उत्तराखंड के कई जिलों में संक्रमण दर 40% से ज्यादा, कुंभ के आंकड़े संदेहास्पद

कोरोना की दूसरी लहर और बदइंतजामी लोगों पर कहर बनकर टूट रही है। इस बीच, उत्तराखंड से कई चौंकाने वाले आंकड़े सामने आए हैं, जिनकी तरफ तुरंत ध्यान देने की आवश्यकता है। राज्य के कई जिलों में संक्रमण की दर 40 फीसदी से ऊपर पहुंच गई है, इसके बावजूद बहुत कम टेस्ट कराये जा रहे हैं। जबकि दूसरी तरफ कुंभ मेले के दौरान हरिद्वार जिले में हो रही कोरोना जांच की विश्वसनीयता पर भी सवाल खड़े हो गये हैं।

उत्तराखंड की आबादी भारत की आबादी का एक फीसदी भी नहीं है, इसलिए राष्ट्रीय आंकड़ों के समंदर में ऐसे छोटे राज्यों के आंकड़े गुम हो जाते हैं। लेकिन जिला स्तर पर देखें तो वास्तविकता का अंदाजा लगाया जा सकता है। कोराना की दूसरी लहर का मुकाबला करने के लिए जिलों से आ रहे इन रुझानों को गंभीरता से लेने की जरूरत है।

करीब 2.65 लाख की आबादी वाले उत्तराखंड के चंपावत जिले में 23 अप्रैल को 301 सैंपलों की जांच हुई थी, जिनमें से 187 सैंपल यानी 62 फीसदी कोविड-19 पॉजिटिव निकले। मतलब, जितने लोगों की जांच हुई उनमें से आधे से ज्यादा कोरोना संक्रमित थे। अगले दिन 24 अप्रैल को चंपाावत में 657 सैंपलों की जांच हुई, जिनमें से 321 सैंपल यानी लगभग 49 फीसदी पॉजिटिव पाए गये। इतनी अधिक संक्रमण दर के बावजूद 25 अप्रैल को चंपावत में केवल 509 टेस्ट हुए। इनमें भी लगभग 25 फीसदी संक्रमित निकले।

कमोबेश यही हाल उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल जिले का है। टिहरी में 24 अप्रैल को 388 सैंपलों की जांच हुई तो 190 सैंपल यानी लगभग 50 फीसदी पॉजिटिव निकले थे। इसी दिन उत्तरकाशी और नैनीताल जिलों में संक्रमण की दर क्रमश: 44 फीसदी और 33 फीसदी थी। 24 अप्रैल को उत्तराखंड के 13 में 7 जिलों में संक्रमण दर 20 फीसदी से ज्यादा रही, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) 5 फीसदी से ज्यादा संक्रमण दर को चिंताजनक मानता है। भारत में अब तक संक्रमण की दर 6.1 फीसदी और उत्तराखंड में 4.25 फीसदी रही है। इस लिहाज से ही उत्तराखंड के कई जिलों की स्थिति बेहद चिंताजनक है।

24 अप्रैल को उत्तराखंड के जिलों में संक्रमण दर और 10 हजार की आबादी पर हुए टेस्ट।
स्रोत: उत्तराखंड हेल्थ बुलेटिन https://health.uk.gov.in

कोविड-19 से जुड़े आंकड़ों को ट्रैक कर रहे एसडीसी फाउंडेशन के प्रमुख अनूप नौटियाल उत्तराखंड के कई जिलों में बढ़ते संक्रमण और कम टेस्टिंग का मुद्दा लगातार उठा रहे हैं। उनका कहना है कि पिछले पांच दिनों में उत्तराखंड के 12 जिलों में संक्रमण दर डब्ल्यूएचओ की सामान्य सीमा (थ्रेसहोल्ड) से 4-5 गुना ज्यादा रही है, फिर भी 1-23 अप्रैल के बीच नैनीताल, उधमसिंह नगर, अल्मोडा और पिथौरागढ़ में एक लाख आबादी पर रोजाना 100 टेस्ट भी नहीं हुए हैं। नैनीताल और उधमसिंह नगर जिले में तो एक लाख आबादी पर उत्तरकाशी और पौड़ी गढ़वाल से भी कम टेस्ट हुए हैं।

इस बीच, नैनीताल जिला एक बड़ी चुनौती बन गया है। नैनीताल जिले में 21 से 23 अप्रैल के बीच संक्रमण दर 32% रही है। इसके बावजूद 23 अप्रैल को जिले में 11+ लाख आबादी पर सिर्फ 764 टेस्ट हुए थे। हालांकि, यह मुद्दा उठने के बाद गत दो दिनों में नैनीताल जिले में टेस्ट की तादाद कुछ बढ़ी है। राज्य के टिहरी और पौड़ी गढ़वाल जिलों की स्थिति भी चिंताजनक है।

बढ़ते संक्रमण के बावजूद कोरोना जांच कम होने की समस्या उत्तराखंड के कई जिलों में है। 24 अप्रैल को 49 फीसदी संक्रमण दर वाले टिहरी गढ़वाल जिले में मात्र 388 सैंपलों की जांच हुई थी। यानी दस हजार लोगों पर सिर्फ 6 टेस्ट हुए। इसी दिन पिथौरागढ़ में 10 हजार लोगों पर 9 और अल्मोड़ा में 12 टेस्ट हुए। ऐसे समय जब कोराना को लेकर पूरे देश में हाहाकार मचा हुआ, उत्तराखंड के कई जिलों में संक्रमण की अत्यधिक दर और इतने कम टेस्ट महामारी से निपटने की कोशिशों पर सवालिया निशान लगाते हैं। जांच कम होने का सीधा मतलब है कि बहुत से संक्रमित लोगों की जानकारी सरकारी आंकड़ों में दर्ज नहीं हो पा रही होगी। इससे संक्रमण और तेजी से फैलने का खतरा है।

कुंभ मेले के मद्देनजर उत्तराखंड हाईकोर्ट के आदेश के बाद हरिद्वार में उत्तराखंड के बाकी जिलों के मुकाबले ज्यादा टेस्ट हो रहे हैं। लेकिन हरिद्वार में संक्रमण की दर अविश्वसनीय रूप से कम है। हरिद्वार जिले की आबादी लगभग 23 लाख है। एक अप्रैल से शुरू हुए कुंभ में 12 और 14 अप्रैल को शाही स्नान में लगभग 50 लाख लोगों के हरिद्वार पहुंचने का अनुमान था। एक से 23 अप्रैल के बीच हरिद्वार जिले में कोरोना के लगभग 4.68 लाख टेस्ट हुए थे, जिनमें संक्रमण दर राष्ट्रीय और राज्य औसत से बहुत कम केवल 2.15 फीसदी पायी गई। जबकि इस दौरान उत्तराखंड के बाकी 12 जिलों में संक्रमण की दर हरिद्वार से पांच गुना ज्यादा 10.90 फीसदी थी। हरिद्वार और उत्तराखंड के बाकी जिलों में संक्रमण दर के बीच भारी अंतर कुंभ के दौरान हुए टेस्ट पर संदेह पैदा करता है।

हरिद्वार के आंकड़ों पर सवाल उठाते हुए अनूप नौटियाल इनके थर्ड पार्टी ऑडिट की मांग करते हैं। आरटीआई कार्यकर्ता साकेत गोखले ने सूचना के अधिकार के तहत कुंभ मेले के दौरान हुई कोराना जांच की जानकारियां जुटाई हैं। आरटीआई से मिली जानकारी के अनुसार, 1 अप्रैल से 14 अप्रैल के बीच हरिद्वार में लगभग 2.21 लाख एंटीजन टेस्ट हुए थे। इनमें से केवल 1237 यानी मात्र 0.55 फीसदी टेस्ट कोविड-19 पॉजिटिव निकले।

यह अविश्वसनीय है कि 23 लाख की आबादी वाले हरिद्वार में जब 50 लाख लोग बाहर से आए हुए थे, उन दो हफ्तों में 2.84 लाख सैंपलों में से केवल 3634 सैंपल ही कोरोना संक्रमित पाए गये। केवल 260 केस प्रतिदिन! गोखले मोदी सरकार पर कोरोना लहर के बीच हरिद्वार में 35 लाख से ज्यादा लोगों को जुटाने और कोरोना संक्रमण के आंकड़ों को कमतर दिखाने का आरोप लगाते हैं।

भले ही कुंभ की वजह से हरिद्वार अधिक चर्चाओं में है। लेकिन उत्तराखंड में महामारी की सबसे ज्यादा मार राजधानी देहरादून पर पड़ रही है। देहरादून में संक्रमण की दर 8 अप्रैल को 3.72 फीसदी थी, जो 21 अप्रैल को बढ़कर 24.42 फीसदी तक पहुंच गई। संक्रमण दर लगभग छह गुना बढ़ने के बावजूद देहरादून में टेस्ट उस हिसाब से नहीं बढ़े हैं। देहरादून में 17 अप्रैल को 10 हजार से ज्यादा टेस्ट हुए थे, लेकिन पिछले एक सप्ताह से 8 हजार से कम टेस्ट प्रतिदिन हो रहे हैं। यहां भी जांच बढ़ाने की जरूरत है।

उत्तराखंड के कई जिलों में कोरोना संक्रमण की बढ़ती दर भयावह संकट की आहट है। देश की जो स्वास्थ्य व्यवस्था सिर्फ 6 फीसदी की संक्रमण दर पर चरमरा चुकी है, वह दुर्गम पर्वतीय इलाकों में महामारी की नई लहर का मुकाबला कैसे करेगी? यह बड़ा सवाल है। खास तौर पर प्रवासियों के लौटने के साथ संक्रमण बढ़ने का खतरा बढ़ रहा है। इस चुनौती का सामना आंकड़ों को छुपाकर नहीं किया जा सकता है।

फैक्ट चेक: किसान आंदोलन की वजह से ऑक्सीजन में देरी का दावा फर्जी!

कोराना के कहर के बीच अस्पतालों में ऑक्सीजन की भारी किल्लत हो गई है। मरीज ऑक्सीजन के लिए मारे-मारे फिर रहे हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने अस्पतालों में कुछ ही घंटों की ऑक्सीजन बाकी रहने के बाद केंद्र सरकार से मदद की गुहार लगाई तो इस मुद्दे पर आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति शुरू हो गई। ऑक्सीजन सप्लाई में देरी का ठीकरा किसान आंदोलन पर फोड़ने के प्रयास किये जा रहे हैं। असलीभारत.कॉम के फैक्ट चैक में इन दावों का पर्दाफाश हुआ है।

बीते दो-तीन दिनों से यह झूठ बड़ी तेजी से फैलाया जा रहा है कि दिल्ली बॉर्डर पर किसान आंदोलन के चलते ऑक्सीजन सप्लाई में बाधा हो रही है। यह खबर सबसे पहले नेटवर्क18 के पत्रकार अमन शर्मा ने सरकारी सू्त्रों के हवाले से फैलायी। दावा किया गया कि दिल्ली बॉर्डर पर किसान के जाम की वजह से ऑक्सीजन सप्लाई करने वाली फर्म के वाहनों को काफी घूमकर आना पड़ रहा है। सरकारी सूत्रों पर आधारित इस खबर को हजारों लागों ने शेयर किया।

इस ट्वीट के बाद एक सत्ता परस्त पोर्टल ने खबर छापी कि ऑक्सीजन सप्लाई करने वाली कंपनी ने केंद्र सरकार को पत्र लिखकर ऑक्सीजन पहुंचाने में देरी के लिए दिल्ली बॉर्डर पर किसान आंदोलन को वजह बताया है। कंपनी का दावा है कि मोदीनगर यूनिट से दिल्ली के अस्पतालों तक पहुंचने के लिए 100 किलोमीटर की ज्यादा चलना पड़ रहा है। हैरानी की बात है कि यह खबर जिस पत्र के आधार पर लिखी गई, पूरी खबर में उसे कहीं नहीं छापा।     

जब असलीभारत.कॉम ने किसान आंदोलन की वजह से ऑक्सीजन आपूर्ति में बाधा के दावे की पड़ताल की तो यह दावा हवा-हवाई निकला। पहली बात तो यह है कि ऑक्सीजन को लेकर सिर्फ दिल्ली ही नहीं बल्कि देश के कई शहरों में हाहाकार मचा है। लखनऊ, अहमदाबाद व अन्य शहरों में जहां किसान सड़कों पर नहीं हैं, वहां भी मरीज ऑक्सीजन के लिए तड़प रहे हैं। जाहिर है कि ऑक्सीजन की किल्लत देश के कई शहरों में है। इसके लिए दिल्ली बॉर्डर पर बैठे किसानों को जिम्मेदार ठहराना अनुचित है।

हालात इतने बेकाबू हैं कि अस्पतालों को ऑक्सीजन के लिए सरकार से गुहार लगानी पड़ रही है। मैक्स हॉस्पिटल को दिल्ली हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ा तो अपोलो हॉस्पिटल ग्रुप की ज्वाइंट एमडी डॉ. संगीता रेड्डी ने हरियाणा पुलिस पर ऑक्सीजन टैंकर को रोकने का आरोप लगाया है।

ऑक्सीजन को लेकर राज्यों के बीच शर्मनाक खींचतान चल रही है। हरियाणा के मंत्री स्वास्थ्य मंत्री अनिल विज ने तो दिल्ली सरकार पर ऑक्सीजन टैंकर लूटने का आरोप लगा डाला। दिल्ली के डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया का कहना है कि केंद्र सरकार द्वारा कोटा बढ़ाये जाने के बावजूद हरियाणा और उत्तर प्रदेश सरकार ऑक्सीजन की सप्लाई रोक रही हैं। कल दिल्ली को 378 MT की जगह सिर्फ 177 MT ऑक्सीजन मिली। स्पष्ट है कि ऑक्सीजन की समस्या मांग और आपूर्ति में अंतर और राज्यों के बीच तालमेल न होने के कारण हो रही है। केंद्र सरकार के स्तर पर प्लानिंग की कमी भी बड़ा कारण है। किसान किसान आंदोलन को इसमें बेवजह घसीटा जा रहा है।

जहां तक किसानों द्वारा ऑक्सीजन की आपूर्ति बाधित करने के आरोप का सवाल है, उसकी सच्चाई गूगल मैप बता देगा। असल में मोदीनगर से दिल्ली जाने के लिए गाजीपुर बॉर्डर जाने की जरूरत ही नहीं है। मोदीनगर से शहादरा या भजनपुरा होते हुए दिल्ली का सीधा रास्ता हैैै। दिल्ली में पश्चिम विहार के जिस अस्पताल तक ऑक्सीजन पहुंचानी थी, वह मोदीनगर से करीब 60 किलोमीटर दूूर है। फिर टैंकर को 100 किलोमीटर एक्सट्रा कैसे चलना पड़ा? ऐसी खबरें छापने वालों को वह रूट मैप दिखाना चाहिए। सवाल यह भी उठता है कि सीधा रास्ता छोड़कर ऑक्सीजन टैंकर गाजीपुर बॉर्डर क्यों भेजे जा रहे हैं?

अगर मान भी लें कि टैंकर को गाजीपुर बॉर्डर से ही दिल्ली जाना पड़ा, तब भी किसानों द्वारा ऑक्सीजन आपूर्ति में बाधा पहुंचाने की बात सही नहीं है। क्योंकि किसानों ने पहले दिन से ही एंबुलेस और आपात सेवाओं के लिए साइड में रास्ता खुला छोड़ रखा था। किसान नेता राकेश टिकैत का कहना है कि किसानों ने एक भी एंबुलेंस या जरूरी सेवा को नहीं रोका। बल्कि 26 जनवरी के बाद दिल्ली पुलिस ने खुद ही कीलें और बैरीकेड लगाकर एंबुलेंस लेन बंद करा दी थी। किसान लगातार रास्ता खोलने की मांग कर रहे हैं। लेकिन सरकार अपनी नाकामी छिपाने के लिए ऑक्सीजन की कमी का ठीकरा किसानों के सिर फोड़ने का प्रयास कर रही है।  

वास्तविकता यह है कि दिल्ली के गाजीपुर बॉर्डर पर किसान हाईवे के किनारे बैठे हैं जबकि बाकी लेन पुलिस ने खुद बंद करायी हैं। पुलिस चाहे तो किसान आंदोलन के बावजूद वाहनों की आवाजाही सामान्य हो सकती है, क्योंकि अब वहां बहुत कम किसान मौजूद हैं। सिंधू और टिकरी बॉर्डर पर भी किसानों से बातचीत कर सरकार आवश्यक सेवाओं के लिए ग्रीन कॉरिडोर बना सकती थी। लेकिन ऐसा करने की बजाय पुलिस ने खुद की भारी-भरकम बैरीकेड लगाकर रास्ते बंद कर दिये।   

इस बीच, किसान आंदोलन की वजह से ऑक्सीजन आपूर्ति बाधित होने के दावे की पोल खोलने वाले वीडियो सामने आए हैं। दिल्ली के जीटीबी हॉस्पिटल को ऑक्सीजन पहुंचाने वाले टैंकर के ड्राइवर ने पत्रकार संदीप सिंह को बताया कि किसानों ने उसे नहीं रोका, बल्कि ऑक्सीजन टैंकर को देखकर किसानों ने रास्ता खाली करवा दिया था। यानी, किसानों के धरने की वजह से ऑक्सीजन सप्लाई बाधित होने का दावा गलत है।

यहां बड़ा सवाल यह है कि मोदीनगर से दिल्ली जाने के लिए ऑक्सीजन टैंकर को गाजीपुर बॉर्डर घूमाकर जाने की क्या आवश्यकता थी? जबकि मोदीनगर से दिल्ली का सीधा रास्ता है। इस बात को इस वीडियो के जरिये समझिये

उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि देश में ऑक्सीजन की कमी को किसान आंदोलन से जोड़ना सरासर गलत है। दिल्ली बॉर्डर के रास्ते किसानों ने नहीं बल्कि पुलिस ने बंद किये हैं। संयुक्त किसान मोर्चा के नेता सिंधु बॉर्डर पर भी जरूरी सेवाओं के लिए जीटी करनाल रोड़ का एक हिस्सा खोलने को तैयार हैं। वहां भी दिल्ली पुलिस ने बैरिकेड लगाए हुए हैं। मोदीनगर से दिल्ली जाने के लिए तो गाजीपुर बॉर्डर जानेे की जरूरत ही नहीं है। मोदीनगर से दिल्ली की दूरी भी इतनी नहींं है कि 100 किलोमीटर का चक्कर फालतू लगाना पड़े।

शर्मनाक बात है कि लोग ऑक्सीजन के लिए तरस रहे हैं। जब देश में ऑक्सीजन प्लांट लगने चाहिए तब सरकारी सूत्रों के जरिये किसानों के खिलाफ फर्जी खबरें प्लांट करवायी जा रही हैं।

घुमंतू समुदाय: आशियाने की आस में समाज के हाशिये पर खड़े लोग

दोपहर के करीबन दो बजे हैं, तेज धूप और धूल भरी गर्म हवा से बचने के लिए गुरजीत तीन बच्चों के साथ अपने झोपड़ीनुमा तम्बू में बैठे हैं। चार साल की लाड्डो मिट्टी के कच्चे फर्श पर खेल रही हैं। वहीं दो बेटों में से एक गुरजीत की गोदी में है तो दूसरा बेटा करीबन दस बाई दस के काली तिरपाल के बने तम्बू में इधर-उधर अटखेलियां कर रहा है। गुरजीत के परिवार के अलावा तम्बू में एक कुत्ता है जो भरी दोपहरी में खाट के नीचे सुस्ता रहा है, एक बकरी है जो अन्दर ही बंधी है और बीच-बीच में मिमियां रही है।

करनाल से 15 किलोमीटर दूर जुन्डला-जानी रोड पर करीबन 40 साल से बागड़ी लौहार समुदाय के 20 परिवार रह रहे हैं। इन्हीं में गुरजीत का परिवार भी है। तीस की उम्र पार कर चुके गुरजीत उदासी भरे लहजे में कहते हैं, “हमारा भी कुछ हल होना चाहिए। बचपन से लेकर आज तक हमारी जिन्दगी इसी तरह के तम्बू में कट गई। कम-से-कम हमारे बच्चे तो इस तरह की जिंदगी न गुजारे। हमारे पास सरकारी सुविधा तो दूर रहने के लिये जमीन तक नहीं है।”

बेटे को गोद से उतारकर खाट पर लेटाते हुए गुरजीत ने बताया, “मेरा जन्म यहीं हुआ है और आज से करीबन दस साल पहले तक हमारे आसपास कोई घर नहीं था। यहां केवल हमारा ही कबीला था जिसमें हमारे 15 परिवार थे, लेकिन अब हमारे आसपास रिहायशी कॉलोनी कटने से नए घर बन रहे हैं।”

तिरपाल के आशियाने में बेहतर भविष्य का इंतज़ार

लोग अब तंग गलियों से बाहर खुले में आ रहे हैं। जैसे-जैसे खाली पड़ी जमीन में रिहायशी प्लॉट कटने से लोगों के पक्के मकान बन रहे हैं, वैसे-वैसे इनके तम्बू लगाने की जमीन सिकुड़ती जा रही है। गुरजीत ने बताया, “कुछ महीने पहले तक मेरे पिता भी हमारे साथ बगल के प्लॉट में रहते थे, लेकिन प्लॉट के मालिक ने घर बनाने की बात कही और तम्बू हटवा दिया। अब मेरे पिता यहां से करीबन 30 किलोमीटर दूर गांव बाल-पबाना के बागड़ी लौहार कबीले के पास रहते हैं। उन्होने वहीं अपना तम्बू डाल लिया है। यहां आसपास खाली पड़े प्लॉट के मालिक भी हमें तम्बू लगाने से मना करते हैं।”

गुरजीत बच्चों की पढ़ाई को लेकर काफी सजग दिखे। उन्होंने बताया कि पूरे कबीले में उन्होंने और उनके साथ के लोगों ने कभी स्कूल का मुंह तक नहीं देखा। लेकिन अब वह चाहते हैं कि उनके बच्चे भी स्कूल जाए और समाज के दूसरे बच्चों की तरह पढ़ाई-लिखाई करें।

बागड़ी लौहार कबीले के सभी परिवार गांव देहात में प्रयोग होने वाले लौहे के बर्तन जैसे तवा, कढ़ाई, चिमटा, झरनी, खुर्पा, छाज आदि बनाते हैं। ये लोग इस तरह का सामान बनाकर आसपास के गांवों में ले जाकर बेचते हैं और बदले में आनाज या पैसे लेते हैं। गुरजीत भी अपनी जीविका के लिये यही काम करते हैं। वो बर्तन बनाते हैं और उनकी पत्नी गांव-गांव जाकर बर्तन बेचकर आती हैं। गुरजीत ने बताया कि अब यह काम भी मंदा पड़ चुका है क्योंकि लौहे के बर्तनों की जगह स्टील के बर्तनों ने ले ली है।

इसके बाद हमें गुरजीत पास में ही कबीले के दूसरे परिवार के पास ले जाते हैं। यह करीबन 55 साल की निर्मला का परिवार है जिसको कबीले वाले नरमा के नाम से बुलाते हैं। नरमा के पति फोटू अभी काम से बाहर गए हैं। नरमा अपने दो लड़कों और दो बहुओं के साथ बैठी बातें कर रही हैं। नरमा ने भी गुरजीत की बात दोहराते हुए कहा कि हमारा भी कुछ हल होना चाहिये। अपने दोनों बेटों की और इशारा करते हुए बताया “इन दोनों का जन्म यहीं हुआ है, बड़ा बेटा वकील तीस साल का और छोटा मीत 27 साल का हो गया है। दोनों के बच्चे भी हैं।”

करीबन 6 फुट लंबे और काले रंग का कुर्ता पायजामा पहने वकील ने बताया “हम अब तक के सभी सरपंच और कईं सरकारी अफसरों से गुहार लगा चुके हैं कि हमें भी रहने के लिए जमीन दी जाए, लेकिन आज तक किसी ने भी हमारी सुनवाई नहीं की।” वकील को रोकते हुए नरमा ने कहा, “हमारे पास राशन कार्ड, वोटर कार्ड, आधार कार्ड जैसे सारे कागज होते हुए और पिछले 40 साल से यहीं रहते हुए भी हम यहां के बाशिन्दे नहीं बन पाए।”

इसी बीच हमें बात करते देख नरमा के पड़ोसी धारा भी वहीं आ गए। दुबले-पतले और करीबन 55 साल के धारा ने आते ही कहा कि “हमारे लिए कोई कुछ नहीं करता, तुम जैसे पहले भी आ चुके हैं, एक बार तो हमें पानी में खड़े करके फोटो खींच कर ले गए थे लेकिन आज तक कुछ नहीं हुआ।” धारा ने सवाल पूछने के लहजे में कहा “देश और देश के लोग आगे बढ़ रहे होंगे, इससे हमें क्या? हम तो वहीं के वहीं बैठे हैं ना? हमारे पास तो रहने को एक जमीन का टुकड़ा और सिर पर छत तक भी नहीं है।”

नरमा के बड़े बेटे वकील ने बताया कि “हमारे पास पानी तक की भी सुविधा नहीं है, आस-पास के सब लोगों ने अपने घरों में सबमर्सिबल पंप लगवा रखे हैं। हम दूसरों के घर पानी लेने जाते हैं। लोग हड़का भी देते हैं, लेकिन क्या करें मजबूरी का नाम शुक्रिया है फिर चले जाते हैं, अब पानी तो पीना है, जिन्दा तो रहना है, तो अब लोगों के झिड़के खाने की आदत हो गई है।”

इस बैलगाड़ी के सहारे चलती है घुमंतू समुदायों की गृहस्थी की गाड़ी

मीत की पत्नी ने बताया, “सरकार ने घर-घर शौचालय बनवाये लेकिन हमारे यहां एक भी शौचालय नहीं बनवाया। हमने सरपंच को बहुत गुहार लगाई कि हमारे 15-20 घरों के लिए कम-से-कम एक शौचालय तो बनवा ही दें। शौचालय होगा तो हम बाहर खुले में जाने से बच जायेंगी, शौच के लिये हमें एक किलोमीटर दूर पैदल जाना पड़ता है।” पास में बैठी धारा की पत्नी मछली ने बताया कि “हमने खुद के पैसों से एक शौचालय बनवाया था, लेकिन वह भी पानी न होने के कारण बन्द पड़ा है।”

देश और दुनिया ने भले ही इनको न अपनाया हो, लेकिन ये लोग देश और दुनिया की पूरी खबर रखते हैं। वहीं पास में बैठीं वकील की पत्नी ने हताशा भरे लहजे में कहा “ये मोदी बस सड़क ही बना रहा है, इसके अलावा और कुछ नहीं करता” पत्नी के शुरू किये विषय को वकील ने आगे बढ़ाते हुए कहा “सुनयो यो मोदी सबो कछो बेची रिया (सुना है मोदी सब कुछ बेच रहा है) रेल, बैंक, जहाज और सरकार के पास जो भी है सब बेच रहा है, वहीं पास में कुर्सी पर बैठे छोटे भाई मीत ने पूछा, खरीद कौन रहा है? जवाब आया, “मोदियो को दोस्तो।” नरमा ने छूटते ही जवाब दिया, फेरो यो मोदिया कू भी गुजरातों भेजो दियो (फिर इस मोदी को भी गुजरात भेज दो)

तेजी से बदलते परिवेश में भी बागड़ी लौहार अपनी परंपरा और संस्कृति को सहेजे हुए हैं। इनकी बोली और पहनावे में कोई बदलाव नहीं आया है। महिलाएं और पुरुष वहीं पहनावा डालते हैं जो पहले से बड़े बुजुर्ग पहनते आए हैं। लड़का हो या लड़की बचपन से ही सबके कान छिदवा दिए जाते हैं। बड़े होने पर लड़कों के कानों में मुर्की डाल दी जाती हैं। वहीं महिलाएं आज भी घागरा पहनती हैं, नाक में बड़ा-सा कोका और गले में लम्बी लटकती मोतियों की माला।

मीत ने आगे बताया कि “अगर सरपंच चाहता तो सरकारी जमीन में से हमें भी थोड़ी बहुत जमीन दे सकता था। ये बगल में बनी गौशाला में जोहड़ (तलाब) की जमीन मिलाई गई, नई गौगा मेड़ी बनाई गई, ये भी तो इसी जोहड़ की जमीन में बनी है, बस वही है कि ये लोग हमें जमीन नहीं देना चाहते हैं।”

घुमंतू परिवारों के लिए शहरों में सिमटती जगह

नरमा ने डायरी की ओर देखते हुए कहा कि ये भी लिखो कि “लॉकडाउन में हमें देखने वाला कोई नहीं था। हमारी जिन्दगी तो डांगरों (जानवरों) से भी बदतर है, वो तो एक दूध का व्यापार करने वाले गुरदीप कमांडो ने हमारी मदद की वरना सरकार की ओर से तो हमें कुछ नहीं मिला, अगर गुरदीप हमारी मदद नहीं करता तो हम भूखे ही मर जाते।”

मीत ने बात आगे बढ़ाते हुए बताया कि “चुनाव में सब वोट मांगने आते हैं और ऐसे-ऐसे वादे करके जाते हैं जैसे चुनाव जीतते ही सबसे पहले हमारा काम करेंगे, लेकिन चुनाव जितने के बाद यहां कोई हमें देखने तक नहीं आता। चुनाव में लोग तरह-तरह के फायदे उठाते हैं, लेकिन हमने आज तक किसी नेता का पानी तक नहीं पीया।”

वहीं जानवरों के साथ इन लोगों का खासा लगाव है, ये लोग अपने साथ कबिले में मुर्गे, कुत्ते, बकरी, गाय, भैंस, बैल रखते हैं। लौहे के बर्तनों का काम कम होने के कारण ये लोग अब गाय, भैंस खरीदने-बेचने का काम भी करने लगे हैं। इस नये काम से मुनाफा कमाकर पूरे कबीले में से केवल वकील ने ही अब तक अपना एक प्लॉट खरीदा है। वकील के प्लॉट खरीदने की सभी को बराबर खुशी है।

वहीं गांव के सरपंच से फोन पर बात कि तो उन्होने बताया कि गांव के पास पंचायती जमीन नहीं है ऐसे में हम इन लोगों को रहने के लिये जमीन कहां से दें? पानी की व्यवस्था के बारे में पूछने पर सरपंच ने कहा कि पास में एक गौशाला और गोगा मेड़ी है जहां से ये लोग पानी भरते हैं। दूसरा बात यह है कि जहां ये लोग रह रहे हैं ये अन्य लोगों के प्लॉट हैं, हम किसी के प्लॉट में नलकूप या सबमर्सिबल नहीं लगा सकते।

बागड़ी लौहार, घुमंतू और अर्ध घुमंतू समुदाय से आते हैं। रेनके आयोग की 2008 की रिपोर्ट के अनुसार देशभर में करीब 1,500 घुमंतू और अर्ध-घुमंतू जनजातियां हैं। ये जनजाति पूरी तरह से सामाजिक और आर्थिक रूप से हाशिए पर हैं, जिनमें से बागड़ी लौहार जैसी जनजातियां अपने मूल मानवाधिकारों से भी वंचित हैं।

राष्ट्रीय विमुक्त घुमंतू वेलफेयर संघ के महासचिव बालक राम सान्सी ने बताते हैं कि हम पिछले 20 साल से घुमंतू और अर्ध घुमंतू समुदायों के लिए संघर्ष कर रहे हैं, लेकिन किसी भी सरकार में हमारी कोई सुनवाई नहीं हुई। सरकार बजट में थोड़ा बहुत जो भी देती है वो भी खर्च नहीं कर पाती। सरकार और प्रशासन के लोगों ने हमेशा से विमुक्त घुमंतू समाज की अनदेखी की है।

विकास को लेकर महात्मा गांधी जी ने कहा था कि जब भी कोई काम हाथ में लें तो यह ध्‍यान में रखें कि इससे सबसे गरीब और समाज के सबसे अंतिम या कमजोर व्यक्ति का क्‍या लाभ होगा? लेकिन विडंबना है कि आज तक हमारी सरकारें महात्मा गान्धी के इस कथन को लागू नहीं कर सकीं। जिसके चलते इन लोगों तक सरकारी योजनाओं का कोई लाभ नहीं पहुंच पा रहा है। 

हरियाणा में पत्रकार ने दंगों की साजिश से आगाह किया तो उल्टा उसी पर केस दर्ज

हरियाणा के हिसार जिले में मीडिया पोर्टल ‘द इंक’ के पत्रकार राजेश कुंडू पर धारा 66f, 153-A और 153-B के तहत मुकदमा दर्ज किया है। यह मुकदमा हिसार पुलिस के जनसंपर्क अधिकारी विकास लोहचब ने दर्ज करवाया है।

कुंडू शुरु से ही किसान आंदोलन कवर कर रहे हैं और उन्होंने कुछ समय पहले ही आंदोलन से ध्यान भटकाने के लिए तैयार की गई जातीय दंगों की कथित साजिश का भंडाफोड़ करने के लिए एक रिपोर्ट की थी और लोगों को आगाह करते हुए एक फेसबुक पोस्ट भी लिखी थी। लेकिन हरियाणा पुलिस ने उल्टे उनके ऊपर ही मुकदमा दर्ज किया गया है।

पत्रकार राजेश कुंडू ने बताया, “मैंने हाल ही में एक रिपोर्ट की थी, जिसमें मैंने बताया था कि कैसे सत्तापक्ष किसान आंदोलन के दौरान गुरू जम्भेश्वर यूनिवर्सिटी में मूर्ति स्थापना करवाने के पीछे जातीय दंगे करवाना चाहता है। ताकि किसान आंदोलन को तोड़ा जा सके और उससे ध्यान हटाया जा सके। उसी से संबंधित मैंने फेसबुक पर पोस्ट लिखकर लोगों को यह जानकारी दी थी। अब आप बताइए कि जातीय दंगों को लेकर आगाह करते हुए रिपोर्ट करना और फेसबुक पोस्ट लिखना गुनाह कैसे हो गया।”

इस मामले को लेकर सोशल मीडिया पर लोगों ने आपत्ति जतानी शुरू कर दी है। पत्रकारों ने सोशल मीडिया पर राजेश कुंडू के समर्थन में लिखना शुरू कर दिया है और पत्रकारों की संस्थाएं थी उनके समर्थन में आई हैं। “हरियाणा यूनियन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट” ने बयान जारी करते हुए कहा है, “राजेश कुंडू पर पुलिस द्वारा किया गया झूठा आपराधिक मामला दर्ज करने की हरियाणा के सारे पत्रकार कड़े शब्दों में निंदा करते हैं और सरकार से मांग करते हैं कि दर्ज मुकदमा वापस लिया जाए, नहीं तो पूरे प्रदेश में पत्रकार आंदोलन करेंगे।”

यूनियन के प्रधान अजय मल्होत्रा ने इस बारे में यूनियन की बैठक भी बुलाई है। यूनियन के प्रदेश वरिष्ठ उपप्रधान अनिल शर्मा ने बताया कि इस मामले को लेकर रोहतक के पत्रकार संकेतिक धरना देंगे और जब तक मामला वापस नहीं हो जाता, आंदोलन जारी रहेगा। हरियाणा के जिला प्रेस क्लबों ने भी राजेश कुंडू पर दर्ज मुकदमे को लेकर निष्पक्ष जांच कर मामला वापस लेने की मांग की है। रोहतक जिला प्रेस क्लब ने कहा है कि अगर इस मामले में जरुरत पड़ी तो पत्रकार मुख्यमंत्री से भी मुलाकात करने जाएंगे।

पत्रकार राजेश कुंडू के खिलाफ दर्ज एफआईआर के अंश

राजेश कुंडु पर लगाई गई धाराओं पर पंजाब हरियाणा हाईकोर्ट के वकील रविन्द्र सिंह ढुल्ल ने बताया, “उन पर आईपीसी की धारा 66F, 153 A, 153 B के तहत केस दर्ज किया है। उनके मामले में सबसे खतरनाक धारा जो लगाई है वो है 66F यानी साइबर टेररिज्म। हरियाणा पुलिस के अनुसार राजेश आतंकवादी है और इस पोस्ट के लिए राजेश को उम्र कैद मिलनी चाहिए। हम भी इस धारा को देखकर हैरान हैं।”

कुंडू के समर्थन में किसान यूनियनों ने भी बयान जारी किये हैं। भारतीय किसान यूनियन (चढूनी) ने बयान जारी कर कहा है, “किसानों की आवाज को बुलंद करने वाले जाबांज पत्रकार राजेश कुण्डू पर मुकदमा दर्ज करना बीजेपी सरकार की घिनौनी हरकत है। सरकार न्याय के लिए उठती हर आवाज को दबाना चाहती है। भारतीय किसान यूनियन राजेश कुण्डू के साथ खड़ी है और तानाशाही हरकतों पर रोष प्रकट करती है। जातीय दंगों की स्क्रिप्ट का भंडाफोड़ कर राजेश कुंडू ने समाज का भला किया है। सारे किसान और समाज उनके साथ खड़ा है।”

इस मामले में शिकायतकर्ता हिसार पुलिस के जनसंपर्क अधिकारी विकास लोहचब हैं। उन्होंने बताया, “हमने उनपर शिकायत उनकी फेसबुक पोस्ट की वजह से की है। उनके फेसबुक पेज पर जाकर देखिए उन्होंने क्या लिखा है।” इतना बताकर लोहचब ने फोन काट दिया।

बजट के इंतजार में डॉ. अम्बेडकर की प्रतिमा, लोगों ने खुद जुटाया चंदा

करनाल के घरौंडा में रेलवे अंडरपास के नजदीक तिराहे के बीचो-बीच लगी डॉ. अम्बेडकर की खंडित प्रतिमा पिछले दो महीने से हवा में लहराते तिरंगे की छाव तले नीले रंग की तिरपाल में लिपटी हुई खड़ी है। कुछ असामाजिक तत्वों ने सात फरवरी की रात को डॉ. अम्बेडकर की प्रतिमा को खंडित कर दिया था। घरौंडा पुलिस ने आईपीसी की धारा 295 के तहत अज्ञात लोगों के खिलाफ मामला दर्ज किया। प्रतिमा को टूटे हुए दो महीने से ज्यादा बीत गए हैं, लेकिन अब तक पुलिस न तो दोषियों को पकड़ पाई और न ही प्रशासन ने अब तक नई प्रतिमा लगवाई गयी।

डॉ. अम्बेडकर की प्रतिमा तोड़े जाने के विरोध में स्थानीय लोगों ने धरना प्रदर्शन किया और हाइवे जाम करने की चेतावनी दी। लोगों की नाराजगी को देखते हुए एसडीएम ने नई प्रतिमा लगवाने का अश्वासन दिया। एक ओर डॉ. भीमराव अम्बेडकर के सम्मान में अमेरिका की कोलंबिया यूनिवर्सिटी (न्यूयार्क) की हर्बर्ट लेमन लाइब्रेरी में उनकी प्रतिमा लगी है और अम्बेडकर की आत्मकथा ‘वेटिंग फॉर ए वीजा’ भी यूनिवर्सिटी के पाठ्यक्रम में पढ़ाई जाती है तो वहीं दूसरी ओर भारत में डॉ. अम्बेडकर की मूर्तियों को खंडित करने के मामले सामने आते हैं।

घरौंडा में डॉ. अम्बेडकर की प्रतिमा के पास लगी पत्थर की बेंच पर बैठे दो दोस्तों में से दसवीं में पढ़ने वाले हिमांशु बताते हैं, “पिछले दो साल में यह दूसरी घटना है जब डॉ. अम्बेडकर की प्रतिमा तोड़ी गई है। पिछली बार जब प्रतिमा तोड़ी गई थी तो टूटा हुआ हिस्सा यही पड़ा मिला था। इस बार गुंडागर्दी करने वाले लोग प्रतिमा की बाजू तोड़कर ले गये।”

अम्बेडकर प्रतिमा से करीब 200 मीटर दूर एक छोटे से तिरपाल के तम्बू में मोची का काम करने वाले करीब 64 वर्षीय रोहताश ने बताया कि “कई लोग बाबा साहब की प्रतिमा और उनसे जुड़े हुए लोगों को देखना पसंद नहीं करते। उन्हें आगे बढ़ते नहीं देख सकते। वे समझते हैं कि बाबा साहब केवल एक ही समाज के थे। उनको समझना चाहिये कि बाबा साहब अम्बेडकर ने पूरी मानवता के लिए काम किया है।” रोहताश इससे पहले राजमिस्त्री का काम करते थे, लेकिन स्वास्थ्य खराब होने के कारण अब वो मोची का काम कर रहे हैं। यह काम उन्होने अपने पिता से सीखा था। खंडित प्रतिमा के मसले पर ज्यादा पूछने पर रोहताश ने डॉ. भीमराव अम्बेडकर युवा समिति के संरक्षक मलखान का फोन नंबर थमा दिया।

मामले में दर्ज एफआईआर
करनाल आयुक्त को दिया ज्ञापन

मलखान ने बताया कि 2019 से अब तक बाबा साहब की मूर्ति को खंडित करने की यह दूसरी घटना है। लेकिन एक बार भी पुलिस दोषियों को नहीं पकड़ पायी। मलखान ने बताया कि पिछली बार प्रतिमा तोड़ी गई थी तो लोगों के दबाव में अम्बेडकर प्रतिमा के पास सीसीटीवी कैमरे लगाये गए थे। प्रशासन और नगर पालिका के बेपरवाही के चलते सीसीटीवी कैमरे खराब पड़े थे जिसके कारण 7 फरवरी की रात को मूर्ति तोड़ने की घटना कैमरों में कैद नहीं हो सकी।

डॉ. भीमराव अम्बेडकर युवा समिति के अध्यक्ष जगदीश ने बताया कि इस बार हमने प्रशासन से पत्थर की बजाए धातु से बनी प्रतिमा लगवाने की मांग की थी, ताकि कोई शरारती तत्व फिर से प्रतिमा को खंडित न कर सके। शुरुआत में एसडीएम साहब ने हमें अश्वासन दिया कि जल्द से जल्द खंडित प्रतिमा के स्थान पर नई प्रतिमा लगवा दी जायेगी, लेकिन एक महीने से ज्यादा समय बीतने के बाद जब दोबारा एसडीएम के पास गए तो उन्होने कहा कि धातु की प्रतिमा का बजट उनकी क्षमता से बाहर है। इसके लिए हमें करनाल उपायुक्त से मांग करनी होगी। इसके बाद जब हम डीसी साहब से मिले तो उन्होंने मामले को मुख्यमंत्री के सामने रखने की बात कही और इसके लिए 10 अप्रैल तक का वक्त दिया।

समिति के सदस्य और एक प्राइवेट बैंक में काम करने वाले रवि ने बताते हैं, “घरौंडा के आस-पास के करीब 108 गांवों में बाबा साहब की यह केवल एक ही प्रतिमा है, लेकिन कुछ लोगों की आंखों में यह भी चुभ रही है। एक ओर पीएम मोदी डॉ. बाबा साहब अम्बेडकर के नाम पर बड़े-बड़े काम करने का दावा करते हैं वहीं दूसरी ओर उन्ही की पार्टी के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर की सरकार ने बाबा साहब की टूटी हुई प्रतिमा को बदलवाने के नाम पर हाथ खड़े कर दिये।”

घरौंडा की एक जूते की एक फैक्ट्री में काम करने वाले मजदूर संदीप मानते हैं कि इस सरकार की केवल एक ही नीति है। किसी भी तरह गरीब और दलितों को परेशान करो। समिति के संरक्षक मलखान ने बताया, “मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर 5 अप्रैल को करनाल दौरे पर आए तो जिला उपायुक्त ने सीएम के सामने हमारी मांग रखी थी, लेकिन प्रतिमा का बजट पास नहीं हुआ।” मलखान कहते हैं कि प्रशासनिक अधिकारी और सरकार उनके साथ भेदभाव कर रहे हैं। एक ओर सरकार के पास करनाल में करोड़ों रुपये खर्च करके गेट बनाने का बजट है, लेकिन जब बात देश के महापुरुष की मूर्ति बनवाने की आती है तो सरकार का बजट कम पड़ जाता है। मलखान ने आगे बताया कि बाबा साहब की प्रतिमा खंडित हुए दो महीने से ज्यादा का वक्त बीत चुका है, लेकिन कई बार के अश्ववासन के बाद भी सरकार और प्रशासन ने उनकी मांग स्वीकार नहीं की है।

दो महीने से तिरपाल में लिपटी डॉ. अम्बेडकर की टूटी प्रतिमा

मलखान ने घरौंडा से बीजेपी के विधायक हरविंदर कल्याण पर आरोप लगाते हुए कहा, “हमारे दलित समाज ने किसान आंदोलन को अपना पूरा समर्थन दिया है। तब से सरकार के अधिकारी और नेता हमें निशाना बना रहे हैं। धातु की मूर्ति के लिए बजट पास न होने के पीछे भी ऐसी ही मानसिकता काम कर रही है। सरकार और प्रशासन के खोखले दावों से हताश होकर हम लोगों ने अपने समाज के लोगों से ही पैसा इकठ्ठा करना शुरू किया और अब हमने अलीगढ़ के एक कारीगर को धातु की प्रतिमा बनाने का ऑर्डर दे दिया है। 14 अप्रैल को डॉ. बाबा साहब अम्बेडकर की जयंती से पहले खंडित प्रतिमा के स्थान पर धातु की नई प्रतिमा लगाएंगे और पूरे जोश और उल्लास के साथ बाबा साहब की जयंती मनाएंगे।”

वहीं घरौंडा नगरपालिका के सचिव रवि प्रकाश ने सफाई देते हुए कहा, “हमने समिति के सदस्यों को मैटल की मूर्ति लगाने का आश्वासन नहीं दिया था। नगरपालिका कर्मचारी पत्थर की नई प्रतिमा लगाने गए थे, लेकिन स्थानीय लोगों ने पत्थर की मूर्ति लगाने से मना कर दिया। वो लोग धातु की प्रतिमा लगाने की मांग कर रहे हैं और धातु की मूर्ति लगाने के लिए हम सक्षम नहीं हैं।”

उर्वरकों की कीमतों में भारी बढ़ोतरी पर इफको की भयंकर लीपापोती

ऐसे समय जब देश में किसान आंदोलन चल रहा है, पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव और उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव की सरगर्मियां तेज हैं, तब खेती से जुड़ी एक खबर ने किसानों की नाराजगी बढ़ा दी है। उर्वरक बनाने वाले देश के सबसे बड़े संगठन इंडियन फार्मर्स फर्टिलाइजर कोआपरेटिव लिमिटेड (इफको) ने डीएपी समेत कई उर्वरकों के दाम 45 फीसदी से लेकर 58 फीसदी तक बढ़ा दिये हैं। डीएपी के 50 किलो के कट्टे का दाम 1200 रुपये से बढ़ाकर 1900 रुपये कर दिया है। डीजल व बाकी चीजोंं की महंगाई से जूझ रहे किसानों पर यह बड़ी मार है।

मामले के तूल पकड़ने के बाद इफको ने सफाई दी है कि ये दाम अस्थायी हैं और किसानों को पुराने रेट के उर्वरक ही बेचे जाएंगे। लेकिन कीमतों को लेकर मचे इस विवाद से उर्वरकों की कालाबाजारी का खतरा पैदा हो गया है। इफको की सफाई पर भी कई सवाल खड़े हो रहे हैं।

उर्वरकों की कीमतों में बढ़ोतरी का खुलासा 7 अप्रैल को इफको के मार्केटिंग डायरेक्ट योगेंद्र कुमार की ओर से स्टेट मार्केटिंग मैनेजरों को भेजे गये एक विभागीय पत्र से हुआ है। इस पत्र के मुताबिक, डीएपी के अलावा चार अन्य उर्वरकों की कीमतें बढ़ायी गई हैं। एनपीके (10:26:26) की कीमत 1175 रुपये बढ़कर 1775 रुपये, एनपीके (12:32:16) की कीमत 1185 रुपये से बढ़कर 1800 रुपये, एनपीएस (20:20:0:13) की कीमत 925 रुपये से बढ़कर 1350 रुपये और एनपीके (15:15:15) की कीमत 1500 रुपये प्रति बैग तय की गई है। पत्र में कहा गया है कि नई कीमतें एक अप्रैल, 2021 से लागू होंगी और डीएपी व एनपीके का पुराना स्टॉक पुराने दाम पर बेचा जाएगा।

उर्वरकों की कीमतों में यह अब तक की सबसे बड़ी बढ़ोतरी मानी जा रही है। इसके लिए अंतराष्ट्रीय बाजार में कच्चे माल की बढ़ती कीमतों को वजह बताया गया है। किसानों और विपक्ष के नेताओं ने इस मामले पर सरकार को घेरते हुए खासी नाराजगी जाहिर की है। कांग्रेस के सांसद दीपेंद्र सिंह हुड्डा ने मोदी सरकार पर तंज कसते हुए कहा कि किसानों को क्या पता था कि किसान सम्मान निधि से कई गुना ज्यादा पैसा उनसे ही वसूला जाएगा।

संयुक्त किसान मोर्चा ने एक बयान जारी कर उर्वरकों की कीमतों में बढ़ोतरी को लेकर आंदोलन तेज करने की चेतावनी दी है। सोशल मीडिया पर यह मुद्दा काफी चर्चाओं में है। एक मोटे अनुमान के मुताबिक, एक एकड़ खेती में लगभग एक कुंतल डीएपी का इस्तेमाल होता है। इस तरह प्रति एकड़ लगभग 1400 रुपये का खर्च केवल एक उर्वरक पर बढ़ जाएगा। डीएपी के अलावा यूरिया, देसी खाद और कीटनाशकों की लागत अलग है। प्रमुख उर्वरकों के दाम में 50 फीसदी से ज्यादा की बढ़ोतरी किसानों पर बहुत बड़ा बोझ है, जिससे किसानों की नाराजगी बढ़नी तय है। खेती की बढ़ती लागत को देखते हुए सरकार पर आगामी खरीफ फसलों के एमएसपी बढ़ाने का दबाव भी बढ़ जाएगा।

पुराने स्टॉक की आड़ में इफको की सफाई

कायदे से तो इफको जैसी सहकारी संस्था को खुद ही नई कीमतों का ऐलान करना चाहिए था। लेकिन ऐसा ना करते हुए पूरे मामले पर लीपापोती की कोशिशें की जा रही हैं। इफको के एमडी और सीईओ डॉ. यूएस अवस्थी ने नियंत्रण-मुक्त उर्वरकों की कीमतों में वृद्धि के लिए किसी राजनीतिक दल या सरकार को जिम्मेदार ठहराने पर आपत्ति व्यक्त करते हुए कई ट्वीट किये।

डॉ. यूएस अवस्थी के ट्वीट के मुताबिक, इफको 11.26 लाख टन कॉम्प्लेक्स उर्वरकों की बिक्री पुरानी दरों पर ही करेगी। बाजार में उर्वरकों की नई दरें किसानों को बिक्री के लिए नहीं हैं। एक ट्वीट में उन्होंने यहां तक कहा कि पत्र में उल्लिखित मूल्य केवल बैगों पर दिखाने के लिए हैं। क्योंकि फैक्ट्री में बने माल पर मूल्य अंकित करना पड़ता है। इफको मार्केटिंग टीम को निर्देश दिया गया है कि किसानों को केवल पुराने मूल्य वाले उर्वरक ही बेचे जाएं।

सवाल उठाता है कि अगर उर्वरकों के नये रेट किसानों के लिए नहीं हैं तो फिर किसके लिए हैं। जब पुराना स्टॉक खत्म हो जाएगा, तब उर्वरक किस रेट पर बिकेंगे? इफको ने खुद ही उर्वरकों के दाम बढ़ाये हैं तो फिर मामले को इतना क्यों घुमाया जा रहा है?

स्पष्ट है कि इफको ने उर्वरकों के दाम में बढ़ोतरी वाले अपने पत्र को खारिज नहीं किया है। लेकिन मामले को दबाने या कुछ दिनों के लिए टालने की कोशिश जरूर की जा रही है। इफको का यह कहना बहुत अजीब है कि नये मूल्य केवल बैगों पर दिखाने के लिए हैं और किसानों को बिक्री के लिए नहीं है। अगर उर्वरकों को पुराने रेट पर ही बेचना था तो रेट बढ़ाये ही क्यों? क्या पुराना स्टॉक खत्म होने के बाद उर्वरक नई कीमतों पर नहीं बिकेंगे? ये सवाल खूब उठा रहे हैं।

अंतरराष्ट्रीय कीमतों पर दोहरा रवैया

उर्वरकों के दाम में बढ़ोतरी के लिए अंतराष्ट्रीय बाजार में कच्चे माल की कीमतों को वजह बताया जा रहा है। हैरानी की बात है कि जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट आती है तो पेट्रोल-डीजल के दाम कम नहीं होते, लेकिन उर्वरकों के दाम कच्चे माल की अंतरराष्ट्रीय कीमतों में वृद्धि के नाम पर बढ़ाये जा रहे हैं। यह दोहरा मापदंड किसानों पर दोहरी मार डाल रहा है।

कालाबाजारी का खतरा

उर्वरक की कीमतों को लेकर पैदा की जा रही गलतफहमी का फायदा जमाखोर उठा सकते हैं। इसके अलावा प्राइवेट सेक्टर की कंपनियों को भी दाम बढ़ाने का मौका मिल सकता है। डॉलर के मुकाबले रुपया कमजोर हो रहा है और अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे माल की कीमतों में तेजी का रुझान है। इफको द्वारा बढ़ायी गई कीमतें अब सबके सामने हैं। ऐसे में कुछ लोग पुराने रेट का माल स्टॉक कर कालाबाजारी कर सकते हैं। इस आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता है।

मामले को चुनाव तक टालने का प्रयास

उर्वरकों की कीमतों में बढ़ोतरी का मुद्दा पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव के साथ-साथ यूपी के पंचायत चुनाव पर भी असर डाल सकता है। किसान आंदोलन में तो यह मुद्दा बनेगा ही। संभवत: इसलिए पुराने स्टॉक के नाम पर मामले को कुछ दिनों के लिए टालने का प्रयास किया जा रहा है। माना जा रहा है कि जल्द ही उर्वरकों की कीमतों में संशोधन कर डैमेज कंट्रोल का प्रयास किया जा सकता है।

जल्द तय हो सकते हैं संशोधित रेट

इफको से जुड़े सूत्रों का कहना है कि जिन देशों से उर्वरकों के लिए कच्चा माल आयात किया जाता है, वहां की कंपनियों के साथ बातचीत जारी है। इन सौदों के फाइनल होने के बाद उर्वरकों की कीमतें नए सिरे से तय हो सकती हैं। तब तक किसानों को पुराने रेट के उर्वरक बेचे जाएंगे। हालांकि, इफको के इन दावों की हकीकत जल्द ही सामने आ जाएगी, जब किसान खरीफ की बुवाई के लिए उर्वरक खरीदेंगे।

कहां चूकी सरकार?

अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे माल की कीमतों में तेजी का हवाला देते हुए प्राइवेट कंपनियां उर्वरकों के दाम पहले ही बढ़ा चुकी हैं। ऐसे में सरकार और सहकारिता की अहमियत बढ़ जाती है। कोराना काल में जिन किसानों ने समूची अर्थव्यवस्था को सहारा दिया, उन्हें महंगाई की मार से बचाना भी सरकार का फर्ज है। सरकार किसानों को रियायती दरों पर उर्वरक उपलब्ध कराने के लिए सब्सिडी देती है। अगर कच्चे माल की कीमतों में तेजी का रुख देखकर सरकार पहले ही सब्सिडी की दरें बढ़ा देती तो उर्वरकों की कीमतें इतनी ज्यादा ना बढ़ती। लेकिन ऐसा करने की बजाय किसानों को उनके हाल पर छोड़ने की नीति अपनाई जा रही है।