कल्लर भूमि को उपजाऊ जमीन में बदलने वाले विमुक्त घुमंतू जनजाति के बाजीगर समुदाय की कहानी!

 

बाजीगर समुदाय के अधिकतर लोग बंटवारे के वक्त पाकिस्तान से आकर कुरुक्षेत्र के ज्योतिसर और यामुनागर में आकर बसे. यहां करीबन तीन दशक रहने के बाद बाजीगर समुदाय के कुछ परिवार करनाल के मुनक, रेर, धर्मगढ़ और कापड़ों गांव के आस-पास कस्टोडियन जमीन बोली पर छुड़वाकर रहने लगे। 

सत्तर के दशक में इंदिरा गांधी की सरकार ने कल्लर भूमि को बोली के आधार पर दलित जातियों को देने का कार्यक्रम चलाया था। इसके तहत दलित समुदाय से आने वाले लोग बोली लगाकर कस्टोडियन की जमीन जमीन छुड़वाकर खेती कर सकते थे. जमीन मिलने के बाद किश्तों में रकम अदा करनी होती थी. यमुनानगर और ज्योतिसर से आए बाजीगर जनजाति के परिवारों ने बोली पर सरकारी जमीन छुड़वाई और बाद में उसी जमीन पर किसानी करके किश्तों में जमीन की रकम अदा की। ये लोग आज भी गांवों के बाहर खेतों में बने डेरों में रहते हैं। 

बाजीगर समुदाय ने पिछले पचास साल में कल्लर भूमि (वह जमीन जिसमें लवणीय और क्षार अधिक होने के चलते पानी आसानी से रिस कर नीचे चला जाता है) को उपजाऊ बनाने में जी तोड़ मेहनत की। इन लोगों ने अपनी मेहनत का लोहा मनवा दिया। इसी मेहनत के दम पर कभी घुमंतू कही जाने वाली बाजीगर जनजाति आज कृषक वर्ग बन गई है।

करीबन 75 साल के गिरधारी लाल बाजीगर ने बताया, “मैं बीसेक साल का था जब अपने बुजुर्गों के साथ यमुनानगर से यहां आया था। उस वक्त यहां आकर देखा तो दूर-दूर तक केवल कल्लर जमीन थी। हमारे बुजुर्गों ने शुरुआत में यहां झुग्गी-झोपड़ी डालकर रहना शुरू किया था। आस-पास कोई आबादी नहीं थी. बिजली का नामों निशान नहीं था, पानी की निर्भरता पास में बह रही बरसाती नहर पर थी। शुरू में आस-पास के गांवों से मांग-तांग कर ही काम चलाया। धीरे-धीरे मेहनत करते रहे जमीन उपजाऊ होती गई. इस तरह कल्लर भूमि को उपजाऊ बनाने में कईं दशक निकल गए। इस बीच जितना कमाते सारा जमीन की किश्त अदायगी में चला जाता था लेकिन हमारे बुजुर्ग जुटे रहे, काम करते रहे. धीरे-धीरे हालात सुधरे और आज इसी मेहनत का फल है कि हमारे पास सब कुछ है.” 

बाजीगर समाज को देश के अन्य हिस्सों में बंजारा, बादी, गवारिया, लमानी, लुबाना, सिरकीबंद के नाम से भी जाना जाता है। इस समुदाय की अपनी एक भाषा है जिसको ‘ग्वार’ नाम से जाना जाता है. आपसी बोलचाल में ये लोग इसी भाषा का ही इस्तेमाल करते हैं। बाजीगर विमुक्त घुमंतू जनजाति से आने वाला समुदाय है। बाजीगर समुदाय की अधिकतर आबादी अब स्थाई निवासी बन चुकी है। 

वहीं जब शुरुआत में यहां आए थे तो हमारे डेरों से स्कूल काफी दूर थे लेकिन वक्त के साथ-साथ शिक्षा का महत्व समझ आया। हमारे बच्चों ने स्कूल जाना शुरू किया। फिर हमारे समाज के लोगों ने मिलकर यहां सरकारी स्कूल की मांग की आज यहा 5वीं तक का स्कूल चल रहा है।आगे की पढ़ाई के लिये आज भी हमारे बच्चे यहां से दो किलोमीटर दूर पढ़ने के लिये जा रहे हैं।
वहीं भाषा को लेकर करीबन 35 साल के बलवान बाजीगर ने बताया कि डेरों में रहने वाले बाजीगर समाज के लोग आज भी अपनी ग्वार भाषा से जुड़े हुए हैं हालांकि गांव में रहने वाले बाजीगर समुदाय के लोगों में यह भाषा बोलते हुए थोड़ी हिचक रहती है। यानी आन्य लोगों के सम्पर्क में आने से इनकी भाषा पर असर पड़ता है। 

हरियाणा में राजनीतिक तौर पर भी बाजीगर जनजाति के लोग अपनी पहचान बना रहे हैं। गांव के चारों ओर बसे बाजीगर समाज की गांव की राजनीति में बड़ी भूमिका है. गांव में ढाई से तीन हजार वोट वाले बाजीगर समुदाय से सरपंच का चुनाव लड़ चुके कर्म चंद दूसरे स्थान पर रहे थे। वहीं बाजीगर समुदाय से आने वाले युवा नेता मख्खन सिंह बाजीगर आजाद उम्मीदवार के तौर पर असंध विधानसभा से विधायक का चुनाव भी लड़ चुके हैं। 

वहीं बाजीगर समुदाय के कुछ डेरे ऐसे भी हैं जिनके पास जमीन नहीं है। इन डेरों के कुछ परिवार गरीबी से गुजर रहे हैं। ऐसे ही एक शख्स जो गांव के बाहर मेन रोड पर चाय की एक दुकान चलाते हैं उन्होंने बताया, यहां बाजीगर जनजाति के काफी डेरे हैं केवल एक हमारा ही डेरा है जिसके पास जमीन नहीं है। शुरुआत में कुछ साल रहने के बाद राजस्थान चले गए थे। राजस्थान में काम नहीं चल पाया तो फिर दोबारा यहां आ गए। हमारे डेरे में रहने वाले 15 परिवारों के पास अपनी कोई जमीन नहीं है। हमारे सभी परिवार पंचायती जमीन में रहने को मजबूर हैं। हम लोगों तक सरकारी सुविधाएं भी नहीं पहुंच रही हैं। बच्चों को स्कूल में पढ़ने के लिए करीबन दो किलोमीटर दूर पैदल जाना पड़ता हैं।