प्रधानमंत्री के कुछ किसानों को न मना पाने के कारण तीनों कानूनों को वापस नहीं लिया गया, बल्कि इसके पीछे का सही कारण है किसानों का दृढ़ता से डटे रहना। जबकि डरपोक मीडिया उनकी शक्ति और संघर्ष की सही कद्र भी नहीं कर रहा है।मीडिया खुल कर यह नहीं मान रहा की, कई सालों में, हुए दुनिया के इस सबसे लंबे संघर्ष ने जीत हासिल की है, जो महामारी के प्रचंड दौर में अपने संघर्ष को शुरू किया और जारी रखा।
इस विजय ने एक विरासत को आगे बढ़ाया है। सभी तरह के किसानों, आदिवासी और दलित समुदायों से जुड़े महिलाओं और पुरुषों ने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया था और हमारी स्वतंत्रता के 75 वें वर्ष में किसानों ने दिल्ली की देहरी पर अपनी संघर्ष की उसी आत्मा का फिर दर्शन करवा दिया है।प्रधानमंत्री ने घोषणा की है कि पीछे हटते हुए, वे कृषि के इन तीनों कानूनों को आगामी संसद के अधिवेशन (29 नवंबर) में वापस ले लेंगे। उनके अनुसार ऐसा किसानों के एक वर्ग को उनके द्वारा मना पाने में असफल रहने के कारण हुआ है। ध्यान दीजिए सिर्फ एक वर्ग को वह नहीं समझा सके कि तीनों गलत कानून वास्तव में उनके लिए लाभदायक हैं।इस संघर्ष के दौरान 600 से भी अधिक शहीद हुए किसानों के बारे में उन्होंने ( प्रधानमंत्री ने) एक भी शब्द नहीं कहा। वह साफ कह रहे हैं कि उनकी सिर्फ एक कमी रही, वह यह कि वह किसानों के एक वर्ग को नहीं समझा सके।
महामारी के दौरान जबरदस्ती लाद दिए गए कानूनों में वह कोई कमी नहीं मानते।तो, ‘खालिस्तानी’, ‘देशद्रोही’, ‘किसानों के भेष में नकली कारिंदे’, आदि किसानों का वह वर्ग है जो प्रधानमंत्री के शांत कर देने वाले जुमलों से समझाया न जा सका। उन्होंने मानने से इंकार कर दिया।मनाने का तरीका और पद्धति कैसी थी? अपनी शिकायतों को समझाने के लिए जाते किसानों को राजधानी में प्रवेश न करने देना, खंदकों और कंटीली बाड़ से उनका रास्ता रोकना, पानी की बौछारें।उनके कैंपों को छोटे- छोटे यातना शिविर बना कर। शक यह भी है कि एक केंद्रीय मंत्री के बेटे के वाहनों ने लोगों को कुचला। मनाने का इस सरकार का तरीका ऐसा ही है।
केवल इस एक साल में प्रधानमंत्री ने विदेश के सात दौरे किए हैं (सबसे आखरी COP26 जैसे)। लेकिन उनके पास इतना समय नहीं था कि अपने घर से कुछ किलोमीटर जाकर दस हजार के करीब किसानों की बात सुन लेते, जो दिल्ली की देहरी पर थे और जिनकी तकलीफ दुनिया भर ने महसूस की। क्या मनाने का सही तरीका ऐसा ही होता है?
इस संघर्ष के आरंभ से ही मुझे मीडिया और अन्य लोगों के प्रश्नों की बौछारें झेलनी पड़ीं कि यह संघर्ष कब तक चलने की उम्मीद है? किसानों ने इसका जवाब दे दिया है। लेकिन उन्हें पता है कि यह शानदार जीत का अभी पहला कदम ही है। कानून वापसी का मतलब है कि फिलहाल अभी उनकी गर्दन कॉरपोरेट के पैरों तले आने से बच गई है। लेकिन एमएसपी, खरीद से लेकर अन्य आर्थिक मामलों जैसी बड़ी समस्याओं के हल निकालने जैसी बातें अभी बाकी हैं। टेलीविजन पर लगभग हैरान करते हुए एंकर हमें सूचना दे रहे हैं कि कानूनों की इस वापसी का संबंध फरवरी 2022 में पांच राज्यों में होने वाले विधान सभा चुनावों से है।
यह मीडिया आपको 3 नवंबर को घोषित हुए 3 संसदीय और 29 विधान सभाओं के मध्यावधि चुनावों के परिणामों के बारे में बताने में नाकाम रहा है। उस समय के संपादकीय पढ़िए और टीवी पर हुए विश्लेषण देखिए। उन्होंने शासक दल की मध्यावधि चुनाव जीतने की बातें की, अन्य बातें बहुत कम की गईं। बहुत कम संपादकीयों में उन परिणामों पर असर डालने वाले दो मुख्य कारणों का जिक्र किया गया। पहला किसानों का संघर्ष और दूसरा कोविड़-19 का कुप्रबंधन।
किसानों के जिन संघर्षों ने देश में सबको छू लिया था, उन्हें दिल्ली के बॉर्डर पर ही नहीं, बल्कि कर्नाटक (बाएं) पश्चिमी बंगाल(मध्य) और महाराष्ट्र (दाएं) और अन्य राज्यों में असर डाला। श्री मोदी की घोषणा से लगता है कि कम से कम उन्होंने इन दो कारकों के महत्व को समझ लिया है। उन्हें पता लग गया है कि जिन राज्यों में किसानों के संघर्ष हुए हैं वहां उन्हें उप चुनावों में घनी पराजय हुई है। जैसे राजस्थान और हिमाचल जैसे राज्य। लेकिन तोते की तरह रटता मीडिया पंजाब और हरियाणा को अपने विश्लेषण में शामिल नहीं कर पाया। हमने राजस्थान में दो चुनाव क्षेत्रों में बीजेपी या संघ परिवार से जुड़े किस दल को तीसरे और चौथे स्थान पर आते देखा है या हिमाचल में देखिए, जहां वे एक संसदीय सीट और तीनों असेंबली सीट हार गए।
हरियाणा में जैसा कि विरोधी कहते हैं, बीजेपी के उम्मीदवार के लिए सीएम से डीएम तक सब थे। जहां कांग्रेस ने बेवकूफी में अभय चौटाला के खिलाफ उम्मीदवार खड़ा कर दिया, जिन्होंने किसान संघर्ष के मुद्दे पर इस्तीफा दिया था। वहां केंद्रीय मंत्री भी पूरी ताकत से मौजूद थे। फिर भी बीजेपी हार गई। कांग्रेस के उम्मीदवार की जमानत जब्त हो गई पर, फिर भी वह चौटाला का जीत का अंतर कम करने में कामयाब रहा। वह फिर भी 6000 वोटों से जीते। इन तीनों राज्यों में किसान संघर्ष का असर रहा। और कॉरपोरेट वाली बात के बरख्श प्रधान मंत्री कारण समझ गए हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इन प्रभावी कारकों के अलावा लखीमपुर खीरी का खुद मोल लिया नुकसान भी जुड़ गया।
और जहां चुनाव 90 दिन बाद होने हैं, वहां की स्थिति प्रधान मंत्री समझ गए हैं। इन तीनों प्रदेशों में, अगर विपक्ष समझ से काम ले, तो बीजेपी सरकार को इस सवाल का जवाब देना पड़ेगा कि 2022 में किसानों की आय दुगुनी करने के वायदे का क्या हुआ? एनएसएस 2018-19 की 77वीं रिपोर्ट से पता चलता है कि किसानों की फसल की आय में गिरावट आई है, दुगुना होना तो बहुत दूर की बात है। यह रिपोर्ट फसल की बुवाई से हुई समूची आय में भी गिरावट का संकेत देती है।किसानों ने सिर्फ कानूनों की वापसी की अपनी ठोस मांग को मनवाने से कुछ ज्यादा ही कर दिखाया है। उनके संघर्ष का देश की राजनीति पर गहरा असर पड़ा है। जैसा की 2004 के आम चुनावों में हुआ था।
कृषि का संकट अभी खत्म नहीं हुआ है।बल्कि यह इसकी समस्याओं के आगाज का पहला चरण है।किसान बहुत समय से संघर्ष कर रहे हैं। विशेषकर 2018 से जब महाराष्ट्र के आदिवासी किसानों ने नासिक से मुंबई तक का लगभग 182 किलोमीटर का अद्भुत पैदल मार्च करके देश को चकित कर दिया था। तब भी उन्हें शहरी नक्सल और ऐसा ही कुछ कह कर तिरस्कृत किया गया था। उनके मार्च ने उनके आलोचकों को पछाड़ दिया था।आज भी बहुत सी बातों में उन्हें विजय मिली है।कॉरपोरेट मीडिया पर उनकी यह जीत किसी भी तरह कम नहीं है।और मुद्दों की तरह कृषि मामलों पर भी मीडिया ने अतिरिक्त 3A (Amplifying Ambani Adani+) बैटरी की शक्ति का काम किया । दिसंबर से अप्रैल 2022 तक हम राजा राम मोहन राय द्वारा शुरू किए गए दो अखबारों के 200 वर्ष मनाएंगे।ये दोनों वास्तव में भारत के निजी और अनुभूत अखबार कहे जा सकते हैं। उन में से एक ‘मिरात उल अकबर’ ने कोमिला (अब चट्टगांव, बांग्लादेश) के एक जज द्वारा प्रताप नारायण दास की कोड़ों से हत्या का आदेश का खुलासा किया था। राय के सशक्त संपादकीय के कारण उच्चतम न्यायालय ने उस जज का संज्ञान लिया और उस पर मुकदमा चलाया।
इसकी प्रतिक्रिया में गवर्नर जनरल ने प्रेस को डराने के लिए एक प्रेस अध्यादेश जारी किया। इसको न मानते हुए राय ने घोषणा की कि वे मीरात उल अकबर बंद कर देंगे, बजाय उन शमनक कानून और हालात के सामने झुकने के।(और इस लड़ाई को उन्होंने दूसरे अखबारों के जरिए चलाया)। वह थी साहस की पत्रकारिता। ऐसी चाटुकार और गिरी हुई पत्रकारिता नहीं, जो हमने किसानों के संघर्ष के बारे में देखी है। किसानों के हित प्रदर्शन की आड़ में एकतरफा संपादकीयों में उन्हें धनी किसान बताते हुए अमीरों के लिए समाजवाद की मांग करने वाले कह कर उनकी आलोचना करती रही। इंडियन एक्सप्रेस , टाइम्स ऑफ इंडिया ,और लगभग सारे अखबार लाज़िम तौर पर यही बताते रहे कि ये लोग अपढ़ देहाती हैं जिनसे सिर्फ नरमी से बात करनी है।सभी संपादकीय लगभग इसी पर समापन करते कि इन कानूनों को वापस मत लो, ये सही कानून हैं।
यही हाल बाकी सारे मीडिया का भी था। क्या इनमें से कभी किसी प्रकाशन समूह ने पाठकों को बताया कि मुकेश अंबानी की निजी संपत्ति 85.50 बिलियन डॉलर है(फोर्ब्स 2021) और पंजाब के समूचे राज्य के सकल उत्पादन 85.5 बिलियन डॉलर को छूने वाली है? क्या कभी उन्होंने बताया कि अंबानी और अडानी की सारी दौलत पंजाब और हरियाणा राज्य के समूचे सकल उत्पाद से ज्यादा है। हालात बहुत खराब हैं।अंबानी भारत के मीडिया का सबसे बड़ा मालिक है और जिस मीडिया पर उसका हक नहीं, उसमें उसका सबसे अधिक प्रचार होता है।इन दोनों कॉरपोरेट की संपत्ति का जिक्र उत्सवी अंदाज में किया जाता है। यह कॉरपोरेट के सामने रेंगने वाला मीडिया है।
आजकल यह सुगबुगाहट है कि कैसे, कानूनों की वापसी की यह चतुर चाल पंजाब विधान सभा के चुनावों पर असर डालेगी; कि अमरिंदर सिंह ने कांग्रेस से इस्तीफा देकर और मोदी के साथ अपने विमर्श को एक विजय की तरह पेश किया है; कि इससे वहां चुनावों की तस्वीर बदल जायेगी। लेकिन उस राज्य के लाखों लोग, जिन्होंने इस संघर्ष में भाग लिया है, वे जानते हैं कि यह जीत किसकी है। राज्य के लोग दिल से उनके साथ हैं जिन्होंने विरोध शिविरों में दिल्ली में दशकों में आई सबसे खराब सर्दी सही, गर्मी के भभूके सहे, उसके बाद बारिशें सहा।
श्री मोदी और उनके बंधुआ मीडिया का अफसोसजनक व्यवहार।और सबसे जरूरी बात जो इन विरोध कर्ताओं ने सीखी है वह है दूसरे क्षेत्रों में भी ऐसी सरकार (जो अपने विरोधियों को जेल में डाल देती है या और तरह प्रताड़ित करती है) के खिलाफ प्रतिरोध करना; ऐसी सरकार के खिलाफ भी जो नागरिकों ( जिनमें पत्रकार भी होते हैं) को आराम से यूएपीए में गिरफ्तार करती है और स्वतंत्र मीडिया पर आर्थिक अपराधों के बहाने छापे मारती है। यह सिर्फ किसानों की विजय का दिवस नहीं है।यह नागरिक स्वतंत्रताओं और मानवीय अधिकारों की लड़ाई का विजय दिवस है। भारत के लोकतंत्र के लिए विजय।
( पीसाई नाथ के इस लेख का अनुवाद महाबीर सरवर ने किया है। यह लेख रुरल इंडिया आनलाइन से साभार लिया गया है।)
गुरू पर्व के मौके पर 19 नवंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा तीन विवादास्पद कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा करने के साथ ही यह बात अब साफ हो गई है कि देश के राजनीतिक और आर्थिक परिदृष्य पर किसान लॉबी की वापसी हो गई है। आने वाले दिनों में राजनीति की दिशा के साथ ही आर्थिक नीतियों पर भी इसका असर देखने को मिलेगा। 1991 की आर्थिक उदारीकरण की नीतियां लागू होने के बाद से कृषि क्षेत्र की अहमियत घटती गई और सरकार की प्राथमिकता अर्थव्यवस्था के दूसरे क्षेत्र रहे। इन तीन दशकों में सरकार के फैसलों में कृषि मंत्रालय का दखल भी कमजोर होता गया। लेकिन 1991 के आर्थिक सुधारों के इतिहास को दोहराने के फेर में तीन कृषि कानूनों को लाने का कदम नरेंद्र मोदी सरकार के लिए महंगा साबित हो गया। पांच जून, 2020 को अध्यादेशों के जरिये लाए गये तीन कृषि कानून कृषि क्षेत्र में सुधारों के उद्देश्य से लाये गये थे। उस समय सरकार को यह अहसास नहीं था कि यह कानून इतिहास तो बनायेंगे लेकिन जो इतिहास बनने जा रहा है वह बहुत कुछ बदलने जा रहा है जिनका असर आने वाले दशकों तक जारी रहेगा।
तीन कानून, आवश्यक वस्तु अधिनियम (संशोधन) कानून, 2020, द फार्मर्स प्रॉडयूस ट्रेड एंव कामर्स (प्रमोशन एंड फेसिलिटेशन) एक्ट, 2020 और फार्मर्स (इंपावरमेंट एंड प्रोटेक्शन) एग्रीमेंट आन प्राइस एश्यूरेंस एंड फार्म सर्विसेज एक्ट, 2020 आने के कुछ दिन बाद ही इनका विरोध शुरू हो गया था। इन कानूनों को बड़े सुधारों के रूप में पेश किया गया, साथ ही अध्यादेशों के जरिये लागू किये गये इन कानूनों को लाने में जल्दबाजी भी की गई। किसानों के बढ़ते विरोध और राजनीतिक दलों द्वारा सवाल उठाने के बावजूद इन कानूनों से जुड़े विधेयकों को सितंबर, 2020 में संसद के दोनों सदनों में पारित कर कानून की शक्ल दे दी गई। संसद में और खासतौर से राज्य सभा में कानूनों को पारित कराने के तरीके पर सवाल उठे और राज्य सभा में विपक्ष का विरोध तीखा रहा। सरकार के रूख से साफ हो गया था कि वह इन कानूनों को किसी भी कीमत पर लागू करना चाहती है। लेकिन उसे इस बात का अहसास नहीं थी कि कोरोना महामारी के बीच कानूनों का विरोध किसानों द्वारा इतने बड़े पैमाने पर किया जाएगा। किसानों में सबसे अधिक आशंका मंडी से जुड़े कानून और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के भविष्य को लेकर खड़ी हुई। इसलिए मुखर विरोध की शुरुआत पंजाब से हुई। वहां करीब तीन माह तक किसानों ने रेल रोको आंदोलन के साथ ही बड़े धरने दिये। उसके बाद सितंबर, 2020 में तीन कानूनों को रद्द करने की मांग लेकर राष्ट्रव्यापी बंद का आह्वान किया गया। इसका सबसे अधिक असर पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के तराई इलाके में रहा। किसानों द्वारा कानून वापसी नहीं होने की स्थिति में 26 नवंबर, 2020 को दिल्ली कूच करने का आह्वान किया गया और 8 दिसंबर को राष्ट्रव्यापी बंद का आह्वान किया गया। किसानों के सबसे बड़े जत्थे पंजाब से चले और हरियाणा पुलिस द्वारा उन्हें रोकने की तमाम कोशिशों को नाकाम करते हुए किसान 27 नवंबर को दिल्ली की सीमा पर पहुंचे जहां दिल्ली पुलिस ने उनको दिल्ली में प्रवेश से रोक दिया। उसी दिन से दिल्ली के सिंघु बार्डर और टीकरी बार्डर पर किसानों ने मोर्चा लगा दिया। वहीं गाजीपुर बार्डर पर किसान 29 नवंबर को पहुंचे। तभी से दिल्ली की इन सीमाओं पर किसानों के धरने जारी हैं। कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों के दिल्ली की सीमाओं पर चल रहे आंदोलन को साल भर होने में अब सप्ताह भर से भी कम का समय बचा है। इस दौरान आंदोलन ने कई उतार-चढ़ाव देखे।
किसानों के दिल्ली की सीमाओं पर आने से 22 जनवरी के बीच सरकार और किसान संगठनों के संयुक्त मोर्चा के प्रतिनिधियों के बीच 11 वार्ताएं हुईं लेकिन किसान तीनों कानूनों को रद्द करने की मांग पर अडिग रहे। इस बीच एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग भी मजबूत होती गई। वार्ता टूटने के बाद 26 जनवरी, 2021 के दिल्ली में ट्रैक्टर मार्च के दौरान बड़ी संख्या में किसनों के लाल पहुंचने के साथ ही हिंसा भी हुई। जिसके बाद लगा कि आंदोलन समाप्त हो जाएगा। लेकिन 28 जनवरी की शाम सरकार की सख्ती के बीच गाजीपुर बार्डर पर भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत की भावनात्मक अपील ने आंदोलन को नया जीवन दे दिया। इस घटनाक्रम ने नाटकीय ढंग से रातोंरात गाजीपुर बार्डर को किसान आंदोलन के सबसे मजबूत केंद्र के रूप में स्थापित कर दिया। वहीं राकेश टिकैत को आंदोलन और देश में किसानों के बड़े नेता के रूप में स्थापित कर दिया। इस घटना के बाद ही किसान संगठनों ने आंदोलन के लिए समर्थन जुटाने के लिए हरियाणा, राजस्थान, पंजाब, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश और पश्चिम बंगाल में किसान पंचायतें की।
वहीं 22 जनवरी, 2021 के बाद से किसानों और सरकार के बीच कोई वार्ता भी नहीं हुई और दोनों अपने रुख पर कायम रहे। इस बीच कुछ संगठनों के सुप्रीम कोर्ट में जाने के चलते सुप्रीम कोर्ट ने 11 जनवरी, 2021 को एक आदेश जारी कर अगले आदेश तक तीनों कानूनों के अमल पर रोक लगा दी। जो अभी तक जारी है। साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने एक चार सदस्यीय समिति गठित की जो किसानों और संबंधित पक्षों से बात कर एक रिपोर्ट कोर्ट को दे। इसके एक सदस्य भूपिंद्र सिंह मान ने समिति से इस्तीफा दे दिया और बाकी तीन सदस्यों, अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी, कृषि विशेषज्ञ डॉ. पी के जोशी और शेतकारी संघटना के अध्यक्ष अनिल घनवत ने तय समयावधि के भीतर 19 मार्च को सुप्रीम कोर्ट को एक सीलबंद लिफाफे में अपनी रिपोर्ट सौंप दी। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद से तीनों कानून लागू ही नहीं हैं। लेकिन अहम बात यह रही कि सरकार भी इन कानूनों के ऊपर से रोक हटवाने के लिए सुप्रीम कोर्ट नहीं गई। हालांकि इस दौरान सरकार द्वारा कानूनों के पक्ष में तर्क के बावजूद दालों और खाद्य तेलों के दाम बढ़ने पर उसी पुराने आवश्यक वस्तु अधिनियम के प्रावधानों का कई बार इस्तेमाल किया गया जिसे उसने बदल दिया था।
भले ही सरकार इन कानूनों के मुद्दे पर किसानों से बात नहीं कर रही थी लेकिन यह लगातार देश की राजनीति का केंद्र बने रहे। किसान संगठनों ने पश्चिम बंगाल के विधान सभा चुनावों में भाजपा के खिलाफ प्रचार किया। एक हाई पिच चुनाव में भाजपा पश्चिम बंगाल के चुनाव बहुत बुरी तरह हार गई। इस बीच विपक्षी दल किसानों के पक्ष में खड़े रहे। यही नहीं उत्तर प्रदेश के पश्चिमी जिलों में राष्ट्रीय लोकदल ने ताबड़तोड़ रैलियां की और सरकार से नाराजगी के चलते उसकी रैलियों में किसानों की भारी भीड़ जुटती रही। धीरे-धीरे आंदोलन के राजनीतिक नुकसान का अहसास भाजपा को होने लगा क्योंकि करीब 100 सीटों वाले पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट-मुस्लिम का गठजोड़ दोबारा बनने लगा जो 2013 के मुजफ्फरनगर के सांप्रदायिक दंगों के बाद बिखर गया था। पांच सितंबर, 2021 की भारतीय किसान यूनियन और संयुक्त किसान मोर्चा की मुजफ्फरनगर में आयोजित किसान महापंचायत की जबरदस्त कामयाबी ने आंदोलन को मजबूती दी और जाट-मुस्लिम गठजोड़ की मजबूती पर मुहर लगा दी।
आगामी फरवरी-मार्च में पांच राज्यों में विधान सभा चुनाव होने हैं। इनमें राजनीतिक रूप से सबसे अहम उत्तर प्रदेश शामिल है जहां भाजपा सत्ता में है। साथ ही पंजाब और उत्तराखंड में विधान सभा चुनाव होने हैं जहां आंदोलन का असर है। इस बीच इन कानूनों के चलते भाजपा ने पंजाब में अपने सबसे पुराने सहयोगी शिरोमणि अकाली दल को भी खो दिया। अकाली दल को भी राजनीतिक रूप से इन कानूनों के चलते पंजाब में बड़ा राजनीति खामियाजा भुगतना पड़ रहा है क्योंकि कानूनों के लागू होने के समय अकाली दल केंद्र सरकार में भाजपा की सहयोगी थी। मूल रूप से जाट किसानों की पार्टी मानी जाने वाली अकाली दल के लिए यह काफी महंगा सौदा रहा। पंजाब में भाजपा को कोई खास प्रदर्शन की उम्मीद नहीं है हालांकि वह पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह की नई पार्टी के साथ गठबंधन के जरिये वहां अपनी खोई जमीन तलाशने की कोशिश कर सकती है। अमरिंदर सिंह की शर्त थी कि अगर सरकार कानून वापस ले लेगी तो वह भाजपा के साथ गठबंधन कर सकते हैं। यह बात भी सच है कि आंदोलन में सबसे बड़ी भूमिका पंजाब के सिख किसानों की रही। भाजपा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को सिखों के उससे दूर जाने की चिंता भी इस आंदोलन के जारी रहने में साफ दिख रही थी। इसमें लखीमपुर खीरी की दुर्घटना में भाजपा के नेता और केंद्र में गृह राज्य मंत्री अजय मिश्रा के शामिल होने के आरोप ने भाजपा और आरएसएस की असहजता बढ़ा दी।
ऐसे में उत्तर प्रदेश के चुनावों में कोई भी जोखिम लेने से भाजपा बचना चाहती है क्योंकि दिल्ली की केंद्र की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर ही जाता है। वहीं राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा तेज होती जा रही है कि भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश में दोबारा सत्ता हासिल करना उतना आसान नहीं है जितना दिखाने की कोशिश हो रही है। पश्चिम में राष्ट्रीय लोक दल के अध्यक्ष जयंत चौधरी की रैलियों में भारी भीड़ जुट रही है और मध्य व पूर्वी उत्तर प्रदेश में सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव की यात्रा में भारी भीड़ जुटा रही है।
वहीं इन राजनीतिक घटक्रमों के अलावा किसान आंदोलन के घटकों के बीच कोई विवाद न होना और उसकी एकजुटता के बरकरार रहने व सामूहिक फैसले लेने की प्रक्रिया ने उसके लगातार जारी रहने की स्थितियां बनाये रखी। किसान संगठन लगातार भाजपा के खिलाफ अधिक मुखर होते गये। करीब 700 किसानों की आंदोलन के दौरान मौत के बावजूद किसान आंदोलन अहिंसक बना रहा। इस आंदोलन में राजस्थान, पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के साथ मध्य प्रदेश के किसानों की मौजूदगी बनी रही। साथ ही आंदोलन के नेतृत्व ने खुद को राजनीतिक मंचों से दूर रखा और न ही राजनीतिक दलों को अपना मंच दिया। जो इसके टिकाऊ होने की बड़ी वजह रही।
यह वह परिस्थियां और समीकरण रहे जिनके चलते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुरू पर्व के शुभ दिन को मौके के रूप में इस्तेमाल कर तीन कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा कर दी।
सरकार के इस फैसले की आने वाले दिनों में कई तरह से समीक्षा होगी। आर्थिक उदारीकरण के पक्षधर इसे सरकार का आत्मघाती यू टर्न बताने लगे हैं और इसे देश में आर्थिक सुधारों की गति को रोकने वाला कदम बताएंगे। साथ ही कृषि सुधारों को लेकर भविष्य में कोई भी सरकार कोई भी फैसला लेने के पहले कई बार सोचेगी। एक भारी बहुमत और मजबूत नेतृत्व वाली सरकार से कई लोगों को इन कानूनों को वापस लेने की उम्मीद दूर-दूर तक नहीं थी। इसलिए इन कानूनों की वापसी के फैसले के बाद देश में नीतिगत जड़ता (पॉलिसी पैरालाइसिस) की बात भी कही जाएगी। आर्थिक फैसलों और तरक्की की जगह राजनीतिक मौकापरस्ती की बातें भी कही जाने लगी हैं। खास तौर से उदार आर्थिक नीतियों के समर्थक अर्थविद और कारपोरेट जगत इस फैसले से अधिक परेशान है। कुछ लोग भारत में विदेशी निवेश की संभावनाओं के कमजोर होने की बात भी इन फैसलों से जोड़कर करेंगे और कहेंगे कि इसका विदेशी निवेशकों के बीच सही संदेश नहीं जाएगा। इस तरह की तमाम बातें, चर्चा और विचार आने वाले महीनों तक सामने आएंगे। लेकिन यह भी सच है इस फैसले का असर दशकों तक देश की नीतियों और फैसलों में देखने को मिलेगा।
हां, इस बात पर शायद लोग कम चर्चा करेंगे लेकिन जो एक सीख की तरह है। देश में जनता के बड़े वर्ग से जुड़े फैसलों को लेने की परिपाटी अब बदल जाएगी। देश में नीति निर्माण और फैसले लेने में नौकरशाही और कुछ एक्सपर्ट्स का जो दबदबा बन गया था वह अब कमजोर होगा। सरकार का कानूनों को वापस लेने का यह फैसला इस बात को साबित करता है कि फैसलों से प्रभावित होने वाले पक्षों की फैसले लेने और नीति निर्माण में भागीदारी जरूरी है। इन तीन कृषि कानूनों में सबसे बड़े पक्ष किसानों को कानून बनाने की प्रक्रिया में भागीदार नहीं बनाया गया। इसलिए जब प्रधानमंत्री ने कानूनों को वापस लेने की घोषणा की तो उसके साथ यह भी कहा कि सरकार एमएसपी की व्यवस्था को मजबूत करना चाहती है। इसके लिए एक कमेटी बनाई जाएगी जिसमें केंद्र सरकार, राज्य सरकार, किसानों के प्रतिनिधि, कृषि अर्थशास्त्री और कृषि विशेषज्ञों को शामिल किया जाएगा। यह एक सकारात्मक संकेत है।
साथ ही यह आंदोलन और इसकी जो परिणति कानूनों के रद्द होने के रूप में होने जा रही है उससे साफ हो गया है कि किसान संगठनों के रूप में देश में एक किसान लॉबी का उदय हो गया है। जिस अनुशासन और दृढ़ता से यह आंदोलन चल रहा है वह साफ करता है कि कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था से जुड़े मसलों के बारे में नीतियों और फैसलों में इस लॉबी का दखल रहेगा। साथ ही राजनीतिक रूप से इस आंदोलन के साथ खड़े होने की जो होड़ दिख रही है वह भविष्य की राजनीति में किसानों की भूमिका बढ़ने का संकेत है। पंजाब सरकार ने आंदोलन के दौरान दिल्ली में गिरफ्तार हुए किसानों को मुआवजा देने का फैसला लिया और आंदोलन में शहीद किसानों की याद में स्मारक बनाने की घोषणा की है तो सुदुर दक्षिण के राज्य तेलंगाना के मुख्यमंत्री ने आंदोलन में शहीद 700 किसानों के परिवारों को तीन लाख रुपये का मुआवजा देने की घोषणा की है। यह फैसले भविष्य की राजनीति का संकेत देने के लिए काफी हैं।
इस पूरे घटनाक्रम के साथ आने वाले दिन काफी अहम हैं। प्रधानमंत्री की कानूनों की वापसी की घोषणा के बाद भी किसान संगठनों ने अपने कार्यक्रम जारी रखे हैं। उनका कहना है कि संसद में कानून रद्द होने की प्रक्रिया पूरी होने तक वह धऱने जारी रखेंगे। इसके साथ ही एमएसपी पर कानूनी गारंटी की मांग पर भी वह अडिग हैं। उनका कहना है कि सरकार 29 नवंबर से शुरू हो रहे संसद के आगामी सत्र में एमएसपी पर कानूनी गारंटी का कानून लेकर आए। प्रधानमंत्री द्वारा एमएसपी के मुद्दे पर समिति बनाने की घोषणा से वह बहुत आश्वस्त नहीं दिख रहे हैं। इससे यह संकेत भी मिलता है कि सरकार और किसान संगठनों के बीच जनवरी में टूटी वार्ता का दौर फिर से शुरु हो सकता है क्योंकि सबसे विवादास्पद मुद्दे पर किसानों की मांग सरकार ने स्वीकार कर ली है। सभी को इस बात का इंतजार है कि देश के इतिहास में सबसे लंबे चले किसान आंदोलन की समाप्ति कैसे होगी और कब होगी, हालांकि अब इसकी समाप्ति की संभावनाएं काफी मजबूत हो गई हैं। लेकिन यह आने वाले दिनों में ही पता लगेगा कि कानून वापसी का फैसला सरकार के लिए राजनीतिक रूप से फायदेमंद साबित होगा या नहीं। हां यह बात तय है कि अब देश में किसानों के मुद्दों पर उनके हित संरक्षण के लिए किसान संगठनों का एक ऐसा ढांचा व नेतृत्व तैयार हो गया है जो किसान हित में सरकार के फैसलों में बदलाव का माद्दा रखता है।
यह अनायास ही नहीं है कि देश में चल रहे किसान आंदोलन का संचालन करने वाले संयुक्त किसान मोर्चा ने चौ.छोटू राम जी की जयंती देशभर में बनाने का आह्वान किया है.
चौ. छोटूराम अपने समय के उत्तर भारत के जाने-माने और लोकप्रिय किसान नेता रहे हैं. यूनियनिस्ट पार्टी या जमींदारा लीग के नाम से किसानों को संगठित करने उन्हें लूट व शोषण से मुक्ति दिलाने के लिए कई दशकों तक उन्होंने जो राजनीतिक हस्तक्षेप किया वह इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय है.
देश के विभाजन से पूर्व संयुक्त अविभाजित पंजाब की प्रोविंशियल असेंबली में महत्वपूर्ण कैबिनेट मंत्री के तौर पर जो कानून उन्होंने बनवाए उनकी बदौलत सूदखोरों और साहूकारों के कर्ज के शिकंजे में फंसे करोड़ों किसानों और उनकी आगे की पीढ़ियों को निश्चित तौर पर कुछ मुक्ति मिली. तत्कालीन पंजाब में यूनियनिस्ट पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार ने सूदखोरों द्वारा अनाज की मनमानी लूट को रोकने के लिए जो सबसे बड़ा प्रगतिशील कदम उठाया वह था, कृषि उत्पाद मार्केट कमेटी एक्ट 1939. इसके अंतर्गत मंडियों का जाल बिछाया गया.इस प्रकार मोल और तोल की शुरुआत हुई.इसके अलावा तमाम तरह की कटौतियों पर भी पाबंदी लगा दी जो किसान की फसल में से काटी जाती थी. असल में तो तमाम खामियों के बावजूद इस व्यवस्था को सुधारने की बजाय मोदी सरकार तीन काले कानूनों को थोप कर तबाह करना चाहती है. कृषि उत्पादों के व्यापार को कारपोरेट के हवाले किये जाने की सूरत में मंडी प्रणाली समाप्त हो जानी निश्चित है.यह एक प्रमुख पहलू है जिसकी वजह से आज चौ.छोटूराम की प्रासंगिकता इतने बड़े फ़लक पर उभर कर आई है.
तत्कालीन पंजाब सरकार ने साहूकार वर्गों की तीखी नाराजगी और विरोध के बावजूद कानून बनाकर कर्जदार किसान की जमीन, घर ,पशु आदि की कुर्की को गैर कानूनी बना दिया गया.यही नहीं बल्कि जो जमीनें पहले कुर्क हो चुकी थी उन्हें भी कानून के माध्यम से किसानों को वापिस करवा दिया जाना मामूली कदम नहीं था. एक अन्य कानून के द्वारा काश्तकारों की भूमि पर गैर काश्तकार के नाम स्थानांतरित किए जाने पर कानूनी रोक लगा दी गई.
छोटूराम ने किसानों के अलावा मजदूरों के लिए भी काम के घंटे निश्चित करने और अवकाश दिये जाने जैसी सामाजिक सुरक्षा का अधिकार भी दिया.कमेरे वर्गों के लिए इन्हीं कल्याणकारी कदमों के लिए उनक नाम से पहले दीनबंधु लगाया जाने लगा था.
भाखड़ा डैम का निर्माण करवाना एक और बड़ा कदम था जो मंत्री रहते हुए उन्होंने उठाया. 1945 में अपनी मृत्यु से पहले चौधरी साहब ने भाखड़ा डैम के निर्माण हेतु तमाम तरह के प्रशासनिक व आर्थिक अवरोधों को दूर किया.
उस दौर में सांप्रदायिकता का कैंसर बड़े विकार के रूप में देश की जनता को हिंदू -मुस्लिम में बांट रहा था. चौधरी साहब दोनों ही तरह की फिरकापरस्ती और जात पात की समस्या से जूझते हुए किसानों को लगातार सचेत करते हुए उन्हें एकजुट रखने में काफी हद तक सफल थे. यूनियनिस्ट पार्टी के मंच पर वह हिंदू -मुस्लिम – सिख समुदाय के किसानों को लामबंद करते हुए कहते थे कि सांप्रदायिकता का रोग जनता को जागृत होने के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा है.वह बोलते थे कि “फिरकापरस्ती एक क्लोरोफॉर्म का फोहा है जो किसानों को जागते ही सुंघा दिया जाता है और वह फिर से बेहोश हो जाते हैं “.
चौधरी छोटूराम उस दौर के जाने-माने शायर इक़बाल साहब की शायरी के कायल थे. वह इक़बाल द्वारा मजलूमों के लिए लिखे गए एक अति लोकप्रिय शेर को अक्सर दोहराते थे कि, “खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तकदीर से पहले , खुदा बंदे से खुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है “.
पिछले ढाई महीने से देश में चल रहे अभूतपूर्व किसान आंदोलन के संबंध में चौ.छोटू राम के किरदार का उभरना एक तरह से स्वाभाविक ही है .वे कहते थे कि “जब कोई और तबका सरकार से नाराज होता है तो वह कानून तोड़ता है.पर जब किसान नाराज होता है तो वह सरकार की कमर तोड़ने का काम भी करता है”
नवंबर के अंत में विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) की कृषि पर समझौते (एओए) को लेकर 12वीं मंत्रीस्तरीय सम्मेलन (एमसी 12) बैठक होने वाली है। एमसी12 के एजेंडा के दो प्रस्ताव देश के किसानों के घातक साबित हो सकते हैं। इसके एक एजेंडा प्रस्ताव में कहा गया है कि गरीबों के लिए सब्सिडी पर खाद्यान्न मुहैया कराने के लिए और कम संसाधनों वाले किसानों की आजीविका सुरक्षा के लिए बनाये जाने वाले सार्वजनिक भंडार (पब्लिक स्टॉक होल्डिंग यानी पीएसएच) के लिए सरकारी खरीद को सीमित किया जाए। प्रस्ताव में यह सीमा कुल उत्पादन का 15 फीसदी तय करने की बात कही गई है। पहले से ही फसलों की उचित कीमतों के नहीं मिलने से परेशान और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर फसलों की खरीद की कानूनी गारंटी को लेकर पिछले करीब एक साल से आंदोलित किसानों के लिए यह एक मुश्किल भरी खबर है। वहीं डब्ल्यूटीओ की यह मंत्रीस्तरीय बैठक सरकार के लिए भी मुश्किलें ले कर आ रही है क्योंकि वह इस मामले में किसी भी तरह की ढील देने की स्थिति में नहीं है।
डब्ल्यूटीओ के 12वें मंत्रिस्तरीय सम्मेलन (एमसी12) की बैठक 30 नवंबर से लेकर 3 दिसंबर के दौरान स्विटजरलैंड के जेनेवा में आयोजित की जाएगी । इस बैठक में आने वाले प्रस्तावों के बारे में बात करने पर जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज के सेंटर फॉर इकोनॉमिक स्टडीज एंड प्लानिंग में प्रोफेसर डॉ. बिश्वजीत धर ने रूरल वॉयस को बताया कि एमसी 12 से पहले की चर्चाओं से पता चल रहा है कि कृषि से जुड़े मुद्दों पर वार्ता समिति के चेयरमैन राजदूत ग्लोरिया अब्राहम पेराल्टा द्वारा मसौदे में शामिल दो प्रस्तावों को लेकर भारत के लिए मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं। पहले प्रस्ताव में कहा गया है कि भारत जैसे विकासशील देश खाद्य सुरक्षा के उद्देश्य के लिए पब्लिक स्टॉक होल्डिंग के तहत पारंपरिक खाद्यान्न फसलों के उत्पादन के 15 फीसदी की सीमा तक ही सरकारी खरीद कर सकते हैं। जबकि दूसरा प्रस्ताव है कि जो देश खाद्य सुरक्षा के लिए पब्लिक स्टॉक होल्डिंग रखते हैं वह इसमें से खाद्यान्न का निर्यात नहीं कर सकते हैं। इन शर्तों का भारत पर प्रतिकूल असर हो सकता है।
उनका कहना है कि खाद्यान्नों की सरकारी खरीद की सीमा तय करने का भारत के मुख्य उद्देश्यों पर गंभीर प्रतिकूल असर पड़ सकता है। सरकार घरेलू खाद्य सुरक्षा और संसाधनों की कमी और कम आय वर्ग वाले किसानों को आजीविका को समर्थन देने के उद्देश्य से खाद्यान्नों की सरकारी खरीद करती है। खाद्यान्नों की खरीद की सीमा की शर्त का सीधा अर्थ है इन उद्देश्यों पर प्रतिकूल असर पड़ना। साल 2019-20 में भारत में 11.84 करोड़ टन चावल का उत्पादन हुआ। जिसमें से सरकार ने 520 लाख टन की खरीद की। सरकार द्वारा डब्ल्यूटीओ में दी गई जानकारी मुताबिक उसने 334 लाख टन चावल राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून की जरूरत को पूरा करने के लिए जारी किया। इस तरह से देखा जाए तो गरीबों के लिए सब्सिडी पर 340 लाख टन से अधिक चावल की जरूरत है लेकिन डब्ल्यूटीओ के प्रस्ताव के तहत भारत को लेकर 180 लाख टन चावल की ही सरकारी खऱीद करनी चाहिए।
खाद्य मंत्रालय के आंकड़ों मुताबिक सरकार ने 2020-21 में 598.7 लाख टन चावल की खरीद की थी। कृषि मंत्रालय के मुताबिक 2020-21 में देश का चावल का उत्पादन 12.22 करोड़ टन रहा था। इस पर डब्ल्यूटीओ के प्रस्ताव की 15 फीसदी की शर्त लागू होने का मतलब है केवल 183 लाख टन चावल की सरकारी खरीद होना।
खाद्य मंत्रालय के मुताबिक इस साल 2021-22 में सरकार ने 433.44 लाख टन गेहूं की सरकारी खरीद की है। वहीं कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक 2020-21 में देश में गेहूं का उत्पादन 10.95 करोड़ टन रहा। ऐसे में अगर कुल उत्पादन के 15 फीसदी की डब्ल्यूटीओ के प्रस्ताव की शर्त लागू होती है सरकार केवल 165 लाख टन गेहूं की ही सरकारी खरीद कर पाती। इस तरह की शर्त के साथ किसानों से उनके खाद्यान्न उत्पादन की एमएसपी पर खरीद कैसे संभव होगी। वहीं डब्ल्यूटीओ की शर्त के आधार पर तो देश में राशन के तहत वितरित किये जाने वाले खाद्यान्न की जरूरत के स्तर से भी कम है। इस तरह से यह प्रस्ताव पूरी तरह से अव्यवहारिक है और घरेलू किसानों के हितों खिलाफ है। लेकिन अब देखना अहम होगा कि सरकार इस मुद्दे पर डब्ल्यूटीओ में क्या रुख अपनाती है।
वहीं दूसरे प्रस्ताव में भारत ने खुद अपने लिए मुसीबत खड़ी की है। डॉ. धर कहते हैं कि दूसरा प्रस्ताव जी-33, विकासशील देशों के समूह का है जिसमें भारत ने अतीत में एक प्रमुख भूमिका निभाई है। वह कहता है कि खाद्य सुरक्षा स्टॉक को बनाए रखने वाले देशों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इस स्टॉक का उपयोग निर्यात को बढ़ावा देने के लिए नहीं किया जाएगा। पिछले दो वर्षों से भारत से खाद्यान्न के निर्यात में वृद्धि हुई है। अगर एमसी12 के इस प्रस्ताव से प्रेरणा लेते हुए पीएसएच के संबंध में एक स्थायी समाधान खोजता है तो यह भारत के लिए एक गंभीर चुनौती खड़ी कर सकता है।
राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) के 77वें दौर के सर्वेक्षण पर आधारित ‘ग्रामीण भारत में परिवारों कीस्थिति काआकलन औरपरिवारों की भूमिजोत, 2019′, हाल ही में जारी स्थिति आकलन सर्वेक्षण इस तथ्य को स्थापित करता है कि किसान परिवार अपनी आजीविका के लिए ‘खेती-बाड़ी से शुद्ध आय’ के बजाय मजदूरी पर अधिक से अधिक निर्भर हैं. मार्क्सवादी शब्दावली में, सर्वहाराकरण (एक शब्द जिसे हम निर्वासन के लिए शिथिल रूप से उपयोग कर सकते हैं) उस प्रक्रिया को संदर्भित करता है जिसमें किसानों / जोतने वालों को मजदूर बनाकर खेती से बाहर धकेल दिया जाता है. अन्य कारणों के अलावा, किसान द्वारा खेती छोड़ने के दो प्रमुख कारण (धक्का कारक) हैं: a) अन्य व्यवसायों की तुलना में खेती से जुड़ी आय और लाभप्रदता में गिरावट, इस प्रकार उसके पास मजदूरी करने वाले के रूप में काम करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है; और बी) पर्याप्त मुआवजे के बिना औद्योगिक और अन्य उद्देश्यों के लिए भूमि अधिग्रहण (पुनर्वास और पुनर्वास के अलावा) एक किसान को खेती को पेशे के रूप में छोड़ने के लिए मजबूर करता है (यदि हम काश्तकार किसान बनने के विकल्प की अनदेखी करते हैं).
मजदूरी आय बनाम खेती से आय
एनएसएस 77वें दौर से संबंधित रिपोर्ट से पता चलता है कि एक किसान परिवार की औसत मासिक आय (जब केवल भुगतान किए गए व्यय पर विचार किया जाता है) फसल वर्ष 2018-19 के दौरान 10,218 रुपए (जुलाई 2018-दिसंबर 2018 में 10,285 रुपये और जनवरी 2019-जून 2019 में 10,119 रुपये) थी. कृपया चार्ट-1 देखें.
नोट: कृपया स्प्रैडशीट में डेटा तक पहुंचने के लिए यहां क्लिक करें.
स्रोत: तालिका-23ए, परिशिष्ट ए, एनएसएस रिपोर्ट संख्या 587: ग्रामीण भारत में परिवारों की कृषि परिवारों और भूमि और पशुधन की स्थिति का आकलन, 2019, एनएसएस 77वां दौर, जनवरी 2019-दिसंबर 2019, एनएसओ, एमओएसपीआई, , कृपया देखने के लिए यहां क्लिक करें
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फसल वर्ष 2018-19 के दौरान एक किसान परिवार की यह औसत मासिक आय (अर्थात 10,218 रुपये) (जब केवल भुगतान किए गए खर्च या जेब से खर्च पर विचारणीय हो) विभिन्न घटकों यानी ‘मजदूरी से आय’ (4,063 रुपये), ‘भूमि को पट्टे पर देने से आय’ (134 रुपये), ‘फसल उत्पादन से शुद्ध प्राप्ति’ (3,798 रुपये), ‘पशुपालन से शुद्ध प्राप्ति’ (1,582 रुपये) और ‘शुद्ध’ गैर-कृषि व्यवसाय की कमाई ‘ (रु. 641) को जोड़कर निकाला गया था.’ भारत में कृषि परिवारों के स्थिति आकलन सर्वेक्षण (जनवरी-दिसंबर 2013), जो एनएसएस के 70वें दौर से संबंधित है, के अनुसार, एक कृषि परिवार की औसत मासिक आय (यानी 6,427 रुपये) (जब केवल भुगतान किया गया खर्च विचारणीय हो) फसल वर्ष 2012-13 के दौरान विभिन्न घटकों जैसे ‘मजदूरी से आय’ (2,071 रुपये), ‘खेती/फसल उत्पादन से शुद्ध प्राप्ति – जब केवल भुगतान किए गए खर्च विचारणीय हो’ (3,081 रुपये) ‘पशु पालन से शुद्ध प्राप्ति’ (763 रुपये) और ‘गैर-कृषि व्यवसाय से शुद्ध प्राप्ति’ (512 रुपये) को जोड़कर गणना की गई थी. यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि फसल वर्ष 2012-13 के दौरान एक कृषि परिवार की औसत मासिक आय प्राप्त करने के लिए ‘भूमि को पट्टे पर देने से होने वाली आय’ को ध्यान में नहीं रखा गया था. इसलिए, फसल वर्ष 2012-13 और 2018-19 के बीच एक कृषि परिवार की औसत मासिक आय (जब केवल भुगतान किए गए खर्च विचारणीय हो) की तुलना करना गलत होगा.
यदि 2018-19 में एक कृषि परिवार की औसत मासिक आय से ‘भूमि को पट्टे पर देने से आय’ घटा दी जाती है, तो संशोधित औसत मासिक कृषि आय 10,084 रुपये हो जाती है. अब यह कहना सही होगा कि एक खेतिहर परिवार की फसल वर्ष 2012-13 की औसत मासिक आय (नाममात्र में) 6,427 रुपये से बढ़कर साल 2018-19 में 10,084 रुपए हो गई यानी लगभग 56.9 प्रतिशत की बढ़ोतरी.
किसी विशेष फसल वर्ष के लिए एक किसान परिवार की औसत मासिक आय के विभिन्न घटकों की तुलना करना समझदारी है. एनएसएस 70वें दौर से संबंधित रिपोर्ट से पता चलता है कि जुलाई 2012-जून 2013 के दौरान एक किसान परिवार की प्रति माह ‘मजदूरी से आय’ (2,071 रुपये) ‘खेती/फसल उत्पादन से शुद्ध प्राप्ति’ (3,081 रुपये) से कम थी – जब केवल भुगतान किए गए खर्च पर विचार किया जाता है’. हालांकि, एनएसएस 77 वें से संबंधित रिपोर्ट इंगित करती है कि जुलाई 2018-जून 2019 के दौरान एक किसान परिवार की मासिक आय में ‘मजदूरी से आय’ (4,063 रुपये) ‘खेती/फसल उत्पादन से शुद्ध प्राप्ति’ ‘(3,798 रुपये) से अधिक थी- – जब केवल भुगतान किए गए खर्च पर विचार किया जाता है’. अलग अंदाज में कहें तो, एक सामान्य किसान परिवार अब ‘फसल उत्पादन से शुद्ध प्राप्ति’ की तुलना में मजदूरी आय के रूप में अधिक कमाता है – जब केवल भुगतान किए गए व्यय पर विचार किया जाता है’.
यह देखा जा सकता है कि आंध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, जम्मू और कश्मीर, झारखंड, केरल, मणिपुर, नागालैंड, ओडिशा, सिक्किम, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और केंद्र शासित प्रदेशों के समूह में जुलाई 2012-जून 2013 के दौरान औसत मासिक आय ‘मजदूरी से आय’ खेती/फसल उत्पादन से शुद्ध प्राप्त आय से अधिक है. – जब केवल भुगतान किए गए व्यय पर विचार किया जाता है. हालांकि, फसल वर्ष 2018-19 के दौरान, आंध्र प्रदेश, असम, छत्तीसगढ़, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, जम्मू और कश्मीर, झारखंड, केरल, मणिपुर, नागालैंड, ओडिशा, राजस्थान, सिक्किम, तमिलनाडु, त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल और केंद्र शासित प्रदेशों के समूह में ‘मजदूरी से आय’ ‘खेती/फसल उत्पादन से शुद्ध प्राप्ति’ से अधिक हो गई – जब केवल भुगतान किए गए व्यय पर विचार किया जाता है.
यहां यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि एनएसएस 70 वें दौर में बीज, खाद, अवैतनिक पारिवारिक श्रम (मानव और पशु दोनों) आदि जैसे इनपुट से संबंधित खर्च कृषि व्यवसाय से संबंधित खर्च, डेटा एकत्र करते समय दर्ज नहीं किए गए थे. इसके अलावा, स्थिति आकलन सर्वेक्षण (एसएएस) के पिछले दौर में ‘भूमि को पट्टे पर देने से कृषि परिवारों की आय’ एकत्र नहीं की गई थी. इसलिए, 2018-19 में प्रति कृषि परिवार की औसत मासिक आय (भुगतान किए गए और लगाए गए खर्च दोनों पर विचार करते हुए) की 2012-13 के साथ तुलना करना संभव नहीं है.
एनएसएस 77वें दौर से संबंधित डेटा से देखा जा सकता है कि फसल वर्ष 2018-19 में ‘फसल उत्पादन/खेती से शुद्ध प्राप्त आय 3,058 रुपए है – जब एक खेत परिवार के भुगतान और खर्च दोनों को जोड़ा जाता है’, जबकि उसी वर्ष ‘फसल उत्पादन से शुद्ध प्राप्त आय 3,798 रुपए है – जब केवल खर्च को जोड़ा जाए.
भूमि को पट्टे पर देने से आय — रिवर्स टेनेंसी
सामान्य तौर पर, बड़ी भूमि रखने वाले खेत परिवार छोटे और सीमांत किसानों को जमीन पट्टे पर देते हैं और किराए की आय अर्जित करते हैं. हालांकि, 1970 के दशक के बाद से उत्तरी और पश्चिमी राज्यों (हरित क्रांति के लिए धन्यवाद) में ‘रिवर्स टेनेंसी‘ नामक एक घटना देखी गई, जहां छोटे खेत परिवारों (2 हेक्टेयर तक भूमि के मामले में) ने अपनी भूमि को अर्ध- मध्यम (2.00-4.00 हेक्टेयर) और मध्यम किसान (4.00-10.00 हेक्टेयर) को किराए पर दिया है. छोटे खेतिहर परिवारों के लिए फसल खेती के बजाय मजदूरी गतिविधियों (जैसे दूसरों के खेतों में खेतिहर मजदूरों के रूप में काम करना) से अपनी आजीविका अर्जित करना अपेक्षाकृत आसान था.
1989 में प्रकाशित ‘रिवर्स टेनेंसीइन पंजाब एग्रीकल्चर: इंपैक्ट ऑफ टेक्नोलॉजिकल चेंज’ शीर्षक वाले अपने पेपर में, इकबाल सिंह ने कहा कि तकनीकी विकास और कृषि में मशीनों की शुरूआत के कारण, हरित क्रांति बेल्ट में उद्यमी किसानों का एक नया वर्ग अस्तित्व में आया. (अर्थात पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश) जिन्होंने आधुनिक यांत्रिक आदानों का अधिक पर्याप्त उपयोग करने के इरादे से अपनी खेती की इकाई बढ़ाने के लिए भूमि पट्टे पर ली थी. जबकि कुछ हरित क्रांति इनपुट जैसे उर्वरक, बीज, कीटनाशक, कीटनाशक, आदि सभी तरह के किसानों ने उपयोग किए थे, हालांकि ट्रैक्टर, ट्यूबवेल, थ्रेशर, कंबाइन हार्वेस्टर आदि जैसे इनपुट अविभाज्य थे, जिन्हें बड़े निवेश की भी आवश्यकता थी और उनका उपयोग केवल बड़े किसानों द्वारा किया गया था, छोटे किसानों द्वारा नहीं. पूंजीगत संपत्ति और वित्तीय संसाधनों तक उनकी अपेक्षाकृत बेहतर पहुंच के कारण, बड़े किसान जमीन को पट्टे पर लेने की बेहतर स्थिति में थे. छोटे किसानों, जिनके पास पूंजी की कमी थी, ने ऐसे किसानों को अपनी जमीन पट्टे पर दे दी. उत्पादकता में वृद्धि और मशीनों के साथ काम के मानकीकरण के कारण बड़े किसान किराए के मजदूरों के साथ पट्टे पर ली गई जमीन पर लाभकारी खेती करने में सक्षम थे.
पंजाब, जो 1970 और 1980 के दशक में हरित क्रांति की बदौलत कृषि समृद्धि के लिए जाना जाता था, ने अपने छोटे और सीमांत किसानों को कृषि क्षेत्र से बाहर धकेल दिया. 12 गांवों के 288 किसानों के सर्वेक्षण (2012-13 में किए गए) के आधार पर – 6 जिलों में से प्रत्येक के 2 गांव जो विभिन्न कृषि-जलवायु क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं – सुखपाल सिंह और श्रुति भोगल के पेपर से पता चला कि अधिकांश छोटे और सीमांत जिन किसानों ने खेती छोड़ दी थी, उन्होंने दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम करना शुरू कर दिया था, इस प्रकार यह निराशावाद के दर्दनाक पहलू की पुष्टि करता है.
ग्रामीण भारत के विभिन्न क्षेत्रों से सूक्ष्म अध्ययनों की समीक्षा करते हुए, एचआर शर्मा (2010) ने ‘ग्रामीण भारत में पट्टेदारी के परिमाण, संरचना और निर्धारक – एक राज्यस्तरीय विश्लेषण‘ शीर्षक से भूमि पट्टा बाजार की कुछ दिलचस्प विशेषताओं को संक्षेप में प्रस्तुत किया. उन्होंने ग्रामीण भारत में भूमि पट्टा बाजार के बारे में निम्नलिखित टिप्पणियां कीं.
“सबसे पहले, पट्टे पर दी गई भूमि का अनुपात एनएसएस डेटा द्वारा रिपोर्ट की तुलना में काफी अधिक है; कुछ मामलों में, यह सकल खेती वाले क्षेत्र का 20-25 प्रतिशत तक है. इसके अलावा, पिछड़े क्षेत्रों की तुलना में विकसित कृषि क्षेत्रों में पट्टेदारी प्रथा अधिक प्रचलित है और सभी वर्ग के परिवार पट्टा बाजार में पट्टे पर जमीन देते हैं और लेते हैं. फसलों में, खाद्य फसलों की तुलना में गैर-खाद्यान्न फसलों के मामले में पट्टे पर ली गई भूमि का अनुपात बहुत अधिक है. किरायेदारी अनुबंध मौखिक हैं, और उनमें से ज्यादातर छोटी अवधि के लिए हैं. दूसरा, जबकि पिछड़े कृषि क्षेत्रों में, काश्तकारी के पारंपरिक पैटर्न का पालन किया जाता है, जिसमें छोटे और सीमांत किसान पट्टे पर जमीन लेने वाले के रूप में पट्टा बाजार पर हावी होते हैं और बड़े और मध्यम किसान अपनी जमीन पट्टे पर देते हैं. विकसित क्षेत्र में पट्टा बाजार बदलाव के दौर में है और रिवर्स टेनेंसी की ओर रुझान अधिक स्पष्ट हो गया है. तीसरा, हाल के अध्ययनों से पता चलता है कि छोटे और सीमांत किसानों ने उत्पादन की लागत में वृद्धि, पानी की बढ़ती कमी, घटते रिटर्न और अनिश्चित मौसम की स्थिति के कारण बढ़ती अनिश्चितता के परिणामस्वरूप कृषि भूमि को पट्टे पर देना शुरू कर दिया है. चौथा, इस बात के उपाख्यानात्मक प्रमाण हैं कि प्रतिबंधात्मक काश्तकारी कानूनों के मद्देनजर छोटे और सीमांत किसानों सहित कई किसान अपनी भूमि को परती छोड़ रहे हैं. यह प्रवृत्ति विशेष रूप से उन राज्यों में अधिक स्पष्ट है जहां काश्तकारी कानूनी रूप से प्रतिबंधित है. पांचवां, निवेश लागत के बंटवारे के साथ शेयर काश्तकारी भूमि को पट्टे पर देने का एक महत्वपूर्ण तरीका बना हुआ है, खासकर छोटे और सीमांत किसानों के लिए. हालांकि आउटपुट शेयरिंग अनुपात एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में भिन्न होता है, अधिकांश अध्ययन 50:50 शेयरिंग की रिपोर्ट करते हैं. कृषि रूप से पिछड़े क्षेत्रों में, इनपुट लागत साझाकरण के साथ शेयर किरायेदारी अधिक आम है, जबकि इसकी तुलना में कृषि रूप से विकसित क्षेत्रों में निश्चित किराया पट्टेदारी अधिक लोकप्रिय है. सूक्ष्म अध्ययनों से यह प्रतीत होता है कि छोटे और सीमांत किसान इनपुट लागत बंटवारे के साथ शेयर किरायेदारी के तहत भूमि को पट्टे पर देना पसंद करते हैं, शायद दो कारणों से; एक, निश्चित धन के तहत अग्रिम रूप से नकद किराए का भुगतान करने के लिए संसाधनों की कमी और दूसरा, फसल खराब होने के पूरे जोखिम को सहन करने में उनकी अक्षमता जो हाल के दिनों में बढ़ी है. इसके अलावा, लगभग सभी अध्ययनों से पता चलता है कि गैर-खाद्यान्न फसलों को उगाने के लिए पट्टे पर दिया गया क्षेत्र निश्चित धन के अंतर्गत है. छठा, आगतों के उपयोग और कृषि उत्पादकता पर काश्तकारी के प्रभाव की जांच करने वाले अध्ययनों के मिश्रित परिणाम सामने आए हैं. जबकि कुछ लोग स्वामित्व वाले भूखंडों की तुलना में पट्टे पर दिए गए भूखंडों पर कम मात्रा में इनपुट और उपज के निम्न स्तर का उपयोग करते हैं, दूसरों के निष्कर्ष इनके बिल्कुल विपरीत हैं. हालांकि, साहित्य के एक विस्तृत सर्वेक्षण से पता चलता है कि इस परिकल्पना का समर्थन करने के लिए कोई निर्णायक सबूत नहीं है कि शेयर किरायेदारी के तहत उपज मालिक खेती या निश्चित किराया पट्टाधारक किरायेदारी से कम है. इसी तरह, यह सुझाव देने के लिए कोई निर्णायक सबूत भी नहीं है कि कारक बाजारों के इंटरलॉकिंग में शामिल परिवारों के लिए उपज का स्तर उनके समकक्षों की तुलना में कम है जो इस तरह की व्यवस्था में शामिल नहीं हैं. सातवां, सूक्ष्म अध्ययन के निष्कर्ष मोटे तौर पर इस परिकल्पना का समर्थन करते हैं कि विभिन्न आकार श्रेणियों के परिवार अपने अविभाज्य और गैर-व्यापार योग्य इनपुट और पूंजीगत संसाधनों जैसे पारिवारिक श्रम, बैल श्रम और मशीनरी का अधिक से अधिक उपयोग करने के लिए पट्टा बाजार में भाग लेते हैं. हालांकि, हाल के अध्ययनों में भूमि मालिकों की अनुपस्थिति, भूमि की निम्न गुणवत्ता, भूमि उपयुक्त रूप से स्थित नहीं होने, उत्पादन की लागत में वृद्धि, फसल उत्पादन में बढ़ती अनिश्चितता आदि जैसे कई अन्य महत्वपूर्ण कारकों की भी रिपोर्ट है, जो भूस्वामियों को जमीन बाहर पट्टे पर देने के लिए बाध्य करते हैं.”
यह देखने के लिए कि विभिन्न आकार की भूमि वाले किसान परिवारों द्वारा जमीन को पट्टे पर देने से कितनी आय होती है, पंजाब और हरियाणा – दो कृषि समृद्ध राज्यों – को इस समाचार अलर्ट में चुना गया है. यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि एनएसएस 77वें दौर से संबंधित एसएएस रिपोर्ट में पट्टे पर देने वाले कृषि परिवारों के विभिन्न वर्गों द्वारा पट्टे पर लेने वाले कृषि परिवारों को भुगतान किए गए किराए पर डेटा उपलब्ध नहीं था. इस प्रकार, सटीक रूप से यह कहना मुश्किल है कि एक छोटे/सीमांत पट्टेदार ने भूमि को मध्यम और बड़े पट्टेदारों को पट्टे पर देने से आय अर्जित करके उन्नत कृषि क्षेत्रों में रिवर्स टेनेंसी (यानी किराया दाता के बजाय किराया कमाने वाला बनना) का सहारा लिया. इसलिए, 77वें एनएसएस दौर से संबंधित रिपोर्ट को पढ़ने के बाद हमारे द्वारा की गई टिप्पणियों को केवल सांकेतिक माना जाना चाहिए, जो पंजाब और हरियाणा में किए गए कई सूक्ष्म अध्ययनों द्वारा किए गए निष्कर्षों की पुष्टि करता है. जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, स्थिति आकलन सर्वेक्षण (एसएएस) के पिछले दौर में ‘भूमि को पट्टे पर देने से होने वाली कृषि परिवारों की आय’ एकत्र नहीं की गई थी.
पंजाब में, भूमि के आकार वर्ग ‘0.01-0.40 हेक्टेयर’ वाले एक खेत परिवार ने ‘फसल उत्पादन से शुद्ध प्राप्ति’ की तुलना में ‘भूमि को पट्टे पर देने से अधिक आय’ (यानी 3,916 रुपये) अर्जित की – जब केवल भुगतान किया गया व्यय फसल वर्ष 2018-19 के दौरान हर महीने’ (रु. 593) माना जाता है. इस वर्ग (0.01-0.40 हेक्टेयर) खेत परिवारों के लिए प्रति माह औसत ‘मजदूरी से आय’ 10,048 रूपए थी. हम यह भी पाते हैं कि भूमि के आकार वर्ग ‘0.01 हेक्टेयर से कम’ वाले एक खेत परिवार ने जुलाई 2018-जून 2019 के दौरान हर महीने फसल उत्पादन से शुद्ध प्राप्ति की तुलना में ‘भूमि को पट्टे पर देने से आय’ (अर्थात 2,141 रुपये) से लगभग 26.6 प्रतिशत कम औसत आय अर्जित की – जब केवल भुगतान किए गए व्यय पर विचार किया जाता है’ (अर्थात 2,916 रुपये). इस वर्ग (0.01 हेक्टेयर से कम) के लिए प्रति माह औसत ‘मजदूरी से आय’ 5025 रुपये थी. ‘0.01 हेक्टेयर से कम’ और ‘0.01-0.40 हेक्टेयर’ आकार की भूमि वाले कृषि परिवारों के लिए फसल की खेती करने के लिए बहुत कम प्रोत्साहन था. ऐसा इसलिए है क्योंकि इन दो भूमि वाले वर्गों के लिए, जुलाई 2018-जून 2019 के दौरान हर महीने औसत ‘मजदूरी से आय’ और औसत ‘भूमि को पट्टे पर देने से होने वाली आय’ (बाद में काफी पर्याप्त होने के कारण) का योग औसत ‘फसल उत्पादन से शुद्ध प्राप्ति’ से कहीं अधिक था.
‘1.01-2.00 हेक्टेयर’, ‘2.01-4.00 हेक्टेयर’, ‘4.01-10.00 हेक्टेयर’ और ‘10.00 हेक्टेयर से अधिक’ वर्ग वाली भूमि के आकार वाले कृषि परिवारों के लिए, औसत ‘मजदूरी से आय’ और ‘जमीन को पट्टे पर देने से होने वाली आय’ औसत का योग फसल वर्ष 2018-19 के दौरान हर महीने औसत ‘फसल उत्पादन से शुद्ध प्राप्ति’ से काफी कम थी. जैसे-जैसे भूमि का आकार वर्ग पंजाब में ‘1.01-2.00 हेक्टेयर’ से बढ़कर ‘10.00 हेक्टेयर’ से अधिक हो गया, औसत ‘फसल उत्पादन से शुद्ध प्राप्ति’ में वृद्धि के साथ-साथ ‘भूमि को पट्टे पर देने से होने वाली आय’ में वृद्धि हुई.
कुल मिलाकर, पंजाब में एक औसत किसान परिवार ने फसल वर्ष 2018-19 के दौरान हर महीने ‘मजदूरी से आय’ के रूप में 5,981 रुपए, ‘भूमि को पट्टे पर देने से आय’ के रूप में 2,652 रुपए, ‘फसल उत्पादन से शुद्ध प्राप्ति’ के रूप में 12,597 रुपए, ‘पशुपालन से शुद्ध प्राप्ति’ के रूप में 4,457 रुपए और ‘गैर-कृषि व्यवसाय से शुद्ध प्राप्ति’ के रूप में 1,014 रुपए कमाए.
हरियाणा में, यह देखने को मिलता है कि ‘0.01-0.40 हेक्टेयर’ वर्ग के आकार वाली भूमि वाले एक कृषि परिवार ने फसल उत्पादन/खेती से औसत ‘आय प्राप्ति’ की तुलना में ‘भूमि को पट्टे पर देने से अधिक औसत आय’ (अर्थात 1,131 रुपये) अर्जित की – – जब फसल वर्ष 2018-19 के दौरान केवल भुगतान किए गए खर्च को ‘(768 रुपये) प्रति माह माना जाता है. इस वर्ग (0.01-0.40 हेक्टेयर) खेत परिवारों के लिए हर महीने औसत ‘मजदूरी से आय’ 10,785 रुपये थी. यह भी देखा जा सकता है कि भूमि के आकार वर्ग ‘0.01 हेक्टेयर से कम’ वाले एक कृषि परिवार ने जुलाई 2018-जून 2019 के दौरान हर महीने औसत ‘फसल उत्पादन से शुद्ध प्राप्ति’ की तुलना में ‘भूमि को पट्टे पर देने से आय’ (अर्थात 39 रुपये) लगभग नगण्य औसत अर्जित की – जब केवल भुगतान किए गए व्यय पर विचार किया जाता है’ (अर्थात 5,022 रुपये). इस वर्ग (0.01 हेक्टेयर से कम) के कृषि परिवारों के लिए प्रति माह औसत ‘मजदूरी से आय’ 9,932 रुपए थी.
‘1.01-2.00 हेक्टेयर’, ‘2.01-4.00 हेक्टेयर’, ‘4.01-10.00 हेक्टेयर’ और ‘10.00 हेक्टेयर से अधिक’ वर्ग वाली भूमि वाले कृषि परिवारों के लिए, औसत ‘मजदूरी से आय’ और ‘जमीन को पट्टे पर देने से होने वाली आय’ के औसत का योग फसल वर्ष 2018-19 के दौरान हर महीने औसत ‘फसल उत्पादन/खेती से प्राप्त शुद्ध प्राप्ति’ से काफी कम था. पंजाब के विपरीत, हरियाणा में भूमि का आकार वर्ग ‘2.01-4.00 हेक्टेयर’ से बढ़कर ‘10.00 हेक्टेयर’ से अधिक हो गया, औसत ‘भूमि को पट्टे पर देने से होने वाली आय’ गिर गई और औसत ‘फसल उत्पादन से शुद्ध प्राप्ति’ बढ़ गई.
सामान्य तौर पर, हरियाणा में एक औसत किसान परिवार ने फसल वर्ष 2018-19 के दौरान प्रति माह ‘मजदूरी से आय’ के रूप में 7,861 रुपए, ‘भूमि को पट्टे पर देने से आय’ के रूप में 621 रुपए, ‘फसल उत्पादन से शुद्ध प्राप्ति’ के रूप में 9,092 रुपए, ‘पशुधन से शुद्ध प्राप्ति’ के रूप में 4,020 रुपए और ‘गैर-कृषि व्यवसाय से शुद्ध प्राप्ति’ के रूप में 1,249 रुपए कमाए.
एनएसएस के 77वें दौर से संबंधित आंकड़ों से पता चलता है कि राष्ट्रीय स्तर पर भूमि के आकार वर्ग के बावजूद, औसत ‘फसल उत्पादन से शुद्ध प्राप्ति’ औसत ‘भूमि को पट्टे पर देने से होने वाली आय’ से अधिक थी. हर महीने भूमि के ‘0.01 हेक्टेयर से कम’, ‘0.01-0.40 हेक्टेयर’ और ‘0.41-1.00 हेक्टेयर’ के आकार वर्गों के लिए, औसत ‘मजदूरी से आय’ औसत ‘फसल उत्पादन से शुद्ध प्राप्ति’ से अधिक थी (केवल भुगतान किया गया व्यय). प्रति माह ‘1.01-2.00 हेक्टेयर’, ‘2.01-4.00 हेक्टेयर’, ‘4.01-10.00 हेक्टेयर’ और ‘10.00 हेक्टेयर से अधिक’ भूमि के आकार वर्गों के लिए, औसत ‘मजदूरी से आय’ औसत फसल उत्पादन से’ ‘शुद्ध प्राप्ति’ से कम थी (केवल भुगतान किए गए व्यय).
एससी, एसटी और ओबीसी किसान परिवारों की आय
राष्ट्रीय स्तर पर, एक औसत अनुसूचित जनजाति (एसटी) के किसान परिवार ने फसल वर्ष 2018-19 के दौरान प्रति माह ‘मजदूरी से आय’ के रूप में 4,546 रुपए, ‘भूमि को पट्टे पर देने से आय’ के रूप में 29 रुपए, ‘फसल उत्पादन से शुद्ध प्राप्ति’ के रूप में 3,088 रुपए, ‘पशुपालन से शुद्ध प्राप्ति’ के रूप में 1,047 रुपए और ‘गैर-कृषि व्यवसाय से शुद्ध प्राप्ति’ के रूप में 269 रुपए कमाए. इसलिए, फसल वर्ष 2018-19 में एक अनुसूचित जनजाति के किसान परिवार की औसत मासिक आय 8,979 रुपए थी. कृपया तालिका-1 देखें.
भारत में, एक औसत अनुसूचित जाति (एससी) कृषि परिवार ने फसल वर्ष 2018-19 के दौरान प्रति माह ‘मजदूरी से आय’ के रूप में 4,315 रुपए. ‘भूमि को पट्टे पर देने से आय’ के रूप में 61 रुपए, ‘फसल उत्पादन से शुद्ध प्राप्ति’ के रूप में 2,052 रुपए, ‘पशुपालन से शुद्ध प्राप्ति’ के रूप में 1,137 रुपए और ‘गैर-कृषि व्यवसाय से शुद्ध प्राप्ति’ के रूप में 578 रुपए कमाए. इसलिए, जुलाई 2018-जून 2019 के दौरान एक अनुसूचित जाति के किसान परिवार की औसत मासिक आय 8,143 रुपए थी.
हमारे देश में एक औसत अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) कृषि परिवार ने फसल वर्ष 2018-19 के दौरान प्रति माह ‘मजदूरी से आय’ के रूप में 3,686 रुपए, ‘भूमि को पट्टे पर देने से आय’ के रूप में 78 रुपए, ‘फसल उत्पादन से शुद्ध प्राप्ति’ के रूप में 3,763 रुपए, ‘पशुपालन से शुद्ध प्राप्ति’ के रूप में 1,779 रुपए और ‘गैर-कृषि व्यवसाय से शुद्ध प्राप्ति’ के रूप में 671 रुपए कमाए. इसलिए, फसल वर्ष 2018-19 में एक ओबीसी किसान परिवार की औसत मासिक आय रुपए 9,977 थी.
तालिका 1: फसल वर्ष 2018-19 में विभिन्न सामाजिक समूहों (केवल भुगतान किए गए व्यय पर विचार करते हुए) से संबंधित प्रति कृषि परिवार की औसत मासिक आय (रुपये में)
स्रोत: जुलाई 2018-जून 2019 से संबंधित आंकड़ों के लिए, कृपया देखें – तालिका-23ए, परिशिष्ट ए, एनएसएस रिपोर्ट संख्या 587: ग्रामीण भारत में कृषि परिवारों और भूमि और परिवारों की पशुधन होल्डिंग्स की स्थिति का आकलन, 2019, एनएसएस 77वां राउंड, कृपया एक्सेस करने के लिए यहां क्लिक करें
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राष्ट्रीय स्तर पर, एक औसत ‘अन्य’ जाति (अर्थात तथाकथित अगड़ी जाति) किसान परिवार ने फसल वर्ष 2018-19 के दौरान प्रति माह ‘मजदूरी से आय’ के रूप में 4,330 रुपए, ‘भूमि को पट्टे पर देने से आय’ के रूप में 355 रुपए. ‘फसल उत्पादन से शुद्ध प्राप्ति’ के रूप में 5,455 रुपए, ‘पशुपालन से शुद्ध प्राप्ति’ के रूप में 1,821 रुपए और ‘गैर-कृषि व्यवसाय से शुद्ध प्राप्ति’ के रूप में 845 रुपए कमाए. इसलिए, जुलाई 2018-जून 2019 के दौरान एक ‘अन्य’ जाति के खेतिहर परिवार की औसत मासिक आय 12,806 रुपए थी.
अन्य निष्कर्ष
जैसा कि चार्ट -1 इंगित करता है (ऊपर देखें), फसल वर्ष 2018-19 में (यदि हम उत्तर पूर्वी राज्यों पर विचार नहीं करते हैं) प्रति कृषि परिवार औसत मासिक आय का उच्चतम स्तर (केवल भुगतान किए गए व्यय को ध्यान में रखते हुए) पंजाब (26,701 रुपये) में देखा गया, उसके बाद हरियाणा (22,841 रुपये), जम्मू और कश्मीर (18,918 रुपये), केरल (17,915 रुपये) और उत्तराखंड (13,552 रुपये) में देखा गया. एनएसएस 77वें दौर से संबंधित एसएएस से पता चलता है कि फसल वर्ष 2018-19 के दौरान मेघालय में भूमि के आकार वर्ग ‘4.01-10.00 हेक्टेयर’ के लिए ‘फसल उत्पादन से शुद्ध प्राप्ति’ (कुल मासिक आय के घटकों में से एक) 4,99,029 रुपये प्रति माह थी. और वही ‘10.00 हेक्टेयर से अधिक’ के भूमि के आकार के लिए 11,56,017 रुपए प्रति माह थी. हालांकि, फसल वर्ष 2018-19 के दौरान पंजाब में ‘फसल उत्पादन से शुद्ध प्राप्ति’ ‘4.01-10.00 हेक्टेयर’ के आकार वर्ग की भूमि के लिए प्रति माह 52,357 रुपए और वही ‘10.00 हेक्टेयर से अधिक’ भूमि के आकार के लिए 70,355 रुपए प्रति माह थी. इसलिए, जुलाई 2018-जून 2019 के दौरान मेघालय में कृषि परिवारों की औसत मासिक आय एक विपथन प्रतीत होती है.
चार्ट -1 यह भी दर्शाता है कि वर्ष 2018-19 में प्रति कृषि परिवार औसत मासिक आय का निम्नतम स्तर (केवल भुगतान किए गए व्यय को ध्यान में रखते हुए) झारखंड में (4,895 रुपये), उसके बाद ओडिशा (5,112 रुपये), पश्चिम बंगाल (6,762 रुपये) बिहार (7,542 रुपये) और उत्तर प्रदेश (8,061 रुपये) में पाया गया।
नोट: कृपया स्प्रैडशीट में डेटा तक पहुंचने के लिए यहां क्लिक करें
स्रोत: जुलाई 2018-दिसंबर 2018, जनवरी 2019-जून 2019 और जुलाई 2018-जून 2019 से संबंधित आंकड़ों के लिए, कृपया देखें- तालिका-23ए, परिशिष्ट ए, एनएसएस रिपोर्ट संख्या 587: कृषि परिवारों और भूमि की स्थिति का आकलन और ग्रामीण भारत में परिवारों की पशुधन जोत, 2019, एनएसएस 77वां दौर, कृपया एक्सेस करने के लिए यहां क्लिक करें
जुलाई 2012-जून 2013 से संबंधित आंकड़ों के लिए, कृपया देखें – तालिका-7, परिशिष्ट ए, भारत में कृषि परिवारों की स्थिति आकलन सर्वेक्षण के प्रमुख संकेतक (जनवरी-दिसंबर 2013), एनएसएस 70वां दौर, MoSPI, भारत सरकार, दिसंबर 2014 , कृपया एक्सेस करने के लिए यहां क्लिक करें
चार्ट-2 से पता चलता है कि फसल वर्ष 2018-19 में प्रति किसान परिवार औसत मासिक ‘फसल उत्पादन/खेती से शुद्ध प्राप्ति’ का उच्चतम स्तर (केवल भुगतान किए गए व्यय को ध्यान में रखते हुए) पंजाब (12,597 रुपये) में पाया गया, इसके बाद हरियाणा (9,092 रुपये), कर्नाटक (6,835 रुपये), उत्तराखंड (5,277 रुपये) और तेलंगाना (4,937 रुपये) (यदि हम उत्तर पूर्वी राज्यों पर विचार नहीं करते हैं) का स्थान है. यह यह भी दर्शाता है कि फसल वर्ष 2018-19 में प्रति किसान परिवार (केवल भुगतान किए गए व्यय को ध्यान में रखते हुए) औसत मासिक ‘फसल उत्पादन/खेती से शुद्ध प्राप्ति’ का निम्नतम स्तर झारखंड (1,102 रुपये) में देखा गया, इसके बाद पश्चिम बंगाल (1,547 रुपये), ओडिशा (1,569 रुपये), जम्मू और कश्मीर (1,980 रुपये) और हिमाचल प्रदेश (2,552 रुपये) का स्थान रहा (यदि हम उत्तर पूर्वी राज्यों की उपेक्षा करते हैं).
फसल वर्ष 2012-13 में प्रति खेती परिवार औसत मासिक ‘फसल उत्पादन से शुद्ध प्राप्ति’ का उच्चतम स्तर (केवल भुगतान किए गए व्यय को ध्यान में रखते हुए) पंजाब (10,862 रुपये) में पाया गया, इसके बाद हरियाणा (7,867 रुपये), कर्नाटक (4,930 रुपये), तेलंगाना (4,227 रुपये) और मध्य प्रदेश (4,016 रुपये) (यदि हम उत्तर पूर्वी राज्यों पर विचार नहीं करते हैं) का स्थान रहा. प्रति किसान परिवार (केवल भुगतान किए गए व्यय को ध्यान में रखते हुए) औसत मासिक ‘फसल उत्पादन/खेती से शुद्ध प्राप्ति’ का निम्नतम स्तर पश्चिम बंगाल (979 रुपये) में देखा गया, इसके बाद ओडिशा (1,407 रुपये), झारखंड (रु. फसल वर्ष 2012-13 में 1,451), बिहार (1,715 रुपये) और तमिलनाडु (1,917 रुपये) (यदि हम उत्तर पूर्वी राज्यों की उपेक्षा करें) का स्थान रहा.
फसल वर्ष 2012-13 और 2018-19 के बीच, प्रति कृषि परिवार (केवल भुगतान किए गए व्यय पर विचार करते हुए) फसल उत्पादन/खेती से औसत मासिक ‘शुद्ध प्राप्ति (रुपये में)’ में अरुणाचल प्रदेश (-12.5 प्रतिशत), असम (-22.5 प्रतिशत), हिमाचल प्रदेश (-11.3 प्रतिशत), जम्मू और कश्मीर (-35.4 प्रतिशत), झारखंड (-24.1 प्रतिशत) और नागालैंड (-37.4 प्रतिशत) राज्यों ने में नकारात्मक वृद्धि दर का अनुभव किया. वर्ष 2012-13 और 2018-19 के बीच फसल वर्ष 2012-13 और 2018-19 के बीच प्रति किसान परिवार (केवल भुगतान किए गए व्यय पर विचार करते हुए) औसत मासिक ‘फसल उत्पादन/खेती से शुद्ध प्राप्ति (रुपये में)’ में सबसे अधिक वृद्धि मेघालय में देखी गई (225.4 प्रतिशत), इसके बाद सिक्किम (139.7 फीसदी), उत्तराखंड (108.5 फीसदी), मिजोरम (90.6 फीसदी) और बिहार (59.7 फीसदी) का नंबर आता है, अगर उत्तर पूर्वी राज्यों को नजरअंदाज नहीं किया जाता है.
फसल वर्ष 2012-13 और 2018-19 के बीच, भारत में प्रति कृषि परिवार (केवल भुगतान किए गए व्यय पर विचार करते हुए) औसत मासिक ‘फसल उत्पादन/खेती से शुद्ध प्राप्ति (रुपये में)’ में 23.3 प्रतिशत की वृद्धि हुई. कृपया चार्ट-2 देखें.
तालिका 2: उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में मुद्रास्फीति की दर
नोट: आधार: 2012=100
स्रोत: भारतीय अर्थव्यवस्था पर सांख्यिकी की हैंडबुक 2020-21, भारतीय रिजर्व बैंक, कृपया देखने के लिए यहां क्लिक करें
भारतीय अर्थव्यवस्था पर सांख्यिकी की हैंडबुक 2015-16, आरबीआई, कृपया देखने के लिए यहां क्लिक करें
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तालिका-2 से पता चलता है कि फसल वर्ष 2012-13 और 2018-19 के बीच औसत ‘उपभोक्ता मूल्य सूचकांक-संयुक्त’ लगभग 34.0 प्रतिशत बढ़ा. यदि हम इसे ध्यान में रखते हैं, तो भारत में इस अवधि के दौरान वास्तविक रूप से प्रति किसान परिवार (केवल भुगतान किए गए व्यय पर विचार करते हुए) औसत मासिक ‘फसल उत्पादन या खेती से शुद्ध प्राप्ति’ में वृद्धि -10.7 प्रतिशत थी.
फसल वर्ष 2012-13 और 2018-19 के बीच औसत ‘उपभोक्ता मूल्य सूचकांक – ग्रामीण’ में लगभग 35.3 प्रतिशत की वृद्धि हुई. यदि हम इसे ध्यान में रखते हैं, तो राष्ट्रीय स्तर पर इस समय अवधि के दौरान वास्तविक रूप से प्रति कृषि परिवार (केवल भुगतान किए गए व्यय पर विचार करते हुए) औसत मासिक ‘फसल उत्पादन या खेती से शुद्ध प्राप्ति’ में वृद्धि -12.0 प्रतिशत थी. दूसरे शब्दों में, कहा जा सकता है कि वास्तविक रूप में, फसल की खेती से एक किसान परिवार द्वारा अर्जित औसत मासिक ‘शुद्ध प्राप्ति’ (केवल भुगतान किए गए व्यय पर विचार करते हुए) फसल वर्ष 2012-13 और 2018-19 के बीच घट गई.
एनएसएस 77वें राउंड और एनएसएस 70वें राउंड में प्रयुक्त कार्यप्रणाली और परिभाषाओं के बारे में अधिक जानने के लिए कृपया यहां क्लिक करें.
References
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Depeasantization in Punjab: Status of farmers who left farming -Sukhpal Singh and Shruti Bhogal, Current Science, Vol. 106, No. 10, 25 May, 2014, please click here to access
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News alert: Southern states had a higher proportion of indebted farm households in 2019, shows NSO survey, Inclusive Media for Change, published on 21 September, 2021, please click here to access
News alert: Where are Punjab’s famous Small farmers? Inclusive Media for Change, published on 18 June 2014, please click here to access
Going back in time -Yoginder K. Alagh, The Indian Express, 16 March, 2015, please click here to access
Courtesy: Inclusive Media for Change/ Shambhu Ghatak
जब तीन कृषि कानूनों में से एक, यानी कृषि उत्पादव्यापार औरवाणिज्य (संवर्धनऔर सुविधा)अधिनियम, 2020 (द फार्मर्स प्रोड्यूस ट्रेड एंड कॉमर्स (प्रमोशन एंड फैसिलिटेशन) एक्ट, 2020) को पिछले साल अधिनियमित किया गया था, तो इसके समर्थकों द्वारा यह तर्क दिया गया था कि कानून फसल कटाई के बाद किसानों को अपनी उपज (और व्यापारियों को उस उपज को खरीदने के लिए) को कृषि उपज मंडी समिति-एपीएमसी मंडियों के बाहर बेचने की अनुमति देगा. एक तरह से, इस विशेष कानून को एपीएमसी की तथाकथित एकाधिकार शक्ति को समाप्त करने और निजी मंडियों/बाजारों/यार्डों के निर्माण को प्रोत्साहित करने के लिए अधिनियमित किया गया था, जैसा कि कृषि विपणन पर पहले के प्रारूपित 2003 के मॉडल एपीएमसी अधिनियम में परिकल्पित किया गया था.
हाल ही में अधिनियमित कृषि उत्पाद व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अधिनियम, 2020 स्पष्ट रूप से कहता है कि यह एक ऐसा कानून है जो “एक ऐसा ढ़ांचा निर्माण करने के रास्ते खोलेगा जहां किसान और व्यापारी अपनी कृषि उपज को कहीं भी बेचने और खरीदने के लिए स्वतंत्र होंगे. यह कानून विभिन्न राज्यों के कृषि विभागों के तहत अधिसूचित मंडियों या मानित बाजारों के परिसर के बाहर किसानों को अपनी उपज के लाभदायक, पारदर्शी और बाधा मुक्त व्यापार और वाणिज्य (अंतर-राज्य और राज्य के भीतर) को बढ़ावा देगा, इस प्रतिस्पर्धी वैकल्पिक खुले व्यापार चैनलों के माध्यम से किसानों को अपनी उपज की लाभकारी कीमतें मिलेंगी. यह इलेक्ट्रॉनिक व्यापार के लिए एक सुविधाजनक ढांचा प्रदान करने के लिए और उससे जुड़े या उसके आनुषंगिक मामलों के लिए बाजार विधान तैयार करने के रास्ते खोलेगा.”
यह गौरतलब है कि कृषि विपणन पर मॉडल अधिनियम में अन्य बातों के अलावा, उल्लेख किया गया है कि “एपीएमसी द्वारा प्रशासित मौजूदा मंडियों के माध्यम से अपनी उपज बेचने के लिए उत्पादकों पर कोई बाध्यता नहीं होगी. इसके अलावा, उस प्रस्तावित मॉडल अधिनियम के तहत, “एक कृषक से जुड़े अधिसूचित कृषि उत्पाद से संबंधित किसी भी लेनदेन में कमीशन एजेंसी निषिद्ध है और कृषक विक्रेता को देय बिक्री आय से कमीशन की कोई कटौती नहीं होगी.”
तो, स्वाभाविक रूप से हमारे मन में यह सवाल उठना लाज़मी है कि राज्य एपीएमसी अधिनियमों को देखते हुए, कृषि विपणन से संबंधित वास्तविक स्थिति क्या है? राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय-एनएसओ (तत्कालीन राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय-एनएसएसओ) द्वारा किए गए स्थिति आकलन सर्वेक्षण (कृपया यहां और यहां क्लिक करें) इसका काफी अच्छा जवाब देते हैं. ग्रामीण भारत (एनएसएस 77वें दौर) में कृषि परिवारों और भूमि और पशुधन होल्डिंग्स के हाल ही में जारी किए गए स्थिति आकलन सर्वेक्षण से पता चलता है कि अधिकांश कृषि परिवारों ने स्थानीय बाजारों में अपनी उपज (गन्ने को छोड़कर) बेची.
किसान परिवारों ने अपनी फसलें किसे बेचीं?
आइए धान के मामले पर विचार करें, जो सबसे अधिक पानी की खपत वाली फसलों में से एक है. धान के उत्पादन को अक्सर उच्च न्यूनतम समर्थन मूल्य-एमएसपी द्वारा प्रोत्साहित किया जाता है, इसके साथ-साथ अन्य फसलों की तुलना में इसके कुल उत्पादन का एक उच्च हिस्सा एमएसपी पर खरीदा जाता है. राज्य एजेंसियों / भारतीय खाद्य निगम (FCI)। तालिका-1 से देखा जा सकता है कि फसल वर्ष 2018-19 की पहली छमाही के दौरान लगभग 52.6 प्रतिशत धान उत्पादक परिवारों ने फसल की बिक्री की सूचना दी. उनमें से, लगभग तीन-चौथाई ने मुख्यत स्थानीय बाजारों (75.1 प्रतिशत) में बेचने की सूचना दी, इसके बाद सरकारी एजेंसियों (7.3 प्रतिशत), सहकारी समितियों (5.4 प्रतिशत), निजी प्रोसेसर (3.6 प्रतिशत) और एपीएमसी मंडियों (3.2 प्रतिशत) में बेचने की सूचना दी. .
फसल वर्ष 2018-19 की पहली छमाही के दौरान लगभग 95.9 प्रतिशत गन्ना उत्पादक परिवारों ने फसल की बिक्री की सूचना दी. उनमें से, 37.6 प्रतिशत ने निजी प्रोसेसर को अधिकतर बिक्री की सूचना दी, इसके बाद मुख्यत सहकारी समितियों (20.7 प्रतिशत), स्थानीय बाजारों (15.6 प्रतिशत) और सरकारी एजेंसियों (10.1 प्रतिशत) को बेचने की सूचना दी.
फसल वर्ष 2018-19 की दूसरी छमाही के दौरान तीन-चौथाई (76.6 प्रतिशत) से अधिक धान उत्पादक परिवारों ने फसल की बिक्री की सूचना दी. उनमें से अधिकांश ने स्थानीय बाजारों (69.8 प्रतिशत) में प्रमुख बिक्री की सूचना दी, इसके बाद सरकारी एजेंसियों (13.3 प्रतिशत), निजी प्रोसेसर (5.7 प्रतिशत), सहकारी समितियों (3.4 प्रतिशत), इनपुट डीलरों (2.9 प्रतिशत) और एपीएमसी मंडियों (1.7 प्रतिशत) में बेचने की सूचना दी.
लगभग 95.7 प्रतिशत गन्ना उत्पादक परिवारों ने जनवरी 2019-जून 2019 के दौरान फसल की बिक्री की सूचना दी. उनमें से, 29.4 प्रतिशत ने निजी प्रोसेसर को बड़ी बिक्री की सूचना दी, इसके बाद मुख्यत स्थानीय बाजारों (25.3 प्रतिशत), सरकारी एजेंसियों (15.2 प्रतिशत) और सहकारिता (14.1 प्रतिशत) मंडियों में बिक्री की सूचना दी.
फसल वर्ष 2018-19 में किसान परिवारों द्वारा किसान उत्पादक संगठनों (एफपीओ) को लगभग नगण्य बिक्री हुई. गन्ने के मामले में, अनुबंध कृषि प्रायोजकों/कंपनियों को बिक्री का एक छोटा अनुपात (हालांकि महत्वहीन नहीं) था. कृपया तालिका-1 देखें.
तालिका 1: कृषि परिवारों का प्रतिशत वितरण जिन्होंने जुलाई 2018-दिसंबर 2018 और जनवरी 2019-जून 2019 के दौरान प्रमुख खरीद एजेंसियों को फसलों की बिक्री की सूचना दी है
स्रोत: ग्रामीण भारत में परिवारों की कृषि परिवारों और भूमि और पशुधन की स्थिति का आकलन, 2019, एनएसएस 77वां दौर, राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (NSO), सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय (MoSPI) द्वारा जारी, जनवरी 2019-दिसंबर 2019, कृपया देखने के लिए यहां क्लिक करें
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आइए अब यह भी देखते हैं कि फसल वर्ष 2012-13 में किसान परिवारों द्वारा धान किसको बेचा गया. तालिका -2 से पता चलता है कि फसल वर्ष 2012-13 की पहली छमाही के दौरान धान का उत्पादन करने वाले लगभग 56.9 प्रतिशत कृषि परिवारों ने स्थानीय निजी व्यापारियों (411 में से 234) को मुख्यत अपनी फसल बेचने की सूचना दी, इसके बाद मंडियों (19.5 प्रतिशत), सहकारी समितियों और सरकारी एजेंसियों (9.5 प्रतिशत) और इनपुट डीलर (9.0 प्रतिशत) को मुख्यत अपनी फसल बेची.
जुलाई 2012-दिसंबर 2012 के दौरान लगभग 42.7 प्रतिशत गन्ना कृषि परिवारों ने सहकारी समितियों और सरकारी एजेंसियों (880 में से 376) को मुख्यत अपनी फसल बेचने की सूचना दी, इसके बाद कृषि परिवारों ने प्रोसेसर (23.8 प्रतिशत) और स्थानीय निजी व्यापारियों (21.8 प्रतिशत) को अपनी फसल बेचने की सूचना दी.
तालिका 2: जुलाई 2012-दिसंबर 2012 और जनवरी 2013-जून 2013 के दौरान चयनित फसलों की बिक्री की सूचना देने वाले प्रति 1000 कृषि परिवारों की संख्या
स्रोत: भारत में कृषि परिवारों की स्थिति आकलन सर्वेक्षण के प्रमुख संकेतक (जनवरी-दिसंबर 2013), एनएसएस 70वां दौर, सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय, भारत सरकार, दिसंबर 2014, कृपया एक्सेस करने के लिए यहां क्लिक करें, कृपया एक्सेस करने के लिए यहां क्लिक करें
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जनवरी 2013-जून 2013 के दौरान, लगभग 72.1 प्रतिशत कृषि परिवारों ने स्थानीय निजी व्यापारियों को धान की फसल की बिक्री की सूचना दी, इसके बाद मंडियों में बड़ी बिक्री (14.9 प्रतिशत), इनपुट डीलरों (7.4 प्रतिशत) और सहकारी समितियों और सरकारी एजेंसियों (4.4 प्रतिशत) को फसल बेचने की सूचना दी.
जनवरी 2013-जून 2013 के दौरान लगभग 44.2 प्रतिशत गन्ना किसान परिवारों ने सहकारी समितियों और सरकारी एजेंसियों, प्रोसेसर (27.0 प्रतिशत) और स्थानीय निजी व्यापारियों (22.8 प्रतिशत) को मुख्यत अपनी फसल बेचने की सूचना दी.
एसएएस 2012-13 (एनएसएस 70वें दौर) के अनुसार, गन्ने को छोड़कर सभी फसलें, अधिकांश कृषि परिवारों ने स्थानीय निजी व्यापारियों या मंडियों में बेची. गन्ने की फसल अधिकांश किसान परिवारों ने सहकारी समितियों और सरकारी एजेंसियों, प्रसंस्करणकर्ताओं और स्थानीय निजी व्यापारियों को बेची. बिक्री की सूचना देने वाले प्रति 1,000 परिवारों की संख्या इस तथ्य को भी इंगित करती है कि भारत में कृषि उत्पादन का एक बड़ा हिस्सा स्वयं के उपभोग के लिए है.
कृषि परिवारों द्वारा खरीद एजेंसी को बेची गई फसल की मात्रा का प्रतिशत वितरण
तालिका -3 विभिन्न एजेंसियों को बेची गई फसलों की मात्रा का प्रतिशत हिस्सा और फसल वर्ष 2018-19 की पहली और दूसरी छमाही के दौरान विभिन्न एजेंसियों द्वारा खरीदी गई फसल के वितरण को दर्शाती है. गन्ने को छोड़कर, विभिन्न फसलों की अधिकांश मात्रा स्थानीय बाजारों में बेची गई (अर्थात, प्रमुख निपटान). उदाहरण के लिए एक बार फिर धान का मामला लें. फसल वर्ष 2018-19 की पहली छमाही में धान की फसल का लगभग 59.3 प्रतिशत (मात्रा के हिसाब से) विभिन्न एजेंसियों को बेचा गया. इसमें से 63.4 प्रतिशत स्थानीय बाजारों में बेचा गया, इसके बाद सरकारी एजेंसियों (13.9 प्रतिशत), एपीएमसी मंडियों (8.4 प्रतिशत) और सहकारी समितियों (7.8 प्रतिशत) को मुख्यत फसल बेची गई.
धान के विपरीत, लगभग 96.9 प्रतिशत गन्ने की फसल (मात्रा के मामले में) विभिन्न एजेंसियों को बेची गई. इसमें से, 33.8 प्रतिशत निजी प्रोसेसरों को बेचा गया, इसके बाद सहकारी समितियों (25.3 प्रतिशत) और स्थानीय बाजारों (12.6 प्रतिशत) को मुख्यत रूप से बेचा गया.
फसल वर्ष 2018-19 की दूसरी छमाही के दौरान, लगभग 79.0 प्रतिशत धान की फसल विभिन्न एजेंसियों को (मात्रा के मामले में) बेची गई. उसमें से 61.8 प्रतिशत स्थानीय बाजारों में बेचा गया, इसके बाद सरकारी एजेंसियों (18.4 प्रतिशत) और निजी प्रोसेसर (8.0 प्रतिशत) को मुख्यत रूप से बेचा गया.
जनवरी 2019-जून 2019 के दौरान लगभग 98.6 प्रतिशत गन्ने की फसल (मात्रा के हिसाब से) विभिन्न एजेंसियों को बेची गई. उसमें से, लगभग 27.0 प्रतिशत निजी प्रोसेसर को बेचा गया, इसके बाद सहकारी समितियों (16.7 प्रतिशत), सरकारी एजेंसियों (15.9 प्रतिशत) और स्थानीय बाजारों (15.8 प्रतिशत) को मुख्यत रूप से बेचा गया.
तालिका 3: जुलाई 2018-दिसंबर 2018 और जनवरी 2019-जून 2019 के दौरान फसल खरीद एजेंसी को कृषि परिवारों द्वारा बेची गई फसल की मात्रा का प्रतिशत वितरण
स्रोत: ग्रामीण भारत में परिवारों की कृषि परिवारों और भूमि और पशुधन की स्थिति का आकलन, 2019, एनएसएस 77वां दौर, जनवरी 2019-दिसंबर 2019, राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ), सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय (एमओएसपीआई), उपयोग करने के लिए कृपया यहां क्लिक करें.
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तालिका -4 इंगित करती है कि गन्ने को छोड़कर विभिन्न फसलों का अधिकांश उत्पादन स्थानीय निजी व्यापारियों या मंडियों को बेचा गया.
धान के मामले में फसल वर्ष 2012-13 की पहली छमाही में इसकी मात्रा का 41.0 प्रतिशत स्थानीय निजी व्यापारियों को बेचा गया, इसके बाद मंडियों (29.0 प्रतिशत) और सहकारी समितियों और सरकारी एजेंसियों (17.0 प्रतिशत) को मुख्यत रूप से बेचा गया.
जुलाई 2012-दिसंबर 2012 के दौरान लगभग 50.0 प्रतिशत गन्ने की फसल (निपटान की गई मात्रा के संदर्भ में) सहकारी समितियों और सरकारी एजेंसियों को बेची गई, इसके बाद प्रोसेसरों (24.0 प्रतिशत) और स्थानीय निजी व्यापारियों (18.0 प्रतिशत) को मुख्यत रूप से बेचा गया.
फसल वर्ष 2012-13 की दूसरी छमाही के दौरान, धान की फसल का लगभग 64.0 प्रतिशत स्थानीय निजी व्यापारियों को बेचा गया, इसके बाद मंडियों (17.0 प्रतिशत) और इनपुट डीलरों (11.0 प्रतिशत) को मुख्यत रूप से बेचा गया.
जनवरी 2013-जून 2013 के दौरान लगभग 57.0 प्रतिशत गन्ने की फसल (निपटान की गई मात्रा के संदर्भ में) सहकारी समितियों और सरकारी एजेंसियों को बेची गई, इसके बाद प्रोसेसर (23.0 प्रतिशत) और स्थानीय निजी व्यापारियों (16.0 प्रतिशत) को मुख्यत रूप से बेचा गया.
तालिका 4: जुलाई 2012-दिसंबर 2012 और जनवरी 2013-जून 2013 के दौरान एजेंसी को बेची गई चयनित फसलों की मात्रा का प्रतिशत वितरण
स्रोत: भारत में कृषि परिवारों की स्थिति आकलन सर्वेक्षण के प्रमुख संकेतक (जनवरी-दिसंबर 2013), एनएसएस 70वां दौर, सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय, भारत सरकार, दिसंबर 2014, एक्सेस करने के लिए कृपया यहां क्लिक करें, एक्सेस करने के लिए कृपया यहां क्लिक करें
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एसएएस 2012-13 की रिपोर्ट (एनएसएस 70वां दौर) में उल्लेख किया गया है कि सहकारी समितियों और सरकारी एजेंसियों को बिक्री का कम हिस्सा खरीद एजेंसियों के कम उपयोग को दर्शाता है, जो चयनित फसलों (गन्ने को छोड़कर) की खरीद न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर करती हैं.
एमएसपी के बारे में जागरूकता और एमएसपी पर खरीद करने वाली एजेंसी
एसएएस 2018-19रिपोर्ट (एनएसएस 77वां दौर) इंगित करती है कि जुलाई 2018-दिसंबर 2018 की अवधि के दौरान एमएसपी पर बेचे गए फसल उत्पादन का प्रतिशत रागी के लिए लगभग शून्य प्रतिशत से धान के मामले में 23.7 प्रतिशत तक अलग-अलग है. इसी तरह, दूसरी छमाही में फसल वर्ष 2018-19 में, एमएसपी पर बेचे गए फसल उत्पादन का प्रतिशत नारियल के लिए लगभग 0.1 प्रतिशत से लेकर गन्ने के मामले में 40.2 प्रतिशत तक था.
फसल वर्ष 2018-19 की पहली छमाही के दौरान धान बेचने वाले 40.7 प्रतिशत किसान परिवारों को एमएसपी की जानकारी थी, वहीं रागी बेचने वाले परिवारों के मामले में यह आंकड़ा 4.3 प्रतिशत के करीब था. इसी तरह, फसल वर्ष 2018-19 की दूसरी छमाही के दौरान गन्ना बेचने वाले 56.9 प्रतिशत परिवारों को एमएसपी की जानकारी थी, जबकि नारियल बेचने वाले परिवारों के मामले में यह आंकड़ा लगभग 12.0 प्रतिशत था.
हालांकि फसल वर्ष 2018-19 की पहली छमाही के दौरान 32.7 प्रतिशत गन्ना बेचने वाले परिवारों को एमएसपी के तहत खरीद एजेंसी के बारे में पता था, रागी बेचने वाले परिवारों के मामले में यह आंकड़ा 3.1 प्रतिशत के करीब था. इसी प्रकार गन्ना बेचने वाले 51.0 प्रतिशत परिवारों को फसल वर्ष 2018-19 की दूसरी छमाही के दौरान एमएसपी के तहत खरीद एजेंसी की जानकारी थी, जबकि नारियल बेचने वाले परिवारों के मामले में यह आंकड़ा लगभग 6.2 प्रतिशत था.
हालांकि फसल वर्ष 2018-19 की पहली छमाही के दौरान 27.9 प्रतिशत गन्ना बेचने वाले परिवारों ने खरीद एजेंसियों को बेचा, रागी और नारियल बेचने वाले परिवारों के मामले में, आंकड़े क्रमशः शून्य प्रतिशत और 1.0 प्रतिशत थे. इसी प्रकार फसल वर्ष 2018-19 की दूसरी छमाही के दौरान 40.7 प्रतिशत गन्ना बेचने वाले परिवारों ने खरीद एजेंसियों को बेचा, जबकि नारियल और ज्वार बेचने वाले परिवारों के मामले में यह आंकड़ा क्रमशः 0.3 प्रतिशत और 0.7 प्रतिशत था.
एसएएस 2018-19 (एनएसएस 77वां दौर) ने भी खरीद एजेंसियों को नहीं बेचने के कारणों का पता लगाया था, जबकि किसान परिवारों को एमएसपी पर चयनित फसलों को खरीदने वाली ऐसी एजेंसियों के बारे में पता था. वे कारण थे: खरीद एजेंसी उपलब्ध नहीं थी, कोई स्थानीय खरीदार नहीं, फसल की खराब गुणवत्ता, पहले से गिरवी रखी फसल, एमएसपी से बेहतर मूल्य प्राप्त हुआ.
एसएएस 2018-19 रिपोर्ट (एनएसएस 77वां दौर) के परिणाम स्टेट ऑफइंडियन फार्मर्स नामक एक रिपोर्ट से प्राप्त परिणामों से अलग नहीं हैं, जो लगभग सात साल पहले तैयार की गई थी. लोकनीति-सीएसडीएस (भारत कृषक समाज द्वारा प्रायोजित) द्वारा 2013-2014 में देश भर में फैले किसान परिवारों के बीच व्यापक राष्ट्रव्यापी अध्ययन में पाया गया कि एमएसपी के बारे में जागरूकता, जिसके तहत भारत सरकार द्वारा घोषित दरों पर किसानों से खरीद की जाती है, कम थी. साक्षात्कार में आए करीब 62 फीसदी किसानों को एमएसपी के बारे में जानकारी नहीं थी, जबकि सिर्फ 38 फीसदी ने एमएसपी के बारे में सुना था. जिन लोगों ने एमएसपी के बारे में सुना था, उनमें से अधिकांश (64 प्रतिशत) ने कहा कि वे सरकार द्वारा तय की गई फसलों की दरों से संतुष्ट नहीं हैं और केवल 27 प्रतिशत सरकार द्वारा तय की गई फसलों की दरों से संतुष्ट हैं. इसके अलावा, यह भी देखा गया कि किसानों को उनके लिए लक्षित योजनाओं और उन योजनाओं के तहत किए गए प्रावधानों के बारे में अच्छी तरह से जानकारी नहीं थी.
References:
Situation Assessment of Agricultural Households and Land and Livestock Holdings of Households in Rural India, 2019, NSS 77th Round, January 2019-December 2019, National Statistical Office (NSO), Ministry of Statistics and Programme Implementation (MoSPI), please click here to access
Key Indicators of Situation Assessment Survey of Agricultural Households in India (January-December 2013), NSS 70th Round, Ministry of Statistics and Programme Implementation, GoI, December 2014, please click here to access, please click here to access
The Farmers’ Produce Trade and Commerce (Promotion And Facilitation) Act, 2020, please click here to access
Model Act on Agricultural Marketing/ the Model APMC Act of 2003, Ministry of Agriculture and Farmers’ Welfare, please click here to access
State of Indian Farmers: A Report (2013-14), prepared by Lokniti-CSDS, funded by by Bharat Krishak Samaj, please click here and here to access
Press statement by Mahila Kisan Adhikaar Manch (MAKAAM) dated 30th September, 2020, please click here to access
Number Theory: Understanding the business of farming in India -Abhishek Jha and Roshan Kishore, Hindustan Times, 29 September, 2021, please click here to access
Most farmers sold to private traders in 2019, new survey data shows -Vignesh Radhakrishnan, Sumant Sen and Jasmin Nihalani, The Hindu, 14 September, 2021, please click here to access
Courtesy: Inclusive Media for Change/ Shambhu Ghatak and Mandeep Punia
भारत में दुर्घटनावश मौतों और खुदकुशी पर राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के ताज़ा आंकड़े इस बात की ओर इशारा करते नज़र आते हैं कि देश में किसानों की आत्महत्या के मामलों में गिराव्रट आ रही है। मुख्यधारा का मीडिया जोरशोर से प्रचारित कर रहा है कि किसानों की खुदकुशी के मामले घटे हैं। इन रिपोर्टों के मुताबिक किसानों के मुकाबले अब खेतिहर मजदूर और दूसरे तबके के लोग ज्यादा खुदकुशी कर रहे हैं। देश में किसानों की खुदकुशी के मामले 2018 के 10356 से घटकर 2019 में 10281 पर आ गए जबकि खेतिहर मजदूरों की खुदकुशी का आंकड़ा 30132 से बढ़कर 32559 पर पहुंच गया।
इस मामले को जड़ से समझने के लिहाज से पंजाब में किसानों की खुदकुशी पर एक निगाह दौड़ाना जरूरी है जहां इस गंभीर मुद्दे को संबोधित करने के लिए घर-घर सर्वेक्षण किये गए हैं। पंजाब के तीन विश्वविद्यालयों- लुधियाना की पंजाब एग्रिकल्चरल सुनिवर्सिटी (पीएयू), पंजाबी युनिवर्सिटी पटियाला और अमृतसर की गुरुनानक देव युनिवर्सिटी- से मिली रिपोर्टें पर्याप्त स्पष्ट करती हैं कि किसानों की खुदकुशी की संख्या कितनी है और उसके पीछे के कारण क्या हैं। यह चौंकाने वाली बात है कि एनसीआरबी ने 2015 में किसानों की खुदकुशी पर विस्तृत रिपोर्ट छापी थी लेकिन इस बार की रिपोर्ट में उसने खुदकुशी के कारणों के विस्तार में जाने की जहमत नहीं उठायी है।
NCRB और PAU के तुलनात्मक आँकड़े
पंजाब में किसानों और खेतिहर मजदूरों की खुदकुशी पर पीएयू, लुधियाना में किया गया एक अध्ययन छह जिलों की जनगणना पर केंद्रित था- लुधियाना, मोगा, भटिंडा, संगरूर, बरनाला और मानसा। एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार 2014 से 2018 के बीच समूचे पंजाब में 1082 किसानों और खेतिहर मजदूरों ने खुदकुशी की है जबकि पीएयू का अध्ययन बताता है कि यह संख्या इसकी सा़ढ़े तीन गुना (3740) है। एनसीआरबी कहता है कि 2014 और 2015 में ऐसे 64 और 124 खुदकुशी के केस हुए जबकि पीएयू की रिपोर्ट के मुताबिक ये संख्या पंजाब के केवल छह जिलों में 888 और 936 थी।
इसी तरह 2016 में पीएयू के 518 मौतों के मुकाबले एनसीआरबी 280 केस गिनवाता है, 2017 में 611 के मुकाबले 291 और 2018 में 787 के मुकाबले 323 केस। यह जानना जरूरी है कि पंजाब के कुल 12729 गांवों में से पीएयू के सर्वे में सिर्फ 2518 गांव शामिल किये गए थे। यदि बचे हुए 10211 गांवों के मामले भी जोड़ लिए जाएं तो हकीकत पूरी तरह खुलकर सामने आ जाएगी।
सन 2018 के बाद से किसी भी युनिवर्सिटी या संस्थान ने ऐसा कोई सर्वे नहीं किया है हालांकि एनसीआरबी के अनुसार 2019 में 302 और 2020 में 257 खुदकुशी के मामले सामने आए। तीन विश्वविद्यालयों के सर्वे दिखाते हैं कि सन 2000 से 2018 के बीच पंजाब में खेती के क्षेत्र में करीब 16600 लोगों ने खुदकुशी की जिनमें 9300 किसान थे और 7300 खेतिहर मजदूर थे। इस तरह देखें तो रोजाना पंजाब में करीब दो किसान और एक खेतिहर मजदूर अपनी जान दे रहा है। इन आत्महत्याओं के पीछे बढ़ता कर्ज का बोझ है। किसानों की खुदकुशी के मामले में एक तीखा मोड़ आया है लेकिन इस मुद्दे पर लोकप्रिय विमर्श हकीकत को छुपाने की काफी जद्दोजेहद कर रहा है।
भारत में बड़े पैमाने पर आत्महत्याओं का रुझान नब्बे के दशक में नयी आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद देखने में आया। एनसीआरबी के मुताबिक 1997 से 2006 के बीच भारत में 1095219 लोगों ने खुदकुशी की जिनमें 166304 किसान थे। नब्बे के दशक के मध्य के बाद से अब तक किसानों की खुदकुशी की संख्या 4 लाख का आंकड़ा पार कर चुकी है। पिछले वर्षों की रिपोर्टों के मुताबिक आबादी के किसी भी तबके के मुकाबले किसानों में खुदकुशी की दर सबसे ज्यादा है। आम आबादी में एक लाख लोगों पर 10.6 लोग आत्महत्या करते हैं वहीं हर एक लाख किसानों पर 15.8 किसानों ने अपनी जान दी है।
हैरत की बात है कि शीर्ष पर बैठे कुछ लोगों ने किसानों में खुदकुशी के आंकड़े कम दिखाने के लिए ‘किसान’ की परिभाषा को ही बदलने का प्रयास किया। एनसीआरबी की रिपोर्टें मुख्यत: पुलिस रिकॉर्ड पर आधारित होती हैं जो वास्तविक संख्या को नहीं दर्शाते हैं। खुदकुशी के कई मामले पुलिस के रिकॉर्ड में दर्ज नहीं हो पाते क्योंकि लोग कानूनी जटिलताओं से बचने के लिए बिना पंचनामे के या पुलिस को सूचना दिये बगैर ही अंतिम संस्कार कर देते हैं। नतीजतन, वास्तविक के मुकाबले दर्शायी गयी खुदकुशी की संख्या काफी कम हो जाती है।
एनसीआरबी के मुताबिक हर दिन ऐसे 28 लोग देश में खुदकुशी करते हैं जो खेती किसानी पर निर्भर हैं। वास्तव में यदि पंजाब की तर्ज पर दूसरे राज्यों में भी सर्वे किये जाएं तो देश में किसानों की खुदकुशी के आंकड़े आधिकारिक रिकॉर्ड से कहीं ज्यादा निकलें।
किसानों और खेतिहर मजदूरों की खुदकुशी के पीछे मुख्य वजह यह है कि खेती अब घाटे का सौदा बनती जा रही है। उपज की बढ़ती लागत और फसल के कम मूल्य के चलते कमाई और खर्च के बीच बढ़ती दूरी खेतिहर परिवारों को आर्थिक संकट की ओर धकेल रही है। ऐसे हालात में किसान और खेतिहर मजदूर गंभीर संकट का सामना कर रहे हैं। कई छोटे और सीमांत किसानों को खेती छोड़नी पड़ी है। हर दिन 2500 किसान खेती छोड़ने को मजबूर हो रहे हैं। अब तीन नये कृषि कानूनों के चलते बड़े किसान भी खेती से बाहर हो जाएंगे। इस तरह किसानों को खेती से अलगाव में डालने की प्रक्रिया पूरी हो जाएगी और कॉरपोरेट सेक्टर का रास्ता आसान हो जाएगा।
कृषि क्षेत्र के भीतर मानव श्रम के रोजगार में भी लगातार गिरावट आ रही है। भारत में कृषि क्षेत्र 1972-73 में 74 प्रतिशत कामगारों को रोजगार देता था जो 1993-94 में 64 प्रतिशत हो गया और आज कुल कामगारों का केवल 54 प्रतिशत हिस्सा कृषि में रोजगाररत है। इसी तरह सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि की हिस्सेदारी 1972-73 के 41 फीसदी से गिरकर 1993-94 में 30 प्रतिशत पर आ गयी और आज यह आंकड़ा महज 14 प्रतिशत है। कृषि क्षेत्र के कामगारों की उत्पादकता भी दूसरे क्षेत्रों के मजदूरों के मुकाबले काफी कम है। शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण तथा महंगे होते जीवनस्तर ने किसानों और मजदूरों की जिंदगी को और संकटग्रस्त कर दिया है। अपने बच्चों को महंगी शिक्षा मुहैया करवाने के लिए संघर्ष कर रहे किसानों को रोजगार के घटते अवसरों ने बेचारगी की हालत में ला छोड़ा है। इन स्थितियों ने राज्य से मजबूरन पलायन की प्रक्रिया को तेज कर दिया है।
नवउदारवाद के दौर में खेती से सब्सिडी और रियायतें छीन ली गयीं। खासकर ऐसा विश्व व्यापार संगठन के बनने के बाद हुआ। खेती के पूंजी-सघन होते जाने और वैश्वीकरण की नीतियों सहित अंतरराष्ट्रीय बाजार के असर ने किसानों को उनकी फसलों की उचित लागत से व्यवस्थित तौर पर महरूम करने का काम किया है। इससे उसका शुद्ध मुनाफा घटा है और वे कर्ज के जाल में फंस गए हैं। कर्ज के बढ़ने की मुख्य वजह किसानों की वास्तविक आय में आयी गिरावट है। आज पंजाब का कृषि क्षेत्र एक लाख करोड़ के कर्ज में डूबा हुआ है। यह हर परिवार पर औसतन 10 लाख का कर्ज बनता है। इस कर्ज पर सालाना सवा लाख रुपये का ब्याज बनता है। इसके मुकाबले किसानों की आय 200 से 250 गुना कम है। इसे दिवालियापन का चरण हम कह सकते हैं। ज्यादातर छोटे किसान अपने ऊपर चढ़े कर्ज का ब्याज तक अदा नहीं कर पा रहे हैं। नतीजतन, कर्ज और खुदकुशी दोनों में इजाफा होता जा रहा है, लेकिन सरकारी आंकड़े खुदकुशी की जमीनी हकीकत को छुपा रहे हैं।
चुनावी दलों के नारे या सरकार द्वारा आंकड़ों में हेरफेर से कृषि क्षेत्र में हो रही आत्महत्याओं को नहीं रोका जा सकता। ऐसा करने के लिए कृषि संकट को पहले तो स्वीकार करना जरूरी है ताकि सामने से इसका मुकाबला किया जा सके। चूंकि आत्महत्याओं के पीछे मुख्य वजह कर्ज है, लिहाजा कर्ज निपटारा या कर्ज माफी की योजनाएं किसानों और खेतिहर मजदूरों के लिए शुरू की जानी चाहिए। पंजाब में चूंकि एक-तिहाई पीडि़त किसान परिवारों और आधे पीडि़त खेतिहर मजदूर परिवारों में कमाने वाला शख्स केवल एक था, इसलिए उन परिवारों को उचित मुआवजा दिया जाना चाहिए जहां मौतें कर्ज और आर्थिक संकट के चलते हुई हैं।
साल भर से नये कृषि कानूनों के खिलाफ लड़ रहे किसानों के हालात को भी समझने की जरूरत है। न केवल तीनों कृषि कानून वापस लिए जाने चाहिए बल्कि फसल खरीद की एक कानूनी गारंटी दी जानी चाहिए जहां न्यूनतम खरीद मूल्य (एमएसपी) के साथ-साथ उन सभी 23 फसलों पर लाभकारी मूल्य भी दिया जाना चाहिए जिन पर एमएसपी लागू है। इसके अलावा सरकारी संस्थानों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं भी दी जानी चाहिए। प्रासंगिक कृषि-जलवायु क्षेत्रों में विशिष्ट फसलों की पहचान कर के उनके विकास को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए जिससे कृषि आय में मूल्य संवर्द्धन हो सके। लोगों को गांवों से शहरों की ओर धकेलने के बजाय ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि आधारित उद्योग इकाइयां लगायी जानी चाहिए।
भारत की विशाल आबादी को केवल कृषि क्षेत्र ही रोजगार दे सकता है क्योंकि अर्थव्यवस्था के दूसरे क्षेत्रों में समूची आबादी को खपा पाना संभव नहीं है। इसलिए कृषि क्षेत्र को तत्काल मुनाफाकारी बनाया जाना चाहिए और श्रम शक्ति को उसके दरवाजे पर पहुंचकर बेहतर रोजगार के अवसर दिए जाने चाहिए। वक्त आ गया है कि खुदकुशी के कलंक को न सिर्फ कागजों से मिटाया जाय बल्कि हकीकत में भी उसका अंत किया जाय और साथ ही समूची किसान आबादी को गुणवत्तापूर्ण जीवन के साधन मुहैया कराए जाएं।
(लेखक लुधियाना स्थिति पंजाब एग्रिकल्चरल युनिवर्सिटी में प्रधान अर्थशास्त्री हैं। अंग्रेजी से अनुवाद अभिषेक श्रीवास्तव ने किया है।)
आज़ादी के 75 साल बाद भी हरियाणा के रोहतक जिले का गांव ककराना छुआछूत और अस्पर्शता का दंश झेल रहा है. गांव में दलितों के मन्दिर प्रवेश और सार्वजनिक नल से पानी भरने पर सवर्ण समाज के लोगों ने प्रतिबंध लगाया हुआ है. इस गांव में दलित आबादी ना तो शादी की घुड़चरी निकाल सकती है, न ही सार्वजनिक तालाब की जमीन पर सर्वजातीय श्रमदान से निर्मित शिव मंदिर में जा सकती है. इस प्रतिबंध के खिलाफ लंबे समय से गांव के कुछ नौजवान कानूनी तौर पर संघर्ष कर रहे हैं.
इस सिलसिले में गांव की दलित आबादी ने पुलिस प्रशासन को भी अवगत करवाया गया लेकिन कोई बात नहीं बनी. गांव के दलित नौजवानों ने फैसला किया था कि वह 2 नवम्बर को मन्दिर में प्रवेश करेंगे और सामाजिक प्रतिबंधो को तोड़ेंगे. लेकिन इस गांव के दलित नौजवान राहुल अक्खड़ और उसके एक साथी सुमित कुमार को पुलिस ने बीती रात को गिरफ्तार कर लिया.
राहुल की बहन प्रिया ने हमें बताया, “पुलिस ने पूरा गांव सील कर दिया है. हमें तो अभी तक यह भी नहीं पता कि राहुल को किस थाने के अंदर रखा गया है. आज गांव के ब्राह्मण समाज के लोग लाठी, फरसे आदि हथियार लेकर मन्दिर के आगे खड़े हैं. पुलिस मीडिया को फोटो तक नहीं खींचने दे रही है. गांव में बाहरी लोगों पर पुलिस ने प्रतिबंध लगा दिया है. मंजीत मोखरा को रोहतक पुलिस ने नजरबंद कर लिया है. गांव की दलित आबादी भी डर के कारण घरों में कैद है. हालात गंभीर बने हुए हैं, लेकिन पुलिस पीड़ित पक्ष के साथ खड़े होने की बजाय जातिवादी ताकतवर के पक्ष में खड़ी है.”
इस मामले में सक्रिय मंजीत मोखरा को नजरबंद किए जाने से पहले उन्होंने मीडिया को बताया, “कल कलानौर के थाने में ककराना गाँव के सवर्ण समुदाय और बहुजन समाज के साथियों को भी बुलाया गया था. हमने गाँव में हो रहे इस सामाजिक प्रतिबंध पर एसएचओ साहब के सामने अपना पक्ष रखा और गाँव के तथाकथित सवर्ण समुदाय के लोगों को आपसी भाईचारे से मंदिर में प्रवेश करवाने की अपील की, परन्तु उन्हीं व्यक्तियों द्वारा यह कह के पल्ला झाड़ लिया गया कि यह हमारी पूर्वजों की परम्परा है और वे किसी भी तरह से दलित आबादी के लोगों को मंदिर मे प्रवेश व अन्य मुद्दों पर सहमत नहीं हैं. हमने तुरंत प्रभाव से बहुजन परिवारों की प्रशासन द्वारा सुरक्षा की मांग की. फिलहाल स्थिति तनावपूर्ण है. गाँव मे SDM साहब को ड्यूटी मैजिस्ट्रेट नियुक्त किया गया है. अगर परिवारों के साथ कोई अनहोनी होती है, तो सरकार व प्रशासन पूर्ण रूप से जिम्मेवार होगा. अगर भाईचारे से बात नहीं सुलझती तो गाँव के बहुजन परिवार भी बौद्ध धर्म अपनाने को तैयार हैं.”
दोनों पक्षों की पुलिस के साथ मीटिंग
गांव के ही नागरिक मोनू शर्मा ने हमें बताया, “हमारे गांव में दो मंदिर हैं. एक 80 साल पुराना और एक 40 साल पुराना. जो 40 साल पुराना मंदिर है वो दलितों के लिए ही बनाया हुआ है. किसी दलित को भक्ति करनी है तो उसमें जाकर करे. 80 साल पुराना मंदिर सिर्फ ब्राहमणों के लिए है. यह हमारी पूर्वजों की परम्परा है और इस परंपरा को नहीं टूटने देंगे.”
इस मामले को लेकर हमने पुलिस अधिकारी देवेन्द्र से बात करनी चाही तो उन्होंने यह कहकर फोन काट दिया कि इस मामले से मेरा कोई लेना-देना नहीं है.
हरियाणा में किसानों को आए साल डीएपी की कमी का सामना करना पड़ता है. इस बार भी इसी तरह की तस्वीरें सामने आ रही हैं. खरीफ की फसल की कटाई के बाद अब रबी फसलों की बिजाई के लिए किसानों को डीएपी की जरुरत है, लेकिन डीएपी न मिलने के कारण किसानों को काफी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है. डीएपी की खरीद के लिए किसान हजारों की संख्यां में खरीद केंद्रों के बाहर खड़े दिखाई दिए. डीएपी की मांग को लेकर किसान नरवाना में अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर बैठ गए हैं.
नरवाना में डीएपी न मिलने के मुद्दे पर भारतीय किसान यूनियन के नेता अशोक दनोधा अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर बैठे हैं. अशोक ने गांव सवेरा को फोन पर बताया, “हम दो दिन से अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर बैठे हैं और जब तक डीएपी की किल्लत दूर नहीं होगी तब तक भूख हड़ताल जारी रहेगी. उन्होंने सरकार पर लापरवाही का आरोप लगाते हुए कहा कि सरकार ने समय रहते डीएपी की मांग पर ध्यान नहीं दिया जिसके कारण प्रदेश के किसानों को खाद की कमी का सामना करना पड़ रहा है. किसान नेता अशोक ने कहा, “सरकार डीएपी की आपूर्ति पूरी न करने के साथ डीएपी की कालाबाजारी रोकने में भी नाकामयाब रही है. आए दिन डीएपी की कालाबाजारी की खबरे सामने आ रही हैं.” भूख हड़ताल को लेकर उन्होंने कहा, “आस-पास के गांवों के किसान भी भूख हड़ताल में शामिल होने के लिए आ रहे हैं.”
प्रदेश में डीएपी की किल्लत के चलते किसानों को बड़ी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है नौबत यहां तक आन पड़ी है कि किसान मंडी में खरीद केंद्र पर रखे डीएपी के कट्टे उठाने पर मजबूर हो गए.
हरियाणा के महेंद्रगढ़, नारनौल, भिवानी और चरखी दादरी में डीएपी की कमी का सामना करना पड़ रहा है. खाद की किल्लत के चलते किसान पिछले कई दिनों से प्रदेश के अलग-अलग हिस्सों में प्रदर्शन कर रहे हैं. पिछले दिनों किसानों ने अटेली में डीएपी के करीबन सौ कट्टे उठा लिए थे, जिसके आरोप में पुलिस ने 6 किसानों पर केस दर्ज किए. रेवाड़ी में किसानों ने डीएपी की कमी को पूरा करने की मांग को लेकर बीजेपी विधायक लक्ष्मण यादव के घर का घेराव किया.
किसानों ने बीजेपी विधायक लक्ष्मण यादव के घर का घेराव किया.
डीएपी की ज्यादा किल्लत का सामना दक्षिण हरियाणा के किसानों को करना पड़ रहा है हालांकि कुरुक्षेत्र, अंबाला, करनाल पानीपत में की डीएपी की कमी की खबरे सामने आई हैं. डीएपी की आपूर्ति कम होने के कारण प्रदेश सरकार के स्टॉक में इस समय करीबन एक लाख मीट्रिक टन डीएपी उपलब्ध है, जबकि सीजन में करीबन तीन लाख मीट्रिक टन डीएपी की मांग होती है.