हरियाणा सरकार की प्रस्तावित अरावली जंगल सफारी को कानूनी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. जंगल के पारिस्थितिकी तंत्र पर इसके संभावित प्रतिकूल प्रभाव का हवाला देते हुए सुप्रीम कोर्ट के समक्ष एक याचिका दायर की गई है. विशेष रूप से पर्यावरण और वन मामलों से निपटने वाली एक विशेष पीठ के समक्ष दायर एक आवेदन में, याचिकाकर्ताओं – गुरुग्राम स्थित पर्यावरण कार्यकर्ता वैशाली राणा, विवेक कंबोज और रोमा जसवाल – ने कहा है कि अरावली एक विविध पारिस्थितिकी तंत्र का घर है जो इस कदम के कारण संभावित रूप से खतरे में पड़ सकता है.
याचिका में कहा गया है, “अरावली पहाड़ियां, जो पृथ्वी पर सबसे पुरानी पर्वत श्रृंखलाओं में से एक है, पश्चिम भारतीय जलवायु और जैव विविधता को आकार देने वाली प्रमुख भू-आकृतियां हैं. अरावली अपने हरे-भरे जंगलों के साथ हरित अवरोधक के रूप में काम करती थी और मरुस्थलीकरण के खिलाफ एक प्रभावी ढाल के रूप में काम करती थी.” इसका उल्लेख याचिकाकर्ताओं के वकील गौरव बंसल ने बुधवार को पीठ के समक्ष किया था.
याचिका में कहा गया है कि हरियाणा सरकार ने जंगल सफारी के लिए एक जैव विविधता पार्क के विकास के लिए “रुचि” दिखाई है. इसका दायरा हरियाणा के गुरुग्राम और नूंह जिलों में फैली 10,000 एकड़ वन भूमि में है.
न्यायमूर्ति बी.आर. गवई की अध्यक्षता वाली एससी पीठ ने याचिकाकर्ताओं से याचिका की एक प्रति अदालत द्वारा नियुक्त केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति (सीईसी) को सौंपने के लिए कहा है, जो विशेषज्ञों का एक पैनल है जो पारिस्थितिक रूप से नाजुक क्षेत्रों में परियोजनाओं पर विचार करता है और सिफारिशें करता है.
वकील गौरव बंसल ने दिप्रिंट को बताया कि आवेदन का उल्लेख तब किया गया था जब अदालत उत्तराखंड के जिम कॉर्बेट राष्ट्रीय उद्यान में जंगल सफारी पर एक अन्य याचिका पर सुनवाई कर रही थी.
प्रस्तावित परियोजना को कानूनी चुनौती हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर द्वारा इसकी आधारशिला रखने के लिए प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को आमंत्रित करने के एक दिन बाद आई है. समारोह की तारीख अभी तय नहीं हुई है.
टिप्पणी के लिए संपर्क किए जाने पर, हरियाणा पर्यटन के प्रमुख सचिव एम.डी. सिन्हा ने कहा कि राज्य सरकार को अभी तक कोई नोटिस नहीं मिला है, लेकिन उन्होंने यह कहते हुए आगे कोई टिप्पणी करने से इनकार कर दिया कि मामला “न्यायाधीन” है. उन्होंने कहा, “हमें जो कुछ भी कहना है, हम अकेले अदालत में कहेंगे.”
हरियाणा सरकार प्रस्तावित अरावली जंगल सफारी को तीन चरणों में निष्पादित करने की योजना बना रही है.
प्रस्ताव के अनुसार, सफारी को एक जैव विविधता पार्क की तरह विकसित किया जाएगा और इसका लक्ष्य “स्थानीय/देशी वनस्पतियों और जीवों की स्थापना करना; पारिस्थितिकी को संरक्षित और समृद्ध करने के लिए समग्र मृदा जल व्यवस्था में सुधार करना; भूजल पुनर्भरण; वन्य जीवन के लिए आवास में सुधार; बफर-स्थानीय मौसम; CO2 और अन्य प्रदूषकों के लिए सिंक के रूप में कार्य करें; क्षेत्र की प्राकृतिक विरासत का संरक्षण करें; जनता और छात्रों के बीच पर्यावरण जागरूकता को बढ़ावा देना; एक जीवित प्रयोगशाला के रूप में काम और जनता को मनोरंजक मूल्य प्रदान करना” था. इसकी जानकारी द इंडियन एक्सप्रेस की 5 जुलाई की रिपोर्ट के अनुसार मिली.
आमतौर पर नदियों से होने वाले अवैध और अवैज्ञानिक रेत खनन को पर्यावरण और जलीय जीवों पर खतरे के रूप में देखा जाता है. लेकिन इसका एक और स्याह पक्ष भी है, जो न तो सरकारी फाइलों में दर्ज होता है और न कहीं इसकी सुनवाई होती है. ये है रेत खनन के चलते हर साल जान गंवाने वाले सैकड़ों लोग और इसके चलते बिखरने वाले उनके परिवार.
हरियाणा निवासी धर्मपाल को इस स्याह पक्ष को अब ताउम्र भोगना होगा. साल 2019 के जुलाई महीने में उनके बेटे संटी (18 साल) और भतीजे सुनील (15 साल) की सोम नदी में डूबने से मौत हो गई. यमुनानगर ज़िले के कनालसी गांव के रहने वाले धर्मपाल के भाई तेजपाल के मुताबिक दोनों भाई नदी में नहाने गए थे. नदी में खनन की वजह से कई गहरे गड्ढे बन गए थे. किसी को पता नहीं था कि यहां खनन हो रहा है.
उन्होंने मोंगाबे-हिंदी से कहा, “हमने दो महीने तक पुलिस-प्रशासन के चक्कर काटे. ज़िलाधिकारी के पास भी गए. हमारी शिकायत नहीं सुनी गई. बच्चों की मौत पर मुआवजा भी नहीं मिला. हम मज़दूर हैं. कितने दिन काम छोड़कर जाते. उस दिन के बाद से हम अपने बच्चों को नदी की तरफ जाने ही नहीं देते.” धर्मपाल के पास अब भी बेटे की मौत से जुड़े दस्तावेज़ संभाल कर रखे हुए हैं. वह अदालत में केस दाखिल करने की तैयारी में हैं. परिजनों के मुताबिक जिलाधिकारी ने कहा कि दोनों बच्चे बालिग नहीं थे. वे खुद नदी में नहाने गए थे. इसलिए गलती उनकी थी. इस मामले में कुछ नहीं किया जा सकता.
कनालसी गांव के पास यमुना, सोम और थपाना नदियों का संगम है. इसी गांव के रहने वाले और यमुना स्वच्छता समिति से जुड़े किरनपाल राणा बताते हैं कि 2014 में उनके क्षेत्र में खनन शुरू हुआ. तब से सिर्फ उनके गांव से ही पांच बच्चों की मौत नदी में डूबने से हो चुकी है. वह बताते हैं कि सोम नदी में तो खनन की अनुमति भी नहीं है. वहां चोरी-छिपे खनन होता है.
वर्ष 2019 में संटी और सुनील की सोम नदी में बने कुंड में डूबने से मौत हुई थी. दोनों चचेरे भाई थे. मृतक की तस्वीर के साथ तेजपाल और उनकी पत्नी.
किरनपाल कहते हैं, “प्रशासन मानने को तैयार नहीं है कि खनन के लिए खोदे गए गड्ढ़ों में डूबने से बच्चों की मौत हुई है. उन बच्चों को नहीं पता था कि मशीनों से नदी में 30 फुट तक गहरे गड्ढे खोद दिए गए हैं. न ही वहां चेतावनी के लिए कोई बोर्ड था. खनन विभाग, यमुनानगर प्रशासन और हरियाणा सरकार ने उनकी कोई मदद नहीं की. उन बच्चों का पोस्टमार्टम तक नहीं कराया गया. बच्चे गांव के घाटों पर खेलने और तैरने के लिए जाते थे. अब उन बच्चों को यही नदी डराने लगी है.” हरियाणा में नदी में रेत खनन की सीमा तीन मीटर गहराई तक ही तय है.
वहीं हरियाणा हाईकोर्ट में वकील सुनील टंडन कहते हैं, “मेरे पास इस समय कनालसी गांव और इसके नजदीक के दो गांवों के तीन केस हैं जिनमें छः किशोरों की मौत हुई है. इन मौतों की सबसे बड़ी वजह खनन है. साथ ही सिंचाई विभाग की लापरवाही भी है. नदी के किनारों को भी सुरक्षित नहीं बनाया गया है. नदी कहीं 10 फुट गहरी है तो कहीं 30 फुट. खनन हो रहा है तो वहां कोई सिक्योरिटी गार्ड या नोटिस बोर्ड होना चाहिए. ताकि नदी किनारे रह रहे लोगों को सतर्क किया जा सके.”
रेत की मांग काफी अधिक है. वैश्विक स्तर पर सालाना पांच हजार करोड़ मीट्रिक टन रेत और बजरी का इस्तेमाल होता है. चीन के साथ भारत भी ऐसा देश है जहां रेत बनने की गति से अधिक इसका खनन होता है. अधिक मांग की वजह से भारत को कंबोडिया और मलेशिया जैसे देशों से रेत आयात करना पड़ता है. रेत की मांग अधिक होने की वजह से इसका खनन, खासकर अवैध खनन काफी फल फूल रहा है.
भारत सरकार ने वर्ष 2016 में टिकाऊ खनन के मद्देनजर एक दिशा-निर्देश प्रकाशित किया था. हालांकि इस दिशा-निर्देश का गंभीरता से पालन नहीं होता.
जानलेवा बनता रेत खनन
गैर-सरकारी संस्था साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर्स एंड पीपल (एसएएनडीआरपी) ने दिसंबर 2020 से मार्च 2022 तक, 16 महीने में रेत खनन की वजह से होने वाली दुर्घटनाओं और हिंसा के मामलों का मीडिया रिपोर्टिंग के आधार पर अध्ययन किया है.
इसके मुताबिक इस दौरान रेत खनन से जुड़ी वजहों के चलते देशभर में कम से कम 418 लोगों की जान गई है. 438 घायल हुए हैं. इनमें 49 मौत खनन के लिए नदियों में खोदे गए कुंड में डूबने से हुई हैं. ये आंकड़े बताते हैं कि खनन के दौरान खदान ढहने और अन्य दुर्घटनाओं में कुल 95 मौत और 21 लोग घायल हुए. खनन से जुड़े सड़क हादसों में 294 लोगों की जान गई और 221 घायल हुए हैं. खनन से जुड़ी हिंसा में 12 लोगों को जान गंवानी पड़ी और 53 घायल हुए हैं. अवैध खनन के खिलाफ आवाज़ उठाने वाले कार्यकर्ताओं/पत्रकारों पर हमले में घायल होने वालों का आंकड़ा 10 है. जबकि सरकारी अधिकारियों पर खनन माफिया के हमले में 2 मौत और 126 अधिकारी घायल हुए हैं. खनन से जुड़े आपसी झगड़े या गैंगवार में 7 मौत और इतने ही घायल हुए हैं.
दिसंबर 2020 से मार्च 2022 के बीच देश के उत्तरी राज्यों उत्तर प्रदेश, हरियाणा, उत्तराखंड, पंजाब, दिल्ली, जम्मू-कश्मीर और चंडीगढ़ में सबसे ज्यादा 136 मौत हुई हैं. इनमें से 24 मौत खनन के लिए खोदे गए गड्ढों में डूबने से हुई हैं.
यमुना स्वच्छता समिति से जुड़े कनालसी गांव के किरणपाल राणा दिखाते हैं कि यमुना में तय सीमा से कहीं अधिक गहराई में खनन के लिए कुंड खोदे गए हैं
नदियों को खनन से बचाने के लिए आंदोलनरत हरिद्वार के मातृसदन आश्रम ने 29 अप्रैल को उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के नाम ज्ञापन भेजा. इसमें कहा गया, “हरिद्वार में खनन का माल ले जाने वाले डंपर की चपेट में आने और खनन के लिए बनाए गए गड्ढ़ों में गिरने से आए दिन लोग मर रहे हैं. हालिया आंकड़े 50 से भी ज्यादा हैं. बीते 10 सालों में कितनी मौत हुईं, यह अनुमान लगाना भी कठिन है.”
मातृसदन के ब्रह्मचारी सुधानंद बताते हैं कि स्थानीय मीडिया रिपोर्टिंग के आधार पर हमने ये आकलन किया. गंगा के किनारे कई जगह 30-30 फीट गहरे ग़ड्ढ़े हैं. इनमें नदी का पानी भरा रहता है. अनजाने में लोग इन ग़ड्ढ़ों में गिरते हैं और दुर्घटनाएं होती हैं.
ये आंकड़े इससे कहीं ज्यादा भी हो सकते हैं क्योंकि इसमें सिर्फ अंग्रेजी भाषा के अखबारों में छपी खबरें ही शामिल हैं. क्षेत्रीय या भाषाई अखबारों में छपी खबरें नहीं. इस अध्ययन को करने वाले एसएएनडीआरपी के एसोसिएट कॉर्डिनेटर भीम सिंह रावत कहते हैं, “खनन के चलते होने वाली मौत या सड़क दुर्घटनाओं को नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) सामान्य सड़क दुर्घटना के रूप में दर्ज करता है. जबकि खनन के मामले में तेज़ रफ्तार में वाहन चलाना, पुलिस चेकपोस्ट से बचने की कोशिश, गलत तरह से सड़क किनारे खड़े किए गए रेत-बजरी से लदे ट्रकों के चलते हादसे हो रहे हैं. नदी में बहुत ज्यादा खनन से बने कुंड में डूबने से होने वाली मौत को भी एनसीआरबी को अलग से देखने की जरूरत है.”
एनसीआरबी की रिपोर्ट में सड़क दुर्घटना, तेज़ रफ्तार, ओवर-लोडिंग, डूबने या दुर्घटनाओं जैसी श्रेणियां होती हैं. लेकिन खनन के चलते होने वाली दुर्घटनाओं को अलग श्रेणी में नहीं रखा जाता.
उत्तराखंड के स्टेट क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एससीआरबी) में दुर्घटनाओं से जुड़ा डाटा तैयार कर रही सब-इंस्पेक्टर प्रीति शर्मा बताती हैं, “हम डाटा में उल्लेख करते हैं कि प्रकृति के प्रभाव के चलते डूबने से मौत हुई. खनन के चलते बने कुंड में डूबने, बाढ़ या अन्य वजह से डूबने की श्रेणी निर्धारित नहीं है.”
एनसीआरबी के लिए सड़क दुर्घटनाओं का डाटा तैयार करने वाले सब-इंस्पेक्टर मनमोहन सिंह बताते हैं कि सड़क हादसे में होने वाली मौत के मामलों में ओवर-लोडिंग और तेज़ रफ्तार जैसी करीब 35 श्रेणियां होती हैं. ऐसी कोई श्रेणी नहीं है जिसमें हम ये दर्ज करें कि खनन से जुड़े वाहन के चलते दुर्घटना हुई. इस बारे में एनसीआरबी के अधिकारियों का ईमेल के जरिए पक्ष जानने की कोशिश की गई. उनका जवाब मिलने पर इस खबर को अपडेट किया जाएगा.
यमुना किनारे रेत खनन का असर स्थानीय लोगों के जीवन पर भी पड़ रहा है.
एसएएनडीआरपी के कोऑर्डिनेटर हिमांशु ठक्कर खनन के लिए स्थानीय समुदाय को साथ लेकर निगरानी समिति बनाने का सुझाव देते हैं. इनका कहना है, “सरकारी अधिकारियों को कैसे पता चलेगा कि खनन किस तरह हो रहा है. इसमें लोगों की भागीदारी जरूरी है. नदी किनारे रहने वाले लोगों को पता होता है कि खनन वैध है या अवैध. दिन या रात, मशीन या लोग, बहती नदी या नदी किनारे, किस स्तर तक खनन हो रहा है. स्थानीय लोग अहम कड़ी हैं. वे निगरानी में शामिल होंगे तभी इसका नियमन ठीक से किया जा सकेगा.”
जवाबदेही तय हो!
वेदितम संस्था से जुड़े पर्यावरण कार्यकर्ता सिद्धार्थ अग्रवाल कहते हैं, “खनन से जुड़े मामलों में पारदर्शिता लाना सबसे ज्यादा जरूरी है. ये सार्वजनिक होना चाहिए कि देशभर में रेत खनन के लिए कहां-कहां अनुमति दी गई है. अवैध या अनियमित खनन पर केंद्र या राज्य स्तर पर क्या कार्रवाई की जा रही है. मुश्किल ये है कि खनन से जुड़े मामलों में सरकार की तरफ से कोई दृढ़ इच्छाशक्ति नहीं दिखाई देती.”
रीवर ट्रेनिंग नीति के मुताबिक हर साल बरसात के बाद नदी में कितना रेत-बजरी-पत्थर और मलबा जमा होता है इसी आधार पर ये तय किया जाता है कि अक्टूबर से मई-जून तक खनन के दौरान नदी से कितना उपखनिज निकाला जा सकता है. वन विभाग हर वर्ष ये खनन रिपोर्ट तैयार करता है. आईआईटी कानपुर में डिपार्टमेंट ऑफ अर्थ साइंस में प्रोफेसर राजीव सिन्हा मानते हैं कि नदी में तय सीमा से अधिक गहराई में खनन होता ही है. “हमने हल्द्वानी में गौला नदी के अंदर सर्वे किया. खनन की मात्रा के आकलन का बेहतर वैज्ञानिक तरीका तैयार करने पर हम काम कर रहे हैं. लेकिन ये कानून-व्यवस्था से जुड़ा मामला भी है. नदी में खनन से बने कुंड से होने वाली मौत इसका एक नतीजा हैं. साथ ही इससे नदी का पूरा इकोसिस्टम बदल जाता है.” सर्वे का काम अभी जारी है.
सरकार ने रेत खनन की मॉनीटरिंग और लगातार निगरानी से जुड़े दिशा-निर्देश जारी किए हैं. नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने अपने एक आदेश में कहा था कि दिशा-निर्देशों के होते हुए भी ज़मीनी स्तर पर अवैध खनन हो रहा है और ये सबको अच्छी तरह पता है.
फरीदाबाद के खोरी गांव में करीबन 10 हजार परिवारों के सर से छत छिन जाने का खतरा मंडराया हुआ है. इन परिवारों को सुप्रीम कोर्ट ने भी झटका दिया है. सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को फरीदाबाद के खोरी गांव के करीब 10 हजार घरों को छह हफ्ते के भीतर ढहाने के अपने पूर्व आदेश में बदलाव करने से इनकार कर दिया है. एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए जस्टिस ए एम खानविलकर और जस्टिस दिनेश महेश्वरी की पीठ ने यह आदेश दिया है. याचिका में घरों को ढहाने की कार्रवाई पर रोक लगाने की मांग की गई थी. इन परिवारों के घरोंं को गिराए जाने के आदेश के विरोध में बंधुआ मुक्ति मोर्चा समेत कईं सामाजिक संगठनों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर विरोध दर्ज कराया. सामाजिक संगठनों ने खोरी गांव के प्रवासी मज़दूरों के लिए पुनर्वास की मांग की.
सुप्रीम कोर्ट के सीनियर एडवोकेट कॉलिन गोंजाल्विस ने कहा कि, “अगर खोरी गांव जंगलात की जमीन पर बसा हुआ है इसलिए उससे बेदखल किया जा रहा है किंतु इसी जंगलात की जमीन पर बने हुए फार्म हाउस एवं होटल्स को बेदखली का सामना नहीं करना पड़ रहा है यह असमानता सत्ता के गलियारों में क्यों है? कानूनों एवं नियमों के मुताबिक वैश्विक महामारी के दौरान विस्थापन न्यायोचित नहीं है.”
सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर ने भी पुनर्वास नीति पर सवाल उठाते हुए कहा कि “देश में कई राज्यों में शहरी गरीबों के पुनर्वास हेतु नीतियां बनी हुई हैं, राज्य की जिम्मेदारी है कि उन नीतियों में संशोधन करें और यह संशोधन शहरी गरीबों को सामाजिक न्याय दिलाने की दिशा में होना चाहिए जिसकी आज हरियाणा में अत्यंत आवश्यकता है, उन्होने कहा कि “जब राज्य सरकार पूंजीपति वर्ग को जमीन देने की घोषणा कर रही है तो फिर खोरी गांव में रहने वाले असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को इस महामारी के दौरान बिना पुनर्वास किए कैसे विस्थापित किया जा रहा है.”
बंधुआ मुक्ति मोर्चा के जनरल सेक्रेटरी निर्मल गोराना ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश को लागू करते वक्त सरकार की जिम्मेदारी है कि वो पुनर्वास की योजना बनाकर पूर्ण संवेदनशीलता के साथ मजदूरों को पुनर्वास करें ताकि सरकार एवं न्यायालय से मजदूरों का विश्वास और भरोसा न टूटे.”
एडवोकेट अनुप्रधा सिंह ने कहा कि कोर्ट के आदेश के अनुसार हरियाणा सरकार खोरी गांव के घरों को तोड़ने के लिए तैयार हैं लेकिन साथ ही मजदूरों को पुनर्वास नीति 2010 के तहत पुनर्वास किया जाना चाहिए.
हरियाणा के फरीदाबाद में अरावली की पहाड़ियों में पिछले 50 साल से बसा खोरी गांव आज उजड़ने की कगार पर है परंतु सरकार पुनर्वास का नाम तक नहीं ले रही है. खोरी गांव में बंगाली कॉलोनी, सरदार कॉलोनी, चर्च रोड, इस्लाम चौक, हनुमान मंदिर, लेबर चौक, पुरानी खोरी नाम से अलग-अलग कॉलोनियां बसी हुई हैं. ये सभी घर असंगठित क्षेत्र में कार्यरत मजदूरों के परिवारों के हैं. गांव में सभी सम्प्रदाय के मजदूर परिवार रहते हैं.
खोरी गांव, सूरजकुंड पर्यटक स्थल के पास है और इन्ही अरावली की पहाड़ियों में 50 फार्म हाउस और कई होटल्स बने हुए हैं लेकिन इन इमारतों को हाथ लगाने की हिम्मत आज तक न तो हरियाणा सरकार को हुई और न ही फरीदाबाद प्रशासन की. वहीं दूसरी ओर इस मामले में अब तक लगभग 20 से ज्यादा लोगों की गिरफ्तारी हो चुकी हैं जिनमें से दो लोग जेल में बंद हैं तो घर उजड़ने की चिंता में दो लोगों ने परेशान होकर आत्महत्या कर ली है.
भारत की 30 प्रतिशत से अधिक भूमि अवक्रमण से प्रभावित है। इसे अंग्रेजी में Land Degradation कहा जाता है। जमीन का कटाव, अम्लीकरण, बाढ़, मृदा अपरदन या मिट्टी में बढ़ता खारापन कुछ ऐसी प्रक्रियाएं हैं जिनके कारण मिट्टी अपनी उर्वरता खो देती है और जमीन मरुस्थलीकरण की ओर अग्रसर होने लगती है।
पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली मानवीय गतिविधियां इक्कीसवी सदी में अपने चरम पर हैं। आज मनुष्य प्रकृति का अधिक से अधिक दोहन करना चाहता है। इसके अलावा पृथ्वी पर आबादी का बोझ भी बढ़ता जा रहा है। वैसे, यह अपने आप में ही एक वाद-विवाद का विषय है कि गरीबी से आबादी बढ़ रही है या आबादी बढ़ने से गरीबी बढ़ी है ! फिर भी आज का सबसे बड़ा सत्य यही है कि हम बेलगाम आर्थिक वृद्धि के लिए निरंकुश तंत्रों का इस्तेमाल कर रहे हैं।
अनुचित कृषि गतिविधियां, वनों की अंधाधुंध कटाई, औद्योगिक कचरे का अनुचित प्रबंधन, अत्याधिक चराई, वनों का लापरवाह प्रबंधन, सतह खनन और वाणिज्यिक/औद्योगिक विकास कुछ बुनियादी कारण हैं जिनकी वजह से पर्यावरण का प्राकृतिक संचालन अस्त-व्यस्त हो गया है। ऐसे में स्वाभाविक है कि मिट्टी, जल, वायु जैसे कुछ प्राकृतिक संसाधन अपनी उत्पादकता खोने लगे हैं। इसलिए खेती जैसा व्यवसाय जो इन्हीं संसाधनों पर टिका है, उस पर संकट आना स्वाभाविक है।
इसके अलावा 1960 के बाद आई हरित क्रान्ति के कारण कृषि क्षेत्र में ऐसी नई तकनीकें और बीज प्रौद्योगिकी आई जिनकी वजह से पानी की खपत बहुत बढ़ गई है। भारत में कुल पानी के उपयोग में से 70 प्रतिशत केवल कृषि सिंचाई में लग जाता है। तो जिस प्रकार मशीन के सतत प्रयोग से साल दर वह पुरानी पड़ती है, वैसे ही इन प्राकृतिक संसाधनों का साल दर साल ह्रास हो रहा है। ऐसा इसलिए है क्योंकि हम इन्हें इनकी धारण क्षमता से अधिक प्रयोग में ला रहे हैं।
आज कृषि विविधता भी कम होती जा रही है। पहले लोग हर तरह की साग-सब्जियां, तमाम तरह के अनाज और दालें उगाते थे जिसकी वजह से कृषि में विवधता बनी रहती थी और प्राकृतिक संतुलन भी सुरक्षित रहता था। वहीं आज की पीढ़ी के भोजन में विवधता कम हो गई है। पैकेजिंग और प्रोसेसिंग पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है जिस वजह से हम केवल कुछ ही फसलों पर जोर देते हैं। इससे कूड़ा-कचरा तो बढ़ता ही है, लोगों के स्वास्थ्य पर भी बुरा असर पड़ता है। साथ ही साथ कृषि विविधता कम होने से मिट्टी, पानी, हवा की सेहत खराब होती है जिस वजह से किसान को आर्थिक घाटा उठाना पड़ता है।
ऐसे में यह समझना आवश्यक हो जाता कि क्या सरकार की तरफ से दी गई सब्सिडी और आर्थिक मदद या फिर बाजार उदारीकरण पर्याप्त कदम हैं ? ये तो केवल आपूर्ति पक्ष को मजबूत करने के लिए कुछ कदम हैं जिनका फायदा और नुकसान अभी भी हम नहीं जानते हैं। असल में दीर्घकालिक परिप्रेक्ष्य से देखा जाए तो खपत पक्ष की तरफ आए हुए बदलाव भी खेती के व्यवसाय के लिए उतने ही घातक हैं जितनी सरकारी नाकामयाबी। इन्हीं परिस्थितियों के चलते कृषि संकट विकराल रूप घारण कर रहा है।
अक्सर देखा जाता है कि हम कृषि क्षेत्र में आए संकट को किसानों की अज्ञानता, निरक्षरता से जोड़ने लगते हैं। हमें लगता है कि किसान प्रौद्योगिकी नहीं समझता। हमें दरअसल खुद से सवाल करना चाहिए कि क्या हम भी विज्ञान और प्रौद्योगिकी के सही अर्थ को समझ पाएं हैं! क्यों हम विज्ञान और तकनीक का इस्तेमाल प्रकृति से संरक्षण, संवर्धन से ज्यादा अंधाधुंध दोहन में कर रहे हैं?
(लेखिका अर्थशास्त्र और पर्यावरण विषयों की शोधार्थी हैं)