कृषि मंत्रालय ने प्राइवेट कंपनियों को सौंपी फसल बीमा की अहम जिम्मेदारी

भारत सरकार के कृषि मंत्रालय ने प्राइवेट कंपनियों को प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना से जुड़ी एक अहम जिम्मेदारी सौंपी है। यह पहल उपज की पैदावार के सही अनुमानों और समय पर बीमा दावों के निस्तारण के लिए आधुनिक तकनीक के इस्तेमाल से जुड़ी है। इसके लिए कृषि मंत्रालय ने तीन प्राइवेट कंपनियों की सेवाएं लेने का फैसला किया है जो राज्य सरकारों द्वारा किये गये फसल कटाई प्रयोग (सीसीई) का निरीक्षण करेंगी और खुद भी ऐसे प्रयोग कर सकती हैं।  

कृषि मंत्रालय की ओर 8 मार्च को राज्य सरकारों को भेज गये एक पत्र के अनुसार, प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के तहत 13 राज्यों के 100 जिलों में ग्राम पंचायत स्तर पर तकनीक आधारित उपज अनुमानों के लिए प्रायोगिक अध्ययन कराये जा रहे हैं। इन अनुमानों की पुष्टि स्वतंत्र एजेंसियों द्वारा कराने का निर्णय लिया गया है। इसके लिए तीन एजेंसियों – इंडियन एग्रीबिजनेस सिस्ट्म्स-एग्रीवॉच, आईएआर इंश्योरेंस सर्वेयर्स एंड लॉस असेसर्स प्राइवेट लिमिटेड और लीड्सकनेक्ट सविर्सेज प्राइवेट लिमिटेड को चुना गया है।

इस चयन का क्या आधार था? और इसके लिए क्या प्रक्रिया अपनायी गई? इसकी जानकारी फिलहाल नहीं है। लेकिन ये एजेंसियां राज्य सरकार द्वारा किये गये फसल कटाई प्रयोगों का निरीक्षण करेंगी। इसके अतिरिक्त अपनी तरफ से भी ऐसे प्रयोग करेंगी। इन प्रयोगों के आधार पर फसल की पैदावार और जोखिम का आकलन किया जाता है। इस समूची प्रक्रिया में डेटा कलेक्शन की अहम भूमिका है, जिसके लिए रिमोट सेंसिंग, जीआईएस और डेटा एनालिटिक्स से जुड़ी तकनीक का इस्तेमाल होता है। इस तरह की टेक्नोलॉजी को कृषि के भविष्य के तौर पर भी देखा जा रहा है।      

स्वतंत्र एजेंसियों के चयन के बारे में कृषि मंत्रालय द्वारा राज्य सरकारों को लिखा पत्र

प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में शुरुआत से ही निजी क्षेत्र की भागीदारी रही है, इसलिए फसल कटाई प्रयोगों के निरीक्षण और अध्ययन में निजी क्षेत्र की भागीदारी कोई आश्चर्य की बात नहीं है। कृषि मंत्रालय ने राज्य सरकारों से इन एजेंसियों को पूरा सहयोग देने का अनुरोध किया है। यह कदम कृषि मंत्रालय की उन कोशिशों का हिस्सा है जिसके तहत फसल बीमा दावों के समय पर निस्तारण के लिए आधुनिक तकनीक के इस्तेमाल पर जोर दिया जा रहा है।

फसल कटाई प्रयोगों के लिए चुनी गई एजेंसियों में से एक लीड्स कनेक्ट सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड की ओर से जारी विज्ञप्ति के अनुसार, कंपनी रिमोट सेंसिंग, जीआईएस, आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस और डेटा एनालिटिक्स जैसी अत्याधुनिक तकनीकों के माध्यम से राज्य सरकार द्वारा किये गये क्रॉप कटिंग एक्सपेरीमेंट्स का सह-निरीक्षण करेगी। इसके अलावा कंपनी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान के कुल 25 जिलों की ग्राम पंचायतों में फसल कटाई प्रयोग करेगी। लीड्स कनेक्ट के चेयरमैन और प्रबंध निदेशक नवनीत रविकर का कहना है कि यह पारंपरिक डेटा कलेक्शन और रिमोट सेंसिंग तकनीक आधारित स्मार्ट सेंपलिंग कार्यप्रणाली का स्मार्ट सम्मिश्रण होगा। प्रबल संभावना है कि भविष्य में यह नई कार्यप्रणाली पारंपरिक विधि की जगह ले लेगी।

फसल बीमा के लिए उपज की पैदावार और नुकसान से जुड़े सही आंकड़े जुटाना बेहद महत्वपूर्ण है। आंकड़ों के आधार पर ही बीमा के जोखिम और सरकार द्वारा बीमा कंपनियों को होने वाले प्रीमियम के भुगतान का आकलन होता है। कृषि मंत्रालय की यह पहल डेटा कलेक्शन के इन्हीं प्रयासों से जुड़ी है।

गौर करने वाली बात यह भी है कृषि मंत्रालय ने भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) और कृषि विश्वविद्यालयों के विशाल तंत्र की बजाय निजी क्षेत्र की कंपनियों पर भरोसा किया है। यह आईसीएआर और उसके संस्थानों की प्रासंगिकता पर भी एक सवालिया निशान है।

फसल बीमा के लिए ड्रोन उड़ाने की अनुमति, लेकिन क्यों लगे 5 साल?

पांच साल पहले 2016 में जब प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना शुरू हुई तो इस योजना में ड्रोन के इस्तेमाल पर काफी जोर दिया गया था। कई वर्षों तक ड्रोन के इस्तेमाल को योजना की खूबियों में गिनाया गया। लेकिन ताज्जुब की बात है कि इस योजना के लिए ड्रोन के इस्तेमाल की अनुमति कृषि मंत्रालय को 18 फरवरी, 2021 को यानी पांच साल बाद मिली है। यह स्थिति तब है, जबकि अनुमति देने वाला और अनुमति लेने वाला मंत्रालय केंद्र सरकार के तहत काम करता है। इससे ड्रोन के उपयोग में आ रही कानूनी बाधाओं का अंदाजा लगाया जा सकता है।

नागर विमानन मंत्रालय की ओर से जारी आदेश के अनुसार, प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के तहत ड्रोन के जरिये देश के 100 जिलों में ग्राम पंचायत स्तर पर उपज अनुमान के आंकड़े जुटाने के लिए एयरक्राफ्ट रूल्स, 1937 से सशर्त छूट दी गई है। इससे पहले 29 जनवरी को नागर विमानन महानिदेशालय (डीजीसीए) ने कृषि मंत्रालय को फसल बीमा योजना के लिए सुदूर संचालित विमान प्रणाली (आरपीएएस) यानी ड्रोन के उपयोग की अनुमति दी थी। यह अनुमति फिलहाल एक साल के लिए और कई तरह की पाबंदियों के साथ दी गई है।

इस बारे में केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने ट्वीट किया था कि गेहूं और धान उत्पादक 100 जिलों में ड्रोन उड़ाने की अनुमति मिलने से फसल बीमा केे दावों का समय से निस्तारण सुनिश्चित होगा। इसमें कोई दोराय नहीं है कि कृषि में ड्रोन के उपयोग की कई संभावनाएं हैं। लेकिन सवाल यह है कि फिलहाल कृषि में ड्रोन का कितना उपयोग हो रहा है और इससे उत्पादकता और किसानों की आय पर क्या असर पड़ा है।

क्या होता है ड्रोन?

वास्तव में ड्रोन एक रिमोट संचालित एयक्राफ्ट सिस्टम (आरपीएएस) है जिसे अन्मैन्ड एरियल सिस्टम (यूएएस) भी कहते हैं। इसका उपयोग कई वर्षों से डिफेंस, पुलिस और आपदा प्रबंंधन समेत क्षेत्रों में किया जा रहा है। इस तकनीक को कृषि के भविष्य के तौर पर देखा जा रहा है। कई स्टार्ट-अप कृषि में ड्रोन की संभावनाओं तलाश रहे हैं। इस लिहाज से प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में ड्रोन के इस्तेमाल की छूट मिलना एक अच्छी पहल है।

फसल बीमा योजना में ड्रोन का इस्तेमाल

सवाल यह है कि जिस योजना में पहले दिन से ड्रोन के इस्तेमाल की बात कही जा रही है, उसे हरी झंडी मिलने में पांच साल क्यों लग गये। कृषि मंत्रालय में अतिरिक्त सचिव डॉ. आशीष कुमार भूटानी ने बताया कि प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में सेटैलाइट डेटा का इस्तेमाल किया जा रहा है। लेकिन खराब मौसम में सेटैलाइट की बजाय ड्रोन ज्यादा कारगर साबित हो सकते हैं, इसलिए 100 जिलों में ड्रोन के जरिये उपज उत्पादन और फसलों के नुकसान संबंधी आंकड़े जुटाए जाएंगे। कृषि मंत्रालय ने कुछ महीने पहले डीजीसीए को आवेदन किया था। इस प्रक्रिया में करीब तीन महीने का समय लगा है। क्योंकि नागर विमानन मंत्रालय और डीजीसीए के दिशानिर्देशों के अनुसार प्रस्ताव तैयार करना था।

नागर विमानन मंत्रालय में संयुक्त सचिव अंबर दुबे ने बताया कि सरकार कृषि, इन्फ्रास्ट्रक्चर, रूरल डेवलपमेंट और आपदा प्रबंधन जैसे क्षेत्रों में ड्रोन के इस्तेमाल को प्रोत्साहन दे रही है। कृषि से जुड़ी कई परियोजनाओं में ड्रोन के उपयोग की अनुमति दी गई है। गत वर्ष टिड्डी नियंत्रण में ड्रोन का बखूबी इस्तेमाल हुआ था। कृषि मंत्रालय का प्रस्ताव 100 जिलों से संबंधित था, फिर भी इसे प्राथमिकता के आधार पर मंजूरी दी गई है। अंबर दुबे का कहना है कि ड्रोन से जुड़े अप्रूवल में लोगों की सुरक्षा के साथ-साथ राष्ट्रीय सुरक्षा को भी ध्यान में रखना पड़ता है।

प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में ड्रोन के इस्तेमाल के लिए कृषि मंत्रालय ने 6 नवंबर, 2020 को डीजीसीए को पत्र लिखा था। मतलब, फसल बीमा योजना भले ही 2016 में लांच हुई, लेकिन ड्रोन के प्रयोग के लिए मंत्रालय 2019-20 में जाकर सक्रिय हुआ। कृषि मंत्रालय ने 2019 में फसल बीमा योजना में रिमोट सेंसिंग डेटा के उपयोग के लिए देश के 64 जिलों में एक पायलट स्टडी करायी थी। इसके आधार पर ही 100 जिलों में रिमोट सेंसिंग डेटा और ड्रोन तकनीक की मदद लेना का फैसला लिया गया। हालांकि, इस दौरान कुछ फसल बीमा कंपनियों ने अपने स्तर पर ड्रोन के इस्तेमाल के प्रयास भी किये हैैं।

ड्रोन के सामने नियमन की बाधाएं

दरअसल, ड्रोन रेगुलेशन और नियमन प्रक्रिया में देरी की वजह से 2014 से 2018 तक इस क्षेत्र की प्रगति काफी धीमी रही है। प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में ड्रोन की मदद लेने में समय लगने के पीछे यह भी एक वजह है। इसके अलावा ड्रोन के मामले में नागर विमानन मंत्रालय, गृह मंत्रालय और रक्षा मंत्रालय की एप्रोच में भी अंतर है। कई बार इस वजह से भी मंजूरी मिलने में समय लगता है।

ड्रोन इंडस्ट्री भारत में कई साल से नियम-कायदों और पाबंदियों में उलझी रही है। जबकि दूसरी तरफ ड्रोन का गैर-कानूनी इस्तेमाल भी तेजी से बढ़ रहा है। ड्रोन को लेकर कई साल तक नीतिगत अस्पष्टता भी रही है। साल 2014 में भारत सरकार ने ड्रोन के गैर-सरकारी इस्तेमाल पर पूरी तरह रोक लगा दी थी। हालांकि, इसके बावजूद चीन से आयातित हल्के ड्रोन की खरीद-बिक्री जारी रही। एक अनुमान के मुताबिक, देश में छोटे-बड़े करीब छह लाख ड्रोन हैं।

नए रेगुलेशन आने में कई साल बीते

2014 में ड्रोन पर पाबंदी लगने के बाद ड्रोन संबंधी रेगुलेशन जारी करने में सरकार को चार साल लगे। 27 अगस्त, 2018 रिमोट संचालित एयरक्राफ्ट सिस्टम (आरपीएएस) के लिए सिविल एविएशन रेगुलेशन (सीएपी) बने। इसके तहत 250 ग्राम से कम वजन के नैनो ड्रोन उड़ाने की छूट दी गई, जबकि 250 ग्राम से ज्यादा वजनी ड्रोन पर “नो परमिशन-नो टेक ऑफ” की नीति लागू कर दी। एक दिसंबर, 2018 से ड्रोन संचालन के लिए डिजिटल स्काई प्लेटफार्म पर रजिस्ट्रेशन अनिवार्य कर दिया गया है।

डिजिटल स्काई पोर्टल पर ड्रोन ऑपरेटर और डिवाइस दोनों का रजिस्ट्रेशन होता है। हरेक उड़ान से पहले ऑपरेटर को फ्लाइट प्लान देना पड़ता है। सुरक्षा के लिहाज से विभिन्न क्षेत्रों को ग्रीन, येलो और रेड जोन में बांटा गया है। ग्रीन जोन में सिर्फ उड़ान की सूचना पोर्टल पर देनी होती है जबकि येलो जोन में उड़ान के लिए अनुमति लेनी पड़ती है। रेड जोन में ड्रोन उड़ाने की अनुमति नहीं है। इसके अलावा ड्रोन के हार्डवेयर, सॉफ्टवेयर और संचालन संबंधी कई बाध्यताएं हैं।

कोरोना काल में काम आया ड्रोन

हालांकि, पिछले दो वर्षों में नागर विमानन मंत्रालय ने ड्रोन से जुड़े कई नीतिगत बदलाव किये हैं। डिजिटल स्काई पोर्टल के जरिये ड्रोन के रजिस्ट्रेशन और उड़ान अनुमति की प्रक्रिया को सरल और पारदर्शी बनाने की कोशिश की गई है। कोरोना संकट के दौरान राहत कार्यों के लिए सरकारी विभागों खासतौर पर पुलिस ने ड्रोन का खूब इस्तेमाल किया। ड्रोन के लिए मार्च, 2020 में डीजीसीए में भी एक गाइडेंस मैन्युअल जारी किया था। जिसके बाद जून में अन्मैन्ड एयरक्राफ्ट सिस्टम रूल्स, 2020 जारी किये गये। फिलहाल देश में ड्रोन का संचालन इन्हीं नियमों के तहत होता है।

ड्रोन और इससे जुड़ी सेवाएं प्रदान करने वाली कंपनी आईओटेकवर्ल्ड एविगेशन प्राइवेट लिमिटेड के तकनीकी निदेशक अनूप कुमार उपध्याय का कहना है कि नागर विमानन मंत्रालय ड्रोन से जुड़े रेगुलेशन को बेहतर बनाने का प्रयास कर रहा है। जिस तेजी से ड्रोन इंडस्ट्री बढ़ रही है, उसे देखते हुए सरकार को अनुकूल माहौल बनाने की जरूरत है। अन्यथा ड्रोन का गैर-कानूनी इस्तेमाल बढ़ेगा।

कृषि में ड्रोन का इस्तेमाल

खेती में ड्रोन का इस्तेमाल फसलों की मॉनिटरिंग, फसल की तैयारी, उपज के अनुमान, आपदा प्रबंधन, कीट नियंत्रण और फसलों पर छिड़काव के लिए किया जाता है। सेंसर, कैमरा, स्प्रेयर और मानवरहित उड़ान भरने की क्षमता के चलते बहुत से कामों में इसका इस्तेमाल किया जा सकता है।

महाराष्ट्र समेत कई राज्य सरकारों ने कृषि में ड्रोन के इस्तेमाल के लिए प्रयास कर रही हैं। भारत सरकार ने हैदराबाद स्थित अंतर्राष्ट्रीय फसल अनुसंधान संस्थान (इक्रीसेट) को ड्रोन के उपयोग की अनुमति दी है। स्काईमैट जैसी कई कंपनियां भी फसल और मौसम पूर्वानुमान के लिए ड्रोन की मदद ले रही हैं।

विशेष परिस्थितियों को छोड़कर भारत में ड्रोन के जरिये कीटनाशकों के छिड़काव की अनुमति नहीं है। यह कृषि के लिहाज से बड़ी बाधा है। इसके अलावा सख्त नियम-कायदे, महंगी कीमत, हार्डवेयर, सॉफ्टवेयर और ट्रेनिंग संबंधी कई तरह की बाधाएं भी हैं। अब देखना है कि इन बाधाओं को पार कर कृषि क्षेत्र में ड्रोन कितने कारगर साबित हो पाते हैं।

फसल बीमा के लिए 6 महीने से जारी किसान की बेटी का संघर्ष

पिछले सप्ताह केंद्र सरकार ने प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के 5 साल पूरे होने का जश्न बड़े जोरशोर से मनाया। लाखों करोड़ रुपये की योजना है। किसानों को आपदा से बचाने का बड़ा दावा है तो जश्न भी बड़ा ही मनना चाहिए। मना भी। लेकिन इस शोरगुल के बीच फसल बीमा का क्लेम पाने के लिए भटक रहे किसानों पीड़ा अनसुनी रह गई। इसलिए असलीभारत.कॉम ने उन किसानों की सुध लेने का बीड़ा उठाया है जो फसल बीमा के लिए बैंक, बीमा कंपनियों और कृषि विभाग के चक्कर काटने का मजबूर हैं। इस श्रृंखला की पहली कड़ी में पेश है राजस्थान के एक कृषक परिवार की आपबीती जो फसल बीमा योजना की पेचीदगियों को उजागर करती है और शिकायत निवारण की व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न लगाती है 

– संपादक

मैं एक किसान परिवार से ताल्लुक रखती हूं और खेती ही हमारा मुख्य व्यवसाय है। साल 2019 में अतिवृष्टि के कारण राजस्थान के कई जिलों में किसानों की फसलें खराब हुई थीं। हमारी भी हुई। चूंकि प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के तहत पंजीकरण करवा रखा था, इसलिए उम्मीद थी कि नुकसान की कुछ न कुछ भरपाई हो जाएगी। इसी आस में पिता जी ने बीमा क्लेम के लिए आवेदन भी किया।

पिछले साल जुलाई महीने की बात है। मेरे पास पिताजी का गांव (राजस्थान के चित्तौड़गढ़ के निम्बाहेडा ब्लॉक में भावलियां गांव) से फोन आया कि बीमा कंपनी के नंबर 0141-4042999 पर लगातार फोन कर रहे हैं, लेकिन कोई उठाता ही नहीं है। एक बार तुम भी इस नंबर पर बात करने की कोशिश करना। यह नंबर जयपुर का है और तुम जयपुर में हो तो बीमा कंपनी के ऑफिस जाकर पता करना कि 2019 में बर्बाद हुई खरीफ फसलों का बीमा क्लेम हमें क्यों नहीं मिला है। बैंक से पूछने पर मुझे जवाब मिला कि बीमा कंपनी से बात करो, हमें कोई जानकारी नहीं है। बीमा कंपनी कौन-सी है? उससे कैसे बात होगी? यह पूछने पर बैंक अधिकारी ने कहा कि हमें बीमा कंपनी के बारे में भी कोई जानकारी नहीं है। आपने आप पता करो! बैंक का यह रवैया बहुत हैरान और हताश करने वाला था।

इसके बाद मैंने बीमा कंपनी को गूगल पर सर्च किया तब कही जा कर मुझे एग्रीकल्चर इंश्योरेंस कंपनी ऑफ इंडिया के जयपुर क्षेत्रीय प्रबंधक का मोबाइल नंबर और ईमेल आईडी मिला। मैंने सभी बैंक खातों का विवरण देते हुए एक लंबा मेल अंग्रेजी में लिखा और पूछा कि एक साल बाद भी बीमा क्लेम क्यों नहीं मिला है। मैंने बीमा कंपनी के क्षेत्रीय प्रबंधक को फोन किया और अंग्रेजी में बात करते हुए पूरा मामला बताया। यहां ये बताना जरुरी है कि अगर यह बातचीत और ईमेल अंग्रेजी में नहीं होते शायद मेरी बात सुनी भी नहीं जाती।

बहरहाल, दो दिन बाद बीमा कंपनी का एक मेल आता है कि आपके तीन खातों में से दो खातों की कोई जानकारी हमें राष्ट्रीय बीमा पोर्टल पर प्राप्त नहीं हुई है। एक खाते की जानकारी मिली है, जिसका क्लेम मंजूर हो गया है और क्लेम की राशि एक सप्ताह में आपके बैंक खाते में पहुंच जाएगी। बाकी दो खातों की जानकारी मांगने पर बीमा कंपनी के क्षेत्रीय प्रबंधक ने बताया कि बैंक ने आधार विवरण भारत सरकार के नेशनल क्रॉप इंश्योरेंस पोर्टल पर अपलोड ही नहीं किया होगा, इसलिए हमारे पास इन खातों की सूचना नहीं पहुंची है। जब कोई विवरण ही नहीं आया है तो बीमा भी नहीं हुआ और इस वजह से क्लेम राशि भी नहीं मिल सकती है। तब तक नेशनल क्रॉप इंश्योरेंस पोर्टल वर्ष 2019 के लिये बंद हो चुका था। इस बीच पोर्टल को पुनः खोला गया था लेकिन फिर भी बैंकों ने ये त्रुटियां नहीं सुधारी।

हमने सम्बंधित बैंक शाखा (स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया, निम्बाहेडा, चित्तोड़गढ़, शाखा कोड-31238) से वापस संपर्क किया तो बैंक ने स्वीकार किया कि आधार विवरण पोर्टल पर अपलोड नहीं हो पाया, इसलिए बीमा नहीं हो पाया। इसके बाद मैंने राजस्थान के कृषि मंत्री, कृषि आयुक्त, कृषि विभाग के क्षेत्रीय निदेशकों और बीमा कंपनी को मेल भेजकर पूरे मामले से अवगत कराया। इनमें से सिर्फ बीमा कंपनी का जवाब आया, जिसमें कहा गया था कि अगर राष्ट्रीय बीमा पोर्टल पर किसानों का डाटा अपलोड नहीं हुआ है तो उनका बीमा भी नहीं हुआ है। और किसी भी माध्यम से किसानों के बारे में कोई जानकारी नहीं ली जाएगी। योजना के दिशानिर्देशों के अनुसार, सिर्फ वित्तीय संस्था यानी बैंक ही किसानों का विवरण राष्ट्रीय बीमा पोर्टल पर अपलोड कर सकता है।

इस मुद्दे को लेकर मैं पिछले 6 महीनों में कृषि विभाग, बैंक और बीमा कंपनियों से गुहार लगा रही हूं। बैंक ने मौखिक रूप से अपनी लापरवाही स्वीकार की है लेकिन लिखकर यह दिया है कि किसानों का आधार डेटा अपलोड नहीं होने और आधार व बैंक खातों में नाम मिस-मैच होने की वजह से विवरण अपलोड नहीं हो पाया। जबकि बैंक बिना आधार के ना तो आजकल खाते खोलता है और ना ही ऋण देता है। ये सभी कृषक क्रेडिट कार्ड योजना के ऋणी किसान हैं। इसलिए ऐसा होना भी मुश्किल है कि बिना आधार ये खाते संचालित हो रहे हो। अगर हो भी रहा है तब भी इस प्रकार की विसंगतियां दूर करना बैंकों और बीमा कंपनियों की जिम्मेदारी है।  

मतलब, किसानों से आधार विवरण लेने के बाद भी यदि बैंक वो विवरण पोर्टल पर अपलोड नहीं करता है तो उसकी जवाबदेही किसकी होगी? किसानों पर यह दोहरी मार है। पहले मौसम की मार और फिर सिस्टम की खामियों या लापरवाही की मार! इस मामले को लेकर राजस्थान सरकार के कृषि विभाग को भी ईमेल भेजा गया पर किसी का कोई जवाब नहीं आया था। कृषि उपनिदेशक, चित्तौड़गढ़ को कई बार फोन किया था, लेकिन जैसे ही उन्हें यह पता चला कि अमुक केस से सम्बंधित फोन है तो उन्होंने फोन उठाना ही बंद कर दिया। ऐसी परिस्थितियों में किसान कहां जाए? किससे मदद की उम्मीद करे?

बीमा पंजीकरण कराने और प्रीमियम की राशि कटने के बाद भी बैंक, बीमा कंपनी और कृषि विभाग के चक्कर काटने पर क्यों मजबूर होना पड़ रहा है। इस बीच, इस मुद्दे को ‘असलीभारत.कॉम’ नाम ने उठाया। इसी दौरान मैंने इस मामले पर संसदीय समिति और रिजर्व बैंक को भी लिखा। रिजर्व बैंक से यह मुद्दा बैंकिंग लोकपाल तक भी पहुंच गया था। संभवत: इसी तरह के प्रयासों का ही परिणाम था कि भारत सरकार ने सिर्फ राजस्थान के लिए राष्ट्रीय बीमा पोर्टल को 2 से 7 नवंबर, 2020 के मध्य पुनः खोल कर बैंकों से डेटा अपलोड करने को कहा। बैंकों ने अपनी भूल सुधारते हुए ये कर भी दिया।

कई बीमा कंपनियां किसानों को बकाया क्लेम राशि वितरित कर भी चुकी हैं। परंतु राज्य के 13 जिलों (हनुमानगढ़, चित्तौड़गढ़, बाड़मेर, अलवर, बारां, बीकानेर, धौलपुर, झालावाड़, झुंझुनूं, करोली, सिरोही, गंगानगर, उदयपुर) में फसल बीमा करने वाली बीमा एग्रीकल्चर इंश्योरेंस कंपनी ऑफ इंडिया ने किसानों को क्लेम राशि देने से साफ इंकार कर दिया है। अभी कुछ दिनों पूर्व कृषि आयुक्त से बात करने पर पता चला कि अब यह मामला भारत सरकार के पास विचाराधीन है।

कहा जा रहा है कि भारत सरकार जब तक बीमा कंपनी को पाबंद नहीं करेगी, तब तक 2019 के बीमा क्लेम से वंचित राजस्थान के इन किसानों को उनका हक नहीं मिल सकेगा। देखना है अभी और कितना इंतजार और कितना संघर्ष बाकी है। जिस योजना के 5 साल पूरे होने को उत्सव की तरह मनाया गया, अगर इतना ही ध्यान इसकी कमियों को दूर करने और शिकायत निवारण व्यवस्था को मजबूत करने पर दिया जाता तो मेरी जैसी किसान की बेटी को इतना जद्दाेजहद ना करनी पड़ती।

तोमर समेत 15 मंत्रियों पर गांव-किसान के कल्याण का जिम्मा

भारी बहुमत से दोबारा सत्ता में आई नरेंद्र मोदी सरकार में मंत्रालयों का बंटवारा हो गया है। अमित शाह को गृह मंत्रालय, राजनाथ सिंह को रक्षा, निर्मला सीतारमण को वित्त, नितिन गडकरी को परिवहन, एस. जयशंकर को विदेश और नरेंद्र तोमर को कृषि, ग्रामीण विकास और पंचायती राज मंत्रालय की जिम्मेदारी मिली है।

मोदी मंत्रिमंडल में सदानंद गौड़ा को रसायन एवं उर्वरक, पीयूष गोयल को रेल, धर्मेंद्र प्रधान को पेट्रोलियम व इस्पात, रविशंकर प्रसाद को कानून, संचार व आईटी, स्मृति ईरानी को कपड़ा, महिला एवं बाल विकास, डॉ. हर्षवर्धन को स्वास्थ्य, विज्ञान व तकनीक और रमेश पोखरियाल निशंक को मानव संसाधन विकास मंत्रालय मिला है।

मंत्रियों के बीच कामकाज के विभाजन के साथ-साथ कई मंत्रालयों के स्वरूप में भी फेरबदल किया गया है। गांव-किसान और खेती से जुड़े मंत्रालयों का जिम्मा अब एक-दो नहीं बल्कि कुल 15 मंत्रियों के पास रहेगा। अभी तक कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय के तहत आने वाले पशुपालन, डेयरी और मत्स्यपालन विभाग को अलग मंत्रालय का दर्जा मिल गया है।

कृषि मंत्रालय के साथ-साथ ग्रामीण विकास और पंचायती राज मंत्रालय की जिम्मेदारी नरेंद्र सिंह तोमर को दी गई है। इन तीनों मंत्रालय का संबंध गांंव-किसान से है इसलिए तीनों का जिम्मा एक ही कैबिनेट मंत्री के पास होना सही फैसला है। यह तोमर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बढ़ते भरोसे का भी सबूत है। उनके साथ कैलाश चौधरी और पुरुषोत्तम रूपाला को कृषि मंत्रालय में राज्यमंत्री बनाया गया है जबकि साध्वी निरंजन ज्योति ग्रामीण विकास मंत्रालय में राज्यमंत्री रहेेंगी।

मध्यप्रदेश भाजपा के वरिष्ठ नेता नरेंद्र सिंह तोमर इस बार मुरैना से सांसद हैं। वे पिछली मोदी सरकार में भी ग्रामीण विकास मंत्रालय का कार्यभार संभाल चुके हैं। इस बार राधा मोहन सिंह की जगह उन्हें कृषि मंत्रालय की जिम्मेदारी दी गई है।

पहली बार बने पशुपालन, डेयरी और मत्स्यपालन मंत्रालय में बिहार के अनुभवी सांसद गिरिराज सिंह कैबिनेट मंत्री होंगे। मुजफ्फरनगर से अजित सिंह जैसे दिग्गज को हराकर दूसरी बार संसद पहुंचे डॉ. संजीव कुमार बालियान और उड़ीसा में झोपड़ी वाले सांसद के तौर पर मशहूर प्रताप चंद्र सारंगी पशुपालन मंत्रालय में राज्यमंत्री बनाए गए हैं। बालियान खुद पशु चिकत्सक हैं और हरियाणा एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी में पढ़ा चुके हैं। उन्हें पिछली बार कृषि मंत्रालय और जल संसाधन मंत्रालय में राज्यमंत्री बनाया गया था लेकिन कार्यकाल पूरा होने से पहले ही हटा दिया था। इस बार पश्चिमी यूपी से पूर्व मुंबई पुलिस कमिश्नर डॉ. सत्यपाल सिंह की जगह संजीव बालियान को मोदी मंत्रिमंडल में जगह मिली है।

पिछली बार की तरह इस बार भी खाद्य एवं उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय का जिम्मा एनडीए की घटक लोक जनशक्ति पार्टी के नेता रामविलास पासवान के पास रहेगा।  पासवान पिछले 30 साल से ज्यादातर सरकारों में मंत्री रहे हैं। देश में अनाज की सरकारी खरीद, सार्वजनिक वितरण प्रणाली, महंगाई को काबू में रखने के उपाय और चीनी उद्योग इसी मंत्रालय के तहत आता है। इसलिए किसानों के लिहाज से यह भी कृषि जितना ही महत्वपूर्ण मंत्रालय है। महाराष्ट्र  भाजपा के अध्यक्ष और जालाना से सांसद रावसाहेब दादाराव दानवे को खाद्य एवं उपभोक्ता मंत्रालय में राज्यमंत्री बनाया गया है।

खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्रालय की जिम्मेदारी इस बार भी अकाली दल की नेता हरसिमरत कौर बादल के पास है। असम के युवा सांसद रामेश्वर तेली इस मंत्रालय में राज्यमंत्री हैैं।

इस बार एक बड़ा बदलाव जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्रालय में दिख रहा है।  इस मंत्रालय की जगह अब सिर्फ जल शक्ति मंत्रालय रह गया है।

जोधपुर से अशोक गहलोत के बेटे को मात देने वाले गजेंद्र सिंह शेखावत को जल शक्ति मंत्रालय में कैबिनेट मंत्री जबकि हरियाणा के रतन लाल कटारिया को राज्यमंत्री बनाया गया है। उमा भारती और नितिन गडकरी को मौका दिए जाने के बावजूद मोदी सरकार के पिछले कार्यकाल में गंगा की सफाई का काम बहुत प्रभावी ढंग से नहीं हो पाया था। शायद मंत्रालय का नाम बदलने के पीछे इस नाकामी से पीछा छुड़ाने की मंशा है।

खेती-किसानी और ग्रामीण विकास से जुड़े काम कई अलग-अलग मंत्रालयों और विभागों में बंटे होने को लेकर विशेषज्ञ सवाल उठाते रहे हैं। पिछली मोदी सरकार में “न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन” का नारा खूब गूंजा था। तब मिलते-जुलते कामकाज वाले मंत्रालयों को मिलाने या उनका कलस्टर बनाने  की काफी बातें हुई थीं, लेकिन यह काम आगे नहीं बढ़ा।

कृषि अर्थशास्त्री पीके जोशी ने हाल ही में कृषि और ग्रामीण विकास मंत्रालयों को मिलाने का सुझाव दिया है। इस बार प्रधानमंत्री मोदी ने ग्रामीण विकास, पंचायती राज के साथ कृषि मंंत्रालय का जिम्मा नरेंद्र सिंह तोमर को देकर इस दिशा में कदम भी बढ़ाया लेकिन कृषि मंत्रालय से पशुपालन को अलग कर दिया। खाद्य और खाद्य प्रसंस्करण पहले ही अलग-अलग हैं। उर्वरक कृषि के बजाय रसायन मंत्रालय के साथ है। इस तरह केंद्र सरकार में खेती-किसानी और गांव से जुड़े पहले से ज्यादा मंत्रालय और मंत्री हो गए हैं। देखना है कि एक दर्जन से ज्यादा मंत्री गांव-किसान का कितना भला कर पाते हैं।

 

कभी कृषि मंत्रालय का हिस्सा रहा उर्वरक अब रसायन मंत्रालय का हिस्सा है, जिसमें सदानंद गौड़ा कैबिनेट मंत्री और मनसुख मंडाविया राज्यमंत्री  हैं।

इससे पहले गुरुवार शाम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंत्रिमंडल के 57 सहयोगियों के साथ पद और गोपनीयता की शपथ ली थी। मोदी सरकार का पूरा मंत्रिमंडल इस प्रकार है:

 1. नरेंद्र मोदी (प्रधानमंत्री)

प्रधानमंत्री के पद के साथ कार्मिक, जन शिकायत और पेंशन, परमाणु ऊर्जा, अंतरिक्ष मंत्रालय. इसके अलाव वो सभी मंत्रालय जो किसी भी मंत्री को अलॉट न हुए हो

 2. राजनाथ सिंह (कैबिनेट मंत्री)

रक्षा मंत्रालय

 3. अमित शाह (कैबिनेट मंत्री)

गृह मंत्रालय

 4. नितिन गडकरी (कैबिनेट मंत्री)

सड़क परिवहन एवं राजमार्ग और सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम मंत्रालय

 5. सदानंद गौड़ा (कैबिनेट मंत्री)

रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय

 6. निर्मला सीतारमण (कैबिनेट मंत्री)

वित्त एवं कॉरपोरेट मामलों का मंत्रालय

 7. राम विलास पासवान (कैबिनेट मंत्री)

उपभोक्ता मामले, खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण मंत्रालय

 8. नरेंद्र सिंह तोमर (कैबिनेट मंत्री)

कृषि एवं किसान कल्याण, ग्रामीण विकास और पंचायती राज मंत्रालय

 9. रविशंकर प्रसाद (कैबिनेट मंत्री)

कानून एवं न्याय, संचार और इलेक्ट्रानिक एवं सूचना मंत्रालय

 10. हरसिमरत कौर बादल (कैबिनेट मंत्री)

खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्रालय

 11. एस. जयशंकर (कैबिनेट मंत्री)

विदेश मंत्रालय

 12. रमेश पोखरियाल निशंक (कैबिनेट मंत्री)

मानव संसाधन विकास मंत्रालय

 13. थावर चंद गहलोत (कैबिनेट मंत्री)

सामाजिक न्याय एवं सशक्तिकरण मंत्रालय

 14. अर्जुन मुंडा (कैबिनेट मंत्री)

आदिवासी मामलों का मंत्रालय

 15. स्मृति ईरानी (कैबिनेट मंत्री)

महिला एवं बाल विकास और कपड़ा मंत्रालय

 16. हर्षवर्धन (कैबिनेट मंत्री)

स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण, विज्ञान और प्रोद्योगिकी, भूविज्ञान मंत्रालय

 17. प्रकाश जावड़ेकर (कैबिनेट मंत्री)

पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन और सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय

 18. पीयूष गोयल (कैबिनेट मंत्री)

रेलवे और वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय

 19. धर्मेंद्र प्रधान (कैबिनेट मंत्री)

पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस और इस्पात मंत्रालय

 20. मुख्तार अब्बास नकवी (कैबिनेट मंत्री)

अल्पसंख्यक मामलों का मंत्रालय

 21. प्रह्लाद जोशी (कैबिनेट मंत्री)

संसदीय मामले, कोयला और खान मंत्रालय

 22. महेंद्र नाथ पांडेय (कैबिनेट मंत्री)

कौशल विकास एवं उद्यमिता मंत्रालय

 23. अरविंद सावंत (कैबिनेट मंत्री)

भारी उद्योग एवं सार्वजनिक उद्यम मंत्रालय

 24. गिरिराज सिंह (कैबिनेट मंत्री)

पशुपालन, डेयरी और मत्स्य पालन मंत्रालय

 25. गजेंद्र सिंह शेखावत (कैबिनेट मंत्री)

जल शक्ति मंत्रालय

 26. संतोष गंगवार (राज्य मंत्री-स्वतंत्र प्रभार)

श्रम एवं रोजगार मंत्रालय

 27. राव इंद्रजीत सिंह (राज्य मंत्री-स्वतंत्र प्रभार)

सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन और नियोजन मंत्रालय

 28. श्रीपद नाईक (राज्य मंत्री-स्वतंत्र प्रभार)

आयुष मंत्रालय (स्वतंत्र प्रभार), रक्षा मंत्रालय (राज्य मंत्री)

 29. जितेंद्र सिंह (राज्य मंत्री-स्वतंत्र प्रभार)

पूर्वोत्तर विकास (स्वतंत्र प्रभार), पीएमओ, कार्मिक, जनशिकायत और पेंशन, परमाणु उर्जा, अंतरिक्ष मंत्रालय (राज्य मंत्री)

 30. किरण रिजिजू (राज्य मंत्री-स्वतंत्र प्रभार)

युवा मामले एवं खेल (स्वतंत्र प्रभार), अल्पसंख्यक मामले (राज्य मंत्री)

 31. प्रह्लाद सिंह पटेल (राज्य मंत्री-स्वतंत्र प्रभार)

संस्कृति और पर्यटन (स्वतंत्र प्रभार)

 32. आरके सिंह (राज्य मंत्री-स्वतंत्र प्रभार)

बिजली, नवीन एवं नवीकरणीय उर्जा (स्वतंत्र प्रभार), कौशल विकास एवं उद्यमिता (राज्य मंत्री)

 33. हरदीप सिंह पुरी (राज्य मंत्री-स्वतंत्र प्रभार)

शहरी विकास और नागरिक उड्डयन मंत्रालय (स्वतंत्र प्रभार), वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय (राज्य मंत्री)

 34. मनसुख मंडाविया (राज्य मंत्री-स्वतंत्र प्रभार)

जहाजरानी (स्वतंत्र प्रभार), रसायन एवं उर्वरक (राज्य मंत्री)

 35. फग्गन सिंह कुलस्ते (राज्य मंत्री)

इस्पात राज्य मंत्री

 36. अश्विनी चौबे (राज्य मंत्री)

स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण राज्य मंत्री

 37. जनरल (रिटायर) वीके सिंह (राज्य मंत्री)

सड़क, परिवहन और राजमार्ग राज्य मंत्री

 38. कृष्ण पाल गुज्जर (राज्य मंत्री)

सामाजिक न्याय एवं सशक्तिकरण राज्य मंत्री

 39. दानवे रावसाहेब दादाराव (राज्य मंत्री)

उपभोक्ता मामले, खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण राज्य मंत्री

 40. जी. किशन रेड्डी (राज्य मंत्री)

गृह राज्य मंत्री

 41. पुरुषोत्तम रुपाला (राज्य मंत्री)

कृषि एवं किसान कल्याण राज्य मंत्री

 42. रामदास अठावले (राज्य मंत्री)

सामाजिक न्याय एवं सशक्तिकरण राज्य मंत्री

 43. साध्वी निरंजन ज्योति (राज्य मंत्री)

ग्रामीण विकास राज्य मंत्री

 44. बाबुल सुप्रियो (राज्य मंत्री)

पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन राज्य मंत्री

 45. संजीव कुमार बलियान (राज्य मंत्री)

पशुपालन, डेयरी और मत्स्य पालन राज्य मंत्री

 46. धोत्रे संजय शमराव (राज्य मंत्री)

मानव संसाधन विकास, संचार और इलेक्ट्रानिक्स एवं सूचना प्रौद्योगिकी राज्य मंत्री

 47. अनुराग सिंह ठाकुर (राज्य मंत्री)

वित्त और कॉरपोरेट मामलों के राज्य मंत्री

 48. सुरेश अंगादि (राज्य मंत्री)

रेल राज्य मंत्री

 49. नित्यानंद राय (राज्य मंत्री)

गृह राज्य मंत्री

 50. वी मुरलीधरन (राज्य मंत्री)

विदेश, संसदीय कार्य राज्य मंत्री

 51. रेणुका सिंह (राज्य मंत्री)

आदिवासी मामलों की राज्य मंत्री

 52. सोम प्रकाश (राज्य मंत्री)

वाणिज्य एवं उद्योग राज्य मंत्री

 53. रामेश्वर तेली (राज्य मंत्री)

खाद्य प्रसंस्करण उद्योग राज्य मंत्री

 54. प्रताप चंद्र सारंगी (राज्य मंत्री)

सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम और पशुपालन, डेयरी एवं मत्स्य पालन राज्य मंत्री

 55. कैलाश चौधरी (राज्य मंत्री)

कृषि एवं किसान कल्याण राज्य मंत्री

 56. देबाश्री चौधरी (राज्य मंत्री)

महिला एवं बाल विकास राज्य मंत्री

57. अर्जुन राम मेघवाल (राज्य मंत्री)

संसदीय कार्य, भारी उद्योग एवं सार्वजनिक उद्यम राज्य मंत्री

58. रतन लाल कटारिया (राज्य मंत्री)

जलशक्ति और सामाजिक न्याय एवं सशक्तिकरण राज्य मंत्री

 

किसान और खेती की आउटसोर्सिंग से किसका भला होगा?

पिछले 20 साल के दौरान हर रोज औसतन 2035 किसान मुख्‍य खेतीहर का दर्जा खो रहे हैं।

 

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कृषि प्रधान भारत की विडंबना यह है कि एक के बाद एक सरकारों की नीतियों, लागत व मूल्‍य नीति की खामियों और घटती जोत के आकार के चलते किसान और समूचा कृषि क्षेत्र मुश्किल में उलझा हुआ है।

इसका प्रत्‍यक्ष प्रमाण यह है कि पिछले 20 साल के दौरान हर रोज औसतन 2035 किसान मुख्‍य खेतीहर का दर्जा खो रहे हैं। इसके पीछे एक बड़ी वजह यह है कि सभी सरकारें महंगाई पर काबू करने के नाम पर किसानों को उनकी उपज का पूरा दाम देने से बचती रही हैं। यह सिलसिला आगे भी जारी रहेगा। किसान की बदकिस्‍मती देखिए कि वह हर चीज फुटकर में खरीदता है, थोक में बेचता है और दोनों तरफ का भाड़ा भी खुद ही उठाता है।

एनएसएसओ के 70वें राउंड के आंकड़े बताते हैं कि राष्‍ट्रीय स्‍तर पर कृषक परिवार की औसत मासिक आमदनी महज 6426 रुपये है। इस औसत आमदनी में खेती से प्राप्‍त आय का हिस्‍सा महज 47.9 फीसदी है जबकि 11.9 फीसदी आय मवेशियों से, 32.2 फीसदी मजदूरी या वेतन से और 8 फीसदी आय गैर-कृषि कार्यों से होती है।

बढ़ती लागत के चलते किसान का मुनाफ लगातार घटता जा रहा है। वर्ष 2015 में पंजाब के कृषि विभाग ने बढ़ती लागत के मद्देनजर गेहूं का न्‍यूनतम समर्थन मूल्‍य 1950 रुपये प्रति कुंतल तय करने की सिफारिश की थी। खुद पंजाब के मुख्‍यमंत्री ने कृषि लागत एवं मूल्‍य आयोग यानी सीएसीपी और केंद्र सरकार से गेहूं का एमएसपी 1950 रुपये करने की मांग की थी। लेकिन नतीजा क्‍या हुआ? गेहूं का एमएसपी महज 1525 रुपये तय किया गया। अब बताईये 425 रुपये प्रति कुंतल का नुकसान किसान कैसे उठाएगा?

केंद्र में नई सरकार आने के बाद किसानों को उम्‍मीद जगी थी कि स्‍वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट को लागू किया जाएगा। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी चुनावी सभाओं में किसानों को लागत पर 50 फीसदी मुनाफा दिलाने का वादा किया था। लेकिन ये उम्‍मीदें भी फरवरी, 2015 ने चकनाचूर हो गईं जब केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि वह कृषि उपज का न्‍यूनतम समर्थन मूल्‍य लागत से 50 फीसदी ज्‍यादा बढ़ाने में सक्षम नहीं है। केंद्र सरकार की ओर से दाखिल हलफनामे में कहा गया है कि लागत पर 50 फीसदी बढ़ोतरी बाजार में उथलपुथल ला सकती है। तर्क यह है कि 60 करोड़ लोगों सिर्फ इसलिए वाजिब दाम से वंचित रखा जाए ताकी बाजार न बिगड़े। इस तरह की नीतियां लागू करने वाले सरकारी अधिकारी क्‍या 30 दिन काम कर 15 दिन का वेतन लेने को तैयार हैं? फिर किसान के साथ ये खिलवाड़ क्‍यों?

कृषि के मामले में नीतिगत खामियों का सिलसिला उपज के दाम तक सीमि‍त नहीं है। और भी तमाम उदाहरण हैं। सरकार ने 5 लाख टन ड्यूटी फ्री मक्‍का का आयात किया था जिससे कीमतों में जबरदस्‍त गिरावट आई। अब इसमें मक्‍का उगाने वाले किसान का क्‍या दोष जो समर्थन मूल्‍य से कम से उपज बेचने को मजबूर हुआ? क्‍या ऐसे स्थितियों में सरकार को किसान के नुकसान की भरपाई नहीं करनी चाहिए? क्‍या इसी तरह के हालत किसान को कर्ज के जाल में नहीं उलझाते हैं? मांग और आपूर्ति की स्थिति को देखते हुए कृषि उपज के आयात या निर्यात के फैसले सरकार को लेने होते हैं लेकिन इन फैसलों में किसान के हितों की रक्षा भी तो होनी चाहिए।

हाल ही में केंद्र सरकार ने मोजांबिक से दाल आयात के लिए दीर्घकालीन समझौता किया है। इसके तहत वर्ष 2021 तक 2 लाख टन दालों का आयात किया जाएगा। भारत सरकार मोजांबिक में कॉपरेटिव फार्मिंग का नेटवर्क खड़ा करेगी और किसानों को दलहन उत्‍पादन के लिए अच्‍छे बीज और सहायता दी जाएगी। इन किसानों की उपज को सरकार न्‍यूनतम समर्थन मूल्‍य पर खरीदेगी।

हैरानी की बात यह है कि सरकारी एजेंसियां भारत में सिर्फ 1 फीसदी दालों की खरीद न्‍यूनतम समर्थन मूल्‍य पर कर पाती हैं। जबकि यही सरकार अफ्रीका के किसानों को 100 फीसदी खरीद एमएसपी पर करने का भरोसा दिला रही है। ऐसा भरोसा भारत के किसानों को दिया जाए तो यहां भी दलहन उत्‍पादन बढ़ सकता है। इसका सबूत यह है कि इस साल दलहन के समर्थन मूल्‍य में सरकार ने 425 रुपये प्रति कुंतल तक की बढ़ोतरी की है और 15 जुलाई तक दलहन की बुवाई में गत वर्ष के मुकाबले 40 फीसदी बढ़ोतरी दर्ज की जा चुकी है। अधिकांश कृषि विशेषज्ञों का मानना है कि खेती की आउटसोर्सिंग भारतीय किसानों के हितों के खिलाफ है।

हालांकि, सरकार ने मुख्‍य आर्थिक सलाहकार के नेतृत्‍व में दलहन पर नीति बनाने के लिए एक समिति का गठन किया है जो एमएसपी, बोनस और दालों के उत्‍पादन के लिए किसानों को रियायतें आदि देने जैसे विकल्‍पों पर विचार करेगी। लेकिन दिक्‍कत यह है कि सरकार अपनी नीतिगत खामियों की तरफ तभी ध्‍यान देती है जबकि राष्‍ट्रीय स्‍तर पर बवाल खड़ा हो जाए। जबकि कामचलाऊ उपायों के बजाय दीर्घकालीन नीतियों और उपायों के जरिये किसान को सहारा देने की जरूरत है।

डेढ़ दशक के अभियान के बाद भी जानलेवा खुरपका-मुंहपका रोग

ICAR के संस्थानों में वैक्सीन लगाने के बाद भी यह बीमारी फैलती है और सैकड़ों पशु मौत के मुंह में चले जाते हैं। इसके बावजूद सरकार वैक्‍सीन सप्‍लाई करने वाली कंपनी पर कोई कार्रवाई नहीं करती।

मवेशियों के लिए जानलेवा खुरपका व मुंहपका रोग (FMD) तमाम सरकारी कोशिशों और हजारों करोड़ रुपये के खर्च के बावजूद पूरी तरह काबू में नहीं आ पाया है। दो साल पहले खुरपका-मुंहपका रोग रोकथाम कार्यक्रम के तहत दी जाने वाली वैक्सिन की गुणवत्‍ता पर गंभीर सवाल खड़े हुए थे। पशु कल्‍याण और गौरक्षा का दावा करने वाले राजनैतिक दल और संगठन भी मवेशियों की रक्षा से जुड़े इस मुद्दे को लेकर चुप्‍पी साधे हुए हैं।

वर्ष 2014 में बागपत स्थित चौधरी चरण सिंह नेशनल इंस्‍टीट्यूट ऑफ एनीमल हेल्‍थ के वैज्ञानिकों की एक टीम ने खुरपका-मुंहपका रोोकथाम कार्यक्रम के तहत दी जाने वाले वैक्‍सीन के नमूनों की जांच की थी। इस जांच में 10 नमूनों के गुणवत्‍ता मानकों पर फेल होने का दावा किया गया था। हालांकि, बाद में कृषि मंत्रालय की ओर से गठित एक पैनल ने वैक्‍सीन पर सवाल उठाने वाली रिपोर्ट को ही दोषपूर्ण करार दिया और जांच टीम का नेतृत्‍व करने वाले वैज्ञानिक डॉ. भोगराज सिंह के खिलाफ कार्रवाई की सिफारिश की।

खुरपका-मुंहपका रोग रोकथाम कार्यक्रम केंद्र सरकार ने वर्ष 2004 में शुरू किया था। हर साल इस कार्यक्रम के तहत सैकड़ों करोड़ रुपये की वैक्‍सीन का इस्‍तेमाल होता है जिनकी सप्‍लाई कई प्राइवेट कंपनियां करती हैं। करीब डेढ़ दशक से चल रहे इस कार्यक्रम के बावजूद पशुओं की जानलेवा बीमारी पर पूरी तरह अंकुश नहीं लग पाया है। वर्ष 2013-14 में देश में खुरपका-मुंहपका रोग ने महामारी को रूप लिया और हजारों मवेशियों की मौत का कारण बना। वर्ष 2015 में भी देश भर में इस रोग के फैलने के 450 से ज्‍यादा मामले दर्ज किए गए थे।

सरकारी संस्‍थान भी खुरपका-मुंहपका से मुक्‍त नहीं 

खुरपका-मुंहपका रोग की वैक्‍सीन के निर्माण और प्रमाणन प्रक्रिया में कथित खामियां उजागर करने वाले भारतीय पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान (आइवीआरआई) के प्रधान वैज्ञानिक डॉ. भोजराज सिंह ने हाल ही में अपने फेसबुक पोस्‍ट में दावा किया है कि देश के प्रमुख डेयरी संस्‍थान एनडीआरआई, करनाल में वर्ष 2011 में FMD के फैलनेे की जानकारी मिली है जिससे 271 पशु प्रभावित हुए और 10 जानवरों की मौत हुई थी। जबकि पूरे फार्म में रोग फैलने से दो महीने पहले ही वैक्‍सीन दिए गए थे। देश का नामी पशुविज्ञान संस्‍थान आईवीआरआई भी अपनी जानवरों को खुरपका-मुंहपका रोग से नहीं बचा पाया था।

देश भर में इस बीमारी की रोकथाम के व्‍यापक कार्यक्रम के बावजूद इसका शिकार होने वाले पशुओं की तादाद वर्ष 2008 में 278 से बढ़कर 2013 में 8843 तक पहुंच गई। ऐसा कोई दूसरा उदाहरण मिलना वाकई मुश्किल है जहां रोकथाम हजारों करोड़ रुपये खर्च करने के बावजूद मरने वाले पशुओं की संख्‍या 40 गुना तक बढ़ी। व्‍यापक वैक्सीनेशन के बावजूद वर्ष 2013-14 में कर्नाटक और दक्षिण भारत के दूसरे भागों में यह बीमारी फैली। उत्तर प्रदेश में 10 में से 7 प्रकोपों का टीकाकृत पशुओं में होना कई सवाल खड़े करता है।

अपने ही वैज्ञानिक के खिलाफ खड़ा कृषि मंत्रालय 

हैरानी की बात है कि ICAR के संस्थानों (IVRI, इज़्ज़त नगर; NDRI करनाल, IGFRI झाँसी आदि) में FMD वैक्सीन के बाद भी यह बीमारी फैलती है और हज़ारों पशुओं के उत्पादन को ठप्प कर देती है। सैकड़ों पशु मौत के मुंह में चले जाते हैं। इसके बावजूद सरकार वैक्‍सीन सप्‍लाई करने वाली कंपनी पर कार्रवाई नहीं करती बल्कि वैक्‍सीन की गुणवत्‍ता पर सवाल उठाने वाले वैज्ञानिक के खिलाफ ही 102 करोड़ रुपये की मानहानि का मुकदमा दायर कराया जाता है।

एफएमडी वैक्‍सीन की गुणवत्‍ता पर रिपोर्ट देने वाले डॉ. भोजराज सिंह को कानूनी कार्रवाई का सामना करना पड़ रहा है। उन पर गलत तरीके से जांच करने, रिपोर्ट सार्वजनिक करने और सरकारी कार्यक्रम की छवि धूमिल करने के आरोप हैं। एक वैक्‍सीन निर्माता कंपनी ने भी उन पर मानहानि का दावा किया है। विडंबना देखिए, वैक्‍सीन में कथित खामियां उजाकर करने वाले वैज्ञानिक का बचाव करने के बजाय कृषि मंत्रालय उन्‍हीं के खिलाफ खड़ा नजर आता है। जबकि यह मामला देश के लाखों-करोड़ों मवेशियों की सेहत से जुड़ा है।