आज विवेकानंद को नये कट्टर हिन्दूत्व के दार्शनिक योद्धा के रूप में बदल दिया गया है

 

दोनों हाथों को मोड़कर छाती से सटाये और नेपोलियन की तरह टकटकी लगाकर कठोर मुद्रा बनाये स्वामी विवेकानंद हिन्दू धार्मिक प्रथाओं में दमन देखकर मानसिक वेदना के कारण विक्षिप्तता की ओर बढ़ रहे थे।विवेकानंद को निजी प्रेरणा मानने वालों में नरेंद्र मोदी अकेले व्यक्ति नहीं है। मगर कोई यह बताने सक्षम नहीं दिखता कि उनकी कौन से विचार प्रेरणा देते हैं अथवा प्रभावित करते हैं।

हिन्दू धर्म के प्रवृत्तियों को जानने के बाद बेचैन होकर स्वामी विवेकानंद ने कहा,”पृथ्वी पर ऐसा कोई धर्म नहीं है, जो हिन्दू धर्म की तरह इतने उन्नत भाव से मानवता की गरिमा की शिक्षा देता है और धरती पर मौजूद कोई अन्य धर्म न तो हिन्दू धर्म की तरह ग़रीबों और निम्न कोटि के लोगों की गर्दन पर पैर रखता है”। विवेकानंद के लिए आस्था का मुख्य बिंदु आध्यात्मिक आश्वासन नहीं था। उनके तर्क को नए और उग्र तर्ज पर ढेकहा गया जबकि उनके मानना था कि नैतिक शक्ति समाज की व्यवहारिक आवश्यकताओं को पूरा करने की उसकी क्षमता पर आधारित है।

1863 में एक बंगाली कायस्थ परिवार में जन्में नरेंद्र नाथ दत्त के एक भाई मार्क्सवादी क्रांतिकारी थे। अंग्रेजी बोलने वाले उनके वकील पिता तर्कवितर्कवादी और खुले विचारों वाले व्यक्ति थे। पिता के मृत्यु के बाद संपति को लेकर परिवार में हुए कलह ने उन्हें आध्यात्मिक संकट में डाल दिया। तब वे परिवार छोड़कर रामकृष्ण परमहंस के साथ समय बिताने लगे। वे इस बात से बहुत चिंतित रहते थे कि सामान्य लोग गरीबी और अज्ञान में जी रहे हैं। हिन्दू शासक शिकार कर रहे हैं। जानवरों की संभोग क्रिया देखकर मनोरंजन कर रहे हैं।

विवेकानंद की शिक्षा हिन्दू धर्म ग्रंथ के में संग्रहित और लिखित अधिकार से दूर व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर व्यवहारिक बनाने पर जोर देती है। यहां गुरु और उपदेशक की अनिवार्यता खत्म हो जाती है। उनका मानना था कि यहां कोई भी जरूरतमंदों और गरीबों की सेवा कर सत्य की ओर बढ़ सकता है। जो हिन्दू परंपराओं में सांस्कृतिक आत्मविश्वास और गौरव ला सकता है। विवेकानंद का मानना था कि हिन्दू धर्म की ऐतिहासिक दुर्दशा और रक्तिम संघर्ष से बचने के लिए रूढ़िवादी पुरोहितों और उनके हिन्दू धर्म की कथित पवित्र व्याख्या को नष्ट कर दिया जाये। उन्होंने शंकराचार्य के विचार को नकारते हुए कहा अश्वमेघ यज्ञ के उस अनुष्ठान को गुंडागर्दी बताया जिसमें राजा की संप्रभुता की आशा में रानी को मृत घोड़े के साथ संभोग करने का स्वांग करना होता था। विवेकानंद ने वेद का पुनर्पाठ किया और बुरी व्याख्याओं और अमानुषिक अनुष्ठानों को ख़ारिज कर दिया।

अगस्त, 1893 में न्यू इंगलैंड की सर्दी में ठिठुरते हुए और अमेरिकी चीजों की कीमतों पर चकराते हुए बत्तीस साल के विवेकानंद मैसाचुएट्स में महिलाओं के लिए बने सुधारगृह में गये। उन्हें यह देखकर बहुत हैरानी हुई कि कैसे जेलर वहां मौजूद सैकड़ों कैदियों से बहुत अच्छी तरह पेश आ रहे थे। उन जेलरों को जानबूझकर उन कैदियों के जुर्म से अनजान रखा गया था और वे उन्हें समाज में फिर से शामिल होने के लिए तैयार कर रहे थे। अपने देश में निम्न दर्जें और जाति के लोगों के साथ इस प्रकार गरिमापूर्ण व्यवहार की कल्पना भी नहीं कि जा सकती थी। वहां से उन्होंने अपने एक दोस्त को लिखा, “मेरा दिल यह सोचकर पीड़ा से भर उठता है कि भारत में हम गरीबों को कैसे देखते हैं। उनके पास कोई अवसर, बचने का कोई तरीका, ऊपर आने का कोई साधन नहीं होता… वे भूल चुके होते हैं कि वे भी मनुष्य है। इसका नतीजा है, गुलामी।” वे अमेरिका के सामाजिक खुलेपन, महिलाओं की तुलनात्मक स्वतंत्रता, अपने हितों के लिए लोगों की सामूहिक काम करने की क्षमता (उस समय श्रमिक संगठन मजबूत हो रहे थे) और सरकारी संस्थाओं द्वारा लोगों की व्यवहारिक आवश्यकताओं के अनुरूप काम करने से अभिभूत थे।

स्वामी विवेकानंद इस नतीजे पर पहुँचे कि पश्चिमी मुल्कों के लोगों के सफलता का रहस्य ‘ संगठन और संयोजन की शक्ति’ थी।उन्हें तत्काल लगा कि इस रहस्य को अपने देशवाशियों को बताया जाना चाहिए। विवेकानंद को अन्य अमेरिकी आदतों ने प्रभावित किया, जिसमें वहां के लोगों द्वारा गोमांस खाना भी शामिल था और विवेकानंद ने भारतीयों को सलाह दी थी कि स्वस्थ्य रहने तथा शरीर से मजबूत रहने के लिए ऐसा करे। उन्होंने अमेरिका के शरीर-सौष्ठव संस्कृति को अपनाया और वयायाम के तकनीकों को हिन्दू परिपाटी में शामिल किया।

जब भारतीय परिधानमंत्री नरेंद्र मोदी साल 2015 के मई महीने में लगभग 35,000 बच्चों, सैनिकों, नौकरशाहों का नेतृत्व करते हुए योगासन कर विश्व का सबसे बड़ा योग कक्षा का नाम दिया तब मुठ्ठी भर लोगों को भी पता नहीं होगा कि पश्चिमी लोगों के पास पहली बार पहुँचने वाली भारतीय दर्शन की प्रारंभिक रचनाओं में से एक आधुनिक योग, राजयोग को 1890 में अमेरिका में लिखा गया था और वह उस समय की अमेरिकी संस्कृति से प्रभावित थीं।

आज विवेकानंद को नये हिन्दू गौरव के दार्शनिक योद्धा के रूप में बदल दिया गया। आज एक ऐसी राजनीतिक विचारधारा इनके तस्वीर का दुरुपयोग करती है, जिसका लक्ष्य भारत के धार्मिक विविधता वाले समुदायों पर एकरूपता थोपना है। अब उन्हें हिन्दू संस्कृति की पुरुषत्व की आक्रामक संस्कृति का जनक के बतौर पेश करती है।