मनरेगा मजदूरों को नहीं मिली मजदूरी,केंद्र सरकार पर राज्यों का 7500 करोड़ बकाया!

मनरेगा मजदूरों की लंबित राशि का मुद्दा सामने आया है, जिसमें कई संगठनों ने केंद्र सरकार से बकाया भुगतान करने की मांग की. मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम) संघर्ष मोर्चा ने केंद्र सरकार पर पश्चिम बंगाल की 7,500 करोड़ रुपये से अधिक की मनरेगा निधि रोकने का आरोप लगाया. नरेगा संघर्ष मोर्चा ने दावा किया कि राज्य में मनरेगा मजदूरों को पिछले साल दिसंबर से मजदूरी का भुगतान नहीं किया गया है और यह उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है. संगठन ने लंबित वेतन को तत्काल जारी करने, पूरी अवधि के लिए प्रति दिन 0.05% की दर से देरी के लिए मुआवजे और नए कार्यों और जॉब कार्डों की शुरुआत की मांग की. राज्य के 7,500 करोड़ रुपये के मनरेगा बकाया में से मजदूरों की 2,744 करोड़ रुपये लंबित है.

वहीं मजदूर किसान शक्ति संगठन के संस्थापक सदस्य निखिल डे ने एक ट्वीट में कहा, “आज 1 साल हो गया है जब बीजेपी ने मनरेगा श्रमिकों को पश्चिम बंगाल से मजदूरी का भुगतान नहीं किया है. 1 करोड़ से ज्यादा मजदूरों पर 2,744 करोड़ रुपये बकाया! कानून कहता है 15 दिन में भुगतान करो. सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि देरी “जबरन श्रम” है. केंद्र का कहना है कि राज्य भ्रष्ट है- इसलिए काट लें फंड!”

अंग्रेजी अखबार ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार पश्चिम बंगाल के पंचायत मंत्री प्रदीप मजूमदार ने आरोप लगाया कि केंद्र की ओर से राज्य सरकार की मांगों पर ध्यान नहीं दिया गया है. पंचायत मंत्री ने मजूमदार ने कहा, ”पिछले साल से इस योजना के तहत एक पैसा भी जारी नहीं किया गया है. हम धन की मांग कर रहे हैं लेकिन केंद्र इस मामले को देखने को इच्छुक नहीं है.”

वहीं राज्य सरकार ने कई मौकों पर केंद्र पर मनरेगा योजना और जीएसटी बकाया के तहत राज्य को धन जारी नहीं करने का आरोप लगाया है. इसको लेकर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी कई बार पीएम को पत्र भी लिख चुकी हैं.

गैर-लाभकारी संगठन लिबटेक इंडिया की एक रिपोर्ट में पाया गया कि राज्य में इस योजना के तहत काम करने वाले परिवारों की संख्या में गिरावट आई है. कोरोना काल के दौरान 77 लाख से चालू वित्त वर्ष में 16 लाख रह गया है. मनरेगा के साथ मजदूरी में देरी ग्रामीण परिवारों के लिए गंभीर समस्या है. महामारी के दौरान बड़े शहरों से गांव लौटे मजदूरों के लिए मनरेगा एक वरदान साबित हुआ था.

करनाल: गन्ने के दाम नहीं बढ़ाने से आक्रोषित किसान सीएम आवास का घेराव करेंगे!

हरियाणा सरकार ने विधानसभा सत्र के अखिरी दिन प्रदेश में गन्ने के दाम बढ़ाने की विपक्ष की मांग को नहीं माना है. गन्ने के दाम में बढ़ोतरी न होने से प्रदेश के किसान आक्रोषित हैं. जिसको लेकर आज नेता गुरनाम सिंह चढ़ूनी के नेतृत्व में भारतीय किसान यूनियन चढूनी करनाल में मुख्यमंत्री आवास का घेराव कर दो घंटे तक धरना देगी.

इस दौरान किसान, मुख्यमंत्री मनोहर लाल का पुतला भी फूकेंगें. बता दें कि विधानसभा में विपक्ष की मांग को नकारते हुए सरकार ने गन्ने के पुराने दाम 362 रुपए प्रति क्विंटल के आधार पर ही गन्ना खरीदने की अधिसूचना जारी की है. इस अधिसूचना के बाद किसानों के रोष बढ़ता जा रहा है. किसान गन्ने के रेट को बढ़ाकर 450 रुपए करने की मांग कर रहे हैं. बता दें कि पंजाब में गन्ना किसानों को 380 रुपये प्रति किवंटल का रेट मिल रहा है.

वहीं सरकार ने इस मुद्दे पर विधानसभा में गन्ना कमेटी बनाने का फैसला लिया है. दाम न बढ़ाए जाने के विरोध में नेता प्रतिपक्ष भूपेंद्र सिंह हुड्डा सदन से वॉक आउट कर गए थे.


केंद्र सरकार की SEED योजना विफल, विमुक्त, घुमंतू और अर्ध-घुमंतू समुदायों तक नहीं पहुंचा कोई लाभ!

सामाजिक न्याय और अधिकारिता पर बने संसदीय पैनल ने 260 से अधिक विमुक्त, घुमंतू और अर्ध-घुमंतू जनजातियों को अनुसूचित जाति,अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग की सूची में वर्गीकृत करने की “बहुत धीमी” प्रक्रिया पर केंद्र सरकार पर निशाना साधा है. इस साल फरवरी में शुरू की गई SEED (स्कीम फॉर इकोनॉमिक एम्पावरमेंट ऑफ डीएनटी) योजना के तहत सरकार इस समुदाय के लोगों तक लाभ पहुंचाने में विफल रही है.

SEED (स्कीम फॉर इकोनॉमिक एम्पावरमेंट ऑफ डीएनटी) योजना केंद्रीय सामाजिक न्याय मंत्री वीरेंद्र कुमार द्वारा विमुक्त घुमंतू समुदाय से जुड़े छात्रों के लिए प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए मुफ्त कोचिंग, स्वास्थ्य बीमा, आवास सहायता और आजीविका पहल प्रदान करने के उद्देश्य से शुरू की गई थी. इस योजना के लिए 200 करोड़ की राशि आवंटित की गई है जो वित्त वर्ष 2021-22 से वित्त वर्ष 2025-26 तक पाँच वर्षों में खर्च की जानी है.

अंग्रेजी अखबार ‘द हिंदू’ में छपी रिपोर्ट के अनुसार 26 दिसंबर तक, SEED योजना के तहत कुल 5,400 से अधिक आवेदन प्राप्त हुए हैं, जिनमें से एक भी आवेदन को मंजूरी नहीं दी गई और न ही कोई राशि स्वीकृत की गई है. इस शीतकालीन सत्र में संसद में पेश की गई एक रिपोर्ट में सामाजिक न्याय और अधिकारिता पर बने संसदीय पैनल ने कहा कि इसने पहले भी इन समुदायों के जल्द से जल्द और सटीक वर्गीकरण पर आवश्यक कार्रवाई करने बाबत विभाग की विफलता पर ध्यान दिलाया गया था.

वहीं सरकार के यह कहने के बाद कि काम चल रहा है और 2022 तक पूरा हो जाएगा, पैनल ने कहा कि प्रक्रिया अभी भी बहुत धीमी है. पैनल ने कहा कि,” घुमंतू जनजातियों के वर्गीकरण में देरी से उनकी परेशानियां और बढ़ेगी और वे उनके कल्याण के लिए चलाई गई योजनाओं का लाभ नहीं उठा पाएंगे.” पैनल ने आगे कहा कि उसे उम्मीद है कि सरकार इस कवायद में तेजी लाएगी और इसे समयबद्ध तरीके से पूरा करेगी और इसके लिए विस्तृत समयसीमा मांगी है.

वहीं संसदीय पैनल की टिप्पणी पर सामाजिक न्याय और अधिकारिता विभाग ने कहा, “भारतीय मानव विज्ञान सर्वेक्षण ने अब तक 48 डीएनटी समुदायों के वर्गीकरण पर रिपोर्ट प्रस्तुत की है. इसके अलावा, 267 समुदायों को अब तक वर्गीकृत नहीं किया गया है, एएनएसआई ने 24 समुदायों पर अध्ययन पूरा कर लिया है, जिनमें जनजातीय अनुसंधान संस्थान 12 समुदायों का अध्ययन कर रहे हैं. इसके अलावा, एएनएसआई 161 समुदायों पर अध्ययन को अंतिम रूप दे रहा है और 2022 के अंत तक शेष समुदायों (लगभग 70) का अध्ययन पूरा करने की उम्मीद है.”

देश में विमुक्त, घुमंतू और अर्ध-घुमंतू समुदाय से जुड़ी 1,400 से अधिक जनजातियों वाले 10 करोड़ से अधिक जनसंख्या वाले इस समूह से इदते आयोग ने 1,262 समुदायों को अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति/अन्य पिछड़ा वर्ग की सूची में वर्गीकृत किया था और 267 समुदायों को अवर्गीकृत छोड़ दिया गया था.

विमुक्त, घुमंतू और अर्ध-घुमंतू समुदायों के विकास और कल्याण बोर्ड (DWBDNC) के अधिकारियों ने इस बात पर प्रकाश डाला है कि वे SEED योजना के लिए आवेदनों की प्रक्रिया तब तक शुरू नहीं कर सकते जब तक कि राज्य और जिला स्तर की समीक्षा पूरी नहीं हो जाती.

यह योजना ऑनलाइन आवेदन और लाइव स्थिति-ट्रैकिंग के लिए एक प्रणाली के साथ शुरू की गई थी. हालांकि विमुक्त, घुमंतू और अर्ध घुमंतू समुदाय से जुड़े अधिकतर लोग ऑनलाइन सिस्टम को नेविगेट करने में असमर्थ हैं. अधिकारियों ने कहा, मंत्रालय और डीडब्ल्यूबीडीएनसी के अधिकारी आवेदकों को वेब पोर्टल पर साइन अप करने में मदद करने के लिए समुदाय के नेताओं के साथ देश भर में शिविर आयोजित कर रहे हैं. लेकिन जब तक उनके सटीक वर्गीकरण की कवायद पूरी नहीं हो जाती, तब तक आवेदन पर कार्रवाई नहीं की जाएगी.

सरकारी योजनाओं के लाभ के लिए साल भर नेताओं और सरकारी बाबुओं से भिड़ते रहे किसान!

एक ओर राज्य सरकार साल भर किसानों की आय दोगुनी करने का दावा करते हुए कृषि क्षेत्र के विकास पर जोर देने की बात करती रही वहीं दूसरी ओर किसान खराब फसलों के मुआवजे, एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) और खड़े पानी की निकासी जैसे मुद्दों से जूझते रहे. इन सब दिक्कतों के चलते किसान अपनी आय बढ़ाने के प्रयास में नई खेती नहीं अपना सके और गेहूं-और धान चक्र से बाहर निकलने में भी सक्षम नहीं रहे.

हरियाणा सरकार की आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट ने भी हरियाणा में कृषि के महत्व की ओर इशारा किया है. रिपोर्ट में कहा गया कि “हालांकि पिछले कुछ वर्षों के दौरान प्रदेश की आर्थिक वृद्धि, उद्योग और सेवा क्षेत्रों की वृद्धि पर ज्यादा निर्भर हो गई है लेकिन हाल के अनुभव बताते हैं कि निरंतर और तीव्र कृषि विकास के बिना उच्च सकल राज्य मूल्य (जीएसवीए) विकास से राज्य में मुद्रास्फीति में तेजी आने की संभावना थी, जिससे बड़ी विकास प्रक्रिया खतरे में पड़ गई. आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट में कहा गया है कि 2021-22 के अग्रिम अनुमानों के अनुसार, कृषि क्षेत्र से जीएसवीए में 2.6 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी.

हिसार क्षेत्र में किसानों ने बेमौसम बारिश और कपास में गुलाबी सुंडी के कारण खरीफ सीजन में हुए फसल के नुकसान के मुआवजे की मांग को लेकर आंदोलन का सहारा लिया. हालांकि कपास के उत्पादन में पिछले साल की तुलना में 30% से अधिक की वृद्धि दर्ज की गई, लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि अभी बहुत कुछ किए जाने की आवश्यकता है.

चौधरी चरण सिंह कृषि विश्वविद्यालय, हिसार के डिस्टेंस एजुकेशन के पूर्व निदेशक डॉ. राम कुमार ने अंग्रेजी अखबार दैनिक ट्रिब्यून के पत्रकार दिपेंद्र देसवाल को बताया कि सरकार की किसान के लाभ के लिए बनाई गई कई योजनाओं के बावजूद किसानों को बहुत कम लाभ मिल पा रहा है.

उन्होंने कहा कि प्रदेश में गुणवत्ता वाले बीजों की उपलब्धता एक मुख्य मुद्दा है. खेतों में जरूरत पड़ने पर किसानों को खाद उपलब्ध की जानी चाहिए. सरकार की सूक्ष्म सिंचाई योजना ठीक ढंग से लागू नहीं होने के कारण किसानों को फायदा नहीं पहुंचा सकी है. साथ ही हरियाणा के अगल-अलग क्षेत्रों में मौजूदा पानी के आवंटन को बेहतर तरीके से इस्तेमाल करने की जरूरत है. डॉ. राम कुमार ने कहा, “सरकारी संस्थान, किसानों को कपास और सरसों जैसी फसलों के अच्छे बीज उपलब्ध कराने में असमर्थ हैं जिसके कारण, किसान निजी कंपनियों के शिकार हो रहे हैं. हरियाणा और पंजाब में ऐसे उदाहरण हैं जहां खराब गुणवत्ता वाले बीजों के कारण किसानों की फसल को भारी नुकसान हुआ है.”

वहीं अंग्रेजी अखबार दैनिक ट्रिब्यून के अनुसार करनाल के 153 किसान, बीमा कंपनियों पर खराब फसलों का मुआवजा नहीं देने के आरोप लगा रहे हैं. वहीं करनाल, कैथल और अंबाला के किसान गन्ने के रेट में बढ़ोतरी की मांग को लेकर प्रदर्शन करते नजर आए. इस तरह प्रदेश के अलग अलग हिस्सों में किसान साल भर अपने मुआवजों को लेकर नेताओं और सरकारी अधिकारियों के दफ्तरों के चक्कर लगाते रह गए.

मजदूर नेता शिव कुमार को पुलिस ने अवैध रूप से हिरासत में रखकर प्रताड़ित किया, न्यायिक जांच में हुआ खुलासा!

हाई कोर्ट की निगरानी में हुई जांच में हरियाणा पुलिस के अधिकरियों द्वारा मजदूर नेता शिव कुमार को अवैध रूप से पुलिस कस्टडी में रखकर प्रताड़ित करने के आरोप सही पाए गए हैं. जनवरी 2021 में पुलिस द्वारा किए गए अत्याचार में मजदूर नेता शिव कुमार की एक आंख की रोशनी चली गई थी. मेडिकल रिपोर्ट में सामने आया था कि उनके शरीर में कईं जगह फ्रैक्चर था और साथ ही उनके नाखून भी उखाड़े गए थे.

फरीदाबाद के जिला और सत्र न्यायाधीश दीपक गुप्ता द्वारा की गई जांच में पाया गया कि मजदूर अधिकार संगठन के अध्यक्ष शिव कुमार को हरियाणा पुलिस ने किसान आंदोलन के दौरान जनवरी 2021 में सोनीपत में अवैध रूप से एक सप्ताह के लिए अपनी हिरासत में रखा था. जांच में मजदूर नेता पर हुई यातना को दबाने के लिए डॉक्टरों और न्यायिक अधिकारियों की मिलीभगत भी सामने आई है. जांच रिपोर्ट के अनुसार अवैध कारावास के दौरान शिव कुमार को “पुलिस द्वारा बुरी तरह से प्रताड़ित किया गया था, जिससे उनके शरीर के विभिन्न हिस्सों पर फ्रैक्चर सहित कई चोटें आई थी”

बता दें कि जबरन वसूली और हत्या के प्रयास के आरोप में शिव कुमार और उनकी साथी कार्यकर्ता नोदीप कौर पर मुकदमा चल रहा है. दोनों मजदूर नेता 2021 में अपने संगठन के बैनर तले सोनीपत के कुंडली औद्योगिक क्षेत्र में मजदूरों की मजदूरी नहीं मिलने के चलते फैक्ट्री मालिकों के खिलाफ आंदोलन कर रहे थे.

पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट ने पिछले साल मजदूर नेता शिव कुमार के पिता राजबीर द्वारा दायर याचिका पर जांच के आदेश दिए थे. वहीं याचिकाकर्ता के वकील हरिंदर बैंस ने बताया कि पुलिस अत्याचार में शिव कुमार ने अपनी आंख की आधी रोशनी खो दी है. उस पर लगातार समझौता करने का दबाव बनाया जा रहा था लेकिन शिव कुमार और उनका परिवार न्याय के लिए डटा रहा. वहीं वकील ने आगे कहा कि हम अगली सुनवाई में एफआईआर दर्ज करने और सीबीआई जांच कराने की मांग करेंगे.

पंचकुला जिला कोर्ट ने इस मामले पर जुलाई में अपनी जांच पूरी की थी और अगस्त में हाई कोर्ट को रिपोर्ट सौंपी थी. जांच सामने आया कि पुलिस के अपराध को छिपाने के लिए सरकारी डॉक्टरों की मिलीभगत भी थी. हरियाणा के मुख्य सचिव को भेजे गए पत्र का जवाब नहीं मिला है, जिसमें जांच रिपोर्ट पर उनकी प्रतिक्रिया मांगी गई थी. वहीं अधिकारियों ने पूछताछ के दौरान किसी तरह की मिलीभगत से इनकार किया है.

रिपोर्ट के अनुसार, “शिव कुमार की 24 जनवरी 2021 से 2 फरवरी 2021 के दौरान पांच बार जांच की गई, लेकिन सरकारी अस्पताल, सोनीपत के किसी भी डॉक्टर या जेल में तैनात डॉक्टर ने पुलिस अधिकारियों के साथ मिलीभगत के चलते अपनी ड्यूटी नहीं निभाई”

बता दें कि हाई कोर्ट के आदेश पर 20 फरवरी, 2021 को चंडीगढ़ में सरकारी मेडिकल कॉलेज और अस्पताल की मेडिकल जांच में शिव कुमार के हाथ और पैर में फ्रैक्चर और उनके पैर की अंगुली पर टूटे हुए नाखून की रिपोर्ट जारी की थी. साथ ही रिपोर्ट में शिव कुमार को मानसिक तनाव देने की बात भी सामने आई थी. रिपोर्ट में कुंडली पुलिस स्टेशन के सब-इंस्पेक्टर शमशेर सिंह को यातना के लिए सीधे तौर पर ज़िम्मेदार बताया गया है साथ ही उसी पुलिस स्टेशन के इंस्पेक्टर रवि कुमार और क्राइम इन्वेस्टिगेशन एजेंसी सोनीपत के रविंदर को अवैध कारावास और यातना में शामिल होने के लिए नामित किया गया है.

शिव कुमार के अनुसार सोनीपत के प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट ने उन्हें देखे बिना ही अवैध कारावास के बाद उनका पुलिस रिमांड दे दिया था. शिवकुमार के वकील बैंस ने कहा, “रिपोर्ट से पता चलता है कि यहां केवल एक अधिकारी द्वारा किसी को प्रताड़ित नहीं किया गया था बल्कि एक मजिस्ट्रेट सहित पूरी व्यवस्था की मिलीभगत थी. हम माननीय उच्च न्यायालय से दोषियों को दंडित करने का एक उदाहरण स्थापित करने के लिए कहेंगे.

मजदूर नेता शिव कुमार ने बताया, “हिरासत के दौरान मेरी दाहिनी आंख में समस्या हो गई थी जिसका इलाज नहीं किया गया था और अब मुझे दाहिनी आंख से दिखाई नहीं देता है. उन्होंने कहा, ‘प्रशासन पर मामले को निपटाने का काफी दबाव है. लेकिन मैं चाहता हूं कि न्याय हो और दोषियों को सजा मिले.”

केंद्र सरकार ने पिछले पांच सालों में विज्ञापनों पर ख़र्च किए 3,723.38 करोड़ रुपये!

सूचना एवं प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर ने गुरुवार को राज्यसभा में बताया कि पिछले पांच साल के दौरान सरकार ने अपनी नीतियों और कार्यक्रमों के विज्ञापन पर केंद्रीय संचार ब्यूरो (सीबीसी) के जरिये 3,723.38 करोड़ रुपये खर्च किए हैं. उन्होंने एक सवाल के लिखित जवाब में उच्च सदन को यह जानकारी दी और कहा कि पिछले पांच सालों में विज्ञापन और प्रचार पर सरकार का खर्च नहीं बढ़ा है.

उन्होंने कहा कि 2017-18 में विज्ञापनों पर 1,220.89 करोड़ रुपये खर्च किए गए जबकि 2018-19 में 1,106.88 करोड़ रुपये खर्च किए गए. ठाकुर ने कहा कि सरकार ने 2019-20 में 627.67 करोड़ रुपये विज्ञापन पर खर्च किए जबकि 2020-21 में 349.09 करोड़ रुपये और 2021-22 में 264.78 करोड़ रुपये खर्च किए.

उन्होंने बताया कि मौजूदा वित्त वर्ष में नौ दिसंबर, 2022 तक सरकार ने विज्ञापनों पर 154.07 करोड़ रुपये खर्च किए हैं.

कांग्रेस सदस्य सैयद नासिर हुसैन ने सवाल किया था कि क्या सरकार को इस बात की जानकारी है कि पिछले कुछ सालों में विज्ञापन और प्रचार पर खर्च कई गुना बढ़ गया है? ठाकुर ने हुसैन के सवाल के जवाब में कहा, ‘उपरोक्त आंकड़ों के अनुसार, पिछले कुछ वर्षों में विज्ञापन और प्रचार पर व्यय में वृद्धि नहीं हुई है.’

वहीं अंग्रेजी अखबार हिदुस्तान टाइम्स के मुताबिक, इससे पहले मंगलवार को ठाकुर ने लोकसभा में बताया था कि 2014 में भाजपा के सत्ता में आने के बाद से आठ वर्षों में केंद्र ने प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में विज्ञापनों पर 6,491.56 करोड़ रुपये खर्च किए हैं.

उनके जवाब के अनुसार, इन सालों में सरकार ने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में विज्ञापन पर 3,260.79 करोड़ रुपये और प्रिंट मीडिया में 3,230.77 करोड़ रुपये खर्च किए.

सीपीआई सांसद मुनियन सेल्वाराज के एक अतारांकित सवाल का जवाब देते हुए केंद्रीय मंत्री ने यह डेटा साझा किया था. सेल्वाराज ने 2014 से अब तक सरकार द्वारा किए गए विज्ञापनों पर खर्च का सालवार ब्रेक-अप मांगा था. सेल्वराज ने इस दी गई अवधि के दौरान विदेशी मीडिया में दिए गए विज्ञापनों पर हुए कुल खर्च का ब्योरा भी मांगा था.

सरकार ने कहा कि उसने वित्तीय वर्ष 2016-17 में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में अधिकतम व्यय किया जब उसने इस माध्यम के विज्ञापनों पर 609.15 करोड़ रुपये खर्च किए थे. इसके पहले 2015-16 में उसका व्यय 531.60 करोड़ रुपये और 2018-19 में 514.28 करोड़ रुपये था.

ठाकुर ने कहा कि इस साल 7 दिसंबर तक सरकार ने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में विज्ञापनों पर 76.84 करोड़ रुपये खर्च किए.

प्रिंट मीडिया में दिए गए विज्ञापन खर्च के बारे में ठाकुर मंत्री ने बताया कि 2017-18 में इस माध्यम पर अधिकतम खर्च 636.09 करोड़ रुपये हुआ था. 2015-16 में यह व्यय 508.22 करोड़ रुपये और 2016-17 में 468.53 करोड़ रुपये था. इस साल 7 दिसंबर तक सरकार ने प्रिंट मीडिया में विज्ञापनों पर 91.96 करोड़ रुपये खर्च किए थे.

केंद्रीय मंत्री ने यह भी जोड़ा कि सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के माध्यम से विदेशी मीडिया में विज्ञापनों पर सरकार के किसी भी मंत्रालय या विभाग द्वारा कोई खर्च नहीं किया गया.

गौरतलब है कि साल 2020 में एक आरटीआई आवेदन जवाब में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने बताया था कि केंद्र सरकार द्वारा 2019-20 के दौरान विज्ञापनों पर औसतन प्रति दिन 1.95 करोड़ रुपये खर्च किए गए हैं.

अखबार, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, होर्डिंग इत्यादि के माध्यम से सरकार ने खुद के प्रचार के लिए 2019-20 में 713.20 करोड़ रुपये खर्च किए थे. इसमें से 295.05 करोड़ रुपये प्रिंट, 317.05 करोड़ रुपये इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और 101.10 करोड़ रुपये आउटडोर विज्ञापन में खर्च किए गए थे.

जून, 2019 में मुंबई स्थित आरटीआई कार्यकर्ता अनिल गलगली द्वारा दायर आवेदन के जवाब में मंत्रालय ने बताया था कि प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक, आउटडोर मीडिया में विज्ञापन देने में 3,767.26 करोड़ रुपये खर्च किए गए हैं.

इससे एक साल पहले गलगली के एक अन्य आरटीआई आवेदन पर मंत्रालय ने मई, 2018 में बताया था कि मोदी सरकार ने जून 2014 से लेकर सरकारी विज्ञापनों पर 4,343.26 करोड़ रुपये खर्च किए हैं.

द वायर ने दिसंबर 2018 में अपनी एक रिपोर्ट में बताया था कि किस तरह यूपीए के मुकाबले मोदी सरकार में विज्ञापन पर दोगुनी राशि खर्च की गई है.

लोकसभा में तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण राज्यमंत्री राज्यवर्धन सिंह राठौड़ ने बताया था कि केंद्र सरकार ने साल 2014 से लेकर सात दिसंबर 2018 तक में सरकारी योजनाओं के प्रचार प्रसार में कुल 5245.73 करोड़ रुपये की राशि खर्च की है. यह यूपीए सरकार के 10 साल में खर्च हुए कुल 5,040 करोड़ रुपये की राशि से भी ज्यादा थी.

साभार- द वायर

यूरिया के नक्शेकदम पर डीएपी, खरीफ में उर्वरकों की खपत का असंतुलन तेजी से बढ़ा

पिछले कई दशकों से सरकार और उर्वरक उद्योग उर्वरकों के संतुलित उपयोग की वकालत के साथ ही उसे दुरूस्त करने की कोशिश में लगे हैं। लेकिन उसके बावजूद यूरिया का उपयोग अन्य उर्वरकों की तुलना में तेजी से बढ़ रहा है। अब यूरिया के साथ डाई अमोनियम फॉस्फेट (डीएपी) उसी दिशा में बढ़ रहा है। दूसरे कॉम्प्लेक्स उर्वरकों की तुलना में कीमतों के अंतर के चलते डीएपी का उपयोग तेजी से बढ़ा है। चालू साल में अक्तूबर माह तक के उर्वरक खपत के आंकड़े इसे साबित कर रहे हैं। सरकार ने रबी सीजन (2022-23) के लिए न्यूट्रिएंट आधारित सब्सिडी (एनबीएस) योजना के तहत जो सब्सिडी दरें घोषित की हैं उनमें नाइट्रोजन पर सब्सिडी बढ़ाई गई है जबकि फॉस्फोरस (पी), पोटाश (के) और सल्फर (एस) पर सब्सिडी दरों में कमी की है। यह फैसला भी उर्वरकों के उपयोग के असंतुलन को बढ़ावा देगा। 

उर्वरक विभाग के आंकड़ों मुताबिक चालू साल में अप्रैल से अक्तूबर, 2022 के दौरान यूरिया की बिक्री में 3.7 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। वहीं इसी अवधि में डीएपी की बिक्री में 16.9 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। जबकि इसी अवधि के दौरान गैर यूरिया व गैर डीएपी उर्वरकों की बिक्री में गिरावट दर्ज की गई है। इन उर्वरकों में म्यूरेट ऑफ पोटाश (एमओपी), सिंगल सुपर फॉस्फेट (एसएसपी) और दूसरे कॉम्प्लेक्स उर्वरक शामिल हैं। इन उर्वरकों में नाइट्रोजन (एन), फॉस्फोरस (पी), पोटाश (के) और सल्फर (एस) की मात्रा का अलग-अलग अनुपात होता है।

उर्वरकों की बिक्री लाख टन में 

अप्रैल-अक्तूबर 2021अप्रैल-अक्तूबर 2022वृद्धि दर (प्रतिशत)
यूरिया186.273193.1123.67
डीएपी55.61265.03216.94
एमओपी16.8778.792(-)47.91
एनपीकेएस71.87557.553(-)19.93
एसएसपी34.81531.678(-)9.01

चालू वित्त वर्ष के पहले सात माह के दौरान एमओपी की बिक्री  47.9 फीसदी कम रही है। वहीं एन, पी, के और एस विभिन्न अनुपात वाले कॉम्प्लेक्स उर्वरकों की बिक्री 19.9 फीसदी कम हो गई है। एसएसपी की बिक्री में  इस दौरान 19.9 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है। यूरिया और डीएपी की बिक्री के मुकाबले दूसरे उर्वरकों की बिक्री में गिरावट की वजह कीमतों के अंतर को माना जा रहा है। सब्सिडी के अलग स्तर की वजह से यह अंतर बना हुआ है। इस समय यूरिया का अधिकतम खुदरा मूल्य (एमआरपी) 5628 रुपये प्रति टन है। उर्वरकों में यूरिया का दाम सरकार द्वारा नियंत्रित है। उर्वरक कंपनियां सरकार द्वारा तय कीमत पर यूरिया की बिक्री करती हैं। इसकी उत्पादन लागत और आयात पर आने वाली लागत व एमआरपी के बीच के अंतर की भरपाई सरकार उर्वरक कंपनियों को सब्सिडी देकर करती है।

यूरिया के अलावा दूसरे उर्वरक विनियंत्रित उर्वरकों की श्रेणी में आते हैं। इनका एमआरपी तय करने का अधिकार कंपनियों के पास है। सरकार न्यूट्रिएंट आधारित सब्सिडी (एनबीएस) योजना के तहत इन पर फिक्स्ड सब्सिडी देती है। हालांकि यह बात अलग है कि व्यवहारिक रूप में कंपनियां सरकार की हरी झंडी के बाद ही इनकी कीमतें तय करती हैं। पिछले करीब डेढ़ साल से और उसके बाद रूस और यूक्रेन युद्ध के बाद उर्वरकों और उनके कच्चे माल की कीमतों में आई भारी बढ़ोतरी के चलते सरकार को इन उर्वरकों पर अधिक सब्सिडी देनी पड़ी है। इनमें भी सबसे अधिक सब्सिडी डीएपी पर दी जा रही है। कंपनियों को हिदायत है कि वह डीएपी के लिए 1350 रुपये प्रति बैग (50 किलो) यानी 27 हजार रुपये प्रति टन की कीमत पर ही डीएपी की बिक्री करें। एमओपी के लिए एमआरपी 34 हजार रुपये प्रति टन है जबकि एनपीके और एस वाले कॉम्प्लेक्स वेरिएंट के लिए एमआरपी 29 हजार रुपये प्रति टन से 31 हजार रुपये प्रति टन के बीच है।  एसएसपी के लिए एमआरपी 11 हजार से साढ़े 11 हजार रुयपे प्रति टन के बीच है।  इस अनौपचारिक कीमत नियंत्रण के चलते डीएपी की कीमत एनपीके वेरिएंट वाले कॉम्प्लेक्स उर्वरकों से कम है। जबकि पहले डीएपी के दाम अधिकांश उर्वरकों से अधिक रहे हैं। लेकिन अन्य उर्वरकों के मुकाबले कम दाम में मिलने के चलते डीएपी की बिक्री तेजी से बढ़ी है।

इस समय डीएपी पर सब्सिडी का स्तर 48433 रुपये प्रति टन है। एमओपी पर सब्सिडी का स्तर 14188 रुपये प्रति टन है। एन, पी, के और एस वाले  10:26:26:0 वाले कॉम्प्लेक्स के लिए सब्सिडी 33353 रुपये प्रति टन और एसएसपी के लिए 7513 रुपये प्रति टन  है। उर्वरक उद्योग के एक पदाधिकारी ने रूरल वॉयस के साथ बातचीत में कहा कि ऐसे में किसान डीएपी और यूरिया के अलावा किसी दूसरे उर्वरक को क्यों खरीदेंगे। लेकिन यूरिया और डीएपी के अधिक उपयोग के चलते मिट्टी में उर्वर तत्वों का असंतुलन बढ़ रहा है जो अंततः फसलों की उत्पादकता पर प्रतिकूल डालता है और यह स्थिति किसानों के लिए फायदेमंद नहीं है। फर्टिलाइजर एसोसिएशन ऑफ इंडिया के चेयरमैन के.एस.राजू का कहना है कि उर्वरकों के उपयोग में एन, पी और के का आदर्श अनुपात 4:2:1 को माना जाता जाता है। जबकि 2020-21 में यह अनुपात 7.7 :3.1:1 रहा है। वहीं 2022 के खरीफ सीजन में इनका असंतुलन बढ़कर 12.8:5.1 :1 पर पहुंच गया।

इसलिए मिट्टी की जांच या मृदा कार्ड का कोई अर्थ नहीं है। किसान का उर्वरकों के उपयोग करने का फैसला उर्वरकों की कीमत के आधार पर ही तय होता है। 

साभार: रूरल वॉइस

अब होगा आर या पार, किसान दोबारा आंदोलन के लिए तैयार

12 सितम्बर 2022 को हरियाणा के किसानों ने चण्डीगढ़ में मुख्यमंत्री के आवास के घेराव किया था, जिसके बाद मुख्यमंत्री हरियाणा के साथ विभिन्न किसान संगठनों के साथ बातचीत हुई थी, जिसमें उन्होंने आश्वासन दिया था कि आगामी विधानसभा सत्र में जुमला मालकान, मुश्तरका मालकान, ढोलीदार, आबादकार व काश्तकारों के हकों के लिए कानून लेकर आएंगे.

अब हरियाणा विधानसभा का सत्र 22 दिसंबर से शुरू हो रहा है, इसलिए मुख्यमंत्री हरियाणा को उनके द्वारा किए गए वादे के अनुसार कानून लेकर आने की याद दिलाने के लिए आज चंडीगढ़ प्रेस क्लब में किसानों ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की, जिसमें उन्होंने 20 दिसम्बर 2022 को गुरुद्वारा श्री पंजोखरा साहिब से एक मार्च शुरू करने की घोषणा की है, जोकि 50 किलोमीटर की दूर तय करके 22 दिसंबर को हरियाणा विधानसभा तक पहुंचेगा और किसानों के मुद्दों पर मुख्यमंत्री के नाम ज्ञापन देगा.

किसानों ने गन्ना किसानों के बकाया और गन्ने का उचित दाम दिए जाने के विषय पर और प्रदेश में किसानों को यूरिया खाद की कमी और उच्च क्वालिटी के बीजों की कमी जैसे मुद्दों को भी उठाया.

हरियाणा ने 2018 से ट्यूबवैल कनेक्शनों की रोक को हटाने तथा नये कनेक्शनों को जारी करने की व्यवस्था तथा 5 स्टार मोटर की कंडिशन को तुरन्त प्रभाव से हटाए जाने की मांग की.

प्रदेश में भारी बरसात, फिजी वायरस और घटिया बीजों से हुए नुकसान का मुआवजा दिए जाने की मांग पर अमल करने के लिए भी किसानों ने सरकार को उनके आंदोलन के मुद्दे याद करवाए.

हरियाणा के किसानों ने लखीमपुर खीरी की दुखद घटना के चश्मदीद गवाहों पर हमले की निंदा की. किसानों ने इस घटना को लोकतान्त्रिक व्यवस्था के माथे पर कलंक बताया और उसके बारे में सरकार से तुरन्त ध्यान देकर कार्यवाही करने की मांग की.

प्रेस कॉन्फ्रेंस में शामिल किसान संगठन

BKMU – सुरेश कौथ

BKU शहीद भगत सिंह – अमरजीत सिंह मोहड़ी

BKU सर छोटू राम – जगदीप सिंह औलख

आजाद किसान यूनियन – करनैल सिंह

भारतीय इंकलाब मंच – धर्मवीर ढींढसा

पगड़ी सम्भाल जट्टा – मंदीप नथवाण

6 दिसंबरः मैने इतिहास को नंग धड़ंग देखा !

…अयोध्या आंदोलन के नेताओं के लिए न्यायपालिका नौटंकी कंपनी थी, उनका नारा था “बंद करो यह न्याय का नाटक जन्मभूमि का खोलो फाटक”. बाद में साबित हुआ कि उनकी आस्था भी सत्ता पाने के मंचित की गई नौटंकी थी जिसमें बच्चा बच्चा राम का मंत्र और शंख फूंकने, श्राप देने वाले, बाबर की औलादों को पाकिस्तान भेजने वाले धर्माचार्य-साधु- साध्वियां कलाकार थे, जिसमें जितना अभिनय था वह उतना पद, सम्मान, मेहनताना वगैरा लेकर किनारे लगा.

anil-1

कारसेवकों को भारत में मुगल साम्राज्य की नींव डालने वाले बाबर से एतिहासिक प्रतिशोध का सुख भव्य राममंदिर के रूप में पाना था जिसे भुला दिया गया, फिर भी उनकी हिंसक आस्था का प्रेत भटकता रहा तो उन्हें भ्रष्टाचार का झंखाड़ काटकर विकास की सड़क बनाने में झोंक दिया गया. तब हिंदू खून को खौलाकर जवानी को रामकाज में लगाया गया था, अब उस जवानी की अगली पीढ़ी को एक आदमी की भक्ति में लगा दिया गया है. कमाल ये है- भगवान की जगह आदमी ले चुका है लेकिन खून का उबाल वही है.

इस बीच चौथाई सदी बीत चुकी है जो आदमी की छोटी सी जिंदगी में इतना लंबा समय है कि उसे या तो अपने अनुभवों से कोई पक्का नतीजा निकाल लेना चाहिए या मान लेना चाहिए कि उसके दिमाग का पर्याप्त विकास नहीं हुआ है.

...तब मैं लखनऊ में दैनिक जागरण का शावक रिपोर्टर था जिसे एक प्रेसकार्ड दिया गया था, पर्ची दिखाने पर पंद्रह सौ रूपए तनख्वाह मिलती थी.

अखबार के मालिक नरेंद्र मोहन का जितना विस्तृत परिवार था उतने ही फैले धंधे थे. पत्रकारिता की ढाल के पीछे चीनी मिल, पेट्रोल पंप, शिक्षण संस्थान, रूपया सूद पर चलाने समेत कई कारोबार चल रहे थे. उनकी चालक शक्ति मुनाफा थी, नीति अवसरवाद और महत्वाकांक्षा थी तत्कालीन चढ़ती हुई राजनीतिक पार्टी भाजपा के पक्ष में जनमत का व्यापार करके धन कमाना और जल्दी से जल्दी शासक प्रजाति में शामिल होना जिसका अगला दिखता मुकाम राज्यसभा की मेंबरी थी. इसके लिए उन्होंने एक हार्ड टास्क मास्टर यानि गुंडा संपादक तैनात किया था जो सुबह चपरासी, सर्कुलेशन मैनेजर और पत्रकार किसी को भी पीट सकता था, दोपहर में किसी मजबूर महिला पत्रकार का रखैल की तरह इस्तेमाल कर सकता था लेकिन शाम को वह मालिक का ब्रीफकेस थाम कर विनम्र भाव से किसी मंत्री या अफसर से मुलाकात कराने चल देता था, आधी रात को एडिटोरियल मीटिंग बुलाकर पत्रकारिता के आदर्शों की भावभीनी निराई-गुड़ाई करने लगता था (फिर भी वह रीढ़विहीन बौद्धिक नक्काल संपादकों से बेहतर था. उसे मालिकों ने बूढ़े और बीमार हो जाने पर इस्तेमाल हो चुके टिशूपेपर की तरह फेंक दिया).

ऐसे सीनियर थे जो शावकों को संपादक के पैर छूकर उर्जा पाने की शास्त्रीय विधि सिखाते थे, एक हेडलाइन गलत लग जाने पर डरकर रोने लगते थे, रिटायरमेंट के एक दिन पहले जिंदगी का पहला स्कूटर खरीदने की मिठाई बांटते थे, एक प्रूफरीडर करपात्री जी भी थे जो दफ्तर में ही रहते थे, उनके कपड़े होली पर बदले जाते थे और वह दोनों वक्त सिर्फ पूड़ी खाते थे. (इन विचित्र किंतु सत्य कारनामों को मेरे स्वीडिश दोस्त पॉयर स्टालबर्ग ने तीन साल रिसर्च के बाद अपनी किताब लखनऊ डेली-हाऊ ए हिंदी न्यूजपेपर कंस्ट्रक्ट्स सोसाइटी, प्रकाशक-स्टाकहोम स्टडीज इन सोशल एंथ्रोपोलॉजी, में बेबाकी से लिखा है).

मैं छात्र राजनीति से पत्रकारिता में आया था. इस माहौल में भी मुझे यकीन था कि अपने वक्त का सच लिखने और अन्याय के शिकार लोगों की मदद करने का मौका मिल जाएगा. इसकी बुनियाद यह थी कि जब अखबार संकट में आता था तो संपादक को सर्कुलेशन दुरूस्त करने के लिए पत्रकारिता के सरोकारों को साथ ऐसे रिपोर्टर याद आने लगते थे जिनके पास भाषा, कॉमनसेंस और राजनीति की समझ थी.

दिसंबर 1992 के पहले हफ्ते में ऐसा ही एक मौका आया जब भरेपूरे व्यूरो को दरकिनार कर भाऊ राघवेंद्र दुबे, मुझे और दिनेश चंद्र मिश्र को अयोध्या कवर करने भेज दिया गया. चलते समय जो निर्देश दिए गए उन्हें मैने एक कान से सुना दूसरे से निकाल दिया क्योंकि पिछले ही साल मैने बनारस का दंगा एक लोकल इवनिंगर के लिए कवर किया था तब मैने दैनिक जागरण, आज, स्वतंत्र भारत जैसे अखबारों की अफवाह फैलाने और एतिहासिक तथ्यों को तोड़मरोड़ कर सांप्रदायिक उन्माद फैलाने की कलाकारी और प्रेस काउंसिल आफ इंडिया की लाचारी का मजाक बनाते देखा था.

अयोध्या के मठों और अखाड़ों में आरएसएस, भाजपा, विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल, शिवसेना और भांति भांति के धर्माचार्यों के संयुक्त कारखाने चल रहे थे जिनमें या तो सांप्रदायिक उन्माद का उत्पादन हो रहा था या विराट भ्रम का. लालकृष्ण आडवाणी, अशोक सिंघल, महंत रामचंद्रदास समेत मंदिर आंदोलन के सभी नेता लीलाधर हो चुके थे. वे एक ही सांस में सुनियोजित रणनीति के तहत दो या अधिक बातें कह रहे थे- हम अदालत का सम्मान करते हैं लेकिन मंदिर आस्था का प्रश्न है जिसका फैसला अदालत नहीं कर सकती. राममंदिर चुनावी मुद्दा नहीं है लेकिन धर्म का राजनीति पर अंकुश नहीं रहा तो वह पतित हो जाएगी. कारसेवा प्रतीकात्मक होगी लेकिन मंदिर का निर्माण किए बिना कारसेवक वापस नहीं जाएंगे.

दूसरी ओर साध्वी ऋतंभरा, उमा भारती और विनय कटियार समेत बीसियों हाथों में दिन रात गरजते माइक थे जो पाकिस्तान में तोड़े गए मंदिरों की तस्वीरकशी करते हुए कारसेवकों को लगातार बानर सेना में बदल कर बाबर की औलादों को सबक सिखाने का अंतिम अवसर न चूकने देने की कसम दिला रहे थे. उन्माद इस स्तर पर पहुंचा दिया गया था कि अस्सी साल की बुढ़िया औरतें भी जो घरों में अपने हाथ से एक गिलास पानी भी न लेती होंगी “जिस हिंदू का खून न खौला खून नहीं वह पानी है” की धुन पर अपने कपड़ों से बेखबर नाचने लगीं लेकिन भ्रम भी ऐसा था कि कारसेवक रातों में अधीर होकर चंदा वापस मांगने लगते थे और ईंटे गठरी में लेकर वापस घर जाने की तैयारी करने लगते थे. मैने अपनी रिपोर्टों को इसी भ्रम और उन्माद के तथ्यों के सहारे नेताओं की कथनी-करनी के अंतर पर केंद्रित किया जो काफी एडिट करने के बाद बिल्कुल निरापद बनाकर छापी जाती थीं या रद्दी की टोकरी में डाल दी जाती थीं.

एक दिन सुबह का अखबार देखकर मेरे होश उड़ गए हम लोगों की संयुक्त बाईलाइन के साथ जाने किसकी लिखी एक काल्पनिक खबर बैनर के रूप में छपी थी- अयोध्या में मंदिर का अबाध निर्माण शुरू. मुझे उसी समय इंट्यूशन की तरह लगा कि इन भ्रमों के पीछे जिस छापामार योजना को छिपाने की कोशिश की जा रही है उसका पता मेरे अखबार को है और अंततः इस बार संविधान, न्यायपालिका वगैरह सबके सम्मान का स्वांग करते हुए विवादित ढांचे को ढहा दिया जाएगा. (एक से छह दिसंबर के बीच क्या हुआ यह लिखने की जरूरत नहीं है क्योंकि इसी साइट पर भाऊ राघवेंद्र दुबे लिख चुके हैं)

anil-ayodhya

छह दिसंबर की दोपहर बाबरी मस्जिद के गुम्बदों के गिरने का समय दर्ज करते हुए, सन्निपात में चिघ्घाड़ते, बड़बड़ाते पागल हो गए लोगों के चेहरे देखते हुए, दंगे में जलते हुए घरों के बीच फैजाबाद की ओर किसी से उधार ली गई मोटरसाइकिल पर भागते हुए, खबर लिखते हुए, कारसेवकों की पिटाई के दर्द के सुन्न हो जाने तक पीते हुए मैं यही अपने मन में बिठाता रहा कि लोकतंत्र एक नाटक है, आदमी अब भी पत्थर युग जितना ही बर्बर है, देश में कुछ निर्णायक रूप से बदल चुका है, असल मुद्दों को दफन कर की जाने वाली शार्टकट धार्मिक जहालत की कुर्सी दिलाऊ राजनीति को सदियों लंबा नया मैदान मिल गया है…मैं हैरान था क्योंकि इसी से जुड़ा एक व्यक्तिगत उपलब्धि जैसा भाव भी उमड़ रहा था- मैने सभ्यता का दूध नहीं खून पीते लंबे दांतो और टपकते पंजों वाले इतिहास को नंगधड़ंग अट्टहास करते देख लिया है.

उस छह दिसंबर को दुनिया पर गिरती चटक ऐसी ही धूप थी और मैं भी वहीं था. बाबरी मस्जिद गिरने से ज्यादा दंगे के बीच फैजाबाद पहुंच कर अपनी खबर भेजने के लिए परेशान. अकेला अनप्रोफेशनल काम यह किया जब कारसेवक मुझ पर झपटे तो मैने भी जवाब में एक दो को मारा। इसके बाद मैं कितने पैरो के नीचे कुचला गया नहीं पता अगर राघवेन्द्र दुबे (भाऊ) नहीं होते तो शायद मर जाता। आज सोच रहा हूं कि बीते बीस सालों की प्रोफेशनल तटस्थता का क्या हासिल रहा। मेरे भीतर का कितना बड़ा हिस्सा ये पत्तरकारिता लकवाग्रस्त कर गई है. उस समय भी जिनके लिए (अखबार था दैनिक जागरण) तटस्थ हुआ जा रहा था वे मंदिर बनवा रहे थे और राज्यसभा जा रहे थे। तब से तमाम चावला, चौधरी और अहलूवालिया बेशुमार बढ़े हैं जो प्रोफेशनल एथिक्स सिखाते हुए डकैतों की तरह माल बटोर रहे हैं.

तटस्थता पत्तरकारिता की सजावट है उससे भी अधिक पाखंड है.

.अनिल यादव

(अनिल यादव हिंदी के चर्चित लेखक और पत्रकार हैं। 6 दिसंबर को वे दैनिक जागरण की रिपोर्टिंग टीम के सदस्य बतौर  अयोध्या में मौजूद थे । अनिल इन दिनों स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। वह भी कोई देश है महाराज, सोनम गुप्ता बेवफा है, कीड़ाजड़ी, नगरवधुएं अखबार नहीं पढ़तीं और गोसेवक उनकी काफ़ी चर्चित किताबें हैं. )

साभार: मीडियाविजिल

“हिन्दू राष्ट्र बनाकर रहेंगे” के नारे लगाते हुए भीड़ ने किया डीयू के छात्रों पर हमला

1 दिसम्बर को दिल्ली विश्वविद्यालय के पास पटेल चेस्ट पर विभिन्न वामपंथी संगठनों के सदस्यों पर एक भीड़ ने उस समय हमला कर दिया जब यह सब बैठकर गीत गा रहे थे। इस हमले में कुछ को गंभीर चोटें आई हैं। हमलावरों की संख्या लगभग 50 थी, जिनमें 8-10 लड़कियां भी शामिल थी। सभी के हाथों में मोटे डंडे थे। पीड़ित छात्र छात्राओं ने ABVP के रोहित शर्मा, रोहित डेढ़ा, राजीव राठौर की पहचान भीड़ में से की है।

मुद्दा राजनीतिक कैदियों से जुड़ा हुआ है। CASR (Campaign Against State Repression) के नाम से विभिन्न संगठनों ने एक अभियान शुरू किया हुआ है। इस अभियान की तरफ से प्रोफ़ेसर जी एन साईबाबा और अन्य राजनीतिक कैदियों की रिहाई को लेकर एक कार्यक्रम रखा गया है। होने वाले प्रोग्राम के लिए पिछले कई दिनों से कैंपेन चल रहा है। यह कार्यक्रम आगामी 5 दिसंबर 2022 को दिल्ली में ही होना है। इस कार्यक्रम में वक्ताओं के तौर पर राज्यसभा सदस्य मनोज झा, प्रतिष्ठित वकील प्रशांत भूषण, दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर सरोज गिरी, प्रसिद्ध कवयित्री और लेखिका मीना कांदासामी और भाकपा के महासचिव डी राजा होंगे। इनके अलावा भी बहुत सारे बुद्धीजीवी, किसान, मजदूर, छात्र और नागरिक अधिकार कार्यकर्ता इस कार्यक्रम में शामिल होंगे। CASR ऐसा अभियान है जिसमें दिल्ली और देश भर के बहुत सारे जन संगठन और छात्र संगठन शामिल हैं। यह फ्रंट राजनीतिक कैदियों की रिहाई की मांग और राजकीय दमन के खिलाफ संघर्ष के लिए बना है।

भगत सिंह छात्र एकता मंच की सदस्या संगीता ने बताया, “हमला करने वालो ने आम आदमी पार्टी के झंडे से मुंह ढक रखा था। उन्होंने पहले साथियों पर अंडे, टमाटर और यहां तक कि गोबर फेंकना शुरू कर दिया। उसके बाद लाठियों से हमला किया। उन गुंडों में एक लड़की ने साथी बादल के सर पर ईंट मारकर सर फोड़ दिया। साथी,एत्माम को जो कि LAA (Lawyers Against Atrocities) से हैं उनके कान पर डंडे से हमला किया जिससे उनका कान कट गया है। साथी अरहान के गाल पर डंडा मारा है, एक साथी के पेट में डंडा लगी है और अंदरूनी चोटें आई हैं। लगभग सभी साथियों को बहुत गंभीर चोटें आई हैं।”

अभियान की सक्रिय सदस्या राजवीर कौर ने बताया, “ABVP के गुंडों हमले के दौरान हिंदू राष्ट्र बनकर रहेगा, तुम लोग आतंकवादी हो, गद्दार हो के नारे लगा रहे थे। वो बार बार प्रोफेसर जी एन साईंबाबा को नक्सली और माओवादी बता रहे थे। हम पिछले तीन दिनों से पांच दिसम्बर के कार्यक्रम का प्रचार दिल्ली के अलग अलग शिक्षण संस्थानों में कर रहे हैं। इन्होंने इससे पहले भी अभियान के पर्चे फाड़े हैं। “

इस दौरान मजदूर अधिकार संगठन के अध्यक्ष शिवकुमार पर भी जानलेवा हमला हुआ जिसमें उनको गंभीर चोट लगी हैं, एक दूसरे कार्यकर्ता बादल को सिर पर गंभीर चोट लग गई है।

राजवीर ने बताया, “यह हमला मौरिस नगर पुलिस थाने के ठीक सामने किया गया है। इससे साफ समझा जा सकता कि गुंडों को पुलिस प्रशासन मौन सहमति दे रहा था और दिल्ली पुलिस, सत्ता पक्ष और ABVP के गुंडों की मिलीभगत से यह हमला किया गया है ताकि राजनीतिक बंदियों के खिलाफ़ भी छात्र-छात्राएं आवाज़ न उठा सकें। लेक़िन भगतसिंह के वारिस ऐसी गीदड़ भभकी से डरने वाले नहीं है।”

यह खबर जिस समय लिखा जा रहा है ठीक इसी समय दिल्ली यूनिवर्सिटी की आर्ट फैकल्टी में यूनिवर्सिटी के छात्र छात्राएं इस गुण्डागर्दी के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं।