आट्टे के दाम पर काबू पाने के लिए 30 लाख टन गेहूं बाजार में बेचने पर मजबूर हुई सरकार!

गेहूं के दाम में आई रिकॉर्ड तेजी के बाद केंद्र सरकार ने अपने भंडार से 30 लाख टन गेहूं खुले बाजार में बेचने का फैसला लिया है. केंद्र सरकार की ओर से 30 लाख टन गेहूं की बिक्री ओपन मार्केट सेल स्कीम (OMSL) के जरिए होगी.

सरकार की ओर से जारी एक आधिकारिक बयान के अनुसार विशेष ओपन मार्केट सेल स्कीम योजना के तहत खरीदार की बिक्री इस मकसद से की जाएगी कि वे इसका आटा तैयार करके 29.50 पैसे प्रति किलो अधिकतम खुदरा मूल्य (एमएसपी) पर बिक्री करें. बयान में कहा गया है कि योजना के तहत फ्लोर मिलर्स, थोक खरीदारों को ई नीलामी के माध्यम से गेहूं बेचा जाएगा. एक खरीदार को एक नीलामी में एफसीआई से अधिकतम 3 हजार टन गेहूं मिलेगा. इसके अलावा राज्य सरकारों व केंद्र शासित प्रदेशों को बिना ई-नीलामी के गेहूं उपलब्ध करवाया जाएगा.

इसके अलावा सरकारी पीएसयू, कोऑपरेटिव, केंद्रीय भंडार, एनसीसीएफ आदि को भी बिना ई-नीलामी के 2,350 रुपये प्रति क्विंटल के हिसाब से गेहूं उपलब्ध करवाया जाएगा. वहीं सरकार की ओर से निजी ट्रेडर्स के लिए भी गोदाम खोलने का फैसला किया गया है.

बता दें कि बाजार में इस वक्त गेहूं की कीमत 31-32 रुपये किलो तक पहुंच गई है. बिजनैस स्टैंडर्ड की रिपोर्ट के अनुसार ट्रेडर्स ने कहा, ‘बिक्री शुरू होते ही बाजार भाव में कम से कम 2 रुपये किलो कमी आ सकती है’ उन्होंने कहा कि ज्यादातर गेहूं पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश में पड़ा है, जहां से गेहूं फ्लोर मिलर्स और आटा बनाने वालों को बेचा जाएगा. उन्होंने कहा कि अगले सप्ताह बिक्री खुलने की संभावना है.

आंकड़ों के अनुसार 1 जनवरी, 2023 को केंद्रीय पूल में भारत का गेहूं का अनुमानित स्टॉक करीब 171.7 लाख टन था, जो जरूरी रणनीतिक भंडार से 24.4 प्रतिशत ज्यादा है. खाद्य सचिव संजीव चोपड़ा ने 19 जनवरी को कहा था कि गेहूं और आटे की खुदरा कीमतें बढ़ गई हैं और सरकार जल्द ही बढ़ती दरों को नियंत्रित करने के लिए कदम उठाएगी. ओएमएसएस नीति के तहत सरकार समय-समय पर थोक उपभोक्ताओं और निजी व्यापारियों को खुले बाजार में पूर्व-निर्धारित कीमतों पर खाद्यान्न, विशेष रूप से गेहूं और चावल बेचने के लिए सरकारी उपक्रम भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) को अनुमति देती रही है. इसका उद्देश्य जब खास अनाज का मौसम न हो, उस दौरान इसकी आपूर्ति बढ़ाना और सामान्य खुले बाजार की कीमतों पर लगाम लगाना है.

ट्रैक्टरों के साथ फिर दिल्ली जाएंगे किसान, बजट सत्र में करेंगे संसद मार्च!

26 जनवरी को संयुक्त किसान मोर्चा के आह्वान पर हरियाणा के जींद में हुई किसान महापंचायत में बड़ी संख्या में किसान जुटे किसानों ने इस किसान महापंचायत के जरिए मुख्य रूप से गन्ना किसानों के लिए गन्ने का रेट 450 रुपये करने की मांग की. वहीं संयुक्त किसान मोर्चा ने बजट सत्र के दौरान 15 से 22 मार्च के बीच मार्च टू पार्लियामेंट का आयोजन करने का प्रस्ताव पास किया. दिल्ली संसद मार्च की तारीख का एलान 9 फरवरी को कुरुक्षेत्र की मीटिंग में किया जाएगा.

वहीं किसान महापंचात में जुटे बड़े किसान नेताओं ने खेती किसानी से जुड़े मुख्य मुद्दों को हासिल करने के लिए अखिल भारतीय स्तर पर आंदोलन तेज करने की बात कही. किसान महापंचायत में केंद्र की मोदी सरकार पर लिखित आश्वासन के बावजूद पीछे हटने का आरोप लगाया गया.

जींद में हुई किसान महापंचायत में किसान नेताओं ने मंच से किसानों को एमएसपी की कानूनी गारंटी प्राप्त करने, लखीमपुर खीरी हत्याकांड के आरोपी राज्य मंत्री अजय मिश्रा को हटाने और उसके बेटे आशीष मिश्रा को सजा दिलाने, बिजली संशोधन विधेयक-2022 को वापस करवाने और कर्जमाफी जैसे मुद्दों पर कमर कसने का आह्वान किया. यह घोषणा की गई कि बजट सत्र के दौरान 15 से 22 मार्च के बीच मार्च टू पार्लियामेंट का आयोजन किया जाएगा. सटीक तिथि की घोषणा 9 फरवरी को कुरुक्षेत्र में राष्ट्रीय स्तर की एसकेएम बैठक में की जाएगी.

गन्ने के रेट में 10 रुपये की बढ़ोतरी पर ही राजी हुए चढ़ूनी, आंदोलन खत्म करने का किया एलान!

हरियाणा सरकार की ओर से गन्ने के लिए एसएपी में 10 रुपये प्रति क्विंटल की बढ़ोतरी के एक दिन बाद, भारतीय किसान यूनियन (चढ़ूनी) ने गन्ने की कीमतों के लिए अपना विरोध बंद कर दिया है और चीनी मिलों की आपूर्ति फिर से शुरू करने का फैसला किया है. बुधवार को सीजन के लिए एसएपी बढ़ाकर 372 रुपये प्रति क्विंटल कर दिया गया था,जबकि किसान 450 रुपये प्रति क्विंटल की मांग कर रहे थे. 20 जनवरी से आपूर्ति बंद कर दी गई थी, जिससे चीनी मिलों में कामकाज ठप हो गया था.

कृषि कार्यकर्ताओं के साथ बैठक करने के बाद, बीकेयू (चढ़ूनी) के नेता गुरनाम सिंह चढ़ूनी ने कहा, “सरकार द्वारा बढ़ाया गया SAP अपर्याप्त था, लेकिन गन्ने को खेतों में खड़ा नहीं छोड़ा जा सकता है. किसानों को किसी तरह का आर्थिक नुकसान न हो, इसके लिए जनभावनाओं को देखते हुए चीनी मिलों को आपूर्ति फिर से शुरू करने का निर्णय लिया गया है. हालांकि, अगर एसकेएम गन्ने की कीमतों को लेकर आंदोलन का आह्वान करता है, तो यूनियन एसकेएम को अपना समर्थन देगी.”

वहीं बीकेयू (चढ़ूनी) द्वारा आंदोलन को वापस लेने का निर्णय भाजपा के लिए एक बड़ी राहत के रूप में आया है क्योंकि किसानों ने इससे पहले 29 जनवरी को गोहाना में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की रैली के दौरान विरोध प्रदर्शन करने का आह्वान किया था.

गुरनाम चढ़ूनी ने कहा, “यह भी तय किया गया है कि अमित शाह की रैली के दौरान कोई प्रदर्शन नहीं किया जाएगा. लेकिन आने वाले चुनावों में बीजेपी का विरोध करने का भी सर्वसम्मति से निर्णय लिया गया है.”

गन्ने के रेट में बढ़ोतरी को लेकर आंदोलन तेज, अमित शाह की रैली का विरोध करेंगे किसान!

प्रदेश के गन्ना किसानों ने भारतीय किसान यूनियन (चढ़ूनी) के बैनर तले किसानों ने गन्ने के राज्य सलाहकार मूल्य (एसएपी) में बढ़ोतरी की मांग पूरी नहीं होने पर सरकार के खिलाफ अपना आंदोलन तेज करने की घोषणा की. किसानों ने राज्य भर में कई विरोध प्रदर्शनों की घोषणा की, जिसमें ट्रैक्टर मार्च, गन्ने की ‘होली’ जलाना और शर्ट उतारकर गृह मंत्री अमित शाह की रैली का विरोध करना शामिल है.

गन्ने के रेट में बढ़ोतरी की मांग को लेकर किसान बुधवार को ट्रैक्टर मार्च निकालेंगे और मुख्यमंत्री का पुतला फुकेंगे.
26 जनवरी को सर छोटू राम की जयंती पर ‘गन्ने की होली’ जलाएंगे. 27 जनवरी को अनिश्चितकाल के लिए चीनी मिलों के बाहर सड़क जाम करेंगे. वहीं 29 जनवरी को गोहाना में गृह मंत्री अमित शाह की रैली में शामिल होंगे और उनके भाषण के दौरान शर्ट उतारकर अपनी नाराजगी जाहिर करेंगे.

एक बैठक के दौरान किसान नेता गुरनाम सिंह चढ़ूनी ने कहा, “किसान 25 जनवरी को अपनी चीनी मिलों से निकटतम शहर या कस्बे तक सीएम के पुतले के साथ ट्रैक्टर मार्च निकालेंगे और बाद में चीनी मिलों पर पुतला फूंकेंगे. 26 जनवरी को सर छोटू राम की जयंती पर किसान “गन्ने की होली” जलाएंगे. उन्होंने कहा कि वे अपनी मांगों को लेकर दबाव बनाने के लिए 27 जनवरी को अनिश्चित काल के लिए चीनी मिलों के बाहर सड़कों को जाम करेंगे.

साथ ही गोहाना में 29 जनवरी को गृह मंत्री अमित शाह की रैली में बड़ी संख्या में किसान शामिल होंगे. वे शाह के भाषण के दौरान अपनी शर्ट उतारकर नाराजगी जाहिर करेंगे. उन्होंने कहा, ‘हम अपने अधिकारों की मांग कर रहे हैं, लेकिन सरकार हमें ये नहीं दे रही है.’

किसान नेता एसएपी को मौजूदा 362 रुपये प्रति क्विंटल से बढ़ाकर 450 रुपये करने की मांग को लेकर राज्य की 13 चीनी मिलों के बाहर अनिश्चितकालीन धरना दे रहे हैं. किसानों ने आरोप लगाया कि सरकार ने किसी भी तरह की बढ़ोतरी की घोषणा नहीं की है. और जब विपक्षी नेताओं ने विधानसभा के शीतकालीन सत्र में इस मुद्दे को उठाया, तो सीएम मनोहर लाल खट्टर ने एसएपी तय करने के लिए एक समिति गठित करने की घोषणा की थी. गुरनाम सिंह चढ़ूनी ने कहा, ‘हम चीनी मिलों के बाहर विरोध कर रहे हैं और अपनी मांगों को पूरा होने तक विरोध जारी रखेंगे.’

गन्ने की कीमत बढ़ाने की मांग को लेकर किसानों ने दूसरे दिन भी जड़ा शुगर मिलों पर ताला!

हरियाणा सरकार ने विधानसभा के शीतकालीन सत्र के अखिरी दिन प्रदेश में गन्ने के दाम बढ़ाने की विपक्ष की मांग को नहीं माना था. गन्ने के दाम में बढ़ोतरी न होने से प्रदेश के किसान आक्रोषित हैं. जिसको लेकर आज नेता गुरनाम सिंह चढ़ूनी के नेतृत्व में भारतीय किसान यूनियन चढूनी ने प्रदेश की सभी शुगरमिलों को बंद

पिछले कईं दिनों से किसानों ने गन्ने की छिलाई बंद कर रखी है और किसान नेताओं की ओर से जारी कार्यक्रम के तहत प्रदेशभर की शुगर मिलों पर तालाबंदी की गई है. किसानों ने पानीपत ,फफड़ाना ,करनाल ,भादसोंभाली आनंदपुर शुगर मिल व महम शुगर मिल पर भी सुबह 9 बजे ताला लगाते हुए धरना शुरू किया. साथ ही जो भी गन्ने की ट्राली मिल पर पहुंची, उन्हें वापस लौटा दिया. उन्होंने कहा कि जब तक सरकार किसानों की मांग पूरी नहीं करती, तब तक शुगर मिलों को बंद रखते हुए प्रदर्शन किया जाएगा.

किसानों ने अम्बाला में नारायणगढ़ शुगर मिल के बाहर धरना दिया. सोनीपत के गोहाना में आहुलाना शुगर मिल पर ताला जड़कर किसानों ने सरकार के खिलाफ नारेबाजी की तो वहीं किसानों का शाहबाद शुगर मिल और करनाल शुगर मिल पर भी धरना जारी है.

किसान गन्ने के रेट को बढ़ाकर 450 रुपए करने की मांग कर रहे हैं. बता दें कि पंजाब में गन्ना किसानों को 380 रुपये प्रति किवंटल का रेट मिल रहा है.

दो दिन पहले किसान नेता गुरनाम सिंह चढ़ूनी ने ट्वीट किया था, “आज रात के बाद कोई भी किसान भाई किसी भी शुगर मिल में अपना गन्ना लेकर ना जाए अगर कोई किसी नेता या अधिकारी का नजदीकी या कोई अपना निजी फायदा उठाने के लिए शुगर मिल में भाईचारे के फैसले के विरुद्ध गन्ना ले जाता है और कोई उसका नुकसान कर देता है तो वह अपने नुकसान का खुद जिम्मेदार होगा.”

किसान नेता गुरनाम सिंह चढ़ूनी ने आज लिखा, “हरियाणा के सभी शुग़रमिल बंद करने पर सभी पदाधिकारियों व किसान साथियों का धन्यवाद, अगर सरकार 23 तारीख़ तक भाव नहीं बढ़ाती तो आगे की नीति 23 तारीख़ जाट धर्मशाला में बनायी जाएगी.”

सोनीपत गन्ना मिल के बाहर किसानों का प्रदर्शन.

आजमगढ़: जमीन अधिग्रहण के खिलाफ 100 दिन से किसानों का आंदोलन जारी!

उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ में संयुक्त किसान मोर्चा समेत कईं किसान संगठन पिछले 100 दिनों से आजमगढ़ मंडुरी हवाई अड्डे के विस्तार के लिए जमीन अधिग्रहण का विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. संयुक्त किसान मोर्चा ने पूर्वी यूपी के सभी किसानों से आजमगढ़ के धरने में शामिल होने का आह्वान किया है. वहीं धरना स्थल पर मौजूद किसानों ने आरोप लगाया कि ‘मोदी सरकार निजीकरण के नाम पर लगातार सरकार और सार्वजनिक संस्थानों को पूंजीपतियों को बेच रही है, जिससे जनता का इस सरकार पर से विश्वास उठ गया है.’

किसान संगठनों का आरोप है कि हवाई पट्टी, मंडी, हाईवे, एक्सप्रेसवे के नाम पर नए सामंत, बड़े जमींदार बनाए जा रहे हैं. उनका कहना है कि मोदी सरकार के कार्यकाल में किसानों और मजदूरों को सबसे सस्ता और लाचार मजदूर बना दिया गया है और अब तैयारी उनके सम्मान और स्वाभिमान को छीन कर उन्हें बंधुआ मजदूर बनाने की है.

धरना-प्रदर्शन कर रहे किसानों का कहना है कि अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट के विस्तारीकरण के लिए जमीन और मकान नहीं छोड़ेंगे. किसानों कि मांग है कि हवाई अड्डे का मास्टर प्लान रदद् किया जाए. वहीं रविवार को एक बार फिर बड़े स्तर पर संयुक्त किसान मोर्चा पूर्वी उत्तर प्रदेश के किसान नेता और किसान धरना स्थल पर जुटेंगे. वहीं इस बीच आजमगढ़ आंदोलन में जमीन अधिग्रहण का विरोध कर रहे एक बुजुर्ग किसान का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है वीडियो में बुजुर्ग किसान जमीन छीन जाने के डर से रोते हुए नजर आ रहे हैं.

राजस्थान: शीत लहर और पाला पड़ने से 40 फीसदी सरसों की फसल बर्बाद, किसानों को हुआ भारी नुकसान!

राजस्थान के सीकर, श्रीगंगानगर, हनुमानगढ़, जैसलमेर और बाड़मेर जिलों के किसान मायूस हैं. शीत लहर ने उत्तर और उत्तर-पश्चिम भारत को अपनी चपेट में ले लिया है, जिससे गंभीर पाला पड़ा है, जिससे उनकी सरसों, जीरा, अरंडी और सब्जियों की फसल नष्ट हो गई है. ‘गांव कनेक्शन’ में छपी पत्रकार पारुल कुलश्रेष्ठ की रिपोर्ट के अनुसार हनुमानगढ़ जिले के एक गांव के रायसिंह जाखड़ बंसरीवाला ने दुख व्यक्त किया कि ठंड और पाले के कारण उनकी सरसों की लगभग 40 प्रतिशत फसल नष्ट हो गई. शीत लहर और बारिश विनाशकारी साबित हुई.

इसके अलावा, इंदिरा गांधी नहर में रखरखाव के काम के कारण, हमें सिंचाई के लिए पानी नहीं मिला,” बंसरीवाला ने रिपोर्टर को बताया,”सरसों राजस्थान की प्रमुख फसलों में से एक है और उत्तर पश्चिमी राज्य अकेले भारत में सरसों के कुल उत्पादन का 43 प्रतिशत योगदान देता है. राजस्थान में, अलवर प्रमुख उत्पादक जिले के रूप में श्री गंगानगर, भरतपुर, टोंक, सवाई माधोपुर, बारां और हनुमानगढ़ के बाद आता है.

श्री गंगानगर और हनुमानगढ़ जिले में लगभग 556 हेक्टेयर भूमि सरसों के अधीन है. वहां के किसानों को डर है कि अगर शीत लहर जारी रही तो सरसों की 40 फीसदी फसल बर्बाद हो जाएगी. उनके अनुसार, कुछ स्थानों पर तापमान शून्य से 2.8 डिग्री सेल्सियस नीचे तक गिर गया है, जो रेगिस्तानी राज्य के लिए असामान्य है.

श्री गंगानगर जिले के चपावली गांव के प्रह्लाद ने बताया, “ठंढ को मात देने का एकमात्र तरीका पर्याप्त सिंचाई है. सुबह जमीन को पानी देने से पाले से होने वाले नुकसान को कम करने में मदद मिलती है, लेकिन गांव में बिजली की आपूर्ति केवल रात में होती है, किसान केवल उस समय अपनी भूमि की सिंचाई कर सकते हैं जब तापमान शून्य के करीब गिर जाता है. अगर दिन के समय बिजली की आपूर्ति होती और हम दिन के उजाले में अपनी जमीन को सींच सकते तो यह बहुत अच्छा होता. लेकिन प्रशासन को किसानों की कोई परवाह नहीं है. जबकि सरकार भाषण देने में व्यस्त है लेकिन हम नुकसान उठा रहे हैं”

भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD) के जयपुर कार्यालय के अनुसार, 3 जनवरी, 2014 के बाद यह पहली बार है, जब तापमान शून्य से 2.7 डिग्री सेल्सियस नीचे चला गया है. इससे पहले 1974 में चूरू में तापमान शून्य से 4.6 डिग्री सेल्सियस नीचे गिर गया था, जो राज्य में अब तक का सबसे कम तापमान दर्ज किया गया था. उन्होंने कहा, ‘हमने राज्य सरकार को चेतावनी जारी की थी कि इस साल 14 जनवरी से पाला पड़ेगा. जबकि इस मौसम में जमीनी पाला असामान्य नहीं है, समस्या तब उत्पन्न होती है जब यह दो दिनों से अधिक समय तक रहता है. यह फसलों के लिए विनाशकारी है,”

किसान अपनी सरसों की फसल के 40 प्रतिशत तक नुकसान की सूचना दे रहे हैं, एक आधिकारिक आकलन किया जाना बाकी है. राजस्थान कृषि विभाग, हनुमानगढ़ जिले के सहायक निदेशक बी आर बाकोलिया ने कहा, “नुकसान की सीमा का तुरंत पता लगाना संभव नहीं है. हम अगले कुछ दिनों में ही नुकसान के बारे में बता पाएंगे. अगर अगले दो दिनों में बारिश होती है तो स्थिति में सुधार हो सकता है. यदि नहीं, तो अधिक नुकसान हो सकता है. सहायक निदेशक ने बताया, “हमारे अधिकारी फील्ड में जाकर, खासकर सरसों को हुए नुकसान की रिपोर्ट तैयार करेंगे.”

किसानों के अनुसार सरसों के पकने से पहले अगर पाला पड़ जाए तो यह पौधे को मार देता है. इसलिए, क्षति से बचने के लिए भूमि को सिंचित रखना महत्वपूर्ण है. लेकिन श्री गंगानगर में हर साल ठंड पड़ रही है, किसान ने कहा, “तापमान का चार डिग्री तक गिरना सामान्य है, लेकिन साल दर साल ठंडा होता जा रहा है और यह साल अब तक का सबसे खराब रहा है.”

इस बीच, भरतपुर स्थित नेशनल रिसर्च सेंटर ऑन रेपसीड-मस्टर्ड (NRCRM), जो एक ICAR (भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद) संस्थान है, के निदेशक पी के राय ने चेतावनी दी कि अनुचित सिंचाई स्थिति को और अधिक नुकसान पहुंचा सकती है. राय ने बताया, “जमीन में समय-समय पर सिंचाई करने से यह सुनिश्चित होता है कि कोई सूखापन नहीं है, खासकर उन जगहों पर जहां बीज अभी पूरी तरह से पके नहीं हैं”

बाड़मेर जिले में किसान अपने अनार, अरंडी के पौधे, जीरा और सरसों के पौधों को हुए नुकसान का हिसाब लगा रहे हैं. बाड़मेर के किसान हस्तीमल राजपुरोहित ने बताया, “जिले में करीब 30 फीसदी अनार, 70 फीसदी अरंडी और 50 फीसदी सरसों नष्ट हो जाती है” उन्हें बैंक का कर्ज चुकाने, बिजली बिल भरने आदि की चिंता सता रही थी. “बहुत ट्रिपिंग के साथ दिन में केवल दो से तीन घंटे बिजली की आपूर्ति की जाती है. किसी भी राजनेता को हमारी भलाई की चिंता नहीं है,”

सीकर जिले के किसान गांवों में बिजली की अनियमित आपूर्ति को लेकर पिछले चार दिनों से डोढ़ गांव में विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं, जिससे उनके लिए अपनी जमीन को सिंचित रखना मुश्किल हो रहा है. “बिजली की आपूर्ति स्थिर नहीं है. कभी-कभी बिजली आने के छह मिनट के भीतर ही बिजली बंद हो जाती है,” सीकर जिले के भुवाला गांव के राम रतन बगडिया ने बताया, “सब्जियों में पहले ही 60 फीसदी और सरसों में 40 फीसदी नुकसान हो चुका है. बगडिया ने कहा, “हम मांग करते हैं कि सरकार हमें नुकसान की भरपाई करे और हमें उचित बिजली मुहैया कराए.”

धान घोटाला: 35 राइस मिलों से ढाई हजार क्विंटल से ज्यादा धान गायब!

हरियाणा में करनाल के बाद अब कैथल में भी धान घोटाला सामने आया है. कैथल उपायुक्त द्वारा गठित 17 टीमों की छानबीन में सामने आया कि जिले की 35 चावल मिलों के स्टॉक में 2630.82 क्विंटल धान की कमी पाई गई. मीडिया में यह रिपोर्ट आने के बाद टीमों का गठन किया गया था कि फर्जी गेट पास पर धान की फर्जी खरीद हो रही है और धान दूसरे राज्यों से आ रहा है.

उपायुक्त द्वारा गठित टीमों ने जिले की 165 मिलों का नवंबर-दिसंबर महीने में निरक्षण किया था. टीम ने कस्टम मिल्ड चावल (सीएमआर) की गुणवत्ता के साथ खरीद एजेंसियों द्वारा धान जारी करने के साथ मिलों में उपलब्ध स्टॉक का भी निरक्षण किया.

अंग्रेजी अखबार के हवाले से कैथल उपायुक्त संगीता तेतरवाल ने बताया कि “मैंने राइस मिलों का निरक्षण करने के लिए 17 टीमों का गठन किया है. टीमें चावल की गुणवत्ता के साथ-साथ धान के स्टॉक और कस्टम-मिल्ड चावल की जांच की है. टीम के सदस्यों ने अपनी रिपोर्ट निदेशक, खाद्य नागरिक आपूर्ति एवं उपभोक्ता मामले विभाग को सौंप दी है. विभाग के निर्देश के बाद आगे की कार्रवाई शुरू की जाएगी.”

उन्होंने बताया कि हमने 165 मिलों को 82,40,812.560 क्विंटल धान आवंटित किया है. टीम के सदस्यों को स्टॉक में 2,630.82 क्विंटल धान और 14.61 क्विंटल चावल कम मिला है.

हाशिए पर रखी गई भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था और इसकी चुनौतियां!

ग्रामीण अर्थव्यवस्था काफी जटिल है। इसमें कृषि के साथ उद्योग और सेवाएं भी हैं। लेकिन वहां ज्यादातर गतिविधियां असंगठित क्षेत्र में होती हैं। इनमें शहरी इलाकों की तुलना में आमदनी कम होती है। यही कारण है कि देश की 70 प्रतिशत आबादी ग्रामीण होने के बावजूद सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में उनका योगदान शहरी क्षेत्रों की तुलना में बहुत कम है।
रोजगार के पर्याप्त अवसर न होने के चलते ग्रामीण क्षेत्र में समस्या ज्यादा है, हालांकि कृषि और असंगठित क्षेत्र को श्रम सघन माना जाता है। इन समस्याओं के चलते गांव से शहर की ओर लोगों का बड़े पैमाने पर पलायन हुआ है। यह पलायन सिर्फ मौसमी नहीं, बल्कि स्थायी भी है। पहले जो चुपचाप होता था, वह लॉकडाउन के दौरान काफी खुलकर हुआ। लाखों की संख्या में प्रवासी मजदूर विपरीत परिस्थितियों का सामना करते हुए पैदल अपने गांव की ओर जा रहे थे। दुनिया की अन्य किसी बड़ी अर्थव्यवस्था में ऐसा पलायन कभी नहीं दिखा।

ग्रामीण अर्थव्यवस्था का इस तरह हाशिए पर जाना नीति निर्माताओं के उस फोकस का नतीजा है जिसमें संगठित अर्थात अर्थव्यवस्था के आधुनिक हिस्से को वरीयता दी जाती है। अर्थव्यवस्था का आधुनिकीकरण पश्चिम की आधुनिकता की नकल के तौर पर हुआ है। भारत में आधुनिकता के अपने तरीके का प्रयास नहीं किया गया। ऐसा प्रयास जो ग्रामीण इलाकों में बड़ी तादाद में रहने वाले लोगों की जरूरतें पूरी कर सके। इसलिए आश्चर्य नहीं कि खपत में सबसे महत्वपूर्ण सामग्री, यानी खाद्य पदार्थ उपलब्ध कराने वाला कृषि क्षेत्र हाशिए पर चला गया।

आजादी के बाद से नीतियां ट्रिकल डाउन सिद्धांत पर आधारित रही हैं। इस सिद्धांत के अनुसार आधुनिक सेक्टर आगे बढ़ेंगे और उनके फायदे छनकर हाशिए पर पड़े सेक्टर तक पहुंचेंगे। यह उम्मीद भी लगाई गई कि आधुनिक सेक्टर विकास करेगा और पिछड़े क्षेत्रों को अपने में शामिल कर लेगा। दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हुआ, क्योंकि आधुनिक सेक्टर काफी पूंजी सघन है और इसमें रोजगार के अवसर ज्यादा नहीं निकलते। इसलिए जो लोग पिछड़े क्षेत्रों में कार्यरत थे वे वहीं रह गए। सिर्फ यही नहीं, आमदनी का बड़ा हिस्सा भी उन लोगों के हक में गया जो आधुनिक सेक्टर में हैं। बाकी सेक्टर में काम करने वालों को आमदनी का मामूली हिस्सा ही मिला।

यह भी दुर्भाग्य है कि असंगठित क्षेत्र में अधिकांश के आंकड़े स्वतंत्र रूप से उपलब्ध नहीं हैं। इसलिए इनके प्रदर्शन को भी संगठित क्षेत्र के समान मान लिया जाता है। इसका नतीजा यह होता है कि आर्थिक आंकड़े हकीकत से ज्यादा अच्छे नजर आते हैं। संगठित क्षेत्र भले ही आगे बढ़ रहा हो, असंगठित क्षेत्र स्पष्ट रूप से नीचे जा रहा है। इसलिए इस तरीके से भारत के आर्थिक प्रदर्शन का आकलन गलत है। वास्तविक आर्थिक विकास को दर्शाने के लिए इस तरीके में बदलाव की जरूरत है।

ग्रामीण क्षेत्र को नजरअंदाज करना और उपनिवेशीकरण, पहले नोटबंदी, उसके बाद वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी), एनबीएफसी संकट और फिर लॉकडाउन, इन सबने असंगठित क्षेत्र को बुरी तरह नुकसान पहुंचाया है, जबकि सरकारी आंकड़ों में इन्हें कहीं नहीं दिखाया जाता है। अगर असंगठित क्षेत्र के आंकड़ों को भी शामिल किया जाए तो आज भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर 7% से अधिक नहीं, बल्कि नकारात्मक होगी। इस तरह यह सेक्टर न सिर्फ आंकड़ों में हाशिए पर रहता है बल्कि नीतियों में भी इसे जगह नहीं मिल पाती है। इस खामी भरे आंकड़ों के बूते अगर अर्थव्यवस्था तेज गति से बढ़ती दिख रही हो तो ग्रामीण अर्थव्यवस्था के संकट को दूर करने के लिए विशिष्ट नीतियों को अपनाया ही नहीं जाएगा। होता यह है कि सिर्फ फौरी राहत दी जाती है, समस्या का समाधान नहीं किया जाता। दूसरे शब्दों में कहें तो ग्रामीण क्षेत्र को आंकड़ों और नीति दोनों में अदृश्य कर दिया जाता है।

काले धन की अर्थव्यवस्था इस तस्वीर को और अधिक पेचीदा बना देती है। काला धन संगठित क्षेत्र में ही पैदा होता है, क्योंकि असंगठित क्षेत्र में ज्यादातर लोगों की आमदनी आयकर सीमा से कम ही होती है। दूसरी ओर काले धन पर लगाम लगाने के नाम पर असंगठित क्षेत्र में डिजिटाइजेशन, फॉर्मलाइजेशन जैसी नीतियां लागू की जाती हैं। इनसे असंगठित क्षेत्र को और नुकसान होता है। यहां यह बात भी महत्वपूर्ण है कि काले धन की मौजूदगी के कारण आंकड़े और अधिक गलत हो जाते हैं। इसलिए जो नीतियां बनती हैं, वह गलत आंकड़ों के आधार पर ही बनती हैं। यह सच्चाई है कि काला धन चुनिंदा लोगों तक ही सीमित है। इसलिए उनके और गरीबों के बीच असमानता काफी बढ़ी है। सरकारी आंकड़ों में इस हकीकत को भी शामिल नहीं किया जाता है।

कुल मिलाकर देखें तो असंगठित क्षेत्र न सिर्फ हाशिए पर रहता है बल्कि वह संगठित क्षेत्र के उपनिवेशीकरण का भी शिकार होता है। संगठित क्षेत्र का विकास असंगठित क्षेत्र की कीमत पर होता है क्योंकि असंगठित क्षेत्र ही संगठित क्षेत्र को बाजार उपलब्ध कराता है। यह ठीक उसी तरह है जैसा अंग्रेजी शासन के दौरान ब्रिटिश इंडस्ट्री के लिए भारत बाजार मुहैया कराता था।

असंगठित क्षेत्र को इस तरह हाशिए पर किया जाना और उसका उपनिवेशीकरण 1991 में नई आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद अधिक तेजी से बढ़ा। ये नीतियां आधुनिक सेक्टर और बड़ी इंडस्ट्री के लिए ज्यादा मुफीद हैं। 1947 से जो नीतियां लागू थीं, उनके विपरीत नई आर्थिक नीतियां असंगठित क्षेत्र के लिए जुबानी खर्च भी नहीं करती हैं। यहां तक कि कृषि और ग्रामीण क्षेत्र के लिए भी वे आधुनिकीकरण और मशीनीकरण की बात करते हैं, जबकि भारत के विशाल ग्रामीण आबादी की जरूरतें इन तरीकों से पूरी नहीं हो सकती हैं।

कृषि क्षेत्र में लोगों को रोजगार देने की लोचता शून्य रह गई है। गैर कृषि क्षेत्र में नौकरियों की संख्या सीमित है इसलिए लोग वहीं फंस कर रह गए हैं। इसका नतीजा बड़े पैमाने पर ‘प्रच्छन्न बेरोजगारी’ है। इससे गरीबी और बढ़ती है क्योंकि निर्भरता अनुपात बढ़ जाता है। आजादी के बाद से कृषि क्षेत्र के सरप्लस का इस्तेमाल शहरीकरण और उद्योगीकरण के लिए किया जाता रहा। किसान के लिए व्यापार के नियम कभी अनुकूल नहीं रहे। शहरीकरण और उद्योगीकरण दोनों काफी खर्चीले हैं, इसलिए ग्रामीण क्षेत्र के लिए बहुत कम संसाधन रह जाते हैं जिसका नतीजा उन्हें भुगतना पड़ता है।

मार्जिनलाइजेशन का मैक्रोइकोनॉमी पर प्रभावः बढ़ती अस्थिरता असंगठित क्षेत्र भारत के 94% कार्यबल को रोजगार उपलब्ध कराता है और जीडीपी में 45% का योगदान करता है। जीडीपी में कृषि क्षेत्र का योगदान 14% है। इसकी अनदेखी से मैक्रोइकोनॉमी को नुकसान होता है। इससे डिमांड में कमी आती है और अर्थव्यवस्था की गति धीमी होती है। नोटबंदी के बाद अर्थव्यवस्था के बढ़ने की दर हर तिमाही घटती हुई 8% से 3.1% (2019 की चौथी तिमाही में) तक पहुंच गई। उसके ठीक बाद कोविड-19 महामारी ने भारत को अपनी गिरफ्त में लिया।

इन आंकड़ों पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए। जब अर्थव्यवस्था के इतने बड़े हिस्से की अनदेखी होगी तो क्रय शक्ति कम होगी तथा गैर ग्रामीण क्षेत्र की विकास दर भी घटेगी। अगर अमीरों की बजाय गरीबों की आमदनी बढ़ी तो खपत भी बढ़ेगी। गरीबों की अनेक बुनियादी जरूरतें होती हैं। वे उन बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए अपनी अतिरिक्त आमदनी खर्च करेंगे। जैसे कपड़े, भोजन आदि। संपन्न लोगों की आय बढ़ने पर आमतौर पर वे उसकी बचत करते हैं। जब तक उस अतिरिक्त आय का नए बिजनेस अथवा उद्योग में निवेश न किया जाए तब तक उससे अतिरिक्त मांग नहीं बढ़ती है।

संपन्न वर्ग की आय अधिक बढ़ी और उन्होंने निवेश ज्यादा किया तो असमानता भी बढ़ती रहेगी। अगर निवेश कम होता है तो मांग में भी कमी आएगी जिसका नतीजा अर्थव्यवस्था की विकास दर में गिरावट के रूप में सामने आएगा। यह किसी भी अर्थव्यवस्था में असमानता और अस्थिरता बढ़ाने की अच्छी रेसिपी है।

कृषि क्षेत्र की चुनौतियां कृषि क्षेत्र जिन चुनौतियों का सामना कर रहा है उनसे भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर असर होता है, क्योंकि ग्रामीण अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा कृषि पर ही आश्रित है। गैर-कृषि क्षेत्र में पर्याप्त नौकरियां उपलब्ध न होना एक बड़ा मुद्दा है। बड़ी संख्या में लोग सिर्फ इसलिए खेती में जुटे हुए हैं क्योंकि उनके पास कहीं और जाने का उपाय नहीं है। इससे ग्रामीण परिवारों में गरीबी की समस्या और बढ़ जाती है। किसानों के खेत का आकार बहुत छोटा रह गया है। 85% किसानों के खेत 5 एकड़ से भी कम के हैं। ज्यादातर छोटे खेत ऐसे हैं कि उनसे पूरे परिवार के लिए पर्याप्त आमदनी नहीं हो सकती। आय का दूसरा विकल्प उनके लिए महत्वपूर्ण होता है।

सरप्लस के लीकेज का यह मतलब भी है कि निवेश और तकनीकी बदलाव लागू करने के लिए संसाधन कम रह जाते हैं, जिनसे आमदनी बढ़ाने में मदद मिल सके। इसका यह मतलब भी है कि बच्चों की अच्छी शिक्षा या जरूरत के समय परिवार को अच्छी स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध कराने के लिए लोगों के पास पर्याप्त पैसा नहीं होता। इस तरह परिवार का भविष्य सुधारने का अवसर खत्म हो जाता है और गरीबी बनी रहती है। सरकार का दावा है कि वह 80 करोड़ लोगों को मुफ्त भोजन उपलब्ध करा रही है। इसके बावजूद ग्रामीण इलाकों में गरीबी है। अर्थात अगर मुफ्त भोजन उपलब्ध न कराया जाता तो लोगों की गरीबी और अधिक होती। इसका यह अर्थ भी है कि इन लोगों को जो भी काम मिलता है उसके बदले उन्हें इतने पैसे नहीं मिलते कि वे अपना जीवन चला सकें। नतीजा, वे गरीब रह जाते हैं।

कृषि क्षेत्र की कमजोरी का एक कारण यह भी है कि खेती करने वाले परिवारों की संख्या बहुत अधिक है। इस वजह से बाजार में अपनी उपज की अधिक कीमत मांगने की उनकी क्षमता नहीं होती। गरीबी के कारण छोटे किसान व्यापारियों और साहूकारों की गिरफ्त में होते हैं। इसलिए किसानों को व्यापारियों और साहूकारों का मार्जिन चुकाने के बाद ही थोड़ी बहुत कमाई होती है। कई बार उनका मार्जिन बहुत ज्यादा होता है।

इसलिए किसान सरकार की तरफ से न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) घोषित करने पर निर्भर रहते हैं। एमएसपी किसानों और व्यापारियों के लिए एक बेंचमार्क का काम करता है। दुर्भाग्यवश इसे लागू करने की व्यवस्था भी बहुत कमजोर है। इसी तरह कृषि मजदूरों के लिए न्यूनतम वेतन लागू करने की भी कोई व्यवस्था नहीं है। इसलिए बड़ी संख्या में किसान और कृषि मजदूर को मामूली आमदनी ही होती है।

खेती की लागत बढ़ती जा रही है जबकि कीमतें उस अनुपात में नहीं बढ़ाई गई हैं। इससे किसानों की आमदनी कम हुई है। अपनी आमदनी बढ़ाने के लिए उनके पास एकमात्र जरिया यह है कि वे खेतिहर मजदूरों को कम पैसे दें। इसका असर यह होता है कि खाद्य पदार्थों की मांग कम हो जाती है और कृषि उपज की बाजार कीमत भी घटती है। ज्यादातर फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य ना होने का पर्यावरण पर भी असर होता है। धान, गेहूं और गन्ना जैसी फसलें बड़े पैमाने पर उगाई जाती हैं क्योंकि किसानों को इनमें ही लाभ होता है। मिलेट, तिलहन, दलहन जैसी अन्य आवश्यक फसलों के बजाय किसान फायदे वाली फसलों को उपजाते हैं। इनमें से कई फसलों की देश में कमी होती है जिसकी पूर्ति आयात से की जाती है। यही नहीं, किसान ऐसी फसलें भी उगाते हैं जो उनके कृषि जलवायु क्षेत्र के माफिक नहीं होता है। उदाहरण के लिए धान और गन्ना जैसी पानी का अधिक इस्तेमाल करने वाली फसलों की खेती अर्ध शुष्क इलाकों में की जाती है। इस तरह की नीति हर तरीके से पर्यावरण के लिए समस्या खड़ी करती है।

अधिक पैदावार के लिए रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का इस्तेमाल बड़े स्तर पर किया जाता है। इससे मिट्टी का क्षरण और पीने का पानी प्रदूषित हो रहा है। इसका परिणाम अनेक तरह की बीमारियां हैं। कृषि में मशीनीकरण और गैर कृषि क्षेत्र में ऑटोमेशन बढ़ने से गैर-कृषि क्षेत्र में नौकरियों की संख्या भी कम हो रही है। राजनीतिक चुनौतियां और सुधार की जरूरत
किसी भी लोकतंत्र में संख्या के लिहाज से अधिक किसान और ग्रामीण समुदाय अपने आप को हाशिए पर क्यों पाता है? इसका कारण यह है कि कृषि में अनेक आर्थिक हित होते हैं। किसानों की ही अनेक श्रेणियां हैं- अमीर, मध्यवर्गीय और छोटे, सिंचाई वाले और तथा बिना सिंचाई वाले क्षेत्रों में खेती करने वाले, फिर भूमिहीन मजदूर और छोटे किसान भी हैं जिनके पास खेती की जमीन बहुत कम होती है। इन सबके बीच हितों में टकराव होता है और उन्हें दूर करने की कोशिश भी नहीं की जाती है। राजनीतिक दल इसका फायदा उठाते हैं। जो किसान राजनीति में आते हैं वे अक्सर संपन्न होते हैं। उनके अपने बिजनेस हित होते हैं। वे देर-सबेर शहरी और बिजनेस एलीट वर्ग के लिए काम करना शुरू कर देते हैं।

जरूरत इस बात की है कि ग्रामीण क्षेत्र और किसानों के नेता अपने आप ही मतभेद दूर करें। उनके मतभेद आपस में उतने नहीं होते जितने गैर-कृषि और शहरी हितों से होते हैं। अगर वे सभी फसलों के लिए ऐसे न्यूनतम समर्थन मूल्य की मांग करें, जिसकी गणना कृषि मजदूरों की आजीविका पर आधारित हो, तो वह नाकाम नहीं होंगे। उन्हें फायदा होगा, क्योंकि उनकी उपज की मांग निकलेगी और बाजार में उनकी उपज की संभवतः एमएसपी से अधिक कीमत भी मिलेगी। इस तरह एमएसपी लागू करने की समस्या भी खत्म हो जाएगी।

जाहिर है कि इसका असर महंगाई बढ़ाने वाला होगा। मध्यवर्ग के साथ-साथ बिजनेस वर्ग भी इसका विरोध करेगा क्योंकि उन्हें अपने कर्मचारियों को अधिक वेतन देना पड़ेगा। लेकिन क्या मध्य वर्ग और विजनेस वर्ग का जीवन स्तर कृषि मजदूरों और ग्रामीण क्षेत्र की कीमत पर होना चाहिए? यह न्याय नहीं है। अर्थव्यवस्था में महंगाई का असर कम करने के लिए किसानों को अप्रत्यक्ष कर घटाने, प्रत्यक्ष कर बढ़ाने और काले धन की अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण करने की मांग करनी चाहिए। उन्हें ‘पूर्ण रोजगार’ के साथ कृषि मजदूरों के लिए उचित वेतन की भी मांग करनी चाहिए ताकि गरीबी दूर हो। कुल मिलाकर कहा जाए तो अर्थव्यवस्था के लिए एक संपूर्ण पैकेज की जरूरत है। ग्रामीण क्षेत्र की समस्याओं का समाधान मैक्रोइकोनॉमी में निहित है।

साभार- रुरल वॉइस

करनाल: गन्ने के दाम नहीं बढ़ाने से आक्रोषित किसान सीएम आवास का घेराव करेंगे!

हरियाणा सरकार ने विधानसभा सत्र के अखिरी दिन प्रदेश में गन्ने के दाम बढ़ाने की विपक्ष की मांग को नहीं माना है. गन्ने के दाम में बढ़ोतरी न होने से प्रदेश के किसान आक्रोषित हैं. जिसको लेकर आज नेता गुरनाम सिंह चढ़ूनी के नेतृत्व में भारतीय किसान यूनियन चढूनी करनाल में मुख्यमंत्री आवास का घेराव कर दो घंटे तक धरना देगी.

इस दौरान किसान, मुख्यमंत्री मनोहर लाल का पुतला भी फूकेंगें. बता दें कि विधानसभा में विपक्ष की मांग को नकारते हुए सरकार ने गन्ने के पुराने दाम 362 रुपए प्रति क्विंटल के आधार पर ही गन्ना खरीदने की अधिसूचना जारी की है. इस अधिसूचना के बाद किसानों के रोष बढ़ता जा रहा है. किसान गन्ने के रेट को बढ़ाकर 450 रुपए करने की मांग कर रहे हैं. बता दें कि पंजाब में गन्ना किसानों को 380 रुपये प्रति किवंटल का रेट मिल रहा है.

वहीं सरकार ने इस मुद्दे पर विधानसभा में गन्ना कमेटी बनाने का फैसला लिया है. दाम न बढ़ाए जाने के विरोध में नेता प्रतिपक्ष भूपेंद्र सिंह हुड्डा सदन से वॉक आउट कर गए थे.