केंद्र सरकार ने पिछले पांच सालों में विज्ञापनों पर ख़र्च किए 3,723.38 करोड़ रुपये!

सूचना एवं प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर ने गुरुवार को राज्यसभा में बताया कि पिछले पांच साल के दौरान सरकार ने अपनी नीतियों और कार्यक्रमों के विज्ञापन पर केंद्रीय संचार ब्यूरो (सीबीसी) के जरिये 3,723.38 करोड़ रुपये खर्च किए हैं. उन्होंने एक सवाल के लिखित जवाब में उच्च सदन को यह जानकारी दी और कहा कि पिछले पांच सालों में विज्ञापन और प्रचार पर सरकार का खर्च नहीं बढ़ा है.

उन्होंने कहा कि 2017-18 में विज्ञापनों पर 1,220.89 करोड़ रुपये खर्च किए गए जबकि 2018-19 में 1,106.88 करोड़ रुपये खर्च किए गए. ठाकुर ने कहा कि सरकार ने 2019-20 में 627.67 करोड़ रुपये विज्ञापन पर खर्च किए जबकि 2020-21 में 349.09 करोड़ रुपये और 2021-22 में 264.78 करोड़ रुपये खर्च किए.

उन्होंने बताया कि मौजूदा वित्त वर्ष में नौ दिसंबर, 2022 तक सरकार ने विज्ञापनों पर 154.07 करोड़ रुपये खर्च किए हैं.

कांग्रेस सदस्य सैयद नासिर हुसैन ने सवाल किया था कि क्या सरकार को इस बात की जानकारी है कि पिछले कुछ सालों में विज्ञापन और प्रचार पर खर्च कई गुना बढ़ गया है? ठाकुर ने हुसैन के सवाल के जवाब में कहा, ‘उपरोक्त आंकड़ों के अनुसार, पिछले कुछ वर्षों में विज्ञापन और प्रचार पर व्यय में वृद्धि नहीं हुई है.’

वहीं अंग्रेजी अखबार हिदुस्तान टाइम्स के मुताबिक, इससे पहले मंगलवार को ठाकुर ने लोकसभा में बताया था कि 2014 में भाजपा के सत्ता में आने के बाद से आठ वर्षों में केंद्र ने प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में विज्ञापनों पर 6,491.56 करोड़ रुपये खर्च किए हैं.

उनके जवाब के अनुसार, इन सालों में सरकार ने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में विज्ञापन पर 3,260.79 करोड़ रुपये और प्रिंट मीडिया में 3,230.77 करोड़ रुपये खर्च किए.

सीपीआई सांसद मुनियन सेल्वाराज के एक अतारांकित सवाल का जवाब देते हुए केंद्रीय मंत्री ने यह डेटा साझा किया था. सेल्वाराज ने 2014 से अब तक सरकार द्वारा किए गए विज्ञापनों पर खर्च का सालवार ब्रेक-अप मांगा था. सेल्वराज ने इस दी गई अवधि के दौरान विदेशी मीडिया में दिए गए विज्ञापनों पर हुए कुल खर्च का ब्योरा भी मांगा था.

सरकार ने कहा कि उसने वित्तीय वर्ष 2016-17 में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में अधिकतम व्यय किया जब उसने इस माध्यम के विज्ञापनों पर 609.15 करोड़ रुपये खर्च किए थे. इसके पहले 2015-16 में उसका व्यय 531.60 करोड़ रुपये और 2018-19 में 514.28 करोड़ रुपये था.

ठाकुर ने कहा कि इस साल 7 दिसंबर तक सरकार ने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में विज्ञापनों पर 76.84 करोड़ रुपये खर्च किए.

प्रिंट मीडिया में दिए गए विज्ञापन खर्च के बारे में ठाकुर मंत्री ने बताया कि 2017-18 में इस माध्यम पर अधिकतम खर्च 636.09 करोड़ रुपये हुआ था. 2015-16 में यह व्यय 508.22 करोड़ रुपये और 2016-17 में 468.53 करोड़ रुपये था. इस साल 7 दिसंबर तक सरकार ने प्रिंट मीडिया में विज्ञापनों पर 91.96 करोड़ रुपये खर्च किए थे.

केंद्रीय मंत्री ने यह भी जोड़ा कि सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के माध्यम से विदेशी मीडिया में विज्ञापनों पर सरकार के किसी भी मंत्रालय या विभाग द्वारा कोई खर्च नहीं किया गया.

गौरतलब है कि साल 2020 में एक आरटीआई आवेदन जवाब में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने बताया था कि केंद्र सरकार द्वारा 2019-20 के दौरान विज्ञापनों पर औसतन प्रति दिन 1.95 करोड़ रुपये खर्च किए गए हैं.

अखबार, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, होर्डिंग इत्यादि के माध्यम से सरकार ने खुद के प्रचार के लिए 2019-20 में 713.20 करोड़ रुपये खर्च किए थे. इसमें से 295.05 करोड़ रुपये प्रिंट, 317.05 करोड़ रुपये इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और 101.10 करोड़ रुपये आउटडोर विज्ञापन में खर्च किए गए थे.

जून, 2019 में मुंबई स्थित आरटीआई कार्यकर्ता अनिल गलगली द्वारा दायर आवेदन के जवाब में मंत्रालय ने बताया था कि प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक, आउटडोर मीडिया में विज्ञापन देने में 3,767.26 करोड़ रुपये खर्च किए गए हैं.

इससे एक साल पहले गलगली के एक अन्य आरटीआई आवेदन पर मंत्रालय ने मई, 2018 में बताया था कि मोदी सरकार ने जून 2014 से लेकर सरकारी विज्ञापनों पर 4,343.26 करोड़ रुपये खर्च किए हैं.

द वायर ने दिसंबर 2018 में अपनी एक रिपोर्ट में बताया था कि किस तरह यूपीए के मुकाबले मोदी सरकार में विज्ञापन पर दोगुनी राशि खर्च की गई है.

लोकसभा में तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण राज्यमंत्री राज्यवर्धन सिंह राठौड़ ने बताया था कि केंद्र सरकार ने साल 2014 से लेकर सात दिसंबर 2018 तक में सरकारी योजनाओं के प्रचार प्रसार में कुल 5245.73 करोड़ रुपये की राशि खर्च की है. यह यूपीए सरकार के 10 साल में खर्च हुए कुल 5,040 करोड़ रुपये की राशि से भी ज्यादा थी.

साभार- द वायर

सरकारी स्कूलों में दाखिला लेने वाले छात्रों की संख्या में भारी गिरावट, 11वीं में करीबन 40 हजार छात्र घटे!

हरियाणा सरकार एक ओर सरकारी स्कूलों में शिक्षा का स्तर सुधारने का दावा कर रही है लेकिन वहीं दूसरी ओर बच्चे सरकारी स्कूलों में दाखिला लेने से ही कतरा रहे हैं. देश के सरकारी स्कूलों में ग्यारहवीं कक्षा में दाखिलों में भारी गिरावट सामने आई है. स्कूल शिक्षा विभाग के आंकड़ो के अनुसार पिछले साल की तुलना में इस साल 38,976 दाखिले कम हुए हैं. वहीं दसवीं कक्षा के मामले में भी लगभग यही स्थिति रही है.

शिक्षा विभाग सरकारी स्कूलों में ग्यारहवीं और दसवीं कक्षा में दाखिलों में आई गिरावट के कारणों का पता लगाने में जुटा है. वहीं शिक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि कोविड के बाद निजी स्कूलों में छात्रों की वापसी और आईटीआई और पॉलीटेक्निक कॉलेजों में नौकरी दिलाने वाले पाठ्यक्रमों की ओर युवाओं का रुझान इसकी एक वजह हो सकती है.

आधिकारिक रिकॉर्ड के अनुसार, पिछले सत्र में प्रदेश के सरकारी स्कूलों में ग्यारहवीं कक्षा में कुल 2,00,946 छात्रों का नाम दर्ज था लेकिन इस सत्र में यह संख्या घटकर 1,61,970 रह गई है. इसी तरह, सरकारी स्कूलों में पिछले साल दसवीं कक्षा में 2,01,962 छात्रों का प्रवेश हुआ था जबकि इस सत्र में यह आंकड़ा 1,84,106 है.

चंंडीगढ़: सीएम आवास पर पहुंचे पेंशन काटकर मृत घोषित किए गए बुजुर्ग!

हरियाणा में बुजुर्गों की पेंशन काटे जाने का मामला सरकार के गले की फांस बन चुका है. आए दिन मृत घोषित कर बुजुर्गों की पेंशन काटे जाने के मामले सामने आ रहे हैं. हालंहि में हरियाणा के रोहतक में एक प्रदर्शन किया गया था जिसमें मृत घोषित किए गए 102 साल के दुलीचंद को रथ पर बैठाकर शहर की सड़कों पर घुमाया गया था. जिसके बाद खुद मुख्यमंत्री ने भी सफाई देते हुए ट्वीट किया था कि जल्द की इन बुजुर्गों की पेंशन बनाई जाएगी इसके लिए संबंधित विभाग के अधिकारियों को संदेश भेजा गया है.

वहीं आज फिर करीबन 60 बुजुर्ग बस में सवार होकर चंडीगढ़ मुख्यमंत्री आवास के बाहर पहुंचे. मुख्यमंत्री आवास पर पहुंचने से पहले बुजुर्गों ने प्रेस कॉंफ्रेस कर अपनी समस्या सामने रखी. पेंशन काटे जाने वाले पीड़ित बुजुर्गों ने बताया कि पिछले 10 महीनों से पेंशन नहीं मिल रही है. वहीं कुछ ऐसी भी महिलाएं हैं जिनकी विधवा पेंशन काट दी गई है. सरकारी कागजों में विधवा महिला के पति को जिंदा दिखाया गया है.

ऑक्सफैम रिपोर्ट: SC/ST, मुस्लिम और महिलाओं के साथ रोजगार क्षेत्र में भेदभाव, महिलाओं और पुरुषों में 100 फीसदी रोजगार असमानता!

ऑक्सफैम ‘इंडिया डिस्क्रिमिनेशन रिपोर्ट 2022’ के अनुसार देश में जाति, लिंग और धर्म के नाम पर लोगों को भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है. भेदभाव के कारण महिलाओं, दलित, आदिवासी और मुस्लिम समुदाय के लोगों के रोजगार पर भी सीधा असर पड़ रहा है. रिपोर्ट के अनुसार लैंगिक भेदभाव के चलते ग्रामीण इलाकों में रोजगार असमानता 100 फीसदी तक है तो वहीं शहरी इलाकों में महिलाओं के साथ 98 फीसदी रोजगार असमानता है. रिपोर्ट के अनुसार एक जैसी शिक्षा और अनुभव के बावजूद पुरुषों की कमाई महिलाओं से 2.5 गुना ज्यादा है. गांवों में रोज कमाने वाले पुरुष हर महीने महिलाओं की तुलना में औसत तीन हजार रुपए ज्यादा कमाते हैं. पुरुषों और महिलाओं के बीच कमाई में अंतर का मुख्य कारण लैंगिक भेदभाव है.

ऑक्सफैम की ‘इंडिया डिस्क्रिमिनेशन रिपोर्ट 2022’ के मुताबिक महिलाओं के अलावा दलित, आदिवासी और मुस्लिमों को भी नौकरियों में भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है. इसके अनुसार, शहर में एसी और एसटी कैटेगरी के नियमित कर्मचारियों की औसत कमाई 15,312 रुपए रही तो वहीं सामान्य वर्ग के लोगों की कमाई 20,346 रुपए थी यानी सामान्य वर्ग से आने वाले लोग एसी और एसटी समुदाय के लोगों से 33 फीसदी ज्यादा कमाई करते हैं. रिपोर्ट में सामने आया कि ग्रामीण इलाकों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदाय के लोगों के साथ रोजगार के मामले में भेदभाव बढ़ा है.

ऑक्सफैम इंडिया के सीईओ अमिताभ का कहना है कि बाजार में भेदभाव तब होता है जब समान क्षमता वाले लोगों के साथ उनकी पहचान या सामाजिक पृष्ठभूमि के कारण अलग व्यवहार किया जाता है. उन्होंने कहा कि भारत में हाशिए के समुदायों के जीवन पर भेदभाव और इसके प्रभाव को मापने के लिए अब तक बहुत कम काम किया गया है.

जेल में दो साल पूरे होने पर उमर ख़ालिद का ख़त: कभी-कभी निराशा और अकेलापन मुझे घेर लेते हैं

13 सितंबर 2020 को उसी साल की शुरुआत में हुए दिल्ली दंगों में शामिल होने के दिल्ली पुलिस के आरोपों के सिलसिले में गैरकानूनी गतिविधियां (निवारण) अधिनियम (यूएपीए) के तहत गिरफ्तार उमर ख़ालिद को तिहाड़ जेल में रहते हुए दो साल पूरे हो गए हैं. उनके मुकदमे की अभी तक शुरुआत नहीं हुई है.

15 अगस्त 2022 को रोहित कुमार ने उमर खालिद को एक खुला खत लिखा था. 12 सितंबर को रोहित को जेल में बंद मानवाधिकार कार्यकर्ता ख़ालिद का जवाब मिला, जिसका प्रकाशन उन दोनों की सहमति से किया जा रहा है.

प्रिय रोहित,

मेरे जन्मदिन और स्वतंत्रता दिवस पर बधाई देने के लिए तुम्हारा शुक्रिया. मुझे उम्मीद है, तुम अच्छे-भले हो. मुझे इस बात की खुशी है कि है कि मैं इन बंद चारदीवारियों के भीतर भी तुम्हारे खुले खत को पढ़ पाया.

जब मैं तुम्हारी चिट्ठी का जवाब देने के लिए बैठा हूं, मैं लाउडस्पीकर पर उन लोगों के नामों को पुकारा जाता हुआ सुन सकता हूं, जिन्हें आज रात रिहा किया जाना है. यह सूरज ढलने के बाद का वह वक्त है, जब अदालतों से रिहाई पर्चे जेल अधिकारियों तक पहुंचते हैं. जब अंधेरा घिरता है और जेल को अपने आगोश में लेता है, उस समय कुछ कैदी आजादी की रोशनी देखने वाले होते हैं. मैं उनके चेहरे पर बिना मिलावट वाली खुशी देख सकता हूं.

दो सालों से मैं हर रात यह घोषणा सुन रहा हूं- नाम नोट करें, इन बंदी भाइयों की रिहाई है’. और मै उस दिन का इंतजार और उम्मीद करता हूं, जब मैं अपना नाम सुनूंगा. मैं अक्सर सोचता हूं, यह अंधेरी सुरंग कितनी लंबी है? क्या कोई रोशनी दिखाई दे रही है? क्या मैं इसके अंत के नजदीक हूं या मैंने इसकी सिर्फ आधी दूरी ही तय की है? या आजमाइश का दौर अभी शुरू ही हुआ है?

वे कहते हैं कि हम आजादी के अमृतकाल में दाखिल हो गए हैं. लेकिन आजादी के रखवालों की आजमाइश देखकर ऐसा लगता है कि हम अंग्रेजी राज के दौर में लौट रहे हैं. पिछले कुछ समय से गुलामी के उपनिवेशी प्रतीकों से छुटकारा पाने का काफी शोर है. लेकिन दूसरी तरफ उपनिवेशी काल की याद दिलाने वाले कई दमनकारी कानूनों को मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, छात्रों, विरोधियों और राजनीतिक विपक्षियों के खिलाफ हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है.

क्या लोग गैरकानूनी गतिविधियां (निवारण) अधिनियम (यूएपीए) जिसके तहत हमें जेलों में बंद रखा गया है और रॉलेट एक्ट जिसका इस्तेमाल अंग्रेजों ने हमारे स्वतंत्रता सेनानियों के खिलाफ किया, के बीच समानता नहीं देखते हैं? क्या हमें इन सजा देने वाले तरीकों- जो उपनिवेशी शासन की सतत चली आ रही विरासत हैं- से छुटकारा नहीं पाना चाहिए, जो लोगों के अधिकारों और आज़ादी के उल्लंघन को संभव बनाता है?

मैं खासतौर पर इस बात से हैरान होता हूं कि हममें से कइयों और हमारे जैसे कई अन्यों को लंबे समय तक बिना मुकदमा चलाए हिरासत में रखा जा रहा है, और हमें यह भी पता नहीं है कि हमारे मुकदमों की सुनवाई कब से शुरू होगी?

स्वतंत्रता दिवस पर शाम को मैं जेल की कोठरी के बाहर कुछ और लोगों के साथ बैठा था. हमने जेल परिसर के ऊपर आसमान में पतंगों को खूब ऊंचा उड़ता हुआ देखा और हमारे बचपन की 15 अगस्त की यादें ताजा हो गईं. हम यहां कैसे पहुंच गए? हमारा देश कितना बदल गया है?

यूएपीए लगाकर हमें सालों तक जेल में रखा जा सकता है और हम पर आरोप लगाने वालों को कुछ भी साबित करने की जरूरत नहीं है. वे कानून की अदालत में भले ही हमारे खिलाफ लगाए गए अपने किसी भी हास्यास्पद आरोप को साबित न कर पाएं, लेकिन इस दौरान उन्हें हमारे खिलाफ कहानी गढ़ने से रोकने वाला कोई नहीं है.

एक शाम जेल के एक वॉर्डन मुझसे मेरे मामले के बारे में बात करने लगे. उन्होंने कहा कि 2020 में जब उन्होंने पहली बार मुझे जेल में देखा, जब उनके लिए मेरे खिलाफ लगाए गए आरोपों पर यकीन करना मुश्किल था. उन्हें लगा कि यह सब राजनीति है और कुछ दिनों के भीतर ही मुझे रिहा कर दिया जाएगा. लेकिन अब जबकि 2022 आ गया है और मैं लाउडस्पीकर पर अपने नाम की घोषणा होता सुनने का इंतजार कर रहा हूं, उन्हें संदेह होने लगा है, ‘बेल क्यूं नहीं मिल रही तुम्हें? किसान आंदोलन वालों को मिल गई थी कुछ दिनों में ही.’

मैंने उन्हें यूएपीए के बारे में बताने और आईपीसी की तुलना में इसमें जमानत की शर्तों पर बताने की कोशिश की- लेकिन जब मैं उन्हें इसके बारे में समझा रहा था, मैंने महसूस किया कि वे मेरी बात नहीं सुन रहे हैं. वे मेरी बातों को ध्यान से नहीं सुन रहे थे. किसी की भी कानून की इन बारीकियों में क्या दिलचस्पी हो सकती है? कानून के विशेषज्ञों और इस दमनकारी कानून के शिकार लोगों के अलावा कितने लोग हैं, जो इन बातों को समझ सकते हैं.

कलंक का बोझ

एक सत्योत्तर विश्व (पोस्ट ट्रुथ वर्ल्ड) में धारणा का महत्व यथार्थ से ज्यादा है. अपनी चिट्ठी में तुमने उत्साहपूर्ण तरीके से तुम पर पड़े मेरे प्रभाव के बारे में लिखा है- उन शब्दों के लिए शुक्रिया. इसके बाद लिखा कि हर दिन जेल में मुझसे मिलने और बातचीत करने वालों को भी शायद मैं इसी तरह से प्रभावित कर पा रहा होऊंगा, कि शायद उन्होंने मीडिया से मेरे बारे में सुने झूठ पर यकीन करना बंद कर दिया होगा.

दोस्त, तुम्हें प्रभावित करना आसान था, क्योंकि तुमने हमेशा मीडिया द्वारा फैलाए गए झूठ के कोहरे के पार देखा. लेकिन जिन लोगों को योजनाबद्ध तरीके से प्रोपगैंडा का शिकार बना दिया गया है, उन्हें इसके बारे में चेतावनी देकर इससे दूर करना काफी मुश्किल है, खासतौर पर जब प्रोपगैंडा कभी न खत्म होने वाला है.

पिछले दो सालों से, जबसे मैं जेल में हूं, अखबारों में -जो  यहां ख़बरों का एकमात्र स्रोत है- बीच-बीच में मेरे मामले के बारे में रिपोर्ट आती है. अंग्रेजी अख़बारों ने वस्तुनिष्ठता का दिखावा बनाए रखने की कोशिश की है, लेकिन ज्यादातर हिंदी अखबारों- 90 फीसदी से ज्यादा कैदी जिस पर रोज की खबरों को जानने के लिए निर्भर करते हैं- ने पत्रकारीय नैतिकता से तौबा कर ली है. वे सिर्फ शुद्ध ज़हर हैं.

उन्होंने मेरी जमानत पर हुई सुनवाई पर अपनी पसंद के हिसाब से कांट-छांटकर रिपोर्टिंग की. जब मेरे वकील ने दलीलें दीं, तब ज्यादातर बार उन्होंने हमारे तरफ से कही गई बातों को या तो छापा ही नहीं, या बदलाव के लिए अगर उन्होंने किसी दिन मेरे प्रति अतिशय दयालुता दिखाने का फैसला किया, तो उन्होंने इसे पांचवें या छठे पन्ने पर छोटे से न दिखाई देने वाले कॉलम में सिमटा दिया, जिन पर बेहद उबाऊ शीर्षक लगाए गए थे.

लेकिन पब्लिक प्रॉसिक्यूटर के जवाबों को पहले पन्ने की खबर बनाया गया और उन्हें इस तरह से पेश किया गया, कि ये बातें कोर्ट द्वारा कही गई हैं. और ऐसे ही एक मौके पर, उन्होंने अपने सनसनीखेज सुर्खियों में और मिर्च-मसाला लगाने की गरज से मेरी कुछ खराब तस्वीरें खोज निकालीं.

एक सुबह, एक अखबार की हिंदी में चिल्ला रही सुर्खी थी, ‘खालिद ने कहा था भाषण से काम नहीं चलेगा, खून बहाना पड़ेगा.’ न सिर्फ सुर्खी में किए गए इस बड़े दावे के पक्ष में कोई तथ्य पेश नहीं किया था, न ही इसने कहीं यह डिस्क्लेमर देना ही जरूरी समझा कि यह एक आरोप है, जो साबित नहीं हुआ है, और इसे कोर्ट की समीक्षा के लिए पेश भी नहीं किया गया है.

इसमें कहीं भी कोई उद्धरण चिह्न नहीं लगाया गया था, यहां तक कि एक प्रश्नवाचक निशान भी लगाने की जहमत नहीं उठाई गई थी! दो दिन बाद, उसी अखबार ने और सुर्खी लगाई, जो कि पिछली वाली सुर्खी से भी ज्यादा सनसनीखेज थी, ‘खालिद चाहता था, मुसलमानों के लिए अलग देश’. उनके कहने का मतलब यह था कि दिल्ली के यमुनापार इलाके में हुए दंगे से, जिनमें मरने वालों में ज्यादतर खुद मुसलमान थे, मुसलमानों के लिए एक नया देश बनने वाला था.

मुझे समझ में नहीं आया, इस पर रोया जाए या हंसा जाए! जो लोग हर दिन इस जहर की खुराक ले रहे हैं, मैं उनका विचार कैसे बदल सकता हूं? इससे पहले एक मौके पर, एक अन्य हिंदी अख़बार ने दावा किया था कि मैंने दिल्ली पुलिस के सामने दिल्ली दंगों में अपनी संलिप्तता ‘स्वीकार’ कर ली है.

यह बात रिकॉर्ड पर है कि मैंने दो बार कोर्ट में कहा है कि पुलिस हिरासत में ‘मैंने कोई बयान नहीं दिया, न ही किसी कागज पर दस्तखत किए. तब इस ‘खबर’ का स्रोत क्या था?

वे जो कर रहे हैं, उसे किसी भी तरह से ‘रिपोर्टिंग’ नहीं कहा जा सकता है. वे अपनी पसंद की दलीलें चुन रहे हैं यहां तक कि वे पहले से ही तय कहानी के हिसाब से सफेद झूठ गढ़ रहे हैं. कोर्ट में मेरे मामले की सुनवाई शुरू होने से पहले ही, वे मुझे जन-धारणा की अदालत में दोषी के तौर पर चित्रित करने की कोशिश कर रहे हैं. और ऐसा करके वे बहुसंख्यकवादी सामूहिक चेतना को आकार दे रहे हैं.

कुछ मौकों पर तो मीडिया का झूठ पुलिस के झूठ से भी आगे बढ़ गया है. एक न्यूज रिपोर्ट में- इस बार भी एक प्रमुख हिंदी अख़बार- में यह दावा किया गया कि दंगे भड़काने में कोई कसर नहीं छोड़ने के लिए मैंने 16 फरवरी, 2020 को (दंगे शुरू होने से एक हफ्ते पहले) गुप्त तरीके से ज़ाकिर नगर (नई दिल्ली) में शरजील इमाम से मुलाकात की थी. जबकि हकीकत यह है कि 16 फरवरी, 2020 को (पुलिस भी इसका सत्यापन करेगी) मैं दिल्ली से 1,136 किलोमीटर दूर अमरावती, महाराष्ट्र में था. और उस रात शरजील इमाम- और कोई भी इस पर सवाल खड़े नहीं कर सकता- तिहाड़ जेल में थे क्योंकि उन्हें करीब 20 दिन पहले एक दूसरे मामले में गिरफ्तार किया गया था.

ऐसा लगता है कि प्रतिष्ठित पत्रकार ने झूठ का पुलिंदा खड़ा करते हुए सबसे बुनियादी तथ्यों को भी जांचना जरूरी नहीं समझा.

लेकिन, एक बार फिर वही सवाल, आखिर तथ्यों और तफसील में किसकी दिलचस्पी है? आज के भारत में सत्य वह नहीं है, जो वास्तव में होता है, बल्कि वह है, जो लोगों तक पहुंचता है. मैं उनसे चाहे जो भी कहूं, उससे कहीं ज्यादा गहरा प्रभाव ये सुर्खियां लोगों के मन पर अपनी छाप छोड़ती हैं.

पिछले दो सालों से मैंने लोगों के मन में लगभग अतार्किक तरीके से छपे हुए शब्दों पर, तुम्हारे शब्दों में कहूं तो, ‘अपनी आंखोंदेखी’ से ज्यादा और लगभग अतार्किक विश्वास देखा है. अगर अखबार में है, तो जरूर सच होगा. ‘कुछ तो किया होगा. पूरा झूठ थोड़े लिख देंगे.’

संजय दत्त पर बनी बायोपिक ‘संजू’ में अपनी कमियां हैं, लेकिन इसमें मीडिया का चरित्र बिल्कुल सटीक तरीके से प्रस्तुत किया गया है. यह वास्तव में ड्रग (मादक पदार्थ) है. हर सुबह मैं देखता हूं कि कैसे कागज के ये पन्ने लोगों के दिमागों को सुन्न बना देते हैं और लोगों को एक वैकल्पिक सच्चाई की दुनिया में लेकर जाते हैं.

जब हर दिन झूठ का बड़े पैमाने पर उत्पादन हो रहा हो,  लोग झूठ और सच में फर्क करने की क्षमता गंवा देते हैं. और एक बार इस स्तर पर पहुंच जाने के बाद लोगों को अच्छी झूठ की खुराक की जरूरत भी नहीं रह जाती. उनसे कुछ भी निगलवाया जा सकता है, भले ही वह कितना ही बकवास क्यों न हो.

हम झूठ और फरेब की इस दैत्याकार मशीन से कैसे लड़ सकते हैं? नफरत और झूठ फैलाने वालों के पास संसाधनों की भरमार है- पैसा, 24 घंटे के फरमाबरदार न्यूज चैनल, जिनकी संख्या काफी है, ट्रोल आर्मी और पुलिस भी. ईमानदारी से कहूं, रोहित, कभी-कभी यह मुझे निराशा से भर देता है. कभी-कभी मैं खुद को काफी अकेला पाता हूं.

मुझसे कहीं ज्यादा विशेषाधिकार प्राप्त कई लोग, जो फासीवाद के खिलाफ इस लड़ाई में, सीएए-एनआरसी/एनपीआर के खिलाफ आंदोलन में साथ थे, उन्होंने आज चुप रहना चुना है, जबकि मुझे इन झूठों के लिए अकेला निशाना बनाया जा रहा है. यह आपको गैरजरूरी होने का एहसास दिलाता है. यह अपने ही वतन में बेगाना होने का एहसास दिलाता है.

ऐसे लम्हों में सिर्फ एक चीज मुझे दिलासा देती है, वो है यह एहसास कि इसमें से कुछ भी व्यक्तिगत नहीं है. कि मेरा उत्पीड़न, और मेरी कैद कुछ बड़े का प्रतीक है- वर्तमान समय में भारत में मुस्लिमों का उत्पीड़न और उन्हें अलग-थलग किए जाने का.

ख़ामोशी और एकांत में ढूंढता हूं राहत

पिछले कुछ समय से मैंने अपने आसपास के लोगों को हकीकत क्या है, यह समझाना बंद कर दिया है. आखिर, मैं कितने झूठ का पर्दाफाश कर सकता हूं. और कितने लोगों के सामने? मैं एक कदम आगे बढ़कर यह सवाल करता हूं कि क्या यह सिर्फ लोगों को गुमराह करने का मामला है- प्रोपगैंडा द्वारा फंसाने का का मामला है. या लोग-बाग, अपने अंदर कहीं इन झूठों पर यकीन करना चाहते हैं, क्योंकि यह उनके अचेतन पूर्वाग्रहों के हिसाब में फिट बैठता है.

दीवार पर सिर पटकने की जगह मैं जेल का ज्यादातर समय अकेले बिताते हुए गुजारता हूं. पिछले दो सालों में यह मेरे अंदर आया एक अहम बदलाव है, भले ही यह कितना ही चौंकाने वाला मालूम पड़े. मेरे हालात ने मुझे ख़ामोशी और एकांत में राहत पाने के लिए मजबूर किया है.

मैंने अब अपने कैद के शुरुआती दिनों की तुलना में अपनी छोटी कोठरी में घंटों बंद किए जाने पर घुटन महसूस करना बंद कर दिया है. अब अदालत में पेशी के दौरान लोगों और ट्रैफिक का दृश्य और उसकी आवाज से मैं परेशानी और घबराहट महसूस करता हूं. भीड़-भाड़ से दूर, जेल की निःशब्दता मेरे लिए सामान्य होती जा रही है. मैं सोचता हूं, क्या मैं जेल का आदी होता जा रहा हूं?

हाल ही में मैंने झूठे आरोपों में 14 साल जेल में बिताने वाले एक व्यक्ति का लिखा गया संस्मरण पढ़ा. जेल में बिताए गए समय के बारे में बताने के बाद उन्होंने ‘सामान्य जीवन’ में लौटने पर पेश आने वाली समस्याओं के बारे में लिखा है. सालों तक वे आजाद होना चाहते थे, लेकिन जब उन्हें आखिरकार आजाद किया गया, उन्हें नहीं मालूम था, या वो भूल गए थे कि आजादी के साथ करना क्या है? सालों तक वो अपने दोस्तों से मिलने के लिए तड़पा था, लेकिन अपनी रिहाई के बाद ज्यादातर समय घर में अकेले बिताते थे और लोगों से, भीड़भाड़ वाली जगहों से बचते थे. रोहित, मैं कई बार सोचता हूं, मुझे सामान्य होने में कितना वक्त लगेगा?

अपनी तमाम परेशानियों के साथ-साथ जेल ने मेरे जीवन में कई ‘सकारात्मक’ बदलाव लाने में भी भूमिका निभाई है. पिछले दो सालों से मैं मोबाइल फोन के बगैर रह रहा हूं, जिसका मतलब है कि मैं सोशल मीडिया के ड्रग से उबर गया हूं. जब मैं यहां आया था, मेरी एकाग्रता एक ट्वीट भर की थी, लेकिन अब मैं हर महीने कई उपन्यास पढ़ जाता हूं. और कई सालों की कोशिशों के बाद, आखिरकार मेरे सोने-जागने का समय दुरुस्त हो गया है. (मां ये सुनकर खुश होंगी) अब सूरज निकलने पर सोने जाने की बजाय मैं सूरज के साथ जग जाता हूं. सुबहों को ख़ूबसूरत कहा जा सकता है.

मुझे चिट्ठी ख़त्म करने से पहले इन बातों का जिक्र करना ज़रूरी लगा, खासकर यह देखते हुए कि देशभर की जेलों में राजनीतिक कैदियों की संख्या बढ़ती जा रही है. वे सारे लोग, जिन पर खुद काफी खतरा है, जो लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता, सत्य और न्याय की लड़ाई जारी रखे हुए हैं, उन्हें जेल के बारे में चिंतित होना बंद कर देना चाहिए.

जेल आपके कुछ बुरे पहलुओं से छुटकारा दिलाने में आपकी मदद कर सकता है. यहां तक कि यह आपको शांतचित्त, धैर्यवान और आत्मनिर्भर बना सकता है- जैसा कि इसने मेरे साथ किया है.

अंत में, मुझे यह बताए बगैर नहीं रहना चाहिए कि मैं कैदियों के बीच काउंसलर के तौर पर तुम्हारे काम से वाकिफ हूं. दो महीने पहले मैंने तुम्हारी किताब ‘क्रिसमस इन तिहाड़ एंड अदर स्टोरीज’ पढ़ी. तुमने कितनी छोटी-सी प्यारी किताब लिखी है.

कहानियां ऐसी चीज हैं, जिनकी इस कालकोठरी में कोई कमी नहीं है. हर तरह की कहानियां- संघर्ष और कभी हार न मानने की, आरज़ू और अंतहीन इंतजार की, गरीबी और दिल को तड़पाने वाले अन्यायों की, आजादी के लिए इंसानी खोज के साथ-साथ मानवीय दुष्टताओं की स्याह कहानियां तक.

उम्मीद करता हूं कि मैं जल्द ही एक आजाद इंसान की तरह ये कहानियां तुम्हारे साथ कॉफी की चुस्कियों के साथ साझा कर पाऊंगा. तब तक अपना ध्यान रखो और लिखते रहो.

तुम्हारा,
उमर ख़ालिद

साभार- द वायर

खनन के चलते मौत के कगार पर पहुंची यमुना!

“हमारे यहां सारस, लाल सुर्खाब, सफेद सुर्खाब, नीलसर, जलकाग जैसे प्रवासी पक्षी हज़ारों की संख्या में आया करते थे. महासीर जैसी दुर्लभ मछली, लालपरी, सुआ, सेवड़ा, लोंछी, किरण, गोल्डन फिश, रोहू जैसी मछलियां हजारों की संख्या में रहती थीं. हमने यहां 70-70 किलो वज़न तक के कछुए देखे हैं. जब से रेत-बजरी खनन शुरू हुआ नदी के भीतर से जीव-जंतु, जलीय पौधे सब घटने लगे. मशीनों के शोर ने पक्षियों को यहां से जाने पर मजबूर कर दिया. रात्रिचर जीव भी पलायन कर गए. खनन के चलते हमारी यमुना मरने की कगार पर पहुंच गई है.”

यमुना तट पर मरी हुई मछली दिखाते हुए स्थानीय निवासी किरणपाल राणा कहते हैं कि खनन वाहनों के पहियों के नीचे आकर नदी के भीतर और बाहर जलीय जीव और पौधे नष्ट हो रहे हैं.

यमुना के किनारे खड़े होकर किरनपाल राणा जब ये बता रहे थे, वहीं रेत पर एक छोटी मरी हुई मछली पड़ी थी. वह दिखाते हैं “यहां बचे-खुचे प्राणियों का यही हश्र है. खनन वाहनों के पहियों के नीचे आकर इनके अंडे, बच्चे, बीज, छोटे पौधे सब नष्ट हो जाते हैं.” वह हरियाणा के यमुनानगर जिले के जगाधरी तहसील के कनालसी गांव में रहते हैं.

यहां वर्ष 2016 में 44.14 हेक्टेअर नदी क्षेत्र में 9 वर्ष के लिए खनन की अनुमति मिली. गंगा की सबसे लंबी सहायक नदी यमुना उत्तराखंड में 6,387 मीटर ऊंचाई पर यमनोत्री ग्लेशियर से निकलकर 5 राज्यों में 1,376 किलोमीटर का सफ़र तय करते हुए, उत्तर प्रदेश के प्रयागराज जिले में गंगा में मिल जाती है. भारतीय वन्यजीव संस्थान में वैज्ञानिक डॉ सैयद ऐनुल हुसैन नेशनल मिशन फॉर क्लीन गंगा से जुड़े हैं.

कनालसी गांव में खनन के चलते यमुना में जलीय जीवों की घटती संख्या पर वह बताते हैं. “नदी से तय मात्रा से अधिक रेत खनन पूरे क्षेत्र को असंतुलित करता है. जलीय पौधे, सूक्ष्म जीव सब प्रभावित होते हैं. नदी और उसके ईर्दगिर्द रहने वाले जीवों की खाद्य श्रृंखला प्रभावित होने से जानवरों को भोजन नहीं मिलेगा. खनन क्षेत्र में जीव-जंतुओं की संख्या कम होना या स्थानीय तौर पर विलुप्त होना इसका संकेत है.”

रेत खनन का यमुना नदी और इसके जलीय जीवन पर किस तरह असर पड़ा है, इस पर अब तक कोई ठोस वैज्ञानिक अध्ययन किया ही नहीं गया. चंबल नदी पर रेत खनन के असर का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिक डॉ एसआर टैगोर भी यह सवाल उठाते हैं. वह कहते हैं “इटावा में यमुना की सहायक चंबल नदी पर किए गए हमारे अध्ययन से ये सिद्ध हो चुका है कि रेत खनन से नदी की जैव-विविधता पर खतरा आता है. हमने पाया कि चंबल में रेत खनन से घड़ियाल और कछुओं के प्रवास स्थल, नेस्टिंग पैटर्न, अंडे देने की प्रक्रिया बाधित हुई और इन जीवों ने उस नदी क्षेत्र से पलायन किया.”

डॉ टैगोर कहते हैं कि नदी क्षेत्र में भोजन की उपलब्धता के आधार पर पक्षी अपना प्रवास चुनते हैं. कई पक्षी नदी के बीच बने टापुओं पर अंडे देते हैं. खनन से होने वाली उथलपुथल जीव-जंतुओं की इन प्रक्रियाओं में बाधा आती है और उन्हें अपना घर छोड़ना पड़ता है. किरणपाल राणा के मुताबिक उनके गांव में यही हो रहा है.

यमुना स्वच्छता के लिए सक्रिय किरणपाल राणा बताते हैं कि रेत खनन से पहले यहां हजारों की संख्या में प्रवासी पक्षी आया करते थे. अब गिने-चुने पक्षी ही नजर आते हैं. ‘यमुना जिए’ अभियान चला रहे पूर्व आईएफएस अधिकारी मनोज मिश्रा कहते हैं यमुना की जैव-विविधता रेत खनन से कैसे प्रभावित हो रही है, इस पर कोई अलग से अध्ययन नहीं किया गया है. लेकिन गंगा या चंबल पर रेत खनन को लेकर किया गया अध्ययन यमुना पर भी लागू होता है.

धरती अपनी जैव विविधता बड़े पैमाने पर खो रही है. वर्ष 2018 की डब्ल्यूडब्ल्यूएफ की रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 1970 से 2014 के बीच वैश्विक स्तर पर वन्यजीवों की आबादी 60% तक घटी है. अवैध खनन पर वर्ष 2012 में दीपक कुमार व अन्य बनाम हरियाणा सरकार के मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला नज़ीर माना जाता है. इस महत्वपूर्ण फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि वर्षों से हो रहे खनन से जलीय जीवों के अस्तित्व पर संकट आ गया है.

बेलगाम रेत खनन से भारत की नदियां और नदियों का पारिस्थितकीय तंत्र बुरी तरह प्रभावित हो रहा है. नदियों का इकोसिस्टम प्रभावित होने के साथ उनके किनारों कमजोर हो रहे हैं, उन पर बने पुल खतरे में हैं और नदी और उसके किनारे रहने वाले जीवों का प्राकृतिक आवास, उनका प्रजनन प्रभावित हो रहा है. पक्षियों की कई प्रजातियों के संरक्षण को लेकर आपदा जैसी स्थिति हो गई है. इस फैसले के 10 साल बाद भी नदियां और नदियों पर निर्भर जीवन के संरक्षण के लिए कोई ठोस उपाय नहीं किए गए. कनालसी गांव के लोगों का आरोप है कि नियम के विरुद्ध रात के समय भी नदी से रेत खनन किया जाता है. रेत की धुलाई के लिए दिन-रात भूजल दोहन किया जाता है.

भूजल संकट

इंसान का पेट रोटी और पानी से भरता है. नदी का पेट रेत और पानी से. यमुना में जब रेत ही नहीं होगी तो पानी धरती में कैसे समाएगा, गांव के बुजुर्ग कहते हैं. ज्यादातर ग्रामीण भूजल स्तर में आ रही गिरावट और भविष्य के जल संकट से चिंतित हैं. कनालसी गांव के किसान महिपाल सिंह कहते हैं, “यमुना के करीब 5 किलोमीटर लंबाई में 40-50 स्क्रीनिंग प्लांट लगे हैं. रेत-बजरी की धुलाई के लिए ये प्लांट दिन-रात भूमिगत जल का दोहन करते हैं. खनन के चलते नदी का तल भी नीचे जा चुका है. पहले ज़मीन में 25-30 फुट पर पानी आ जाता था. अब 60 फुट तक मुश्किल से पानी आता है. किसानों के ट्यूबवैल बिलकुल ठप पड़ गए और नए बोरिंग करवाने पड़े. अगले 5 साल खनन की यही स्थिति रही तो सिंचाई और पेयजल का बड़ा संकट होगा.”

खनन के चलते भूजल स्तर गिरने, सांस, आंख, त्वचा संबंधी बीमारियों, खराब सड़कों, धूल से पशुओं का चारा खराब होने, प्रदूषण जैसी समस्याओं को लेकर कनालसी के ग्रामीणों ने वर्ष 2021 में हरियाणा के मुख्यमंत्री को लिखा पत्र दिखाया. जिसमें शिकायत करने पर खनन ठेकेदारों से धमकियां मिलने का भी जिक्र किया गया. मंडोलीगग्गड़ गांव के मल्लाह कहते हैं कि खनन के चलते उन्हें अपना पारंपरिक पेशा छोड़ना पड़ा. अब उनके गांव के ज्यादातर मल्लाह मजदूरी करने शहर की ओर चले गए हैं.

मल्लाह बने मजदूर

खनन से जलीय जीव संकट में आ गए जबकि मल्लाह, मछुआरे रोजगार बदलने पर मजबूर हो गए. यमुनानगर के छछरौली तहसील के मंडोलीगग्गड़ गांव में 60 मल्लाह परिवार रहते हैं. जिनका पारंपरिक पेशा यमुना में किश्तियां चलाना और नदी तट पर खेती करना रहा है.

कभी मल्लाह रहे प्रमोद कुमार कहते हैं, “अब हमारे समुदाय के लोग शहर की प्लाईवुड फैक्ट्रियों में मज़दूरी करने जाते हैं. नदी में अब किश्तियां नहीं लगती। हम यमुना में लौकी, करेला, कद्दू, ककड़ी, खीरा, तरबूज, खरबूजा जैसी बेल वाली सब्जियां-फल उगाते थे. हमारे पूर्वज यही काम करते आए थे। तब नदी हम सबकी हुआ करती थी, अब सिर्फ खनन वालों की है.”

खनन के चलते यमुना का बहाव एक समान न होने से मल्लाहों ने किश्तियां चलाने में खतरे की समस्या बताई. क्षेत्र में अब गिने-चुने मल्लाह ही यमुना में किश्तियां ले जाते हैं. नदी पार लगाने वालेबाकी बचे गिने-चुने मल्लाह मायूसी जताते हैं. जगाधरी तहसील के बीबीपुर गांव के युवा मोहम्मद मुकर्रम इनमें से एक हैं. सड़क से जो दूरी दो घंटे में तय होती है, किश्ती से दस मिनट में. मोटरसाइकिल सवारों के वाहन नदी पार कराते हुए मुकर्रम बताते हैं, “खनन के बाद नदी कहीं बहुत ज्यादा गहरी तो कहीं उपर है. पानी का बहाव एक समान नहीं रह गया. इससे किश्तियां चलाने में डर लगता है.”

जगाधरी तहसील के बहरामपुर गांव के किसान लक्ष्मीचंद की आवाज़ रुआंसी हो उठती है. वह यमुना की जद में आए अपने खेत दिखाते हैं. “जहां खनन होना चाहिए, वहां नहीं होता, कहीं और हो जाता है. ये सामान्य कटाव नहीं है. नदी को रोक दिया है. जब पानी को निकलने का रास्ता नहीं मिलेगा तो नदी कहां जाएगी. सरकार की कमाई तो खूब होती है. लेकिन सरकार हम पर ध्यान नहीं देती. गांव के कई किसानों की ज़मीन कट गई है. हमारे पेड़ नदी में समा गए.”

साभार- डाउन-टू-अर्थ

300 छात्रों पर केवल 2 शिक्षक, ग्रामीणों ने सरकारी स्कूल के गेट पर जड़ा ताला!

हरियाणा में ट्रांसफर ड्राइव योजना के कारण अध्यापकों की कमी के चलते आए दिन सरकारी स्कूलों के सामने ग्रामीणों और छात्रों के प्रदर्शन देखने को मिल रहे हैं. सीएम सिटी करनाल के गांव पिचौलिया में भी ग्रामीण, बच्चों के साथ गांव के सरकारी स्कूल के सामने शिक्षकों की कमी के विरोध में प्रदर्शन करने के लिए इकट्ठा हुए. ग्रामीणों ने अपनी मांग को लेकर सरकार के खिलाफ नारेबाजी करते हुए स्कूल के मुख्य गेट पर ताला जड़ दिया.

स्कूली छात्रों ने आरोप लगाया कि स्कूल में पहले ही शिक्षकों की कमी थी लेकिन सरकार की ट्रांसफर ड्राइव योजना के बाद अब स्कूल में केवल दो शिक्षक रह गए हैं. गांव के सरकारी स्कूल में 300 बच्चे पढ़ते हैं लेकिन 300 बच्चों को पढ़ाने के लिए केवल दो अध्यापक हैं. ग्रामीणों ने राज्य सरकार के खिलाफ नारेबाजी करते हुए स्कूल में शिक्षक के सभी रिक्त पदों को भरने की मांग की.

वहीं एक छात्र ने कहा कि सितंबर की परीक्षा नजदीक आ रही थी, लेकिन वे अभी भी शिक्षकों की कमी का सामना कर रहे हैं.
साथ ही अभिभावकों ने सरकार से स्कूल को अपग्रेड करने की मांग की.

वहीं ग्रामीणों के विरोध के बाद शिक्षा अधिकारी ने रिक्त पदों को जल्द भरने का आश्वासन दिया. जिले के शिक्षा अधिकारी ने कहा कि ट्रांसफर ड्राइव की प्रक्रिया चल रही है और अभी गेस्ट शिक्षकों को ऑनलाइन पोर्टल के जरिए जोड़ा जाना बाकी है उम्मीद है कि सभी रिक्त पदों को जल्द ही भर दिया जाएगा.

पंजाब: ‘अग्निपथ भर्ती’ को सहयोग न मिलने के कारण सेना अधिकारी ने दी भर्ती रद्द करने की चेतावनी!

जालंधर में सेना के जोनल भर्ती अधिकारी ने स्थानीय नागरिक प्रशासन का समर्थन नहीं मिलने का हवाला देते हुए पंजाब सरकार से कहा है कि राज्य में अग्निपथ योजना के तहत भर्ती रैलियों को या तो स्थगित किया जा सकता है या पड़ोसी राज्य में स्थानांतरित किया जा सकता है.

8 सितंबर को जालंधर के जोनल भर्ती अधिकारी मेजर जनरल शरद बिक्रम सिंह ने पंजाब के मुख्य सचिव को पत्र लिखते हुए कहा कि, “हम यह जानकारी आपके ध्यान लाना चाहते हैं कि हमें बिना किसी स्पष्टता के स्थानीय नागरिक प्रशासन का समर्थन नहीं मिल रहा है. स्थानीय प्रशासन आमतौर पर राज्य सरकार के निर्देश न होने और धन की कमी के कारण सहयोग न कर पाने की बत कह रहा है.”

अंग्रेजी अखबार ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में छपी रिपोर्ट के अनुसार पत्र में लिखा है कि, “कुछ जरूरी आवश्यकताएं हैं जिन्हें स्थानीय प्रशासन की ओर से भर्ती रैलियां आयोजित करने के लिए मुहैया किया जाना चाहिए. इनमें कानून-व्यवस्था के लिए पुलिस सहायता, सुरक्षा, भीड़ नियंत्रण, बैरिकेडिंग और उम्मीदवारों का सुगम प्रवेश सुनिश्चित करना शामिल हैं.”

सेना अधिकारी की ओर से लिखे पत्र में रैली के दौरान प्रशासन द्वारा चिकित्सा सेवाएं उपलब्ध कराने के लिए भी कहा गया है. इसके अलावा जिस स्थान पर रैली आयोजित होनी है, वहां प्रशासन द्वारा 14 दिन के लिए 3-4 हजार उम्मीदवारों के लिए खाना, पानी, शौचालय आदि सुविधाओं का प्रबंधन किए जाने की भी मांग की गई है.

पत्र में चेतावनी दी गई है कि जब तक इन व्यवस्थाओं के लिए स्पष्ट प्रतिबद्धता नहीं दिखाई जाती है, वे राज्य में भविष्य में होने वाली सभी भर्ती रैलियों और प्रक्रियाओं पर स्थगन के लिए सेना मुख्यालय के समक्ष मामला उठाएंगे या वैकल्पिक तौर पर पड़ोसी राज्यों में रैलियां आयोजित करेंगे.

वहीं इस मामले पर प्रमुख सचिव कुमार राहुल ने अंग्रेजी अखबार को बताया कि गुरदासपुर में कुछ समस्याएं सामने आई थीं, लेकिन उनमें कुछ भी गंभीर नहीं था. उन्होंने कहा, “मैंने जनरल से बात की है. उन्होंने मुझे गुरदासपुर की कुछ समस्याओं के बारे में बताया, लेकिन इनमें कुछ भी गंभीर नहीं है. सब कुछ ठीक है और रैलियों के सुचारू आयोजन के लिए सभी उपाय किए जा रहे हैं”

फरीदाबाद: खोरी गांव के विस्थापित परिवारों में से केवल 5.5 फीसदी को ही मिले मकान!

पिछले साल जून में फरीदाबाद के खोरी गांव में 10 हजार से ज्यादा लोगों के मकान गिराए गए थे. सुप्रीम कोर्ट ने खोरी गांव की इस कॉलोनी में रहने वाले लोगों के मकानों को अवैध बताकर जमीन खाली करवाने का आदेश दिया था. जिसके बाद फरीदाबाद प्रशासन ने 10 हजार परिवारों के मकानों पर बुलडोजर चलाकर जमीन खाली करवा ली थी. इस विध्वंस के बाद विस्थापित हुए लगभग 10 हजार परिवारों में से केवल 550 परिवारों को ही पुनर्वास के लिए मकान दिए गए हैं.

खोरी गांव की करीबन 150 एकड़ से ज्यादा वन क्षेत्र को खाली करवाने के लिए फरीदाबाद नगर निगम द्वारा इन इन परिवारों का यहां से हटाने का अभियान चलाया गया था. विस्थापित परिवारों के पुनर्वास की प्रक्रिया पिछले साल जुलाई में शुरू की गई थी लेकिन सरकार की अनेक शर्तों और कठिन प्रक्रिया के चलते अबतक केवल 5.5 प्रतिशत प्रभावित परिवारों का पुनर्वास किया गया है.

वहीं फरीदाबाद नगर निगम का कहना है कि पात्र पाए गए 4,100 में से 1,009 आवेदकों को आवंटन पत्र जारी किए गए हैं जबकि उनमें से 550 को कब्जा मिल गया. पुनर्वास योजना के तहत पात्र आवेदकों को 20 साल के लिए 10 हजार रुपये की एकमुश्त राशि जमा करवानी होगी और 1,950 रुपये की मासिक किस्त का भुगतान करना होगा.

वहीं अधिकतर लोग दस हजार की एकमुश्त राशि जमा करवाने और अन्य खर्च का भुगतान करने में असमर्थ रहे तो कई परिवार दस्तावेजों की कमी के कारण पुनर्वास की प्रक्रिया से बाहर हो गए.

सरकार ने रेलवे की 62 हजार हेक्टेयर जमीन निजी हाथों में सौंपने की मंजूरी दी!

केंद्र सरकार ने पिछले सप्ताह हुई कैबिनेट बैठक के बाद घोषणा की कि भारतीय रेलवे की जमीन को लंबे समय के लिए पट्टे पर देने की योजना को मंजूरी दे दी है. सरकार ने रेलवे की जमीन के लिए लाइसेंस शुल्क को 6 प्रतिशत से घटाकर 1.5 प्रतिशत कर दिया है, लीज अवधि को भी पांच साल से बढ़ाकर 35 साल कर दिया गया है. सरकार ने इसके पीछे 30 हजार करोड़ के लाभ का दावा किया है.

सरकार का कहना है कि रेलवे की जमीन को 5 साल से बढ़ाकर 35 साल के लिए प्राइवेट कंपनियों के हाथों में देने से सरकार की आमदनी बढ़ेगी. सरकार का दावा है कि रेलवे की जमीन पर कार्गो टर्मिनल बनाने के साथ पीपीपी यानी पब्लिक पाइवेट पार्टनरशिप से अस्पताल और स्कूल बनाने के लिए भी उपयोग में लाया जाएगा.

रेल मंत्रालय के अनुसार रेलवे के पास 4.84 लाख हेक्टेयर जमीन है इसमें से 62 हजार हेक्टेयर जमीन खाली पड़ी है, यानी अब इस 62 लाख हेक्टेयर जमीन को 35 साल के लिए निजी कंपनियों को सौंप दिया जाएगा.