सूखे के संकट में मनरेगा की लाचारी

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इस साल देश में 12 राज्‍यों के 256 जिले सूखे की मार झेल रहे हैं। करीब 33 करोड़ लोग सूखे की चपेट में हैं। ताज्‍जुब की बात है कि यह जानकारी हमें सुप्रीम कोर्ट के जरिए मिली है। कई इलाकों में तो सूखे का यह लगातार दूसरा या तीसरा साल है। जिस आपदा की चेतावनी सरकार को समय रहते खुद ही देनी चाहिए थी, उससे केंद्र और राज्‍य सरकारें लगातार मंह चुराती रहीं। सरकारों को सूखे की गंभीरता का अहसास कराने के लिए स्‍वराज अभियान को जनहित याचिका लगानी पड़ी। एक राष्‍ट्रीय स्‍तर की आपदा को लेकर सरकारों की ऐसी बेपरवाही अपने आप में एक त्रासदी है!

सूूखा राहत पर सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक ऐतिहासिक फैसला आया है। अदालत ने कहा है कि सरकारों का शुतुरमुर्ग वाला रवैया बड़े अफ़सोस की बात है। निश्चित रूप से अंतिम जिम्मेदाारी केंद्र सरकार की है। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को “धन की कमी के परदे” के पीछे नहीं छिपने और देश के 12 राज्यों में सूखा प्रभावित लोगों के लिए व्यापक राहत प्रदान करने को कहा है।

सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार को मानना पड़ा कि सूखे से निपटने के लिए जो राष्ट्रीय योजना बनानी चाहिए थी वह नहीं बनाई गई। राष्ट्रीय आपदा राहत कोष की राशि के आवंटन में देरी हुई और मनरेगा के लिए पर्याप्त धन उपलब्ध करवाने में सरकार पूरी तरह सफल नहीं रही है। नेशनल डिजास्‍ट रेस्‍पॉन्‍स फोर्स यानी एनडीआरएफ के पास सूखे की आपादा से निपटने के लिए कोई विशेषज्ञता ही नहीं है।

सूखे को लेकर सरकारी उदासीनता इतनी है कि अदालत की फटकार के बाद राज्‍यों से सूखाग्रस्‍त जिलों की जानकारियों जुटाई गईं। सूखे की सबसे ज्‍यादा मार खेती, किसान, मवेशियों और मजदूरी व रोजगार के मौकों पर पड़ती है। इस‍ लिहाज से दुनिया की सबसे बड़ी रोजगार गारंटी योजना मनरेगा सूखाग्रस्‍त इलाकों को इस संकट से उबारने में मददगार साबित हो सकती है। लेकिन मनरेगा खुद कई वर्षों से सरकारी उपेक्षा का शिकार है।

मनरेगा एक सरकारी योजना मात्र नहीं है बल्कि इसका एक कानूनी आधार भी है। सरकार मनमाने तरीके से इसके फंड में कटौती या देरी नहीं कर सकती। लेकिन मनरेगा से जुड़े सरकारी आंकड़ों पर गौर करें तो पता चलेगा कि कैसे मनरेगा जैसे कानूनी अधिकार को कमजोर किया जा रहा है। सूखे के संकट में मनरेगा की इस लाचारी को इन तथ्‍यों के जरिये समझा जा सकता है-

मनरेगा बजट में कटौती 

वर्ष 2010-11 में मनरेगा का फंड देश की जीडीपी का 0.6 फीसदी था जो वर्ष 2016-17 में घटकर सिर्फ 0.26 फीसदी रह गया। वर्ष 2010-11 में मनरेगा को सर्वाधिक 40,100 करोड़ रुपये का बजट मिला था।

पिछले साल मनरेगा के तहत कुल 235 करोड़ दिनों का रोजगार सृजित हुआ था। एक दिन के काम पर आने वाले खर्च के हिसाब से मनरेगा को इस साल कम से कम 50 हजार करोड़ रुपये का बजट मिलना चाहिए था लेकिन सरकार ने दिए सिर्फ 38,500 करोड़ रुपये। इसमें भी करीब 12 हजार करोड़ रुपये पिछले साल का बकाया है। मनरेगा के बजट में कटौती का सीधा मतलब है कि सूखे की मार झेल रहे इलाकों में मनरेगा के तहत भी काम मिलने में दिक्‍कत आएगी। काम मिला भी तो भुगतान अटक सकता है।

मनरेगा के तहत प्रस्‍तावित कार्यदिवसों में कटौती 

केंद्र सरकार के पास मनरेगा खर्च में कटौती के कई रास्‍ते हैं। सबसे सरल तरीका यह है कि राज्‍यों की तरफ से जितने दिनों के काम की मांग हो उसी में कटौती कर दी जाए। मिसाल के तौर पर वर्ष 2016-17 के लिए राज्‍यों ने केंद्र सरकार से मनरेगा के तहत 315 करोड़ दिनों (पर्सन डेज) का काम मांगा था। लेकिन केंद्र ने राज्‍यों को 217 करोड़ दिनों का काम ही मंजूर किया। सीधे तौर पर 98 करोड़ दिन यानी एक तिहाई काम की कटौती। जबकि पिछले साल ही मनरेगा में 235 करोड़ दिनों का काम हो चुका है। इससे पहले वर्ष 2012-13 में तो 278 करोड़ दिनों के काम को मंजूरी दी गई थी।

सिर्फ 10 फीसदी परिवारों को 100 दिन का काम

मनरेगा कानून के तहत जरूरतमंद परिवारों को साल में 100 दिन का रोजगार मिलना चाहिए। सरकार ने सूखाग्रस्‍त राज्‍यों में 100 के बजाय 150 दिनों का रोजगार देने की घोषणा की है। लेकिन इस घोषणा का फायदा शायद ही जमीनी स्‍तर पर पहुंच पाए। क्‍योंकि पिछले साल जिन 4.8 करोड़ परिवारों को मनरेगा के जरिये रोजगार मिला उसमें से 100 दिन का रोजगार मात्र 10 फीसदी परिवारों को ही मिल पाया था। इसलिए 150 दिन रोजगार देने का दावा दूर की कौड़ी नजर आता है। मनरेगा की एक कड़वी सच्‍चाई यह भी है कि इसके तहत औसतन एक परिवार को साल में 48 दिन का रोजगार ही मिल पाता है।

सूखा प्रभावित इलाकों में केंद्र सरकार ने 50 दिन का अतिरिक्‍त काम देने का ऐलान किया है लेकिन इसके लिए अतिरिक्‍त फंड का कोई इंतजाम नहीं किया। जबकि इस पर अंदाजन 15 हजार करोड़ रुपये का अतिरिक्‍त खर्च आएगा।

60 फीसदी भुगतान में देरी 

मनरेगा के तहत 15 दिन के भीतर मजदूरी का भुगतान हो जाना चाहिए। लेकिन वर्ष 2015-16 में सिर्फ 37.31 फीसदी भुगतान ही 15 दिन के भीतर हुआ। यानी 60 फीसदी से ज्‍यादा भुगतान में विलंब हुआ है। सूखे की मार झेल रही देश की सबसे गरीब जनता को मनरेगा जैसी योजनाओं से मदद की आस रहती है लेकिन यहां भी सरकारी लेटलतीफी हावी है।

सिर्फ 1.5 फीसदी मुआवजे का भुगतान 

मनरेगा के भुगतान में देरी को लेकर केंद्र का रवैया कितना ढुलमुल है इसका अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि भुगतान में देरी के एवज में 207 करोड़ रुपये का मुआवजा दिया जाना था लेकिन फंड की कमी का हवाला देते हुए सिर्फ 3 करोड़ रुपये का भुगतान हुआ। यानी सिर्फ 1.5 फीसदी मुआवजे का भुगतान हो पाया।

10 राज्‍यों में न्‍यूनतम मजदूरी से भी कम है मनरेगा की मजदूरी 

इसी तरह मनरेगा के तहत न्‍यूनतम मजदूरी की अनदेखी कर मजदूरी की दरें निर्धारित की जा रही हैं। देश के 10 राज्‍यों में मनरेगा मजदूरी की दरें न्‍यूनतम मजदूरी से कम रखी गई हैं। कर्नाटक में न्‍यूनतम मजदूरी 288.66 रुपये है जबकि मनरेगा मजदूरी 224 रुपये निधारित की गई है।

तमाम खामियों के बावजूद मनरेगा क्‍यों जरुरी?

•  मनरेगा से रोजगार पाने वालों में 50 फीसदी से ज्‍यादा महिलाएं और 40 फीसदी से ज्‍यादा अनुसूचित जाति या जनजाति के लोग हैं। समाज के कमजोर वर्गों तक मदद पहुंचाने के मामले में मनरेगा कारगार साबित हो रही है।

•  मनरेगा के 97 फीसदी से ज्‍यादा फंड का इस्‍तेमाल हो रहा है। हर साल करीब 5 करोड़ परिवारों को इस योजना का लाभ मिल रहा है। बड़े पैमाने पर मनरेगा के तहत रोजगार की मांग की जा रही है और काम हो रहे हैं। हालांकि, इनमें बड़े पैमाने पर भ्रष्‍टाचार की शिकायतें भी हैं लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि मनरेगा का असर जमीनी स्‍तर पर पहुंचा है।

•  मनरेगा का 60 फीसदी से ज्‍यादा फंड कृषि व संबंधित कार्यों पर खर्च हुआ है। इसलिए मनरेगा सूखे की मार झेल रहे किसान व मजदूरों तक मदद पहुंचाना का बेहतर जरिया साबित हो सकती है।

हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने सूखा राहत पर अपने ऐतिहासिक फैसले में सरकार को गर्मी की छुट्टीयों के दौरान मिड-डे मील को जारी रखने, मिड-डे मील में अंडा या दूध को शामिल करनेे, खाद्यान्न राशन को सार्वभौमिक बनाने के साथ-साथ मनरेगा के लिए समय पर एवं पर्याप्त फंड रिलीज करने को कहा है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से जिस तरह मनरेगा के दायरे को सीमित रखने और इस योजना पर अंकुश लगाने की कोशिशें चल रही हैं, उसने देश की सबसे गरीब आबादी को सूखे की मार से बचाने का एक अहम रास्‍ता तंग कर दिया है।