शहरों में सस्ते मजदूर बनाने वाले त्रुटिपूर्ण अर्थशास्त्र से इतर खेतीबाड़ी के पुनर्निर्माण और भविष्य के विकास का रास्ता

 

देश को पेट भरने के लिए दूसरों की दयादृष्टि पर निर्भरता वाली हालत से उबारकर, अतिरिक्त खाद्यान्न भंडारों वाली स्थिति में पहुंचाने के लिए भारतीय किसान द्वारा निभाई महत्वपूर्ण भूमिका से कृषि क्षेत्र भारतीय अर्थव्यवस्था में सबसे चमकदार सितारा बनकर उभरा है। चाहे हम इस उपलब्धि को सार्वजनिक रूप में मानें या नहीं, लेकिन एक गतिशील कृषि ने देश में आर्थिक विकास की सुदृढ़ नींव रखी है।

आज जब भारत आज़ादी की 75वीं वर्षगांठ मनाने जा रहा है, यह समय है स्वीकारोक्ति का कि अगले 25 साल में भी सुनहरा भविष्य पाने की राह कृषि से होकर जाती है। किसानों की भलाई एवं पर्यावरण की रक्षा के लिए सही मात्रा में नीतियों के सम्मिश्रण और सार्वजनिक निवेश से नवीनीकरण के जरिये अकेली कृषि में इतना दम है कि बतौर एक शक्तिपुंज आर्थिकी को फिर से ऊपर ले जाए। साथ ही करोड़ों लोगों की आजीविका सतत बना दे। इतना ही नहीं, ऐसे वक्त पर, जब पर्यावरण बदलावों पर अंतर-सरकारी मंच में जीडीपी-आधारित विकास मॉडल की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े होने लगे हैं, भारत की विकास गाथा की कुंजी सततता पूर्ण कृषि के हाथ में ही है।

उस वक्त से लेकर, जब 15 अगस्त, 1955 के दिन जवाहरलाल नेहरू ने लाल किले की प्राचीर से खड़े होकर कहा था : ‘यह हमारे लिए शर्म की बात है कि देश को अनाज आयात करना पड़ता है। इसलिए बाकी सब का देश इंतज़ार कर सकता है लेकिन खाद्यान्न का नहीं।’ इसके बाद से भारत ने खाद्यान्न आत्मनिर्भरता में लंबी राह तय कर ली है और भुखमरी इतिहास बन चुकी है। नेहरू जी के बाद प्रधानमंत्री बने लालबहादुर शास्त्री को भी अनाज़ आयात के साथ संलग्न शर्मिंदगी उठानी पड़ी थी। उनके द्वारा वियतनाम पर अमेरिकी चढ़ाई को ‘आक्रामकता’ बताने पर तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति लिन्डन जॉनसन चिढ़ गए, परिणामस्वरूप पीएल-480 नीति के तहत भारत को दी जाने वाली खाद्यान्न सहायता नाममात्र रह गई, जिसके चलते शास्त्री जी के लिए देशवासियों से हफ्ते में एक दिन उपवास करने का आह्वान करना अनिवार्य हो गया।

इस अवधि में पैड्डोक बंधुओं की किताब ‘अकाल 1975’ में लिखा कि भारत की कहानी खत्म है और आने वाले वर्षों में करोड़ों लोग भूख से मारे जाएंगे। एक समय ऐसा भी था, जब भारत पर ‘किश्ती से मुख’ यानी आयातित दान से पेट भरने वाले देश का ठप्पा लगा हुआ था। खैर, ‘आफत के मसीहा’ के नाम से कुख्यात इन लेखकों की यह भविष्यवाणी अगले कुछ वर्षों में खाद्यान्न मोर्चे पर भारत द्वारा आत्मनिर्भरता बना लेने से, बुरी तरह औंधे मुंह गिरी।

जब वर्ष 1966 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने गेहूं की विभिन्न किस्मों का 18000 टन बीज आयात करने की अनुमति दी, इससे हरित क्रांति की नींव प्रभावशाली रूप से पड़ी। वैज्ञानिक अनुसंधान और विकास तंत्र, नेहरू जी के वक्त में पहले ही वजूद में आने लगा था, जब उन्होंने पंतनगर में पहला कृषि विश्वविद्यालय स्थापित किया था। इसके बाद लुधियाना में बने पंजाब कृषि विश्वविद्यालय ने दिल्ली स्थित भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के साथ मिलकर गेहूं की चंद किस्मों को भारतीय मौसम के अनुकूल पाया और विकसित किया। इनके बीज के पांच-पांच किलो के थैले किसानों को वितरित किए गए और पंजाब के अति-उत्साहित किसानों ने पहले ही साल रिकॉर्ड उत्पादन करके सारा खेल पलट डाला।

गेहूं में मिली सफलता को चावल में दोहराया गया, आगे चलकर अन्य फसलें जैसे कि कपास, गन्ना, फल एवं सब्जी उत्पादन में भी यही जीत मिली। भारत फिलहाल 31.5 करोड़ टन खाद्यान्न और 32.5 करोड़ टन फल एवं सब्जियां पैदा करता है। इस तरह कभी भीख का कटोरा पकड़कर खड़ा होने वाली पंक्ति से निकलकर, भारत ने पहले खाद्य-आत्मनिर्भरता हासिल की, आगे कृषि उत्पाद निर्यातक मुल्क बनने तक की लंबी छलांग लगाई है। यह गाथा है पुुरुषार्थ, वैज्ञानिक श्रेष्ठता और सही ढंग की सार्वजनिक नीतियां अपनाने की। इसमें, अकालरोधी उपायों के लिए, दो मोर्चों पर एक साथ काम हुआ– किसान को न्यूनतम समर्थन मूल्य बतौर प्रोत्साहन देना और भारतीय खाद्य निगम की स्थापना ताकि बड़ी मात्रा में पहुंचे खाद्यान्न का भंडारण हो सके और अतिरिक्त अनाज को सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिए कमी वाले इलाकों में वितरित किया जा सके।

हरित क्रांति से पहले (यह संज्ञा विलियम गुआड की दी हुई है) शास्त्री जी ने दुग्ध-क्रांति की नींव डाली थी जब उन्होंने दूध उत्पादन बढ़ाने के लिए सहकारी आंदोलन बनवाया। आमतौर पर सफेद क्रांति के नाम से मशहूर इस योजना को विश्व के सबसे सफल ग्रामीण विकास कार्यक्रम के रूप में जाना जाता है। डेयरी सहकार कार्यक्रम ने भारत को विश्व में सबसे बड़ा दुग्ध निर्माता बना दिया है, जिसका वार्षिक उत्पादन 20.4 करोड़ टन से अधिक हो गया है। सफेद और हरित क्रांति के युग्म ने भारत के गांवों का हुलिया बदल डाला, दुग्ध उत्पादन को अत्यंत संत्रास में जी रहे कृषक समुदाय का संकटमोचन भी कहा जाता है।

साल-दर-साल भारतीय किसान रिकॉर्ड उत्पादन करता चला गया लेकिन उसकी आमदनी एक जगह आकर ठहर गई या कम होती गई। कृषि परिवार स्थिति आकलन सर्वे-2019 (जो कि कोविड लॉकडाउन से पहले हुआ था) इसमें किसान परिवार की औसत आमदनी (गैर कृषि गतिविधियां समेत) प्रति माह 10,286 रुपये है। लॉकडाउन लगाने की घोषणा और उसके बाद शहरों से जिस तरह विशाल मानव बल ने पलायन किया है, उसके मद्देनजर कृषि को और अधिक फायदेमंद और आर्थिक रूप से व्यवहार्य बनाने की फौरी जरूरत है। ऐसे समय में जब दुनिया में बेरोजगारी बढ़ती जा रही है, तेजी से हो रही यांत्रिकी अधिक गति से नौकरियां छीन रही है, कृषि का पुनरुत्थान ही एकमात्र विकल्प बचा है ताकि बड़ी संख्या में खाली हुआ श्रम बल काम पर लग सके। इससे शहरों पर बेरोजगारों की विशाल संख्या का दबाव बहुत हद तक कम हो सकेगा।

हरित क्रांति का मनोरथ काफी पहले पूरा हो जाने के बाद अब वक्त है अगले चरण का। स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ हमें भविष्य के मार्गचित्र पर पुनर्विचार और पुनर्निर्धारण करने का सही मौका प्रदान कर रही है। इसके लिए हमें आर्थिक नीति निर्धारण करते वक्त जो मौजूदा सोच हावी है, उसमें आमूल-चूल परिवर्तन करना होगा, क्योंकि इसमें उद्योगों की खातिर कृषि की बलि दी जाती है। यह वैसे भी कारगर नहीं रही बल्कि बड़े पैमाने पर वर्ग असमानता पैदा कर डाली। अब ध्यान पुनः कृषि-विकास और गांवों को भविष्य की आशा एवं आकांक्षाओं का केंद्र बनाने पर केंद्रित किया जाए। किसान की गारंटीशुदा आमदनी और पर्यावरण-लचीली कृषि अपनाने को दरकार है तदर्थ किस्म की नीतियों के परे हटकर समूचे खाद्य-तंत्र में परिवर्तन करने की। कृषि से आत्मनिर्भरता बनती है और यह प्रधानमंत्री की सबका साथ, सबका विकास वाली सोच के अनुरूप है। नया और दमदार भारत बनाने का रास्ता यहीं से होकर है।

(यह लेख पहले दैनिक ट्रिब्यून में छप चुका है.)

लेखक कृषि एवं खाद्य मामलों के विशेषज्ञ हैं।