गेहूं के दाम में आई रिकॉर्ड तेजी के बाद केंद्र सरकार ने अपने भंडार से 30 लाख टन गेहूं खुले बाजार में बेचने का फैसला लिया है. केंद्र सरकार की ओर से 30 लाख टन गेहूं की बिक्री ओपन मार्केट सेल स्कीम (OMSL) के जरिए होगी.
सरकार की ओर से जारी एक आधिकारिक बयान के अनुसार विशेष ओपन मार्केट सेल स्कीम योजना के तहत खरीदार की बिक्री इस मकसद से की जाएगी कि वे इसका आटा तैयार करके 29.50 पैसे प्रति किलो अधिकतम खुदरा मूल्य (एमएसपी) पर बिक्री करें. बयान में कहा गया है कि योजना के तहत फ्लोर मिलर्स, थोक खरीदारों को ई नीलामी के माध्यम से गेहूं बेचा जाएगा. एक खरीदार को एक नीलामी में एफसीआई से अधिकतम 3 हजार टन गेहूं मिलेगा. इसके अलावा राज्य सरकारों व केंद्र शासित प्रदेशों को बिना ई-नीलामी के गेहूं उपलब्ध करवाया जाएगा.
इसके अलावा सरकारी पीएसयू, कोऑपरेटिव, केंद्रीय भंडार, एनसीसीएफ आदि को भी बिना ई-नीलामी के 2,350 रुपये प्रति क्विंटल के हिसाब से गेहूं उपलब्ध करवाया जाएगा. वहीं सरकार की ओर से निजी ट्रेडर्स के लिए भी गोदाम खोलने का फैसला किया गया है.
बता दें कि बाजार में इस वक्त गेहूं की कीमत 31-32 रुपये किलो तक पहुंच गई है. बिजनैस स्टैंडर्ड की रिपोर्ट के अनुसार ट्रेडर्स ने कहा, ‘बिक्री शुरू होते ही बाजार भाव में कम से कम 2 रुपये किलो कमी आ सकती है’ उन्होंने कहा कि ज्यादातर गेहूं पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश में पड़ा है, जहां से गेहूं फ्लोर मिलर्स और आटा बनाने वालों को बेचा जाएगा. उन्होंने कहा कि अगले सप्ताह बिक्री खुलने की संभावना है.
आंकड़ों के अनुसार 1 जनवरी, 2023 को केंद्रीय पूल में भारत का गेहूं का अनुमानित स्टॉक करीब 171.7 लाख टन था, जो जरूरी रणनीतिक भंडार से 24.4 प्रतिशत ज्यादा है. खाद्य सचिव संजीव चोपड़ा ने 19 जनवरी को कहा था कि गेहूं और आटे की खुदरा कीमतें बढ़ गई हैं और सरकार जल्द ही बढ़ती दरों को नियंत्रित करने के लिए कदम उठाएगी. ओएमएसएस नीति के तहत सरकार समय-समय पर थोक उपभोक्ताओं और निजी व्यापारियों को खुले बाजार में पूर्व-निर्धारित कीमतों पर खाद्यान्न, विशेष रूप से गेहूं और चावल बेचने के लिए सरकारी उपक्रम भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) को अनुमति देती रही है. इसका उद्देश्य जब खास अनाज का मौसम न हो, उस दौरान इसकी आपूर्ति बढ़ाना और सामान्य खुले बाजार की कीमतों पर लगाम लगाना है.
प्रदेश के गन्ना किसानों ने भारतीय किसान यूनियन (चढ़ूनी) के बैनर तले किसानों ने गन्ने के राज्य सलाहकार मूल्य (एसएपी) में बढ़ोतरी की मांग पूरी नहीं होने पर सरकार के खिलाफ अपना आंदोलन तेज करने की घोषणा की. किसानों ने राज्य भर में कई विरोध प्रदर्शनों की घोषणा की, जिसमें ट्रैक्टर मार्च, गन्ने की ‘होली’ जलाना और शर्ट उतारकर गृह मंत्री अमित शाह की रैली का विरोध करना शामिल है.
गन्ने के रेट में बढ़ोतरी की मांग को लेकर किसान बुधवार को ट्रैक्टर मार्च निकालेंगे और मुख्यमंत्री का पुतला फुकेंगे. 26 जनवरी को सर छोटू राम की जयंती पर ‘गन्ने की होली’ जलाएंगे. 27 जनवरी को अनिश्चितकाल के लिए चीनी मिलों के बाहर सड़क जाम करेंगे. वहीं 29 जनवरी को गोहाना में गृह मंत्री अमित शाह की रैली में शामिल होंगे और उनके भाषण के दौरान शर्ट उतारकर अपनी नाराजगी जाहिर करेंगे.
एक बैठक के दौरान किसान नेता गुरनाम सिंह चढ़ूनी ने कहा, “किसान 25 जनवरी को अपनी चीनी मिलों से निकटतम शहर या कस्बे तक सीएम के पुतले के साथ ट्रैक्टर मार्च निकालेंगे और बाद में चीनी मिलों पर पुतला फूंकेंगे. 26 जनवरी को सर छोटू राम की जयंती पर किसान “गन्ने की होली” जलाएंगे. उन्होंने कहा कि वे अपनी मांगों को लेकर दबाव बनाने के लिए 27 जनवरी को अनिश्चित काल के लिए चीनी मिलों के बाहर सड़कों को जाम करेंगे.
साथ ही गोहाना में 29 जनवरी को गृह मंत्री अमित शाह की रैली में बड़ी संख्या में किसान शामिल होंगे. वे शाह के भाषण के दौरान अपनी शर्ट उतारकर नाराजगी जाहिर करेंगे. उन्होंने कहा, ‘हम अपने अधिकारों की मांग कर रहे हैं, लेकिन सरकार हमें ये नहीं दे रही है.’
किसान नेता एसएपी को मौजूदा 362 रुपये प्रति क्विंटल से बढ़ाकर 450 रुपये करने की मांग को लेकर राज्य की 13 चीनी मिलों के बाहर अनिश्चितकालीन धरना दे रहे हैं. किसानों ने आरोप लगाया कि सरकार ने किसी भी तरह की बढ़ोतरी की घोषणा नहीं की है. और जब विपक्षी नेताओं ने विधानसभा के शीतकालीन सत्र में इस मुद्दे को उठाया, तो सीएम मनोहर लाल खट्टर ने एसएपी तय करने के लिए एक समिति गठित करने की घोषणा की थी. गुरनाम सिंह चढ़ूनी ने कहा, ‘हम चीनी मिलों के बाहर विरोध कर रहे हैं और अपनी मांगों को पूरा होने तक विरोध जारी रखेंगे.’
हरियाणा सरकार ने विधानसभा के शीतकालीन सत्र के अखिरी दिन प्रदेश में गन्ने के दाम बढ़ाने की विपक्ष की मांग को नहीं माना था. गन्ने के दाम में बढ़ोतरी न होने से प्रदेश के किसान आक्रोषित हैं. जिसको लेकर आज नेता गुरनाम सिंह चढ़ूनी के नेतृत्व में भारतीय किसान यूनियन चढूनी ने प्रदेश की सभी शुगरमिलों को बंद
पिछले कईं दिनों से किसानों ने गन्ने की छिलाई बंद कर रखी है और किसान नेताओं की ओर से जारी कार्यक्रम के तहत प्रदेशभर की शुगर मिलों पर तालाबंदी की गई है. किसानों ने पानीपत ,फफड़ाना ,करनाल ,भादसोंभाली आनंदपुर शुगर मिल व महम शुगर मिल पर भी सुबह 9 बजे ताला लगाते हुए धरना शुरू किया. साथ ही जो भी गन्ने की ट्राली मिल पर पहुंची, उन्हें वापस लौटा दिया. उन्होंने कहा कि जब तक सरकार किसानों की मांग पूरी नहीं करती, तब तक शुगर मिलों को बंद रखते हुए प्रदर्शन किया जाएगा.
किसानों ने अम्बाला में नारायणगढ़ शुगर मिल के बाहर धरना दिया. सोनीपत के गोहाना में आहुलाना शुगर मिल पर ताला जड़कर किसानों ने सरकार के खिलाफ नारेबाजी की तो वहीं किसानों का शाहबाद शुगर मिल और करनाल शुगर मिल पर भी धरना जारी है.
किसान गन्ने के रेट को बढ़ाकर 450 रुपए करने की मांग कर रहे हैं. बता दें कि पंजाब में गन्ना किसानों को 380 रुपये प्रति किवंटल का रेट मिल रहा है.
दो दिन पहले किसान नेता गुरनाम सिंह चढ़ूनी ने ट्वीट किया था, “आज रात के बाद कोई भी किसान भाई किसी भी शुगर मिल में अपना गन्ना लेकर ना जाए अगर कोई किसी नेता या अधिकारी का नजदीकी या कोई अपना निजी फायदा उठाने के लिए शुगर मिल में भाईचारे के फैसले के विरुद्ध गन्ना ले जाता है और कोई उसका नुकसान कर देता है तो वह अपने नुकसान का खुद जिम्मेदार होगा.”
आज रात के बाद कोई भी किसान भाई किसी भी शुगर मिल में अपना गन्ना लेकर ना जाए अगर कोई किसी नेता या अधिकारी का नजदीकी या कोई अपना निजी फायदा उठाने के लिए शुगर मिल में भाईचारे के फैसले के विरुद्ध गन्ना ले जाता है और कोई उसका नुकसान कर देता है तो वह अपने नुकसान का खुद जिम्मेदार होगा।
किसान नेता गुरनाम सिंह चढ़ूनी ने आज लिखा, “हरियाणा के सभी शुग़रमिल बंद करने पर सभी पदाधिकारियों व किसान साथियों का धन्यवाद, अगर सरकार 23 तारीख़ तक भाव नहीं बढ़ाती तो आगे की नीति 23 तारीख़ जाट धर्मशाला में बनायी जाएगी.”
राजस्थान के सीकर, श्रीगंगानगर, हनुमानगढ़, जैसलमेर और बाड़मेर जिलों के किसान मायूस हैं. शीत लहर ने उत्तर और उत्तर-पश्चिम भारत को अपनी चपेट में ले लिया है, जिससे गंभीर पाला पड़ा है, जिससे उनकी सरसों, जीरा, अरंडी और सब्जियों की फसल नष्ट हो गई है. ‘गांव कनेक्शन’ में छपी पत्रकार पारुल कुलश्रेष्ठ की रिपोर्ट के अनुसार हनुमानगढ़ जिले के एक गांव के रायसिंह जाखड़ बंसरीवाला ने दुख व्यक्त किया कि ठंड और पाले के कारण उनकी सरसों की लगभग 40 प्रतिशत फसल नष्ट हो गई. शीत लहर और बारिश विनाशकारी साबित हुई.
इसके अलावा, इंदिरा गांधी नहर में रखरखाव के काम के कारण, हमें सिंचाई के लिए पानी नहीं मिला,” बंसरीवाला ने रिपोर्टर को बताया,”सरसों राजस्थान की प्रमुख फसलों में से एक है और उत्तर पश्चिमी राज्य अकेले भारत में सरसों के कुल उत्पादन का 43 प्रतिशत योगदान देता है. राजस्थान में, अलवर प्रमुख उत्पादक जिले के रूप में श्री गंगानगर, भरतपुर, टोंक, सवाई माधोपुर, बारां और हनुमानगढ़ के बाद आता है.
श्री गंगानगर और हनुमानगढ़ जिले में लगभग 556 हेक्टेयर भूमि सरसों के अधीन है. वहां के किसानों को डर है कि अगर शीत लहर जारी रही तो सरसों की 40 फीसदी फसल बर्बाद हो जाएगी. उनके अनुसार, कुछ स्थानों पर तापमान शून्य से 2.8 डिग्री सेल्सियस नीचे तक गिर गया है, जो रेगिस्तानी राज्य के लिए असामान्य है.
श्री गंगानगर जिले के चपावली गांव के प्रह्लाद ने बताया, “ठंढ को मात देने का एकमात्र तरीका पर्याप्त सिंचाई है. सुबह जमीन को पानी देने से पाले से होने वाले नुकसान को कम करने में मदद मिलती है, लेकिन गांव में बिजली की आपूर्ति केवल रात में होती है, किसान केवल उस समय अपनी भूमि की सिंचाई कर सकते हैं जब तापमान शून्य के करीब गिर जाता है. अगर दिन के समय बिजली की आपूर्ति होती और हम दिन के उजाले में अपनी जमीन को सींच सकते तो यह बहुत अच्छा होता. लेकिन प्रशासन को किसानों की कोई परवाह नहीं है. जबकि सरकार भाषण देने में व्यस्त है लेकिन हम नुकसान उठा रहे हैं”
भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD) के जयपुर कार्यालय के अनुसार, 3 जनवरी, 2014 के बाद यह पहली बार है, जब तापमान शून्य से 2.7 डिग्री सेल्सियस नीचे चला गया है. इससे पहले 1974 में चूरू में तापमान शून्य से 4.6 डिग्री सेल्सियस नीचे गिर गया था, जो राज्य में अब तक का सबसे कम तापमान दर्ज किया गया था. उन्होंने कहा, ‘हमने राज्य सरकार को चेतावनी जारी की थी कि इस साल 14 जनवरी से पाला पड़ेगा. जबकि इस मौसम में जमीनी पाला असामान्य नहीं है, समस्या तब उत्पन्न होती है जब यह दो दिनों से अधिक समय तक रहता है. यह फसलों के लिए विनाशकारी है,”
किसान अपनी सरसों की फसल के 40 प्रतिशत तक नुकसान की सूचना दे रहे हैं, एक आधिकारिक आकलन किया जाना बाकी है. राजस्थान कृषि विभाग, हनुमानगढ़ जिले के सहायक निदेशक बी आर बाकोलिया ने कहा, “नुकसान की सीमा का तुरंत पता लगाना संभव नहीं है. हम अगले कुछ दिनों में ही नुकसान के बारे में बता पाएंगे. अगर अगले दो दिनों में बारिश होती है तो स्थिति में सुधार हो सकता है. यदि नहीं, तो अधिक नुकसान हो सकता है. सहायक निदेशक ने बताया, “हमारे अधिकारी फील्ड में जाकर, खासकर सरसों को हुए नुकसान की रिपोर्ट तैयार करेंगे.”
किसानों के अनुसार सरसों के पकने से पहले अगर पाला पड़ जाए तो यह पौधे को मार देता है. इसलिए, क्षति से बचने के लिए भूमि को सिंचित रखना महत्वपूर्ण है. लेकिन श्री गंगानगर में हर साल ठंड पड़ रही है, किसान ने कहा, “तापमान का चार डिग्री तक गिरना सामान्य है, लेकिन साल दर साल ठंडा होता जा रहा है और यह साल अब तक का सबसे खराब रहा है.”
इस बीच, भरतपुर स्थित नेशनल रिसर्च सेंटर ऑन रेपसीड-मस्टर्ड (NRCRM), जो एक ICAR (भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद) संस्थान है, के निदेशक पी के राय ने चेतावनी दी कि अनुचित सिंचाई स्थिति को और अधिक नुकसान पहुंचा सकती है. राय ने बताया, “जमीन में समय-समय पर सिंचाई करने से यह सुनिश्चित होता है कि कोई सूखापन नहीं है, खासकर उन जगहों पर जहां बीज अभी पूरी तरह से पके नहीं हैं”
बाड़मेर जिले में किसान अपने अनार, अरंडी के पौधे, जीरा और सरसों के पौधों को हुए नुकसान का हिसाब लगा रहे हैं. बाड़मेर के किसान हस्तीमल राजपुरोहित ने बताया, “जिले में करीब 30 फीसदी अनार, 70 फीसदी अरंडी और 50 फीसदी सरसों नष्ट हो जाती है” उन्हें बैंक का कर्ज चुकाने, बिजली बिल भरने आदि की चिंता सता रही थी. “बहुत ट्रिपिंग के साथ दिन में केवल दो से तीन घंटे बिजली की आपूर्ति की जाती है. किसी भी राजनेता को हमारी भलाई की चिंता नहीं है,”
सीकर जिले के किसान गांवों में बिजली की अनियमित आपूर्ति को लेकर पिछले चार दिनों से डोढ़ गांव में विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं, जिससे उनके लिए अपनी जमीन को सिंचित रखना मुश्किल हो रहा है. “बिजली की आपूर्ति स्थिर नहीं है. कभी-कभी बिजली आने के छह मिनट के भीतर ही बिजली बंद हो जाती है,” सीकर जिले के भुवाला गांव के राम रतन बगडिया ने बताया, “सब्जियों में पहले ही 60 फीसदी और सरसों में 40 फीसदी नुकसान हो चुका है. बगडिया ने कहा, “हम मांग करते हैं कि सरकार हमें नुकसान की भरपाई करे और हमें उचित बिजली मुहैया कराए.”
हरियाणा में करनाल के बाद अब कैथल में भी धान घोटाला सामने आया है. कैथल उपायुक्त द्वारा गठित 17 टीमों की छानबीन में सामने आया कि जिले की 35 चावल मिलों के स्टॉक में 2630.82 क्विंटल धान की कमी पाई गई. मीडिया में यह रिपोर्ट आने के बाद टीमों का गठन किया गया था कि फर्जी गेट पास पर धान की फर्जी खरीद हो रही है और धान दूसरे राज्यों से आ रहा है.
उपायुक्त द्वारा गठित टीमों ने जिले की 165 मिलों का नवंबर-दिसंबर महीने में निरक्षण किया था. टीम ने कस्टम मिल्ड चावल (सीएमआर) की गुणवत्ता के साथ खरीद एजेंसियों द्वारा धान जारी करने के साथ मिलों में उपलब्ध स्टॉक का भी निरक्षण किया.
अंग्रेजी अखबार के हवाले से कैथल उपायुक्त संगीता तेतरवाल ने बताया कि “मैंने राइस मिलों का निरक्षण करने के लिए 17 टीमों का गठन किया है. टीमें चावल की गुणवत्ता के साथ-साथ धान के स्टॉक और कस्टम-मिल्ड चावल की जांच की है. टीम के सदस्यों ने अपनी रिपोर्ट निदेशक, खाद्य नागरिक आपूर्ति एवं उपभोक्ता मामले विभाग को सौंप दी है. विभाग के निर्देश के बाद आगे की कार्रवाई शुरू की जाएगी.”
उन्होंने बताया कि हमने 165 मिलों को 82,40,812.560 क्विंटल धान आवंटित किया है. टीम के सदस्यों को स्टॉक में 2,630.82 क्विंटल धान और 14.61 क्विंटल चावल कम मिला है.
ग्रामीण अर्थव्यवस्था काफी जटिल है। इसमें कृषि के साथ उद्योग और सेवाएं भी हैं। लेकिन वहां ज्यादातर गतिविधियां असंगठित क्षेत्र में होती हैं। इनमें शहरी इलाकों की तुलना में आमदनी कम होती है। यही कारण है कि देश की 70 प्रतिशत आबादी ग्रामीण होने के बावजूद सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में उनका योगदान शहरी क्षेत्रों की तुलना में बहुत कम है। रोजगार के पर्याप्त अवसर न होने के चलते ग्रामीण क्षेत्र में समस्या ज्यादा है, हालांकि कृषि और असंगठित क्षेत्र को श्रम सघन माना जाता है। इन समस्याओं के चलते गांव से शहर की ओर लोगों का बड़े पैमाने पर पलायन हुआ है। यह पलायन सिर्फ मौसमी नहीं, बल्कि स्थायी भी है। पहले जो चुपचाप होता था, वह लॉकडाउन के दौरान काफी खुलकर हुआ। लाखों की संख्या में प्रवासी मजदूर विपरीत परिस्थितियों का सामना करते हुए पैदल अपने गांव की ओर जा रहे थे। दुनिया की अन्य किसी बड़ी अर्थव्यवस्था में ऐसा पलायन कभी नहीं दिखा।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था का इस तरह हाशिए पर जाना नीति निर्माताओं के उस फोकस का नतीजा है जिसमें संगठित अर्थात अर्थव्यवस्था के आधुनिक हिस्से को वरीयता दी जाती है। अर्थव्यवस्था का आधुनिकीकरण पश्चिम की आधुनिकता की नकल के तौर पर हुआ है। भारत में आधुनिकता के अपने तरीके का प्रयास नहीं किया गया। ऐसा प्रयास जो ग्रामीण इलाकों में बड़ी तादाद में रहने वाले लोगों की जरूरतें पूरी कर सके। इसलिए आश्चर्य नहीं कि खपत में सबसे महत्वपूर्ण सामग्री, यानी खाद्य पदार्थ उपलब्ध कराने वाला कृषि क्षेत्र हाशिए पर चला गया।
आजादी के बाद से नीतियां ट्रिकल डाउन सिद्धांत पर आधारित रही हैं। इस सिद्धांत के अनुसार आधुनिक सेक्टर आगे बढ़ेंगे और उनके फायदे छनकर हाशिए पर पड़े सेक्टर तक पहुंचेंगे। यह उम्मीद भी लगाई गई कि आधुनिक सेक्टर विकास करेगा और पिछड़े क्षेत्रों को अपने में शामिल कर लेगा। दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हुआ, क्योंकि आधुनिक सेक्टर काफी पूंजी सघन है और इसमें रोजगार के अवसर ज्यादा नहीं निकलते। इसलिए जो लोग पिछड़े क्षेत्रों में कार्यरत थे वे वहीं रह गए। सिर्फ यही नहीं, आमदनी का बड़ा हिस्सा भी उन लोगों के हक में गया जो आधुनिक सेक्टर में हैं। बाकी सेक्टर में काम करने वालों को आमदनी का मामूली हिस्सा ही मिला।
यह भी दुर्भाग्य है कि असंगठित क्षेत्र में अधिकांश के आंकड़े स्वतंत्र रूप से उपलब्ध नहीं हैं। इसलिए इनके प्रदर्शन को भी संगठित क्षेत्र के समान मान लिया जाता है। इसका नतीजा यह होता है कि आर्थिक आंकड़े हकीकत से ज्यादा अच्छे नजर आते हैं। संगठित क्षेत्र भले ही आगे बढ़ रहा हो, असंगठित क्षेत्र स्पष्ट रूप से नीचे जा रहा है। इसलिए इस तरीके से भारत के आर्थिक प्रदर्शन का आकलन गलत है। वास्तविक आर्थिक विकास को दर्शाने के लिए इस तरीके में बदलाव की जरूरत है।
ग्रामीण क्षेत्र को नजरअंदाज करना और उपनिवेशीकरण, पहले नोटबंदी, उसके बाद वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी), एनबीएफसी संकट और फिर लॉकडाउन, इन सबने असंगठित क्षेत्र को बुरी तरह नुकसान पहुंचाया है, जबकि सरकारी आंकड़ों में इन्हें कहीं नहीं दिखाया जाता है। अगर असंगठित क्षेत्र के आंकड़ों को भी शामिल किया जाए तो आज भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर 7% से अधिक नहीं, बल्कि नकारात्मक होगी। इस तरह यह सेक्टर न सिर्फ आंकड़ों में हाशिए पर रहता है बल्कि नीतियों में भी इसे जगह नहीं मिल पाती है। इस खामी भरे आंकड़ों के बूते अगर अर्थव्यवस्था तेज गति से बढ़ती दिख रही हो तो ग्रामीण अर्थव्यवस्था के संकट को दूर करने के लिए विशिष्ट नीतियों को अपनाया ही नहीं जाएगा। होता यह है कि सिर्फ फौरी राहत दी जाती है, समस्या का समाधान नहीं किया जाता। दूसरे शब्दों में कहें तो ग्रामीण क्षेत्र को आंकड़ों और नीति दोनों में अदृश्य कर दिया जाता है।
काले धन की अर्थव्यवस्था इस तस्वीर को और अधिक पेचीदा बना देती है। काला धन संगठित क्षेत्र में ही पैदा होता है, क्योंकि असंगठित क्षेत्र में ज्यादातर लोगों की आमदनी आयकर सीमा से कम ही होती है। दूसरी ओर काले धन पर लगाम लगाने के नाम पर असंगठित क्षेत्र में डिजिटाइजेशन, फॉर्मलाइजेशन जैसी नीतियां लागू की जाती हैं। इनसे असंगठित क्षेत्र को और नुकसान होता है। यहां यह बात भी महत्वपूर्ण है कि काले धन की मौजूदगी के कारण आंकड़े और अधिक गलत हो जाते हैं। इसलिए जो नीतियां बनती हैं, वह गलत आंकड़ों के आधार पर ही बनती हैं। यह सच्चाई है कि काला धन चुनिंदा लोगों तक ही सीमित है। इसलिए उनके और गरीबों के बीच असमानता काफी बढ़ी है। सरकारी आंकड़ों में इस हकीकत को भी शामिल नहीं किया जाता है।
कुल मिलाकर देखें तो असंगठित क्षेत्र न सिर्फ हाशिए पर रहता है बल्कि वह संगठित क्षेत्र के उपनिवेशीकरण का भी शिकार होता है। संगठित क्षेत्र का विकास असंगठित क्षेत्र की कीमत पर होता है क्योंकि असंगठित क्षेत्र ही संगठित क्षेत्र को बाजार उपलब्ध कराता है। यह ठीक उसी तरह है जैसा अंग्रेजी शासन के दौरान ब्रिटिश इंडस्ट्री के लिए भारत बाजार मुहैया कराता था।
असंगठित क्षेत्र को इस तरह हाशिए पर किया जाना और उसका उपनिवेशीकरण 1991 में नई आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद अधिक तेजी से बढ़ा। ये नीतियां आधुनिक सेक्टर और बड़ी इंडस्ट्री के लिए ज्यादा मुफीद हैं। 1947 से जो नीतियां लागू थीं, उनके विपरीत नई आर्थिक नीतियां असंगठित क्षेत्र के लिए जुबानी खर्च भी नहीं करती हैं। यहां तक कि कृषि और ग्रामीण क्षेत्र के लिए भी वे आधुनिकीकरण और मशीनीकरण की बात करते हैं, जबकि भारत के विशाल ग्रामीण आबादी की जरूरतें इन तरीकों से पूरी नहीं हो सकती हैं।
कृषि क्षेत्र में लोगों को रोजगार देने की लोचता शून्य रह गई है। गैर कृषि क्षेत्र में नौकरियों की संख्या सीमित है इसलिए लोग वहीं फंस कर रह गए हैं। इसका नतीजा बड़े पैमाने पर ‘प्रच्छन्न बेरोजगारी’ है। इससे गरीबी और बढ़ती है क्योंकि निर्भरता अनुपात बढ़ जाता है। आजादी के बाद से कृषि क्षेत्र के सरप्लस का इस्तेमाल शहरीकरण और उद्योगीकरण के लिए किया जाता रहा। किसान के लिए व्यापार के नियम कभी अनुकूल नहीं रहे। शहरीकरण और उद्योगीकरण दोनों काफी खर्चीले हैं, इसलिए ग्रामीण क्षेत्र के लिए बहुत कम संसाधन रह जाते हैं जिसका नतीजा उन्हें भुगतना पड़ता है।
मार्जिनलाइजेशन का मैक्रोइकोनॉमी पर प्रभावः बढ़ती अस्थिरता असंगठित क्षेत्र भारत के 94% कार्यबल को रोजगार उपलब्ध कराता है और जीडीपी में 45% का योगदान करता है। जीडीपी में कृषि क्षेत्र का योगदान 14% है। इसकी अनदेखी से मैक्रोइकोनॉमी को नुकसान होता है। इससे डिमांड में कमी आती है और अर्थव्यवस्था की गति धीमी होती है। नोटबंदी के बाद अर्थव्यवस्था के बढ़ने की दर हर तिमाही घटती हुई 8% से 3.1% (2019 की चौथी तिमाही में) तक पहुंच गई। उसके ठीक बाद कोविड-19 महामारी ने भारत को अपनी गिरफ्त में लिया।
इन आंकड़ों पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए। जब अर्थव्यवस्था के इतने बड़े हिस्से की अनदेखी होगी तो क्रय शक्ति कम होगी तथा गैर ग्रामीण क्षेत्र की विकास दर भी घटेगी। अगर अमीरों की बजाय गरीबों की आमदनी बढ़ी तो खपत भी बढ़ेगी। गरीबों की अनेक बुनियादी जरूरतें होती हैं। वे उन बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए अपनी अतिरिक्त आमदनी खर्च करेंगे। जैसे कपड़े, भोजन आदि। संपन्न लोगों की आय बढ़ने पर आमतौर पर वे उसकी बचत करते हैं। जब तक उस अतिरिक्त आय का नए बिजनेस अथवा उद्योग में निवेश न किया जाए तब तक उससे अतिरिक्त मांग नहीं बढ़ती है।
संपन्न वर्ग की आय अधिक बढ़ी और उन्होंने निवेश ज्यादा किया तो असमानता भी बढ़ती रहेगी। अगर निवेश कम होता है तो मांग में भी कमी आएगी जिसका नतीजा अर्थव्यवस्था की विकास दर में गिरावट के रूप में सामने आएगा। यह किसी भी अर्थव्यवस्था में असमानता और अस्थिरता बढ़ाने की अच्छी रेसिपी है।
कृषि क्षेत्र की चुनौतियां कृषि क्षेत्र जिन चुनौतियों का सामना कर रहा है उनसे भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर असर होता है, क्योंकि ग्रामीण अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा कृषि पर ही आश्रित है। गैर-कृषि क्षेत्र में पर्याप्त नौकरियां उपलब्ध न होना एक बड़ा मुद्दा है। बड़ी संख्या में लोग सिर्फ इसलिए खेती में जुटे हुए हैं क्योंकि उनके पास कहीं और जाने का उपाय नहीं है। इससे ग्रामीण परिवारों में गरीबी की समस्या और बढ़ जाती है। किसानों के खेत का आकार बहुत छोटा रह गया है। 85% किसानों के खेत 5 एकड़ से भी कम के हैं। ज्यादातर छोटे खेत ऐसे हैं कि उनसे पूरे परिवार के लिए पर्याप्त आमदनी नहीं हो सकती। आय का दूसरा विकल्प उनके लिए महत्वपूर्ण होता है।
सरप्लस के लीकेज का यह मतलब भी है कि निवेश और तकनीकी बदलाव लागू करने के लिए संसाधन कम रह जाते हैं, जिनसे आमदनी बढ़ाने में मदद मिल सके। इसका यह मतलब भी है कि बच्चों की अच्छी शिक्षा या जरूरत के समय परिवार को अच्छी स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध कराने के लिए लोगों के पास पर्याप्त पैसा नहीं होता। इस तरह परिवार का भविष्य सुधारने का अवसर खत्म हो जाता है और गरीबी बनी रहती है। सरकार का दावा है कि वह 80 करोड़ लोगों को मुफ्त भोजन उपलब्ध करा रही है। इसके बावजूद ग्रामीण इलाकों में गरीबी है। अर्थात अगर मुफ्त भोजन उपलब्ध न कराया जाता तो लोगों की गरीबी और अधिक होती। इसका यह अर्थ भी है कि इन लोगों को जो भी काम मिलता है उसके बदले उन्हें इतने पैसे नहीं मिलते कि वे अपना जीवन चला सकें। नतीजा, वे गरीब रह जाते हैं।
कृषि क्षेत्र की कमजोरी का एक कारण यह भी है कि खेती करने वाले परिवारों की संख्या बहुत अधिक है। इस वजह से बाजार में अपनी उपज की अधिक कीमत मांगने की उनकी क्षमता नहीं होती। गरीबी के कारण छोटे किसान व्यापारियों और साहूकारों की गिरफ्त में होते हैं। इसलिए किसानों को व्यापारियों और साहूकारों का मार्जिन चुकाने के बाद ही थोड़ी बहुत कमाई होती है। कई बार उनका मार्जिन बहुत ज्यादा होता है।
इसलिए किसान सरकार की तरफ से न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) घोषित करने पर निर्भर रहते हैं। एमएसपी किसानों और व्यापारियों के लिए एक बेंचमार्क का काम करता है। दुर्भाग्यवश इसे लागू करने की व्यवस्था भी बहुत कमजोर है। इसी तरह कृषि मजदूरों के लिए न्यूनतम वेतन लागू करने की भी कोई व्यवस्था नहीं है। इसलिए बड़ी संख्या में किसान और कृषि मजदूर को मामूली आमदनी ही होती है।
खेती की लागत बढ़ती जा रही है जबकि कीमतें उस अनुपात में नहीं बढ़ाई गई हैं। इससे किसानों की आमदनी कम हुई है। अपनी आमदनी बढ़ाने के लिए उनके पास एकमात्र जरिया यह है कि वे खेतिहर मजदूरों को कम पैसे दें। इसका असर यह होता है कि खाद्य पदार्थों की मांग कम हो जाती है और कृषि उपज की बाजार कीमत भी घटती है। ज्यादातर फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य ना होने का पर्यावरण पर भी असर होता है। धान, गेहूं और गन्ना जैसी फसलें बड़े पैमाने पर उगाई जाती हैं क्योंकि किसानों को इनमें ही लाभ होता है। मिलेट, तिलहन, दलहन जैसी अन्य आवश्यक फसलों के बजाय किसान फायदे वाली फसलों को उपजाते हैं। इनमें से कई फसलों की देश में कमी होती है जिसकी पूर्ति आयात से की जाती है। यही नहीं, किसान ऐसी फसलें भी उगाते हैं जो उनके कृषि जलवायु क्षेत्र के माफिक नहीं होता है। उदाहरण के लिए धान और गन्ना जैसी पानी का अधिक इस्तेमाल करने वाली फसलों की खेती अर्ध शुष्क इलाकों में की जाती है। इस तरह की नीति हर तरीके से पर्यावरण के लिए समस्या खड़ी करती है।
अधिक पैदावार के लिए रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का इस्तेमाल बड़े स्तर पर किया जाता है। इससे मिट्टी का क्षरण और पीने का पानी प्रदूषित हो रहा है। इसका परिणाम अनेक तरह की बीमारियां हैं। कृषि में मशीनीकरण और गैर कृषि क्षेत्र में ऑटोमेशन बढ़ने से गैर-कृषि क्षेत्र में नौकरियों की संख्या भी कम हो रही है। राजनीतिक चुनौतियां और सुधार की जरूरत किसी भी लोकतंत्र में संख्या के लिहाज से अधिक किसान और ग्रामीण समुदाय अपने आप को हाशिए पर क्यों पाता है? इसका कारण यह है कि कृषि में अनेक आर्थिक हित होते हैं। किसानों की ही अनेक श्रेणियां हैं- अमीर, मध्यवर्गीय और छोटे, सिंचाई वाले और तथा बिना सिंचाई वाले क्षेत्रों में खेती करने वाले, फिर भूमिहीन मजदूर और छोटे किसान भी हैं जिनके पास खेती की जमीन बहुत कम होती है। इन सबके बीच हितों में टकराव होता है और उन्हें दूर करने की कोशिश भी नहीं की जाती है। राजनीतिक दल इसका फायदा उठाते हैं। जो किसान राजनीति में आते हैं वे अक्सर संपन्न होते हैं। उनके अपने बिजनेस हित होते हैं। वे देर-सबेर शहरी और बिजनेस एलीट वर्ग के लिए काम करना शुरू कर देते हैं।
जरूरत इस बात की है कि ग्रामीण क्षेत्र और किसानों के नेता अपने आप ही मतभेद दूर करें। उनके मतभेद आपस में उतने नहीं होते जितने गैर-कृषि और शहरी हितों से होते हैं। अगर वे सभी फसलों के लिए ऐसे न्यूनतम समर्थन मूल्य की मांग करें, जिसकी गणना कृषि मजदूरों की आजीविका पर आधारित हो, तो वह नाकाम नहीं होंगे। उन्हें फायदा होगा, क्योंकि उनकी उपज की मांग निकलेगी और बाजार में उनकी उपज की संभवतः एमएसपी से अधिक कीमत भी मिलेगी। इस तरह एमएसपी लागू करने की समस्या भी खत्म हो जाएगी।
जाहिर है कि इसका असर महंगाई बढ़ाने वाला होगा। मध्यवर्ग के साथ-साथ बिजनेस वर्ग भी इसका विरोध करेगा क्योंकि उन्हें अपने कर्मचारियों को अधिक वेतन देना पड़ेगा। लेकिन क्या मध्य वर्ग और विजनेस वर्ग का जीवन स्तर कृषि मजदूरों और ग्रामीण क्षेत्र की कीमत पर होना चाहिए? यह न्याय नहीं है। अर्थव्यवस्था में महंगाई का असर कम करने के लिए किसानों को अप्रत्यक्ष कर घटाने, प्रत्यक्ष कर बढ़ाने और काले धन की अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण करने की मांग करनी चाहिए। उन्हें ‘पूर्ण रोजगार’ के साथ कृषि मजदूरों के लिए उचित वेतन की भी मांग करनी चाहिए ताकि गरीबी दूर हो। कुल मिलाकर कहा जाए तो अर्थव्यवस्था के लिए एक संपूर्ण पैकेज की जरूरत है। ग्रामीण क्षेत्र की समस्याओं का समाधान मैक्रोइकोनॉमी में निहित है।
हरियाणा सरकार ने विधानसभा सत्र के अखिरी दिन प्रदेश में गन्ने के दाम बढ़ाने की विपक्ष की मांग को नहीं माना है. गन्ने के दाम में बढ़ोतरी न होने से प्रदेश के किसान आक्रोषित हैं. जिसको लेकर आज नेता गुरनाम सिंह चढ़ूनी के नेतृत्व में भारतीय किसान यूनियन चढूनी करनाल में मुख्यमंत्री आवास का घेराव कर दो घंटे तक धरना देगी.
इस दौरान किसान, मुख्यमंत्री मनोहर लाल का पुतला भी फूकेंगें. बता दें कि विधानसभा में विपक्ष की मांग को नकारते हुए सरकार ने गन्ने के पुराने दाम 362 रुपए प्रति क्विंटल के आधार पर ही गन्ना खरीदने की अधिसूचना जारी की है. इस अधिसूचना के बाद किसानों के रोष बढ़ता जा रहा है. किसान गन्ने के रेट को बढ़ाकर 450 रुपए करने की मांग कर रहे हैं. बता दें कि पंजाब में गन्ना किसानों को 380 रुपये प्रति किवंटल का रेट मिल रहा है.
वहीं सरकार ने इस मुद्दे पर विधानसभा में गन्ना कमेटी बनाने का फैसला लिया है. दाम न बढ़ाए जाने के विरोध में नेता प्रतिपक्ष भूपेंद्र सिंह हुड्डा सदन से वॉक आउट कर गए थे.
बेहतर आर्थिक वृद्धि मौजूदा दौर के हर ‘राष्ट्र राज्य’ की पहली प्राथमिकता है। और इस प्राथमिकता को हासिल करने के लिए जरूरी है अर्थव्यवस्था का पहिया तेज गति से घूमे। पहिए की गति उत्पादन (प्रोडक्शन) पर निर्भर करती है। जितना अधिक उत्पादन होगा उतने ही अधिक गति से पहिया दौड़ेगा। उत्पादन मुख्यत दो कारकों पर टिका रहता है–पहला पूंजी और दूसरा मजदूर।
लेकिन मशीनें आ जाने के बाद उत्पादन के मामले में मजदूरों के पास सौदेबाजी की ताकत कम हो गई। अब मजदूरों के लिए काम मिलना जरूरी था। काम की कमतर गुणवत्ता और वेतन की कमी के बावजूद मजदूर के पास कोई विकल्प नहीं रहा। कार्ल मार्क्स ने ऐसे मजदूरों को आत्मलोप की स्थिति से ग्रसित बताया था। भारतवर्ष में आज चहुंओर रोजगार की बात हो रही है। पर कैसा रोजगार? क्या केवल पदों का सृजन ही काफी है? क्या मौजूदा नौकरियों में गुणवत्ता युक्त काम है? आज के इस न्यूज़ अलर्ट में इसकी पड़ताल करेंगे।
पिछले कुछ वर्षों से आर्थिक आभामंडल में तनाव बढ़ रहा है। जाहिर है धीमी होती अर्थव्यवस्था की गाड़ी का प्रभाव रोजगार पर भी पड़ेगा। पर आवधिक श्रमबल सर्वेक्षण की ओर से जारी आंकड़ों में रोजगार से जुड़े आंकड़े गुलाबी हैं।
सर्वेक्षण में मुख्यत: तीन तरह के आंकड़े होते हैं। पहला, जनसंख्या का ऐसा अनुपात जो ‘काम’ करना चाहता है (श्रम शक्ति भागीदारी दर)। दूसरा, जनसंख्या का ऐसा अनुपात जो किसी काम में संलग्न है(कामगार जनसंख्या अनुपात) । और तीसरा, काम करने के इच्छुक लोगों में से किसी भी काम में संलग्न लोगों को हटा दें, तब जो अनुपात आएगा उसे हम बेरोजगारी दर कहते हैं।
गौर कीजिए! यहां श्रम शक्ति भागीदारी दर और कामगार जनसंख्या अनुपात भी स्थिर है। कृपया नीचे दिए गए ग्राफ को देखिए। (ग्राफ को मोबाइल में सही से देखने के लिए ग्राफ पर भार दीजिए फिर ओपन इमेज पर क्लिक कर दीजिए)
स्त्रोत: पीएलएफएस की वार्षिक रिपोर्ट जारी करते समय भारत सरकार की ओर से जारी प्रेस रिलीज। कृपया यहां क्लिक कीजिए
ग्राफ को भाषायी जामा! श्रम शक्ति भागीदारी दर भी लगातार बढ़ रही है। वर्ष 2017–18 में यह 36.9 फीसदी थी। बढ़ते हुए 2018–19 में 37.5 फीसदी, 2019–20 में 40.1 फीसदी और वर्ष 2020–21 में 41.6 फीसदी।इसी तरह कामगार जनसंख्या अनुपात भी लगातार बढ़ रहा है। 2017–18 ने 34.7 प्रतिशत से बढ़ते हुए 2018–19 में 35.3 फीसदी, 2019–20 में 38.2 फीसदी और 2020–21 में 39.8 फीसदी हो जाता है।
गरीब आदमी के पास अधिक विकल्प मौजूद नहीं रहते हैं। आर्थिक तनाव के इस दौर में मौजूद विकल्प को स्वीकार कर, गुजारा करना पड़ता है।
काम की गुणवत्ता का महत्व तुच्छ हो जाता है। इसी दौरान मंत्रालय यह हवा बना देता है कि देश में रोजगारों का सृजन हो रहा है, बढ़ रहे हैं। इसलिए हमें बेरोजगारी, एलएफपीआर और कामगार जनसंख्या अनुपात के आंकड़ों से इतर देखना पड़ेगा!
काम की गुणवत्ता! अंतर्राष्ट्रीयमजदूर संगठन का कहना है– बेकारी में कमी आ रही है। कमी का यह मतलब कतई नहीं है कि जो रोजगार मिल रहे हैं वो अदब वाले और लाभप्रद हैं। अदब वाले काम से तात्पर्य है शख्स अपनी इच्छा से उस काम को कर रहा है। उसे कार्यक्षेत्र में बेहतरीन वातावरण और सामाजिक सुरक्षा मिल रही हो। उस शख्स से जुड़े किसी भी प्रकार के मुद्दे पर निर्णय लेते समय उसकी सहमति ली जा रही हो।
भारत के संदर्भ में लाभजनक रोजगार पर McKinseyवैश्विक संस्थान ने “ए नोटऑन गैनफुलएम्प्लॉयमेंटइन इंडिया” शीर्षक से एक रपट जारी की थी। इनके अनुसार लाभजनक रोजगार कई आयामों को शामिल करता है जैसे– बेहतर मेहनताना, आय की सुरक्षा, कार्य क्षेत्र में साफ–सफाई, काबिलियत के अनुसार काम और नौकरी में लचीलापन।कुल रोजगार के चमकते हुए आंकड़ों की चका चौंध से इतर सच्चाई की पड़ताल करना जरूरी है।
घरेलू उद्यमों में अवैतनिक मददगार! मजदूर, जिन्हें रोजगार मिल जाता है। उन्हें मिले हुए रोजगार के आधार पर तीन भागों में बांटा जाता है। पहला, स्वनियोजित। दूसरा, दैनिक भत्ते या खास वेतन से नौकरी पर लगा हुआ। तीसरा, अनौपचारिक मजदूर।पहली श्रेणी के मजदूरों को दो सह श्रेणी में बांटा जाता है– १.खुद का व्यवसाय है। २. घरेलू उद्यमों में अवैतनिक मददगार|
कृपया नीचे दिए गए ग्राफ को देखिए। (ग्राफ को मोबाइल में सही से देखने के लिए ग्राफ पर भार दीजिए फिर ओपन इमेज पर क्लिक कर दीजिए)
ग्राफ–2 दर्शाता है कि घरेलू उद्यमों में अवैतनिक मजदूरों का अनुपात बढ़ रहा है| वर्ष 2018–19 में यह अनुपात 13.3 फीसदी था जो बढ़कर 2019–20 में 15.9 और 2020–21 में बढ़कर 17.3 फीसदी हो जाता है। अवैतनिक मजदूरों का बढ़ता यह अनुपात ही रोजगार के आंकड़ों को गुलाबी रंग दे रहा है। सरकारी भाषा में ये अवैतनिक मजदूर ‘सेल्फ इंप्लॉयड’ (स्वरोजगार) हैं। लेकिन ना इनकी तय मजदूरी है और ना ही नियमित आय का ठिकाना।अवैतनिक मजदूरों के खुद का कोई उद्यम नहीं होता है। वे किसी और के उद्यम में बिना वेतन के काम करते हैं।
इसी ग्राफ में यह दर्शाया गया है कि ऐसे मजदूर जिन्हें नियमित मेहनताना या वेतन मिलता था, का अनुपात घट रहा है। पीएलएफएस के सर्वे 2018–19 में नियमित वेतन या मजदूरी वालों का अनुपात 23.8 फीसदी था जो घटते हुए 2019–20 में 22.9 फीसदी और 2020–21 में और घटकर 21.1 फीसदी हो जाता है।
नियमित वेतन या मजदूरी प्राप्त करने वाले कर्मचारियों में संगठित और असंगठित दोनों क्षेत्रों से ताल्लुक रखने वाले ऐसे कर्मचारी शामिल होते हैं। और इन्हें नियमित वेतन मिलता है।रोजगार की दुनिया में देखें तो यह वाला विकल्प उम्दा है, इसमें गुणवत्ता वाले रोजगार का भाव आता है (क्योंकि यह आय सुरक्षा प्रदान करता है)।
ग्राफ के अनुसार नैमित्तिक (कैजुअल) मजदूरों का कुल मजदूरों में अनुपात घट रहा है। पीएलएफएस सर्वे 2017–18 से घटते हुए 2020–21 के सर्वे तक 24.9 फीसदी से 23.3 फीसदी हो जाता है। संगठित और असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले ऐसे मजदूर जिनका वेतन ठेकेदार की शर्तों पर निर्भर करता है, नैमित्तिक मजदूर कहलाते हैं।
ग्राफ–2 दर्शाता है कि घरेलू उद्यमों में अवैतनिक मजदूरों का अनुपात बढ़ रहा है। वर्ष 2018–19 में यह अनुपात 13.3 फीसदी था जो बढ़कर 2019–20 में 15.9 और 2020–21 में बढ़कर 17.3 फीसदी हो जाता है।
अवैतनिक मजदूरों का बढ़ता यह अनुपात ही रोजगार के आंकड़ों को गुलाबी रंग दे रहा है। सरकारी भाषा में ये अवैतनिक मजदूर ‘सेल्फ इंप्लॉयड’ (स्वरोजगार) हैं। लेकिन ना इनकी तय मजदूरी है और ना ही नियमित आय का ठिकाना।अवैतनिक मजदूरों के खुद का कोई उद्यम नहीं होता है। वे किसी और के उद्यम में बिना वेतन के काम करते हैं।
इसी ग्राफ में यह दर्शाया गया है कि ऐसे मजदूर जिन्हें नियमित मेहनताना या वेतन मिलता था, का अनुपात घट रहा है। पीएलएफएस के सर्वे 2018–19 में नियमित वेतन या मजदूरी वालों का अनुपात 23.8 फीसदी था जो घटते हुए 2019–20 में 22.9 फीसदी और 2020–21 में और घटकर 21.1 फीसदी हो जाता है।
नियमित वेतन या मजदूरी प्राप्त करने वाले कर्मचारियों में संगठित और असंगठित दोनों क्षेत्रों से ताल्लुक रखने वाले ऐसे कर्मचारी शामिल होते हैं। और इन्हें नियमित वेतन मिलता है। रोजगार की दुनिया में देखें तो यह वाला विकल्प उम्दा है, इसमें गुणवत्ता वाले रोजगार का भाव आता है (क्योंकि यह आय सुरक्षा प्रदान करता है)।
ग्राफ के अनुसार नैमित्तिक (कैजुअल) मजदूरों का कुल मजदूरों में अनुपात घट रहा है। पीएलएफएस सर्वे 2017–18 से घटते हुए 2020–21 के सर्वे तक 24.9 फीसदी से 23.3 फीसदी हो जाता है। संगठित और असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले ऐसे मजदूर जिनका वेतन ठेकेदार की शर्तों पर निर्भर करता है, नैमित्तिक मजदूर कहलाते हैं।
कार्य–दशा सामान्यतः नियमित तनख्वाह या मजदूरी वाले कामगारों की कार्य दशा, स्वनियोजित और नैमित्तिक कामगारों की तुलना में बेहतर होती है। हालांकि, नियमित वेतन या मजूरी पाने वाला कर्मचारी भी संगठित क्षेत्र में काम करने वाले कर्मचारी के जितना लाभ नहीं प्राप्त कर पाता है।
टेबल नंबर 1 को देखिए! यहां नियत तनख्वाह या मजूरी वालों के तीन तरह के आंकड़े दिए गए हैं।
1) ऐसे नियत तनख्वाह या मजूरी वाले कर्मचारियों का अनुपात दिया गया है जिनके पास नौकरी का लिखित अनुबंध नहीं है।
2) ऐसे कर्मचारी (नियत तनख्वाह या मजूरी वाले) जिन्हें वैतनिक छुट्टी नहीं मिलती है।
3) ऐसे कर्मचारी (नियत तनख्वाह या मजूरी वाले) जिन्हें किसी भी तरह का सामाजिक लाभ नहीं मिलता है।
टेबल 1 बताती है कि नियत तनख्वाह या मजूरी वाले ऐसे कर्मचारी जिनके पास कोई लिखित अनुबंध नहीं है, संख्या घट रही है। पीएलएफएस 2017–18 में इनका अनुपात 71.1 फीसदी था जो घटकर पीएलएफस 2020–21 में 64.3 फीसदी हो जाता है। इसी तरह ऐसे कर्मचारियों का अनुपात भी घट रहा है जो वैतनिक छुट्टी लेने के योग्य नहीं हैं। पीएलएफएस 2017–18 में 54.2 फीसदी था जो घटकर 2020–21 के सर्वे में 47.9 फीसदी हो जाता है।
ऐसे कर्मचारी जो किसी भी प्रकार की सामाजिक सुरक्षा के लाभ के योग्य नहीं हैं, का अनुपात निरंतर बढ़ रहा है। पीएलएफएस 2017–18 में 49.6 फीसदी था जोकि बढ़कर 2020–21 में 53.8 फीसदी हो जाता है।
अलग–अलग श्रेणी के मजदूरों का मेहनताना और पारितोषिक
गुणपूर्णता युक्त रोजगार की पहचान के सूचकों में एक है उक्त रोजगार से मिली आमदनी। पीएलएफएस की 2020–21 वाली रपट में नियत तनख्वाह या मजूरी वाले कर्मचारियों का औसत दैनिक मजदूरी या वेतन (रुपए में) वर्तमान साप्ताहिक स्थिति (करेंट वीकली स्टेटस) में अनौपचारिक श्रमिक की तुलना में अधिक था।
हालांकि, स्वनियोजित कर्मचारियों का वेतन वर्तमान साप्ताहिक स्थिति प्रारूप में अनौपचारिक मजदूरों से अधिक था।
देखें चार्ट –3
Note: * Calculated by dividing ‘Average wage/ salary earnings (in Rs) during the preceding calendar month by the regular wage/ salaried employees in current weekly status during the survey period 2020-21’ by 30 ** Calculated by dividing ‘Average gross earnings (in Rs.) during the last 30 days from self-employment work in current weekly status during the survey period 2020-21’ by 30
Source: Statements-17, 18 & 19, Annual Report on PLFS, July 2020-June 2021, released in June 2022, NSO, MoSPI, please click here to access
ग्राफ को भाषायी जामा पहनाएं तो सभी तिमाहियों में अनौपचारिक मजदूरों की औसत कमाई कम है।
गौर करने वाली बात है कि जब पीएलएफसी 2020–21 का सर्वे तैयार किया जा रहा था तब अप्रैल–जून 2021 की तिमाही को भी शामिल किया गया है, उस समय राज्यों ने अपने हिसाब से लॉकडाउन लगाया था।
सामान्य स्थिति दृष्टिकोण और साप्ताहिक स्थिति दृष्टिकोण– पीएलएफएस की रिपोर्ट में तीन समय काल के आधार पर रोजगार के आंकड़े संग्रहित किए जाते हैं। पिछले 365 दिनों में रोजगार की स्थिति, पिछले सप्ताह में रोजगार की स्थिति और दैनिक रोजगार स्थिति। सामान्य स्थिति दृष्टिकोण में श्रम बल के दो तरह के आंकड़े होते हैं। प्राथमिक स्थिति और सहायक स्थिति। अगर सर्वे के समय पिछले 365 दिनों में कोई शख्स 6 माह या उससे अधिक समय तक श्रम बल का हिस्सा रहता है तो वह प्राथमिक स्थिति की श्रेणी में आएगा। वहीं अगर कोई शख्स सर्वे के समय पिछले 365 दिनों में 30 दिन या उससे अधिक किसी आर्थिक गतिविधि से जुड़ा रहता है तो वो सहायक स्थिति में गिना जाएगा।
साप्ताहिक स्थिति दृष्टिकोण में सर्वे के समय अगर कोई शख्स पिछले सात दिनों में 1 घंटे के लिए भी किसी काम से जुड़ा है तो वह रोजगार वाला गिना जाएगा।
सन्दर्भ यहाँ से-
Fourth Annual Report on Periodic Labour Force Survey (PLFS), July 2020-June 2021, released in June 2022, National Statistical Office (NSO), Ministry of Statistics and Programme Implementation (MoSPI), please click here to access
Third Periodic Labour Force Survey Annual Report (July 2019-June 2020), released in July 2021, NSO, MoSPI, please click here to access
Press release: Periodic Labour Force Survey (PLFS) – Annual Report [July, 2020 – June, 2021], released on 14 June, 2022, Press Information Bureau, Ministry of Statistics & Programme Implementation (MoSPI), please click here to access
Decent Work, International Labour Organisation, please click here to access [accessed on September 21, 2022]
A new emphasis on gainful employment in India – Jonathan Woetzel, Anu Madgavkar, and Shishir Gupta, published on June 13, 2017, McKinsey Global Institute, please click here to access [accessed on September 21, 2022]
News alert: Latest available PLFS data sheds light on unpaid helpers in self-employment & underemployment among various types of workers, Inclusive Media for Change, Published on Sep 2, 2021, please click here to access
Low Incomes Haunt India’s Growth -Subodh Varma, Newsclick.in, 18 September, 2022, please click here to access
Joblessness below pre-COVID levels: Finance Ministry, The Hindu, 17 September, 2022, please click here to access
Why the Rise in Workforce Participation During the Pandemic Points to Distress Employment -Shiney Chakraborty, Priyanka Chatterjee and Mitali Nikore, TheWire.in, 6 July, 2022, please click here to access
Our employment data should be interpreted cautiously -Himanshu, Livemint.com, 16 June, 2022, please click here to access
The Dramatic Increase in the Unemployment Rate -Prabhat Patnaik, Newsclick.in, 14 June, 2019, please click here to access
प्रदेशभर के आढ़तियों ने अपनी मांगों को लेकर अनिश्चितकालीन हड़ताल पर जाने का एलान कर दिया है. इससे पहले प्रदेशभर के आढ़तियों ने 18 सितंबर तक अपनी मांगों पर विचार करने की चेतावनी दी थी लेकिन सरकार की ओर से आढ़तियों की मांगों पर कोई विचार नहीं किया गया है. इसी के चलते अब प्रदेशभर के आढ़तियों ने 19 सितंबर से अनिश्चितकालीन हड़ताल पर जाने का फैसला किया है. आढ़ती 19 सितंबर को मंडी स्तर पर और 20 सितंबर को विधायकों के आवास पर विरोध प्रदर्शन करेंगे. वहीं 21 सितंबर को करनाल में राज्य स्तरीय विरोध मार्च निकाला जाएगा, जिसमें आढ़ती मुख्यमंत्री कार्यालय का घेराव करेंगे.
आढ़तियों के हड़ताल पर जाने के फैसले ने किसानों की चिंता बढ़ा दी है. मंडियों में धान की फसल की आवक शुरू हो चुकी है. आने वाले एक हफ्ते के भीतर धान की आवक और बढ़ जाएगी. ऐसे में मंडियों में आढ़तियों की हड़ताल जारी रही तो किसान अपनी फसल को कैसे बेचेगा.
आढ़तियों की मुख्य मांगें
फसलों की खरीद व भुगतान पर पूरी आढ़त मिलनी चाहिए. आढ़त 2.5% होनी चाहिए जबकि सरकार इसे कम कर रही है. भुगतान सीधा खाते में नहीं होना चाहिए. सीमांत किसानों की फसलें पोर्टल पर रजिस्टर्ड होने के बाद भी सरकार उन्हें खरीद नहीं रही है. मार्किट फीस व एचआरडीएफ फीस को घटाया जाए. सरकार की ओर से मंडियों में ऑनलाइन प्रणाली तीन साल पहले ही शुरू कर दी गई है. इसके तहत गेट पास कटने के बाद ही किसान की फसल को मंडी में बेचा जा सकता है. इस प्रक्रिया में फसल खरीदने वाले आढ़ती व बेचने वाले किसान का नाम सरकारी खरीद के पोर्टल पर दर्ज होता है, लेकिन अब ई-नेम प्रणाली में फसल की ढेरी की फोटो ऑनलाइन डालने से देश का कोई भी व्यापारी किसान की फसल को खरीद सकेगा. आढ़ती इसी बात का विरोध कर रहे हैं. आढ़ती एसोसेएशन का कहना है कि ऐसे में स्थानीय स्तर पर आढ़ती को नुकसान होगा. दूसरा ऑनलाइन खरीद के तहत उठान व भुगतान में भी समस्या आएगी.
नेशनल स्टैटिक्स ऑफिस द्वारा जारी आंकड़ो के मुताबिक अगस्त में रिटेल महंगाई दर बढ़कर 7 फीसदी हो गई है. वहीं जुलाई में रिटेल महंगाई दर 6.7% थी. एक साल पहले यानी अगस्त 2021 में रिटेल महंगाई दर 5.30 फीसदी थी. खाने-पीने का सामान खास तौर पर दाल-चावल, गेहूं और सब्जियों की कीमतों के बढ़ने की वजह से रिटेल महंगाई दर में बढ़ोतरी हुई है. वहीं अगस्त में फूड इन्फ्लेशन 6.69% से बढ़कर 7.62% हो गई है.
रिटेल महंगाई दर लगातार 8 महीनों से आरबीआई की 6% की ऊपरी लिमिट के पार है. जनवरी 2022 में रिटेल महंगाई दर 6.01%, फरवरी में 6.07%, मार्च में 6.95%, अप्रैल में 7.79%, मई में 7.04% और जून में 7.01% दर्ज की गई थी. साथ ही इंडस्ट्रियल ग्रोथ में भी गिरावट दर्ज की गई है. जुलाई में इंडस्ट्रियल ग्रोथ घटकर 2.4% रह गई. इस बीच जून में यह इंडस्ट्रियल ग्रोथ 12.3% थी जो घटकर 2.4 फीसदी पर सिमट गई है. वहीं सरकार ने गेहूं और चावल के निर्यात में कटौती के फैसले पर तर्क दिया है कि इस कदम से महंगाई पर काबू पाया जा सकेगा.
अनाज, दूध, फलों और मसालों में शहरी बाजारों की तुलना में ग्रामीण बाजारों में ज्यादा महंगाई दर रही है. अगस्त 2022 के दौरान ग्रामीण क्षेत्रों में अनाज की महंगाई दर बढ़कर 10.08 प्रतिशत हो गई, जबकि शहरी क्षेत्रों में यह 8.65 प्रतिशत थी. इसी तरह, ग्रामीण क्षेत्रों में फलों की महंगाई दर 8.67 प्रतिशत रही, जबकि शहरी क्षेत्रों में यह 5.98 प्रतिशत थी. ग्रामीण इलाकों में दूध और दुग्ध उत्पादों की महंगाई दर 6.67 फीसदी पर पहुंच गई, जबकि शहरी इलाकों में यह 6.05 फीसदी थी. ग्रामीण क्षेत्रों में मसालों की महंगाई दर 15.19 प्रतिशत शहरी क्षेत्रों की 14.41 प्रतिशत से ज्यादा रही.