंत्री डॉ. संजीव कुमार बालियान ने मंगलवार को ऑल इंडिया प्री-वेटेेनरी टेस्‍ट (एआईपीवीटी)- 2016 के परिणामों की घोषणा करते हुए बताया कि भारतीय पशुचिकित्‍सा परिषद अधिनियम, 1984 में संशोधन का प्रस्‍ताव रखा गया है ताकि नए काॅलेज खोलने की प्रक्रिया को सरल बनाया जा सके। बालियान का मानना है कि देश में पशु चिकित्‍सकों की कमी को दूर करने के लिए सरकारी और प्राईवेट कॉलेजों की संख्‍या बढ़ानी जरूरी है।

जमीन सहित कई मानकों में मिलेगी छूट 

फिलहाल वेटनरी कॉलेज खोलने के लिए संस्‍थान के पास 45 एकड़ कृषि भूमि होनी जरूरी है। संजीव बालियान का कहना है कि आजकल शहरों में इतनी जमीन मिलना मुश्किल है। इतने सख्‍त मानदंडों के चलते निजी क्षेत्र के लोग वेटनरी कॉलेज खोलने के लिए आगे नहीं आ पाते हैं। उम्‍मीद है कि आईवीसी एक्‍ट में संशोधन के बाद नए कॉलेज खोलने की राह आसान हो जाएगी।

दो साल में खुले 16 नए कॉलेज

वर्ष 2014 तक देश में कुल 36 वेटनरी कॉलेज थे। जबकि पिछले दो वर्षो के दौरान 16 नए वेटनरी कॉलेज खोले गए हैं। इनमें निजी क्षेत्र के दो और 14 सरकारी कॉलेज हैं। पिछले दो साल में वेटनरी कॉलेजों में सीटों की संख्‍या 2311 से बढ़ाकर 3427 कर दी गई है।

 

 

शिमला: किसान नेताओं का अधिवेशन, छाया रहा किसान आय का मुद्दा

किसान एकता के बैनर तले शिमला में देश भर के किसान नेताओं का सम्मेलन चल रहा है। मौजूदा कृषि संकट और किसानों की आत्महत्याओं के मद्देनज़र यह अधिवेशन किसान आंदोलनों को एक मंच पर लाने का प्रयास है। इस दौरान किसानों के मुद्दों को राजनैतिक एजेंडे में लाने की रणनीति पर भी व्यापक चर्चा हो रही है। अधिवेशन के पहले दिन किसानों को आय की गारंटी दिलाने और न्यूनतम समर्थन मूल्य खत्म करने की सरकार की कोशिशों के खिलाफ किसान एकजुटता पर जोर दिया गया।

अधिवेशन के आयोजन में अहम भूमिका निभा रहे कृषि नीति के विशेषज्ञ देविंदर शर्मा ने बताया कि इस तरह का यह तीसरा सम्मेलन है जिसमें मणिपुर से लेकर राजस्थान और केरल से लेकर हिमाचल तक के किसान नेता भागीदारी कर रहे हैं। इससे पहले बेंगलुरु और चंडीगढ़ में इस तरह के दो अधिवेशन हो चुके हैं। इस अधिवेशन का मकसद किसानों से जुड़े अहम नीतिगत मसलों पर किसान नेताओं और संगठनों के बीच सामूहिक समझ विकसित करना है। खास बात यह है कि अधिवेशन में फिशरिज और डेयरी से जुड़े किसान नेताओं को भी बुलाया गया है। अब तक के विचार-विमर्श में किसानों को निश्चित आमदनी की गारंटी और पेंशन के मुद्दे पर किसान संगठन के बीच सहमति बन चुकी है।

अधिवेशन में किसान नेता ने न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने की प्रणाली में खामियों और किसानों को उपज का लाभकारी मूल्य दिलाने के मुद्दे को प्रमुखता से उठाया है। समर्थन मूल्य तय करने वाली संस्था केंद्रीय कृषि एवं लागत मूल्य आयोग यानी सीएसीपी की कार्यप्रणाली को लेकर भी किसानों में काफी असंतोष हैे। हिमाचल प्रदेश के किसान नेता और फल, फूल एवं सब्जी उत्पादक संघ के अध्यक्ष हरीश चौहान का कहना है कि सरकार ने सेब  का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने के लिए लागत को बेहद कम आंका है जबकि असल लागत इससे कहीं ज्यादा है! खाद, बीज व कीटनाशक आदि इनपुट के कई साल पुराने दामों के आधार पर फसल लागत की गणना की जाती है। भारतीय किसान मोर्चा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष नरेश सिरोही ने भी समर्थन मूल्य का दायरा बढ़ाने और फसल लागत तय करने की प्रणाली में सुधार के लिए किसानों के एकजुट होने पर जोर दिया।

फसल लागत पर 50 फीसदी दाम के चुनावी वादों को मोदी सरकार द्वारा पूरा नहीं करने और समर्थन मूल्य की व्यवस्था खत्म करने की कोशिशों को लेकर किसानों में खासी नाराजगी देखी जा रही है। भारती किसान यूनियन पंजाब के अध्यक्ष बलबीर सिंह राजेवाल ने बताया कि वह पिछले 45 साल से समर्थन मूल्य की लड़ाई लड़ते आ रहे हैं। हालांकि, न्यूनतम समर्थन मूल्य का फायदा सिर्फ कुछ चुनिंदा फसलों तक ही पहुंचा है। इसलिए देश भर के किसानों की दिक्कतों का हल सिर्फ समर्थन मूल्य से संभव नहीं है। इसलिए हम निश्चित आमदनी की गारंटी मांग रहे हैं।

राजनस्थान के किसान नेता रामपाल जाट का कहना है कि आमदनी की गारंटी का कानूनी अधिकार दिए बगैर किसानों की दिक्कतों का समाधान संभव नहीं है। भारतीय किसान मोर्चा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष नरेश सिरोही ने भी समर्थन मूल्य का दायरा बढ़ाने और फसल लागत तय करने की प्रणाली में सुधार के लिए किसानों के एकजुट होने पर जोर दिया।

अधिवेशन के पहले दिन इंटलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स और फ्री ट्रेड एंग्रीमेंट यानी एफटीए से जुडे मुद्दों को किसान नेताओं के सामने रखा। अधिवेशन में प्रस्ताव पारित किया जाएगा कि खेती और किसानों से जुडा कोई भी इंटरनेशनल एग्रीमेंट करने से पहले सरकार किसानों के साथ विचार विमर्श करे।

इस दो दिवसीय अधिवेशन में भारतीय किसान यूनियन-राजेवाल, केआरआरएस कर्नाटक, भाकियू पंजाब, भाकियू अम्बवता, राष्ट्रीय किसान मज़दूर संघ, ऑल इंडिया किसान सभा, भारतीय किसान मोर्चा, एकता परिषद्, शेतकारी संगठन महाराष्ट्र, हरित सेना केरल सहित कई किसान संगठनों ने हिस्सा लिया।

कृषि मंत्रालय से बालियान की छुट्टी, अब 4 मंत्री करेंगे किसान कल्‍याण

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने मंत्रियों को ताश के पत्‍तों की तरह फेट दिया है। 19 नए चेहरों को मंत्रिमंडल में जगह दी गई है जबकि स्‍मृति ईरानी जैसे कई दिग्गजों के विभाग बदले गए। लेकिन जैसी उम्‍मीद जताई जा रही थी कृषि राज्‍य मंत्री संजीव बालियान को न तो कैबिनेट मंत्री बनाया गया है और न ही स्‍वतंत्र प्रभार मिला है। अलबत्‍ता, उन्‍हें कृषि मंत्रालय से हटाकर जल संसाधन जैसे लो-प्रोफाइल मंत्रालय में जरूर भेज दिया गया है। इसका सीधा मलतब यह निकाला जा रहा है कि पीएम मोदी कृषि मंत्रालय में संजीव बालियान के कामकाज से खुश नहीं थे। बालियान के अलावा एक अन्‍य राज्‍य मंत्री गुजरात के मोहनभाई कल्याणजी भाई कुंंदारिया की भी कृषि मंत्रालय से छुट्टी हो गई है। कुंदारिया भी दिल्‍ली या गुजरात में कुछ खास नहीं कर पाए थे। बालियान और कुंदारिया की जगह कृषि मंत्रालय में 3 नए राज्‍य मंत्री बनाए गए हैं। इस तरह किसान कल्‍याण का जिम्‍मा एक-दो नहीं बल्कि चार-चार मंत्रियों पर रहेगा।

मंत्रिमंडल में हुए व्‍यापक फेरबदल के बावजूद कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह इस बार भी बच गए हैं। न उनका मंत्रालय बदला और रुतबा कम हुआ है।

ग्रामीण विकास से बीरेंद्र सिहं की विदाई, घटा जाट नेताओं का कद 

5ZkwjoKzहरियाणा के जाट नेता चौधरी बीरेंद्र सिंह की ग्रामीण विकास मंत्रालय से विदाई हो गई है। भूमि अधिग्रहण के मुद्दे पर सरकार की नाकामी के बाद से ही उन पर तलवार लटक रही थी। मोदी सरकार में ग्रामीण विकास जैसे अहम मंत्रालय के बजाय बीरेंद्र सिंह को इस्‍पात मंत्रालय की जिम्‍मेदारी दी गई है। इस तरह देखा जाए तो मोदी मंत्रिमंडल में दोनों जाट नेताओं का रुतबा घटा है। किसान और ग्रामीण पृष्‍ठभूमि वाले बीरेंद्र सिंंह और संजीव बालियान को ग्रामीण विकास और कृषि जैसे मंत्रालय वापस ले लिए हैं।

मोदी मंत्रिमंडल में बीरेंद्र सिंह और संजीव बालियान के रुतबे में आई कमी को हरियाणा और पश्चिमी यूपी की राजनीति से जोड़कर भी देखा जा सकता है। हरियाणा में जाट आंदोलन से निपटने में बीरेंद्र सिंह की भूमिका से पार्टी को कोई खास मदद नहीं मिली पाई थी। राज्‍य के राजनैतिक समीकरण भी उनके खिलाफ गए।

पश्चिमी यूपी की राजनीति में संजीव बालियान की सक्रियता और विधानसभा चुनाव के मद्देनजर मंत्रिमंडल में उनका कद बढ़ने की अटकलें लगाई जा रही थी। बालियान की कृषि मंत्रालय से विदाई और स्‍वतंत्र प्रभार भी न नहीं मिलना काफी अप्रत्‍याशित रहा है। संवारलाल जाट के इस्‍तीफे के बाद जातीय संतुलन बनाए रखने के लिए राजस्‍थान के जाट नेता सीआर चौधरी को मंत्रिमंडल में जगह दी गई है।

बच गए राधा मोहन, अब कृषि मंत्रालय में 4 मंत्री 

22-ss-ahluwalia-300कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह अपनी कुर्सी बचाने में कामयाब रहे हैं। उन्‍हें कृषि मंत्रालय से हटाए जाने की काफी अटकलें लगाई जा रही थींं। लेकिन अपनी किसान विरोधी छवि से चिंतित मोदी सरकार ने कृषि मंत्रालय में 3 नए राज्‍य मंत्री बनाए हैं। ये नए कृषि राज्‍य मंत्री हैं – एसएस अहलूवालिया, पुरुषोत्‍तम रूपाला और  सुदर्शन भगत।
6E3-k9W9सुरेंद्रजीत सिंह (एसएस) अहूलवालिया पश्‍चिम बंगाल की दार्जिलिंग सीट से भाजपा सांसद हैं। वह पीवी नरसिम्‍हाराव की कांग्रेस सरकार में भी मंत्री रह चुके हैं।कांग्रेस से मोहभंग हाने के बाद उन्‍होंने भाजपा का दामन थामा था। फिलहाल वह भाजपा के राष्‍ट्रीय उपाध्‍यक्ष हैं।
imagesपुरुषोत्‍तम रूपाला गुजरात के कडवा पाटीदार समुदाय से ताल्‍लुक रखते हैं और पीएम मोदी के करीब माने जाते हैं। संगठन में रहते हुए रूपाला ने पाटीदार आरक्षण आंदोलन से सीधी टक्‍कर ली थी। वह गुजरात में कृषि मंत्री रह चुके हैं और उन्‍हें हाल ही में राज्‍य सभा में लाया गया था।

सुदर्शन भगत झारखंड से नक्‍सल प्रभावित लोहरदगा से सांसद हैं। वे साफ छवि और विवादों से दूर रहने वाले नेता माने जाते हैं। इससे पहले वह ग्रामीण विकास मंत्रालय में राज्‍य मंत्री थे।

 

 

किसान ऋण मुक्ति: नितिन गडकरी ऐसे दूर करना चाहते हैं कृषि संकट

गडकरी का कहना है कि सिर्फ गेहूं और धान से किसान का भला होने वाला नहीं है। किसानों को नई तकनीक और नए उद्यमों की राह पकड़नी होगी। सिर्फ खेती से गांव की इकनॉमी नहीं चलेगी।

7-1465898917

कृषि संकट और कर्ज के जंजाल से जूझ रहे किसानों को केंद्रीय सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी ने कई बिजनेस मंत्र सुझाएंं हैं। गडकरी का कहना है कि सिर्फ गेहूं और धान जैसे परंपरागत फसलों से किसान का भला होने वाला नहीं है। बाजार की नब्‍ज पहचानते हुए किसानों को नई तकनीक और नए उद्यमों की राह पकड़नी होगी। सिर्फ खेती से गांव की इकनॉमी नहीं चलेगी।

काउंसिल फॉर सोशल डेवलपमेंट, सेंटर फॉर एग्रीकल्‍चरल पॉलिसी डायलॉग और स्‍वाभिमानी शेतकारी संगठन की ओर से किसानों को कर्ज से मुक्ति दिलाने के मुद्दे पर मंगलवार को नई दिल्‍ली में आयोजित परिचर्चा में गडकरी ने जोर दिया कि देश के कई इलाकों में किसान इनोवेशन और उद्यमिता के जरिये अपनी तकदीर बदल रहे हैं। केंद्र सरकार भी कृषि उत्‍पादकता दोगुना करने के लिए हर संभव कोशिश कर रही है। लेकिन इसके लिए सबसे जरुरी है पानी की समस्‍या को हल करना। इसलिए सरकार 80 हजार करोड़ रुपये की त्वरित सिंचाई लाभ कार्यक्रम (एआईबीपी) समेत विभिन्न योजनाओं के जरिए 2 हेक्‍टेयर भूमि को सिंचाई के दायरे में लाने का प्रयास कर रही है। इसके अलावा प्रधानमंत्री सिंचाई योजना के तहत भी 20 हजार करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है। गौरतलब है कि फिलहाल देश की करीब 46 फीसदी कृषि योग्य भूमि ही सिंचित है।

किसानों के कर्ज के जाल में फंसे होने और आत्‍महत्‍याओं पर अफसोस जताते हुए गडकरी ने कहा कि कहा, वह दिल्ली में किसानों के लॉबिस्ट हैं। किसानों की आवाज़ दिल्ली, मुम्बई तक पहुँच नहीं पाती। कृषि क्षेत्र में सुधार के लिए उन्‍होंने कई आइडिया दिए हैं।

विदर्भ में होगी अमूल की एंट्री 

वरिष्‍ठ केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने बताया कि देश की प्रमुख डेयरी कॉपरेटिव अमूल महाराष्ट्र् के सूखाग्रस्त विदर्भ क्षेत्र में 400 करोड़ रुपये की परियोजना स्थापित करना चाहती है। उन्‍होंने अमूल से विदर्भ में डेयरी शुरू करने का अनुरोध किया था। जिसके बाद इस दिशा में काम चल रहा है। गडकरी का कहना है कि अमूल के सहयोग से विदर्भ में दुग्ध उत्‍पादन चार से पांच गुना बढ़ सकता है।

सड़क किनारे वृक्षरोपण से मिलेगा रोजगार 

सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी का कहना है कि सड़क निर्माण में भी किसानों के लिए रोजगार के मौके आएंगे। करीब 1500 किमी. राजमार्गों के किनारे वृक्षारोपण की योजना है। इसके जरिये स्‍थानीय लोगों को आय के अवसर मुहैया कराए जाएंगे।

 

National Seminar on “Liberating the Farmers from Debt Trap”

The question is how do we revitalize the health of our economy and liberate the farmers from the debt trap. Have we failed on the policy front?

gadkariAccording to 70th round of NSS data for the year 2012-13, majority of the farmers in India do not earn enough even to meet their consumption needs. In years of drought or floods, their condition becomes miserable and desperate. The small and marginal farmers are the most vulnerable in this respect. During the past one and a half decade, about 3 lakh farmers have committed suicide.

The question is how do we revitalize the health of our economy and liberate the farmers from the debt trap. Have we failed on the policy front? What kind of policy reforms are needed to improve the socio-economic conditions of farmers in various regions? What are the key challenges to implement the needed policy reforms? We sincerely feel that there is a need to discuss in an integrated manner, all the relevant issues relating to the present agrarian distress and find out the ways to overcome the challenges.

To initiate a debate on this crucial agricultural policy challenge The Council for Social Development, New Delhi, Centre for Agricultural Policy Dialogue, New Delhi and Swabhimani Shetkari Sanghtana of Maharashtra are jointly organizing a National Seminar on “Liberating the Farmers from Debt Trap: Challenges of Policy Reforms in India” at the India International Centre, Annexe, New Delhi on June 14, 2016.

Participants in the inaugural session of the seminar include Sri. Nitin Gadkari, Union Minister of Surface Transport, Highways and Shipping, Prof. Arvind Panagariya, Vice Chairman, NITI Aayog, Sri. Sanjeev Balyan, Minister of State, Agriculture, Sri. Om Prakash Singh Dhankar, Minister of Agriculture Haryana, Sri. Feroze Varun Gandhi, M.P and Dr. Dalwai, Additional Sec. Ministry of Agriculture, Govt. of India.

About 70 persons including technical experts, Members of Parliament, senior government officials and representatives of NGOs and Farmers’ organisations are expected to participate in the seminar. The seminar will discuss the following issues:

(i) Alternative Models of Income and Social Security for the farmers;
(ii) Challenges of Agricultural Policy Reforms, including Agricultural Price and Market Reforms, Technology, Land Policy, Subsidies, Crop Insurance, Credit Sector Reforms etc.
(iii) Challenges of Climate change – Risk Mitigation and Adaptation Strategies.

कैसे उठाएंं प्रधानमंत्री बीमा योजना का फायदा? क्‍या हैं दिक्‍कतें?

योजना के व्‍यापक प्रचार-प्रसार के बावजूद अभी भी बहुत-से किसानों को जानकारी नहीं है कि फसल बीमा कैसे कराएं और क्‍लेम कैसे मिलेगा?

करीब चार महीने पहले किसानों को प्रकृति की मार और अचानक होने वाले नुकसान से बचाने के लिए केंद्र सरकार ने प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना का ऐलान किया था। इस खरीफ सीजन से किसानों को इस नई योजना का लाभ मिलना शुरू हो जाएगा। लगातार दो साल से सूखे की मार झेल रहे किसानों को बेसब्री से इस योजना का इंतजार है। योजना के बारे में व्‍यापक प्रचार-प्रसार के बावजूद अभी भी बहुत-से किसानों को जानकारी नहीं है कि फसल बीमा कैसे कराएं और क्‍लेम कैसे मिलेगा?

नई योजना में क्‍या है नया? 

  • पुरानी फसल बीमा योजनाओं में किसानों को 15 फीसदी तक प्रीमियम देना पड़ता था लेकिन नई बीमा योजना में किसानों के लिए प्रीमियम की राशि महज डेढ से 2 फीसदी रखी गई है। बागवानी फसलों के लिए किसानों को 5 फीसदी प्रीमियम देना होगा। बीमा का बाकी खर्च केंद्र और राज्‍य सरकारें मिलकर वहन करेंगी।
  • सरकारी सब्सिडी पर कोई ऊपरी सीमा नहीं है। भले ही शेष प्रीमियम 90% हो, यह सरकार द्वारा वहन किया जाएगा। पुरानी बीमा योजनाओं में सरकारी सब्सिडी की ऊपरी सीमा तय होती थी। जिसके चलते नुकसान की पूरी भरपाई नहीं हो पाती थी। नई स्कीम में बीमित राशि का पूरा क्‍लेम मिल सकेगा।
  • अभी तक देश में करीब 23 फीसदी किसान ही फसल बीमा के दायरे में आ पाए हैं। सरकार ने इस साल कम से कम 50 फीसदी किसानों तक फसल बीमा पहुंचाने का लक्ष्‍य रखा है।

-बैंकों से कर्ज लेने वाले किसानों के लिए फसल बीमा अनिवार्य है। यानी बैंक से कर्ज लेने वाले किसानों का बीमा बैंकों के जरिये हो जाएगा। लेकिन जिन किसानों ने बैंकों से कर्ज नहीं लिया, उन्‍हें बीमा के दायरे में लाने सरकार के लिए बड़ी चुनौती है।

– ओलाबारी, जलभराव और भू-स्‍खलन जैसी आपदाओं को स्थानीय आपदा माना जाएगा। स्थानीय आपदाओं और फसल कटाई के बाद नुकसान के मामले में किसान को इकाई मानकर नुकसान का आकलन किया जाएगा।

किस तरह के नुकसान कवर होंगे

बुवाई/रोपण में रोक संबंधित जोखिम: कम बारिश या प्रतिकूल मौसमी परिस्थितियों के कारण बुवाई/ रोपण में उत्पन्न रोक।

खड़ी फसल (बुवाई से कटाई तक के लिए): सूखा, अकाल, बाढ़, सैलाब, कीट एवं रोग, भूस्खलन, प्राकृतिक आग और बिजली, तूफान, ओले, चक्रवात, आंधी, टेम्पेस्ट, तूफान और बवंडर आदि के कारण उपज के नुकसान।

कटाई के उपरांत नुकसान: नई बीमा योजना में फसल कटाई के बाद होने वाले नुकसान की भरपाई हो पाएगी। अगर फसल कटाई के 14 दिन तक यदि चक्रवात, चक्रवाती बारिश और बेमौसम बारिश से उपज को नुकसान पहुंचता है तो किसान को बीमा क्‍लेम मिल सकता है।

स्थानीय आपदायें: अधिसूचित क्षेत्र में मूसलधार बारिश, भूस्खलन और बाढ़ जैसे स्थानीय जोखिम से खेतों को हानि/क्षति।

बीमा कराने पर कितना खर्च आएगा 

उदाहरण के तौर पर, प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में 30 हजार का बीमा कराने पर अगर प्रीमियम 22 प्रतिशत तय किया गया है तो किसान 600 रुपए प्रीमियम देगा और सरकार 6000 हजार रुपए का प्रीमियम देगी। शत-प्रतिशत नुकसान की दशा में किसान को 30 हजार रुपए की पूरी दावा राशि प्राप्त होगी।

-अगर किसी ग्राम पंचायत में 75 फीसदी किसान बुवाई नहीं कर पाएं तो योजना के तहत बीमित राशि का 25 फीसदी भुगतान मिलेगा।

25 फीसदी राशि तुरंत खातों में पहुंचााने का दावा 

सरकार का दावा है कि बीमा क्‍लेम के लिए लंबे समय तक इंतजार नहीं करना पड़ेगा। प्राकृतिक आपदा के बाद 25 फीसदी राशि किसान के खाते में तुरंत पहुंचेगीी जबकि बाकी भुगतान नुकसान के आकलन के बाद किया जाएगा।

किन किसानों को मिलेगा बीमा का लाभ?

सभी पट्टेदार/ जोतदार किसानों को प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना का लाभ मिल सकता है। योजना के तहत पंजीकरण कराने के लिए किसानों कों भूमि रिकॉर्ड अधिकार (आरओआर), भूमि कब्जा प्रमाण पत्र (एल पी सी) आदि आवश्यक दस्तावेजी प्रस्तुत करने होंगे।

गैर ऋणी किसानों के लिए यह योजना वैकल्पिक होगी।

कैसे कराएं फसल बीमा?

कृषि ऋण लेने वाले किसानों का बीमा उनके बैंक के जरिये होगा। जिन किसानों ने बैंक से कर्ज नहीं लिया है वे भी नोडल बैंक या भारतीय कृषि बीमा कंपनी (एआईसी) के स्‍थानीय प्रतिनिधि अथवा संबंधित पंचायत सचिव, ब्‍लाॅक के कृषि विकास अधिकारी या जिला कृषि अधिकारी के माध्‍यम से प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में अपना पंजीकरण करा सकते हैं।

भारत सरकार ने किसानों तक बीमा योजना को पहुंचाने के लिए एक बीमा पोर्टल भी शुरू किया है। जिसका वेब पता  है http://www.agri-insurance.gov.in/Farmer_Details.aspx

इसके अलावा एक एंड्रॉयड आधारित “फसल बीमा ऐप्प” भी शुरू किया गया है जो फसल बीमा, कृषि सहयोग और किसान कल्याण विभाग (डीएसी एवं परिवार कल्याण) की वेबसाइट से डाउनलोड किया जा सकता है।

फसल बीमा कराने के लिए जरुरी दस्‍तावेज?

-सरकारी पहचान-पत्र

-निवास प्रमाण-पत्र

-खसरा/खाता संख्या की प्रमाणित प्रति (बोये गए क्षेत्र के दस्तावेज़)

-बैंक खाता संख्या और रद्द किया गया चेक (बैंक विवरण के लिए)

  • एक हस्ताक्षरित भरा हुआ प्रस्ताव फॉर्म

फसल बीमा की पूरी प्रकिया ऑनलाइन होने और स्‍थानीय स्‍तर पर कर्मचारियों की कमी के चलते किसानों को फसल बीमा करवाने में कई तरह की दिक्‍कतें आ रही हैं। जनधन खाते खोलने के लिए बैंकों ने जिस प्रकार अभियान चलाए, वैसे तत्‍परता फसल बीमा को लेकर देखने में नहीं आ रही है।

फसल बीमा में असल दिक्‍कतें क्‍लेम लेते वक्‍त आनी शुरू होंगे। तभी नई योजना की खूबियां और खामियां पूरी तरह उजागर होंगी।

गेहूं पर आयात शुल्‍क वापस लेने की तैयारी, जानिए क्‍या होगाा असर?

केंद्र सरकार गेहूं की कीमतों में बढ़ोतरी के मद्देनजर आयात शुल्‍क वापस ले सकती है।

केंद्र सरकार गेहूं की कीमतों में बढ़ोतरी के मद्देनजर आयात शुल्‍क वापस ले सकती है। फिलहाल गेहूं पर 25 फीसदी आयात शुल्‍क है जिसकी वजह से विदेश से गेहूं का आयात करना महंगा साबित होता है। आयात शुल्‍क हटने के बाद सरकारी एजेंसियों और व्‍यापारियों के लिए विदेशी गेहूं मंगाने की राह आसान हो जाएगी।

उल्‍लेखनीय है कि इस साल गेहूं की सरकारी खरीद काफी कम रही है। पिछले साल इस अवधि तक कुल 280 लाख टन गेहूं की सरकारी खरीद हुई थी जबकि इस साल यह आंकड़ा सिर्फ 229 लाख टन रह पाया है। इस साल सूखे के कारण गेहूं उत्‍पादन में कमी और अंतरराष्‍ट्रीय बाजार में नरमी के रुख को भांपते हुए कई व्‍यापारियों ने विदेश से गेहूं खरीद के सौदे किए हैं।