दुनिया के प्रदूषित शहरों को कोपेनहेगन दिखा रहा है सुधार की राह

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भारत की राजधानी दिल्ली में प्रदूषण की समस्या काफी गंभीर बनी हुई है। कुछ महीने तो ऐसे होते हैं जब दिल्ली में सांस लेना मुश्किल हो जाता है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की जहरीली हवा लोगों को बीमार करने लगती है।

ऐसी स्थिति देश के कुछ शहरों की भी है। पूरी दुनिया में कई ऐसे शहर हैं जो लोगों को प्रदूषण की वजह से बीमार बना रहे हैं। इन शहरों में सुधार को लेकर बड़ी-बड़ी योजनाएं भी चल रही हैं। फिर भी नतीजा अक्सर ढाक के तीन पात ही नजर आता है।

ऐसे शहरों के लिए डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगन में हो रहे प्रयोगों में कई सबक हैं। डेनमार्क में सबसे अधिक लोग अगर किसी शहर में रहते हैं तो वह कोपेनहेगन ही है। राजधानी होने के नाते यहां काफी औद्योगिक गतिविधियां भी हैं।

इसके बावजूद इस शहर ने अपनी आबोहवा को सुधारने के लिए यह लक्ष्य तय किया है कि 2025 तक उसे अपनी ऊर्जा जरूरतों को न सिर्फ नवीकरणीय स्रोतों से पूरा करना है बल्कि अपनी जरूरत से अधिक ऊर्जा का उत्पादन इन स्रोतों से करना है। हरित गैसों का उत्सर्जन इस शहर से होगा ही नहीं।

अब सवाल यह उठता है कि कोपेनहेगन ने अब तक ऐसा क्या किया है कि उसे 2025 तक इस लक्ष्य को हासिल करने का भरोसा है। 2005 के स्तर से कोपेनहेगन ने अपने उत्सर्जन में 42 फीसदी की कमी की है। बिजली पैदा करने के लिए और अपनी दूसरी जरूरतों को पूरा करने के लिए जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल यहां के लोगों ने काफी कम कर दिया है।

पवन ऊर्जा उत्पादन के मामले में भी कोपेनहेगन ने पिछले कुछ सालों में काफी तरक्की की है। सार्वजनिक परिवहन के अपने ढांचे को भी इस शहर ने बहुत अच्छा कर लिया है। कोपेनहेगन में कोई भी ऐसी बसावट नहीं है जहां से 650 मीटर से अधिक दूरी पर मेट्रो स्टेशन हो।

वहीं दूसरी तरफ साइकिल के इस्तेमाल को बढ़ावा देने की दिशा में भी काफी काम हुआ है। व्यस्त सड़कों पर साइकिल के लिए तीन लेन बनाए गए हैं। शहर के 43 फीसदी लोग अपने काम पर जाने के लिए या पढ़ाई करने या अन्य किसी काम के लिए साइकिल का इस्तेमाल कर रहे हैं।

शहर के लोगों को जागरूक किया गया है कि उनके यहां से कम से कम कचरा निकला। जो कचरा निकलता है उससे बिजली बनाने का रास्ता भी शहर ने अपनाया है। इससे कोपेनहेगन में पड़ने वाली ठंढी से लोगों को निजात दिलाने के लिए घरों को गर्म रखने का काम किया जा रहा है।

हैरानी की बात यह है कि यहां बड़े बदलावों के लिए स्थानीय निकाय ने बड़ी पहल की है। राष्ट्रीय सरकार से इस शहर को इन कार्यों के लिए कोई बहुत बड़ी मदद नहीं मिली है।

आज जो कोपेनहेगन दिख रहा है, उसे देखकर लगता ही नहीं कि यह वही कोपेनहेगन जहां पहले काफी प्रदूषण था। यहां प्रदूषण फैलाने वाले कारखाने थे। कोयला इस्तेमाल करके बिजली बनाने वाले संयंत्र थे। हवा में धुआं-धुआं रहता था। प्रदूषण की वजह से लोग शहर छोड़कर जा रहे थे।

लेकिन इस शहर ने दिखाया है कि अगर लोगों को साथ लेकर ईमानदार कोशिश की जाए तो बदलाव संभव है। कोपेनहेगन ने जिस रास्ते को अपनाया है, उस पर दुनिया के दूसरे शहरों का चलना जरूरी है।

इसकी बड़ी वजह यह है कि पूरी दुनिया में जितनी इंसानी आबादी है, उसमें से आधे लोग दुनिया के अलग-अलग शहरों में ही रहते हैं। भारत की कुल आबादी में शहरी आबादी की हिस्सेदारी तकरीबन 31 फीसदी है। लेकिन ग्लोबल वार्मिंग बढ़ाने वाले गैसों के उत्सर्जन में शहरों की हिस्सेदारी काफी अधिक है।