नया परमाणु विधेयक: निजी कंपनियों के लिए दरवाजे खुले, दुर्घटना में आपूर्तिकर्ताओं की जवाबदेही लगभग खत्म!
केंद्र की मोदी सरकार ने सोमवार (15 दिसंबर) को लोकसभा में एक नया विधेयक पेश किया, जो परमाणु दुर्घटनाओं की स्थिति में आपूर्तिकर्ताओं के लिए भारत के सख्त कानून को खत्म करने के साथ ही निजी कंपनियों को उस क्षेत्र में प्रवेश करने की अनुमति देता है जो अब तक विशेष सार्वजनिक उद्यमों के लिए आरक्षित था.
रिपोर्ट के अनुसार, नाभकीय ऊर्जा का सतत दोहन एवं उन्नयन विधेयक (शांति), 2025, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उस बयान के कुछ सप्ताह बाद आया है जिसमें उन्होंने कहा था कि उनकी सरकार देश की ऊर्जा सुरक्षा को मजबूत करने और तकनीकी क्षमताओं को बढ़ाने के लिए भारत के परमाणु उद्योग को निजी कंपनियों के लिए खोलने की तैयारी कर रही है.
यह नया विधेयक परमाणु ऊर्जा अधिनियम, 1962 – जो भारत के परमाणु क्षेत्र से संबंधित प्राथमिक कानून है – और परमाणु क्षति के लिए नागरिक दायित्व अधिनियम, 2010 का स्थान लेगा, जिसका अमेरिकी परमाणु आपूर्तिकर्ता लंबे समय से वहां की सरकार के समर्थन से विरोध करते रहे हैं.
यह नया कानून – जो अमेरिकी कंपनियों को अरबों डॉलर के रिएक्टरों की बिक्री में सुविधा प्रदान करेगा – ट्रंप प्रशासन के साथ कठिन व्यापार वार्ताओं की पृष्ठभूमि में आया है, जिसमें ट्रंप प्रशासन अमेरिकी निगमों के लिए भारत में अधिक व्यावसायिक अवसरों की मांग कर रहा है.
मालूम हो कि जब 2010 का कानून लागू हुआ था, तो भारतीय जनता पार्टी ने अमेरिकी परमाणु लॉबी की मांग के अनुसार दो प्रमुख प्रावधानों को कमजोर करने का विरोध करने में वामपंथी दलों का समर्थन किया था:
(1) धारा 17 (ख), जो किसी भारतीय परमाणु संचालक को पीड़ितों को मुआवजे के भुगतान के संबंध में ‘प्रतिक्रिया का अधिकार’ प्रदान करती है, जहां ‘परमाणु दुर्घटना आपूर्तिकर्ता या उसके कर्मचारी के किसी ऐसे कृत्य के परिणामस्वरूप हुई हो, जिसमें स्पष्ट या गुप्त दोषों वाले उपकरण या सामग्री की आपूर्ति या निम्न-स्तरीय सेवाएं शामिल हैं.’
(2) धारा 46, जिसमें कहा गया है कि परमाणु संयंत्र का संचालक ‘इस अधिनियम के अलावा, ऐसे संचालक के विरुद्ध शुरू की जा सकने वाली किसी भी कार्यवाही से मुक्त नहीं होगा’, यानी जो दुर्घटना के पीड़ितों को क्षतिपूर्ति के लिए संचालक पर मुकदमा करने की अनुमति देती है (अपराध के दावे).
जनवरी 2015 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के छह महीने बाद विदेश मंत्रालय ने 2010 के सीएलएनडीए में संशोधन करने के अमेरिकी प्रशासन की मांग को शांत करने के लिए एक ‘एफएक्यू‘ जारी किया, जिसमें इन दो प्रावधानों को सीमित करने का प्रयास किया गया था.
तब अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने सार्वजनिक रूप से घोषणा करते हुए कहा दिया था कि भारत और अमेरिका ने ‘दो मुद्दों पर एक महत्वपूर्ण समझौता किया है जो हमारे नागरिक परमाणु सहयोग को आगे बढ़ाने की हमारी क्षमता में बाधा डाल रहे थे, और हम पूर्ण कार्यान्वयन की दिशा में आगे बढ़ने के लिए प्रतिबद्ध हैं’.
हालांकि, अमेरिकी परमाणु आपूर्तिकर्ताओं के संतुष्ट न होने के कारण, दो दायित्व प्रावधानों को औपचारिक रूप से निरस्त करने के लिए अमेरिकी दबाव धीरे-धीरे फिर से बढ़ने लगा.
घरेलू राजनीतिक संवेदनशीलता को देखते हुए, मोदी सरकार को उम्मीद थी कि यह मुद्दा अनिश्चित काल तक ठंडे बस्ते में रहेगा, लेकिन डोनाल्ड ट्रंप की व्हाइट हाउस में वापसी ने सरकार को मजबूर कर दिया.
दुर्घटना की स्थिति में छूट
शांति विधेयक अमेरिकी परमाणु आपूर्तिकर्ताओं को दोषपूर्ण उपकरणों के कारण होने वाली दुर्घटना की स्थिति में भी छूट देता है, लेकिन यह अपने कमजोर दायित्व प्रावधानों को भारत के व्यापक परमाणु कानून के नए संस्करण में छिपा देता है – संभवतः 2010 के कानून के दायित्व प्रावधानों को अलग से और स्पष्ट रूप से उलट देने से होने वाले राजनीतिक नुकसान से बचने के प्रयास में ऐसा किया गया है.
इस विधेयक के उद्देश्यों और कारणों के विवरण में केवल इतना कहा गया है कि प्रस्तावित कानून भारत के समग्र ऊर्जा मिश्रण में परमाणु ऊर्जा की हिस्सेदारी बढ़ाने, परमाणु विज्ञान और प्रौद्योगिकी में नवाचार को बढ़ावा देने, गैर-ऊर्जा अनुप्रयोगों में इसके उपयोग का विस्तार करने और सुरक्षा, संरक्षा, सुरक्षा उपायों और परमाणु दायित्व के प्रति भारत के दायित्वों का पालन जारी रखने के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए बनाया गया है.
नए विधेयक में दुर्घटना की स्थिति में संचालक के निवारण के अधिकार से संबंधित उपधारा (सीएलएनडीए की धारा 17 और शांति की धारा 16) से आपूर्तिकर्ता दायित्व से संबंधित संपूर्ण खंड को हटा दिया गया है.
परमाणु संचालकों के विरुद्ध अपकृत्य दावों के संबंध में, जिसकी अनुमति सीएलएनडीए की धारा 46 द्वारा दी गई थी, नए मसौदा कानून में परमाणु दुर्घटना की स्थिति में दीवानी न्यायालयों के क्षेत्राधिकार को प्रतिबंधित करके इस संभावना को पूरी तरह से समाप्त कर दिया गया है (शांति की धारा 81).
इसमें कहा गया है, ‘किसी भी सिविल कोर्ट के अधिकार क्षेत्र में ऐसे किसी मामले के संबंध में कोई मुकदमा या कार्यवाही नहीं होगी, जिसे केंद्र सरकार, बोर्ड, अपीलीय न्यायाधिकरण, क्लेम कमिश्नर आदि इस अधिनियम के तहत निर्धारित या निर्णय करने के लिए सक्षम हैं…’
निजी कंपनियों और विदेशी निवेशकों का रास्ता खुला
नए विधेयक का एक अन्य प्रमुख प्रावधान यह है कि यह किसी भी सरकारी विभाग, सरकारी कंपनी या संयुक्त उद्यमों सहित किसी भी अन्य कंपनी को परमाणु ऊर्जा संयंत्र या रिएक्टर का निर्माण, स्वामित्व, संचालन या बंद करने की अनुमति देगा.
पूर्व व्यवस्था के तहत केवल न्यूक्लियर पावर कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड (एनसीपीआईएल) को परमाणु ऊर्जा संयंत्रों के संचालन का अधिकार था.
इस विधेयक के एक बार पारित होने के बाद निजी कंपनियों को परमाणु ऊर्जा संयंत्र या रिएक्टर के निर्माण, स्वामित्व, संचालन या बंद करने, परमाणु ईंधन के निर्माण (जिसमें यूरेनियम-235 का रूपांतरण, शोधन और संवर्धन शामिल है) या केंद्र सरकार द्वारा अधिसूचित किसी अन्य निर्धारित पदार्थ के उत्पादन, उपयोग, प्रसंस्करण या निपटान के लिए लाइसेंस प्रदान किए जाएंगे.
इसके अतिरिक्त, निजी कंपनियां परमाणु ईंधन या प्रयुक्त ईंधन या किसी अन्य निर्धारित पदार्थ के परिवहन या भंडारण के लिए; परमाणु ईंधन या निर्धारित पदार्थ, उपकरण, प्रौद्योगिकी या सॉफ़्टवेयर के आयात, निर्यात, अधिग्रहण या कब्जे के लिए, जिनका उपयोग निर्धारित पदार्थ या निर्धारित उपकरण के विकास, उत्पादन या उपयोग के लिए किया जा सकता है; या केंद्र सरकार द्वारा अधिसूचित किसी अन्य सुविधा या गतिविधि के लिए भी लाइसेंस प्राप्त कर सकते हैं.
हालांकि, कुछ हद तक विरोधाभासी रूप से विधेयक में यह भी जोड़ा गया है कि केंद्र सरकार ही निर्धारित पदार्थ या रेडियोधर्मी पदार्थ के संवर्धन या समस्थानिक पृथक्करण, प्रयुक्त ईंधन के प्रबंधन, जिसमें पुनर्संसाधन, पुनर्चक्रण, उसमें निहित रेडियोन्यूक्लाइड्स का पृथक्करण और उससे उत्पन्न उच्च स्तरीय रेडियोधर्मी अपशिष्ट का प्रबंधन शामिल है, और भारी जल के उत्पादन और समस्थानिक पृथक्करण द्वारा उसके उन्नयन का कार्य करेगी. जब तक कि सरकार का इरादा U-235 को ‘निर्धारित पदार्थ’ के रूप में न मानने का न हो.
दायित्व और क्षतिपूर्ति
सीएलएनडीए की तरह शांति विधेयक में कहा गया है कि परमाणु दुर्घटना से होने वाली क्षति के लिए परमाणु संचालक उत्तरदायी होगा, सिवाय उन दुर्घटनाओं के जो ‘असाधारण प्रकृति की गंभीर प्राकृतिक आपदा, सशस्त्र संघर्ष, शत्रुता, गृहयुद्ध, विद्रोह या आतंकवाद’ के कारण हुई हों.
इसमें यह भी कहा गया है कि प्रत्येक परमाणु दुर्घटना के संबंध में अधिकतम दायित्व राशि तीन सौ मिलियन विशेष आहरण अधिकार (स्पेशल ड्रॉइंग राइट्स) के समतुल्य रुपये या केंद्र सरकार द्वारा अधिसूचना द्वारा निर्दिष्ट इससे अधिक राशि होगी. विशेष आहरण अधिकार अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा परिभाषित और अनुरक्षित पूरक विदेशी मुद्रा भंडार परिसंपत्तियां हैं.
हालांकि, शांति विधेयक सीएलएनडीए (धारा 5(2)) के एक महत्वपूर्ण प्रावधान को हटा देता है, जो संचालकों को इस कानून के तहत ‘परमाणु क्षति’ के लिए भुगतान किए गए मुआवजे का उपयोग अन्य कानूनों के तहत उसी घटना से उत्पन्न होने वाले अन्य स्वतंत्र दावों, जैसे पर्यावरणीय क्षति, अपकृत्य दावों आदि के खिलाफ कानूनी ढाल के रूप में करने से रोकता है:
‘बशर्ते कि किसी संचालक द्वारा परमाणु क्षति के लिए देय कोई भी मुआवजा, उस समय लागू किसी अन्य कानून के तहत क्षति के किसी अन्य दावे के संबंध में उसकी देयता की राशि को कम करने का प्रभाव नहीं डालेगा.’
शांति विधेयक में कहा गया है कि केंद्र सरकार अपने स्वामित्व वाले परमाणु संयंत्र में होने वाली परमाणु क्षति के लिए उत्तरदायी होगी, या यदि देयता कानून की दूसरी अनुसूची में निर्दिष्ट संचालक की देयता से अधिक हो जाती है, तो ऐसी देयता संचालक की देयता से अधिक होने की सीमा तक उत्तरदायी होगी.
यदि सरकार का मानना है कि जनहित में ऐसा करना आवश्यक है, तो वह अपने द्वारा संचालित न किए जा रहे परमाणु संयंत्र के लिए भी पूर्ण देयता ग्रहण कर सकती है.
सीएलएनडीए की तरह, इस विधेयक में भी केंद्र सरकार को परमाणु दायित्व कोष नामक एक निधि स्थापित करने का प्रावधान है, जिसे निर्धारित तरीके से स्थापित किया जा सकता है.
विपक्ष की आपत्ति जाहिर की
चूंकि, शांति विधेयक 1962 के परमाणु दायित्व अधिनियम (एईए) का स्थान लेने के लिए भी बनाया गया है, इसलिए विधेयक में कई प्रावधान हैं, जिस पर विपक्षी सदस्यों ने आपत्ति जताई है.
ये विधेयक 15 दिसंबर को पेश किया गया था, लेकिन विपक्षी सदस्यों ने प्रस्तावन चरण के दौरान ही आपत्तियां उठाईं.
कांग्रेस सांसद मनीष तिवारी ने कहा, ‘अत्यधिक खतरनाक परमाणु गतिविधियों में लाभ कमाने वाली निजी भागीदारी की अनुमति देना, साथ ही दायित्व को सीमित करना, वैधानिक छूट प्रदान करना और न्यायिक उपायों को प्रतिबंधित करना, जीवन, स्वास्थ्य और पर्यावरण के प्रति राज्य के अप्रतिनिधित्व योग्य सार्वजनिक विश्वास दायित्वों को कमजोर करता है.’
हालांकि, प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह ने कहा कि तिवारी की आपत्तियों पर विधेयक पर चर्चा के दौरान विचार किया जा सकता है, जबकि वर्तमान में केवल इसे पेश किया जा रहा है.
उन्होंने आगे कहा कि पिछले विधेयक कांग्रेस सरकारों के कार्यकाल में सदन में लाए गए थे. यह विधेयक उसी नियामक संरचना को बनाए रखता है – एक परमाणु ऊर्जा नियामक बोर्ड जो सुरक्षा प्राधिकरण प्रदान करेगा – लेकिन विवादों के निवारण के लिए एक परमाणु ऊर्जा निवारण सलाहकार परिषद को भी शामिल करता है.
सिंह ने आगे कहा, ‘इसी सदन ने जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्री रहते परमाणु ऊर्जा अधिनियम, 1962 और मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री रहते परमाणु क्षति के लिए नागरिक दायित्व अधिनियम, 2010 को पारित किया था. अचानक सत्ता में दूसरी पार्टी आने पर सदन को यह विधेयक लाने से क्यों रोक दिया गया है?’
विधेयक के उद्देश्यों और कारणों के विवरण में यह भी कहा गया है कि भारत ने 2070 तक अर्थव्यवस्था के कार्बन उत्सर्जन को कम करने के रोडमैप के साथ ऊर्जा आत्मनिर्भरता प्राप्त करने और 2047 तक 100 गीगावाट परमाणु ऊर्जा क्षमता हासिल करने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित किया है.
इसमें कहा गया है, ‘इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए, सार्वजनिक और निजी दोनों क्षेत्रों की सक्रिय भागीदारी के माध्यम से भारत की परमाणु ऊर्जा और स्वदेशी संसाधनों की पूरी क्षमता का उपयोग करने के लिए एक नया कानून बनाना अनिवार्य है. इसका उद्देश्य वैश्विक परमाणु ऊर्जा पारिस्थितिकी तंत्र को मजबूत करने के लिए घरेलू परमाणु ऊर्जा के योगदान का लाभ उठाना भी है.’
साभार: द वायर
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