यूरिया के नक्शेकदम पर डीएपी, खरीफ में उर्वरकों की खपत का असंतुलन तेजी से बढ़ा

पिछले कई दशकों से सरकार और उर्वरक उद्योग उर्वरकों के संतुलित उपयोग की वकालत के साथ ही उसे दुरूस्त करने की कोशिश में लगे हैं। लेकिन उसके बावजूद यूरिया का उपयोग अन्य उर्वरकों की तुलना में तेजी से बढ़ रहा है। अब यूरिया के साथ डाई अमोनियम फॉस्फेट (डीएपी) उसी दिशा में बढ़ रहा है। दूसरे कॉम्प्लेक्स उर्वरकों की तुलना में कीमतों के अंतर के चलते डीएपी का उपयोग तेजी से बढ़ा है। चालू साल में अक्तूबर माह तक के उर्वरक खपत के आंकड़े इसे साबित कर रहे हैं। सरकार ने रबी सीजन (2022-23) के लिए न्यूट्रिएंट आधारित सब्सिडी (एनबीएस) योजना के तहत जो सब्सिडी दरें घोषित की हैं उनमें नाइट्रोजन पर सब्सिडी बढ़ाई गई है जबकि फॉस्फोरस (पी), पोटाश (के) और सल्फर (एस) पर सब्सिडी दरों में कमी की है। यह फैसला भी उर्वरकों के उपयोग के असंतुलन को बढ़ावा देगा। 

उर्वरक विभाग के आंकड़ों मुताबिक चालू साल में अप्रैल से अक्तूबर, 2022 के दौरान यूरिया की बिक्री में 3.7 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। वहीं इसी अवधि में डीएपी की बिक्री में 16.9 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। जबकि इसी अवधि के दौरान गैर यूरिया व गैर डीएपी उर्वरकों की बिक्री में गिरावट दर्ज की गई है। इन उर्वरकों में म्यूरेट ऑफ पोटाश (एमओपी), सिंगल सुपर फॉस्फेट (एसएसपी) और दूसरे कॉम्प्लेक्स उर्वरक शामिल हैं। इन उर्वरकों में नाइट्रोजन (एन), फॉस्फोरस (पी), पोटाश (के) और सल्फर (एस) की मात्रा का अलग-अलग अनुपात होता है।

उर्वरकों की बिक्री लाख टन में 

अप्रैल-अक्तूबर 2021अप्रैल-अक्तूबर 2022वृद्धि दर (प्रतिशत)
यूरिया186.273193.1123.67
डीएपी55.61265.03216.94
एमओपी16.8778.792(-)47.91
एनपीकेएस71.87557.553(-)19.93
एसएसपी34.81531.678(-)9.01

चालू वित्त वर्ष के पहले सात माह के दौरान एमओपी की बिक्री  47.9 फीसदी कम रही है। वहीं एन, पी, के और एस विभिन्न अनुपात वाले कॉम्प्लेक्स उर्वरकों की बिक्री 19.9 फीसदी कम हो गई है। एसएसपी की बिक्री में  इस दौरान 19.9 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है। यूरिया और डीएपी की बिक्री के मुकाबले दूसरे उर्वरकों की बिक्री में गिरावट की वजह कीमतों के अंतर को माना जा रहा है। सब्सिडी के अलग स्तर की वजह से यह अंतर बना हुआ है। इस समय यूरिया का अधिकतम खुदरा मूल्य (एमआरपी) 5628 रुपये प्रति टन है। उर्वरकों में यूरिया का दाम सरकार द्वारा नियंत्रित है। उर्वरक कंपनियां सरकार द्वारा तय कीमत पर यूरिया की बिक्री करती हैं। इसकी उत्पादन लागत और आयात पर आने वाली लागत व एमआरपी के बीच के अंतर की भरपाई सरकार उर्वरक कंपनियों को सब्सिडी देकर करती है।

यूरिया के अलावा दूसरे उर्वरक विनियंत्रित उर्वरकों की श्रेणी में आते हैं। इनका एमआरपी तय करने का अधिकार कंपनियों के पास है। सरकार न्यूट्रिएंट आधारित सब्सिडी (एनबीएस) योजना के तहत इन पर फिक्स्ड सब्सिडी देती है। हालांकि यह बात अलग है कि व्यवहारिक रूप में कंपनियां सरकार की हरी झंडी के बाद ही इनकी कीमतें तय करती हैं। पिछले करीब डेढ़ साल से और उसके बाद रूस और यूक्रेन युद्ध के बाद उर्वरकों और उनके कच्चे माल की कीमतों में आई भारी बढ़ोतरी के चलते सरकार को इन उर्वरकों पर अधिक सब्सिडी देनी पड़ी है। इनमें भी सबसे अधिक सब्सिडी डीएपी पर दी जा रही है। कंपनियों को हिदायत है कि वह डीएपी के लिए 1350 रुपये प्रति बैग (50 किलो) यानी 27 हजार रुपये प्रति टन की कीमत पर ही डीएपी की बिक्री करें। एमओपी के लिए एमआरपी 34 हजार रुपये प्रति टन है जबकि एनपीके और एस वाले कॉम्प्लेक्स वेरिएंट के लिए एमआरपी 29 हजार रुपये प्रति टन से 31 हजार रुपये प्रति टन के बीच है।  एसएसपी के लिए एमआरपी 11 हजार से साढ़े 11 हजार रुयपे प्रति टन के बीच है।  इस अनौपचारिक कीमत नियंत्रण के चलते डीएपी की कीमत एनपीके वेरिएंट वाले कॉम्प्लेक्स उर्वरकों से कम है। जबकि पहले डीएपी के दाम अधिकांश उर्वरकों से अधिक रहे हैं। लेकिन अन्य उर्वरकों के मुकाबले कम दाम में मिलने के चलते डीएपी की बिक्री तेजी से बढ़ी है।

इस समय डीएपी पर सब्सिडी का स्तर 48433 रुपये प्रति टन है। एमओपी पर सब्सिडी का स्तर 14188 रुपये प्रति टन है। एन, पी, के और एस वाले  10:26:26:0 वाले कॉम्प्लेक्स के लिए सब्सिडी 33353 रुपये प्रति टन और एसएसपी के लिए 7513 रुपये प्रति टन  है। उर्वरक उद्योग के एक पदाधिकारी ने रूरल वॉयस के साथ बातचीत में कहा कि ऐसे में किसान डीएपी और यूरिया के अलावा किसी दूसरे उर्वरक को क्यों खरीदेंगे। लेकिन यूरिया और डीएपी के अधिक उपयोग के चलते मिट्टी में उर्वर तत्वों का असंतुलन बढ़ रहा है जो अंततः फसलों की उत्पादकता पर प्रतिकूल डालता है और यह स्थिति किसानों के लिए फायदेमंद नहीं है। फर्टिलाइजर एसोसिएशन ऑफ इंडिया के चेयरमैन के.एस.राजू का कहना है कि उर्वरकों के उपयोग में एन, पी और के का आदर्श अनुपात 4:2:1 को माना जाता जाता है। जबकि 2020-21 में यह अनुपात 7.7 :3.1:1 रहा है। वहीं 2022 के खरीफ सीजन में इनका असंतुलन बढ़कर 12.8:5.1 :1 पर पहुंच गया।

इसलिए मिट्टी की जांच या मृदा कार्ड का कोई अर्थ नहीं है। किसान का उर्वरकों के उपयोग करने का फैसला उर्वरकों की कीमत के आधार पर ही तय होता है। 

साभार: रूरल वॉइस

6 दिसंबरः मैने इतिहास को नंग धड़ंग देखा !

…अयोध्या आंदोलन के नेताओं के लिए न्यायपालिका नौटंकी कंपनी थी, उनका नारा था “बंद करो यह न्याय का नाटक जन्मभूमि का खोलो फाटक”. बाद में साबित हुआ कि उनकी आस्था भी सत्ता पाने के मंचित की गई नौटंकी थी जिसमें बच्चा बच्चा राम का मंत्र और शंख फूंकने, श्राप देने वाले, बाबर की औलादों को पाकिस्तान भेजने वाले धर्माचार्य-साधु- साध्वियां कलाकार थे, जिसमें जितना अभिनय था वह उतना पद, सम्मान, मेहनताना वगैरा लेकर किनारे लगा.

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कारसेवकों को भारत में मुगल साम्राज्य की नींव डालने वाले बाबर से एतिहासिक प्रतिशोध का सुख भव्य राममंदिर के रूप में पाना था जिसे भुला दिया गया, फिर भी उनकी हिंसक आस्था का प्रेत भटकता रहा तो उन्हें भ्रष्टाचार का झंखाड़ काटकर विकास की सड़क बनाने में झोंक दिया गया. तब हिंदू खून को खौलाकर जवानी को रामकाज में लगाया गया था, अब उस जवानी की अगली पीढ़ी को एक आदमी की भक्ति में लगा दिया गया है. कमाल ये है- भगवान की जगह आदमी ले चुका है लेकिन खून का उबाल वही है.

इस बीच चौथाई सदी बीत चुकी है जो आदमी की छोटी सी जिंदगी में इतना लंबा समय है कि उसे या तो अपने अनुभवों से कोई पक्का नतीजा निकाल लेना चाहिए या मान लेना चाहिए कि उसके दिमाग का पर्याप्त विकास नहीं हुआ है.

...तब मैं लखनऊ में दैनिक जागरण का शावक रिपोर्टर था जिसे एक प्रेसकार्ड दिया गया था, पर्ची दिखाने पर पंद्रह सौ रूपए तनख्वाह मिलती थी.

अखबार के मालिक नरेंद्र मोहन का जितना विस्तृत परिवार था उतने ही फैले धंधे थे. पत्रकारिता की ढाल के पीछे चीनी मिल, पेट्रोल पंप, शिक्षण संस्थान, रूपया सूद पर चलाने समेत कई कारोबार चल रहे थे. उनकी चालक शक्ति मुनाफा थी, नीति अवसरवाद और महत्वाकांक्षा थी तत्कालीन चढ़ती हुई राजनीतिक पार्टी भाजपा के पक्ष में जनमत का व्यापार करके धन कमाना और जल्दी से जल्दी शासक प्रजाति में शामिल होना जिसका अगला दिखता मुकाम राज्यसभा की मेंबरी थी. इसके लिए उन्होंने एक हार्ड टास्क मास्टर यानि गुंडा संपादक तैनात किया था जो सुबह चपरासी, सर्कुलेशन मैनेजर और पत्रकार किसी को भी पीट सकता था, दोपहर में किसी मजबूर महिला पत्रकार का रखैल की तरह इस्तेमाल कर सकता था लेकिन शाम को वह मालिक का ब्रीफकेस थाम कर विनम्र भाव से किसी मंत्री या अफसर से मुलाकात कराने चल देता था, आधी रात को एडिटोरियल मीटिंग बुलाकर पत्रकारिता के आदर्शों की भावभीनी निराई-गुड़ाई करने लगता था (फिर भी वह रीढ़विहीन बौद्धिक नक्काल संपादकों से बेहतर था. उसे मालिकों ने बूढ़े और बीमार हो जाने पर इस्तेमाल हो चुके टिशूपेपर की तरह फेंक दिया).

ऐसे सीनियर थे जो शावकों को संपादक के पैर छूकर उर्जा पाने की शास्त्रीय विधि सिखाते थे, एक हेडलाइन गलत लग जाने पर डरकर रोने लगते थे, रिटायरमेंट के एक दिन पहले जिंदगी का पहला स्कूटर खरीदने की मिठाई बांटते थे, एक प्रूफरीडर करपात्री जी भी थे जो दफ्तर में ही रहते थे, उनके कपड़े होली पर बदले जाते थे और वह दोनों वक्त सिर्फ पूड़ी खाते थे. (इन विचित्र किंतु सत्य कारनामों को मेरे स्वीडिश दोस्त पॉयर स्टालबर्ग ने तीन साल रिसर्च के बाद अपनी किताब लखनऊ डेली-हाऊ ए हिंदी न्यूजपेपर कंस्ट्रक्ट्स सोसाइटी, प्रकाशक-स्टाकहोम स्टडीज इन सोशल एंथ्रोपोलॉजी, में बेबाकी से लिखा है).

मैं छात्र राजनीति से पत्रकारिता में आया था. इस माहौल में भी मुझे यकीन था कि अपने वक्त का सच लिखने और अन्याय के शिकार लोगों की मदद करने का मौका मिल जाएगा. इसकी बुनियाद यह थी कि जब अखबार संकट में आता था तो संपादक को सर्कुलेशन दुरूस्त करने के लिए पत्रकारिता के सरोकारों को साथ ऐसे रिपोर्टर याद आने लगते थे जिनके पास भाषा, कॉमनसेंस और राजनीति की समझ थी.

दिसंबर 1992 के पहले हफ्ते में ऐसा ही एक मौका आया जब भरेपूरे व्यूरो को दरकिनार कर भाऊ राघवेंद्र दुबे, मुझे और दिनेश चंद्र मिश्र को अयोध्या कवर करने भेज दिया गया. चलते समय जो निर्देश दिए गए उन्हें मैने एक कान से सुना दूसरे से निकाल दिया क्योंकि पिछले ही साल मैने बनारस का दंगा एक लोकल इवनिंगर के लिए कवर किया था तब मैने दैनिक जागरण, आज, स्वतंत्र भारत जैसे अखबारों की अफवाह फैलाने और एतिहासिक तथ्यों को तोड़मरोड़ कर सांप्रदायिक उन्माद फैलाने की कलाकारी और प्रेस काउंसिल आफ इंडिया की लाचारी का मजाक बनाते देखा था.

अयोध्या के मठों और अखाड़ों में आरएसएस, भाजपा, विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल, शिवसेना और भांति भांति के धर्माचार्यों के संयुक्त कारखाने चल रहे थे जिनमें या तो सांप्रदायिक उन्माद का उत्पादन हो रहा था या विराट भ्रम का. लालकृष्ण आडवाणी, अशोक सिंघल, महंत रामचंद्रदास समेत मंदिर आंदोलन के सभी नेता लीलाधर हो चुके थे. वे एक ही सांस में सुनियोजित रणनीति के तहत दो या अधिक बातें कह रहे थे- हम अदालत का सम्मान करते हैं लेकिन मंदिर आस्था का प्रश्न है जिसका फैसला अदालत नहीं कर सकती. राममंदिर चुनावी मुद्दा नहीं है लेकिन धर्म का राजनीति पर अंकुश नहीं रहा तो वह पतित हो जाएगी. कारसेवा प्रतीकात्मक होगी लेकिन मंदिर का निर्माण किए बिना कारसेवक वापस नहीं जाएंगे.

दूसरी ओर साध्वी ऋतंभरा, उमा भारती और विनय कटियार समेत बीसियों हाथों में दिन रात गरजते माइक थे जो पाकिस्तान में तोड़े गए मंदिरों की तस्वीरकशी करते हुए कारसेवकों को लगातार बानर सेना में बदल कर बाबर की औलादों को सबक सिखाने का अंतिम अवसर न चूकने देने की कसम दिला रहे थे. उन्माद इस स्तर पर पहुंचा दिया गया था कि अस्सी साल की बुढ़िया औरतें भी जो घरों में अपने हाथ से एक गिलास पानी भी न लेती होंगी “जिस हिंदू का खून न खौला खून नहीं वह पानी है” की धुन पर अपने कपड़ों से बेखबर नाचने लगीं लेकिन भ्रम भी ऐसा था कि कारसेवक रातों में अधीर होकर चंदा वापस मांगने लगते थे और ईंटे गठरी में लेकर वापस घर जाने की तैयारी करने लगते थे. मैने अपनी रिपोर्टों को इसी भ्रम और उन्माद के तथ्यों के सहारे नेताओं की कथनी-करनी के अंतर पर केंद्रित किया जो काफी एडिट करने के बाद बिल्कुल निरापद बनाकर छापी जाती थीं या रद्दी की टोकरी में डाल दी जाती थीं.

एक दिन सुबह का अखबार देखकर मेरे होश उड़ गए हम लोगों की संयुक्त बाईलाइन के साथ जाने किसकी लिखी एक काल्पनिक खबर बैनर के रूप में छपी थी- अयोध्या में मंदिर का अबाध निर्माण शुरू. मुझे उसी समय इंट्यूशन की तरह लगा कि इन भ्रमों के पीछे जिस छापामार योजना को छिपाने की कोशिश की जा रही है उसका पता मेरे अखबार को है और अंततः इस बार संविधान, न्यायपालिका वगैरह सबके सम्मान का स्वांग करते हुए विवादित ढांचे को ढहा दिया जाएगा. (एक से छह दिसंबर के बीच क्या हुआ यह लिखने की जरूरत नहीं है क्योंकि इसी साइट पर भाऊ राघवेंद्र दुबे लिख चुके हैं)

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छह दिसंबर की दोपहर बाबरी मस्जिद के गुम्बदों के गिरने का समय दर्ज करते हुए, सन्निपात में चिघ्घाड़ते, बड़बड़ाते पागल हो गए लोगों के चेहरे देखते हुए, दंगे में जलते हुए घरों के बीच फैजाबाद की ओर किसी से उधार ली गई मोटरसाइकिल पर भागते हुए, खबर लिखते हुए, कारसेवकों की पिटाई के दर्द के सुन्न हो जाने तक पीते हुए मैं यही अपने मन में बिठाता रहा कि लोकतंत्र एक नाटक है, आदमी अब भी पत्थर युग जितना ही बर्बर है, देश में कुछ निर्णायक रूप से बदल चुका है, असल मुद्दों को दफन कर की जाने वाली शार्टकट धार्मिक जहालत की कुर्सी दिलाऊ राजनीति को सदियों लंबा नया मैदान मिल गया है…मैं हैरान था क्योंकि इसी से जुड़ा एक व्यक्तिगत उपलब्धि जैसा भाव भी उमड़ रहा था- मैने सभ्यता का दूध नहीं खून पीते लंबे दांतो और टपकते पंजों वाले इतिहास को नंगधड़ंग अट्टहास करते देख लिया है.

उस छह दिसंबर को दुनिया पर गिरती चटक ऐसी ही धूप थी और मैं भी वहीं था. बाबरी मस्जिद गिरने से ज्यादा दंगे के बीच फैजाबाद पहुंच कर अपनी खबर भेजने के लिए परेशान. अकेला अनप्रोफेशनल काम यह किया जब कारसेवक मुझ पर झपटे तो मैने भी जवाब में एक दो को मारा। इसके बाद मैं कितने पैरो के नीचे कुचला गया नहीं पता अगर राघवेन्द्र दुबे (भाऊ) नहीं होते तो शायद मर जाता। आज सोच रहा हूं कि बीते बीस सालों की प्रोफेशनल तटस्थता का क्या हासिल रहा। मेरे भीतर का कितना बड़ा हिस्सा ये पत्तरकारिता लकवाग्रस्त कर गई है. उस समय भी जिनके लिए (अखबार था दैनिक जागरण) तटस्थ हुआ जा रहा था वे मंदिर बनवा रहे थे और राज्यसभा जा रहे थे। तब से तमाम चावला, चौधरी और अहलूवालिया बेशुमार बढ़े हैं जो प्रोफेशनल एथिक्स सिखाते हुए डकैतों की तरह माल बटोर रहे हैं.

तटस्थता पत्तरकारिता की सजावट है उससे भी अधिक पाखंड है.

.अनिल यादव

(अनिल यादव हिंदी के चर्चित लेखक और पत्रकार हैं। 6 दिसंबर को वे दैनिक जागरण की रिपोर्टिंग टीम के सदस्य बतौर  अयोध्या में मौजूद थे । अनिल इन दिनों स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। वह भी कोई देश है महाराज, सोनम गुप्ता बेवफा है, कीड़ाजड़ी, नगरवधुएं अखबार नहीं पढ़तीं और गोसेवक उनकी काफ़ी चर्चित किताबें हैं. )

साभार: मीडियाविजिल

पंजाब सरकार से नाराज मजदूरों ने मुख्यमंत्री आवास घेरा, हुआ लाठीचार्ज

पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान 30 नवंबर की दोपहर जब गुजरात में आम आदमी पार्टी के लिए चुनाव प्रचार में व्यस्त थे और अपनी सरकार की उपलब्धियां गिना रहे थे, तभी संगरूर में उनके घर के बाहर बड़ी संख्या में किसान-मजदूरों ने सरकार पर वादे पूरे न करने का आरोप लगाकर जोरदार प्रदर्शन किया। किसान व खेत मजदूरों के संगठनों के संयुक्त मोर्चा के बैनर तले हुए इस प्रदर्शन में पंजाब के सभी जिलों से आए करीब 10 हजार लोग शामिल हुए।

मोर्चा में शामिल जमीन प्राप्ति संघर्ष कमिटी (जेडपीएसएसी) के नेता मुकेश मलौध ने डाउन टू अर्थ को बताया कि प्रदर्शनकारी किसान मजदूर दोपहर ढाई सीएम आवास से करीब आधा किलोमीटर दूर पटियाला बाईपास पर एकड़ हुए। यहां से प्रदर्शनकारियों ने सीएम के ड्रीमलैंड कॉलोनी में स्थित सीएम आवास की तरफ कूच किया। प्रदर्शनकारियों को रोकने के लिए सीएम आवास के बाहर चार जिलों का पुलिस बल तैनात था और जबर्दस्त बैरिकेडिंग की गई थी।

सीएम आवास के बाहर पहुंचते ही पुलिस और प्रदर्शनकारियों में झड़प और धक्कामुक्की होने लगी। प्रदर्शनकारियों को तितर बितर करने के लिए पुलिस ने लाठियां भांजी और उन्हें पीछे धकेल किया। इस लाठीचार्ज और धक्कामुक्की में कई प्रदर्शनकारियों की पगड़ी गिर गई, महिलाओं की चुन्नियां खींच ली गईं और कई लोगों को चोटें आईं। इससे नाराज प्रदर्शनकारी सड़क पर ही बैठ गए और सरकार के खिलाफ नारेबाजी करने लगे।

मुकेश ने बताया कि प्रदर्शनकारियों को उग्र होता देखा प्रशासन ने आधा घंटे का समय मांगा। आधा घंटे बाद प्रशासन ने एक लेटर देते हुए कहा कि 21 दिसंबर को दोपहर 11 बजे मुख्यमंत्री से किसानों व मजदूरों की बैठक तय की गई है। मुकेश ने बताया कि मुख्यमंत्री से समय मिलने के बाद प्रदर्शनकारियों ने अपना प्रदर्शन खत्म कर दिया।

हालांकि मुकेश यह भी बताते हैं कि मुख्यमंत्री इससे पहले भी कई बार मीटिंग का समय दे चुके हैं लेकिन हर बार मीटिंग से भाग जाते हैं। उन्होंने कहा कि अगर इस बार मुख्यमंत्री ने ऐसा करने की कोशिश की तो सरकार के खिलाफ बड़े पैमाने पर आंदोलन छेड़ा जाएगा। मुकेश सरकार पर निशाना साधते हुए कहते हैं, “सरकार ने बदलाव का जो मुखौटा पहना था, वह उतर गया है। पहले की और मौजूदा सरकार में कोई अंतर नहीं है।”

मजदूरों की प्रमुख है कि उन्हें मनरेगा के तहत साल भर काम दिया जाए और न्यूनतम मजदूरी 700 रुपए निर्धारित की जाए। साथ ही पंचायत भूमि (शामलात) का तीसरा हिस्सा दलित समुदाय को कम दर पर देना सुनिश्चित किया जाए। शामलात के लिए होने वाली डमी बोलियों को खारिज किया जाए और इस समस्या को स्थायी रूप से हल किया जाए।

भूमिहीन दलित मजदूरों की एक अहम मांग यह भी है कि जरूरतमंदों को 10-10 मरले का प्लॉट दिया जाए और घर बनाने के लिए 5 लाख रुपए का अनुदान दिया जाए, पहले से काटे गए भूखंडों पर तुरंत कब्जा दिया जाए, जिन गांवों की पंचायतों ने भूखंड के लिए प्रस्ताव पास किया है और अब तक उसे लागू नहीं किया है, उनके खिलाफ कार्रवाई की जाए।

मजूदरों की ऐसी लगभग 30 मांगें हैं। मुकेश कहते हैं कि सरकार पहले ही बहुत सी मांगों को मान चुकी है, लेकिन उन्हें लागू करने की दिशा में अब तक कोई कदम नहीं उठाए गए हैं। सरकार का यह रवैया अब नहीं चलेगा।

साभार: डाउन टू अर्थ

पंजाब के खेत मजदूरों को अपने मुख्यमंत्री से मिलने के लिए करना पड़ा दो दिन प्रदर्शन

पंजाब के संगरूर और मानसा जिले के लगभग 3000 खेत मजदूरों ने 29 मई को संगरूर में पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान के घर का घेराव किया. मजदूर अपनी मांगों को लेकर मुख्यमंत्री से मिलने के लिए आए थे. क्रांतिकारी पेंडु(देहाति) मजदूर यूनियन के आह्वान पर मजदूरों ने 29 मई को सुबह ही मुख्यमंत्री के घर के बाहर नारेबाजी शुरू कर दी. जब कोई मिलने नहीं आया तो 12 बजे मुख्यमंत्री के घर के बाहर ही स्टेज लगाकर अपना कार्यक्रम शुरू कर दिया.

स्थाई मोर्चा लगता देख करीब 4 बजे अधिकारी, मजदूरों से मिलने स्टेज पर ही आए. मुख्यमंत्री से मुलाक़ात करवाने का आश्वासन मजदूर नेताओं को दिया. एक सरकारी चिट्ठी भी दी जिसमें लिखा हुआ था कि 13 जून को मजदूर नेताओं की मुख्यमंत्री से मुलाक़ात कारवाई जाएगी. इस आश्वासन पर मजदूरों ने धरना खत्म कर दिया.

मुख्यमंत्री से मिलने के लिए पास की जरूरत होती है. 30 मई को जब मजदूर नेता पास लेने के लिए दोबारा अधिकारियों से मिले. अधिकारी मुख्यमंत्री से मिलवाने वाली बात से मुकर गए. मजदूर नेताओं को लगा कि उनके साथ धोखा हुआ है. उसी समय आस पास के मजदूरों को संगरूर पहुंचने का आह्वान नेताओं की ओर से किया गया. इसके बाद मजदूरों ने शाम को 6 बजे ही फिर से धरना शुरू कर दिया. इस दौरान उनकी वहां मौजूद पुलिस से हाथापाई भी हुई. करीब 6 घंटे चले इस संघर्ष के बाद रात को 12 बजे अधिकारी मजदूरों से फिर मिले. इस बार मुख्यमंत्री से मिलने का पास मजदूर नेताओं को दिया. मजदूर नेताओं की मुख्यमंत्री से मुलाक़ात 7 जून को होगी.

यूनियन के प्रवक्ता प्रगट कला झार ने बताया कि वो 7 जून को मुख्यमंत्री से मिलकर मजदूरों की समस्याओं के बारे में बात करेंगे.

यह हैं मजदूरों की मुख्य मांग

  1. धान की लवाई 6 हजार रुपए प्रति एकड़ की जाए.
  2. मजदूर की दिहाड़ी 700 रुपए की जाए.
  3. गांव के मजदूरों के सामाजिक बहिष्कार के प्रस्ताव पारित करने वाले चौधरियों के खिलाफ SC/ST एक्ट के तहत केस दर्ज किया जाए.
  4. धान की सीधी बिजाइ से मजदूरों के खत्म हुए रोजगार की भरपाई की जाए.
  5. पंचायती जमीन के तीसरे हिस्से को दलित मजदूरों को कम रेट पर देना यकीनी (पुख्ता) बनाया जाए. डमी बोली लेने और देने वाले पर कार्यवाही की जाए और रिजर्व कोटे वाली जमीन की बोली दलित चौपाल में लगवाई जाए.
  6. भूमि सुधार कानून लागू करके बची हुई जमीन बेजमीने किसान और खेत मजदूरों को दी जाए.
  7. जरूरतमंद मजदूर परिवारों को 10-10 मरले के प्लाट, घर बनाने के लिए 5 लाख रुपए और कूड़ा डालने की जगह दी जाए.
  8. नजूल ज़मीनों का मालकाना हक मजदूरों को दिया जाए.
  9. बेजमीने मजदूरों पर चढ़े माइक्रोफ़ाइनेंस, सरकारी और गैर सरकारी कंपनियों के कर्जों को माफ किया जाए, मजदूरों को बैंकों से कम ब्याज दर पर और लंबे समय के लिए बिना गारंटी का कर्ज दिया जाए.
  10. डीपो सिस्टम को सुचारु बनाया जाए और जरूरत की सारी चीज़ें सस्ते रेट पर दी जाए.
  11. बेजमीने खेत मजदूरों को सहकारी समितियों का सदस्य बनाया जाए और सब्सिडी के तहत कर्ज दिए जाए.
  12. मोदी सरकार द्वारा किए गए श्रम कानूनों में संशोधन को रद्द करवाने के लिए विधानसभा में प्रस्ताव पारित किया जाए.
  13. मनरेगा के तहत पूरे परिवार को पूरे साल काम दिया जाए, दिहाड़ी 600 रुपए की जाए और धांधली करने वाले अधिकारियों पर जरूरी कार्यवाही की जाए.
  14. बेजमीने मजदूरों के लिए पक्के रोजगार का प्रबंध किया जाए और सरकारी संस्थानों का निजीकरण बंद किया जाए.
  15. खेत मजदूरों के बकाया बिजली के बिल माफ किए जाए और बकाया बिल की वजह से उखाड़े गए बिजली के मीटर वापस लगाए जाए.
  16. विधवा, बुढ़ापा और विकलांग पेंशन 5000 रुपए की जाए और बुढ़ापा पेंशन की उम्र महिलाओं की 55 और पुरुषों की 58 साल की जाए.
  17. संघर्षों के दौरान मजदूरों और किसानों पर दर्ज किए गए केस वापस लिए जाए.
    नोट : नजूल जमीन: जो जमीन 1956 में दलितों को दी गई, जिसमें बरानी, सरप्लस, खाली पड़ी जमीन और जिनके मालिक माइग्रेट कर गए थे, उसको नजूल कहा गया.

चौधरी चरण सिंह – असली भारत की सबसे बुलंद आवाज

भारत के महान नायक पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह की आज पुण्यतिथि है। उनके जन्मदिवस 23 दिसंबर को हर साल किसान दिवस के रूप में किसान भी मनाते हैं और सरकार भी।
यह सिलसिला 1978 में चौधरी साहब के जन्म दिन पर बोट क्लब पर हुए किसानों के विशाल जमावड़े से आरंभ हुआ। उस दिन को भारत के किसान जागरण के इतिहास में काफी अहम माना जाता है। वैसे तो किसानों के हक में कई नेताओं ने कई अहम फैसले किए लेकिन चौधरी साहब इन सबसे अलग रहे क्योंकि जीवन भर किसानों का कल्याण उनके एजेंडे में रहा। ग्रामीण भारत के कायाकल्प में उनकी ओर से की गयी कोशिशें आज के भारत को खड़ा करने में काफी अहम और कारगर रही हैं।

चौधरी चरण सिंह का जन्म 23 दिसंबर, 1902 को गाजियाबाद के नूरपुर गांव में एक छोटे शील किसान परिवार में हुआ। यह गांव आज के हापुड़ जिला मुख्यालय के पास बाबूगढ़ छावनी के समीप है। जब उनकी उम्र महज छह साल की थी तो पिता चौधरी मीर सिंह मेरठ के पास जानीखुर्द गांव में बस गए। वहीं बालक चरण सिंह ने प्राइमरी की पढ़ाई की। फिर मेरठ जाकर हाईस्कूल की परीक्षा दी। इस बीच पिता अपने चार भाइयों के साथ हापुड़ के पास भदौला गांव में आ बसे। चौधरी साहब का परिवार क्रांतिकारी पृष्ठभूमि का था और उनके पितामह बादाम सिंह 1857 की क्रांति के महान नायक बल्लभगढ़ के राजा नाहर सिंह के काफी करीबी सहयोगी थे। जब बल्लभगढ़ अंग्रेजों के कब्जे में आ गया तो उनका परिवार पहले बुलंदशहर, फिर नूरपुर गांव पहुंचा था। काफी कष्टों में जीवन बिताया।

चौधरी साहब मेरठ में स्कूली शिक्षा हासिल करने के बाद उच्च शिक्षा के लिए आगरा कालेज, आगरा गए और 1923 में स्नातक बनने के बाद 1925 में इतिहास में एमए किया और उसी साल विवाह बंधन में भी बंध गए। 1927 में मेरठ कालेज से कानून की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की 1928 में गाजियाबाद में वकालत शुरू कर दी। उनकी वकालत चल निकली। लेकिन उस दौरान वे आजादी के आंदोलन में कूद गए और राजनीतिक और सामाजिक जीवन में ऐसी व्यस्तता बढ़ी कि वकालत छोड़ने का फैसला कर लिया। 1929 में ही कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में हुए पूर्ण स्वराज्य के उद्घोष से प्रभावित युवा चरण सिंह ने गाजियाबाद में कांग्रेस कमेटी का गठन किया। 1930 में महात्मा गाँधी के आह्वान पर हिंडन नदी पर नमक बना कर कानून तोड़ा और छह माह की सजा हुई। 1940 के व्यक्तिगत सत्याग्रह में भी वे गिरफ्तार हुए तो अक्तूबर 1941 में मुक्त हो सके। 1942 में चरण सिंह ने भूमिगत रह कर गाजियाहाद, मेरठ, सरधना और बुलंदशहर के गांवों में गुप्त क्रांतिकारी संगठन तैयार किया। उनके नाम का अंग्रेजों में इतना आतंक हो गया था कि मेरठ प्रशासन ने उनको देखते ही गोली मारने का आदेश दे रखा था।

तीस के दशक में उनका राजनीतिक जीवन मेरठ जिला परिषद की सदस्यता से आरंभ हुआ। 1937 में वे विधान सभा के सदस्य बने और उसके बाद पीछे मुड़ कर नहीं देखा। विधायक बनने के बाद से चौधरी साहब के एजेंडे पर किसानों का कल्याण रहा। किसानों के हित में उन्होंने लगातार काम किया। 1939 में ऋण निर्मोचन विधेयक पास करा कर चौधरी साहब ने लाखों गरीब किसानों को कर्जे से मुक्ति दिलायी। इसी साल निजी सदस्यों के संकल्प के तहत उन्होंने कृषि उत्पादन मंडी विधेयक पेश किया, जिसमें किसानों को बिचौलियों के मुक्त करा कर वाजिब दाम दिलाने का प्रावधान था। इसी मसले पर उन्होंने 31 मार्च और 1 अप्रैल, 1932 को हिंदुस्तान टाइम्स में एग्रीकल्चर मार्केटिंग पर अनूठा लेख लिखा, जिसकी देश भर में चर्चा हुई। उनके सुझावों को कई सरकारों ने क्रियान्वित किया। इसमें पहला राज्य पंजाब था उत्तर प्रदेश सरकार ने भी इसे स्वीकारा लेकिन देर से। अपने राजनीति के आरंभ से ही चौधरी साहब सरदार वल्लभ भाई पटेल और गोविदं वल्लभ पंत के काफी प्रिय रहे।

यह श्रेय चौधरी साहब को ही जाता है कि उन्होंने देश में सबसे बेहतरीन जमींदारी उन्मूलन कानून पारित कराया। 1952 में भूमि सुधार और जमींदारी उन्मूलन कानून पारित होने के बाद चकबंदी कानून और 1954 में भूमि संरक्षण कानून बनवाया जिससे वैज्ञानिक खेती और भूमि संरक्षण को मदद मिली। चौधरी साहब की कई मसलों पर अलग सोच थी और वे अपने विचारों के प्रति अडिग रहे। वे जातिवाद के कट्टर विरोधी थे और उनके प्रयासों का असर था कि 1948 में उत्तर प्रदेश में राजस्व विभाग ने सरकारी कागजों में जोत मालिकों की जाति नहीं लिखने का फैसला लिया। उन्होंने गोविंद बल्लभ पंत को पत्र लिख 1948 में मांग की थी कि अगर शैक्षिक संस्थाओं के नाम से जातिसूचक शब्द नहीं हटाए जाते तो उऩका अनुदान बंद कर दिया जाये। हालांकि यह मसला टलता रहा लेकिन जब वे 1967 में खुद मुख्यमंत्री बने सरकारी अनुदान लेने वाली शिक्षा और सामाजिक संस्थाओं को अपने नामों के आगे से जातिसूचक शब्द हटाने पड़े। इसकी चपेट में सबसे अधिक जाटों और राजपूतों की संस्थाएं आयीं, फिर भी उन्होंने ऐसा किया।

चौधरी साहब का पूरा जीवन पारदर्शी रहा और उनके व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में कोई अंतर नही था। वे जिस पद पर वे रहे एक मानक स्थापित किया। वे साहसी इस कदर थे उस दौर में पंडित जवाहर लाल नेहरू का विरोध किया जब उनकी तूती बोलती थी। चौधरी साहब सहकारी खेती के रूसी माडल के सख्त खिलाफ थे। 1959 में नागपुर कांग्रेस अधिवेशन में चौधरी साहब ने उनके सहकारी खेती के प्रस्ताव का खुला विरोध कर भारत के संदर्भ में इसे एकदम अव्यावहारिक करार दिया। हालांकि यह प्रस्ताव पास हो गया था लेकिन पंडित नेहरू ने समझ लिया कि इसे आगे बढ़ाना नए विवादों का जन्म देना होगा, लिहाजा आगे उन्होंने इसमें रुचि नहीं ली।

राष्ट्रीय नेता तो चौधरी साहब उत्तर प्रदेश में ही बन गए थे लेकिन केंद्रीय राजनीति में वे पहली बार 1977 में आए। जनता पार्टी को बनाने में उनका ही आधार और किसान शक्ति सबसे अधिक काम आयी। जनता पार्टी के नेताओं, जिसमें आज की भाजपा और तबका जनसंघ भी शामिल था उसने चौधरी चरण सिंह की पार्टी के चुनाव चिह्न पर ही लोकसभा चुनाव लड़ा था। लेकिन बड़े आधार के बावजूद चौधरी साहब की जगह मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने। चौधरी साहब इस सरकार में केंद्रीय गृह मंत्री बने। लेकिन उनकी मोरारजी से नहीं पटी क्योंकि उनका किसान एजेंडा मोरारजी को नापसंद था। फिर भी चौधरी साहब के कारण जनता पार्टी के चुनाव घोषणा पत्र में कृषि को सबसे अधिक प्राथमिकता और किसानों को उपज के वाजिब दाम का भी वायदा किया गया। गांव के लोहार और बुनकर से लेकर कुम्हारों औऱ अन्य कारीगरों को उत्थान का खाका भी बुना गया। 1979 में वित्त मंत्री और उप प्रधानमंत्री रहने के दौरान उन्होंने राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) की स्थापना करायी और किसानों के हित में कई कदम उठाए। कृषि जिंसों की अन्तर्राज्यीय आवाजाही पर लगी रोक हटा दी। वे प्रधानमंत्री बने तो ग्रामीण पुनरूत्थान मंत्रालय की स्थापना भी की।

चौधरी चरण सिंह ने खुद अपना मतदाता वर्ग खुद तैयार किया। उत्तर भारत में किसान जागरण किया और उनको अपने अधिकारों के लिए खड़ा होना सिखाया। किसानों के चंदे से ही उनकी राजनीति चलती थी। बैल से खेती करने वाले किसान के लिए चंदे की दर एक रुपया और ट्रैक्टर वाले किसान से 11 रुपए उऩ्होंने तय की थी। कभी बड़े उद्योगपतियों से पैसा नहीं लेने का उनका संक्ल्प था और उन्होंने दिशानिर्देश बना रखा था कि अगर यह साबित हुआ कि उनके किसी सांसद-विधायक ने पूंजीपतियों से चंदा लिया है तो उसे दल छोड़ना पड़ेगा। वे जीवन भर ईमानदारी और सादगी से रहे। मंत्री रहे तो बच्चे पैदल या साइकिल से स्कूल जाते थे।

चौधरी चरण सिंह समाज सुधारक, अर्थशास्त्री, यथार्थवादी दृष्टा और विचारक होने के साथ स्वाधीनता सेनानी थे। व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों के धनी चौधरी साहब की कथनी और करनी में भेद नही था। उन्होंने गांधीजी के ग्राम स्वराज्य के स्वप्न को मूर्तरूप देने के लिए रोजी-रोटी, कपड़ा, शिक्षा और मकान के साथ स्वास्थ्य जैसी जरूरतों को हमेशा प्रमुखता दी। गांव और गरीब के भूगोल को बखूबी जानने के नाते वे आजीवन उसके प्रवक्ता बने रहे और उनके उत्थान के लिए जीवन भर लड़ते रहे।

अगर बारीकी से देखें तो पता चलता है कि उनकी सर्वोच्च सत्ताओं की उम्र बहुत कम रही है। पहली बार वे मुख्यमंत्री बने तो महज 11 महीने की सत्ता थी, जबकि दूसरी बार आठ महीने की। प्रधानमंत्री के रूप में उनको केवल 170 दिन मिले। फिर भी इन सीमित समयों में भी उन्होंने यथासंभव बेहतर काम करने की कोशिश की। चौधरी साहब ने हमेशा धारा के खिलाफ एक अनूठी और जनहितैषी राजनीति की। खास तौर पर ग्रामीण भारत पर जो ठोस और मौलिक सोच दी, इस नाते वे कभी भी राजनीतिक धारा से अप्रासंगिक नहीं हो सके।

चौधरी साहब के भीतर गांव और किसान हमेशा बसा रहा। वे कहते थे कि मेरे संस्कार उस गरीब किसान के संस्कार हैं, जो धूल, कीचड़ और छप्परनुमा झोपड़ी में रहता है। वे हमेशा इस बात को सगर्व कहते थे कि उनका संबंध एक छोटे किसान परिवार से है। चौधरी साहब कई पुस्तकों के लेखक हैं जिनको पढ़े बिना ग्रामीण भारत को समझा नहीं जा सकता। किसान जागरण के लिए ही उन्होंने 13 अक्तूबर 1979 से असली भारत साप्ताहिक अखबार शुरू किया था। कई बार उनसे मिलने गांवों के लोग आते तो वे उनसे कहते थे कि किराये पर इतना पैसा खर्च करने की जगह यही बात एक पोस्टकार्ड पर लिख देते तो तुम्हारा काम हो जाता। आज जो जागृत किसान खड़ा है, उसका आधार चौधरी चरण चरण सिंह ने ही तैयार किया था।

हरियाणा: देहातियों की जमीनों के पैसे डकारती अफसरशाही!

हरियाणा में ग्राम पंचायतों की जमीन से होने वाली करोड़ों रुपए की कमाई में हेराफेरी का मामला सामने आया है. पंचायतों की आय तो हुई लेकिन यह पैसा पंचायत खाते में जमा करवाने की बजाय अफसरों ने ही आपस में बाँट लिया. राज्य के बाढ़डा, भिवानी, पलवल, दादरी सहित दर्जनों ब्लॉक में इस तरह की घटना हुई हैं. अब पूरे प्रदेश में इसकी जांच होगी. सभी ब्लॉक से पंचायती जमीनों और इनसे होने वाली सालाना आय का रिकार्ड विकास एवं पंचायत मंत्री ने अपने ऑफिस में मंगवाया है.

ग्राम पंचायतों की आय का बड़ा हिस्सा पंचायती जमीनों से आता है. पंचायती जमीनों को हर साल खेती के लिए ठेके पर दिया जाता है. प्रदेश में ठेके के रेट अलग-अलग एरिया और जमीन के हिसाब से अलग-अलग हैं. सोनीपत में ठेके का रेट प्रति एकड़ सालाना 30 से 50 हजार है. जीटी रोड बेल्ट पर यह 50 से 70 हजार और अहीरवाल एरिया में 15 से 30 हजार रुपये तक है. जिस एरिया में पानी का पूरा प्रबंध है और सालाना दो से तीन फसलें ली जा सकती हैं, वहां रेट काफी अधिक है. यह ठेका बोली के जरिए छोड़ा जाता है.

नियमों के हिसाब से ठेकों से आने वाला पैसा पंचायतों के खातों में जमा होना चाहिए. सैकड़ों की संख्या में ग्राम पंचायतें ऐसी हैं, जिनकी जमीन तो ठेके पर दी गई लेकिन पैसा उनके खाते में नहीं आया. आरोप है कि यह पैसा अफसर लोग ही जीम (डकार) गए. इससे जुड़ी हुई काफी संख्या में शिकायतें चंडीगढ़ पहुंची हैं. विकास एवं पंचायत मंत्री देवेंद्र सिंह बबली ने नोटिस लेते हुए पूरे प्रदेश का रिकार्ड मंगवाया है. पंचायतों को जमीन के अलावा भी जो आय हुई है उसका ब्योरा और बैंक खातों का ब्योरा भी मंत्री ने मांगा है.

इससे पहले भी पंचायत विभाग में कई घोटाले सामने आए हैं. पिछले महीने पलवल जिले में 25 करोड़ रुपये से अधिक के गबन का मामला सामने आ चुका है. यहां विकास कार्यों के लिए 60 करोड़ रुपये के करीब खर्च किए गए. इसमें से 30 से 40 प्रतिशत ऐसे काम हैं, जो ग्राउंड पर हुए ही नहीं. कागजों में काम दिखाए गए और बिल पास करके अधिकारियों ने पैसे हजम कर लिए.

पंचायत मंत्री ने इस मामले में दर्जन अधिकारियों व कर्मचारियों पर एफआईआर दर्ज करवाई है. एक ओर केस दर्ज करवाने की तैयारी विभाग की ओर से चल रही है ताकि संबंधित अधिकारियों व कर्मचारियों से गबन किए गए पैसे की रिकवरी हो सके. मुख्यमंत्री कार्यालय के संज्ञान में आने के बाद इसकी जांच पलवल के ए.डी.सी. को सौंप दी गई. मंत्रालय ने इस पर नाराज़गी जताते हुए अधिकारियों से पूछा है कि यह फैसला किस स्तर पर और किन नियमों के तहत लिया गया. मंत्रालय इस मामले की जांच विजीलैंस से करवाना चाहते हैं.

इसके अलावा मनरेगा कार्यों में भी घोटाला हुआ है. अधिकारियों और ग्राम सचिवों ने सरपंचों के साथ मिलकर आर्थिक तौर पर मजबूत और अपने यारे प्यारों के जॉब कार्ड बनाए. मनरेगा का काम पास किया गया. यह काम हकीकत की बजाय सिर्फ कागजों में हुआ. इस काम के पैसे अधिकारियों, ग्राम सचिवों और सरपंचों ने आपस में बाँट लिए. इस मामले की भी जांच अभी चल रही है.

इसी तरह की एक घटना कैथल के पंचायत विभाग में भी सामने आई. कैथल में सफाई का ठेका विभाग की तरफ से एक कंपनी को दिया गया. इस ठेके में 5 करोड़ से अधिक का घोटाला सामने आया है.

सिरसा में पौने चार करोड़ का स्ट्रीट लाइट घोटाला और हिसार व भिवानी जिले में भी विकास कार्यों में करोड़ों रुपये के घोटाले हुए हैं. भिवानी के नगर परिषद के अनेकों कर्मचारियों को तो जेल में जाना पड़ा है.

इस सब पर विकास एवं पंचायत मंत्री, देवेंदर सिंह बबली ने मीडिया को बताया, “मैंने अधिकारियों को कह दिया था कि विभाग में धांधली नहीं चलेगी. सिस्टम में 10 प्रतिशत लोग भ्रष्ट हैं, जो पूरे विभाग को बदनाम कर रहे हैं. पंचायत विभाग में ‘ऑपरेशन क्लीन’ शुरू हो चुका है. मुख्यमंत्री के निर्देशों पर विभाग को चुस्त-दुरुस्त किया जाएगा. पंचायती जमीनों की बोली के पैसों में धांधली सामने आई है. पूरे प्रदेश का रिकार्ड तलब किया है. इसकी जांच होगी और दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा.”

गेंहूँ के बाद अब चीनी के निर्यात पर लगी रोक

दहाई के करीब पहुंचती खुदरा महंगाई दर से घबराई सरकार कीमतों पर नियंत्रण के लिए अतिरिक्त सावधानी बरतने के मोड में चली गई है. इसके चलते गेहूं के निर्यात पर अचानक प्रतिबंध लगाने के 11 दिन बाद चीनी के निर्यात को नियंत्रित करने का फैसला ले लिया गया है. हालांकि चीनी निर्यात पर पूरी तरह रोक नहीं लगाई गई है, इसे फ्री से रेस्ट्रिक्टिड श्रेणी में डाल दिया गया है. वहीं यूरोपीय यूनियन (ईयू), अमेरिका और टैरिफ रेट कोटा (टीआरक्यू) के तहत होने वाले निर्यात पर कोई रेस्ट्रिक्शन नहीं है. वाणिज्य मंत्रालय ने 24 मई को इस संबंध में नोटिफिकेशन जारी करते हुए कहा कि निर्यात के संबंध में खाद्य मंत्रालय के तहत आने वाला डायरेक्टरेट ऑफ शुगर इस संबंध में दिशानिर्देश जारी करेगा. चीनी निर्यात पर यह अंकुश 1 जून से 31 अक्टूबर 2022 तक जारी रहेगा. हालांकि घरेलू बाजार में चीनी की कीमतों में कोई अप्रत्याशित बढ़ोतरी हाल के दिनों में नहीं हुई है. 25 मई को महाराष्ट्र में चीनी के एस ग्रेड की कीमत 3220 रुपये से 3250 रुपये प्रति क्विटंल के बीच रही है.

चीनी निर्यात को मुक्त से रेट्रिक्टिड में डालने की वजह घरेलू बाजार में चीनी की कीमतों को नियंत्रित रखना बताया गया है. गेहूं के निर्यात पर प्रतिबंध लगाने के समय भी यही कहा गया था. लेकिन यह दिलचस्प बात है कि चीनी के उत्पादन से लेकर इसकी बिक्री तक पूरी तरह से सरकार के नियमन में होता है. ऐसे में इसके उत्पादन, स्टॉक और बिक्री के सटीक आंकड़े सरकार के पास होते हैं जो गेहूं में संभव नहीं है. ऐसे में चालू पेराई सीजन (अक्तूबर, 2021 से सितंबर, 2022) में रिकॉर्ड 350 लाख टन चीनी उत्पादन को देखते हुए सरकार का यह फैसला चौंकाने वाला है. क्योंकि देश में चीनी की खपत करीब 270 लाख टन ही होती है. ऐसे में करीब 80 लाख टन का चीनी उत्पादन अतिरिक्त है. जबकि एक अक्तूबर, 2021 को पिछले सीजन का 85 लाख टन चीनी पिछले साल की बकाया स्टॉक था. इस स्थिति में 100 लाख टन की निर्यात सीमा जैसा कदम सामान्य नहीं माना जा सकता.

पिछले सीजन के पहले तक सरकार चीनी निर्यात पर सब्सिडी दे रही थी ताकि चीनी मिलें गन्ना किसानों को बकाया का भुगतान कर सकें. उस समय घरेलू और अंतरराष्ट्रीय बाजार में चीनी की कीमतें काफी नीचे थीं. उस स्थिति सुधारने के लिए सरकार ने घरेलू बाजार में कीमतों में भारी गिरावट को रोकने के लिए चीनी पर मिनिमम सेल प्राइस (एमएसपी) की व्यवस्था लागू कर दी थी, जिसे पिछले साल बढ़ाया भी गया था. वहीं अंतरराष्ट्रीय बाजार में चीनी की कीमतों के बढ़ने के चलते देश से चीनी का निर्यात काफी तेजी से बढ़ा. इसकी वजह पिछले साल थाइलैंड और ब्राजील में चीनी उत्पादन में कमी आना रहा है.

चीनी मिलों को पत्र में बताए नए दिशानिर्देश

डायरेक्टरेट ऑफ शुगर ने भी चीनी मिलों को पत्र लिखा है जिसमें मौजूदा स्थिति के साथ चीनी निर्यात की शर्तें भी बताई गई हैं. पत्र में कहा गया है कि मौजूदा चीनी सीजन 2021-22 में 100 लाख टन चीनी निर्यात की अनुमति होगी. अभी तक 90 लाख टन चीनी निर्यात के सौदे हुए हैं. इसमें से मिलों ने 82 लाख टन चीनी निर्यात के लिए डिस्पैच कर दिया है और अब तक लगभग 78 लाख टन चीनी का निर्यात किया जा चुका है जो अब तक का रिकॉर्ड है. चीनी सीजन 2017-18, 2018-19, 2019-20 और 2020-21 में क्रमशः 6.2 लाख टन, 38 लाख टन, 59.60 लाख टन और 70 लाख टन चीनी का निर्यात हुआ था.
पत्र में कहा गया है कि सभी चीनी मिलों को निर्यात के लिए डिस्पैच की जाने वाली चीनी का विवरण रोजाना डायरेक्टरेट के पोर्टल पर देना होगा. मई के अंत तक डिस्पैच की पूरी रिपोर्ट 1 जून को [email protected] अथवा [email protected] पर भेजनी पड़ेगी. यह विवरण न देने पर निर्यात के लिए रिलीज ऑर्डर के आवेदन पर विचार नहीं किया जाएगा. मिलों को 1 जून से निर्यात या डीम्ड निर्यात के लिए चीनी डिस्पैच की मंजूरी के लिए आवेदन करना पड़ेगा.

निर्यात रिलीज ऑर्डर (ईआरओ) के लिए चीनी मिलों को नेशनल सिंगल विंडो सिस्टम (एनएसडब्लूएस) पोर्टल पर आवेदन करना होगा. इसे ईमेल से भी भेजा जा सकता है. आवेदन के साथ निर्यातक के साथ कॉन्ट्रैक्ट/सेल-परचेज एग्रीमेंट अथवा विदेशी खरीदार को सीधे निर्यात के कॉन्ट्रैक्ट/सेल-परचेज एग्रीमेंट की प्रति देनी पड़ेगी. मंजूरी मिलने के 30 दिन के भीतर मिल को चीनी डिस्पैच करना पड़ेगा. निर्यात के लिए मंजूर की जाने वाली मात्रा घरेलू बिक्री के लिए प्रति माह रिलीज की जाने वाली चीनी से अलग होगी. घरेलू बिक्री के लिए जारी की जाने वाली चीनी को निर्यात के लिए नहीं भेजा जा सकेगा.

चीनी निर्यातकों को भी पत्र, 90 दिनों तक मान्य होगा रिलीज ऑर्डर

डायरेक्टरेट ऑफ शुगर ने चीनी निर्यातकों को भी एक पत्र लिखा है. इसमें कहा गया है कि 31 मई तक चीनी निर्यात की अनुमति है, लेकिन 1 जून से घरेलू बाजार में चीनी की पर्याप्त उपलब्धता का ध्यान रखने के बाद ही निर्यात रिलीज ऑर्डर जारी किए जाएंगे. अगर पुराने निर्यात सौदे के लिए शिपिंग बिल फाइल कर दी गई है, जहाज भारतीय बंदरगाह पर आ गया है और 31 मई तक जहाज को रोटेशन नंबर एलॉट किया जा चुका है तो उस जहाज में चीनी का लदान करने और निर्यात करने की इजाजत होगी. उसके लिए अलग से मंजूरी अथवा रिलीज ऑर्डर लेने की आवश्यकता नहीं होगी. लेकिन 1 जून से 31 अक्टूबर 2022 तक निर्यातकों को आवेदन के बाद रिलीज ऑर्डर जारी किए जाएंगे.

डायरेक्टरेट ऑफ शुगर से निर्यात रिलीज ऑर्डर प्राप्त करने के लिए नेशनल सिंगल विंडो सिस्टम (एनएसडब्लूएस) पर आवेदन करना होगा. आवेदन [email protected] पर ईमेल के जरिए भी भेजा जा सकता है. रिलीज ऑर्डर अधिकतम 90 दिनों के लिए मान्य होगा.

साभार: rural voice

(हरवीर सिंह रूरल वॉइस के एडिटर हैं. उनका भारत की खेतीबाड़ी और ग्रामीण पत्रकारिता में महत्वपूर्ण स्थान है.)

‘786’ लिखा देख काटे गए हाथ, झूठे मुक़दमे में फंसे, डेढ़ साल बाद हुए बरी. अख़लाक़ सलमानी की पूरी कहानी

20 मई को, पानीपत की एक फास्ट-ट्रैक ट्रायल कोर्ट ने अखलाक सलमानी को बाल यौन उत्पीड़न और अपहरण से संबंधित आरोपों से बरी कर दिया. उसके खिलाफ एफआईआर तब दर्ज की गई जब दो नशे में धुत्त लोगों ने कथित तौर पर उसके साथ मारपीट की और उसे एक मुस्लिम होने के एहसास होने पर उसका दाया हाथ काट दिया जिस पर ‘786’ का टैटू बना हुआ था. अख़लाक़ पर भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की विभिन्न धाराओं और यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम (पोस्को) के तहत आरोप लगाए गए थे.

निचली अदालत के फैसले के अनुसार उन्होंने अख़लाक़ सलमानी पर लगे आरोपों को खारिज कर दिया और इसी के साथ अदालत ने पुलिस द्वारा की गई जांच में कई खामियों की ओर भी इशारा किया.

अदालत ने अपने फैसले में कहा कि अभियोजन पक्ष (आरोप लगाने वाले) के पूरे बयान पर छानबीन करना संभव नहीं है और विश्वसनीय सबूतों से इसकी पुष्टि नहीं की जा सकती है.

पोक्सो अदालत के न्यायाधीश सुखप्रीत सिंह ने एफआईआर दर्ज करने में देरी, अख़लाक़ की एफआईआर दर्ज होने के दिन ही उसके खिलाफ़ एफआईआर दर्ज होने पर शक, अख़लाक़ के खिलाफ ज़रूरी सबूत पेश करने में अभियोजन पक्ष की नाकामी और पीड़िता की ज़रूरी चिकित्सीय-कानूनी जांच की कमी का हवाला देते हुए अख़लाक़ सलमानी के खिलाफ़ सभी आरोपों से उसे बरी कर दिया.

आदेश ने शिकायतकर्ता द्वारा शिकायत दर्ज करने में लंबे समय तक देरी पर भी सवाल उठाया और कहा कि इसे एफआईआर में शिकायत को पर्याप्त रूप से समझाया नहीं गया है.

आदेश में अदालत ने यह भी कहा कि अख़लाक़ वास्तव में शिकायतकर्ता पक्ष का शिकार बना है, जिसने पहले अख़लाक़ पर हमला किया और फिर उसे मरने के लिए छोड़ने से पहले एक आरा मशीन की मदद से उसका दाहिना हाथ काट दिया.

क्या हुआ था अख़लाक़ सलमानी के साथ?

उत्तर प्रदेश सहारनपुर का रहने वाला, पेशे से नाई, 28 वर्षीय अख़लाक़ सलमानी काम की तलाश में हरियाणा के पानीपत में आया था. 24 अगस्त की शाम वह थक हार कर पानीपत में किशनपुरा रेलवे लाइन के पास पार्क में बैठा जहां उस के साथ मारपीट हुई. नशे में धुत्त 2 लोगों ने अख़लाक़ को रात के डेढ़ बजे मारा पीटा और मशीन वाली आरी से उस का दाया हाथ काट दिया जहां उस ने ‘786’ का टैटू बनवाया हुआ था.

अखलाक ने बताया कि दो लोगों ने नशे की हालत में उस पर हमला किया, जब उन्होंने उसकी बांह पर ‘786’ का टैटू देखा था. अखलाक के परिवार ने आरोप लगाया कि यह एक सांप्रदायिक घृणा से जुड़ा अपराध था.

अख़लाक़ के हाथ काटने की यह घटना 24 अगस्त 2020 को हुई थी लेकिन इस की एफआईआर 7 सितम्बर 2020 को लिखी गई. एफआईआर दोनों पक्षों ने एक दुसरे के खिलाफ़ लिखवाई. अख़लाक़ ने उस के साथ हुए घटनाक्रम को बताते हुए चांदनी बाग पुलिस थाने में आरोपियों के खिलाफ़ एफआईआर लिखवाई तो दुसरी ओर आरोपित पक्ष ने भी अख़लाक़ के खिलाफ़ बाल यौन उत्पीड़न और अपहरण से जुड़े विभिन्न धाराओं और यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम (पोस्को) के तहत प्राथमिकी लिखवाई.

अख़लाक़ के खिलाफ़ हुई हिंसा के बावजूद उस पर लगे आरोपों के चलते उसे 1 साल से ऊपर जेल में सज़ा काटने को मजबूर होना पड़ा.

अदालत में अख़लाक़ का केस लड़ रहे वकील अकरम अख्तर ने बताया है कि पुलिस ने अभी तक अख़लाक़ के परिवार द्वारा दायर मामले में कार्यवाही शुरू नहीं की है. अकरम ने बताया कि “इस मामले में एक साथ दो प्राथमिकी दर्ज की गईं थी. जिस में से एक मामले में मुकदमा खत्म हो गया है जबकि दूसरे मामले में पुलिस ने अभी तक चार्जशीट तक दाखिल नहीं की है.”

ऑक्सफैम रिपोर्ट: गरीब निवाले को भी तरसे, पूंजीपति कोरोना महामारी में भरते रहे अपने धन के कोठे

क्या आप जानते हैं जिस समय पूरी दुनिया के लोग कोरोना महामारी की वजह से खाद्य संकट का सामना करने को मजबूर थे, उसी समय दुनिया भर के गिने चुने मुठ्ठी भर पूंजीपति अपनी संपत्ति दिन दुगनी और रात चौगुनी करने में लगे थे?
क्या आप जानते हैं कोरोना महामारी के दौर में जब दुनिया भर के गरीब, अति गरीब की श्रेणी में जाने के लिए मजबूर थे ठीक उसी समय औसतन हर 30 घंटे में एक नया अरबपति बन रहा था? क्या आप जानते हैं कि अरबपतियों की जितनी दौलत पिछले 23 साल में बढ़ी थी उतनी दौलत अरबपतियों ने पिछले सिर्फ 2 साल कोरोना महामारी के दौर में बढ़ा ली है?

कुछ ऐसे ही चौकाने वाले खुलासे में एक रिपोर्ट में प्रकाशित की गई है. हाल ही में स्विट्डरलैंड के दावोस में वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम (डब्ल्यूईएफ) की वार्षिक बैठक के मौके पर ऑक्सफैम इंटरनेशनल ने अपनी रिपोर्ट में ये चौकाने वाले खुलासे किए हैं. ऑक्सफैम ने ‘प्रॉफिटिंग फ्रॉम पेन ‘ यानि की ‘पीड़ा से लाभ’ शीर्षक से सोमवार 23 मई को यह रिपोर्ट जारी की है.

रिपोर्ट के मुताबिक अरबपतियों की जितनी दौलत पिछले 23 साल में बढ़ी थी उतनी दौलत अरबपतियों ने पिछले सिर्फ 2 साल में बढ़ा ली है.

महामारी के दौर में जब खाद्य संकट खड़ा हुआ तो कुछ कंपनियों ने इस अवसर का इस्तेमाल किया, खाद्य और ऊर्जा क्षेत्रों में अरबपतियों की संपत्ति में एक अरब डॉलर की वृद्धि हुई है. पिछले दो साल में खाद्य और ऊर्जा क्षेत्र में अरबपतियों की संपत्ति प्रति दो दिन में एक अरब डॉलर के हिसाब से बढ़ी है. खाद्य और ऊर्जा की कीमतें अब तक के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई है. जिसके परिणामस्वरूप 62 नए खाद्य अरबपति पैदा हुए हैं.

खाद्य क्षेत्र में सबसे ज्यादा मुनाफा सिर्फ दो कंपनियों ने कमाया है; कारगिल और वालमार्ट. कारगिल संपत्ति में 2020 से 65% बढ़ोत्तरी हुई है. इसकी संपत्ति में 15 करोड़ रुपए प्रतिदिन के हिसाब से बढ़ोत्तरी हुई है. वहीं वालमर्ट की संपत्ति लगभग 4 करोड़ प्रति घंटे के हिसाब से बढ़ी है.


संस्था ने अनुमान लगया है कि कोविड-19 के संकट, बढ़ती असमानता और खाद्य पदार्थों की बढ़ती कीमतों से 2022 में 26 करोड़ से भी ज्यादा लोग अत्यधिक गरीबी में जा सकते हैं. इसका मतलब है हर 33 घंटे में दस लाख लोग गरीबी में चले जाएंगे.

साथ ही इस अवधि के दौरान औसतन हर 30 घंटे में एक नया अरबपति बना है और इतने ही समय में दस लाख लोग अत्यधिक गरीबी में गए हैं. 2022 में दुनिया में अरबपतियों की संख्या बढ़कर 2,668 हो गई है, 2020 की तुलना में यह संख्या 573 अधिक है.

लिंग के आधार पर दिये जाने वाले वेतन में गैप और भी बढ़ा है. महिलाओं को पुरुषों के मुक़ाबले पहले ही कम वेतन मिलता था जो अब और भी कम हो गया है. महामारी से पहले इस गैप को भरने में 100 साल लगने का अनुमान था; अब इसमें 136 साल लगेंगे.

कम आय वाले देशों के लोग धनी देशों की जनता की तुलना में खाने पर अधिक खर्च करते हैं. यह अपनी आय का दोगुने से भी अधिक अपने खाने पर खर्च करते हैं.
ऑक्सफैम की रिपोर्ट के अनुसार कोविड महामारी के दौरान फार्मा से जुड़े 40 नए अरबपति बने हैं. मॉडर्ना और फाइजर जैसे फार्मास्युटिकल कॉरपोरेशन कोविड-19 वैक्सीन पर एकाधिकार से हर सेकंड 1,000 डॉलर का लाभ कमा रहे हैं. वे सरकार से जेनेरिक उत्पादन की संभावित लागत से 24 गुना अधिक शुल्क ले रहे हैं. कम आय वाले देशों में 87 प्रतिशत लोगों को अभी भी पूरी तरह से टीका नहीं लग पाया है.

रिपोर्ट में ऑक्सफैम ने दिए सुझाव
ऑक्सफेम ने अपनी रिपोर्ट ‘प्रॉफिटिंग फ्रॉम पेन ‘ यानि की ‘पीड़ा से लाभ’ में दुनिया की सभी सरकारों को सुझाव भी दिए हैं. जिसमें पहला यह है कि बढ़ती कीमतों का सामना करने वाले लोगों का समर्थन करने के लिए अरबपतियों पर एकमुश्त ‘एकजुटता कर’ लगाया जाए.

वहीं बड़े निगमों के अप्रत्याशित मुनाफे पर 90 प्रतिशत का ‘अस्थायी अतिरिक्त लाभ कर’ शुरू करके संकट से मुनाफाखोरी को खत्म करने का समय आ गया है.

ऑक्सफैम ने कहा कि करोड़पतियों पर सालाना दो प्रतिशत और अरबपतियों के लिए पांच प्रतिशत संपत्ति कर लगाने से हर साल 2.52 ट्रिलियन डॉलर जुटाए जा सकते हैं.

इन पैसों से 2.3 अरब लोगों को गरीबी से बाहर निकालने, दुनिया के लिए पर्याप्त टीके बनाने और गरीब देशों में लोगों के लिए सार्वभौमिक स्वास्थ्य देखभाल के लिए भुगतान करने में मदद मिलेगी.

करनाल घेराव: दैनिक जागरण के संपादकीय का दर्द और द हिंदू का सन्नाटा

हरियाणा के करनाल में 7 सितंबर को किसानों ने लाखों की संख्या में प्रदर्शन किया. किसान करनाल में 28 अगस्त को हुए लाठीचार्ज में मारे गए किसान सुशील काजल के परिवार को न्याय व मुआवजा दिलाने के लिए प्रदर्शन कर रहे थे. साथ ही एसडीएम जिनका किसानों के सर फोड़ने के आदेश देने का बयान सामने आया था, उनपर कार्यवाही करने के लिए भी दबाव बना रहे थे. किसानों के इस प्रदर्शन से पहले ही हरियाणा सरकार ने 7 सितंबर की रात तक करनाल समेत पांच जिलों का इंटरनेट बंद करने का आदेश दिया था. करनाल में बाद में इंटरनेट बंदी को 24 घंटों के लिए और बढ़ा दिया गया.

दैनिक भास्कर के हरियाणा संस्करण ने इस प्रदर्शन को प्रमुखता से कवर किया और फ्रंट पेज पर जगह देने के साथ ही लीड़ खबर भी बनाया.

इसके साथ ही पेज दो पर भी आधा पन्ना किसान प्रदर्शन के बारे में था.

वहीं दैनिक जागरण ने भी इसे लीड़ खबर तो बनाया, पर मांग पर अड़े किसान, किसानों ने सरकार पर भड़ास निकाली जैसे शब्दों का प्रयोग किया.

जागरण ने एक संपादकीय भी छापा जिसमें किसान आंदोलनों को राजनैतिक धरने, जिससे जनता परेशान हो रही है बताया गया. साथ ही सुप्रीम कोर्ट को इस स्थिति के लिए जिम्मेदार बताया गया.

जागरण के ही राजीव सचान ने संपादकीय पेज पर अपने कॉलम में किसान आंदोलन को लोगों की मुश्किलों को बढ़ाने वाला धरना बताया और इसे अन्याय की मिसाल बताया.

जागरण ने एक और संपादकीय में आंदोलनकारियों से अपील की कि वो ऐसे उपद्रव न करें जिससे पुलिस को विवशता में बलप्रयोग करना पड़े.

पंजाब केसरी के हरियाणा संस्करण ने किसान आंदोलन को पेज चार पर स्थान दिया.

दैनिक ट्रिब्यून ने भी इस खबर को लीड़ पर रखा.

एवं पेज तीन पर पर इसे स्थान दिया.

अमर उजाला ने इसे पहले पन्ने पर लीड़ खबर बनाया.

साथ ही भीतर दो पन्ने किसान आंदोलन को दिए.

वहीं, आइएएस बनने के सपने देखने वालों के प्रिय अंग्रेजी अखबार द हिंदू के दिल्ली संस्करण में करनाल मामले से जुड़ी खबर को कोई स्थान नहीं मिला.

हरिभूमि ने इसे पहले पन्ने पर स्थान दिया.

साथ ही पेज चार पर करनाल में जाम में फंसे लोगों को प्रमुखता से कवर किया.

चंड़ीगढ़ से छपने वाले अंग्रेजी अखबार द ट्रिब्यून ने करनाल प्रकरण को पहले पन्ने पर तालिबान सरकार बनने के बगल में स्थान दिया

इसके साथ-साथ पेज तीन पर भी स्थान दिया.

कलकत्ता से छपने वाले द टेलीग्राफ़ ने भी किसान आंदोलन को तालिबान की सरकार बनने की खबर के बाद पहले पन्ने पर जगह दी.