‘वन्यजीवों को नष्ट कर देंगे’- हरियाणा सरकार की महत्वाकांक्षी अरावली जंगल सफारी परियोजना को SC में चुनौती!

हरियाणा सरकार की प्रस्तावित अरावली जंगल सफारी को कानूनी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. जंगल के पारिस्थितिकी तंत्र पर इसके संभावित प्रतिकूल प्रभाव का हवाला देते हुए सुप्रीम कोर्ट के समक्ष एक याचिका दायर की गई है. विशेष रूप से पर्यावरण और वन मामलों से निपटने वाली एक विशेष पीठ के समक्ष दायर एक आवेदन में, याचिकाकर्ताओं – गुरुग्राम स्थित पर्यावरण कार्यकर्ता वैशाली राणा, विवेक कंबोज और रोमा जसवाल – ने कहा है कि अरावली एक विविध पारिस्थितिकी तंत्र का घर है जो इस कदम के कारण संभावित रूप से खतरे में पड़ सकता है.

याचिका में कहा गया है, “अरावली पहाड़ियां, जो पृथ्वी पर सबसे पुरानी पर्वत श्रृंखलाओं में से एक है, पश्चिम भारतीय जलवायु और जैव विविधता को आकार देने वाली प्रमुख भू-आकृतियां हैं. अरावली अपने हरे-भरे जंगलों के साथ हरित अवरोधक के रूप में काम करती थी और मरुस्थलीकरण के खिलाफ एक प्रभावी ढाल के रूप में काम करती थी.” इसका उल्लेख याचिकाकर्ताओं के वकील गौरव बंसल ने बुधवार को पीठ के समक्ष किया था.

याचिका में कहा गया है कि हरियाणा सरकार ने जंगल सफारी के लिए एक जैव विविधता पार्क के विकास के लिए “रुचि” दिखाई है. इसका दायरा हरियाणा के गुरुग्राम और नूंह जिलों में फैली 10,000 एकड़ वन भूमि में है.

न्यायमूर्ति बी.आर. गवई की अध्यक्षता वाली एससी पीठ ने याचिकाकर्ताओं से याचिका की एक प्रति अदालत द्वारा नियुक्त केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति (सीईसी) को सौंपने के लिए कहा है, जो विशेषज्ञों का एक पैनल है जो पारिस्थितिक रूप से नाजुक क्षेत्रों में परियोजनाओं पर विचार करता है और सिफारिशें करता है.

वकील गौरव बंसल ने दिप्रिंट को बताया कि आवेदन का उल्लेख तब किया गया था जब अदालत उत्तराखंड के जिम कॉर्बेट राष्ट्रीय उद्यान में जंगल सफारी पर एक अन्य याचिका पर सुनवाई कर रही थी.

प्रस्तावित परियोजना को कानूनी चुनौती हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर द्वारा इसकी आधारशिला रखने के लिए प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को आमंत्रित करने के एक दिन बाद आई है. समारोह की तारीख अभी तय नहीं हुई है.

टिप्पणी के लिए संपर्क किए जाने पर, हरियाणा पर्यटन के प्रमुख सचिव एम.डी. सिन्हा ने कहा कि राज्य सरकार को अभी तक कोई नोटिस नहीं मिला है, लेकिन उन्होंने यह कहते हुए आगे कोई टिप्पणी करने से इनकार कर दिया कि मामला “न्यायाधीन” है. उन्होंने कहा, “हमें जो कुछ भी कहना है, हम अकेले अदालत में कहेंगे.”

हरियाणा सरकार प्रस्तावित अरावली जंगल सफारी को तीन चरणों में निष्पादित करने की योजना बना रही है.

प्रस्ताव के अनुसार, सफारी को एक जैव विविधता पार्क की तरह विकसित किया जाएगा और इसका लक्ष्य “स्थानीय/देशी वनस्पतियों और जीवों की स्थापना करना; पारिस्थितिकी को संरक्षित और समृद्ध करने के लिए समग्र मृदा जल व्यवस्था में सुधार करना; भूजल पुनर्भरण; वन्य जीवन के लिए आवास में सुधार; बफर-स्थानीय मौसम; CO2 और अन्य प्रदूषकों के लिए सिंक के रूप में कार्य करें; क्षेत्र की प्राकृतिक विरासत का संरक्षण करें; जनता और छात्रों के बीच पर्यावरण जागरूकता को बढ़ावा देना; एक जीवित प्रयोगशाला के रूप में काम और जनता को मनोरंजक मूल्य प्रदान करना” था. इसकी जानकारी द इंडियन एक्सप्रेस की 5 जुलाई की रिपोर्ट के अनुसार मिली.

साभार- दि प्रिंट, हिंदी

खनन के चलते मौत के कगार पर पहुंची यमुना!

“हमारे यहां सारस, लाल सुर्खाब, सफेद सुर्खाब, नीलसर, जलकाग जैसे प्रवासी पक्षी हज़ारों की संख्या में आया करते थे. महासीर जैसी दुर्लभ मछली, लालपरी, सुआ, सेवड़ा, लोंछी, किरण, गोल्डन फिश, रोहू जैसी मछलियां हजारों की संख्या में रहती थीं. हमने यहां 70-70 किलो वज़न तक के कछुए देखे हैं. जब से रेत-बजरी खनन शुरू हुआ नदी के भीतर से जीव-जंतु, जलीय पौधे सब घटने लगे. मशीनों के शोर ने पक्षियों को यहां से जाने पर मजबूर कर दिया. रात्रिचर जीव भी पलायन कर गए. खनन के चलते हमारी यमुना मरने की कगार पर पहुंच गई है.”

यमुना तट पर मरी हुई मछली दिखाते हुए स्थानीय निवासी किरणपाल राणा कहते हैं कि खनन वाहनों के पहियों के नीचे आकर नदी के भीतर और बाहर जलीय जीव और पौधे नष्ट हो रहे हैं.

यमुना के किनारे खड़े होकर किरनपाल राणा जब ये बता रहे थे, वहीं रेत पर एक छोटी मरी हुई मछली पड़ी थी. वह दिखाते हैं “यहां बचे-खुचे प्राणियों का यही हश्र है. खनन वाहनों के पहियों के नीचे आकर इनके अंडे, बच्चे, बीज, छोटे पौधे सब नष्ट हो जाते हैं.” वह हरियाणा के यमुनानगर जिले के जगाधरी तहसील के कनालसी गांव में रहते हैं.

यहां वर्ष 2016 में 44.14 हेक्टेअर नदी क्षेत्र में 9 वर्ष के लिए खनन की अनुमति मिली. गंगा की सबसे लंबी सहायक नदी यमुना उत्तराखंड में 6,387 मीटर ऊंचाई पर यमनोत्री ग्लेशियर से निकलकर 5 राज्यों में 1,376 किलोमीटर का सफ़र तय करते हुए, उत्तर प्रदेश के प्रयागराज जिले में गंगा में मिल जाती है. भारतीय वन्यजीव संस्थान में वैज्ञानिक डॉ सैयद ऐनुल हुसैन नेशनल मिशन फॉर क्लीन गंगा से जुड़े हैं.

कनालसी गांव में खनन के चलते यमुना में जलीय जीवों की घटती संख्या पर वह बताते हैं. “नदी से तय मात्रा से अधिक रेत खनन पूरे क्षेत्र को असंतुलित करता है. जलीय पौधे, सूक्ष्म जीव सब प्रभावित होते हैं. नदी और उसके ईर्दगिर्द रहने वाले जीवों की खाद्य श्रृंखला प्रभावित होने से जानवरों को भोजन नहीं मिलेगा. खनन क्षेत्र में जीव-जंतुओं की संख्या कम होना या स्थानीय तौर पर विलुप्त होना इसका संकेत है.”

रेत खनन का यमुना नदी और इसके जलीय जीवन पर किस तरह असर पड़ा है, इस पर अब तक कोई ठोस वैज्ञानिक अध्ययन किया ही नहीं गया. चंबल नदी पर रेत खनन के असर का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिक डॉ एसआर टैगोर भी यह सवाल उठाते हैं. वह कहते हैं “इटावा में यमुना की सहायक चंबल नदी पर किए गए हमारे अध्ययन से ये सिद्ध हो चुका है कि रेत खनन से नदी की जैव-विविधता पर खतरा आता है. हमने पाया कि चंबल में रेत खनन से घड़ियाल और कछुओं के प्रवास स्थल, नेस्टिंग पैटर्न, अंडे देने की प्रक्रिया बाधित हुई और इन जीवों ने उस नदी क्षेत्र से पलायन किया.”

डॉ टैगोर कहते हैं कि नदी क्षेत्र में भोजन की उपलब्धता के आधार पर पक्षी अपना प्रवास चुनते हैं. कई पक्षी नदी के बीच बने टापुओं पर अंडे देते हैं. खनन से होने वाली उथलपुथल जीव-जंतुओं की इन प्रक्रियाओं में बाधा आती है और उन्हें अपना घर छोड़ना पड़ता है. किरणपाल राणा के मुताबिक उनके गांव में यही हो रहा है.

यमुना स्वच्छता के लिए सक्रिय किरणपाल राणा बताते हैं कि रेत खनन से पहले यहां हजारों की संख्या में प्रवासी पक्षी आया करते थे. अब गिने-चुने पक्षी ही नजर आते हैं. ‘यमुना जिए’ अभियान चला रहे पूर्व आईएफएस अधिकारी मनोज मिश्रा कहते हैं यमुना की जैव-विविधता रेत खनन से कैसे प्रभावित हो रही है, इस पर कोई अलग से अध्ययन नहीं किया गया है. लेकिन गंगा या चंबल पर रेत खनन को लेकर किया गया अध्ययन यमुना पर भी लागू होता है.

धरती अपनी जैव विविधता बड़े पैमाने पर खो रही है. वर्ष 2018 की डब्ल्यूडब्ल्यूएफ की रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 1970 से 2014 के बीच वैश्विक स्तर पर वन्यजीवों की आबादी 60% तक घटी है. अवैध खनन पर वर्ष 2012 में दीपक कुमार व अन्य बनाम हरियाणा सरकार के मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला नज़ीर माना जाता है. इस महत्वपूर्ण फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि वर्षों से हो रहे खनन से जलीय जीवों के अस्तित्व पर संकट आ गया है.

बेलगाम रेत खनन से भारत की नदियां और नदियों का पारिस्थितकीय तंत्र बुरी तरह प्रभावित हो रहा है. नदियों का इकोसिस्टम प्रभावित होने के साथ उनके किनारों कमजोर हो रहे हैं, उन पर बने पुल खतरे में हैं और नदी और उसके किनारे रहने वाले जीवों का प्राकृतिक आवास, उनका प्रजनन प्रभावित हो रहा है. पक्षियों की कई प्रजातियों के संरक्षण को लेकर आपदा जैसी स्थिति हो गई है. इस फैसले के 10 साल बाद भी नदियां और नदियों पर निर्भर जीवन के संरक्षण के लिए कोई ठोस उपाय नहीं किए गए. कनालसी गांव के लोगों का आरोप है कि नियम के विरुद्ध रात के समय भी नदी से रेत खनन किया जाता है. रेत की धुलाई के लिए दिन-रात भूजल दोहन किया जाता है.

भूजल संकट

इंसान का पेट रोटी और पानी से भरता है. नदी का पेट रेत और पानी से. यमुना में जब रेत ही नहीं होगी तो पानी धरती में कैसे समाएगा, गांव के बुजुर्ग कहते हैं. ज्यादातर ग्रामीण भूजल स्तर में आ रही गिरावट और भविष्य के जल संकट से चिंतित हैं. कनालसी गांव के किसान महिपाल सिंह कहते हैं, “यमुना के करीब 5 किलोमीटर लंबाई में 40-50 स्क्रीनिंग प्लांट लगे हैं. रेत-बजरी की धुलाई के लिए ये प्लांट दिन-रात भूमिगत जल का दोहन करते हैं. खनन के चलते नदी का तल भी नीचे जा चुका है. पहले ज़मीन में 25-30 फुट पर पानी आ जाता था. अब 60 फुट तक मुश्किल से पानी आता है. किसानों के ट्यूबवैल बिलकुल ठप पड़ गए और नए बोरिंग करवाने पड़े. अगले 5 साल खनन की यही स्थिति रही तो सिंचाई और पेयजल का बड़ा संकट होगा.”

खनन के चलते भूजल स्तर गिरने, सांस, आंख, त्वचा संबंधी बीमारियों, खराब सड़कों, धूल से पशुओं का चारा खराब होने, प्रदूषण जैसी समस्याओं को लेकर कनालसी के ग्रामीणों ने वर्ष 2021 में हरियाणा के मुख्यमंत्री को लिखा पत्र दिखाया. जिसमें शिकायत करने पर खनन ठेकेदारों से धमकियां मिलने का भी जिक्र किया गया. मंडोलीगग्गड़ गांव के मल्लाह कहते हैं कि खनन के चलते उन्हें अपना पारंपरिक पेशा छोड़ना पड़ा. अब उनके गांव के ज्यादातर मल्लाह मजदूरी करने शहर की ओर चले गए हैं.

मल्लाह बने मजदूर

खनन से जलीय जीव संकट में आ गए जबकि मल्लाह, मछुआरे रोजगार बदलने पर मजबूर हो गए. यमुनानगर के छछरौली तहसील के मंडोलीगग्गड़ गांव में 60 मल्लाह परिवार रहते हैं. जिनका पारंपरिक पेशा यमुना में किश्तियां चलाना और नदी तट पर खेती करना रहा है.

कभी मल्लाह रहे प्रमोद कुमार कहते हैं, “अब हमारे समुदाय के लोग शहर की प्लाईवुड फैक्ट्रियों में मज़दूरी करने जाते हैं. नदी में अब किश्तियां नहीं लगती। हम यमुना में लौकी, करेला, कद्दू, ककड़ी, खीरा, तरबूज, खरबूजा जैसी बेल वाली सब्जियां-फल उगाते थे. हमारे पूर्वज यही काम करते आए थे। तब नदी हम सबकी हुआ करती थी, अब सिर्फ खनन वालों की है.”

खनन के चलते यमुना का बहाव एक समान न होने से मल्लाहों ने किश्तियां चलाने में खतरे की समस्या बताई. क्षेत्र में अब गिने-चुने मल्लाह ही यमुना में किश्तियां ले जाते हैं. नदी पार लगाने वालेबाकी बचे गिने-चुने मल्लाह मायूसी जताते हैं. जगाधरी तहसील के बीबीपुर गांव के युवा मोहम्मद मुकर्रम इनमें से एक हैं. सड़क से जो दूरी दो घंटे में तय होती है, किश्ती से दस मिनट में. मोटरसाइकिल सवारों के वाहन नदी पार कराते हुए मुकर्रम बताते हैं, “खनन के बाद नदी कहीं बहुत ज्यादा गहरी तो कहीं उपर है. पानी का बहाव एक समान नहीं रह गया. इससे किश्तियां चलाने में डर लगता है.”

जगाधरी तहसील के बहरामपुर गांव के किसान लक्ष्मीचंद की आवाज़ रुआंसी हो उठती है. वह यमुना की जद में आए अपने खेत दिखाते हैं. “जहां खनन होना चाहिए, वहां नहीं होता, कहीं और हो जाता है. ये सामान्य कटाव नहीं है. नदी को रोक दिया है. जब पानी को निकलने का रास्ता नहीं मिलेगा तो नदी कहां जाएगी. सरकार की कमाई तो खूब होती है. लेकिन सरकार हम पर ध्यान नहीं देती. गांव के कई किसानों की ज़मीन कट गई है. हमारे पेड़ नदी में समा गए.”

साभार- डाउन-टू-अर्थ

रेत खनन: 16 महीनों में 400 से अधिक मौत, पर्यावरण के साथ जान का भी नुकसान

आमतौर पर नदियों से होने वाले अवैध और अवैज्ञानिक रेत खनन को पर्यावरण और जलीय जीवों पर खतरे के रूप में देखा जाता है. लेकिन इसका एक और स्याह पक्ष भी है, जो न तो सरकारी फाइलों में दर्ज होता है और न कहीं इसकी सुनवाई होती है. ये है रेत खनन के चलते हर साल जान गंवाने वाले सैकड़ों लोग और इसके चलते बिखरने वाले उनके परिवार. 

हरियाणा निवासी धर्मपाल को इस स्याह पक्ष को अब ताउम्र भोगना होगा. साल 2019 के जुलाई महीने में उनके बेटे संटी (18 साल) और भतीजे सुनील (15 साल) की सोम नदी में डूबने से मौत हो गई. यमुनानगर ज़िले के कनालसी गांव के रहने वाले धर्मपाल के भाई तेजपाल के मुताबिक दोनों भाई नदी में नहाने गए थे. नदी में खनन की वजह से कई गहरे गड्ढे बन गए थे. किसी को पता नहीं था कि यहां खनन हो रहा है. 

उन्होंने मोंगाबे-हिंदी से कहा, “हमने दो महीने तक पुलिस-प्रशासन के चक्कर काटे. ज़िलाधिकारी के पास भी गए. हमारी शिकायत नहीं सुनी गई. बच्चों की मौत पर मुआवजा भी नहीं मिला. हम मज़दूर हैं. कितने दिन काम छोड़कर जाते. उस दिन के बाद से हम अपने बच्चों को नदी की तरफ जाने ही नहीं देते.” धर्मपाल के पास अब भी बेटे की मौत से जुड़े दस्तावेज़ संभाल कर रखे हुए हैं. वह अदालत में केस दाखिल करने की तैयारी में हैं. परिजनों के मुताबिक जिलाधिकारी ने कहा कि दोनों बच्चे बालिग नहीं थे. वे खुद नदी में नहाने गए थे. इसलिए गलती उनकी थी. इस मामले में कुछ नहीं किया जा सकता.

कनालसी गांव के पास यमुना, सोम और थपाना नदियों का संगम है. इसी गांव के रहने वाले और यमुना स्वच्छता समिति से जुड़े किरनपाल राणा बताते हैं कि 2014 में उनके क्षेत्र में खनन शुरू हुआ. तब से सिर्फ उनके गांव से ही पांच बच्चों की मौत नदी में डूबने से हो चुकी है. वह बताते हैं कि सोम नदी में तो खनन की अनुमति भी नहीं है. वहां चोरी-छिपे खनन होता है. 

वर्ष 2019 में संटी और सुनील की सोम नदी में बने कुंड में डूबने से मौत हुई थी. दोनों चचेरे भाई थे. मृतक की तस्वीर के साथ तेजपाल और उनकी पत्नी.

किरनपाल कहते हैं, “प्रशासन मानने को तैयार नहीं है कि खनन के लिए खोदे गए गड्ढ़ों में डूबने से बच्चों की मौत हुई है. उन बच्चों को नहीं पता था कि मशीनों से नदी में 30 फुट तक गहरे गड्ढे खोद दिए गए हैं. न ही वहां चेतावनी के लिए कोई बोर्ड था. खनन विभाग, यमुनानगर प्रशासन और हरियाणा सरकार ने उनकी कोई मदद नहीं की. उन बच्चों का पोस्टमार्टम तक नहीं कराया गया. बच्चे गांव के घाटों पर खेलने और तैरने के लिए जाते थे. अब उन बच्चों को यही नदी डराने लगी है.” हरियाणा में नदी में रेत खनन की सीमा तीन मीटर गहराई तक ही तय है.

वहीं हरियाणा हाईकोर्ट में वकील सुनील टंडन कहते हैं, “मेरे पास इस समय कनालसी गांव और इसके नजदीक के दो गांवों के तीन केस हैं जिनमें छः किशोरों की मौत हुई है. इन मौतों की सबसे बड़ी वजह खनन है. साथ ही सिंचाई विभाग की लापरवाही भी है. नदी के किनारों को भी सुरक्षित नहीं बनाया गया है. नदी कहीं 10 फुट गहरी है तो कहीं 30 फुट. खनन हो रहा है तो वहां कोई सिक्योरिटी गार्ड या नोटिस बोर्ड होना चाहिए. ताकि नदी किनारे रह रहे लोगों को सतर्क किया जा सके.”

रेत की मांग काफी अधिक है. वैश्विक स्तर पर सालाना पांच हजार करोड़ मीट्रिक टन रेत और बजरी का इस्तेमाल होता है. चीन के साथ भारत भी ऐसा देश है जहां रेत बनने की गति से अधिक इसका खनन होता है. अधिक मांग की वजह से भारत को कंबोडिया और मलेशिया जैसे देशों से रेत आयात करना पड़ता है. रेत की मांग अधिक होने की वजह से इसका खनन, खासकर अवैध खनन काफी फल फूल रहा है.

भारत सरकार ने वर्ष 2016 में टिकाऊ खनन के मद्देनजर एक दिशा-निर्देश प्रकाशित किया था. हालांकि इस दिशा-निर्देश का गंभीरता से पालन नहीं होता. 

जानलेवा बनता रेत खनन 

गैर-सरकारी संस्था साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर्स एंड पीपल (एसएएनडीआरपी) ने दिसंबर 2020 से मार्च 2022 तक, 16 महीने में रेत खनन की वजह से होने वाली दुर्घटनाओं और हिंसा के मामलों का मीडिया रिपोर्टिंग के आधार पर अध्ययन किया है. 

इसके मुताबिक इस दौरान रेत खनन से जुड़ी वजहों के चलते देशभर में कम से कम 418 लोगों की जान गई है. 438 घायल हुए हैं. इनमें 49 मौत खनन के लिए नदियों में खोदे गए कुंड में डूबने से हुई हैं. ये आंकड़े बताते हैं कि खनन के दौरान खदान ढहने और अन्य दुर्घटनाओं में कुल 95 मौत और 21 लोग घायल हुए. खनन से जुड़े सड़क हादसों में 294 लोगों की जान गई और 221 घायल हुए हैं. खनन से जुड़ी हिंसा में 12 लोगों को जान गंवानी पड़ी और 53 घायल हुए हैं. अवैध खनन के खिलाफ आवाज़ उठाने वाले कार्यकर्ताओं/पत्रकारों पर हमले में घायल होने वालों का आंकड़ा 10 है. जबकि सरकारी अधिकारियों पर खनन माफिया के हमले में 2 मौत और 126 अधिकारी घायल हुए हैं. खनन से जुड़े आपसी झगड़े या गैंगवार में 7 मौत और इतने ही घायल हुए हैं.

दिसंबर 2020 से मार्च 2022 के बीच देश के उत्तरी राज्यों उत्तर प्रदेश, हरियाणा, उत्तराखंड, पंजाब, दिल्ली, जम्मू-कश्मीर और चंडीगढ़ में सबसे ज्यादा 136 मौत हुई हैं. इनमें से 24 मौत खनन के लिए खोदे गए गड्ढों में डूबने से हुई हैं.

यमुना स्वच्छता समिति से जुड़े कनालसी गांव के किरणपाल राणा दिखाते हैं कि यमुना में तय सीमा से कहीं अधिक गहराई में खनन के लिए कुंड खोदे गए हैं

नदियों को खनन से बचाने के लिए आंदोलनरत हरिद्वार के मातृसदन आश्रम ने 29 अप्रैल को उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के नाम ज्ञापन भेजा. इसमें कहा गया, “हरिद्वार में खनन का माल ले जाने वाले डंपर की चपेट में आने और खनन के लिए बनाए गए गड्ढ़ों में गिरने से आए दिन लोग मर रहे हैं. हालिया आंकड़े 50 से भी ज्यादा हैं. बीते 10 सालों में कितनी मौत हुईं, यह अनुमान लगाना भी कठिन है.”

मातृसदन के ब्रह्मचारी सुधानंद बताते हैं कि स्थानीय मीडिया रिपोर्टिंग के आधार पर हमने ये आकलन किया. गंगा के किनारे कई जगह 30-30 फीट गहरे ग़ड्ढ़े हैं. इनमें नदी का पानी भरा रहता है. अनजाने में लोग इन ग़ड्ढ़ों में गिरते हैं और दुर्घटनाएं होती हैं.

ये आंकड़े इससे कहीं ज्यादा भी हो सकते हैं क्योंकि इसमें सिर्फ अंग्रेजी भाषा के अखबारों में छपी खबरें ही शामिल हैं. क्षेत्रीय या भाषाई अखबारों में छपी खबरें नहीं. इस अध्ययन को करने वाले एसएएनडीआरपी के एसोसिएट कॉर्डिनेटर भीम सिंह रावत कहते हैं, “खनन के चलते होने वाली मौत या सड़क दुर्घटनाओं को नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) सामान्य सड़क दुर्घटना के रूप में दर्ज करता है. जबकि खनन के मामले में तेज़ रफ्तार में वाहन चलाना, पुलिस चेकपोस्ट से बचने की कोशिश, गलत तरह से सड़क किनारे खड़े किए गए रेत-बजरी से लदे ट्रकों के चलते हादसे हो रहे हैं. नदी में बहुत ज्यादा खनन से बने कुंड में डूबने से होने वाली मौत को भी एनसीआरबी को अलग से देखने की जरूरत है.”

एनसीआरबी की रिपोर्ट में सड़क दुर्घटना, तेज़ रफ्तार, ओवर-लोडिंग, डूबने या दुर्घटनाओं जैसी श्रेणियां होती हैं. लेकिन खनन के चलते होने वाली दुर्घटनाओं को अलग श्रेणी में नहीं रखा जाता. 

उत्तराखंड के स्टेट क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एससीआरबी) में दुर्घटनाओं से जुड़ा डाटा तैयार कर रही सब-इंस्पेक्टर प्रीति शर्मा बताती हैं, “हम डाटा में उल्लेख करते हैं कि प्रकृति के प्रभाव के चलते डूबने से मौत हुई. खनन के चलते बने कुंड में डूबने, बाढ़ या अन्य वजह से डूबने की श्रेणी निर्धारित नहीं है.”

एनसीआरबी के लिए सड़क दुर्घटनाओं का डाटा तैयार करने वाले सब-इंस्पेक्टर मनमोहन सिंह बताते हैं कि सड़क हादसे में होने वाली मौत के मामलों में ओवर-लोडिंग और तेज़ रफ्तार जैसी करीब 35 श्रेणियां होती हैं. ऐसी कोई श्रेणी नहीं है जिसमें हम ये दर्ज करें कि खनन से जुड़े वाहन के चलते दुर्घटना हुई. इस बारे में एनसीआरबी के अधिकारियों का ईमेल के जरिए पक्ष जानने की कोशिश की गई. उनका जवाब मिलने पर इस खबर को अपडेट किया जाएगा.

यमुना किनारे रेत खनन का असर स्थानीय लोगों के जीवन पर भी पड़ रहा है.

एसएएनडीआरपी के कोऑर्डिनेटर हिमांशु ठक्कर खनन के लिए स्थानीय समुदाय को साथ लेकर निगरानी समिति बनाने का सुझाव देते हैं. इनका कहना है, “सरकारी अधिकारियों को कैसे पता चलेगा कि खनन किस तरह हो रहा है. इसमें लोगों की भागीदारी जरूरी है. नदी किनारे रहने वाले लोगों को पता होता है कि खनन वैध है या अवैध. दिन या रात, मशीन या लोग, बहती नदी या नदी किनारे, किस स्तर तक खनन हो रहा है. स्थानीय लोग अहम कड़ी हैं. वे निगरानी में शामिल होंगे तभी इसका नियमन ठीक से किया जा सकेगा.”

जवाबदेही तय हो!

वेदितम संस्था से जुड़े पर्यावरण कार्यकर्ता सिद्धार्थ अग्रवाल कहते हैं, “खनन से जुड़े मामलों में पारदर्शिता लाना सबसे ज्यादा जरूरी है. ये सार्वजनिक होना चाहिए कि देशभर में रेत खनन के लिए कहां-कहां अनुमति दी गई है. अवैध या अनियमित खनन पर केंद्र या राज्य स्तर पर क्या कार्रवाई की जा रही है. मुश्किल ये है कि खनन से जुड़े मामलों में सरकार की तरफ से कोई दृढ़ इच्छाशक्ति नहीं दिखाई देती.”

रीवर ट्रेनिंग नीति के मुताबिक हर साल बरसात के बाद नदी में कितना रेत-बजरी-पत्थर और मलबा जमा होता है इसी आधार पर ये तय किया जाता है कि अक्टूबर से मई-जून तक खनन के दौरान नदी से कितना उपखनिज निकाला जा सकता है. वन विभाग हर वर्ष ये खनन रिपोर्ट तैयार करता है. आईआईटी कानपुर में डिपार्टमेंट ऑफ अर्थ साइंस में प्रोफेसर राजीव सिन्हा मानते हैं कि नदी में तय सीमा से अधिक गहराई में खनन होता ही है. “हमने हल्द्वानी में गौला नदी के अंदर सर्वे किया. खनन की मात्रा के आकलन का बेहतर वैज्ञानिक तरीका तैयार करने पर हम काम कर रहे हैं. लेकिन ये कानून-व्यवस्था से जुड़ा मामला भी है. नदी में खनन से बने कुंड से होने वाली मौत इसका एक नतीजा हैं. साथ ही इससे नदी का पूरा इकोसिस्टम बदल जाता है.” सर्वे का काम अभी जारी है.

सरकार ने रेत खनन की मॉनीटरिंग और लगातार निगरानी से जुड़े दिशा-निर्देश जारी किए हैं. नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने अपने एक आदेश में कहा था कि दिशा-निर्देशों के होते हुए भी ज़मीनी स्तर पर अवैध खनन हो रहा है और ये सबको अच्छी तरह पता है.

साभार: MONGABAY

(वर्षा सिंह मोंगाबे में रिपोर्टर हैं और खेती बाड़ी और ग्रामीण भारत से जुड़े महत्वपूर्ण विषयों पर लिख चुकी हैं.)

पर्यावरण नियमों को ताक पर रखने वाली कंपनियों के लिए मुख्यमंत्री खट्टर ने की लॉबिंग!

हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर द्वारा केमिकल कपंनियों को एनवायरमेंट क्लीयरेंस दिलाने के लिए लॉबिंग का मामला सामने आया है. यमुनानगर स्थित 15 केमिकल कंपनियां पर्यावरण नियमों का पालन किये बिना धड़ल्ले से चल रही थी. कई साल बाद ये कंपनियां पर्यावरण अनुमति हासिल करने के योग्य नहीं थी लेकिन ऐसे में खुलासा हुआ है कि मुख्यमंत्री खट्टर ने इस साल मार्च में इन केमिकल कंपनियों को पर्यावरण मंत्रालय से एनवायरमेंट क्लीयरेंस दिलाने के लिए लॉबिंग की है.     

यह खुलासा अंग्रेजी की वेबसाइट ‘द मॉर्निंग कॉन्टेक्स्ट’ के पत्रकार अक्षय देशमाने की रिपोर्ट में हुआ है. रिपोर्ट के अनुसार मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने ‘फॉर्मेल्डिहाइड’ नाम का केमिकल बनाने वाली 15 कंपनियों के लिए लॉबिंग की है. हरियाणा के यमुनानगर में स्थित ये कंपनियां प्लाईवुड के कारोबार में प्रयोग होने वाले केमिकल पदार्थ ‘फॉर्मेल्डिहाइड’ बनाने का काम करती हैं.

साल 2009 के बाद शुरू हुई ये कंपनियां अनिवार्य पर्यावरण अनुमति लिए बिना ही कारोबार कर रही थी. यह पर्यावरण से संबधी देश के मुख्य कानून जैसे पर्यावरण प्रभाव आकलन, 2006 का उल्लंघन है. किसी भी केमिकल कंपनी को उसके स्थापित होने के दौरान ही एनवायरमेंट क्लीयरेंस दी जाती है ताकि उसके सामने आने वाली पर्यावरण संबंधी दिक्कतों को देख-परख कर एनवायरमेंट क्लीयरेंस दी जा सके. लेकिन हरियाणा में अलग ही मामला सामने आया है. कंपनियां एक दशक से चल रही थी और एनवायरमेंट क्लीयरेंस की मांग अब की जा रही है. ऐसी कंपनी जो पहले से चली आ रही हैं उसकी एनवायरमेंट क्लीयरेंस की मांग और उसे अनुमति देना एक तरह से पहले हो चुके पर्यावरण के नुकसान को अनदेखा करने जैसा है.  

हरियाणा स्टेट पॉल्यूशन बोर्ड के सामने 2019 में यह बात सामने आई थी कि यमुनानगर में 15 केमिकल कंपनियां खुले तौर पर पर्यावरण के नियमों की धज्जियां उड़ा रही हैं. जिसके बाद हरियाणा स्टेट पॉल्युशन बोर्ड ने इन कंपनियों के केमिकल बनाने पर रोक लगा दी थी. लेकिन इसके बाद 23 अक्टूबर 2020 को हरियाणा में फॉर्मेल्डिहाइड केमिकल बनाने वाली एसोशिएशन ने हरियाणा सरकार से केमिकल बनाने की अनुमति देने की अपील की जिसके बाद 11 नवंबर 2020 को इन सभी कंपनियों को केमिकल बनाने के लिए छह महीने की रियायत दे दी गई.

मुख्यमंत्री खट्टर द्वारा पर्यावरण मंत्री को लिखा पत्र

हालांकि इस बीच 2020 में केंद्र सरकार ने इस तरह का नोटिफिकेशन जारी किया था जिसमें पहले से स्थापित केमिकल कंपनियों को बाद में एनवायरमेंट क्लीयरेंस दी जा सकती है. लेकिन इसके खिलाफ कोर्ट में चल रहे मामलों की वजह से यह अभी लागू नहीं किया जा सका है.

बावजूद इसके हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर 3 मार्च को पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावडेकर को केमिकल कंपनियों की लॉबिंग करते हुए पत्र लिखते हैं. वहीं सीएम खट्टर द्वारा पर्यावरण मंत्री को लिखे पत्र के तीन महीने बाद नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने केमिकल कंपनियों को 6 महीने की रियायत देने की बात को गैर-कानूनी बताते हुए कहा, “राज्य सरकार के पास केमिकल कंपनियों को रियायत देने का कोई अधिकार नहीं है.”

केंद्रीय मंत्री को लिखे पत्र में सीएम खट्टर ने पर्यावरण की गंभीरता की अनदेखी करते हुए लिखा कि यमुनानगर में चलने वाली प्लाईवुड मार्केट एशिया की सबसे बड़ी मार्केट है. ऐसे में अगर यहां की केमिकल फैक्ट्रियों को काम करने में दिक्कत आती है तो प्लाईवुड इंडस्ट्री का बड़ा नुकसान होगा.” प्रदेश का पर्यावरण मंत्रालय खुद सीएम मनोहर लाल खट्टर के पास है लेकिन वे खुद ही पर्यावरण को लेकर चिंचित होने की बजाए केमिकल कंपनियों के साथ खड़े दिखाई दे रहे हैं.  

वहीं सरकार ने इसका ठीकरा लॉकल अथॉरिटी पर फोड़ते हुए जवाब दिया, “इन केमिकल कंपनियों को काम करने की अनुमति लॉकल अथॉरिटी से मिली थी जिनके पास इस विषय में ज्यादा जानकारी नहीं थी. इस तरह की छोटी केमिकल कंपनियों को पंजाब, राजस्थान, उत्तराखंड जैसे अन्य राज्यों में भी अनुमति मिली हुई है.”   

सीएम खट्टर ने केमिकल कंपनियों की लॉबिंग क्यों की? इस सवाल के जवाब में सरकार ने कहा, “इस मामले में बड़े स्तर पर जनता का हित जुड़ा हुआ है. यमुनानगर एशिया की सबसे बड़ी प्लाईवुड मार्केट है. इस केमिकल के बिना प्लाईवुड मार्केट का काम नहीं चल सकता है. लोगों के रोजगार को देखते हुए यह कदम उठाया गया है.”  

जैव-विविधता बचाने के लिए साल 2019 का संदेश

वर्ष 1993 में यूनाइटेड नेशंस जनरल असेंबली की दूसरी बैठक में विश्व के सभी देशों में जैव-विविधता के प्रति समाज को सचेत करने के लिए तय किया गया कि वर्ष में एक ऐसा भी दिन होना चाहिए जिस दिन पूरी दुनिया जैव-विविधता के संबंध में चिंतन करे और उसको बचाने के उपायों को अमल में लाने का कार्य करे। इसी चर्चा के के तहत तय किया गया कि प्रत्येक वर्ष 22 मई को विश्व जैव-विविधता दिवस मनाया जाएगा और वर्ष 2002 से लगातार यह दिवस मनाया भी जा रहा है। जिसमें कि प्रत्येक वर्ष जैव-विविधता से संबंधित एक अलग विषय रखा जाता रहा है। यूनाइटेड नेशंस के जैव-विविधता गुडविल दूत एडवर्ड नोरटन के अनुसार आज विश्व के मानव की विभिन्न पर्यावरण विरोधी गतिविधियों के कारण जंगल कम होते जा रहे हैं। ऐसे में वर्ष 2019 हमें यही संदेश देता है कि हमें अपने जंगलों पर भी ध्यान देना चाहिए।

कृषि के संदर्भ में अगर देखें तो किसानों द्वारा दलहन व तिलहन की पैदावार बहुत कम कर दी गई है। यही कारण है कि दालों व तेलों का आयात दूसरे देशों से किया जा रहा है। जंगलों में पाई जाने वाली जड़ी-बूटियां या तो समाप्त हो गई हैं या फिर उनको पहचानने वाले नहीं बचे हैं, जिस कारण से पुरातन ज्ञान भी समाज से विलुप्त हो रहा है। पहले गांव कस्बे के नीम-हकीम जंगल से अपने ज्ञान के आधार पर औषधीय पौधे चुनकर लाते थे तथा गांव-देहात के समाज को होने वाली बीमारियों का इलाज उनसे करते थे। पशुओं को जंगल में चराने ले जाया जाता था तो पशुओं द्वारा चरी गई घास से पशुओं की स्वयं की बीमारियां ठीक हो जाया करती थीं। गाय के दूध में औषधीय गुणकारी तत्व मिलते थे, लेकिन अब न तो इतने पशु बचे हैं कि उनको चराने के लिए ले जाया जाए और न ही चराने वाले।आज बेढंगे रहन-सहन के कारण सम्पूर्ण जैव-विविधता खतरे में आ गई है।

जैव-विविधता चक्र चरमराता दिख रहा है। आज जिस प्रकार डायनासोर के बारे में हम कहते हैं कि कभी ऐसा कोई जीव भी पृथ्वी पर रहा होगा। शायद इसी प्रकार आज मौजूद जीव-जन्तुओं के बारे में भी भविष्य की पीढ़ियां कहा करेंगी। गिद्ध, मोर, शेर, गुरशल, छोटी चिड़िया, कव्वे, कोयल, बगुले, तोता व और न जाने कितने छोटे-बड़े कीट-पतंगे व जीव-जन्तु बहुत-से इलाकों से लुप्त हो चुके हैं या फिर लुप्त होने के कगार पर हैं। खेतों से किसान मित्र केंचुए लगभग गायब हो चुके हैं तथा जंगलों में जानवर कम हो रहे हैं। शायद ही कोई ऐसी सड़क होगी जिस पर प्रतिदिन एक या उससे अधिक जंगली जानवर  (कुत्ता, बिल्ली, गीदड़, भेडिया व लोमड़ी आदि) वाहनों से कुचरकर न मरते हों। कृषि में मशीनों के चलते खेतों की जुताई हेतु बैल तो किसी ही विरले किसान के पास मिलते हैं। देश भर के विभिन्न सुरक्षित जंगलों में आने वाले प्रवासी पक्षियों के आवागमन में कमी आई है।

कुछ अन्तर्राष्ट्रीय अध्ययनों की मानें तो अंटार्कटिका में रहने वाले भालू व पेंगविन भी अपने अस्तित्व को बचाने के लिए जूझ रहे हैं। जंगल का राजा शेर जंगलों में मानव की बढ़ती अवैध दखल के कारण अपना अस्तित्व बचाने के लिए जद्दोजहद कर रहा है। देश के अनेक वन क्षेत्रों से शेर समाप्त हो चुके हैं। यह दुःखद ही है कि जिन जंगलों में शेरों का राज होता था वहां शेर बाहर से लाकर छोड़े जा रहे हैं। हस्तिनापुर  के जंगल में विभिन्न दुर्लभ प्रजातियों चंदन आदि के पेड़ हुआ करते थे, लेकिन आज इस पूरे करीब 400 वर्ग किलोमीटर के जंगल में एक भी चंदन का पेड़ नहीं बचा है। सब अधिकारियों की मिली भगत के चलते लालच की भेट चढ़ चुके हैं।

यह सब इसलिए अधिक हो रहा है क्योंकि जिस बकरी को शेर का भोजन बताया जाता है उसे मनुष्य खा रहा है। यही नहीं मनुष्य की जीभ का स्वाद बनने से शायद ही कोई जीव-जन्तु बचा हो। ऐसे में जैव-विविधता को बचाने की आखिर कल्पना कैसे की जा सकती है? समाज द्वारा प्रकृति के साथ खिलवाड़ करते हुएं एक घोर पाप यह किया जा रहा है कि गाय से उसके बगैर बियाहे ही दूध निकालने की व्यवस्था की जा रही है। ऐसा पशुओं के चिकित्सकों द्वारा अपनी कथित पढ़ाई व कुछ दवाईयों के दम पर किया जा रहा है।

अगर यह सिलसिला इसी प्रकार चलता रहा तो वर्तमान में चरमरा चुका जैव-विविधता चक्र भविष्य में पूरी तरह से टूट जाएगा। जैव-विविधता को बनाए रखना इसलिए आवश्यक है क्योंकि हम किसी एक चीज पर निर्भर नहीं रह सकते। हमारे चारों ओर के वातावरण में जो मौजूद विभिन्न प्रकार के जीव-जन्तु व पेड़-पौधे उतने ही आवश्यक हैं जितना कि हमारा दोनों समय भोजन करना और पानी पीना। लेकिन शायद हम भूल बैठे हैं कि जिन तत्वों पर हमारा जीवन टिका है, जब वे ही नहीं होंगे तो जीवन भी नहीं होगा।

(लेखक नैचुरल एन्वायरन्मेंटल एजुकेशन एंड रिसर्च फाउंडेशन के निदेशक हैं)