कृषि सुधारों को लागू करने से पहले किसानों को भरोसे में लेना जरूरी

कृषि क्षेत्र में मार्केटिंग सुधारों की जरूरत है क्योंकि देश की 50 फीसदी से अधिक आबादी के लिए खेती को फायदेमंद बनाना इन सुधारों के बिना संभव नहीं है। लेकिन सुधारों के लिए संबंधित पक्षों और खासतौर से किसानों की भागीदारी और विचार-विमर्श की लंबी और पारदर्शी प्रक्रिया की जरूरत है। सरकार ने पिछले साल जो कृषि सुधार किये हैं, उनके जरिये किसानों में जो संदेश गया, वह ठीक नहीं था। यही वजह है कि किसान तीन केंद्रीय कृषि कानूनों के खिलाफ कई महीनों से आंदोलन कर रहे हैं। इसके साथ ही न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का मुद्दा भी चर्चा का मुख्य बिंदु बन गया है।

किसानों की मांग है कि सभी फसलों के लिए एमएसपी पर खरीद की कानूनी गारंटी मिलनी चाहिए। किसान को कम से कम उसकी उपज का लागत मूल्य और उस पर उचित मुनाफा तो मिलना ही चाहिए। असल में कृषि बाजार की शर्तें किसानों के लिए प्रतिकूल हैं और उसमें बदलाव किये बिना किसानों और कृषि क्षेत्र की हालत को नहीं सुधारा जा सकता है। इसलिए सरकार को कृषि क्षेत्र के लिए एक व्यापक और समग्र नीति बनानी चाहिए।

ये विचार बिंदु सेंटर फॉर एग्रीकल्चर पॉलिसी (कैप) डायलॉग द्वारा आयोजित एक परिचर्चा में सामने आए। इसमें शिरकत करने वाले लोगों में कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) के पूर्व चेयरमैन डॉ. टी. हक, स्वदेशी जागरण मंच के सह-संयोजक प्रोफेसर अश्विनी महाजन, भारत कृषक समाज के चेयरमैन और पंजाब स्टेट फार्मर्स एंड फार्म वर्कर्स कमीशन के चेयरमैन अजय वीर जाखड़, भारतीय जनता पार्टी किसान मोर्चा को राष्ट्रीय उपाध्यक्ष नरेश सिरोही, जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर बिश्वजीत धर, काउंसिल फॉर सोशल डेवलपमेंट (सीएसडी) के डायरेक्टर प्रोफेसर नित्या नंद, जनता दल (यूनाइटेड) के वरिष्ठ नेता और पूर्व राज्य सभा सांसद के.सी. त्यागी, राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम (एनसीडीसी) के पूर्व डिप्टी मैनेजिंग डायरेक्टर डॉ. डी.एन. ठाकुर समेत तमाम दूसरे कृषि विशेषज्ञ शामिल थे।

कार्यक्रम की शुरुआत में कैप डायलॉग के चेयरमैन डॉ. टी. हक ने कहा कि देश के मौजूदा कृषि मार्केटिंग सिस्टम की तमाम खामियों को देखते हुए कृषि मार्केटिंग सुधारों की जरूरत महसूस की जाती रही है। नये केंद्रीय कृषि मार्केटिंग सुधार कानूनों का मकसद किसानों को उनके उत्पादों के बेहतर मूल्य दिलाने के लिए बाजार पहुंच बढ़ाने और मौजूदा खामियों को दूर करना रहा है। हालांकि इन कानूनों में सुधार की काफी गुंजाइश है। इसलिए बेहतर होगा कि सरकार को खुद ही सुधारों की जरूरत का संज्ञान लेते हुए इन कानूनों में बदलाव कर दे। सरकार का इस तरह का कदम इस समय देश में चल रहे किसान आंदोलन को समाप्त करने में मददगार साबित होगा। इन सुधारों के तहत देश भर में कृषि उत्पाद मंडी समिति कानून (एपीएमसी) तहत चलने वाली मंडियों और उसके बाहर ट्रेड एरिया दोनों के लिए एक समान नियामक व्यवस्था बनानी चाहिए। इसके साथ ही एक मजबूत नियामक प्रणाली बनाने की जरूरत जो विवाद निस्तारण के लिए प्रभावी साबित हो।

भारत कृषक समाज के चेयरमैन और पंजाब स्टेट फार्मर्स एंड फार्म वर्कर्स कमीशन के चेयरमैन अजय वीर जाखड़ ने कहा कि हमें कृषि नीतियां बनाने की प्रक्रिया की व्याख्या करने की जरूरत और उसमें व्यापक बदलाव की दरकार है, जिसमें सभी संबंधित पक्षों और खासतौर के किसानों की भागीदारी हो। संबंधित पक्षों की भागीदारी के बिना जो नीतियां बनेंगी उनको हमेशा शक की  निगाह से देखा जाता है। तीन केंद्रीय कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों का मौजूदा आंदोलन इसी वजह से खड़ा हुआ है क्योंकि इन कानूनों पर किसानों के साथ व्यापक विचार-विमर्श नहीं किया गया। इसके साथ जाखड़ का कहना है कि हमें एमएसपी के मुद्दे पर एक व्यापक विचार-विमर्श शुरू करने की जरूरत है। जिसके केंद्र में इसकी भावी व्यवस्था और किसानों के हितों के टिकाउपन को ध्यान में रखते हुए नीति निर्धारण किया जाए।

स्वदेशी जागरण मंच के सह-संयोजक प्रोफेसर अश्विनी महाजन ने कहा कि जहां तक नये कानूनों की बात है तो उनके बिना भी और अब उनके आने से भी कोई बड़ा फर्क कृषि और किसानों पर नहीं पड़ रहा है। हमें इस बात पर जोर देने की जरूरत है कि किसानों को उनके उत्पादों का बेहतर दाम कैसे मिले। इसके लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था को कैसे बेहतर किया जाए। वहीं तकनीक का उपयोग कर किसानों को कैसे बेहतर दाम सुनिश्चित किया जा सकता है। इसके लिए बीमा, तनीक और वेयरहाउस रसीद जैसे विकल्पों पर गौर करना चाहिए। जिस तरह से स्टॉक मार्केट में शेयरों पर अपर और लोअर सर्किट लगता है क्या इस तरह की व्यवस्था कृषि उत्पादों के मामले में लागू नहीं हो सकती है। उन्होंने कहा कि हर तरफ तकनीक की बात हो रही है लेकिन तीनों नये कृषि कानूनों में कहीं भी टेक्नोलॉजी का जिक्र नहीं है।

भारतीय जनता पार्टी किसान मोर्चा को राष्ट्रीय उपाध्यक्ष नरेश सिरोही का कहना था कि मौजूदा किसान आंदोलन पिछले लंबे समय से किसानों के वित्तीय संकट में फंसे होने और व्यापार की शर्तों के कृषि के प्रतिकूल होने के कारण किसानों की बढ़ती तकलीफ का नतीजा है। इसलिए  सरकार को किसानों को एमएसपी की कानूनी गारंटी देने के साथ ही इसे तय करने के लिए लागत पर 50 फीसदी मुनाफे को शामिल करना चाहिए। ऐसा करने से ही मौजूदा किसान आंदोलन का हल निकल सकता है।

प्रोफेसर बिश्वजीत धर ने कहा कि दुनिया के तमाम देश और खासतौर से अमेरिका और यूरोपीय यूनियन के देश किसानों की वित्तीय मदद करते हैं। भारत जैसे देश में जहां 50 फीसदी से ज्यादा आबादी कृषि पर निर्भर है वहां और अधिक मदद की जरूरत है। केवल मार्केटिंग सुधारों से किसानों के संकट का हल नहीं है और यह समस्या के केवल एक हिस्से को छूता है। हमें एक समग्र और व्यापक कृषि नीति की जरूरत और उसी के अनुरूप सुधारों को लागू किया जाना चाहिए। अमेरिका जैसे देश में हर चार साल में 500 पेज के दस्तावेज के रूप में कृषि नीति आती है जबकि वहां केवल दो फीसदी आबादी ही खेती पर निर्भर करती है। ऐसे में हमें इसकी कितनी जरूरत है उसे समझा जा सकता है।

डॉ डी.एन. ठाकुर ने किसानों के संगठन खड़े कर उनको मजबूत करने पर जोर देतु हुए कहा कि देश में कृषि क्षेत्र और किसानों के संकट को हल करने का यह सबसे बेहतर विकल्प है। हमें स्वायत्त सहकारी समितियों के गठन को बढ़ावा देना चाहिए जो संगठित रूप में किसानों के लिए मार्केट हासिल करने और उनके उत्पादों के बेहतर दाम सुनिश्चित करने का कारगर तरीका है। इन संगठनों को किसी भी रूप में सरकार और राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त होना चाहिए और इनका संचालन कुशल पेशेवरों के जरिये होना चाहिए।

रुरल वॉयस के संपादक हरवीर सिंह ने कहा कि किसानों को उनके उत्पादों के एमएसपी की कानूनी गारंटी मिलनी चाहिए और इसके लिए कारपेरेट जगत को भी आगे आना चाहिए। खाद्य उत्पादों का कारोबार करने वाली कंपनियों को उपभोक्ता मूल्य का बड़ा हिस्सा किसानों के साथ साझा करना चाहिए। डेयरी क्षेत्र में काम करने वाली सहकारी और निजी क्षेत्र की कंपनियां उपभोक्ता मूल्य का 70 फीसदी तक की हिस्सेदारी किसानो के साथ साझा करती हैं। यह काम दूसरी खाद्य उत्पाद कंपनियां क्यों नहीं कर सकती हैं, यह खुद एक बड़ा सवाल है।

हरवीर सिंह का कहना था कि किसानों को एमएसपी का गारंटी का मतलब यह नहीं कि सरकार को अपने संसाधनों के जरिये खुद बाजार में आने वाले सरप्लस कृषि उत्पादों को खरीदना होगा। इस धारणा को बदलने की जरूरत है क्योंकि खाद्य उत्पादों के बड़े हिस्से पर निजी कारोबार का कब्जा है और उसे बाजार में अपनी भागीदारी बढ़ानी होगी। कृषि को मुनाफे में लाने की नीतियों पर काम करने की जरूरत है। ऐसा होने से अर्थव्यस्था के दूसरे क्षेत्रों को भी फायदा होगा क्योंकि कृषि  क्षेत्र खुद में एक बड़ा बाजार है तो दूसरे क्षेत्रों की वृद्धि दर को बढ़ाने का काम करता है। इसके एक व्यवहारिक और समग्र कृषि नीति बनाकर उसे अमल में लाने की जरूरत है। केवल मार्केटिंग सुधारों को लागू करने से कृषि संकट को हल करना संभव नहीं है।

कृषि विधेयकों की इन खामियों को दूर करना जरूरी

सरकार द्वारा हाल ही में तीन कृषि विधेयक लाये गये जिसका किसानों में भारी विरोध है क्योंकि इन अध्यादेश से किसानों को अपना वजूद खत्म होने का डर हैं। और डर का मुख्य कारण हैं विधेयकों में आई विसंगतियां! इन विसंगतियों को दूर करने के लिए भारतीय किसान संघ ने सरकार को सुझाव दिया है कि किसानों की फसल खरीद के भुगतान की गारंटी सरकार ले क्योंंकि किसान मंडी के बाहर फसल विक्रय हेतु देगा तो क्या गारंटी कि उसका भुगतान व्यापारी द्वारा समय पर किया जायेगा। इसलिए सरकार गारंटर की भूमिका में रहे।

मंडियों में जब किसान अपनी फसल लेकर आता है तब उसे 8-10 फीसदी तक मंडी शुल्क देना पड़ता है। इसका फायदा यह था कि व्यापारी को किसानों का भुगतान समय पर करना पड़ता था क्योकि मंडी प्रशासन द्वारा व्यापारी पर समय पर भुगतान करने का दबाव रहता था। किन्तु व्यापारी जब मंडी के बाहर फसल खरीदेगा तो गारंटी कौ लेगा? इसलिए भारतीय किसान संघ गारंटर के रूप में सरकार को रहने की मांग करता है।

नये विधेयक में व्यापारी अगर तीन दिन में किसानों का भुगतान नहीं करता है तो पांच लाख रुपये तक का अर्थ दंड या दस हजार रुपये प्रति दिन है। यह बहुत कम है इसलिए इस पर कोई सुरक्षा कवच होना चाहिए। इसके अलावा सरकार जिन 24 फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) तय करती हैं, उन पर खरीद की अनिवार्यता का कोई प्रावधान इन विधेयकों में नहीं है। जबकि कहीं भी न्यूनतम समर्थन मूल्य से नीचे फसल की खरीद-बिक्री ना हो इसकी पुख्ता व्यवस्था सरकार द्वारा की जानी चाहिए जो इन विधेयकों के अंदर दिखाई नहीं देती है।

सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारण करने की विधि ठीक नहीं है। सरकार के बार-बार संज्ञान मे लाने के बाद भी एमएसपी A2+FL से निर्धारित की जाती हैं जबकि किसानों को लाभकारी मूल्य तभी मिलेगा जब एमएसपी C2 के आधार पर तय की जाए। कांट्रैक्ट खेती या अनुबंध आधारित खेती मे कंपनी और किसान के बीच विवाद की स्थिति उत्पन्न होने पर न्याय क्षेत्र एसडीएम, कलेक्टर या अन्य अनुविभागी अधिकारी को ना रखते हुए कृषि न्यायालयों की स्थापना होनी चाहिए क्योंकि एसडीएम, कलेक्टर या अन्य अधिकारी पर काम का बोझ ज्यादा रहता है जिससे वह समय पर सुनवाई करने में असमर्थ हैं। एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि भारत एक कृषि प्रधान देश है। इसमें हल चला कर मेहनत करने वालों, ट्रैक्टर चलाने वालों का देश है। यहां पूंजीपतियों, कंपनियों और कॉर्पोरेट को कभी भी कृषक के तौर पर मान्यता नहीं दी जानी चाहिए।

हाल में मध्यप्रदेश सरकार ने एक अध्यादेश जारी कर कहा है कि निजी मंडियों को मान्यता दी जाएगी। इसका अर्थ है कृषि बाजार केवल एपीएमसी के अधिकार क्षेत्र में नहीं रहेगा। यहां होना यह चाहिए कि जिन 24 फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय किया जाता है उस पर खरीद की गारंटी हो और सरकार एक बिल लेकर आये जिसका नाम एमएसपी गारंटी कानून हो। किसानों की फसल न्यूनतम समर्थन मूल्य से नीचे खरीदना दण्डनीय अपराध हो।

इसके अलावा जो व्यापारी कृषि उपज का व्यापार करना चाहता है उसे राज्य अथवा केन्द्र सरकार के अंतर्गत लाइसेंसधारी होना चाहिए। उसकी कोई सुरक्षित राशि यानी एफडी कहीं ना कहीं जमा होना चाहिए, उसको घोषित करो और एक एप्प बनाकर उसे सार्वजनिक करे। जिससे कोई भी किसान अपनी उपज बेचने से पहले उसे देखकर अपना वहम दूर कर ले। और तीसरी बात, कंपनी या कॉर्पोरेट को किसान का दर्जा ना दिया जाए। साथ ही देश में कृषि न्यायालय की स्थापना की जानी चाहिए और न्याय का क्षेत्र कृषक का गृह जिला होना चाहिए।

अगर अगले संसद सत्र में भारतीय किसान संघ की मांग के अनुसार किसानों के अनुकूल इसमे बदलाव नहीं किये गये तो भारतीय किसान संघ जन आंदोलन के माध्यम से सड़को पर उतरेगा

(लेखक भारतीय किसान संघ, सतवास, जिला देवास मध्यप्रदेश से जुड़े हैं)

फसल के दाम की गांरटी नहीं, खेती के कॉरपोरेटाइजेशन पर जोर

केंद्र सरकार ने किसानों के उत्पादों की बेहतर मार्केटिंग के लिए आर्थिक उदारीकरण की दिशा में तीन सुधार किए हैं। इनमें दो सुधारों के लिए पांच जून को राष्ट्रपति ने अध्यादेश जारी किए, क्योंकि इन फैसलों को कानूनी वैधता देने के लिए सरकार संसद सत्र का इंतजार नहीं करना चाहती थी। ये अध्यादेश हैं फार्मर्स प्रोड्यूस ट्रेड ऐंड कॉमर्स (प्रमोशन ऐंड फैसिलिटेशन) ऑर्डिनेंस, 2020 और फार्मर्स (एम्पावरमेंट ऐंड प्रोटेक्शन) एग्रीमेंट ऑन प्राइस एश्योरेंस ऐंड फार्म सर्विसेज ऑर्डिनेंस, 2020

तीसरा और जिसे सबसे बड़ा सुधार बताया गया है, वह है आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 के दायरे से खाद्यान्न, दालें, तिलहन, खाद्य तेल, आलू और प्याज को बाहर करना। अब इन उत्पादों के लिए कोई स्टॉक लिमिट नहीं होगी और न ही निर्यात पर प्रतिबंध लगेगा। इन उत्पादों की खरीद-बिक्री और देश भर में आवाजाही पर भी कोई प्रतिबंध नहीं होगा। केवल आपदा या आपात स्थिति में इन उत्पादों को स्टॉक लिमिट के दायरे में लाया जा सकेगा। सरकार का तर्क है कि इससे किसानों को बेहतर कीमत मिलेगी।

इन तीनों फैसलों में एक बात साझा है कि कृषि व्यापार और कृषि उत्पादों के संगठित कारोबार यानी कॉरपोरेटाइजेशन को बढ़ावा देना। इन तीनों फैसलों में किसानों को उपज के लाभकारी मूल्य या न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) और सुनिश्चित आय की कोई गारंटी नहीं है।

एक दूसरा पेच देखिए। फार्मर्स प्रोड्यूस ट्रेड ऐंड कॉमर्स (प्रमोशन ऐंड फैसिलिटेशन) ऑर्डिनेंस, 2020 के तहत सरकार ने किसानों की उपज का नहीं, उत्पादों का जिक्र किया है। यह केवल फसलों से संबंधित नहीं है, बल्कि किसानों के तमाम उत्पाद इस कानून का हिस्सा हैं। इसमें फसलों के अलावा पशुपालन, पॉल्ट्री और दूसरी गतिविधियों के उत्पाद शामिल हैं।

यानी इस कानून का दायरा बहुत व्यापक है। इन उत्पादों को राज्य के भीतर और बाहर किसी भी व्यक्ति, कंपनी, संस्थान, सहकारी समिति, फार्मर प्रोड्यूसर्स ऑर्गनाइजेशन (एफपीओ) को किसान से सीधे खरीदने-बेचने, लाने-ले जाने और स्टोर करने की छूट दी गई है। यह छूट एग्रीकल्चर प्रोड्यूस मार्केट कमेटी (एपीएमसी) एक्ट के तहत बनी राज्य सरकार की कृषि मंडियों के बाहर होगी और इन पर राज्य सरकार कोई शुल्क भी नहीं लगा सकेंगी।

असल में कृषि मार्केटिंग राज्य का विषय है और उसके तहत ही एपीएमसी की व्यवस्था है। लेकिन केंद्र सरकार ने एग्री मार्केटिंग शब्द की बजाय ट्रेड शब्द का इस्तेमाल किया है, जो केंद्र का विषय है। अंतरराज्यीय व्यापार भी केंद्र के अधिकार में आता है।  इसके लिए अभी नियम बनने हैं। उसके बाद निजी क्षेत्र इस कारोबार में उतर सकेगा। वह किसान के खेत से या निजी मंडी स्थापित कर उत्पादों की सीधे खरीद कर सकेगा।

सरकार का कहना है कि इस नई व्यवस्था से किसानों को ज्यादा  खरीदार मिलेंगे और वह केवल एपीएमसी के लाइसेंसी कारोबारियों के भरोसे नहीं रहेगा। इस तरह प्रतिस्पर्धा बढ़ने से किसानों को उपज का बेहतर दाम मिल सकेगा। इसके तहत पेमेंट की शर्तें तय करने और विवाद के निपटारे के लिए एसडीएम स्तर के अधिकारी या उसके द्वारा नियुक्त आर्बिट्रेशन कमेटी को अधिकृत किया गया है। विवाद अपीलीय प्राधिकरण और राज्य स्तर पर नहीं निपटता है तो केंद्र सरकार के संयुक्त सचिव के स्तर तक जा सकता है।

जाहिर है, किसानों के उत्पादों को संगठित क्षेत्र के तहत लाने का यह बड़ा कदम है और देश के बड़े कॉरपोरेट यानी रिलायंस, अडाणी, आइटीसी, महिंद्रा ऐंड महिंद्रा, फ्यूचर ग्रुप समेत तमाम दिग्गजों के लिए भारतीय कृषि बाजार में उतरने का रास्ता खुल गया है। लेकिन सबसे अहम बात है दाम। लेकिन इस अहम मसले पर यह अध्यादेश मौन है।

फार्मर्स (एम्पावरमेंट ऐंड प्रोटेक्शन) एग्रीमेंट ऑन प्राइस एश्योरेंस ऐंड फार्म सर्विसेज ऑर्डिनेंस, 2020 के तहत कंपनियों को किसानों के साथ कांट्रैक्ट फार्मिंग और कृषि उत्पादन से जुड़ी सेवाओं के संचालन के प्रावधान किये गये हैं। साथ ही इसमें लैंड लीजिंग का भी प्रावधान है जिसकी अवधि एक फसल सीजन के लेकर पांच साल तक हो सकती है।

इस अध्यादेश के मुताबिक, पहले से निर्धारित कीमत और गुणवत्ता मानकों के आधार पर फसल खरीद का कांट्रैक्ट हो सकता है। इसी तरह किसानों को सेवाएं देने का कांट्रैक्ट हो सकता है जिसमें बीज, खाद, पेस्टिसाइड की बिक्री से लेकर तमाम तरह की कृषि से जुड़ी सेवाएं शामिल हो सकती हैं। इसके तहत कंपनियां, प्रसंस्करण करने वाली कंपनियां, सहकारी संस्थाएं, एफपीओ किसानों के साथ कांट्रैक्ट कर सकते हैं। विवाद होने की स्थिति में लगभग वही व्यवस्था है जो फार्मर्स प्रॉड्यूस ट्रेड ऐंड कॉमर्स (प्रमोशन ऐंड फैसिलिटेशन) ऑर्डिनेंस, 2020 में है। लेकिन यहां भी उपज की कीमत तय करने या किसानों को लाभकारी मूल्य दिलाने की कोई व्यवस्था नहीं है। किसान को लाभकारी मूल्य कैसे मिलेगा, इसका कोई प्रावधान या पैमाना नहीं है। तीनों कानूनों में सुधारों का जोर प्रतिस्पर्धा के जरिये किसानों को बेहतर दाम मिलने की संभावना पर टिका है।

एक बात चौंकाने वाली है कि चीनी को आवश्यक वस्तु अधिनियम के दायरे से बाहर क्यों नहीं किया गया। इसमें दो मसले हैं। एक, गन्ने का एफआरपी तय करने का प्रावधान और उसके भुगतान के लिए शुगरकेन कंट्रोल ऑर्डर इस अधिनियम के तहत आता है। दूसरे, इस समय चीनी उद्योग कुछ मुश्किल में है और माना जा रहा है कि सरकार उसे अभी सुरक्षित रखना चाहती है। वैसे भी किसानों का चीनी मिलों पर भारी-भरकम बकाया है। लेकिन सवाल है कि अगर बाकी चीजों को आवश्यक वस्तु अधिनियम के दायरे से बाहर करने पर किसानों को सही दाम मिलेगा तो चीनी को उसके तहत क्यों रखा गया है? जबकि उत्तर प्रदेश जैसे बड़े चीनी उत्पादक राज्य में दो साल से गन्ने का दाम स्थिर है। इसी को शायद राजनीति कहते हैं।

साफ तौर पर इन सुधारों का मकसद देश में कृषि का कॉरपोरेटाइजेशन करना है। किसानों को सुनिश्चित आय या फसल के लाभकारी दाम की गारंटी की बजाय कृषि के कॉरपोरेटाइजेशन की कोशिशें  हावी हैं। दिग्गज कंपनियों के मुकाबले किसान कैसे मोलभाव करेगा? इस सौदेबाजी में किसानों के हित कैसे सुरक्षित रहेंगे? इस पर बहुत जोर नहीं दिया गया है। जबकि देश में कामयाब सहकारी संस्थाओं के जरिये किसानों को बेहतर दाम मिलने के उदाहरण मौजूद हैं तो देशव्यापी स्वायत्त सहकारी संगठन खड़ा करने पर जोर क्यों नहीं दिया जा रहा है?

जब सरकार पूरे देश को एक बाजार बनाने के लिए राज्यों की अनदेखी कर नए कानून बना सकती है तो यह काम सहकारी संस्थाओं को नौकरशाही और राजनीति से मुक्त करने के लिए क्यों नहीं किया जा सकता है। बेहतर होता कि सरकार किसानों की आय बढ़ाने के लिए मार्केटिंग की ताकत किसानों और उनके द्वारा स्थापित संस्थानों के हाथ में देती और कॉरपोरेट के साथ मिलकर खुद ढांचागत सुविधाओं पर निवेश करती।

 

कृषि से जुड़े 3 फैसले, जिन्हें ऐतिहासिक बता रही है सरकार

पहला फैसला: स्टॉक लिमिट खत्म 

बुधवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में हुई मंत्रिमंडल की बैठक में आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन को मंजूरी दी गई है। इससे दलहन, तिलहन, अनाज, आलू और प्याज आवश्यक वस्तु की सूची से बाहर हो जाएंगे। अब इन पर आपात स्थिति में ही स्टॉक लिमिट लगेगी। सूचना एवं प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर का कहना है कि इस फैसले से किसानों को लाभ पहुंचेगा और कृषि क्षेत्र का कायाकल्प हो जाएगा। सरकार का मानना है कि आवश्यक वस्तु अधिनियम की वजह से कृषि को नुकसान पहुंचा है।

आवश्यक वस्तु अधिनियम में बदलाव क्यों?

अनाज, दाल, तिलहन, आलू और प्याज जैसी वस्तुएं आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत आती हैं, इसलिए इन पर स्टॉक लिमिट लगती है और तय सीमा से ज्यादा भंडारण या ट्रांसपोर्टेशन नहीं हो सकता है। सरकार की सोच है कि स्टॉक लिमिट की पाबंदी के चलते इन वस्तुओं के कारोबार में निजी निवेश नहीं आ पाया। न ही इनका स्टोरेज और एक्सपोर्ट बढ़ पाया है।

सरकार का मानना है कि कृषि उपज के भंडारण, परिवहन, वितरण और आपूर्ति की पाबंदियां हटने से निजी और विदेशी निवेश को बढ़ावा मिलेगा। इससे कोल्ड स्टोरेज और सप्लाई चेन में निवेश आएगा। इस सब का फायदा किसानों को मिलेगा। इसलिए अब सिर्फ युद्ध या अकाल जैसी आपात स्थिति में ही कृषि उपज पर स्टॉक लिमिट जैसी पाबंदियां लगाई जाएंंगी।

दूसरा फैसला: मंडी में बिक्री की बाध्यता खत्म 

मंत्रिमंडल ने कृषि व्यापार की बाधाएं दूर करने के लिए एक अध्यादेश लाने का निर्णय लिया है। कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने बताया कि ‘एक राष्ट्र, एक कृषि बाजार’ बनाने के लिए कृषि उपज व्यापार एवं वाणिज्य (प्रोत्साहन व सुविधा) अध्यादेश, 2020 को मंजूरी दी गई है। इससे किसानों और व्यापारियों को देेेश में कहीं भी उपज खरीदने-बेचने की छूट मिलेगी।

सरकारी विज्ञप्ति के अनुसार, कृषि उपज की बिक्री में किसानों को कई बाधाएं आती हैं। उन्हें मंडी में ही पंजीकृत विक्रेताओं को ही उपज बेचनी पड़ती है। इसके अलावा एक राज्य से दूसरे राज्य के बीच व्यापार में भी कई रुकावटें हैं। सरकार इन बाधाओं को दूर करने जा रही है।

मंडी के बाहर भी उपज बेचने की छूट मिलने से किसानों के पास ज्यादा विकल्प होंगे और प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी जिससे किसानों को बेहतर दाम मिल सकेगा। इस अध्यादेश के जरिए ई-ट्रेडिंग को बढ़ावा देने की बात भी कही गई है।

इस सबसे किसान का भला होगा या ट्रेडर्स या बड़े रिटेलर का यह देखने वाली बात है।

तीसरा फैसला: कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग का रास्ता

किसानों और प्रोसेसर, एग्रीगेटर, होलसेलर, रिटेलर और एक्सपोर्टर के बीच कारोबार को आसान बनाने के लिए भी केंद्र सरकार एक अध्यादेश लेकर आ रही है।

माना जा रहा है कि यह अध्यादेश कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग का रास्ता साफ कर सकता है। वैसे, कहा ये जा रहा है कि इससे किसानों को नई तकनीक का लाभ मिलेगा और जोखिम घटने के साथ-साथ मार्केटिंग का खर्च भी घटेगा। किसान बिचौलियों को हटाकर अपने माल की डायरेक्ट मार्केटिंग कर सकेंगे।

फिलहाल ये सब दावे हैं। असल में क्या होगा, वो देखने वाली बात है। वैसे किसानों से पहले उद्योग जगत ने सरकार के इन फैसलों का स्वागत किया है।

सबसे बड़ा सवाल यह है कि इन फैसलों का लाभ किसानों को मिलेगा या व्यापारियों को या फिर ऑनलाइन रिटेल की दिग्गज कंपनियों को? डर यह है कि कहीं किसानों को मंडी से मुक्त करने के नाम पर मंडियों की रही-सही व्यवस्था भी ध्वस्त न हो जाए। क्योंकि कई साल पहले बिहार ने मंडी एक्ट खत्म किया था, वहां किसानों की हालत और भी बदतर है।

सवाल यह भी है कि जो मुक्त बाजार, जो ऑनलाइन तकनीक, जो मार्केट रिफॉर्म्स अमेरिका में भी किसानों की आमदनी नहीं बढ़ा पाए, उसी रास्ते पर चलकर भारत में किसानों का कल्याण कैसे होगा?

सरकार भले ही इन कृषि सुधारों को ऐतिहासिक बता रही है, लेकिन कृषि सुधार की इन बातों में किसान को उपज का सही दाम दिलाने और सुनिश्चित आय का जिक्र तक नहीं है।

 

 

 

 

किसान को नकद मदद चाहिए, ‘डिरेगुलेशन’ का झुनझुना नहीं

हमारे किसानों को स्वतंत्र करें। वो कोविड-19 के प्रभाव को कम करने में मददगार साबित हो सकते हैं। यहां पर स्वतंत्र करने का मतलब है कि उनकी सप्लाई चेन की रुकावटों को दूर किया जाए। जी हां, वही ‘सप्लाई चेन’ जिसका उल्लेख प्रधानमंत्री जी ने 12 मई को दिए अपने भाषण में 9 बार किया था। इसके बाद, वित्त मंत्री ने ‘फार्म-गेट इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए 1 लाख करोड़ रु. के एग्री इन्फ्रास्ट्रक्चर फंड’ तथा आवश्यक वस्तु अधिनियम एवं एपीएमसी एक्ट में संशोधन के लिए एक ‘लीगल फ्रेमवर्क’ के निर्माण की घोषणा की। कागजों पर देखें, तो ये सही दिशा में उठाए गए साहसी कदम मालूम पड़ते हैं, लेकिन आज फैली महामारी के संदर्भ में इनसे किसानों को कोई राहत नहीं मिलेगी।

कृषि सेक्टर में जान फूंकने का मौजूदा सरकार का पिछला रिकॉर्ड काफी निराशाजनक रहा है। साल 2004-05 से 2013-14 के बीच भारत की औसत कृषि जीडीपी वृद्धि 4 प्रतिशत थी, जो 2014-15 से 2018-19 के बीच गिरकर 2.9 प्रतिशत रह गई।

कृषि देश का सबसे बड़ा निजी क्षेत्र है, लेकिन केंद्र सरकार ने अनेक पाबंदियां लगाकर कृषि क्षेत्र को पूरी क्षमता का इस्तेमाल करने से रोक रखा है। कृषि को नियंत्रित करने की मानसिकता दो ऐतिहासिक कारणों से है। पहला, जब तक हरित क्रांति ने हमें आत्मनिर्भर नहीं बनाया, तब तक भारत खाद्यान्न के लिए विकसित देशों पर निर्भर था। हमारे किसान सूखा, बारिश जैसी हर चुनौती का सामना करते हैं फिर भी हर साल खाद्यान्न उत्पादन में रिकॉर्ड वृद्धि हुई है। अनाज के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) सरकार का दायित्व है, ताकि किसानों को ‘कृषि उत्पादन व उत्पादकता में वृद्धि’ होने पर भी स्थिर व उचित दाम मिल सके।

दूसरा, भारत की राजनैतिक अर्थव्यवस्था में किसानों को उचित दाम 1960 के बाद एक महत्वपूर्ण मुद्दा बन गया क्योंकि बड़े किसान राजनैतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हो चुके थे। किसानों ने अपनी नवअर्जित राजनैतिक शक्ति का उपयोग सरकारी हस्तक्षेप से ऊंचे व ज्यादा स्थिर दाम पाने के लिए किया, जिससे भारत दुनिया में खाद्यान्न का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक बन गया। इस प्रकार सालों से खाद्यान्न आयात करने की भारत की समस्या का अंत हुआ। हमारे लिए रिकॉर्ड स्तर पर खाद्यान्न का उत्पादन गर्व की बात है क्योंकि इसके साथ इतिहास जुड़ा हुआ है। किसी भी कृषि रिपोर्ट में सरकार सबसे पहले इसी का उल्लेख करती है।

खेत से लेकर खाने की मेज तक कृषि सेक्टर पर वास्तविक नियंत्रण सरकार के हाथ में है। प्रतिबंधात्मक स्वामित्व, लीज़ एवं टीनेंसी कानून के रूप में सरकार का पूरा ‘कैपिटल कंट्रोल’ है। अपनी जमीन निजी लोगों को बेचने या किराये पर देने में किसान के सामने कई बाधाएं हैं। खाद-बीज के दाम और पानी-बिजली पर सब्सिडी पर सरकारी नियंत्रण के रूप में सरकार का ‘इनपुट कंट्रोल’ रहता है। कृषि उपकरणों एवं कलपुर्जों पर जीएसटी भी एक तरह का नियंत्रण ही है।

आवश्यक वस्तु अधिनियम कृषि उत्पाद का मूल्य और मात्रा को नियंत्रित करता है। एपीएमसी एक्ट कृषि उपजों की खरीद-फरोख्त की ऐसी व्यवस्था है, जिसमें एकाधिकार, बिचौलिये और कमीशनबाजी हावी है। दुनिया के साथ भारत के किसानों के स्वतंत्र व्यापार को बाधित करने के लिए अनेक व्यापारिक प्रतिबंध हैं।

किसानों के कल्याण के लिए काम करने वाले अनेक विशेषज्ञ एवं नीति-निर्माताओं का मानना है कि भारतीय कृषि को धीरे-धीरे खोला जाना चाहिए। देश की आधी आबादी की आर्थिक स्थिति और पूरे देश की खाद्य सुरक्षा कृषि पर निर्भर है। इसलिए इस सेक्टर के लिए एक स्थिर व संतुलित दृष्टिकोण की आवश्यकता है, न कि डिरेगुलेशन के झुनझुने की। वित्त मंत्री की हाल की घोषणाओं में न तो किसानों को स्वतंत्र करने के लिए कोई ठोस प्रगतिशील नीतिगत उपाय दिए गए और न ही किसी सुधार का रोड मैप है। इन घोषणाओं में सुर्खियां बटोरने के लिए केवल ‘पैकेज’ दिए जाने की औपचारिकता पूरी कर दी।

इसके अनेक कारण हैं। कृषि राज्य का विषय है। केंद्र सरकार ज्यादा से ज्यादा एक ‘मॉडल कानून’ बना सकती है, जिसे सभी राज्य अपनाएं। लेकिन इन्हें अपनाना है या नहीं, यह राज्यों के ऊपर है। केंद्र सरकार ने ‘लिबरलाईज़िंग लैंड लीज़ मार्केट्स एंड इंप्लीमेंटेशन ऑफ मॉडल एग्रीकल्चरल लैंड लीज़ एक्ट, 2016’ पारित करके ऐसा किया भी था। लेकिन यह कानून सत्ताधारी दल के नेतृत्व वाले राज्यों सहित बहुत कम राज्यों ने अपनाया। इसलिए ‘कैपिटल कंट्रोल’ हटाए जाने का उपाय सफल नहीं हो सका।

कृषि वस्तुओं की मार्केटिंग भी राज्य का विषय है। ‘केंद्र सरकार द्वारा किसान को अपना उत्पाद आकर्षक मूल्य में बेच पाने के पर्याप्त विकल्प प्रदान करने के लिए एक कानून बनाए जाने’ तथा ‘स्वतंत्र अंतर्राज्यीय व्यापार की बाधाओं’ को दूर किए जाने की घोषणा करते हुए, वित्तमंत्री जी यह बताना भूल गईं कि यह केवल एक मॉडल कानून होगा, जिसे अपनाना या न अपनाना राज्य के ऊपर निर्भर करेगा, जैसा कि लैंड लीज़ एक्ट में हुआ था।

केंद्र सरकार के लिए दूसरा विकल्प ‘समवर्ती सूची’ की वस्तुओं में आश्रय लिया जाना है, जिसमें ‘खाद्य सामग्री’, ‘रॉ कॉटन’, ‘रॉ जूट’ एवं ‘पशु आहार’ सूचीबद्ध हैं। उसके लिए भी संविधान के अनुच्छेद 301 के तहत एक और कानून को पारित करना होगा।

वित्तमंत्री ने घोषणा की है कि किसानों को प्रोसेसर्स, एग्रीगेटर्स, बड़े रिटेलर्स, एक्सपोर्टर्स आदि से जुड़ने के लिए एक सुविधाजनक कानूनी ढांचा बनाया जाएगा। यह कागज पर बहुत अच्छा लगता है। लेकिन यह एक विस्तृत नीतिगत घोषणा है, जिसका कोई विवरण, रोडमैप या संस्थागत फ्रेमवर्क नहीं दिया गया है।

देश में फैली इस महामारी के दौरान, संसद या इसकी स्टैंडिंग कमेटी वीडियो कॉन्फ्रेंस के माध्यम से भी काम नहीं कर रही हैं। कोई संवैधानिक निगरानी नहीं है। कोई भी विधेयक जन परामर्श के लिए नहीं रखा गया। इसलिए अध्यादेश लाने से कोई भी उद्देश्य पूरा नहीं होगा। सरकार को संसद के मानसून सत्र में संपूर्ण कानूनी प्रारूप प्रस्तुत करना होगा। यह राज्यों से परामर्श लिए नहीं हो सकेगा। बिना संस्थागत प्रारूप के आनन-फानन में नीति थोपने का परिणाम वही होगा, जो बिना योजना के त्रुटिपूर्ण जीएसटी लागू करने का हुआ है।

‘प्राईस एवं ट्रेड कंट्रोल’ को आंशिक रूप से हटाया जाना भी आधा अधूरा उपाय है। कृषि को नियंत्रण मुक्त करने के लिए संपूर्ण ढांचा बदलना होगा। साथ ही लागत और पूंजी संबंधी नियंत्रणों को समाप्त करना होगा। इसके लिए काफी व्यापक योजना और संस्थागत ढांचे की जरूरत होगी। केंद्र सरकार द्वारा प्रारंभ की गई ई-नाम मंडियां बुनियादी ढांचे की योजना के अभाव में विफल साबित हुई हैं।

कोविड-19 के संकट में जब अर्थव्यवस्था संकट में है और किसानों को लागत के लिए पैसे की जरूरत है, ऐसे में उन्हें पुख्ता मदद दिए बिना अधूरी स्वतंत्रता देना उनका उपहास उड़ाने के बराबर है। अच्छा तो यह होता कि पहले उन्हें आर्थिक सहयोग दिया जाए और उसके बाद संस्थागत सुधारों की शुरुआत की जाए।

(लेखक तक्षशिला इंस्टीट्यूट, बैंगलोर में पब्लिक पॉलिसी का अध्ययन कर रहे हैं। लेख में अभिव्यक्त किए गए विचार उनके अपने हैं। लेख का इंग्लिश रूपांतरण सीएनएन न्यूज़18 में प्रकाशित हुआ था।)