किसान आंदोलन: मोर्चे पर महिलाएं हैं तो लीडरशिप में क्यों नहीं?

किसान आंदोलन के हर मोर्चे पर महिलाएं बढ़-बढ़कर हिस्सा ले रही हैं। हरी टोपी या पगड़ी से पहचानी जाने वाली किसान यूनियनों की एक नई तस्वीर उभरी है। इसी का नतीजा है कि विख्यात ‘टाइम’ मैग्जीन ने जब किसान आंदोलन को कवर स्टोरी बनाया था तो आंदोलनकारी महिलाओं की तस्वीर को अपने कवर पर जगह दी। लेकिन आंदोलन में इतनी सक्रिय भागीदारी के बावजूद किसान यूनियनों के शीर्ष नेतृत्व में महिलाओं को नाममात्र की जगह मिली है। हालांकि, इस स्थिति में बदलाव की उम्मीद भी किसान आंदोलन से जगी है।

महिलाएं किसान आंदोलन में मंच संभालती, ट्रैक्टर चलाती, नारे लगाती और घर से लेकर खेत-खलिहान तक की जिम्मेदारियां निभाती देखी जा सकती हैं। महिलाओं की इस भागीदारी ने आंदोलन को मजबूती देकर इसे ऐतिहासिक बना दिया है। लेकिन जब बात किसान संगठनों के नेतृत्व में हिस्सेदारी की आती है, तो महिलाओं का प्रतिनिधित्व बहुत कम दिखाई देता है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण है कृषि कानूनों पर सरकार से वार्ता करने वाले किसान नेताओं की फेहरिस्त!

केंद्र सरकार के साथ शुरुआती दौर की वार्ताओं में पंजाब की किसान यूनियनों के जिन 32 नेताओं को आमंत्रित किया गया था, उनमें एक भी महिला नहीं थी। किसान यूनियनों में पुरुषों के दबदबे को देखते हुए इसमें कोई आश्चर्य भी नहीं हुआ। ना ही किसी ने इस पुरुष प्रधान प्रतिनिधिमंडल पर सवाल उठाया। किसान यूनियन जिस ग्रामीण समाज का प्रतिनिधित्व करती हैं, वहां महिलाओं के लिए आगे बढ़ने के मौके वैसे भी कम हैं। इसी की झलक पुरुष वर्चस्व वाली किसान यूनियनों में दिखती है।

गौर करने वाली बात है कि यह सूची पंजाब के किसान नेताओं थी, जहां महिलाएं किसान आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही हैं। फिर भी 32 किसान नेताओं के इस प्रतिनिधिमंडल में किसी महिला को जगह नहीं मिली

जब सरकार से वार्ता करने वाले किसान नेताओं की संख्या 32 से बढ़कर 41 हुई, तब भी उनमें एकमात्र महिला प्रतिनिधि कविता कुरुघंटी को जगह मिली। कविता कर्नाटक से आती हैं और महिला किसानों के अधिकारों को लेकर कई वर्षों से संघर्ष कर रही हैं।

सरकार के साथ वार्ता में शामिल किसान प्रतिनिधमंडल की सूची

असलीभारत.कॉम के साथ बातचीत में कविता कुरुघंटी कहती हैं कि महिलाओं के प्रतिनिधित्व की जैसी स्थिति न्यायपालिका, राजनीति और समाज के बाकी क्षेत्रों में हैै, किसान यूनियनों का भी लगभग वैसा ही हाल है। लेकिन इस किसान आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी पहले के आंदोलनों के मुकाबले अधिक है। इससे किसान यूनियनों में कैडर, नेतृत्व और एजेंडा के स्तर पर महिलाओं की भूमिका बढ़ने की उम्मीद जगी है। कविता मानती हैं कि जब तक महिलाएं किसान यूनियनों के कैडर में नहीं आएंगी, तब तक लीडरशीप में भी नहीं आ पाएंगी। और न ही तब तक किसान यूनियनों के एजेंडे में महिला किसानों के मुद्दे जगह बना पाएंगे। ये सब चीजें एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं।

महिलाओं की उपेक्षा का अहसास कहीं न कहीं किसान यूनियनों को भी है। शायद इसलिए किसान मोर्चो पर महिला दिवस बड़े जोरशोर से मनाया गया। इससे पहले भी किसान आंदोलन का मंच एक दिन के लिए महिलाओं को सौंपने की पहल की गई थी। लेकिन यह बदलाव विरोध-प्रदर्शनों में महिलाओं की मौजूदगी के स्तर पर जितना नजर आता है, उतना संगठन के प्रमुख पदों पर उन्हें मौका देने के मामले में नहीं दिख रहा है। लीडरशिप में जगह मिलना तो दूर कई किसान यूनियनों में तो महिला प्रकोष्ठ या महिला विंग भी नहीं है।

हालांकि, भारती किसान यूनियन – एकता (उग्राहां), बीकेयू (दकौंडा) और पंजाब किसान यूनियन जैसे संगठन महिलाओं को लामबंद करने में जुटे हैं। खासकर बीकेयू-एकता (उग्राहां) के कार्यक्रमों में महिलाओं की भीड़ अलग ही दिखती है। 8 मार्च को टिकरी और सिंघु बॉर्डर पर जुटा महिलाओं का हुजूम किसान आंदोलन को एक नई ताकत दे गया। इसका असर देर-सवेर बाकी किसान यूनियनों में महिलाओं की भागीदारी पर भी पड़ेगा।

किसान आंदोलन में महिलाओं को एकजुट कर बीकेयू-एकता (उग्राहां) ने बड़ी मिसाल पेश की है।

किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत की विरासत संभाल रही भारतीय किसान यूनियन (अराजनीतिक) में जिला और प्रदेश स्तर पर तो महिला विंग है, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर महिला विंग का गठन नहीं हुआ है। भाकियू की उत्तर प्रदेश इकाई की अध्यक्ष केतकी सिंह कहती हैं कि वे पिछले 20 साल से भाकियू के साथ जुड़ी हैं। उन्हें उम्मीद है कि जल्द ही राष्ट्रीय स्तर पर भी भाकियू की महिला विंग का गठन किया जाएगा। भाकियू की मुरादाबाद महिला इकाई की अध्यक्ष निर्देश चौधरी बताती हैं कि वे 14 साल की उम्र से बीकेयू से जुड़ी हैं। लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर बीकेयू महिला विंग होने की जानकारी उन्हें भी नहीं है।  

किसान नेता राकेश टिकैत के साथ दिल्ली के गाजीपुर बॉर्डर पर उनके संगठन से जुड़ी निर्देश चौधरी (दायें)

पंजाब के किसान संगठनों ने जिस तरह महिलाओं को एकजुट किया है, उसका असर भी दिखने लगा है। पंजाब किसान यूनियन की राज्य समिति सदस्य जसबीर कौर नत कई वर्षों से किसानों के मुद्दों पर संघर्ष कर रही हैं। उनका मानना है कि जितनी बड़ी तादाद में महिलाओं ने इस आंदोलन में भागीदारी की है, किसान संगठनों में उनकी भूमिका निश्चित तौर पर बढ़ेगी। बीकेयू एकता उग्राहां की महिला विंग की अध्यक्ष हरिंदर कौर बिंदु किसान आंदोलन का जाना-पहचाना नाम बन चुकी हैं। इसी तरह बाकी किसान यूनियनों में भी महिला नेतृत्व उभर रहा है। अगर यह सिलसिला जोर पकड़ता है तो किसान आंदोलन सामाजिक बदलाव का माध्यम भी बन सकता है।

मध्य प्रदेश में किसान संघर्ष समिति की प्रदेश उपाध्यक्ष आराधना भार्गव का कहना है कि महिलाएं खेती-किसानी के सत्तर काम करती हैं, लेकिन जब फसल बेचने का समय आता है तो बागडोर पुरुषों के हाथ में रहती है। यही हाल किसान संगठनों का भी है। किसान आंदोलन के धरने-प्रदर्शनों में तो फिर भी कुछ महिलााएं दिख जाती हैं, लेकिन संगठनों के बड़े पदों पर उनकी भूमिका नगण्य है।

सामाजिक कार्यकर्ता मनीषा अहलावत मानती हैं कि पंजाब के किसान संगठनों के मुकाबले यूपी की किसान यूनियनों में महिलाओं की भागीदारी काफी कम है। महिलाओं के घरों से बाहर निकले बगैर किसान यूनियनों में उनकी भूमिका बढ़ने वाली नहीं है। किसान यूनियनों के नेताओं और खाप के चौधरियों को भी अपनी यह सोच बदलनी होगी कि महिलाओं को मौका देने से वे हाथ से निकल जाएंगी।

किसान आंदोलन में 75 साल की बुजुर्ग महिलाओं से लेकर नौदीप कौर और नवकिरण नत जैसी युवा एक्टिविस्ट किसानों की आवाज उठा रही हैं। इनका संघर्ष भी महिलाओं के प्रति किसान यूनियनों के दृष्टिकोण को बदलेगा। अगर वाकई ऐसा हुआ तो यह किसान आंदोलन की बड़ी उपलब्धि होगा, जिससे ग्रामीण भारत में महिलाओं की स्थिति सुुधर सकती है।

महिला किसान – अधिकार और पहचान का इंतजार

तीन साल पहले मैंने एक किसान प्रशिक्षण शिविर में भाग लिया था। उत्तर प्रदेश के बांदा जिले के एक गांव में प्रगतिशील किसान प्रेम सिंह ने आवर्तनशील खेती के बारे में प्रशिक्षण शिविर आयोजित किया था। इसमें देश भर से किसान भाग लेने पहुंचे थे। वहां पहुंचकर पता चला कि मुझे छोड़कर सभी प्रतिभागी पुरुष हैं। आश्चर्य हुआ, क्योंकि अक्सर ये देखा गया है कि खेती में महिलाओं की भागीदारी पुरुषों के बराबर ही रहती है।

हमारे कृषि प्रधान देश में जब भी किसान की बात होती है तो एक पुरुष की छवि ही दिमाग में आती है। अक्सर आप देखेंगे कि रेडियो, टेलीविजन आदि पर जब किसान से संबंधित कार्यक्रम दिखाते हैं तो उनमें प्रायः पुरुष ही दिखायी देते हैं। ट्रैक्टर, खाद वगैरह के विज्ञापनों में भी अक्सर पुरुष किसान ही दिखते हैं। कोई किसान हाट हो, मेला हो या किसान आंदोलन हो, या किसान नेता हों, सभी जगहों पर पुरुष ही दिखाई देते हैं। इसी के चलते एक महिला किसान की छवि सहज ही ध्यान में नहीं आती।

महिलाएं खेत में मजदूर की तरह ही दिखाई पड़ती हैं। हालांकि यह अवधारणा गलत है कि किसानी में महिलाओं का योगदान केवल मजदूरी तक सीमित है। दरअसल, खेती की जमीन पर मालिकाना हक न के बराबर होने के कारण महिलाओं को पुरुषों के बराबर या पुरुषों की तरह एक किसान की पहचान नहीं मिल पायी है। महिला किसान का ना तो राजनीति में प्रतिनिधित्व है और ना ही कृषि अर्थव्यवस्था में।

सोचिए, जो महिलाएं बीज बुआई से लेकर फसल कटाई तक सभी कामों में बराबर हाथ बंटाती हैं, उनका ना कहीं प्रतिनिधित्व है ना ही भू-स्वामित्व। खेत से निकलते ही फसल के विक्रय, व्यय संबंधित सभी निर्णय पुरुष ही करते हैं। महिला किसान एक आम गृहिणी की तरह पति, भाई या बेटे के अधीन ही रहती है। अपने ही हाथों से उगाए अन्न में उसका व्यावसायिक हिस्सा नहीं रहता। क्या यह किसी और व्यवसाय में सम्भव है? पुरुषों के बराबर या अधिक काम करके भी कमाई व खर्च में स्त्रियों की हिस्सेदारी न के बराबर है। महिलाएं अपने परिश्रम से सींचकर भी कृषि भूमी पर अपना हक नहीं जमा पातीं।

पितृसत्ता के चलते वैसे ही महिलाओं की भागीदारी सभी प्रकार की संपत्तियों में कम ही होती है। लेकिन कृषि भूमि में मालिकाना हक आय से भी जुड़ा होता है। कृषि भूमि के दस्तावेजों में नाम ना होने के कारण महिलाएं किसान क्रेडिट कार्ड, किसान बीमा या अन्य कृषि योजनाओं का लाभ नहीं उठा पाती हैं। महिलाओं के आर्थिक सशक्तीकरण और निवेश के लिए प्रोत्साहन देने के लिए सुरक्षित भूमि अधिकार आवश्यक हैं। तभी महिलाएं अपने हिसाब से खेती की कमाई को खर्च या निवेश करने के सभी फैसले ले पाएंगी। महिलाओं को मिला भूमि स्वामित्व पूरे परिवार की वित्तीय स्थिरता के लिए एक ठोस आधार प्रदान करता है।

भूमि पर मालिकाना हक महज एक कागज का टुकड़ा नहीं होता। भूमि स्वामित्व से जो आत्मशक्ति मिलती है, उसका प्रभाव नारी अधिकार और सम्मान पर भी पड़ता है। सदियों से महिलाओं को पुरुष से निचले दर्जे पर रखा गया है, उसका एक कारण संपत्ति अधिकार का ना होना भी है। मालिकाना हक मिलने से जो स्वाभिमान और गौरव का सुख मिलता है, महिलाएं उससे ताउम्र वंचित रह जाती हैं। महिलाओं को भूमि स्वामित्व मिलने से एक सामाजिक “पावर-बैलेन्स” भी बनेगा जिसमें स्त्री हो या पुरुष सभी को बराबर का दर्जा मिले। पति की मृत्यु के उपरांत पत्नी की बजाय पुत्र या भाई को कृषि भूमि पर अधिकार मिलने की वजह से विधवा स्त्रियों की दुर्दशा छुपी नहीं है। दूसरा, नौकरी या मजदूरी की तलाश में शहर जाने वाले छोटे किसान खेती की जिम्मेदारी घर की महिलाओं पर ही छोड़कर जाते हैं। इसलिए यह कहना कि महिलाएं खेती कैसे संभालेंगी, एक दुष्प्रचार के सिवा कुछ नहीं है। क्योंकि वैसे भी आधी से ज्यादा खेती का काम महिलाएं ही संभाल रही हैं। यह बात कई शोध में सामने आ चुकी है।

भारतीय महिलाओं को भूमि अधिकार ना मिलने के कई कारणों में कानूनी जागरूकता की कमी और पारिवारिक विरोध मुख्य हैं। LANDESA नामक संगठन भारत सहित सम्पूर्ण विश्व में महिला भूमि अधिकार के क्षेत्र में काफी सक्रिय है। “महिलाओं के लिए, भूमि स्वामित्व वास्तव में एक सर्वोपरि, सर्वप्रथम अधिकार है – इसके बिना, मूल अधिकारों और सभी महिलाओं के उत्थान व सुधार के प्रयासों में बाधा उत्पन्न होती रहेगी।” – यह LANDESA संगठन के चीफ प्रोग्राम ऑफिसर कैरोल बोर्डों का कथन है। यह संगठन वर्ल्ड बैंक के साथ मिलकर “STAND FOR HER LAND” नामक अभियान के माध्यम से गांवों और समुदायों में महिलाओं के लिए भूमि अधिकार को एक वास्तविकता बनाने में जुटा है।

पुरुषों को करीब 90% भू-स्वामित्व मिलने से ही हमारा देश पुरुष-प्रधान बना है। विश्व के सभी आर्थिक रूप से उन्नत राष्ट्र पुरुष-प्रधान व्यवस्था से निकल कर एक न्याय-संगत और लैंगिक समानता वाले समाज में बदल रहे हैं। केवल कानून लाने से यह बदलाव संभव नहीं है। आर्थिक विकास के साथ साथ एक सामाजिक क्रांति वर्तमान समय की जरूरत है। अब हमें ऐसे युग की ओर बढ़ना है जिसमें स्त्री-पुरुष, शिवा-शक्ति की तरह साथ मिलकर हमारे देश की कृषि अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ायें। कृषि से जुड़े हर पहलू में बिना महिलाओं की बराबर भागीदारी के यह संभव नहीं है। सभी किसान भाई अपने घर की महिलाओं को खेती में बराबर अधिकार और सम्मान दें। उन्हें आगे बढ़ने का मौका दें, प्रतिनिधित्व करने दें। जब कोई एक किसान की कल्पना करे तो महिला किसान की तस्वीर भी मन में आए। महिला किसान को उनकी अपनी पहचान मिल सके।

किसानों को सस्ती बिजली, महिलाओं को मंडियों में जगह लेकिन गौमाता की उपेक्षा

शुक्रवार को हरियाणा के मुख्यमंत्री  मनोहर लाल खट्टर ने अपने दूसरे कार्यकाल का पहला बजट पेश करते हुए खेती-किसानी से जुड़ी कई घोषणाएं की। खट्टर राज्य के वित्त मंत्री भी हैं। इस हैसियत से वित्त वर्ष 2020-21 का बजट पेश करते हुए उन्होंने किसानों को कृषि से जुड़ी आर्थिक गतिविधियों के लिए 4.75 रुपये प्रति यूनिट की दर से बिजली देने का ऐलान किया है। अभी 7.50 रुपये प्रति यूनिट के हिसाब से बिजली बिल देना पड़ता है। इस तरह अब हरियाणा के किसानों को कृषि आधारित गतिविधियों जैसे फूड प्रोसेसिंग, पैकिंग, ग्रेडिंग, मधुमक्खी पालन, मत्स्य पालन, मुर्गी पालन और एफपीओ द्वारा स्थापित कोल्ड स्टोरेज आदि के लिए प्रति यूनिट 2.75 रुपये सस्ती बिजली मिलेगी।

गत विधानसभा चुनाव में दुष्यंत चौटाला की जननायक जनता पार्टी (जेजेपी) के उभार और भाजपा की सीटों में आई कमी को किसानों की नाराजगी से जोडकर देखा गया था। इसलिए उम्मीद की जा रही थी कि मुख्यमंत्री मनोहर लाल किसानों की नाराजगी दूर करने के लिए बजट में बड़े ऐलान करेंगे। किसानों को सस्ती बिजली देकर मुख्यमंत्री मनोहर लाल ने किसानों को साधाने का प्रयास जरूर किया है, लेकिन कृषि संकट दूर करने और खेती को फायदा का सौदा बनाने की कारगर तैयारी इस बजट में भी नहीं है।

1 लाख एकड़ में जैविक व प्राकृतिक खेती का लक्ष्य, मगर बजट का आंकड़ा नदारद  

जैविक और प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने के लिए हरियाणा सरकार ने अगले तीन साल में 1 लाख एकड़ क्षेत्र में जैविक व प्राकृतिक खेती के विस्तार का लक्ष्य रखा है। लेकिन इसके लिए राज्य सरकार कितना पैसा खर्च करेगी, मुख्यमंत्री ने यह नहीं बताया। कहीं इस योजना का हश्र भी केंद्र सरकार की जीरो बजट खेती की तरह न हो जाए, जिसका जिक्र तो खूब हुआ लेकिन जमीन पर कुछ खास असर नहीं दिखा।

महिला किसानों को तवज्जो

हरियाणा के बजट में महिला किसानों के लिए दो अहम घोषणाएं की गई हैं। अब राज्य की सभी सब्जी मंडियों में महिला किसानों के लिए अलग से 10 फीसदी जगह आरक्षित होगी। इसके अलावा किसान कल्याण प्राधिकरण में विशेष महिला सेल की स्थापना की जाएगी। गौरतलब है कि यह प्रावधान सिर्फ सब्जी मंडियों में लागू होगा, ना कि प्रदेश की सभी कृषि उपज मंडियों में। 

बढ़ा ब्याज मुक्त कर्ज का दायरा, लेकिन शर्त भी अजीब

मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर ने ब्याज मुक्त कर्ज की सुविधा को सहकारी संस्थाओं के अलावा उन किसानों को भी देने का ऐलान किया है जो किसी भी राष्ट्रीयकृत बैंक या सहकारी बैंक से प्रति एकड़ 60 हजार रुपये का अधिकतम 3 लाख रुपये का फसली कर्ज लेते हैं। लेकिन यह सुविधा किसान को तभी मिलेगा, जब वह समय पर कर्ज अदा करेगा। इसके अलावा एक अजीब शर्त यह है कि किसान की फसल खरीद की पेमेंट सीधा उस बैंक के खाते में जाएगी जिस बैंक से कर्जा लिया है। यह शर्त पुराने साहूकारी सिस्टम की याद दिलाती है।

बागवानी पर भी जोर, अनुदान बढ़ाया

हरियाणा सरकार ने 2030 तक प्रदेश में बागवानी के क्षेत्र को दोगुना और बागवानी उत्पादन तीन गुना करने का लक्ष्य रखा है। इसके लिए किन्नू, अमरुद और आम के बागों की स्थापना के लिए मिलने वाले अनुदान को 16 हजार रुपये से बढ़ाकर 20 हजार रुपये प्रति एकड़ कर दिया है।

फूड प्रोसेसिंग को बढ़ावा देने के लिए टमाटर, प्याज, आलू, किन्नू, अमरूद, मशरूम, स्ट्राबेरी, अदरक, गोभी, मिर्च, बेबीकॉर्न, स्टीवकॉर्न की प्रोसेसिंग के लिए प्रदेश में नई इकाइयां स्थापित की जाएंगी। खाद्य उत्पादों की पैकिंग और ब्रांडिंग के साथ बिक्री के लिए वीटा व हैफेड की तर्ज पर प्रदेश में 2 हजार आधुनिक सेंटर स्थापित किए जाएंगे।

बेसहारा गौवंश के लिए सिर्फ 50 करोड़ रुपये!

गौमाता को लेकर खूब राजनीति करने वाली भारतीय जनता पार्टी की हरियाणा सरकार ने गौशालाओं में बेसहारा पशुओं के नियंत्रण व आश्रय के लिए सिर्फ 50 करोड़ रुपये का प्रावधान किया है। पिछले साल तो इस मद में सिर्फ 30 करोड़ रुपये रखे गए थे। जबकि आवारा पशुओं की समस्या विकराल रूप ले चुकी है। लेकिन कृषि और किसान कल्याण के लिए आवंटित 6,481 करोड़ रुपये के बजट में से बेसहारा पशुओं के हिस्से में सिर्फ 50 करोड़ रुपये आए हैं, जो बजट का 1 फीसदी भी नहीं है।