फिर शुरू हो सकता है किसान आंदोलन! राज्यों की राजधानियों में जुटे किसान

संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) के आह्वान पर, आज मजदूरों, छात्रों, युवाओं, महिलाओं और आम लोगों के समर्थन के साथ किसानों ने बड़े मार्च और रैलियां निकाली। अभी तक उपलब्ध जानकारी के अनुसार, इस प्रेस विज्ञप्ति के जारी होने तक, 25 राज्यों की राजधानियों, 300 से अधिक जिला मुख्यालयों और कई तहसील मुख्यालयों पर विरोध सभाएँ आयोजित की गईं।

कुल मिलाकर, यह अनुमान है कि पूरे भारत में 3000 से अधिक विरोध प्रदर्शन हुए। किसान विरोधी भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के खिलाफ अपना विरोध दर्ज कराने और किसानों की मांगों का ज्ञापन सौंपने के लिए संयुक्त किसान मोर्चा के ‘राजभवन चलो’ आह्वान में शामिल होने के लिए 5 लाख से अधिक नागरिक सड़कों पर उतरे।

राज्य के राज्यपालों के माध्यम से भारत के राष्ट्रपति को, केंद्र में सत्ताधारी दल की किसान विरोधी गतिविधियों में हस्तक्षेप करने और रोकने के लिए किसानों ने अपनी मांगों का ज्ञापन दिया।

चंडीगढ़, लखनऊ, पटना, कोलकाता, त्रिवेंद्रम, चेन्नई हैदराबाद, भोपाल, जयपुर और कई अन्य राज्यों की राजधानियों में लाखों लोगों का भारी जमावड़ा देखा गया। जैसे-जैसे पूरे भारत से सूचना, तस्वीरें और वीडियो आ रहे हैं, संयुक्त किसान मोर्चा का अनुमान है कि 5 लाख से अधिक किसान, एक सामूहिक शक्ति का बड़े पैमाने पर प्रदर्शन और किसानों की सभी मांगों के पूरा होने तक संघर्ष जारी रखने के संकल्प के साथ, आज भारत की सड़कों पर उतरे हैं।



चंडीगढ़, लखनऊ, पटना, कोलकाता, त्रिवेंद्रम, चेन्नई हैदराबाद, भोपाल, जयपुर और कई अन्य राज्यों की राजधानियों में लाखों लोगों का भारी जमावड़ा देखा गया। जैसे-जैसे पूरे भारत से सूचना, तस्वीरें और वीडियो आ रहे हैं, संयुक्त किसान मोर्चा का अनुमान है कि 5 लाख से अधिक किसान, एक सामूहिक शक्ति का बड़े पैमाने पर प्रदर्शन और किसानों की सभी मांगों के पूरा होने तक संघर्ष जारी रखने के संकल्प के साथ, आज भारत की सड़कों पर उतरे हैं।

इन मांगों में, संबंधित राज्यों की प्रमुख स्थानीय मांगों के साथ (1) सभी फसलों के लिए कानूनी रूप से गारंटीकृत सीटू+50% न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी)

(2) एक व्यापक ऋण माफी योजना के माध्यम से कर्ज मुक्ति

(3) *बिजली संशोधन विधेयक, 2022 को वापस लेना

(4) लखीमपुर खीरी में किसानों व पत्रकारों के नरसंहार के आरोपी केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्रा टेनी की बर्खास्तगी एवं उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई

(5) प्राकृतिक आपदाओं के कारण किसानों की फसल बर्बाद होने पर शीघ्र क्षतिपूर्ति के लिए व्यापक एवं प्रभावी फसल बीमा योजना

(6) सभी मध्यम, छोटे और सीमांत किसानों और कृषि श्रमिकों को ₹ 5,000 प्रति माह की किसान पेंशन

(7) किसान आंदोलन के दौरान किसानों के खिलाफ दर्ज सभी झूठे मामलों को वापस लेना

(8) किसान आंदोलन के दौरान शहीद हुए सभी किसानों के परिवारों को मुआवजे का भुगतान शामिल है।

गौरतलब है कि भारत में 26 नवंबर की तारीख का विशेष महत्व है। यह हमारा संविधान दिवस है, जब हमारे संविधान पर हस्ताक्षर किए गए जो बाद में देश के कानूनों की नींव बनी। 26 नवंबर 2020 को ही एसकेएम ने ऐतिहासिक “दिल्ली चलो” आंदोलन शुरू किया था, जो दुनिया का सबसे लंबा और सबसे बड़ा किसान आंदोलन बन गया, और किसानों को उनकी जमीन और आजीविका से बेदखल करने के लिए कॉर्पोरेट-राजनीतिक गठजोड़ के खिलाफ किसानों की आश्चर्यजनक जीत हुई। आज 26 नवंबर को राष्ट्रव्यापी “राजभवन मार्च” किसानों के विरोध के अगले चरण की शुरुआत का प्रतीक है।

एसकेएम ‘राजभवन चलो’ कार्यक्रम की शानदार सफलता के लिए सभी किसानों, खेतिहर मजदूरों, श्रमिकों, छात्रों, युवाओं, महिलाओं और अन्य संबंधित नागरिकों को बधाई देता है और देश भर में सभी से अपील करता है कि, जब तक की हमारी मांगें पूरी नहीं की जाती हैं, वे निरंतर और प्रतिबद्ध राष्ट्रव्यापी संघर्ष के लिए तैयार रहें और इसमें शामिल हों

*संयुक्त किसान मोर्चा*

अब डूब रहा है रेगिस्तान का जहाज! ऊंटों की संख्या में लगातार हो रही है गिरावट

राज्य का नाम ‘राजस्थान’ सुनते ही प्रत्येक मानव मस्तिष्क में रेगिस्तान व रेगिस्तान में पाया जाने वाला सबसे बड़ा जन्तु ऊँट का चित्र अपने आप ही बन जाता है। राजस्थान की पहचान वाला यह जन्तु संख्या बल में पिछड़ता हुआ नजर आ रहा है। पिछले एक दशक में राजस्थान प्रदेश में ऊँटो की संख्या में भारी कमी आई है, जो चिंताजनक है।

2012 में हुई 19वीं पशुगणना में राजस्थान में ऊँटो की संख्या 3.25 लाख थी। 20वीं पशुगणना, जो 2017 में प्रारंभ हुई जिसमें चौकाने वाले आंकड़े सामने आए हैं। 20वीं पशुगणना के अनुसार प्रदेश में ऊँटो की संख्या 3.25 लाख से घटकर 2.13 लाख रह गई है। यह चिंताजनक आंकड़े हैं जो ऊँट को दुर्लभ प्रजाति की ओर ले जा रहे हैं।

राजस्थान में ऊँट की घटती संख्या को देखते हुए 30 जून 2014 को तत्कालीन राज्य सरकार ने ऊँट को घरेलू पालतू पशु के रूप में संरक्षण प्रदान किया। सरकार ने ‘राजस्थान डिजास्टर मैनेजमेंट रिस्पॉन्स फंड’ की धारा 6(2) संशोधन कर इसमें कैटल/कैमल नया प्रावधान लागू करने की घोषणा की। अब तक इसमें सिर्फ गोवंश को ही शामिल किया गया था। जबकि चिंकारा 1981 से ही राजस्थान का राज्य पशु है। ऊँट को राज्य पशु का दर्जा दिए जाने के बावजूद भी संख्या में लगातार कमी होती जा रही है, जो भविष्य में ऊँट के विलुप्त होने के संकेत दे रही है।

राष्ट्रीय ऊष्ट्र अनुसंधान केन्द्र बीकानेर के प्रिंसिपल साइंटिस्ट डॉ. राजेश कुमार सावल ने हमें बताया, “पिछले कुछ समय से ऊँटों की संख्या में लगातार कमी हो रही है जो चिंताजनक है। ऊंट की राज्य के बाहर ख़रीद- फरोख्त पर रोक लगने के कारण ऊंट पालकों के लिए घाटे का सौदा साबित हो रहा है। महंगा चारा होने की वजह से पालकों में ऊँट के प्रति दिलचस्पी नहीं दिखाई देती। लेकिन ऊँट के दूध में ओषधीय गुण होने की वजह से मांग बढ़ी है। ऊँटनी का दूध एमेजॉन पर आसानी से उपलब्ध हो रहा है। ऊँट के प्रति जागरूकता लाने के लिए निजी फंड इक्कठा करके ऑल इंडिया रेडियो पर ‘ऊंटा री बाता’ का कार्यकम चलाया जा रहा है इसके अलावा दूरदर्शन के माध्यम से भी लोगों में जागरूकता लाने का प्रयास किया जा रहा है। ‘ऊँट महोत्सव’ का आयोजन भी ऊँट के प्रति जागरूकता लाने के लिए किया जा रहा है। लेकिन सरकार की ओर से ऊँट पालकों को कोई विशेष सहयोग नहीं मिल पाना इसकी घटती हुई संख्या का कारण है।

परिवहन के आधुनिक संसाधनों ने कम की ऊँट की उपयोगिता

पशू चिकित्सक (एलएसए) डॉ सुभाष सिंह सिद्धू ने बताया कि एक समय ऊँट मरुस्थल में परिवहन का मुख्य साधन हुआ करता था। आवागमन व कृषि कार्यों में ऊँट का विशेष महत्व था। लेकिन विकास की चकाचौंध भरी आँधी में ऊँट की उपयोगिता कम होती चली गई। परिवहन के लिए रेत पर चलने वाले स्कूटर व गाड़ियां और कृषि कार्यों के लिए ट्रैक्टर ने मरुस्थल में निवास करने वाले लोगों की ऊँट पर निर्भरता को कम किया है। ऊँट के दूध का उपयोग पश्चिमी राजस्थान में ही होता था, लेकिन समय के साथ अब इसका दायरा विस्तृत हुआ है। इसके बावजूद कई कारणों से ऊँट की उपयोगिता पशुपालकों के लिए कम होती जा रही है और वे इसके प्रजनन में ज्यादा रुचि नहीं ले रहे हैं।

युवाओं में नहीं है ऊँट के प्रति दिलचस्पी

श्री देगराय उष्ट्र संरक्षण दुग्ध विपणन विकास संस्थान के अध्यक्ष सुमेर सिंह ने हमें बताया, “मेरे पास तीन सौ के करीब ऊँट है जिनसे प्रतिदिन एक क्विंटल दूध प्राप्त होता है जिसे जैसलमेर में बेचा जाता है। लेकिन वर्तमान में ऊँट पलकों की स्थिति अति-दयनीय होती जा रही है। ऊँट पालक आर्थिक रूप से पिछड़ते जा रहे है घाटे का सौदा होने के कारण पलकों का इस प्राणी से मोह भंग हो रहा है, नई युवा पीढ़ी की दिलचस्पी नहीं दिखाई देती। चारागाह खत्म हो रहे है चारे के संकट पलकों पर भारी पड़ रहा है, खरीद-फरोख्त पूर्णतः बन्द है, ‘उष्ट्र प्रोत्साहन योजना’ के तहत अनुदान का पूर्णतः लाभ पलकों तक नहीं पहुंच पाया है। अभी तक प्रोत्साहन राशि की तीसरी किश्त का भुकतान नहीं हुआ है। ज्यादातर ऊंट पालकों को तो अभी तक दूसरी किश्त की राशि का भी प्राप्त नहीं हुई है। सरकार से मांग है कि अनुदान योजना की राशि बढ़ाई जाए और पलकों तक सुचारू रूप से समय पर पहुंचाई जाये।”

ऊँट में है विषम परिस्थितियों में जीने का हौंसला, मनुष्य के लिए प्रेरणा स्त्रोत

केमेलस ड्रोमेडेरियस (वैज्ञानिक नाम), कैमलिडाए कूल का यह जन्तु, हर परिस्थिति को अपने अनुकूल बना लेता है। हर प्रकार के मौसम में जीने का हौंसला रखता है। चाहे कड़ाके की ठंड हो या भीषण गर्मी, ऊँट हर स्थिति में जीवन बसर आसानी से कर लेता है। बदलते हालातों में इसने अपने आपको इस तरह ढाला कि रेतीली आंधी व सूरज की तेज किरणें भी इस पर बेअसर होती हैं। ऊँट के हर परिस्थिति में जीने का हौंसला वर्तमान के मनुष्य को हर परिस्थिति में जीने के लिए प्रेरित करता है।

अजीब-सा दिखने वाला यह पालतू पशु बिना पानी पीये कई दिनों तक जीवित रह सकता है। यह रेत के धोरों में तेज धावक की तरह बिना रुके-थके लम्बी दौड़ लगा लेता है। भारत में गरीब लोगों के लिए ऊँट दैनिक आमदनी का बेहतर जरिया है। इस भोले-भाले पशु की उपयोगिता न केवल कृषि व सिंचाई क्षेत्रों में है बल्कि इसका उपयोग माल ढोने, निर्माण तथा मनोरंजन, सवारी व सफारी में भी किया जाता है। इसके अतिरिक्त सीमा पर देश की सुरक्षा में भी इनका उपयोग किया जाता है। इसलिए ऊँट बहुउपयोगी पशुओं की श्रेणी में शुमार है। इनके बालों व खाल की व्यापक उपयोगिता होने से पशुपालक इन्हें बाजार में ऊँचे दामों में बेचकर काफी मुनाफा कमा लेतें है ऊँटनी के दूध में औषधीय गुण होते हैं, जो सेहत के लिए काफी फायदेमंद होता है। औषधीय गुणों के कारण इसके दूध की बिक्री बाजार में आसानी से हो जाती है।

ऊँट को कहा जाता है रेगिस्तान का जहाज

ऊँट के पैर चपटे व गद्देदार होते है जो मरुस्थलीय भूमि में धँसते नहीं जिस कारण ऊँट मरुस्थलीय भूमि पर लम्बी दूरी तय करने में सहायक होते है ऊँट के एक बार पानी पी लेने पर कई दिनों तक बिना पानी के रह सकता है ऊँट की जीवनशैली रेगिस्तान में रहने के अनुकूल है इसलिए इसे ‘रेगिस्तान का जहाज’ कहा जाता है।

जवानों के साथ ऊँट करता है सरहदों की सुरक्षा

राजस्थान में सीमा पर रेगिस्तान का जहाज बीएसएफ के जवानों का हमसफर बना हुआ है। हर तरह के मौसम में ऊँट उनके सच्चे साथी की भूमिका में हमेशा तत्पर रहते हैं। पाकिस्तान के साथ लगने वाली राजस्थान की 1070 किमी सीमा रेखा का अधिकांश क्षेत्र रेगिस्तानी है जहाँ पर बीएसएफ के जवान ऊँट पर बैठकर गश्त करते हैं।

बीएसएफ के जवानों का कहना है कि ऊँट की ऊंचाई अधिक होने के कारण ऊंट पर बैठ कर जवान काफी दूरी तक स्पष्ट देख सकता है। साथ ही रेगिस्तान में कई दिन तक बगैर पानी के भी ऊँट लगातार अपनी सेवा दे सकते है। बीएसएफ की प्रत्येक बटालियन के पास अपने ऊँट होते हैं। जवानों को उपलब्ध सुविधाओं के अनुसार ही ऊँटों का भी पूरा ध्यान रखा जाता है।

ऊँट संरक्षण के लिए राज्य सरकार के प्रयास

30 जून 2014 को राजस्थान सरकार ने ऊँट के संरक्षण के लिए ऊँट को राज्य-पशु का दर्जा दिया है, साथ ही प्रजनन को बढ़ावा देने के लिए “उष्ट्र प्रजनन प्रोत्साहन योजना” के अंतर्गत ऊँटनी के ब्याने पर तीन किश्तों में कुल 10,000 रूपये की आर्थिक सहायता दी जाती हैं। ऊँटनी के दूध का औषधीय महत्त्व होता हैं, इसका उपयोग मधुमेह, ऑटिज्म, दमा, पीलिया, तपेदिक और एनीमिया में लाभदायक बताया गया है। ऊँट पालन को बढ़ावा देने के लिए प्रतिवर्ष बीकानेर में “ऊँट महोत्सव” का आयोजन होता है जिसमें ऊँट की सजावट, बाल कतरन डिजाइन और ऊँट नृत्य के लिए पुरस्कार दिए जाते हैं।

क्या है जीएम सरसों? इसके खिलाफ क्यों उठ रहे हैं विरोध के सुर?

पर्यावरण मंत्रालय के जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रेजल कमेटी की ओर से जीएम सरसों के उत्पादन की मंजूरी मिलने के बाद इसका विरोध होना शुरू हो गया है। यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच चुका है. याचिकाकर्ताओं का कहना है कि इससे देश की जैव विविधता को खतरा हो सकता है। फिलहाल इस मामले पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी है। इस मामले को लेकर 10 नवंबर को अगली सुनवाई होगी।

सरसों रबी की मुख्य तिलहन फ़सल है. भारत में खाद्य तेल के रूप में सबसे ज्यादा सरसों के तेल का उपयोग किया जाता है. ऐसे में जीएम सरसों के उत्पादन से पैदावार बढ़ाने और खाद्य तेल पर विदेशी आयात पर निर्भरता कम करने के दावे किए जा रहे हैं। इसके अलावा मानव पर इसके नकारात्मक प्रभाव की आशंका भी जताई जा रही है।

क्या है जीएम सरसों?

जेनेटिक मोडिफाई फ़सल वह होती है जिनके जीन में कृत्रिम रूप से परिवर्तन किया जाता है अर्थात एक जीव के अंदर दूसरे जीव के लक्षण डाले जाते हैं। इससे फसलों को सूखे, खरपतवार, कीटों आदि से बचाने के साथ ही अधिक उत्पादन और पोषण भी प्राप्त किया जा सकता है।

जीएम सरसों में भी यही प्रक्रिया अपनाई गई है। कृत्रिम रूप से जीन में परिवर्तन कर पौष्टिकता और सरसों के उत्पादन में वृद्धि का लक्ष्य रखा गया है। इससे पहले भी भारत में जीएम सरसों की किस्म ‘ धारा मस्टर्ड हाइब्रिड -11’ (डीएमएच -11) स्वदेशी रूप से विकसित की गई है। डीएमएच -11 सरसों का आनुवांशिकी तौर पर संशोधित रूप है। इसे वरुण नमक एक पारंपरिक प्रजाति के साथ पूर्वी-यूरोप की अर्ली-हीरा-2 के साथ क्रॉस करके विकसित किया गया है। इससे सरसों के उत्पादन में वृद्धि हुई है।

जीएम फसलों का इतिहास

1980 के दशक अमेरिका में फसलों को संशोधित करने के प्रयास शुरू हुए। 1982 में इसका प्रयोग पहली बार तम्बाकू पर किया गया। 1990 में पहली बार जीएम फसल तैयार की गई । इस विधि से अमेरिका की एक निजी कंपनी ‘कैलगेने’ ने टमाटर पर इसका प्रयोग पहली खाद्य फ़सल पर किया था। इसके बाद बैंगन, धान, मक्का, कपास, सरसों आदि फसलों पर भी इसका प्रयोग किया गया है।

भारत में जीएम फसलों की शुरुआत 1996 में हुई। भारत में पहली जीएम फ़सल ‘बीटी-कपास’ थी पहली बार इसके व्यवसायिक उपयोग की अनुमति दी गई। जीएम सरसों के परीक्षण के लिए राजस्थान के दो बड़े उत्पादक जिले श्रीगंगानगर और भरतपुर को चुना गया है। इसके सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं को लेकर स्थानीय जनता और किसानों में संदेह बना हुआ है। कुछ किसानों का कहना है कि जीएम सरसों किसानों की पैदावार में बढ़ोतरी करेगी जिससे किसानों की आय में इजाफा होगा. वहीं कुछ प्रकृति के प्रति संवेदनशील किसानों ने इससे होने वाले नुकसान को लेकर चिंता जताई है। अभी तक इस मुद्दे पर किसानों व किसान संगठनों की मिली-जुली प्रतिक्रिया रही है।

जीएम सरसों के सकारात्मक पक्ष

कम लागत में अधिक उत्पादन
खरपतवार व कीटों जैसी समस्याओं से छुटकारा
सूखे व अन्य रोगों से छुटकारा
पोषक तत्वों की प्रचुरता (सुनहरी चावल एक जीएम खाद्य उत्पाद है जिसमे विटामिन ए की प्रचुर मात्रा है।)
विदेशी आयात नहीं करना पड़ेगा

जीएम सरसों के नकारात्मक पक्ष या संभावित खतरे

बीज पर अतिरिक्त खर्च बढ़ेगा।
बीज को दोबारा प्रयोग में नहीं लिया जा सकता।
पारिस्थितिकी तंत्र पर नकारात्मक प्रभाव हो सकता है।
स्थानीय किस्में नष्ट हो सकती हैं।
शहद उत्पादन पर प्रभाव पड़ेगा।
स्वास्थ्य संबधी खतरे हो सकते है।
कीटों पर प्रतिरोधक क्षमता विकसित करने की संभावना।
खरपतवार की नई किस्म के विकसित होने की संभावना।
मिट्टी के उपजाऊपन में कमी हो सकती है (बीटी कॉटन इसका प्रबल उदाहरण है।)

राजस्थान प्रदेश में सरसों का उत्पादन

वर्ष 2019-20 , उत्पादन 42.88%
वर्ष 2020-21, उत्पादन 44.82%
वर्ष 2021-22, उत्पादन 71.60%

(नोट : आंकड़े लाख मीट्रिक टन में)

कृषि महानिदेशक, श्रीगंगानगर जीआर मटोरिया ने हमें बताया, “अभी जीएम सरसों का परीक्षण शुरू होना है, फिलहाल मामला सुप्रीम कोर्ट में है, कोर्ट ने इस पर रोक लगा दी है। इसके सकारात्मक और नकारात्मक पक्ष परीक्षण होने के बाद पता चलेंगे।”

ग्रामीण किसान-मजदूर समिति श्रीगंगानगर के अध्यक्ष संतवीर सिंह मोहनपुरा ने बताया, “सुनने में आया है कि जीएम सरसों के परीक्षण के लिए श्रीगंगानगर व भरतपुर को चुना गया है. इसके सकारात्मक और नकारात्मक पक्ष को देखते हुए इस मामले पर उचित प्रतिक्रिया दी जाएगी।”

केवल रोजगार के आंकड़े काफी नहीं, रोजगार में गुणपूर्णता जरूरी!

बेहतर आर्थिक वृद्धि मौजूदा दौर के हर ‘राष्ट्र राज्य’ की पहली प्राथमिकता है। और इस प्राथमिकता को हासिल करने के लिए जरूरी है अर्थव्यवस्था का पहिया तेज गति से घूमे। पहिए की गति उत्पादन (प्रोडक्शन) पर निर्भर करती है। जितना अधिक उत्पादन होगा उतने ही अधिक गति से पहिया दौड़ेगा। उत्पादन मुख्यत दो कारकों पर टिका रहता है–पहला पूंजी और दूसरा मजदूर।

लेकिन मशीनें आ जाने के बाद उत्पादन के मामले में मजदूरों के पास सौदेबाजी की ताकत कम हो गई। अब मजदूरों के लिए काम मिलना जरूरी था। काम की कमतर गुणवत्ता और वेतन की कमी के बावजूद मजदूर के पास कोई विकल्प नहीं रहा।
कार्ल मार्क्स ने ऐसे मजदूरों को आत्मलोप की स्थिति से ग्रसित बताया था। भारतवर्ष में आज चहुंओर रोजगार की बात हो रही है। पर कैसा रोजगार? क्या केवल पदों का सृजन ही काफी है? क्या मौजूदा नौकरियों में गुणवत्ता युक्त काम है? आज के इस न्यूज़ अलर्ट में इसकी पड़ताल करेंगे।

पिछले कुछ वर्षों से आर्थिक आभामंडल में तनाव बढ़ रहा है। जाहिर है धीमी होती अर्थव्यवस्था की गाड़ी का प्रभाव रोजगार पर भी पड़ेगा। पर आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण की ओर से जारी आंकड़ों में रोजगार से जुड़े आंकड़े गुलाबी हैं।

सर्वेक्षण में मुख्यत: तीन तरह के आंकड़े होते हैं। पहला, जनसंख्या का ऐसा अनुपात जो ‘काम’ करना चाहता है (श्रम शक्ति भागीदारी दर)। दूसरा, जनसंख्या का ऐसा अनुपात जो किसी काम में संलग्न है(कामगार जनसंख्या अनुपात) । और तीसरा, काम करने के इच्छुक लोगों में से किसी भी काम में संलग्न लोगों को हटा दें, तब जो अनुपात आएगा उसे हम बेरोजगारी दर कहते हैं।

गौर कीजिए! यहां श्रम शक्ति भागीदारी दर और कामगार जनसंख्या अनुपात भी स्थिर है।
कृपया नीचे दिए गए ग्राफ को देखिए। (ग्राफ को मोबाइल में सही से देखने के लिए ग्राफ पर भार दीजिए फिर ओपन इमेज पर क्लिक कर दीजिए)

स्त्रोत: पीएलएफएस की वार्षिक रिपोर्ट जारी करते समय भारत सरकार की ओर से जारी प्रेस रिलीज। कृपया यहां क्लिक कीजिए

ग्राफ को भाषायी जामा!
श्रम शक्ति भागीदारी दर भी लगातार बढ़ रही है। वर्ष 2017–18 में यह 36.9 फीसदी थी। बढ़ते हुए 2018–19 में 37.5 फीसदी, 2019–20 में 40.1 फीसदी और वर्ष 2020–21 में 41.6 फीसदी।इसी तरह कामगार जनसंख्या अनुपात भी लगातार बढ़ रहा है। 2017–18 ने 34.7 प्रतिशत से बढ़ते हुए 2018–19 में 35.3 फीसदी, 2019–20 में 38.2 फीसदी और 2020–21 में 39.8 फीसदी हो जाता है।

गरीब आदमी के पास अधिक विकल्प मौजूद नहीं रहते हैं। आर्थिक तनाव के इस दौर में मौजूद विकल्प को स्वीकार कर, गुजारा करना पड़ता है।

काम की गुणवत्ता का महत्व तुच्छ हो जाता है। इसी दौरान मंत्रालय यह हवा बना देता है कि देश में रोजगारों का सृजन हो रहा है, बढ़ रहे हैं। इसलिए हमें बेरोजगारी, एलएफपीआर और कामगार जनसंख्या अनुपात के आंकड़ों से इतर देखना पड़ेगा!

काम की गुणवत्ता!
अंतर्राष्ट्रीय मजदूर संगठन का कहना है– बेकारी में कमी आ रही है। कमी का यह मतलब कतई नहीं है कि जो रोजगार मिल रहे हैं वो अदब वाले और लाभप्रद हैं। अदब वाले काम से तात्पर्य है शख्स अपनी इच्छा से उस काम को कर रहा है। उसे कार्यक्षेत्र में बेहतरीन वातावरण और सामाजिक सुरक्षा मिल रही हो। उस शख्स से जुड़े किसी भी प्रकार के मुद्दे पर निर्णय लेते समय उसकी सहमति ली जा रही हो।

भारत के संदर्भ में लाभजनक रोजगार पर McKinsey वैश्विक संस्थान ने “ए नोट ऑन गैनफुल एम्प्लॉयमेंट इन इंडिया” शीर्षक से एक रपट जारी की थी। इनके अनुसार लाभजनक रोजगार कई आयामों को शामिल करता है जैसे– बेहतर मेहनताना, आय की सुरक्षा, कार्य क्षेत्र में साफ–सफाई, काबिलियत के अनुसार काम और नौकरी में लचीलापन।कुल रोजगार के चमकते हुए आंकड़ों की चका चौंध से इतर सच्चाई की पड़ताल करना जरूरी है।


घरेलू उद्यमों में अवैतनिक मददगार!
मजदूर, जिन्हें रोजगार मिल जाता है। उन्हें मिले हुए रोजगार के आधार पर तीन भागों में बांटा जाता है। पहला, स्वनियोजित। दूसरा, दैनिक भत्ते या खास वेतन से नौकरी पर लगा हुआ। तीसरा, अनौपचारिक मजदूर।पहली श्रेणी के मजदूरों को दो सह श्रेणी में बांटा जाता है– १.खुद का व्यवसाय है। २. घरेलू उद्यमों में अवैतनिक मददगार|

कृपया नीचे दिए गए ग्राफ को देखिए। (ग्राफ को मोबाइल में सही से देखने के लिए ग्राफ पर भार दीजिए फिर ओपन इमेज पर क्लिक कर दीजिए)

स्त्रोत: कृपया यहां क्लिक कीजिए

ग्राफ–2 दर्शाता है कि घरेलू उद्यमों में अवैतनिक मजदूरों का अनुपात बढ़ रहा है|
वर्ष 2018–19 में यह अनुपात 13.3 फीसदी था जो बढ़कर 2019–20 में 15.9 और 2020–21 में बढ़कर 17.3 फीसदी हो जाता है। अवैतनिक मजदूरों का बढ़ता यह अनुपात ही रोजगार के आंकड़ों को गुलाबी रंग दे रहा है। सरकारी भाषा में ये अवैतनिक मजदूर ‘सेल्फ इंप्लॉयड’ (स्वरोजगार) हैं। लेकिन ना इनकी तय मजदूरी है और ना ही नियमित आय का ठिकाना।अवैतनिक मजदूरों के खुद का कोई उद्यम नहीं होता है। वे किसी और के उद्यम में बिना वेतन के काम करते हैं।

इसी ग्राफ में यह दर्शाया गया है कि ऐसे मजदूर जिन्हें नियमित मेहनताना या वेतन मिलता था, का अनुपात घट रहा है। पीएलएफएस के सर्वे 2018–19 में नियमित वेतन या मजदूरी वालों का अनुपात 23.8 फीसदी था जो घटते हुए 2019–20 में 22.9 फीसदी और 2020–21 में और घटकर 21.1 फीसदी हो जाता है।

नियमित वेतन या मजदूरी प्राप्त करने वाले कर्मचारियों में संगठित और असंगठित दोनों क्षेत्रों से ताल्लुक रखने वाले ऐसे कर्मचारी शामिल होते हैं। और इन्हें नियमित वेतन मिलता है।रोजगार की दुनिया में देखें तो यह वाला विकल्प उम्दा है, इसमें गुणवत्ता वाले रोजगार का भाव आता है (क्योंकि यह आय सुरक्षा प्रदान करता है)।

ग्राफ के अनुसार नैमित्तिक (कैजुअल) मजदूरों का कुल मजदूरों में अनुपात घट रहा है। पीएलएफएस सर्वे 2017–18 से घटते हुए 2020–21 के सर्वे तक 24.9 फीसदी से 23.3 फीसदी हो जाता है। संगठित और असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले ऐसे मजदूर जिनका वेतन ठेकेदार की शर्तों पर निर्भर करता है, नैमित्तिक मजदूर कहलाते हैं।

ग्राफ–2 दर्शाता है कि घरेलू उद्यमों में अवैतनिक मजदूरों का अनुपात बढ़ रहा है। वर्ष 2018–19 में यह अनुपात 13.3 फीसदी था जो बढ़कर 2019–20 में 15.9 और 2020–21 में बढ़कर 17.3 फीसदी हो जाता है।

अवैतनिक मजदूरों का बढ़ता यह अनुपात ही रोजगार के आंकड़ों को गुलाबी रंग दे रहा है। सरकारी भाषा में ये अवैतनिक मजदूर ‘सेल्फ इंप्लॉयड’ (स्वरोजगार) हैं। लेकिन ना इनकी तय मजदूरी है और ना ही नियमित आय का ठिकाना।अवैतनिक मजदूरों के खुद का कोई उद्यम नहीं होता है। वे किसी और के उद्यम में बिना वेतन के काम करते हैं।

इसी ग्राफ में यह दर्शाया गया है कि ऐसे मजदूर जिन्हें नियमित मेहनताना या वेतन मिलता था, का अनुपात घट रहा है। पीएलएफएस के सर्वे 2018–19 में नियमित वेतन या मजदूरी वालों का अनुपात 23.8 फीसदी था जो घटते हुए 2019–20 में 22.9 फीसदी और 2020–21 में और घटकर 21.1 फीसदी हो जाता है।

नियमित वेतन या मजदूरी प्राप्त करने वाले कर्मचारियों में संगठित और असंगठित दोनों क्षेत्रों से ताल्लुक रखने वाले ऐसे कर्मचारी शामिल होते हैं। और इन्हें नियमित वेतन मिलता है। रोजगार की दुनिया में देखें तो यह वाला विकल्प उम्दा है, इसमें गुणवत्ता वाले रोजगार का भाव आता है (क्योंकि यह आय सुरक्षा प्रदान करता है)।

ग्राफ के अनुसार नैमित्तिक (कैजुअल) मजदूरों का कुल मजदूरों में अनुपात घट रहा है। पीएलएफएस सर्वे 2017–18 से घटते हुए 2020–21 के सर्वे तक 24.9 फीसदी से 23.3 फीसदी हो जाता है। संगठित और असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले ऐसे मजदूर जिनका वेतन ठेकेदार की शर्तों पर निर्भर करता है, नैमित्तिक मजदूर कहलाते हैं।

कार्य–दशा
सामान्यतः नियमित तनख्वाह या मजदूरी वाले कामगारों की कार्य दशा, स्वनियोजित और नैमित्तिक कामगारों की तुलना में बेहतर होती है। हालांकि, नियमित वेतन या मजूरी पाने वाला कर्मचारी भी संगठित क्षेत्र में काम करने वाले कर्मचारी के जितना लाभ नहीं प्राप्त कर पाता है।

टेबल नंबर 1 को देखिए! यहां नियत तनख्वाह या मजूरी वालों के तीन तरह के आंकड़े दिए गए हैं।

1) ऐसे नियत तनख्वाह या मजूरी वाले कर्मचारियों का अनुपात दिया गया है जिनके पास नौकरी का लिखित अनुबंध नहीं है।

2) ऐसे कर्मचारी (नियत तनख्वाह या मजूरी वाले) जिन्हें वैतनिक छुट्टी नहीं मिलती है।

3) ऐसे कर्मचारी (नियत तनख्वाह या मजूरी वाले) जिन्हें किसी भी तरह का सामाजिक लाभ नहीं मिलता है।

स्त्रोत: कृपया यहां क्लिक कीजिए

टेबल 1 बताती है कि नियत तनख्वाह या मजूरी वाले ऐसे कर्मचारी जिनके पास कोई लिखित अनुबंध नहीं है, संख्या घट रही है। पीएलएफएस 2017–18 में इनका अनुपात 71.1 फीसदी था जो घटकर पीएलएफस 2020–21 में 64.3 फीसदी हो जाता है। इसी तरह ऐसे कर्मचारियों का अनुपात भी घट रहा है जो वैतनिक छुट्टी लेने के योग्य नहीं हैं। पीएलएफएस 2017–18 में 54.2 फीसदी था जो घटकर 2020–21 के सर्वे में 47.9 फीसदी हो जाता है।

ऐसे कर्मचारी जो किसी भी प्रकार की सामाजिक सुरक्षा के लाभ के योग्य नहीं हैं, का अनुपात निरंतर बढ़ रहा है। पीएलएफएस 2017–18 में 49.6 फीसदी था जोकि बढ़कर 2020–21 में 53.8 फीसदी हो जाता है।

अलग–अलग श्रेणी के मजदूरों का मेहनताना और पारितोषिक

गुणपूर्णता युक्त रोजगार की पहचान के सूचकों में एक है उक्त रोजगार से मिली आमदनी। पीएलएफएस की 2020–21 वाली रपट में नियत तनख्वाह या मजूरी वाले कर्मचारियों का औसत दैनिक मजदूरी या वेतन (रुपए में) वर्तमान साप्ताहिक स्थिति (करेंट वीकली स्टेटस) में अनौपचारिक श्रमिक की तुलना में अधिक था।

हालांकि, स्वनियोजित कर्मचारियों का वेतन वर्तमान साप्ताहिक स्थिति प्रारूप में अनौपचारिक मजदूरों से अधिक था।

देखें चार्ट –3

Note: * Calculated by dividing ‘Average wage/ salary earnings (in Rs) during the preceding calendar month by the regular wage/ salaried employees in current weekly status during the survey period 2020-21’ by 30 
** Calculated by dividing ‘Average gross earnings (in Rs.) during the last 30 days from self-employment work in current weekly status during the survey period 2020-21’ by 30

Source: Statements-17, 18 & 19, Annual Report on PLFS, July 2020-June 2021, released in June 2022, NSO, MoSPI, please click here to access 

ग्राफ को भाषायी जामा पहनाएं तो सभी तिमाहियों में अनौपचारिक मजदूरों की औसत कमाई कम है।

गौर करने वाली बात है कि जब पीएलएफसी 2020–21 का सर्वे तैयार किया जा रहा था तब अप्रैल–जून 2021 की तिमाही को भी शामिल किया गया है, उस समय राज्यों ने अपने हिसाब से लॉकडाउन लगाया था।

सामान्य स्थिति दृष्टिकोण और साप्ताहिक स्थिति दृष्टिकोण–
पीएलएफएस की रिपोर्ट में तीन समय काल के आधार पर रोजगार के आंकड़े संग्रहित किए जाते हैं। पिछले 365 दिनों में रोजगार की स्थिति, पिछले सप्ताह में रोजगार की स्थिति और दैनिक रोजगार स्थिति।
सामान्य स्थिति दृष्टिकोण में श्रम बल के दो तरह के आंकड़े होते हैं। प्राथमिक स्थिति और सहायक स्थिति
अगर सर्वे के समय पिछले 365 दिनों में कोई शख्स 6 माह या उससे अधिक समय तक श्रम बल का हिस्सा रहता है तो वह प्राथमिक स्थिति की श्रेणी में आएगा। वहीं अगर कोई शख्स सर्वे के समय पिछले 365 दिनों में 30 दिन या उससे अधिक किसी आर्थिक गतिविधि से जुड़ा रहता है तो वो सहायक स्थिति में गिना जाएगा।

साप्ताहिक स्थिति दृष्टिकोण में सर्वे के समय अगर कोई शख्स पिछले सात दिनों में 1 घंटे के लिए भी किसी काम से जुड़ा है तो वह रोजगार वाला गिना जाएगा।

सन्दर्भ यहाँ से-

Fourth Annual Report on Periodic Labour Force Survey (PLFS), July 2020-June 2021, released in June 2022, National Statistical Office (NSO), Ministry of Statistics and Programme Implementation (MoSPI), please click here to access 

Third Periodic Labour Force Survey Annual Report (July 2019-June 2020), released in July 2021, NSO, MoSPI, please click here to access  

Press release: Periodic Labour Force Survey (PLFS) – Annual Report [July, 2020 – June, 2021], released on 14 June, 2022, Press Information Bureau, Ministry of Statistics & Programme Implementation (MoSPI), please click here to access 

Decent Work, International Labour Organisation, please click here to access [accessed on September 21, 2022]

A new emphasis on gainful employment in India – Jonathan Woetzel, Anu Madgavkar, and Shishir Gupta, published on June 13, 2017, McKinsey Global Institute, please click here to access [accessed on September 21, 2022]

News alert: Latest available PLFS data sheds light on unpaid helpers in self-employment & underemployment among various types of workers, Inclusive Media for Change, Published on Sep 2, 2021, please click here to access  

Low Incomes Haunt India’s Growth -Subodh Varma, Newsclick.in, 18 September, 2022, please click here to access

Joblessness below pre-COVID levels: Finance Ministry, The Hindu, 17 September, 2022, please click here to access   

Why the Rise in Workforce Participation During the Pandemic Points to Distress Employment -Shiney Chakraborty, Priyanka Chatterjee and Mitali Nikore, TheWire.in, 6 July, 2022, please click here to access  

Our employment data should be interpreted cautiously -Himanshu, Livemint.com, 16 June, 2022, please click here to access 

The Dramatic Increase in the Unemployment Rate -Prabhat Patnaik, Newsclick.in, 14 June, 2019, please click here to access